हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ कदर जाने ना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी ⇒ कदर जाने ना? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हम सभी की भावनाओं का ख्याल रखते हैं, और महिलाओं का सम्मान ही नहीं, कद्र भी करते हैं। साहित्य ने भले ही हमारी कद्र ना की हो, हम संगीत के कद्रदान हैं, और फिल्मी संगीत सुन सुनकर ही आज कानसेन बन बैठे हैं।

हमें ना तो कोई शिकायत जमाने से है और न ही कोई शिकायत अपनी पत्नी से। जिस तरह संगीत ने पिछले सत्तर सालों से हमारा साथ निभाया है, हमारी धर्मपत्नी  भी पचास वर्षों से हमारा साथ निभाती चली आ रही है।

चले थे साथ मिलकर, चलेंगे साथ मिलकर। तुम्हें रुकना पड़ेगा, मेरी आवाज सुनकर।।

संगीत की हमारी शिक्षा दीक्षा  केवल रेडियो सीलोन सुनने तक ही सीमित रही। आप चाहें तो हमें एक अच्छा श्रोता कह सकते हैं। हुस्न, इश्क, जुल्फ और दामन जैसे शब्द हमने यहीं से सीखे हैं। सहगल का दौर निकल चुका था और अनारकली, बैजू बावरा, मुगले आजम और मेरे महबूब का जमाना था। सुरैया, शमशाद, नूरजहां और खुर्शीद के साथ लता, आशा, रफी, तलत, किशोर और राजकपूर की आवाज मुकेश, के तराने लोग गुनगुनाते रहते थे।

जब जीवन में कोई कद्रदान मिलता है, तो आपकी लाइफ बन जाती है। आप किसी के हसबैंड बन जाते हैं, कोई आपकी वाइफ बन जाती है। आपने, अपना बनाया, मेहरबानी आपकी ! हम तो इस काबिल ना थे, है कद्रदानी आपकी।।

मदनमोहन ही तो लाए थे वह खूबसूरत नगमा हमारे लिए ! 

आपकी नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल हमें, और, जी हमें मंजूर है, आपका हर फैसला।

हर नजर कह रही, बंदा परवर शुक्रिया।

गृहस्थी की गाड़ी बस ऐसे ही तो चल निकली थी हमारी भी। सारे तीज, त्योहार और उत्सव कितने उत्साह से संपन्न होते थे।  हरताली तीज हो अथवा करवा चौथ ! तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा। तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता।  हमें अपने आप पर भरोसा नहीं होता था जब ऐसे गीत कानों में पड़ते थे;  मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे।।

हमारे गीतकार वर्मा मलिक  भी कम नहीं आग में घी डालने में ! तेरी दो टकियां दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए। हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी। लेकिन हमारी धर्मपत्नी बहुत समझदार निकली। छोड़ दें सारी दुनिया, किसी के लिए। ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए। प्यार से जरूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए।

लेकिन किसे पता था, उम्र के इस पड़ाव पर आकर हमें भी मदन मोहन का ही यह गीत भी सुनना पड़ेगा ;

कदर जाने ना

मोरा बालम, बेदर्दी

कदर जाने ना …

हम संगीत प्रेमी तरानों और पत्नी के तानों को बराबर का महत्व और सम्मान देते हैं। आखिर इन ५० बरसों में ऐसा क्या बदल गया कि बालम, बेदर्दी हो गए। हमने तो कभी नहीं कहा, सजनवा बैरी हो गए हमार। कुछ तो गड़बड़ है।।

उम्र के साथ अगर महिलाएं धार्मिक होती चली जाती हैं तो पुरुष पॉलिटिकल ! जिस टीवी पर कभी पूरा परिवार बैठकर दूरदर्शन देखता था, आजकल धर्मपत्नी में आस्था और सत्संग के संस्कार जाग गए हैं। न्यूज, शेयर मार्केट और कॉमेडी शो के लिए  पति को मोबाइल और लैपटॉप का सहारा लेना पड़ता है। घर, घर नहीं, राज्यसभा लोकसभा टी वी हो चला है।

टेबल पर पत्नी चाय रखकर चली गई है, सीहोर वाले लाइव आ रहे हैं। नाश्ता कब का ठंडा हुआ पड़ा है। कानों में कुछ गर्मागर्म शब्द प्रवेश कर रहे हैं। पूरी जिंदगी इनके लिए खपा दी, लेकिन इन्होंने हमारी कभी कद्र ही नहीं की।।

लेकिन शब्द मोम बनकर नहीं पिघल रहे। लता का मधुर स्वर याद आ रहा है ;

लाख जतन करूं

बात न माने जी

बात न माने

मेरा दरद न जाने जी।

कदर जाने ना

हो कदर जाने ना

मोरा बालम बेदर्दी

कदर जाने ना …

सोचता हूं, अगर अभी भी कद्र नहीं जानी, तो बहुत देर हो जाएगी। घर घर की यही कहानी है। जागो बेदर्दी बालमों, अब तो जागो।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कृष्णस्पर्श भाग-3 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श भाग – 3 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

आज उत्तरंग में माई जी कुब्जा की कथा सुनाने वाली थी। माई कहने लगी, ‘‘हमने पूर्वरंग में देखा, कि मनुष्य के बाह्य रूप की अपेक्षा उसके अंतरंग की भावना महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर को भी भाव की भूख होती है। ईश्वर पर नितान्त श्रद्धा रखने वालों को कुब्जा की कथा ज्ञात होगी ही। चलो। आज हम सब मथुरा चलते हैं।

मथुरा में आज भगवान् कृष्ण पधार रहे हैं। आज कुछ खास होने वाला है। सबका मन अस्वस्थ है। दिल में अनामिक कुतुहल हैं, साथ-साथ कुछ चिंता, बेचैनी भी है। अष्टवक्रा (जिस का तन आट जगह टेढ़ा-मेढ़ा है) कुब्जा मन में विचार कर रही है,

‘‘आज मुझे कृष्णदर्शन होंगे ना? क्या मैं उनके पैरों पर माथा टेक सकूँगी? उन्हे चन्दन लगा सकूँगी?

कितने दिन हो गए, उस पल को! सारा जग निद्रित था। मध्यरात्रि का समय था। मैं यमुनास्नान के लिए गई थी। कोई देखकर मेरे रूप का उपहास न करे, ताने न कसे, इसले लिए, मध्य प्रहर में ही स्नान करने का प्रण कितने ही दिनों से लिया था मैंने। उस दिन, नहीं. नहीं. उस मध्याह्नरात में, नदी के उस पार से आनेवाली कृष्ण जी की मुरली की धुन सुनी और मुझे लगा, मेरा जीवन सार्थक हो गया।”

सुश्री मानसी काणे

माई जी के रसीले विवेचन ने श्रोताओं के सामने साक्षात् कुब्जा खड़ी कर दी। उसका मन स्पष्ट हो रहा था। काली स्लेट पर लिखे सफेद अक्षरों की तरह श्रोता कुब्जा का मन पढ़ने लगे थे। हाथ पीछे करके माई जी ने कुसुम को ईशारा किया। वह गाने लगी।

अजून नाही जागी राधा अजून नाही जागे गोकुळ

अशा अवेळी पैलतिरावर आज घुमे का पावा मंजुळ।

(अभी राधा सोई हुई है। सारा गोकुल सोया है। ऐसे में उस पार बाँसुरी की यह मधुर धुन क्यों बज रही है।)

मुरली की वह धुन अब कुसुम को भी सुनाई देने लगी। उसके कान में वे सुर गूँजने लगे।

विश्वच अवघे ओठा लावून । कुब्जा प्याली तो मुरली रव।

(जैसे पूरा विश्व अपने होठों से लगाकर कुब्जा ने मुरली की ध्वनि पी ली।)

कुब्जा कहाँ? वह कुस्मी थी। या कृष्णयुग की वही कुब्जा, आज के युग की कुस्मी बनी थी और धीरे-धीरे अपने भूतकाल में प्रवेश कर रही थी।

माई जी कहने लगी, ‘‘मथुरा के राजमार्ग पर सभी श्रीकृष्ण् की राह देख रहे थे। इतनें में कुब्जा लड़खड़ाती हुई आगे बढ़ी। कुछ लोग बोलने लगे…”

कुसुम ने साकी गाना प्रारंभ किया,

नकोस कुब्जे येऊ पुढ़ती SSS करू नको अपशकुना SSS

येईल येथे क्षणी झडकरी नंदाचा कान्हा SSS

(कुब्जा तुम आगे मत बढ़ो। मनहूस न बनो। अपशकुन मत करो। अब यहाँ किसी भी क्षण नंद का कान्हा आएगा।)

माई जी ने विवेचन करना प्रारंभ किया… कुब्जा पूछने लगी, ‘‘क्या मेरे दर्शन से भगवान् को कभी अपशकुन होगा? भक्तन से मिलने पर भगवान् को कभी अपशकुन हुआ है? फिर वे कैसे भगवान्?”

वह मन ही मन कहने लगी, ‘‘कितने साल हो गए, इस क्षण की प्रतिक्षा में ही मैं जिंदा रही हूँ। इसी क्षण के लिए मैंने अपनी ज़िंदगी की हर साँस ली है…।”

सभामंडप में उपस्थित श्रोता निश्चलता से साँस रोककर माई जी को सुन रहे थे। कुब्जा की भावना चरम सीमा पर पहुँची थी।

माई आगे की कथा सुनाने लगी। इतने में ‘‘आया, आया, कृष्णदेव आ गया। गोपालकृष्ण महाराज की जय।” मथुरा के प्रजाजन ने कृष्णदेव का जयजयकार किया।”… इसी समय माई जी के आवाज में अपनी आवाज मिलाकर सभामंडप में उपस्थित श्रोताओं ने भी जयजयकार किया।

‘‘…कृष्णदेव आ गए। कुब्जा आगे बढ़ी। सैनिकों ने उसे पीछे खींच लिया। पर आज उसमें न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी, उन्हें ढकेलकर कुब्जा आगे बढ़ी। हाथ में चाँदी की कटोरी, कटोरी में चंदन, दूसरे हाथ में मोगरे की माला… यह सब बनाने के लिए उसे सारी रात कष्ट उठाना पड़ा था। कृष्ण को यह सब अर्पण करके उस का कष्ट सार्थक होने वाला था।”

माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी।

शीतल चन्दन उटी तुझिया भाळी मी रेखिते

नवकुसुमांची गंधित माला गळा तुझया घालते

भक्तवत्सला भाव मनीचा जाणून तू घेई

कुब्जा दासी विनवितसे रे ठाव पदी मज देई

(मैं तुम्हारे माथे पर चन्दन टीका लगा रही हूँ। नवकोमल सुगन्धित पुष्पमाला तुम्हें पहना रही हूँ। हे भक्तवत्सल, मेरे मन का भाव तू जान ले। यह कुब्जा दासी तुम्हें विनती करती है, कि अपने चरणों में मुझे जगह दे।)

‘कुब्जा को भगवान् को चन्दन लगाना था। उसके गले में माला पहनानी थी, किन्तु वह इतनी लड़खड़ा रही थी, कि उसके हाथ और कृष्ण का माथा, गला इनका मेल नहीं हो रहा था। जब कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे से कुब्जा का पैर दबाया, तो लड़खड़ाने वाली कुब्जा स्थिर हो गई। उसने चन्दन लगाकर कृष्ण को माला पहनाई और अनन्य भाव से कृष्ण की शरण में आई। अपना सिर कृष्ण के पैरों पर रख दिया। उस के बाहु पकड़कर कृष्ण ने उसे उठाया और कितना आश्चर्य…

‘स्पर्शमात्रे कुरूप कुस्मी रूपवती झाली

अगाध लीला भगवंताची मथुरे ने देखिली

देव भावाचा भुकेला… भावेवीण काही नेणे त्याला’   

(उसके स्पर्श से कुरूप कुस्मी रूपवती बन गई। भगवान् की अगाध लीला मथुरा के समस्त नागरिकों ने देख ली। भगवान् भक्त के मन का भाव, श्रद्धा देखते हैं। श्रद्धाभाव के सिवा भगवान् को कुछ भी नहीं चाहिये।)

कुसुम ने भैरवी गाने का प्रारम्भ किया था। उसके अबोध मन ने कुब्जा की जगह स्वयं को देखा था और भैरवी में कुब्जा न कहते हुए, कुस्मी कहा था। माई के ध्यान में सब गड़बड़ी आ गई, किन्तु श्रोताओं की समझ में कुछ नहीं आया। शायद उन्हें पूर्व कथानुसार कुब्जा ही सुना दिया हो।

कुसुम गाती रही… गाती रही… गाती ही रही। माई ने कई बार इशारे से उसे रोकने का प्रयास किया, पर कुसुम गाती ही रही। मानो, कुस्मी ने भगवान् के चरणों पर माथा टेका हो। वह उनके चरणों में लीन हो गई हो। भगवान् ने अपने हाथों से उठाया, और क्या? कुसुम रूपवती हो गई। अब भगवान् के गुणगान के सिवा उसकी ज़िंदगी में कुछ भी बचा नहीं था। कुछ भी… कुसुम गाती रही… गाती रही… गाती ही रही।

छ: बज चुके थे। कीर्तन समाप्त करने का समय हो गया था। कुसुम का गाना रुक नहीं रहा था। आखिर उसे वैसे ही गाते छोड़कर माई जी कथा समाप्ति की और बढ़ी।

‘हेचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा। विसर न व्हावा। तुझा विसर न व्हावा।’

(हे भगवान्! हमें इतना ही दान दे दे, कि हम तुम्हें कभी भूले नहीं।)

ऐसा कहते हुए उन्होंने प्रार्थना की और आरती जलाने को कहा।

आरती शुरू हो गई, तो कुसुम को होश आ गया। वह गाते गाते रुक गई। गाना रुकने के साथ-साथ, उसके चेहरे की चमक भी लुप्त हो गई। अपनी भूल का उसे अहसास हो गया। वह डर गई। हड़बड़ा गई। और ही बावली लगने लगी। तितली की शायद इल्ली बनने की शुरुआत होने लगी।

आरती का थाला घुमाया गया। उसमें आए पैसे, फल, नारियल, किसी ने समेटकर माई जी को दे दिए। देशमुख जी ने माई जी को रहने के लिए जो कमरा दिया था, उसकी ओर माई जाने लगी। उनके पीछे-पीछे डरती-सहमती, पाँव खींचती, खींचती, इल्ली की तरह कुसुम भी जाने लगी।

आज पहली बार माई को महसूस हुआ, कि कुसुम इतनी विरूप नहीं है, जितनी लोग समझते हैं। वह कुरूप लगती है, इसका कारण है, आत्मविश्वास का अभाव। गाते समय वह कितनी अलग, कितनी तेजस्वी दिखती है, मानो कोश से निकलकर इल्ली, तितली बन गई है… रंग विभारे तितली।

माई नें ठान ली, अब इस तितली को वे फिर से कीड़े-मकोड़े में परिवर्तित नहीं होने देगी। आत्मविश्वास का ‘कृष्णस्पर्श’ उसे देगी। अब वह उसे किसी अच्छे उस्ताद के पास गाना सिखाने भेजेगी। कीर्तन सिखाएगी। उसे स्वावलंबी, स्वयंपूर्ण बनाएगी। उनके दिल में कुसुम के प्रति अचानक प्यार का सागर उमड़ आया।

क्या आज माई के विचारों को भी ‘कृष्णस्पर्श’ हुआ था?

☆  ☆  ☆  ☆  ☆ 

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #163 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 163 ☆

☆ “संतोष के दोहे …” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जीवन के किस मोड़ पर, जाने कब हो अंत

मिलकर रहिये प्रेम से, कहते  साधू संत

 

कोई भी न देख सका, आने वाला काल

काम करें हम नेक सब, रहे न कभी मलाल

कौन यहाँ कब पढ़ सका, कभी स्वयं का भाल

कोई भी न समझ सका, यहाँ समय की चाल

 

ईश्वर ने हमको दिये, जीवन के दिन चार

दूर रहें छल-कपट से, रखिये शुद्ध विचार

जीवन में गर चाहिए, सुख शांति “संतोष”

काम-क्रोध् मद-लोभ् से, दूर रहें रख होश

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “बाबासाहब दोहों में” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“बाबासाहब दोहों में” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

बाबासाहब श्रेष्ठ थे, किया उच्चतर काम।

जिनके संग हरदम रहें, गौरवमय आयाम।।

संविधान का कर सृजन, दी हमको पहचान।

बाबासाहब दे गए, हमको चोखी शान।।

बाबासाहब ज्ञान थे, रखा हमारा मान।

विधि में हम आगे बढ़े, हुए पूर्ण अरमान।।

संसद के गौरव बने, सामाजिक उजियार।

बाबासाहब ने दिया, मानवता का सार।।

बाबासाहब चेतना, जन-जन के अरमान।

हर जन को आवाज़ दी, किया सकल उत्थान।।

शिक्षा के आलोक से, किया दूर अंधियार।

समरसता का भाव तो, बना मधुर उपहार।।

भीमराव अम्बेडकर, बना गए इतिहास।

ऐसे बंदे ही सदा, हो जाते हैं ख़ास।।

बाबासाहब गीत थे, बने मधुरतम साज़।

करता है हर एक जन, उन पर तो नित नाज़।।

शोषित-पीड़ित पा गए, एक सुखद संसार।

बाबासाहब दिव्य थे, एक अलौकिक प्यार।।

बाबासाहब धन्य हैं, धन्य सभी आचार।

देशभक्ति के भाव से, हर विकार पर मार।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ ।। स्मृतिशेष पिता स्व.विलास ज्ञानोबा उबाळे की स्मृति में सुपुत्री डॉ. प्रेरणा विलास उबाळे की ओर से पुस्तकें और छात्रवृत्ति प्रदत्त।। ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🍁।। स्मृतिशेष पिता स्व.विलास ज्ञानोबा उबाळे की स्मृति में सुपुत्री डॉ. प्रेरणा विलास उबाळे की ओर से पुस्तकें और छात्रवृत्ति प्रदत्त ।। 🍁

दिनांक 13 अप्रैल 2023 को डॉ. प्रेरणा उबाळे (हिंदी विभागाध्यक्ष, मॉडर्न कॉलेज, शिवाजीनगर) ने 27,000 रुपयों की हिंदी भाषा, व्याकरण, यूपीएससी प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी पाठ्यपुस्तकें, सामान्य ज्ञान, हिंदी -मराठी-अग्रेजी शब्दकोश, सेट-नेट-बी एड सीईटी से संबंधित 160 से अधिक पुस्तकें स्व. विलास ज्ञानोबा उबाळे (बी. ए. अँग्रेजी ऑनर्स, दयानंद कॉलेज तथा पूर्व आबकारी निरीक्षक, पिंपरी-चिंचवड नगर निगम) जी की स्मृति में हिंदी विभागीय ग्रंथालय के लिए भेंट रूप में प्रदान की । 

साथ ही वॉलीबॉल छात्र खिलाड़ी विनीत शिंदे (द्वितीय वर्ष, वाणिज्य, बी. बी. ए. – बी. सी. ए. विंग, मॉडर्न महाविद्यालय, शिवाजीनगर) को पिताजी की स्मृति में दो हजार रुपयों की छात्रवृत्ति प्रदान की l

स्व. विलास उबाळे जी ने शिक्षा के महत्व को समझा और कई जरूरतमंद व्यक्तियों को आर्थिक और शैक्षिक सहायता प्रदान की। साथ ही अपने कॉलेज जीवन में वे विश्वविद्यालय, जोनल स्तर पर वॉलीबॉल और बास्केटबॉल चैंपियन रह चुके थे। उन्होंने हिन्दी राष्ट्रभाषा की कुछ परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं। इसलिए उनकी सुपुत्री डॉ. प्रेरणा उबाले ने हिंदी विभागीय ग्रंथालय को किताबें और छात्र खिलाड़ी को छात्रवृत्ति देकर औचित्यपूर्ण भेट प्रदान की l

स्व. विलास उबाळे जी का 66 वर्ष की आयु में 30 अगस्त 2021 को एक अल्प बीमारी के कारण दुखद निधन हो गया था l

प्रस्तुत कार्यक्रम में महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. राजेंद्र झुंजारराव , वाणिज्य शाखा की संयोजक डॉ. फिलोमीना फर्नांडिस, हिंदी विभाग के प्राध्यापक असीर मुलाणी, प्रा. संतोष तांबे, एम. ए. हिंदी साहित्य के छात्रों ने उपस्थिति दर्शायी l

साभार – डॉ. प्रेरणा उबाळे

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

 ≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वंदन विश्वभीमाच्या चरणी… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ उर्फ कवि भादिक ☆

प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वंदन विश्वभीमाच्या चरणी… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ उर्फ कवि भादिक ☆ 

१ . …

भीम माझा महामेरू प्रबोधनाचा,

त्राता पददलितांचा,

विसावा अवघ्या मानवजातीचा ;

सर्वहारा माणसाचा श्वास

मानवतेचा विश्वास

नवनिर्मितीचा  ध्यास;

वंदन विश्वभीमाच्या चरणी

२. …

दिले तुम्ही महासंविधान –

स्वातंत्र्याला आकार दिला,

गाडले अमानुष जातीयतेला ,

मतपेटीतून फुलली रक्तहीन क्रांती ,

बसली भारत भूवर शांती ,

दिले तुम्ही महासंविधान

समतेच्या शिंपल्यात

नवयानाचा मोती !

© प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ उर्फ कवि भादिक

ईमेल- [email protected]

मो व वाटसॅप नं. – ९९७५४३५१५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #170 ☆ डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर – संघर्ष जीवनाचा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 170 – विजय साहित्य ?

डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर – संघर्ष जीवनाचा…!✒ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

डाॅ.  बाबासाहेब आंबेडकर

कार्यप्रवण तो संघर्ष जीवनाचा

राज्य घटना शिल्पकार हे

नाव नसे ध्यास असे जगण्याचा. . . !

 

रामजीचा ज्ञानसूर्य शोभला

भिमाईचा मातृभक्त लेक लाडका

राज्य घटनेचा रचयिता

दीन दलितांचा प्राण बोलका. . . !

 

सदैव लढले, लढत राहिले

विचार आणि कतृत्वाने

समाज बांधव उद्धाराला

सदैव तत्पर निर्धाराने.. . !

 

राज्य करीते मनामनावर

संघर्षांचे सचेत पाऊल

डाॅ.  बाबासाहेब आंबेडकर

उत्कर्षाची मनास चाहूल. . . . !

 

देशोदेशी तुमचा डंका

निळ्या नभाचा मंत्र महान

शिका ,लढा नी संघटीत व्हा

उद्धारक हे बोल नव्हे वरदान.. . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पळसफुले… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पळसफुले… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

उन्हाळ्याच्या चाहूलवेळी

वनज्योती अंगी चेतवूनी

त्रिदलपर्णी पळस हा तर

 फुलूनी बहरला रानीवनी

 

लालचुटुक शुकचंचूपरी

शोभती पलाश कलिका

 लालकेशरी पळसफुले

उधळती हास्य मौक्तिका

 

तीव्र उन्हाचा दाह सोसूनी

पळस झळकतो अंगांगी

अग्नीत तापून सुवर्ण जसे

बावनकशी लखलखे सर्वांगी

 

वर्दळ येथे शत भुंग्यांची

मधु चाखण्या खगही आतुर

फुलाफुलातील रंगासवे

 सृष्टीत या रंगोत्सवा बहर

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “वाघांची संख्या…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “वाघांची संख्या…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

ते आपल्या आजूबाजूला वर्तमानपत्र, लॅपटॉप, मोबाईल असा सगळा पसारा मांडून बसले होते. स्वतः काढलेली, आपल्यासाठी इतरांकडून (मुद्दाम) काढून घेतलेली, जूनी, नवीन अनेक (फक्त आणि फक्त वाघांची) छायाचित्रे देखील ते परत परत पहात होते. (सारखे सारखे पाहून त्यांच्या मानेला देखील रग लागली होती. म्हणून त्यांनी मानेचा पट्टा परत एकदा नीट केला.) पण त्यांच्या दृष्टीने त्यांच्याकडे (भागात) असलेले वाघ आणि जाहीर झालेली वाघांची संख्या याचा ताळमेळ काही बसत नव्हता. आपल्या मुलाच्या कॅमेऱ्यात काही (आपल्या) वाघांचे फोटो आहेत का? म्हणून त्यांनी मुलाला हाक मारली. पण तो आदि(च) कुठेतरी याच कामासाठी (नेहमीप्रमाणे) गेला होता.

मागच्या काही काळात यांना आकडेवारी गोळा करायची आणि आपणच सांगायची अशी सवय लागली होती. पण आज ते जाहीर झालेली आकडेवारी बघत होते. आकडेवारी नुसार वाघांची संख्या वाढली होती. पण मग हे वाढलेले वाघ नक्की कुठे आहेत? हाच प्रश्न त्यांना पडला होता. हे म्हणजे “बहरला पारिजात दारी फुले का पडती शेजारी” प्रमाणे आपण प्रयत्न करुन देखील वाघांची संख्या आपल्या हद्दीत नाहीच वाघांचे ठाणे (घरोबा) दुसरीकडेच. अशीच परिस्थिती सध्या जाणवत होती.

यासाठी त्यांनी काटेकोरांना देखील कामाला लावले होते. पण कामाला लावण्या अगोदरच एखादे काम अंगावर घेण्याची सध्या त्यांना सवय लागली असल्याने काटेकोर अगोदरच कामाला लागले होते. काहीही करून हे काम वेळेच्या आधी संपवायचे असा त्यांचा विचार होता, त्यामुळे थोड्या थोड्या वेळाने ते आपल्या घड्याळात बघत होते. पण काटेकोरांसमोर देखील नाना अडचणी होत्याच. आता मदतीसाठी नक्की कोणाचा हात घ्यावा यावर ते विचार करत होते, पण या समस्येवर  काही प्रकाश पडत नव्हता. त्यांना आकडेवारी लवकर हवी होती, त्यामुळे दूरदृष्टीचे संजय त्यांना सध्यातरी नको होते. काकांना विचारावे असे वाटल्याने त्यांनी काकांना फोन देखील केला. काका म्हणाले अरे वाघांचे काय घेऊन बसला आहेस‌.

दुपारी वाघ गुहेत आराम करत होते तेव्हा यांची (चार) माणसे विनाकारण वणवण फिरत कारण नसतांना वाघ शोधत होते. तेव्हा वाघ सुरक्षित व आपापल्या गुहेतच होते. आणि रात्री दमून भागून यांची माणसे आराम करत होती तेव्हा वाघ गुहेतून बाहेर पडले आणि भक्ष्य शोधण्याच्या नादात ते दुसऱ्या हद्दीत कधी आणि कसे पोहोचले ते लक्षात देखील आले नाही. आणि आता तिथेच त्या वाघांना सुरक्षित वाटत असेल तर ते सुरक्षित असेपर्यंत तिथेच थांबतील, परतणार नाही ना……. वाघ जरी असला तरी तो इतरांसाठी…… त्याला स्वतःला सुरक्षित वाटले पाहिजे की नाही……..

प्रश्न सगळ्या वाघांचा असेल तर एकत्रित दिलेली आकडेवारी जवळपास खरी असेल. पण प्रश्न फक्त आपल्याच भागातील (आपले) वाघ आणि त्यांची संख्या असा प्रश्न असेल तर ते प्रत्येकाने आपले आपणच पाहिलेले जास्त बरे असते. कारण वाघांचे देखील काही प्रश्न असतीलच ना….. नाहीतर तो असा भटकला किंवा भरकटला असता का?

ते उगाचच आपली हद्द सोडून कशाला जातील.‌….. दुसऱ्या हद्दीत जातांना त्यांना देखील भिती असतेच. तु याचा विचार करु नकोस. तुला दुसरे काही काम नसेल तर मी सांगतो काय करायचे ते. असे म्हणत काकांनी फोन ठेवला सुध्दा……..

आता काय? वाघ किती? आणि त्यापैकी आपले किती? यातही लहान वाघ आणि मोठे वाघ यांची खरी संख्या कळण्यासाठी सगळ्यांनाच काही काळ थांबणे भाग आहे. या काळात प्रत्येकजण आपापल्या भागातील वाघांचे संरक्षण आणि संवर्धन करेलच…… बाकी वाघ समर्थ आहेच………….

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘एक नंबर शिवणार’… भाग २ – लेखक – श्री राजेंद्र परांजपे ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?जीवनरंग ?

☆ ‘एक नंबर शिवणार’… भाग २ – लेखक – श्री राजेंद्र परांजपे ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

(मागील भागात आपण पाहिले – दुर्दैवाने राजारामने लिहून दिलेला त्याचा नंबर माझ्याकडून हरवला. त्यामुळे नंतर त्याच्याशी कुठलाच संपर्क झाला नाही. बाबासाहेबांकडून त्याचा नंबर घेईन म्हंटलं, पण तेही राहूनच गेलं.  आता इथून पुढे)

ह्या घटनेनंतर साधारण नऊ दहा वर्षांनी एकदा दुपारी ठाण्याला मी एका मित्राच्या लग्नाला गेलो होतो. तिथून जेवून परत घरी येताना, हॉल स्टेशनजवळ होता, म्हणून जेवण जिरवायला चालत स्टेशनकडे निघालो. नेमकं त्याचवेळी माझ्या बुटाच्या सोलने मला दगा दिला. बुटाला सोडून सोल लोंबकळू लागला. मात्र माझ्या नशिबाने तिथून पन्नास फुटावरच मला एक चांभराचं दुकान दिसलं. कसातरी खुरडत मी त्या दुकानापर्यंत पोचलो. तिथला चांभार खालमानेने काहीतरी शिवत होता. मी त्याच्या पुढ्यात माझा सोल सुटलेला बुट टाकला.

“सोल सुटलाय का, आत्ता शिवतो बघा.” तो म्हणाला.

“दादा, जरा चांगला शिवा हं. मला लांब जायचंय.” मी म्हणालो.

“साहेब, अगदी एक नंबर शिवणार बघा. काळजीच नको.” त्याच्या तोंडचे हे शब्द ऐकून मी चमकलो. हा राजाराम तर नव्हे?

“राजाराम?” मी सरळ हाकच मारली.

हाकेसरशी त्याने वर बघितलं. तो राजारामच होता. माझ्याकडे त्याने दोन मिनिटं बघितलं आणि म्हणाला, “साहेब, तुम्ही ते अंधेरीचे इतिहास संशोधनवाले ना?” मी हो म्हणालो. पठ्ठ्याच्या लक्षात होतं तर. मला बरं वाटलं. एकमेकांना ओळखल्यावर साहजिकच आम्ही गप्पा मारु लागलो. बोलता बोलता तो म्हणाला, आता मी कामासाठी पूर्वीसारखा फिरत नाही. हे खोपटं भाड्याने घेतलय. रोज इथे मी आणि मुलगा येतो, आणि काम करतो. माझ्या फिरण्यामुळे आणि चोख कामामुळे बरेचजण मला ओळखतात. ते फाटकी पुस्तकं, वह्या वगैरे इथे घेऊन येतात. माझा मुलगा ते शिवतो आणि मी चपला, बुट वगैरे शिवतो.

मुलगा? मी चमकलो. माझ्या आठवणीप्रमाणे राजारामला मूलबाळ नव्हतं, मग हा मुलगा कुठून आला? माझ्या चेहऱ्यावरील प्रश्न ओळखून राजारामच पुढे म्हणाला,    

“साहेब, माझा सख्खा मुलगा नाही. त्याचं काय झालं, सात आठ वर्षांपूर्वी एक दिवशी मी ठाण्याला स्टेशनवर उतरलो, तेव्हा पुलाखाली मला एक लहान पांगळा मुलगा दिसला. कुठल्या तरी भिकाऱ्याचा असावा. चेहऱ्यावरून उपाशी दिसत होता. मला त्याची दया आली म्हणून मी एक बिस्कीटचा पुडा घेऊन त्याला द्यायला गेलो, तेव्हा तो गुंगीत आहे असं लक्षात आलं. मी त्याच्या अंगाला हात लावून बघितलं, तर अंग चांगलंच गरम लागलं. सणकून ताप भरला होता. मग मी तसाच त्याला उचलला आणि स्टेशनजवळच्या एका ओळखीच्या डॉक्टरांकडे घेऊन गेलो. डॉक्टरांनी तपासून त्याला औषध दिलं.  तोपर्यंत हे सगळं ठीक होतं. त्यानंतर आता ह्या मुलाचं काय करायचं हा विचार माझ्या मनात आला. पण मी धाडस करुन आणि काय होईल ते बघू असं ठरवून त्याला थेट माझ्या घरीच घेऊन गेलो. बायकोने आणि आईने त्या मुलाला बघून बरेच प्रश्न विचारले. मी त्यांना काय घडलं ते सविस्तर सांगितलं. आधी त्यांनी दुसऱ्याच्या अनोळखी मुलाला घरात घ्यायला काचकूच केलं. पण नंतर त्याची अवस्था बघून त्या तयार झाल्या. थोड्या दिवसांनी औषधांनी आणि चांगल्या खाण्यापिण्याने तो मुलगा बरा झाला. म्हणून मी त्याला, परत होता तिथे सोडून येतो म्हणालो, पण तोपर्यंत त्या दोघींना त्याचा लळा लागला. त्यांनी नेऊ दिलं नाही. तसंही आम्हाला मूलबाळ नव्हतं आणि इतक्या दिवसात त्याची चौकशी करायला कुणीही आलं नव्हतं. हा अपंग मुलगा कुणाला तरी जड झाला असेल, म्हणून दिला असेल सोडून. दुसरं काय? राहू दे राहील तितके दिवस. माझ्या आईने त्याचं नाव किसन ठेवलं. आधी आम्हाला तो नुसता पांगळाच वाटला, पण नंतर त्याची जीभही जड आहे हे लक्षात आलं. तो तोतरा बोलतो. पण ह्या दोन गोष्टी सोडल्या तर अगदी हुशार आहे. घरी मी पुस्तकं शिवायचं काम करायचो, तेव्हा माझ्या बाजूला बसून माझं काम तो लक्षपूर्वक बघायचा. तीन चार वर्षातच त्याने माझं काम आत्मसात केलं. आता तो लिहा वाचायला पण शिकतोय. साहेब, आमचं हातावर पोट आहे. त्याला घरी ठेवला तर माझ्या बायकोला किंवा आईला त्याच्यासाठी घरी थांबायला लागतं, त्यांचा कामावर खाडा होतो. त्यात त्याच्या तोतरेपणामुळे आजूबाजूची मुलं त्याला चिडवून बेजार करतात, म्हणून मी त्याला पाठूंगळीला मारुन रोज इथे माझ्या मदतीला घेऊन येतो.” एका दमात राजारामने सगळं कथन केलं.

“अरे पण आहे कुठे तो, मला तर दिसत नाही.” सगळं ऐकून आणि आश्चर्यचकित होऊन मी म्हणालो.

“या, दाखवतो,” असं म्हणून राजाराम मला त्याच्या दुकानाच्या मागच्या बाजूला घेऊन गेला.

तिथे कंपाऊंडची भिंत आणि राजारामचं दुकान याच्या मधल्या, प्लॅस्टिकचं छप्पर असलेल्या छोट्याश्या जागेत एक पांगळा मुलगा अगदी तन्मयतेने एक जुनं पुस्तक शिवत बसला होता. राजारामने उजेडासाठी तिथे एका बल्बची सोय केली होती. त्या मुलाच्या आजबाजूला काही फाटकी आणि काही शिवलेली वह्या, पुस्तकं होती. कामातली त्याची सफाई अगदी राजारामसारखीच वाटत होती. राजारामने त्याची आणि माझी ओळख करुन दिली. माझ्याकडे बघून त्याने हात जोडले व तो छान हसला. मला राजारामचं आणि त्या मुलाचं खूप कौतुक वाटलं. त्याचबरोबर मला त्या मुलाची दयाही आली, म्हणून मी राजारामला विचारले,

“राजाराम, तू ह्याला मागे का बसवतोस? पुढे तुझ्या बाजूला बसव. तिथे उजेड चांगला आहे आणि जागाही मोठी आहे.”

“साहेब, आधी त्याला मी पुढेच बसवायचो. पण नंतर लक्षात आलं, की लोकं एकाच ठिकाणी चपला आणि पुस्तकं शिवायला द्यायला बिचकतात. त्यातूनही काहींनी काम दिलं तर ते पैसे किसनच्या कामाकडे न बघता त्याच्या पांगळेपणाकडे बघून द्यायचे. ते मला आवडत नव्हतं. म्हणून मग मी त्याला मागे बसवायला लागलो. त्या अरुंद जागेची त्याला आता सवय झालीय. आता तो कुणाला दिसत नाही. त्यामुळे सगळेच प्रश्न सुटले. साहेब, तो त्याच्या पांगळ्या पायांवर कधीच उभा नाही राहिला तरी चालेल. पण आपल्या हिमतीवर उभा राहीला पाहिजे. कुणाच्या दयेवर नको.” राजारामने स्पष्टीकरण दिलं.

राजारामच्या ह्या विचारांनी मी थक्क झालो. अशा विचारांची माणसं आजच्या जगात खरंच दुर्मिळ आहेत. राजारामचं आणि किसनचं पुन्हा एकदा कौतुक करुन, त्यांचा निरोप घेऊन मी निघणार, इतक्यात राजाराम म्हणाला,

“साहेब आणखी एक सांगू? आजवर आम्ही तिघांनी चपला, वह्या, पुस्तकं, गोधड्या, पिशव्या ह्या निर्जीव वस्तू खूप शिवल्या, त्यावर आमचं पोट भरलं. पण आता आम्ही ह्या पांगळ्या मुलाचं फाटलेलं आयुष्य शिवणार. आणि अगदी एक नंबर शिवणार बघा. हे देवाने दिलेलं काम आहे, ते करायलाच पाहिजे.”

राजारामचं ते वाक्य माझ्या मनावर कायमचं कोरलं गेलं आणि माझ्या मनातली त्याची प्रतिमा शतपटीने उंचावली.

 – समाप्त –

मूळ लेखक – राजेंद्र परांजपे  

संग्राहक – मेघःशाम सोनवणे

मो 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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