संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 158 ☆
व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने
निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है
हज़ारों हैं सफ़े जिन में न मय आई न जाम आया
रफ कापी मतलब पीरियड किसी भी विषय का हो, नोट्स जिस कापी में लिखे जाते थे, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज एक अदद रफ कापी हुआ करती थी जैसे गरीब की लुगाई गांव की भौजाई होती है. फिर भी रफ कापी अधिकृत नोटबुक नही मानी जाती.
छुट्टी के लिये आवेदन लिखना हो तो रफ कापी से ही बीच के पृष्ठ सहजता से निकाल लिये जाते थे, मानो सरकारी सार्वजनिक संपत्ति हो. रफ कापी के पेज फाड़कर ही राकेट, नाव और कागज के फ्लावर्स बनाकर ओरोगामी सीखी जाती थी. यह रफ कापी ही होती थी, जिसके अंतिम पृष्ठ में नोटिस बोर्ड की महत्वपूर्ण सूचनायें एक टांग पर खड़े होकर लिखी जाती थीं.
रफ कापी में ही कई कई बार लाइफ रिजोल्यूशन्स लिखे जाते थे, परीक्षायें पास आने लगती तो डेली रूटीन लिख लिख कर हर बीतते दिन के साथ बार बार सुधारे जाते थे. टीचर के व्याख्यान उबाऊ लग रहे होते तो रफ कापी ही क्लास में दूर दूर बैठे मित्रो के बीच लिखित संदेश वाहिका बन जाती थी, उस जमाने में न तो हर हाथ में मोबाइल थे और न एस एम एस, व्हाट्स एप की चैटिंग.
उम्र के किशोर पड़ाव पर रफ कापी के पृष्ठ पर ही पहला लव लेटर भी लिखा था, यदि ताजमहल भगवान शिव का पवित्र मंदिर नही, प्रेम मंदिर ही है तो चिंधी में तब्दील वह सफा, हमारे ताज बनाने की दास्तां से पूर्व उसकी स्वयम की गई भ्रूण हत्या थी. कुल मिलाकर रफ कापी हमारी पीढ़ी का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज रहा है. शायद जिंदगी का पहला व्यंग्य भी रफ कापी पर ही लिखा था मैंने.
नोट्स रि राइट करने की अपेक्षा रफ कापी के वे पन्ने जो सचमुच रफ वर्क के होते उन्हें स्टेपल कर रफ वर्क को दबा कर फेयर कापी में तब्दील करने की कला हम समय के साथ सीख गये थे. जब रफ कापी के कवर की दशा दुर्दशा में बदल जाती और कापी सबमिट करनी विवशता हो तो नया साफ सु्थरा ब्राउन कवर चढ़ा कर निजात मिल जाती. नये कवर में पुराना माल ढ़ंका, मुंदा बन्द बना रहता. बन्द सफों और ढ़ंके कवर को खोलने की जहमत कोई क्यों उठाता.
इस ढ़ांकने, मूंदने, अपनी गलतियों को छुपा देने, के मनोविज्ञान को नेताओ ने भली भांति समझा है, रफ कापी में टाइम पास के लिए हाशिये पर गोदे गये चित्र इतिहास और मनोविज्ञान के समर्थ अन्वेषी साधन हैं.
बरसों से सचाई की खोज महज शोधकर्ताओ की थीसिस या किसी फिल्म का मटेरियल मात्र मानी जाती रही है.
तभी तो आजाद भारत में भी किसी को ताजमहल के तलघर के बन्द कमरों, या स्वामी पद्मनाभ मंदिर के गुप्त खजाने के महत्वपूर्ण इतिहास को खोजने में किसी की गंभीर रुचि नही रही. मीनार पर मीनार, गुम्बद पर गुम्बद की सचाई को ढ़ांके, नये नये कवर चढ़े हुये हैं.
लम्बी अदालती कार्यवाहियों के स्टेपल, जांच कमेटियों की गोंद, कमीशन रिपोर्ट्स के फेवीकाल, कानून के उलझे दायरों के मुडे सिले क्लोज्ड पन्नो में बहमत के सारे मनोभाव, कौम की सचाई छिपी है. वोट दाता नाराज न हो जाएं सो उनके तुष्टीकरण के लिये देश की रफ कापी के ढेरों पन्ने चिपका कर यथार्थ छिपाई जाती रही है. शुतुरमुर्ग की तरह सच को न देखने से सच बदल तो नही सकता, पर यह सच बोलना भी मना है.
पर आज नोटबुक के सारे जबरदस्ती बन्द रखे गए पन्ने फडफड़ा रहे हैं उन्हें सिलसिलेवार समझना होगा क्योंकि अब मैं समझ रहा हूं कि रफ कापी के वे स्टेपल्ड बन्द पन्ने केवल रफ वर्क नहीं सच की फेयर डायरी है । जिनमें दर्ज है पीढ़ी की जिजिविषा, तपस्या, निष्ठा और तत्कालीन बेबसी की दर्दनाक पीड़ा.
एक पुरानी कहानी है। एक युवक आत्महत्या करने जा रहा था। राह में उसे एक साधु मिला। उसने आत्महत्या करने का कारण पूछा तो युवक ने बताया कि मैं बहुत दुखी व परेशान हूँ। जीवन से ऊब चुका हूँ, मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है और गरीबी से तंग आकर मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ।
इस पर वह साधु कुछ देर युवक से इधर-उधर की बातें करने लगा। फिर बोला-” मैं एक ऐसे आदमी को जानता हूँ, जिसके हाथ नहीं हैं। वह तुम्हारे हाथ के बदले एक लाख रु.दे सकता है। ”
” वाह, मैं भला उसको अपने हाथ कैसे दे सकता हूँ ? ” युवक ने अपने हाथों को देखते हुए कहा।”
” मैं एक और आदमी को जानता हूँ, जिसके पाँव नहीं है। वह तुम्हारे पावों के बदले तुम्हें दो लाख दे सकता है। “
“दो लाख रु. के बदले क्या मैं अपने कीमती पाँव गिरवी रख दूँ ? ” इस बार युवक ने तैश में आकर कहा।
“मैं एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ, जो तुम्हारी आँखों के बदले तुम्हें पाँच लाख रु. दे सकता है। “
साधु के कहने पर युवक इस बार गुस्से से बोला-” मेरी आँख को हाथ लगातेवालों की मैं आँखें फोड़ दूँगा। तुम कैसे साधु हो ? मुझ गरीब को अपाहिज बनाने पर तुले हो। “
इस पर साधु ने हँसते हुए कहा-” यही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, तुम्हारे हाथ-पांँव और आँखें मिलाकर ही लाखों होते हैं। फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? ” युवक को बोध हुआ। उसने साधु से क्षमा माँगी और आत्महत्या का विचार छोड़कर एक नये उत्साह से वापस मुड़ गया।
उसके बाद दूसरे दिन वह युवक कहीं बाहर जा रहा था। उसे रास्ते में बाल बिखराए और मुँह लटकाए उसका मित्र मिला। उसने मित्र से कहा- “यार, ये क्या हाल बना रखा है ?”
” क्या बताऊँ यार, बहुत दुखी और परेशान हूँ। माँ-बप बीमार चल रहे हैं। बहन ब्याह लायक हो गई । बीबी और बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इस गरीबी से अच्छा है मौत आ जाए। “
मित्र ने कहा – ‘ ऐसा नहीं कहते मित्र, मैं भी कल तुम्हारी तरह मरने की सोच रहा था। कल मुझे एक साधु मिला-” यह कहकर युवक ने उसे सारा किस्सा सुनाते हुए कहा-” ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? “
मित्र चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा, फिर बोला- “क्या वह साधु सच कह रहा था ? क्या वह ऐसे लोगों को जानता है जो हाथ-पाँव खरीदते हैं?”
“सच ही कहा होगा-साधु लोग झूठ नहीं बोलते, मगर क्यों?”
” कुछ नहीं, यूँ ही।” मित्र ने अपने परिवार को याद करते हुए कहा- “मुझे उस साधु का पता बताना।”
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(जहाँ ऐसी गरीबी हो, ऐसी विवशता हो, वहाँ, इसे मिटाने के अतिरिक्त कुछ और सोचना भी, राजद्रोह है, नैतिक अपराध है और जघन्य पाप भी। यह मेरा अपना निजी मत है। )
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “विश्व परिवार दिवस”।)
☆ आलेख ☆ विश्व परिवार दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत मई माह के तीसरे रविवार को अलसुबाह एक मित्र का ‘विश्व परिवार दिवस’ का मेसेज प्राप्त हुआ ही था कि स्थानीय समाचार पत्र ने विस्तार पूर्वक एक सर्वे की जानकारी देकर इस बाबत पुष्टि कर दी थी।
हमारी संस्कृति तो सदियों से “वसुधैव कुटुंबकम्” की वकालत कर रही हैं। हमें आज परिवार दिवस की दरकार क्यों आन पड़ी हैं ?
पश्चिमी संस्कृति हमारी संस्कृति को दीमक के समान चट कर रही हैं। दीमक जिस प्रकार पूरे दिन के चौबीस घंटे लगकर वस्तुओं को नष्ट कर देता हैं, उसी प्रकार से पश्चिमी सभ्यता हमारी जड़े खोखली कर चुका हैं।
उसी दिन दोपहर को एक परिचित परिवार से लंबे अंतराल के बाद बातचीत हुई तब पता चला एकल परिवार के दोनों पहिए अब स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के कारण अलग अलग शहर में बस गए हैं। परिचित (आयु चालीस वर्ष) की पत्नी जयपुर से कोटा चली गई हैं, ताकि वहां उपलब्ध कोचिंग संस्थान में बच्चे के लिए विशेष पढ़ाई करवा सकें। उनकी पत्नी किसी विदेशी कंपनी के लिए एक दशक से ऑनलाइन कार्य कर रही हैं, इसलिए उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं होगी। लेकिन बातों बातों में ऐसा प्रतीत हुआ कि एकल परिवार में कुछ तो गड़बड़ हैं। अंदाज लगा पाए शायद ईगो/ स्पेस बाबत कोई कारण हैं।
हमने परिचित को उनके परिवार का हवाला दिया की वो एक जाने माने साहित्यकार और कला के क़द्रदानों कदरदानों के परिवार से आते हैं।
युवा परिचित भी तुरंत पलट कर बोले – “वो ये सब अब नहीं मानते, सुप्रसिद्ध कहानीकार सलीम साहब के दो बेटों ने तो भी विवाह विच्छेद कर लिया हैं। जावेद साहब तो स्वयं और उनके पुत्र भी विवाह विच्छेद कर चुके हैं।“
वो यहां भी नहीं रुके और धर्मेंद्र/हेमामालिनी के दूसरे विवाह की बात सुनकर हम तो निश्शब्द हो गए।
कुछ बहाना कर, हमने उनकी वार्तालाप को विराम दिया। हृदय में कहीं से आवाज़ आई “बहते पानी के साथ चलो” और विश्व परिवार दिवस मनाने के लिए परिवार सहित रात्रि का भोजन किसी भोजनालय में करते हैं।
राजाराम भालचंद्र पाटणकर(9 जानेवारी 1927 – 24 मे 2004) हे विचारवंत, समीक्षक, सौंदर्यमीमांसक होते.
ते श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकरांचे नातू होते. रा.भा. पाटणकरांचे वडील भा. ल. पाटणकर हे नाशिकच्या हंसराज प्रागजी महाविद्यालयात इंग्रजीचे प्राध्यापक होते.भा.ल.पाटणकरांनी बालकवींच्या सर्व कवितांचे सर्वप्रथम संकलन केले.
रा. भा. पाटणकर हंसराज प्रागजी महाविद्यालयातूनच एम. ए. झाले. नंतर त्यांनी 1960मध्ये ‘कम्युनिकेशन इन लिटरेचर’ या विषयावर प्रबंध लिहून पीएच. डी. मिळवली.
ते भावनगर, अहमदाबाद, भुज, अमरावती येथील शासकीय महाविद्यालयात इंग्रजीचे प्राध्यापक होते.1964साली मुंबई विद्यापीठात ते प्राध्यापक म्हणून रुजू झाले. नंतर इंग्रजीचे विभागप्रमुख होऊन ते तिथूनच निवृत्त झाले.
तत्त्वज्ञान, आर्थिक इतिहास, इंग्रजी साहित्य यांत त्यांना विशेष रस होता.
‘पुन्हा एकदा एकच प्याला’ हा त्यांचा पहिला लेख 1951साली ‘नवभारत’मध्ये प्रसिद्ध झाला. त्यानंतर त्यांनी ‘एरिअल’ या टोपणनावाने कथा, कविता लिहिल्या.
सौंदर्यशास्त्र हा त्यांचा व्यासंगाचा विषय होता. ‘सौंदर्य मीमांसा’, ‘क्रोचेचे सौंदर्यशास्त्र:एक भाष्य’, ‘कांटची सौंदर्यमीमांसा’ हे त्यांचे प्रकाशित ग्रंथ आहेत. कांट, हेगेल, क्रोचे, बोझांकीट इत्यादी तत्त्ववेत्त्यांनी स्वीकारलेला सिद्धांत पाटणकरांनी या ग्रंथांतून स्पष्ट केला आहे.
‘कमल देसाई यांचे कथाविश्व ‘, ‘मुक्तीबोधांचे साहित्य ‘, ‘कथाकार शांताराम ‘ या तिन्ही लेखकांच्या साहित्यावर पाटणकरांनी लिहिलेल्या पुस्तकांच्या प्रस्तावनांत त्यांनी मानवी आणि तात्त्विक भूमिका स्पष्ट केल्या आहेत.’अपूर्ण क्रांती’ या त्यांच्या पुस्तकात सांस्कृतिक परिवर्तनाचा संदर्भ आला आहे.
त्यांचे सर्वच लेखन तर्कशुद्ध व समीक्षाक्षेत्रात मोलाची भर घालणारे आहे.
‘इकॉनॉमिक हिस्टरी ऑफ इंडिया’ व ‘ड्युरिंग ब्रिटिश रूल ‘ही त्यांची पुस्तके अपूर्ण राहिली.
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अनंत रामचंद्र कुलकर्णी
डॉ.अनंत रामचंद्र कुलकर्णी (19 एप्रिल 1925 – 24 मे 2009) हे मध्ययुगीन महाराष्ट्राच्या इतिहासाचे अभ्यासक, संशोधक, इतिहासकार होते.
ते बेळगाव, अहमदनगर, सोलापूर, मराठवाडा, औरंगाबाद वगैरे ठिकाणच्या महाविद्यालयात / विद्यापीठात प्राध्यापक होते.
1964मध्ये ‘Maharashtra in the Age of Shivaji’ हा प्रबंध सादर करून त्यांनी मराठवाडा विद्यापीठाची डॉक्टरेट मिळवली.
नंतर ते पुण्याच्या डेक्कन कॉलेजात व पुढे पुणे विद्यापीठात इतिहासाचे प्राध्यापक होते. नंतर ते टिळक महाराष्ट्र विद्यापीठाचे मानद कुलगुरू झाले.
कुलकर्णीनी उपलब्ध साधनांचा समर्पक उपयोग करून शिवकालीन महाराष्ट्राचा सामाजिक व आर्थिक अंगाने विशेष अभ्यास केला व त्या कालखंडाची अधिक परिपूर्ण मांडणी केली.
‘Maharashtra in the Age of Shivaji’ (1969) व ‘शिवकालीन महाराष्ट्र ‘(1978) हे त्यांचे ग्रंथ अत्यंत वस्तुनिष्ठ व मौलिक ठरले.
ग्रॅण्ट डफ या इतिहासाकारावर त्यांनी सहा व्याख्याने दिली. ती व्याख्याने पुणे विद्यापीठाने ग्रंथरूपाने प्रकाशित केली.त्यापूर्वी काही इतिहासकारांनी डफच्या इतिहासातील दोष दाखवले होते. कुलकर्णी यांनी, ज्या परिस्थितीत डफने इतिहासलेखन केले, त्याचा विचार केला पाहिजे, असे सैद्धांतिक विवेचन केले. त्याच्या इतिहासाची घडण कशी झाली, हे स्पष्ट केले. त्यामुळे ग्रॅण्ट डफची वेगळी प्रतिमा निर्माण झाली. कुलकर्णी यांचा पूर्वग्रहविरहित निकोप दृष्टिकोन हा इतिहास अभ्यासकांसाठी वस्तुपाठ आहे.
कुलकर्णी यांच्या ‘शिवकालीन महाराष्ट्र’, ‘पुण्याचे पेशवे’, ‘अशी होती शिवशाही’, ‘जेम्स कनिंगहॅम ग्रॅण्ट डफ’ वगैरे मराठी, तसेच ‘Maharashtra in the Age of Shivaji’, ‘Medieval Maharashtra’, ‘Maharashtra Society and Culture’, ‘Maratha Historiography’ इत्यादी इंग्रजी ग्रंथांमुळे मराठा इतिहासलेखनाचे क्षेत्र संपन्न झाले आहे.
राजाराम भालचंद्र पाटणकर व अनंत रामचंद्र कुलकर्णी यांचा आज स्मृतिदिन आहे. त्यानिमित्त त्यांना आदरांजली.
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सौ. गौरी गाडेकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ :साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विवेक महाराष्ट्र नायक
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ जे दिव्य दाहक म्हणूनी असावयाचे… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆
प्रत्येक शब्दाला विशिष्ट अर्थ,रंग,भाव असतात.तसेच परस्पर भिन्न अर्थ असणारे पण वरवर एकच भासणारे अपवादात्मक शब्दही असतात.
‘वसा’ हा अशा अपवादात्मक शब्दांपैकीच एक. अक्षरे तीच.शब्दही तेच.पण अर्थ मात्र भिन्न. व्रत,नेमधर्म या अर्थाचा असतो तो ‘ वसा ‘ हा एक शब्द आणि स्निग्ध पदार्थ या अर्थाचाही ‘वसा’ हाच दुसरा शब्द.दोघांमधली अक्षरे तीच म्हणून चेहरामोहराही सारखा तरी DNA पूर्णत: वेगळा. स्निग्ध पदार्थ म्हंटले की तेल,लोणी,तूप,वंगण,मेण या सारखे पदार्थ चटकन् नजरेसमोर येतात पण या अर्थाने ‘वसा’ शब्दाकडे पाहिले की असा एखादा विशिष्ट पदार्थ नजरेसमोर मात्र येणार नाही.’मेदयुक्त पदार्थ’ या व्यापक अर्थाच्या वसा या शब्दात अशा सर्वच स्निग्ध पदार्थांचा समावेश होत असला तरी त्या अर्थाने वसा हा शब्द फारसा प्रचारात मात्र आढळून येत नाही.
वसा हा शब्द व्रत या अर्थाने मात्र सर्रास वापरला जातो.निदान वरवर तरी व्रत आणि वसा हे दोन्ही शब्द समानार्थी वाटतात आणि कांही अंशी ते तसे आहेतही. व्रत आणि वसा या दोन्ही शब्दांचा समान अर्थ म्हणजे ‘नेम’ !’नेम’ हा शब्द मला तरी ‘नियम’ या शब्दाचा बोलीभाषेत रूढ झालेला अपभ्रंश असावा असेच वाटते. कारण व्रत आणि वसा या दोन्ही शब्दांना ‘नियम’ या शब्दात असणारा नियमितपणाच अपेक्षित आहे हे लक्षात घ्यायला हवे.’नेम’ या शब्दाचे मात्र लक्ष्य, उद्दिष्ट ,रोख,शरसंधान असे व्रत किंवा वसाशी काही देणेघेणे नसणारेही अर्थ आहेत. त्यामुळे स्वतः साठी एखादा ‘नेम’ म्हणजेच ‘नियम’ ठरवून घेणे आणि तो सातत्याने पाळणे हेच व्रत किंवा वसा दोन्हींनाही अपेक्षित आहे.
व्रत या शब्दाचे संकल्प, उपवास हे अर्थ वसा या शब्दालाही अभिप्रेत आहेत.तथापी व्रत हे सदाचरण, ईशसेवा, भक्ती, आराधना यास पूरक असेच असते.पण वसा या शब्दाचा अवकाश यापेक्षा अधिक आहे. व्रत आणि वसा या दोन्हीमध्येही अध्यात्मिक उन्नतीसाठी स्वीकारलेले नेमधर्म गृहीत आहेतच पण वसा या शब्दात त्याहीपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ सामावलेला आहे.
या व्यापक अर्थाला स्वतःचे जन्मभराचे उद्दिष्ट ठामपणे ठरवून स्वीकारलेला आचारधर्म अपेक्षित असतो.
कोणत्याही प्रकारच्या कर्मकांडात अडकून न पडता दीनदुबळ्यांची,वंचितांची सेवा करण्यासाठी, सामाजिक उन्नतीचा ध्यास घेत अनिष्ट प्रथा ,रूढी ,परंपरा यातल्या तथ्यहीन गोष्टी कालबाह्य ठरवून समाजाचा दृष्टिकोन बदलण्यासाठी, राष्ट्रप्रेमाने प्रेरित होऊन तन-मन-धनाने स्वतःचे आयुष्य राष्ट्राला अर्पण करून
राष्ट्रहिताला वाहून घेत ज्या थोर स्त्री-पुरुष महात्म्यांनी स्वतःची उभी आयुष्ये वेचलेली आहेत, स्वतःच्या स्वास्थ्याचा, सर्वसुखांचा त्याग करून, असह्य हालअपेष्टा सहन करुन आपल्या प्राणांची आहुती दिलेली आहे त्या त्या प्रत्येकाने अतिशय निष्ठेने तरीही डोळसपणे स्वीकारलेला जीवन मार्ग हा त्यांच्यासाठी त्यांनी घेतलेला आयुष्यभरासाठीचा ‘वसा’च होता ! यातील ‘डोळसपणे’ या शब्दाचा नेमका अर्थ समजून घ्यायला स्वातंत्र्यवीर सावरकरांचे खालील प्रसिद्ध काव्य उचित ठरेल ! की घेतले न हे व्रत अंधतेने
लब्ध प्रकाश इतिहास निसर्ग
माने
जे दिव्य दाहक म्हणुनी असावयाचे
बुध्दयाची वाण धरिले करी हे सतीचे!
‘एखादे दिव्य कार्य दाहक हे असणारच. त्याचे चटके बसणारच. पण सतीचे वाण घ्यावे तसे आम्ही स्वखुशीने हे स्वीकारलेले आहे. अंधतेने नव्हे !’
स्वातंत्र्यवीरांची या काव्यामधे व्यक्त झालेली निष्ठा आणि निर्धार ‘वसा’ या शब्दाचा पैस किती अमर्याद आहे याची यथोचित जाणिव करुन देणारा आहे !!