हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 90 ☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 90 ☆

☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत

[1]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आज आपकी पत्रिका का नया अंक देखा। देख कर चित्त प्रसन्न हो गया। मुझे पता नहीं था कि हमारे देश में इतनी बढ़िया पत्रिका निकल रही है। कवर बहुत सुन्दर बन पड़ा है। भीतर की सामग्री की जितनी तारीफ की जाए, कम है। कविताएं, कहानियाँ,निबंध, सब एक से बढ़कर एक हैं। पत्रिका आपकी योग्यता और सूझबूझ का जीता-जागता प्रमाण है। आपकी देख-रेख में पत्रिका दिन-दूनी रात-चौगुनी उन्नति करेगी इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना था, अब प्रत्यक्ष देख लिया।
एक परिचर्चा ‘साली, आधी घरवाली’ सेवा में भेज रहा हूँ। इसे पत्रिका में स्थान देकर अनुगृहीत करें। इसमें भाग लेने वाले सभी लोग मेरे नगर के बुद्धिजीवी हैं। आप पायेंगे कि परिचर्चा अत्यन्त मनोरंजक और समसामयिक है। इससे पहले ‘ससुराल की पहली होली’ पर मेरी एक परिचर्चा एक स्थानीय पत्र में छपी थी जो अत्यधिक सराही गयी थी और जिसकी नगर के कोने कोने में चर्चा हुई।

परिचर्चा में भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[2]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आपके पत्र के साथ मेरी परिचर्चा वापस मिली। आपने लिखा है कि परिचर्चा घटिया है। पुनर्विचार और आत्ममंथन के बाद मुझे भी लगा कि परिचर्चा का विषय पर्याप्त स्तरीय नहीं है। मैं आपके विचार से सहमत हूँ।

एक दूसरी परिचर्चा भेज रहा हूँ जिसका विषय है ‘पिया बसे परदेस, कैसे मिटे कलेस’। यह परिचर्चा बिलकुल मौलिक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अपने पतियों से विलग रहने वाली पत्नियों की व्यथा को खोल कर रख दिया गया है। अभी तक किसी परिचर्चाकार ने इस विषय को नहीं उठाया। इस परिचर्चा के आयोजन में मुझे जो श्रम और समय देना पड़ा है वह कहने की बात नहीं है। मुझे विश्वास है कि यह परिचर्चा आपकी पत्रिका के स्तर में चार चाँद लगा देगी।

भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[3]

संपादक जी.

सप्रेम नमस्कार।

दूसरी परिचर्चा भी वापस मिली। आपको यह परिचर्चा भी घटिया लगी, यह पढ़कर दुख हुआ, लेकिन आपका निर्णय सिर-आँखों पर। आपने ठीक लिखा है कि इस परिचर्चा में भाग लेने वाले भी वही लोग हैं जो पहली परिचर्चा में थे। दरअसल मैंने इन बुद्धिजीवियों को दूसरी परिचर्चा के लिए भी पूर्णतया उपयुक्त पाया। इसमें किसी तरह का जोड़-तोड़ नहीं है।

आपका यह अनुमान सही है कि परिचर्चा में भाग लेने वाली कोकिला देवी मेरी धर्मपत्नी हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं एक विदुषी का पति हूँ जो साहित्य और कला की मर्मज्ञ हैं। कोकिला देवी सिर्फ मेरी पत्नी नहीं, मेरी सचिव और सहायक भी हैं। उनके सहयोग से ही मेरी साहित्य-साधना सुचारु रूप से चल रही है।

मुझे लगता है आपकी रुचि परिचर्चाओं में नहीं है, इसलिए इस बार एक मौलिक और मार्मिक कहानी ‘जिगर का धुआँ’ भेज रहा हूँ। आप पायेंगे कि इस कहानी में प्रेम का एक बिलकुल नया कोण खोजा गया है जो आपको संसार की किसी प्रेम-कथा में नहीं मिलेगा। मेरा एक दोस्त इस कहानी को सुनकर दो दिन तक रोता रहा। मेरी पत्नी का विचार है कि इस कहानी की गणना संसार की श्रेष्ठतम प्रेम-कहानियों में होगी, लेकिन मैं एक अत्यन्त विनम्र व्यक्ति हूँ। मैं इस कहानी के संबंध में निर्णय आपके ऊपर छोड़ता हूँ।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[4]

संपादक जी,

आज की डाक से कहानी वापस मिल गयी। हृदय अत्यन्त दुखी हुआ। अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश हूँ कि आपकी पत्रिका भाई-भतीजावाद और ठकुरसुहाती के आधार पर चलती है। जमाना ही ऐसा है, तो भला आप कैसे इन प्रवृत्तियों से मुक्त रहेंगे?

मैं इस दुखद निष्कर्ष पर भी पहुँचा हूँ कि आप में रचना के गुणों को परखने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। आखिर हीरे को जौहरी ही परख सकता है, और हर आदमी जौहरी नहीं हो सकता। मैंने आपके पास अत्यन्त महत्वपूर्ण परिचर्चाएं और बढ़िया कहानी भेजी, लेकिन आप उनके गुणों को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।
मुझे यह भी शक है कि मेरे कुछ साहित्यिक शत्रुओं ने भितरघात करके आपको मेरे विरुद्ध बरगलाया है और मेरी उज्ज्वल छवि को धूमिल करने का प्रयास किया है। नगर में मुझसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं है।

बहरहाल, अब मेरा आपकी पत्रिका को सहयोग देने का कोई इरादा नहीं है। आपकी पत्रिका से ज्यादा अच्छी पत्रिकाएं हैं और आपसे ज्यादा समझदार संपादक भी, जहाँ मेरी रचनाओं की सही कद्र होगी।

नमस्कार।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[5]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

लगभग तीन माह पूर्व मेरा पत्र आपको मिला होगा। उस वक्त कुछ घरेलू परिस्थितियों के कारण विचलित होकर कुछ ऊटपटाँग लिख गया था। उसे अन्यथा न लें। बाद में मुझे दुख हुआ कि मैं असावधानी में कुछ अप्रिय बातें लिख गया था। आशा है आप मेरी परिस्थिति को समझ कर मेरी बातों का बुरा न मानेंगे और पहले की तरह स्नेह-संबंध बनाये रखेंगे। मैं जानता हूँ कि आप सुयोग्य संपादक हैं और आपकी पत्रिका निष्पक्ष और उच्च स्तर की है।

एक कहानी ‘दिल की दरार’ सेवा में भेज रहा हूँ। मेरे हिसाब से कहानी प्रथम श्रेणी की है। यह पहली कहानी होगी जिसमें नायक हवाई जहाज से कूद कर आत्महत्या करता है। इस दृष्टि से कहानी बिलकुल मौलिक और आधुनिक है। लेकिन आप खुद समझदार हैं, इसलिए ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझता।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 89 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 89 ☆ शून्योत्सव ☆ 

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता के चलते केंद्र बनने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।….शून्य आदि है, शून्य इति है। मैं अपने अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ,। ..शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए अपने कानों को ट्यून करना होगा। करो ट्यून, बनो शून्य।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 45 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 45 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 45) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 45☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सच को तमीज ही

नहीं बात करने की,

झूठ  को  तो  देखो

कितना मीठा बोलता है…

 

Truth  doesn’t  even

have the manner to talk

Just look at the  lie,

how sweetly it talks…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हम तो फूलों की तरह,

अपनी आदत से बेबस हैं

तोड़ने वाले को भी,

खुशबू की सजा देते हैं…

 

Helpless with the habit,

Like the flowers, I even

penalise the pluckers

With the fragrance only…!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अगर दर्द ने मज़बूत, तो

डर ने बहादुर बना दिया

बार-बार  दिल  टूटने से

अड़चनें सारी जाती रहीं…

 

If the pains made me strong

Then  fear  turned me brave,

Repeated  heartbreaks  just

removed all the impediments

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

शुक्र कर ये दिल तेरे

लिए सिर्फ धड़कता है

गर बोलने लगता तो

क़यामत ही आ जाती…

 

Thankfully, this heart

Just only beats for you

If only it could speak,

Doomsday would come

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 46 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘मुक्तिका’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 46 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

 

अर्णव-अरुण का सम्मिलन

जिस पल हुआ वह खास है

 

श्री वास्तव में है वहीं

जहँ हर हृदय में हुलास है

 

श्रद्धा जगत जननी उमा

शंकारि शिव विश्वास है

 

सद्भाव सलिला है सुखद

मालिन्य बस संत्रास है

 

मिल गैर से गंभीर रह

अपनत्व में परिहास है

 

मिथिलेश तन नृप हो भले

मन जनक तो वनवास है

 

मीरा मनन राधा जतन

कान्हा सुकर्म प्रयास है

***

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 78 – मैं श्रमिक हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावपूर्ण रचना  “मैं श्रमिक हूँ । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 78 ☆ मैं श्रमिक हूँ ☆

मैं श्रमिक हूं इस धरा पर, कर्म ही पूजा है मेरी।

श्रम की‌ मै करता इबादत, श्रम से है पहचान मेरी।

 

श्रमेव जयते इस धरा पर, लिख‌ रहा मै नित कहानी

तोड़ता पत्थर का सीना, दौड़ता नहरों में पानी।

काट करके पत्थरों को‌,  राह बीहड़ में बनाता।

स्वश्रम की साधना कर, दशरथ मांझी मैं कहाता ।। मैं श्रमिक हूं।।1।।

 

श्रम के बल पे बाग में, पुष्प भी मैं ‌ही‌ खिलाता ।

श्रम के बल पे खेत में, फल अन्न भी मैं ‌उगाता।

सड़क भी मैं ‌ही‌ बनाता,‌बांध भी मैं ही बनाता ।

रत निरंतर कार्य में, मन की‌ सुख शांति मैं पाता।। मैं श्रमिक हूं।।2।।

 

पेट भरता दूसरों का, मैं सदा भूखा रहा।

छांव दे दी दूसरों को, धूप में जलता रहा।

करके सेवा ‌दूसरों की, फूल सा खिलता  रहा।

देखता संतुष्टि सबकी, पुलक मन होता रहा ।। मै श्रमिक हूं।।3।।

 

श्रम अथक मैंने किया, मोल मैं पाया नहीं ।

रात दिन मेहनत किया, किन्तु पछताया नहीं।

झोपड़ों में दिन बिताता, गरीबी में पलता रहा।

होता रहा शोषण निरंतर, दिल मेरा जलता रहा।

पर जमाने की नजर ना जाने, क्यूं मुझे लग गई।

लुट गई मेरी श्रम की पूंजी, हाथ मैं मलता रहा।। मैं श्रमिक हूं।।4।।

 

अब बेबसी दुश्वारियां, पहचान मेरी बन गई।

हाथ के खाली कटोरे, मेरी कहानी कह रहे।

बेबसी लाचारी है,  भूख है बीमारी है।

मेरी विवशता देख कर, हंसती दुनिया सारी है।

अशिक्षा अज्ञानता की, पांव में बेड़ी पड़ी है।

कोसता हूँ भाग्य को मैं, आज दुर्दिन घड़ी है ।। मैं श्रमिक हूं।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१२॥ ☆

 

मत्वा देवं धनपतिसखं यत्र साक्षाद वसन्तं

प्रायश चापं न वहति भयान मन्मथः षट्पदज्यम

सभ्रूभङ्गप्रहितनयनैः कामिलक्ष्येष्व अमोघैस

तस्यारम्भश चतुरवनिताविभ्रमैर एव सिद्धः॥२.१२॥

 

गये सूज होंगे विरह में मेरे नित्य

अविकल रुदन से नयन उस प्रिया के

होंगे अधर श्याम , जलते हृदय की

व्यथित श्वांस गति की उष्णता से

कर से हटाते हुये श्याम अलकें

प्रलंबित गिरीं घिरीं अपने वदन से

दिखेगी मेरी प्रियतमा , मेघ तुमको

वहाँ ज्यों मलिन इंदु तव आवरण से

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विंदा करंदीकर स्मृती दिनानिमित्त – आयुष्याला द्यावे उत्तर.. स्व विंदा करंदीकर ☆ प्रस्तुति – सौ. राधिका भांडारकर

स्व विंदा करंदीकर

Vinda Karandikar memorial in Chetana college | चेतना महाविद्यालयात विंदांचे राष्ट्रीय स्मारक | Loksatta

स्व गोविंद विनायक करंदीकर ख्यातनाम ‘विंदा करंदीकर’

जन्म – २३ ऑगस्ट १९१८ – मृत्यू – १४ मार्च २०१०

 

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ विंदा करंदीकर स्मृती दिनानिमित्त – आयुष्याला द्यावे उत्तर.. स्व विंदा करंदीकर ☆

प्रस्तुति – सौ. राधिका भांडारकर ☆

(१४ मार्च ..ज्ञानपीठ पुरुस्कार विजेते महाकवी स्व विंदा करंदीकर यांचा अकरावा  स्मृतीदिन ..त्या निमीत्ताने त्यांची एक कविता…)

 

असे जगावे दुनियेमधे,आव्हानाचे लावून अत्तर

नजर रोखूनी नजरेमधे, आयुष्याला द्यावे उत्तर।।

 

नको गुलामी नक्षत्रांची, भीती आंधळी तार्‍यांची

आयुष्याला भिडतानाही, चैन करावी स्वप्नांची।।

 

असे दांडगी इच्छा ज्याची, मार्ग तयाला मिळती सत्तर

नजर रोखूनी नजरेमधे, आयुष्याला द्यावे उत्तर।।

 

पाय असावे जमिनीवरती, कवेत अंबर घेताना

हंसु असावे ओठांवरती, काळीज काढून देताना।।

 

संकटासही ठणकावून सांगणे, आता ये बेहत्तर

नजर रोखूनी नजरेमधे, आयुष्याला द्यावे उत्तर।।

 

करुन जावे असेही काही, दुनियेतुनी या जाताना

गहिवर या जगास सार्‍या, निरोप शेवटचा देताना।।

 

स्वर कठोर त्या काळाचाही, क्षणभर व्हावा कातर कातर

नजर रोखूनी नजरेमधे, आयुष्याला द्यावे उत्तर…।।

 

  • स्व विंदा करंदीकर

 

?? अशा आवेशपूर्ण,स्फूर्तीदायक,निर्भीड सकारात्मक संवेदनशील काव्यरचनाकाराला मानाचा मुजरा आणि भावपूर्ण स्मृतीवंदना!!! ??

 

प्रस्तुति – सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शुक्राची चांदणी.. ☆ श्री मुबारक उमराणी

श्री मुबारक उमराणी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ शुक्राची चांदणी.. ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

चांदणी शुक्राची

मनात फुलते

पहाट गारवा

फुलात झुलते

 

सरत्या रात्रीला

सलाम करते

दुःखाचा ओहोळ

सुखानी भरते

 

क्षितिज किनारी

रांगोळी पेरते

शुक्राची चांदणी

मनात कोरते

 

रातीच्या हुंकारी

निशब्द पावते

काळोखी  काजळ

नयनी लावते

 

निघाल्या चांदण्या

सूर्याच्या स्वागते

रातराणी गंध

हुंगाया लागते

 

दमले किटक

भैरवीच गाते

चांदण्या फुलांत

माळुनच जाते

 

ओल्याच दवात

झाडच भिजते

हिरव्या चुड्यात

शृंगार सजते

 

गारवा सोसत

गवत हसते

काट्याच्या मनात

अंधार लसते

 

पाखरांचे पंख

गारवा सोसते

पिलांच्या चोचीत

अंधार ठोसते

 

अंधार गडद

ह्दयी गिळते

पहाटे क्षितिज

प्रकाश पिळते

 

© श्री मुबारक उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दाखला – भाग – 3 ☆ सौ. राधिका भांडारकर

सौ. राधिका भांडारकर

☆ जीवनरंग ☆ दाखला – भाग – 3 ☆ सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

….मग तानीबाई वळली.ग्राम पंचायतीच्या आवारातूनन बाहेर पडून सडकेवर आली. ऊन्हं चढली होती.

पायात चप्पल नव्हती. तांबड्याला विचारलं पाहिजे.

मिळेल का मोतीरामच्या मृत्युचा दाखला?आणि समजा तो मिळाला, तर हे लोक मोतीरामच्या जन्माचाही दाखला मागतील, मग तोकुठून आणू?

तिची पाउलं झपझप खोपटाकडे जाण्यासाठी ऊचलु लागली.

मनात झरत होतं… तानीबाईच्या आयुष्यात मोतीराम कसा आला?

रस्त्यावर भटकणारा एक कुत्रा. तानीबाई ताटलीत भाकरी घेउन बसली की, हा शेपुट हलवत यायचा. तानीबाईही त्याला आपल्यातल्या भाकरीचे तुकडे घालायची.. हळुहळु दोघांनाही एकमेकांचा लळा लागला. तानीबाईनेच त्याचं नामकरण केलं.

“मोतीराम” आणि तिच्या एकाकी जीवनात तिला एक सोबती सवंगडी मिळाला. दुरावलेल्या मुलांची जागा त्याने भरुन काढली.

आणि आता सरकार त्याच्या जन्म मृत्युचा दाखला मागतंय्!! ..कुठून आणू?

सरकार बदललं. प्रगती झाली. नोटाबंदी आली.जी. एस.टी. लागू झाला. महसूल वाढला. पेट्रोल महागलं. शेतकर्‍यांनी आत्महत्या केली. त्यांना कर्जमाफी झाली. या सगळ्यांशी तानीबाईचा  काहीच सबंध नव्हता… तिच्या आयुष्यात काहीच बदल घडला नाही.

गावात कलाबाईचा मेळ होता. तिने निरोप धाडला की तानीबाई शेतात जायची. शेतातले तण ऊपटायचे. बोंडं तोडायची. लोंब्या काढायच्या.. शेंगा खणायच्या…

दिवसाकाठी मजुरी मिळाली की, येतांना तेल तिखट, मीठ पीठ आणायचं.. रांधायचं.. अन् खाऊन झोपायचं….

वस्तीतले लोक चांगले होते. तिची विचारपूस करायचे.

सणावारी कुणी गोडधोड केलं तर तिलाही वाटीतनं द्यायचे… तानीबाईला कुठे होता भविष्याचा विचार…….??

……पावलं रेटत रेटत ती स्वत:च्या खोपटापाशी आली. कोपर्‍यात भलंमोठं निंबाचं झाड होतं…. पारावर तिनं बुड टेकलं… झाडानं गार सावली दिली. तिने नजरेच्या परिसरातली वस्ती न्याहाळली. बागडणारी, ऊड्या मारणारी, अर्ध्यामुर्ध्या कपड्यातली शेंबडी, मळकट  पोरं पाह्यली… पुरुष… बायका.. काही कामांत, काही निवांत.. रिकामी… कुणीतरी लांबून हाकारल….

“..अग!! ए आज्जे कुटं गेली हुतीस? सक्काळपासनं दिसली बी नाय्….जेवलीस का?ये न्हाय तर…तुझ्या सुनेनं फक्कड रस्सा बनवलाय्….”

ऊगीचंच तांबड्यानं या सरकारी योजनेचं भूत डोक्यात घातलं…. पायाखालची जमीन, डोक्यावरचं आभाळ अन् खोपटाभवतालचे हे आपुलकीचे आवाज… त्यांची आभाळागत माया… काय हवं आणखी… बाकी काळजी त्या पांडुरंगालाच की.. मग तानीबाई घरात आली.

भिंतीजवळची पत्र्याची पेटी ऊघडली… दाखला पाहिजे  म्हणे……हातातलं रेशनकार्ड, पेटीच्या तळाशी, होतं तिथं ठेऊन दिलं… अन् पेटी बंद केली.

तानीबाईपुरता हा विषय संपला होता….बाकी तांबड्याला सांगूच काय घडले ते….

समाप्त.

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ बाळ वाट बघतय ☆ सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

 ☆ जीवन रंग ☆ बाळ वाट बघतय ☆ सौ. राही पंढरीनाथ लिमये ☆ 

प्रिय वर्षा,

तुला काय म्हणू? धन्यवाद म्हणू की साष्टांग नमस्कार घालू? दोन्ही ही माझ्या दॄष्टीने कमी च आहेत. खरं सांगू आज मला धाराऊ आठवतेय संभाजी राजांची दुध आई. तु धाराऊ चा वारसा पुढे चालवलास.

दोन दिवसापासून मी माझ्या बाळाला बाटली ने दुध पाजायचा प्रयत्न करतेय. दुध पिताना बाळा ने खुप त्रास दिला. मला वाटलं मी दुध पाजतेय म्हणून त्रास देतोय. सासूबाई ना हाक मारली आणि मला सगळा उलगडा झाला.

माझी प्रेग्नन्सी पहिल्यापासूनच काॅप्लीकेटेड होती. बेडरेस्ट होती त्यात कोरोना चा महाराक्षस घाबरवत होता. लाॅक डाऊन सुरू झालं आणि सगळं कठीण होऊन बसलं. हाॅस्पिटलला तपासायला जाताना खुप ताण यायचा त्यात बाळाला काही होणार नाही ना ही भिती. त्यामुळे बी.पी. वाढायचं. सगळे सांगायचे मन शांत ठेव. पण कसं ठेवणार?

जगभर कोरोना शिवाय दुसरा विषय नाही. सतत वाढणारे मृत्यू चे आकडे. मदत करणारे डाॅक्टर, नर्स, पोलीस इतर कर्मचारी यांच्या मृत्यू च्या बातम्या ऐकल्या की मन सुन्न व्हायचं. देवा चा राग यायचा. कोरोना चा पेशंट एकटा असतो. जवळ नातेवाईक नसतात. हे सगळं भयानक वाटायचं. कसं मन शांत ठेवणार?

दिलेल्या तारखेला माझं सीझर झालं. बाळ व्यवस्थित होत पण मी कोमात गेले. मी शुद्धीवर येईपर्यंत तु जे केलंस ते मला सासूबाईंकडुन कळलं. बाळ बाटली ने दुध पीत नव्हतं. रडुन रडुन श्वास धरायला लागलं. त्याच वेळी तु तुझ्या तीन महिन्याच्या बाळाला घेऊन आली होतीस. तुझ्या बाळाला नर्स कडे दिलस आणि सासूबाई ना घेऊन डाॅक्टरांकडे गेलीस. तू त्याना विचारलस मी यांच्या बाळाला माझं दुध दिलं तर चालेल?” “चालेल पण सगळे स्वच्छतेचे नियम सांभाळून “.

“हो मॅडम मी पण नर्स आहे. मला जाणीव आहे त्याची.”

तु बाळाला जवळ घेऊन स्तनपान दिलंस. बाळ शांत झोपला. तिथुन पुढे रोज तु न चुकता माझ्या बाळाच्या दुधाची वेळ सांभाळत होतीस. तुझ्या दुधामुळे बाळाची तब्येत सुधारली. तुला पौष्टिक खाणं करणं जमणार नाही म्हणून सासूबाई नी तुला डिंक, अळीव लाडू करुन दिले. तुझ्या घरी दुधाचा रतीब लावला. तु नको म्हणु लागलीस पण त्या तुझी आई झाल्या आणि तुला प्रेमळ दम दिला.

तु माझ्या बाळाला जगवलस कुठलीही अपेक्षा न ठेवता. तुझं दुध माझ्या बाळासाठी अमृत झालं आणि तु माझ्यासाठी यशोदा. मी शुद्धीवर आल्यावर तु येणं बंद केलंस. असं करु नकोस. बाळाला तुझ्या दुधाची गरज आहे.

येताना तुझ्या बाळाला घेऊन ये. तु जशी माझ्या बाळाची दुधआई आहेस तशीच मी तुझ्या बाळाची दुसरी आई आहे. तो त्याच्या भावासारखाच वाढणार आहे. हा माझा निर्णय आहे.

कोरोना मुळे तुझ्या सारखी मोठ्या मनाची बहीण मिळाली हे माझं भाग्य. आपले मागच्या जन्मी चे काही तरी ऋणानुबंध आहेत. सासूबाईंबरोबर पत्र देतेय. त्यांच्या बरोबरच तुझ्या बाळाला घेऊन ये. माझं बाळ दुधासाठी तुझी वाट बघतय.

तुझीच ऋणी

निशा.

© सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

मो  नं 9860499623

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/म्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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