(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ तू ज़िंदगी भर सजता संवरता रहा…”।)
ग़ज़ल # 72 – “तू ज़िंदगी भर सजता संवरता रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “द्वैत – अद्वैत”।)
अभी अभी ⇒ द्वैत – अद्वैत… श्री प्रदीप शर्मा
गिनती एक से शुरू होती है और एक शून्य उसे अनंत बना देता है। हर शून्य के बाद एक का महत्व बढ़ता जाता है और अगर सिर्फ एक हटा दिया जाए, तो सब शून्य। महत्व एक का अधिक है या शून्य का। एक शुरुआत है, और शून्य अंत भी, और अनंत भी।
एक से एक मिलकर दो होते हैं। जब दोनों मिलकर एक होते हैं, तो फिर एक पैदा होता है, मिठाई बंटती है ! यही द्वैत-अद्वैत का सिद्धांत है। ईश्वर एक है और वह घट घट में समाया है। जो घट जैसा है, वही स्वरूप उसने पाया है।।
मैं ही ब्रह्म हूं, यह भ्रम बहुत लोग पाल लेते हैं, और सबमें ब्रह्म है, मानने वाले, ब्रह्म को जल्दी जान लेते हैं। ज्ञान और भक्ति द्वैत अद्वैत के दो छोर हैं। उद्धव श्रीकृष्ण के कहने पर ज्ञान का टोकरा लेकर बृज में गोपियों के पास आते हैं। गोपियां सीधा सा जवाब दे देती हैं ;
उधो, मन न भये दस बीस
एक हुतो, सो गयो श्याम संग,
को अवराधे शीश।
उधो उन्हें नमन कर वापस मथुरा चले आते हैं। अद्वैत मुक्ति प्रदान करता है, जिसे लोग मोक्ष कहते हैं। द्वैत में जीव शरणागति हो जाता है। वह अपने इष्ट के चरणों की सेवा करता है। इष्ट उसकी सेवा से प्रसन्न हो, उसे अपने हृदय से लगा लेते हैं।
विरह में जलना ही भक्ति है।
ज्ञान की अग्नि में जलना ही मुक्ति है। बिना जले कोई खाक नहीं होता।
ईश्वर एक था। उस एक ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की। एक से अनेक पैदा किए। खुद ही अवतार लेता है, अद्वैत से द्वैत का भ्रम फैलाता है। कभी जीव को माया में, कभी ब्रह्म में उलझाता है। बार बार धर्म बीच में और ले आता है।।
अध्यात्म मानने से जानने की प्रक्रिया है। धर्म माने हुए को स्वीकार कर लेता है। यहां तर्क, कुतर्क नहीं होते। भक्ति विराट तक पहुंचने के लिए झुकने को कहती है, अध्यात्म ऊपर उठने का कहता है। भक्ति का चरम हनुमान है। ज्ञान का योगेश्वर श्रीकृष्ण , जिनकी प्राप्ति शरणागति से होती है।।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Neelam ji, through her poems, takes us into the sphere of light through the darkness in which one can find that Lost Mint Taste, as she calls it, and be invigorated again.)
(Ms. Neelam Saxena Chandra)
☆ English Literature – Book-Review ☆ ‘The lost mint taste‘ by Ms. Neelam Saxena Chandra ☆ Mrs. Poornima Rao ☆
Neelam Saxena’s ‘The lost mint taste’, an anthology of fifty poems, can be a soul freshner in a collector’s cabinet. It is a bouquet of fifty different flowers arranged creatively to enrapture the beholder. Each flower is unique in fragrance and makeup and definitely does not trespass the other.
Neelam ji draws abundantly from the Indian panorama, be it family or social issues. So you connect instantly with each poem . It is the honest portrayal in each that binds you. While poems ‘Madness’, Work from home’, ‘To you my daughter, ‘The Pain’, directly resonate in your drawing room, some like the ‘Wandering Singer’ are almost alive at your doorstep. Her love for nature oozes in ‘Pristine Nature’ and ‘The Ultimate Destination ‘ to mix with traces of anger in ‘Water’.
I particularly liked her series of six poems dedicated to the mystical and boundless love of Radha and Krishna from genesis to its emotional closure. Trees as metaphor for societal imposters though unusual is deftly penned in ‘The Towering Tree’ and ‘Ego’
That she can handle lighter themes and evince laughter in the reader with equal ease is evident in the poems with which she concludes her book. It is definitely ninety nine pages of happy reading with no dull moment.
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।नई पीढ़ी को सौंपनी है, शुद्ध स्वच्छ पर्यावरण की विरासत।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 64 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।।नई पीढ़ी को सौंपनी है, शुद्ध स्वच्छ पर्यावरण की विरासत।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “रेल पर दो कविताएं…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #128 ☆ कविता – “रेल पर दो कविताएं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(16 अप्रेल, 1853 – यह दिवस ऐतिहासिक ,जब दौड़ी थी पटरी पर रेल पहली बार…)
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज प्रस्तुत है इस शृंखला का अंतिम भाग।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 23 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
अर्थ:- हे हनुमान जी आप पवन पुत्र हैं। सभी संकटों को दूर करने वाले हैं। आप अपने भक्तों का उपकार करने वाले हैं। हे सभी देवताओं के स्वामी, आप श्री राम, माता सीता और श्री लक्ष्मण सहित हमारे हृदय में बस जाएं।
भावार्थ:- यह हनुमान चालीसा का अंतिम दोहा है। इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी एक बार फिर हनुमान जी से अपनी मांग दोहरा रहे। इसके पहले उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की थी कि श्रीराम चंद्र जी उनके हृदय में आ कर रहे। परंतु इस बार वह कह रहे हैं देवताओं के राजा आप श्री रामचंद्र जी माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ मेरे हृदय में आकर निवास करें। इस दोहे में तुलसीदास जी ने हनुमान जी को सभी का मंगल करने वाला, पवन पुत्र तथा सभी प्रकार के संकट दूर करने वाला भी बताया है।
संदेश:- अपने हृदय में हमेशा अपने आराध्य और गुरु को बसा कर रखें। इससे आपको जीवन में हमेशा सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी।
इस दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
हनुमान चालीसा का यह दोहा जीवन मे मंगलदायक है और सभी संकटों से मुक्ति दिलाता है।
विवेचना:- सबसे पहले हम इस दोहे के पहली पंक्ति पहले पद का अन्विक्षण और चिंतन करते हैं। पद है “पवन तनय संकट हरण”। इस पद के आधे हिस्से में पवन तनय कहा गया है और आधे हिस्से में संकट हरण कहा गया है। यहां पर हनुमान जी को वायुपुत्र के रूप में संबोधित किया गया है। इन शब्दों के माध्यम से तुलसीदास जी ने यह बताने की कोशिश की है जिस प्रकार वायु बादलों को तेजी के साथ हटा करके वातावरण को साफ कर देती है उसी प्रकार हनुमान जी भी संकट के बादलों को हटाकर आपको संकटों से मुक्त कर सकते हैं।
हनुमान जी को पवन तनय कहने के संबंध में पूरी विवेचना हम इसी पुस्तक में पहले कर चुके हैं। फिर से इस बात की दोबारा विवेचना करना उचित नहीं होगा। इसलिए इस शब्द की विवेचना यहां पर छोड़ देते हैं।
दूसरा पद है संकट हरण। हनुमान जी को हम सभी संकट मोचक भी कहते हैं। हनुमान जी ने कई बार श्री रामचंद्र जी और वानर सेना को संकटों से मुक्त किया है। इन्होंने तुलसीदास जी को भी संकटों से मुक्त किया है। इसके अलावा हनुमान जी ने संकट मोचन के बहुत सारे कार्य किए। कुछ को हम बता रहे हैं :-
1- सुग्रीव को राजपद दिलाने के लिए रामचंद जी से मुलाकात करवाई।
2- सीता जी की खोज की।
3-रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया।
4-लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी बूटी लाए।
5- भरत जी को श्री रामचंद्र जी के लौटने की खबर दी। आदि, आदि
अगला पद है “मंगल मूरति रूप “
हनुमान जी सबका मंगल करने वाले हैं। तुलसीदास जी ऐसा कह कर के बताना चाहते हैं कि हनुमान जी का उनके ऊपर असीम कृपा है और वे उनका हर तरफ से अच्छा करेंगे। हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर आए हुए सभी संकटों को दूर करेंगे। जब भक्त का भगवान के ऊपर संपूर्ण विश्वास होता है, उसके समस्त ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं, तब भक्त के सामने ऐसी स्थिति आती है कि उसे सब मंगल लगता है। भगवान भी भक्तों को मंगल रूप लगते हैं।
मंगला मंगल यद् यद् करोतीति ईश्वरो ही मे।
तत्सर्वं मंगलायेति विश्वास: सख्यलक्षणम्। ।
मंगल या अमंगल, प्रभु जो कुछ करेंगे वह मेरे मंगल के लिए ही होगा। ऐसा विश्वास होना चाहिए। मुझे क्षणिक जो मंगल लगता है वह कदाचित् मेरा मंगल नहीं भी होगा। उसी प्रकार जो मुझे क्षणिक अमंगल लगता है वह मेरे मंगल के लिए भी हो सकता है। ऐसा विश्वास होना चाहिए। इसलिए तुलसीदासजी भगवान को मंगल मूरति रुप कहते है।
हृदय में हनुमान जी को रखने के लिए हमें अपना हृदय खुला रखना पड़ेगा। हृदय के अंदर हमें देखना पड़ेगा कि भगवान जी बैठे हैं या नहीं। कबीर दास जी ने लिखा है कि:-
नयनोंकी की करि कोठरी पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारि के पिय को लिया रिझाय।।
हमें भी ऐसे ही अनुभव लेना चाहिए।
श्री भगवत गीता के 15वें अध्याय के 15वें श्लोक में श्री भगवान ने कहा है कि:-
‘स्र्वस्व चाहं हृदि संन्निविष्ट:’
अर्थात वे कहते हैं मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हूँ इसलिए तेरा जीवन चलता है।
हमें अपने अंदर से “मैं अर्थात अपने अहंकार ” को निकालना पड़ेगा। हमें अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा। हमें सोचना होगा की ‘मै आपका हूँ आपका कार्य करता हूँ, आपके लिए करता हूँ। मेरा कुछ नही, मै भी अपना नही हूँ यह भक्त की भूमिका है।
हे भगवान! वित्त आपका! आपकी लक्ष्मी मेरे पास है, परन्तु वह आपकी धरोहर है। यह भागवत का दर्शन है। अत: भक्ति में तीन बातें पक्की करनी है, ‘मुझे मालूम नहीं है’, ‘मै नही करता’ ‘मेरा कुछ नहीं है’। जिसके जीवनमें ये तीन बातें पक्की हो गयी वह भक्त है। भक्त बनने के लिए वृत्ति बदलने का प्रयत्न चाहिए। मानव को लगना चाहिए, ‘कुछ नहीं बनना है’ की अपेक्षा वैष्णव बनना है, मुझे कुछ बनना है। मुझे हनुमानजी जैसा भक्त बनना है ऐसी हमारे जीवन में, अभिलाषा का निर्माण हो। इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते है।
तुलसीदास जी ने दोहा की अगली पंक्ति में लिखा है :-
राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप। ।
रामजी शांत रस के परिचायक हैं उनको कभी-कभी क्रोध आता है। लक्ष्मण जी वीर रस के परिचायक हैं इनको वीरोचित क्रोध हमेशा आता है। माता जानकी करुण रस की परिचायक है। इन तीनों रस जब आपस में मिल जाते हैं तब हनुमान जी का निर्माण होता है। हनुमान जी के अंदर शांति भी है, क्रोध भी है, करुणा भी है और वे रुद्र भी हैं।
हनुमान जी की मूर्ति कई प्रकार की प्रतिष्ठित है। एक मूर्ति में हनुमान जी बैठ कर के भजन गा रहे दिखाई देते हैं। यह उनके शांति रूप की प्रतीक है। इस मूर्ति को घर में लगाने से घर में प्रतिष्ठा रहती घर संपन्ना रहता है किसी तरह की कोई विपत्ति नहीं आती है।
श्री हनुमान जी की एक दूसरी मूर्ति दिखाई पड़ती है। इसमें हनुमान जी उड़ते दिखाई पड़ते हैं। उनके दाहिने हाथ पर संजीवनी बूटी का पहाड़ रहता है। यह मूर्ति उस समय की है जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी। वे मूर्छित हो गए थे। हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत तक संजीवनी बूटी लाने के लिए गए थे। वहां पर उनको संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई। उन्होंने पूरा पहाड़ उठा लिया और चल दिए। रास्ते में भरत जी ने उनको कोई राक्षस समझकर वाण मारकर घायल कर दिया था। वाण लगने के बाद वे फिर घायल अवस्था में ही चल दिए थे। यह मूर्ति करुण रस का प्रतीक है।
हनुमान जी की तीसरी मूर्ति वीर रस की प्रतीक है। इसमें हनुमान जी उड़ते हुए पुंछ में लगी आग से लंका को जला रहे होते हैं। उस समय के सबसे बड़े महाबली रावण के राजधानी में घुसकर अकेले के दम पर पूरे शहर में ही आग लगा देना बहुत वीरता का कार्य है। इस प्रकार यह मूर्ति वीर रस की मूर्ति है।
हनुमान जी की चौथी मूर्ति पंचमुखी हनुमान की मिलती है। इसे हम रुद्रावतार भगवान हनुमान जी का रौद्र रूप कह सकते हैं।
हनुमान जी के पंचमुखी रूप एक की कहानी है। राम और रावण के युद्ध के समय रावण के सबसे बड़े पुत्र अहिरावण ने अपनी मायवी शक्ति से स्वयं भगवान श्री राम और लक्ष्मण को मूर्क्षित कर पाताल लोक लेकर चला गया था। अहिरावण देवी का भक्त था और उसने राम और लक्ष्मण को देवी जी की मूर्ति के सामने बलि देने के लिए रख दिया। बलि देने के दौरान उसने पांच दीपक जलाए और देवी को आमंत्रित किया। उसने यह दीपक मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित किए थे। देवी की शक्ति के कारण जब तक इन पांचों दीपकों को एक साथ में नहीं बुझाया जाता है तब तक अहिरावण का कोई अंत नहीं कर सकता था। अहिरावण की इसी माया को सामाप्त करने के लिए हनुमान जी ने पांच दिशाओं में मुख किए पंचमुखी हनुमान का अवतार लिया। पांचों दीपक को एक साथ बुझाकर अहिरावण का वध किया। इसके फलस्वरूप भगवान राम और लक्ष्मण उसके बंधन से मुक्त हुए। फिर श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधों पर बैठा कर हनुमान जी वापस अपने सैन्य शिविर में ले आए।
मैं आपको एक बार पुनः लंका दहन के समय ले चलता हूं। हनुमान जी लंका दहन के उपरांत अपने पूंछ कि तीव्र गर्मी से व्याकुल तथा पूँछ की आग को शांत करने हेतु समुद्र में कूद पड़े थे। उस समय उनके पसीने की एक बूँद जल में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया। पसीने की एक बूंद के कारण वह गर्भवती हो गई। इसी मछली से मकरध्वज उत्पन्न हुआ, जो हनुमान के समान ही महान् पराक्रमी और तेजस्वी था। वह मछली तैरती हुई अहिरावण के पाताल लोक के पास पहुंची। वहां पर वह अहिरावण की सेवकों द्वारा फेंके गए मछली पकड़ने के जाल में फंस गई। उस मछली के पेट को काटने पर महा प्रतापी मकरध्वज निकले। मकरध्वज को पाताल के राजा अहिरावण ने पातालपुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया था। पातालपुरी जाते समय हनुमान जी को मकरध्वज ने रोका। पिता और पुत्र में युद्ध हुआ और हनुमान जी ने मकरध्वज को मूर्छित कर अपनी पूंछ में बांध लिया। जब श्री राम और श्री लक्ष्मण को लेकर लौट रहे थे तब श्री रामचंद्र जी ने पूछा कि तुम्हारे पूंछ में बंधा हुआ यह कौन वानर है। परम प्रतापी हनुमान जी ने पूरी कहानी बताई। रामचंद्र जी ने मकरध्वज को आजाद कर पातालपुरी का राजा नियुक्त कर दिया। अगर भारत के दक्षिण क्षेत्र से कोई सुरंग इस प्रकार खोदी जाए कि वह पृथ्वी के दूसरे तरफ निकले तो वह उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के बीच में बसे होंडुरस नामक देश में पहुंचेगी।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने मध्य अमेरिका महाद्वीप के होंडुरास में सियूदाद ब्लांका नाम के एक गुम प्राचीन शहर की खोज की है। वैज्ञानिकों ने इस शहर को आधुनिक लाइडर तकनीक से खोज निकाला है।
इस शहर के वानर देवता की मूर्ति भारतवर्ष के घुटनों के बल बैठे महावीर हनुमान की मूर्ति से मिलती है। यहां के भी वानर देवता की मूर्ति के हाथ में एक गदा है।
यही वह शहर है जिसे हम अहिरावण का पाताल लोक कहते हैं। इस बात को मानने के पीछे कई कारण हैं जिसमें प्रमुख हैं :-
1-यह सभी जगह अखंड भारत के ठीक नीचे हैं अखंड भारत से अगर कोई लाइन कोई सुरंग खोदी जाए तो वह उत्तरी अमेरिका के इन्हीं देशों के आसपास कहीं निकलेगी।
2-इन्हीं जगहों पर वक्त की हजारों साल पुरानी परतों में दफन सियुदाद ब्लांका में ठीक राम भक्त हनुमान के जैसे वानर देवता की मूर्तियां मिली हैं। अहिरावण को मारने के उपरांत वहां की राजगद्दी परम वीर हनुमान जी के पुत्र महाबली मकरध्वज जी को दी गई थी। इस प्रकार पाताल लोक जो की इस समय होंडुरास कहलाता है में वानर राज प्रारंभ हुआ। और वहां पर हनुमान जी की मूर्तियां भारी मात्रा में मिलती हैं।
3- वहां के इतिहासकारों का कहना है की प्राचीन शहर सियुदाद ब्लांका के लोग एक विशालकाय वानर देवता की मूर्ति की पूजा करते थे। यह मूर्ति तत्कालीन शासक मकरध्वज के पिता महाप्रतापी हनुमान जी की है।
इस प्रकार यह पुष्ट हुआ है कि अहिरावण के पाताल लोक को आज हम हौण्डुरस के नाम से जानते हैं। हौन्डुरस मध्य अमेरिका में स्थित देश है। पूर्व में ब्रिटिश हौन्डुरस (अब बेलीज़) से अलग पहचान के लिए इसे स्पेनी हौन्डुरस के नाम से जाना जाता था। देश की सीमा पश्चिम में ग्वाटेमाला, दक्षिण पश्चिम में अल साल्वाडोर, दक्षिणपूर्व में निकारागुआ, दक्षिण में प्रशांत महासागर से फोंसेका की खाड़ी और उत्तर में हॉण्डुरास की खाडी से कैरेबियन सागर से मिलती है। इसकी राजधानी टेगुसिगलपा है।
हनुमान जी के पंचमुखी स्वरूप की भी चर्चा कर लेते हैं। बजरंगबली के पंचमुखी स्वरूप में उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, पूर्व में हनुमान मुख और आकाश की तरफ हयग्रीव मुख है।
जीवन के प्रवाह में शांत रस, वीर रस, करुण रस और रौद्र रस सभी की आवश्यकता पड़ती है। जब सामान्य समय है आप शांत रूप में रह सकते हैं। जब कोई विपत्ति पड़ती है तब अपने आप आपके अंदर से करुण रस बाहर आता है। इस विपत्ति के समय पर विजय पाने के लिए आपको वीर बनना पड़ता है। फिर आपको वीर रस की आवश्यकता होती है। जब किसी कारण बस आप अत्यंत क्रोध में होते हैं तब आपका रौद्र रूप सामने आता है।
इस प्रकार जीवन के उठापटक में सभी को चारों तरह के गुणों की आवश्यकता पड़ती है। हनुमान चालीसा के अंत में तुलसीदास जी हनुमान जी से यही मांग कर रहे हैं कि आप चारों उनके हृदय में निवास करें।