मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – कविता स्मरण… – शांता शेल्के ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– कविता स्मरण… – शांता शेल्के  ? ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर 

मावळतीला गर्द शेंदरी रंग पसरले

जसे कुणाचे जन्मभराचे भान विसरले

जखम जिवाची हलके हलके भरून यावी

तसे फिकटले, फिकट रंग ते मग ओसरले

घेरित आल्या काळोखाच्या वत्सल छाया

दुःखाचीही अशी लागते अनवट माया

आक्रसताना जग भवतीचे इवले झाले

इवले झाले आणिक मजला घेरित आले

मी दुःखाच्या कुपीत आता मिटते आहे

एक विखारी सुगंध त्याचा लुटते आहे

सुखदुःखाच्या मधली विरता सीमारेषा

गाठ काळजातली अचानक सुटते आहे

जाणिव विरते तरीही उरते अतीत काही

तेच मला मम अस्तित्वाची देते ग्वाही

आतुरवाणी धडधड दाबून ह्रुदयामधली

श्वास आवरून मन कसलीशी चाहुल घेई

हलके हलके उतरत जाते श्वासांची लय

आता नसते भय कसले वा कसला संशय

सरसर येतो उतरत काळा अभेद्य पडदा

मी माझ्यातून सुटते, होते पूर्ण निराशय……

रचना : शांता शेळके

प्रस्तुती : सौ. उज्ज्वला केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #177 – तन्मय के दोहे – खाली मन का कोष… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है तन्मय के दोहे – खाली मन का कोष)

☆  तन्मय साहित्य  #177 ☆

☆ तन्मय के दोहे – खाली मन का कोष… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बुद्धि विलास बहुत हुआ,  तजें कागजी ज्ञान।

कुछ पल साधे मौन को, हो यथार्थ पर ध्यान।।

खुद ही खुद को छल रहे, बन कर के अनजान।

भटक रहे  हैं  भूल कर,  खुद की  ही  पहचान।।

अहंकार मीठा जहर, नई-नई नित खोज।

व्यर्थ लादते गर्व को, अपने सिर पर रोज।।

                      

अनुत्तरित हम ही रहे, जब भी किया सवाल।

हमें  मिली  अवमानना,  उनको  रंग  गुलाल।।

चमकदार    संवेदना,    बदल    गया   प्रारब्ध।

अधुनातन गायन रुदन, नव तकनिक उपलब्ध।।

हुआ अजीरण  बुद्धि का,  बढ़े घमंडी बोल।

आना है फिर शून्य पर, यह दुनिया है गोल।।

तृष्णाओं के जाल में, उलझे हैं दिन-रैन।

सुख पाने की चाह में,  और-और बेचैन।।

जीवन  से  गायब  हुआ,  शब्द  एक  संतोष।

यश,पद,धन के लोभ में, खाली मन का कोष।।

दर्पण में दिखने लगे, भीतर के अभिलेख।

शांतचित्त एकाग्र हो,  पढकर उनको देख।।

नव-संस्कृति के दौर में, शिष्टाचार उदास।

रंग- ढंग बदले सभी, बदले सभी लिबास।।

व्यर्थ प्रदर्शन चल रहे, भीड़ भरे बाजार।

बदन उघाड़े विचरते, अधुनातन परिवार।।

है प्रवेश बाजार का, घर में अब  निर्बाध।

विज्ञापन भ्रम जाल में, बढ़े ठगी-अपराध।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 63 ☆ बुन्देली गीत – प्यारी माई… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक बुंदेली गीत  – “प्यारी माई”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 63 ✒️

?  बुन्देली गीत – प्यारी माई… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

मोरी माई , प्यारी माई ,

कित्ती करौं बढ़ाई ।

हरई जनम रऔं तोरो लरका,

और तैं मोरी माई ।।

 

भोर भए बा चकिया पीसत ,

कुआं से पानी भरवै ,

ढोरन कों चारा डारत है ,

बऊ की सेवा करवै ,

बब्बा ने गईंयां दोह लईं ,

और माई कलेवा लाई ।

मोरी माई ——————- ।।

 

तुरंतईं से बा टिफन लगावै ,

मोय साला भिजवावे ,

मोरी सबरी कई बा मानत ,

टूसन भी पढ़वाबे ,

ऊसें बड़ों ना कोऊ जग में,

जा सबने समझाई ।

मोरी माई ——————–।।

 

रात बियारी हमें करावै ,

रोटी चुपर खवाबै ,

देह स्वस्थ जा रखबी कैंसें,

दूध लाभ समझावे ,

किस्सा  आल्हा उदल बारी ,

” सलमा ” हमें सुनाई ।

मोरी माई ——————– ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – बीज ??

वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।

अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।

अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कृष्णस्पर्श – भाग-1- सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श – भाग – 1 – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(सौ. उज्ज्वला केळकर जी की मौलिक एवं रोचक कथा तीन भागों में प्रस्तुत है.)

देशमुख जी की हवेली के पास ही उनका अपना मुरलीधर जी का मंदिर है। भगवान् कृष्ण की जन्माष्टमी का उत्सव होने के कारण मंदिर भक्तों से खचाखच भरा हुआ था। सुबह प्रवचन, दोपहर कथा-संकीर्तन, रात में भजन, एक के बाद एक कार्यक्रम संपन्न हो रहे थे। उत्सव का आज छटा दिन था। आज माई फड़के का कीर्तन था। रसीली बानी, नई और पुरानी बातों का एक दुसरे से सहज सुंदर मिलाप करके निरूपण करने का उनका अनूठा ढंग, ताल-सुरों पर अच्छी पकड, सुननेवालों की आँखो के सामने वास्तविक चित्र हूबहू प्रकट करने का नाट्यगुण, इन सभी बातों के कारण कीर्तन के क्षेत्र में माई जी का नाम, आज कल बड़े जोरों से चर्चा में था।

सुश्री मानसी काणे

वैसे उनका घराना ही कीर्तनकारों का ठहरा। पिता जी हरदास थे। माँ बचपन में ही गुजर गई थी। अत: कहीं एक जगह घर बसा हुआ नहीं था। पिता जी के साथ गाँव गाँव जा कर कीर्तन सुनने में उनका बचपन गुजर गया। थोड़ी बड़ी होने पर पिता जी के पीछे खड़ी होकर उनके साथ भजन गाने में समय बीतता गया। पिता जी ने जितना जरूरी था, पढ़ना-लिखना सिखाया। बाकी ज्ञान उन्होंने, जो भी किताबें हाथ लगीं, पढ़कर आत्मसात् किया। तेरह-चौदह की उम्र में उन्होंने स्वतंत्र रूप से कीर्तन करना शुरू किया।

क्षणभर के लिए माई जी ने अपनी आँखे बंद की और श्लोक प्रारंभ किया।

                वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनं

                देवकी परमानंदं कृष्ण वंदे जगद्गुरुं ॥

उनकी आवाज सुनते ही मंदिर में जमे भक्तों ने आपस की बातचीत बंद करते हुए अपना ध्यान माई जी की ओर लगाया। माई जी ने सब श्रोताओं को विनम्र होकर प्रणाम किया और विनंती की, ‘‘आप सब एकचित्त होकर अपना पूरा ध्यान यहाँ दे, तथा आप कृष्ण-कथा का पूरा आस्वाद ले सकेंगे। कथा का रस ग्रहण कर सकेंगे। आप का आनंद द्विगुणित, शतगुणित हो जाएगा।” उन्होंने गाना आरंभ किया।

           राधेकृष्ण चरणी ध्यान लागो रे       

           कीर्तन रंगी रंगात देह वागो रे

मेरा पूरा ध्यान राधा-कृष्ण के चरणों में हो। मेरा पूरा शरिर कीर्तन के रंगों में रँग जाए। कीर्तन ही बन जाए।

मध्य लय में शुरू हुआ भजन द्रुत लय में पहुँच गया। माई जी ने तबला-हार्मोनियम बजानेवालों की तरफ इशारा किया। वे रुक गए। पीछे खड़ी रहकर माई जी का गाने में साथ करनेवाली कुसुम भी रुक गई। माई जी ने निरूपण का अभंग शुरू किया। आज उन्होंने संकीर्तन के लिए चोखोबा का अभंग चुना था।

ऊस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा॥

(ईख टेढ़ामेढ़ा होता है, पर रस टेढ़ा नहीं होता। वह तो सरल रूप से प्रवाहित होता है। तो बाहर के दिखावे के प्रति इतना मोह क्यों?)

माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। वाई में कृष्णामाई के उत्सव में माई जी के पिता जी को आमंत्रण दिया गया था। माई जी की उम्र उस वक्त करीब सत्रह-अट्ठारह की थी। अपने पिता जी के पीछे रहते हुए मधुर सुरों में गानेवाली यह लड़की, कीर्तन सुनने आयी हुई आक्का को बहुत पसंद आई। उन्होंने माई जी के पिता जी, जिन्हें सब आदरपूर्वक शास्त्री जी कहकर संबोधित करते थे, के पास अपने लड़के के लिए, माई का हाथ माँगा। वाई में उन की बड़ी हवेली थी। पास के धोम गाँव में थोड़ी खेती-बाड़ी थी। वाई के बाजार में स्टेशनरी की दुकान थी। खाता-पिता घर था। इतना अच्छा रिश्ता मिलता हुआ देखकर शास्त्री जी खुश हो गए। आए थे कीर्तन के लिए, पर गए अपनी बेटी को विदा करके।

शादी के चार बरस हो गए। आक्का और आप्पा, माई जी के सास-ससुर, उनसे बहुत प्यार करते थे। पर जिसके साथ पूरी ज़िंदगी गुजारनी थी, बह बापू, एकदम नालायक-निकम्मा था। अकेला लड़का होने के कारण, लाड-प्यार से, और जवानी में कुसंगति से वह पूरा बिगड़ चुका था। वह बड़ा आलसी था। वह कोई कष्ट उठाना नहीं चाहता था। शादी के बाद बेटा अपनी जिम्मेदारियाँ समझ जाएगा, सुधर जाएगा, आक्का-आप्पा ने साचा था, किन्तु उनका अंदाज़ा चूक गया।

घर-गृहस्थी में बापू की कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपने यार दोस्तों के साथ घूमना फिरना, ऐश करना, इसमें ही उसका दिन गुजरता था। अकेलापन महसूस करते करते माई जी ने सोचा, क्यूँ न अपना कथा-संकीर्तन का छंद बढ़ाए। किन्तु बापू ने साफ इन्कार कर दिया। उसने कहा, ‘‘यह गाना बजाना करके गाँव गाँव घूमने का तुम्हारा शौक मुझे कतई पसंद नहीं। तुम्हें खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने में कोई कमी है क्या यहाँ?”

माई के पास कोई जवाब नहीं था। आक्का और आप्पा जी की छाया जब तक उनके सिर पर थी, तब तक उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं महसूस हुई। पर क्या ज़िंदगी में सिर्फ खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना ही पर्याप्त है किसी के लिए? खासकर के किसी औरत के लिए? औरत के केंद्र में सिर्फ उसका पति ही तो है न? वहाँ पति के साथ मिलकर अपने परिश्रमों से घर-गृहस्थी चलाने का, सजाने का सुख माई को कहाँ मिल रहा था? बापू बातें बड़ी बड़ी करता था, किन्तु कर्तृत्व शून्य। कहता था, ‘‘जहाँ हाथ लगाऊंगाँ, वहाँ की मिट्टी भी सोने की कर दूँगा।” ऐसा बापू कहता तो था, किन्तु कभी किसी मिट्टी को उसने हाथ तक नहीं लगाया।

कुछ साल के बाद पहले आप्पा और कुछ दिन बाद, आक्का का भी देहांत हो गया। अब बापू को रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं रहा। अपने यार-दोस्तों के साथ उसका जुआ खेलना बढ़ गया। अब आप्पा-आक्का के गुज़रने के बाद उसने घर में ही जुए का अड्डा बना दिया। झूठ मूठ के बड़प्पन के दिखावे के लिए, हर रोज यार-दोस्तों को घर में ही खाना खिलाना शुरू हो गया। दारू शारू पार्टी, गाना-बजाना, तवायफों का नाचना दिन-ब-दिन बढ़ता ही गया। धीरे-धीरे खेत, दुकान, यह सब बेचकर आये हुए पैसे, चले गए।

अब कोई चारा नहीं, देखकर माई ने कीर्तन की बात फिर से सोची। ऐसे में भी बापू तमतमाया,

‘‘मेरे घर में ये कीर्तनवाला नाटक नही चाहिये।”

‘‘तो ठीक है। मै घर ही छोड़ देती हूँ। आपका घर आपके दोस्त, सब आपको मुबारक। गले लगाकर बैठिए। घर का सारा सामान खत्म हुआ है। आपकी और मेरी रोजी रोटी के लिए बस, मैं इतना हि कर सकती हूँ।” माई ने जवाब दिया। और कोई चारा न देखकर बापू चुप रहा। स्वयं उसे, कोई काम करने की आदत तो थी नहीं।

माई ने ग्रंथ-पुराण-पोथी पढ़ना प्रारंभ किया। हार्मोनियम, तबला, झांज़ बजानेवाले साथी तैयार किए। कथा-कीर्तन का अभ्यास, सतसंग करना शुरू किया। शुरू में अपने गाँव में ही कीर्तन करना उन्होंने प्रारंभ किया। बचपन में वह कीर्तन करती ही थी। मध्यांतर में सब छूटा था। किन्तु जब उन्होंने ठान लिया, की बस्स, अब यही अपने जीवन का सहारा है, उन्हें छूटा हुआ पहला धागा पकड़ने में कोई कठिनाई नहीं महसूस हुई। देखते देखते उनकी ख्याति बढ़ गई। धीरे-धीरे पड़ोस के गाँवों में भी उन्हें आदरपूर्वक कथा-कीर्तन के लिए आमंत्रण आने लगा। कीर्तन के लिए जाने से पहले, या आने के बाद घर में कभी शांति या चैन की साँस लेना उन्हे नसीब नहीं होता। जब तक माई घर में होती, बापू कुछ न कुछ पिटपिटाता, झगड़ता रहता। पर माई का मन जैसे पत्थर बन गया था। वह न कुछ जवाब देती, न किसी बात का दु:ख करती। आये दिन वह अधिकाधिक स्थितप्रज्ञ होती जा रही थी।

क्रमशः…

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ अंतिम चौराहा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी ⇒ अंतिम चौराहा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

चार दिल चार राहें जहां मिले उसे चौराहा कहते हैं।

मैं तो चला, जिधर चले रस्ता! मैं चलूं, वहां तक तो ठीक, लेकिन क्या कहीं रास्ता भी चलता है। कबीर के अनुसार, अगर चलती को गाड़ी कहा जा सकता है, तो रास्ता भी चल सकता है और जब रास्ता चलेगा तो वह भी घिस घिसकर रास्ते से, रस्ता हो जाएगा।

चौराहे को चौरस्ता भी कहते हैं। कहीं कहीं तो इसे चौमुहानी भी कहते हैं। रास्तों की तरह, गलियां भी होती हैं, ठाकुर शिवप्रसाद सिंह की गली, आगे मुड़ती है, और वहीं कहीं बंद गली का आखरी मकान धर्मवीर भारती का है।।

इंसान का क्या है, जिंदगी में कभी दोराहे पर खड़ा है तो कभी चौराहे पर। होने को तो खैर तिराहा भी होता है, लेकिन न जाने मेरे शहर के गांधी स्टेच्यू को लोग रीगल चौराहा क्यूं कहते हैं, जब कि यहां तो तीन ही रास्ते हैं। हां, यह भी सही है कि एक रास्ता स्वयं रीगल थिएटर भी था, लेकिन समय ने वह रास्ता भी बंद कर दिया।

थिएटर तो सारे बंद हुए, मैं अब फिल्म देखने कहां जाऊं।

जिस चौराहे से चार राहें निकलती हैं, उन्हें आप चौराहे की भुजा भी कह सकते हैं। हम तो जब भी श्रीनाथ जी के दर्शन के लिए नाथद्वारा जाते हैं, काकरौली, चारभुजा जी और एकलिंग जी होते हुए झीलों की नगरी उदयपुर अवश्य जाते हैं। जहां सहेलियों की बाड़ी हो, वहां तो भूल भुलैया होगी ही।

यह अंक चार हमें एक चौराहे पर लाकर खड़ा कर देता है जहां हमें जयपुर की बड़ी चौपड़ और छोटी चौपड़ याद आ जाती है। बही खाते वाले चोपड़ा जी कब फिल्मों में आ गए, और यश कमा गए कुछ पता ही नहीं चला।।

अगर आपसे पूछा जाए, आपके शहर में कितने चौराहे हैं, तो शायद आप गिन नहीं पाएं।इसीलिए इन चौराहों का नाम दे दिया जाता है। कहीं चौक तो कहीं चौराहा। हमने अगर एक चौराहे का नाम जेलरोड रख दिया तो दूसरे का चिमनबाग चौराहा। चिमनबाग तो आज चमन हो गया, लेकिन हमारे भाइयों ने उस चौराहे का नाम ही बदलकर चिकमंगलूर चौराहा कर दिया। वैसे भी किसी विकलांग को दिव्यांग बनने में कहां ज्यादा वक्त लगता है।

हमारे शहर के प्रमुख  चौराहों में अगर पलासिया चौराहा है तो गिटार चौराहा भी। जहां रोबोट लगा है, वह रोबोट चौराहा और जहां आज लेंटर्न होटल नहीं है, वहां भी लैंटर्न चौराहा है। सांवेर रोड पर अगर मरी माता चौराहा है तो रेडिसन होटल पर रेडिसन चौराहा। कुछ चौराहों पर भुजाएं जरा जरूरत से ज्यादा ही फड़फड़ाती हैं, रीजनल पार्क के आसपास तो इतनी राहें हैं कि राही, राह भी भटक जाए।।

इन सब चौराहों के बीच, पंचकुइया रोड पर एक अंतिम चौराहा भी है, क्योंकि वहां से आखरी रास्ता मुक्ति धाम की ओर ही जाता है। लेकिन यह जीव माया में नहीं उलझता ! वह जानता है , कोई ना संग मरे। बस थोड़ा श्मशान वैराग्य, शोक सभा और उठावने के बाद शाम को छप्पन दुकान।

क्या भरोसा कब जिंदगी की शाम आ जाए, कौन सा चौराहा हमारा अंतिम चौराहा हो जाए ! लेकिन हमने तो चौराहों को पार करना सीख लिया है। ट्रैफिक का सिपाही भले ही सीटी बजाता रहे, सिग्नल लाल लाल आंखें दिखलाता रहे, कोई मार्ग अवरोधक हमारी जिंदगी की गाड़ी को इतनी आसानी से नहीं रोक सकता।।

ऊपर भले ही चित्रगुप्त गणेश चोपड़ा भंडार खोले हमारे खाते बही की जांच करते रहें, हम स्वयंसेवक अपनी लाठी स्वयं साथ लेकर आएंगे। चित्रगुप्त के खातों की भी सरकार जांच करवा रही है। सब डिजिटल, ऑनलाइन और पारदर्शी हो रहा है। ईश्वर की मर्जी जैसा डायलॉग अब नहीं चलेगा।

जिसकी लाठी उसकी भैंस। यमराज को दूसरा वाहन तलाशना पड़ेगा। चित्रगुप्त को आईटी सेक्टर के लिए शिक्षित लोगों को ऊपर भी जॉब देने होंगे, और वह भी फाइव डे वीक और आकर्षक पैकेज के साथ।उसके बाद ही हमारी अंतिम चौराहे से रवानगी होगी। स्वर्ग में बर्थ नहीं, एक नया जॉब, एक नया चैलेंज।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 03 ☆ चलना है बाकी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “चलना है बाकी।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 03 ☆ चलना है बाकी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कहाँ तय हुआ

फ़ासला दुख भरा

अभी कंटकों में चलना है बाकी।

 

वही रोज़ की

चिकचिकों से घिरा

दिन उजाले को ले

सूर्य द्वारे खड़ा

शाम अख़बार सी

एक बासी ख़बर

तम से हर रात

दीपक अकेला लड़ा

 

कहाँ क्या हुआ

रोती अब भी धरा

अभी पीर का तो गलना है बाकी।

 

नियम कायदे

जैसे मजबूरियाँ

घुल रही ख़ून में

एक ज़िंदा हवस

ओढ़कर बेबसी

पाँव यायावरी

लौट आये वहीं

जिस जगह थे तमस

 

लादकर बेड़ियाँ

श्रम हुआ अधमरा

अभी मंज़िलों पर पहुँचना है बाकी।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ इसका मतलब ये तो नही… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कविता  ?

☆ इसका मतलब ये तो नही… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

(मराठी भावानुवाद ⇒ अस होत नसतं ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆)

रास्ता बंद हो गया

इसका मतलब ये तो नही

              ….कि रास्ता खत्म हो गया

 

दिये का तेल खत्म हुआ

इसका मतलब ये तो नही

              ….कि प्रकाश खत्म हो गया

 

पतझड हो गयी

इसका मतलब ये तो नही

              …. कि पेड़ मर चुका

 

हाँ, यह सच है

क्षणिक अंधेरा उद्ध्वस्त करता है मन

किन्तु,

वही क्षण दिखाता है आनेवाली किरण

 

मन का क्या भरोसा

खेलेगा वो हर पल नया खेल

बद्ध करो उसे बुद्धि की शृंखला से

 

आखिर जिंदगी क्या है ?

 

उठो, लड़ो उम्मीद से

और उड जाओ फिर एक बार

              ….फिनिक्स की तरह !

© सुहास रघुनाथ पंडित 

संपादक ई-अभिव्यक्ति (मराठी)  

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अस होत नसतं ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ असं होतं नसतं ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

(हिन्दी भावानुवाद ⇒  इसका मतलब ये तो नही…☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆)

रस्ता बंद झाला

म्हणजे रस्ता संपला

              ….असं होत नसतं

 

दिव्यातलं तेल संपलं

म्हणजे प्रकाश संपला

              ….असं होत नसतं

 

पानं झडून गेली

म्हणजे झाडही वठलं

              ….असं होत नसतं.

 

असतो एखादा क्षण काळाकुट्ट

पण तोच करतो मन घट्ट.

 

पुन्हा उठावं,लढावं आणि जिंकावं

असं वाटणं म्हणजे जगणं

 

मन खेळतच जाणार नवा खेळ,

क्षणाक्षणाला ;

पण बुद्धीच्या शृंखलांनी आवरावं त्याला,

झेप घ्यावी नव्या उमेदीनं अन्

व्हावं आपणही एक फिनिक्स !

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 177 ☆ बाई… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 177 ?

💥 बाई… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

काहीतरी या मनात

सदा  आहेच सलते

दु:ख कोणते सदैव

 बाई  आहेच दळते

 

बाईपण सोसू कसे

चिंता अखंड करते

शैशवात फुलताना

काट्यावर ती  वसते

 

आई म्हणाली हळूच

कानी तेराव्याच वर्षी

“मोठी झालीस तू आता”

नको जाऊस दाराशी

 

 आत कोंडले स्वतःस

  नाही दारापाशी गेली

  रूप ऐन्यात पाहून

  स्वतः वरती भाळली

 

बाई आहे म्हणताना

जीणे अन्यायाचे आले

अशा त-हेने जगता

ओझे आयुष्याचे झाले

© प्रभा सोनवणे

१६ मार्च २०२३

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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