हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 75 ☆ व्यंग्य – बिजली बैरन भई ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य बिजली बैरन भई।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 74 ☆

☆ व्यंग्य – बिजली बैरन भई

ज्यादा नहीं कोई पचास सौ बरस पुरानी बात है, तब आज की तरह घर-घर बिजली नहीं थी, कितना आनंद था। उन दिनों डिनर नहीं होता था, ब्यारी होती थी। शाम होते ही लोग घरों में लौट आते थे। संध्या पूजन वगैरह करते थे, खाना खाते थे। गांव – चौपाल में लोक गीत, रामायण भजन आदि गाये जाते थे। ढबरी,लालटेन या बहुत हुआ तो पैट्रोमैक्स के प्रकाश में सारे आयोजन होते थे।

दिया बत्ती करते ही लोग जय राम जी की करते थे। राजा महाराओं के यहां झाड़ फानूस से रोशनी जरूर होती थी।  और उसमें नाच गाने का रास रंग होता था, महफिलें सजती थी।  लोग मच्छरदानी लगा कर चैन की नींद लेते थे और भोर भये मुर्गे की बांग के साथ उठ जाते थे, बिस्तर गोल और खटिया आड़ी कर दी जाती थी।

फिर आई ये बैरन बिजली, जिसने सारी जीवन शैली ही बदल कर रख दी। अब तो जैसे दिन वैसी रात। रात होती ही नहीं, तो तामसी वृत्तियां दिन पर हावी होती जा रही है। शुरू-शुरू में तो बिजली केवल रोशनी के लिए ही उपयोग में आती थी,फिर उसका उपयोग सुख साधनों को चलाने में होने लगा, ठंडक के लिये घड़े की

जगह  फ्रीज ने ले  ली।  वाटर हीटर, रूम हीटर उपलब्ध हो गए। धोबी की जगह वाश मशीन आ गई ।  जनता के लिये शील अश्लील चैनल लिये चौबीसो घंटे चलने वाला टीवी वगैरह हाजिर है। कम्प्यूटर युग है। घड़ी में रोज सुबह चाबी देनी पड़ती थी, वह बात तो आज के बच्चे जानते भी नहीं आज जीवन के लिये हवा पानी सूरज की रोशनी की तरह बिजली अनिवार्य बन चुकी है। कुछ राजनेताओं ने खुले हाथों बिजली लुटाई, और उसी सब का दुष्परिणाम है कि आज बिजली बैरन बन गई है।

बिजली है, और उसके चाहने वाले ज्यादा, परिणाम यह है कि वह चाहे जब चली जाती है, और हम अनायास अपंग से बन जाते हैं, सारे काम रूक जाते हैं, इन दिनों बिजली से ज्यादा तेज झटका लगता है- बिजली का बिल देखकर। जिस तरह पुलिसवालों को लेकर लोकोक्तियॉं प्रचलन में है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी है न दुश्मनी। ठीक उसी तरह जल्दी ही बिजली विभाग के लोगों के लिए भी कहावतें बन गई हैं।

बिजली के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इसे कहीं भरकर नहीं रखा जा सकता, जैसे पानी को टंकी में रखा जा सकता है। किंतु समय ने इसका भी समाधान खोज निकाला है, और जल्दी ही पावर कार्डस हमारे सामने आ जायेंगे। तब इन पावर कार्ड्स के जरिये, बिजली का पेमेंट हो सकेगा, वही कल के प्रति आश्वस्ति के लिये लोग ठीक उसी तरह ढेरों पावर कार्ड खरीद कर बटोर सकेंगे

जैसे आज कई गैस सिलेंडर रखे जाते है। सोचिये ब्लैकनेस को दूर करने वाली बिजली को भी ब्लैक करने का तरीका ढूंढ निकालने वाले ऐसे प्रतिभावान  का हमें किस तरह सम्मान करना चाहिए।

बिजली को नाप जोख को लेकर इलैक्ट्रोनिक मीटर की खरीद और उनके लगाये जाने तक, घर-घर से लेकर विधानसभा तक, खूब धमाके हुये। दो कदम आगे, एक कदम पीछे की खूब कदम ताल हुई और जारी है। सौभाग्य योजना कई के लिए दुर्भाग्य बन रही है, बिल वसूली टेढ़ी खीर होती जा रही है,  बिजली के वोट में बदलने के गुर नेता जी सीख गए हैं। निजीकरण के नाम पर बिजली घर सारा, इंफ्रास्ट्रक्चर बेच वंशी बजाने के  मूड में सरकार है। कर्मचारियों की आवाज आ रही है। बिजली बैरन भई। ग्रिड फेल हो रहा है, बेहाल जनता चिल्ला रही है बिजली बैरन भई

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 66 – चाक का प्रसाद ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा   “चाक का प्रसाद।  सुखान्त एवं प्रेरणास्पद / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 66 ☆

☆ लघुकथा – चाक का प्रसाद ☆

छोटा सा गाँव और गाँव के बाहर मैदान, जहाँ पर एक कुम्हार अपनी झोपड़ी बनाकर रहता था।

परिवार में छोटा बच्चा और पत्नी, आसपास थोड़ी पेड़ पौधे और बाहर आँगन पर उसकी चाक पड़ी रहती थी। बिल्कुल पास में ही छोटा सा मंदिर था। कुल मिलाकर बहुत ही दयनीय अवस्था। दिये, कुल्हड़, मटकी बनाया करता था। बिक जाते तो आटा दाल अच्छे से मिलता और कभी ना बिके तो जो मिले उसी से गुजारा होता।

गाँव बस्ती में एक फल वाली अम्मा जिसका कोई नहीं था अकेले रहती थी और फल लाकर  गाँव में बेचती थी। शहर से टोकरी लेकर वह बस से गाँव के बाहर उतरती थी। प्रतिदिन का काम था कि वह एक दो फल उस  मंदिर पर चढ़ा देती थी।

उस की टोकरी को हाथ लगा कर सिर चढ़ाने के लिए कुम्हार या उसकी पत्नी कोई भी खड़े रहते थे। कुम्हार की स्थिति देख फलवाली को बहुत दया आती पर स्वयं भी एक एक रुपए का सौदा करती थी।

इसलिए कभी ज्यादा नहीं दे पाती थी और जान बूझकर फल मंदिर में डाल जाती थी। मंदिर में जो फल मिलता था उसे कुम्हार की पत्नी अपने बच्चे को उठाकर दे देती थी।

सुभाष अपनी मां से और फल की मांग करता परंतु माँ कहती ‘चाक प्रसाद’ है बस एक ही खाया जाता है। जब दिवाली आएगी और बिक्री होगी तो खूब सारा प्रसाद चाक पर आयेगे और तब खा लेना।

बरसों बीत गए सुभाष पढ़ाई करने लगा। गरीबी कार्ड से उसे पढ़ने का अवसर मिल गया और पढ़ाई करने के बाद शहर के सरकारी अस्पताल में उसे परिचय पत्र बनाने का काम मिल गया।

सब कुछ भूल चुका था। अचानक एक दिन अस्पताल में कुछ काम से निकलकर वार्ड का चक्कर लगाते हुए देखा कि एक महिला गिरे केले के छिलके उठाकर खा रही थी। पाँव उसके वहीं ठिठक गए।

वह वहाँ से किसी को बताए बिना चुपचाप आकर नर्स और डॉक्टर से कहकर उस का इंतजाम करवाने लगा। अपने बिस्तर के पास टोकरी पर रखे ताजा फलों को देख अम्मा की आँखें भर आई। उसी समय नर्स ने हँसकर कहा…. “रोती क्यों हो अच्छे से खाओ और ठीक हो जाओ यह ‘चाक का प्रसाद’ है।”

‘चाक का प्रसाद’ बुढ़ी अम्मा सोचने लगी। दोपहर में गरम-गरम खाना लेकर सुभाष खड़ा था।

झलझलाती आंखों से उस बालक को पहचान लिया। और फिर भी रोते हुए लिपट पड़ी ।अस्पताल के कर्मचारी समझ न सके कि ‘चाक के प्रसाद’ का क्या मामला है। सभी को फल बांटा गया।

अब माँ खुश हो गई सभी ने समझा शायद किसी मंदिर से चाकदेव भगवान का प्रसाद आया है। सुभाष अपनी फल वाली माँ को पाकर बहुत खुश था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 67 ☆ अर्थव्यवस्था (हज़ल) ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 67 ☆

☆ अर्थव्यवस्था (हज़ल)  ☆

रोज सकाळी हवा उतारा उठल्या नंतर

इलाज नाही दारुत पुरता फसल्या नंतर

 

नशा शोधली अशी कशी ही अरे माणसा

तरंगताना दिसतो दारुत बुडल्या नंतर

 

अपशब्दांची उधळण होते तोंडामधुनी

असेच घडते त्यांच्या सोबत बसल्या नंतर

 

बैठक आता कशी थांबवू तुम्हीच सांगा

ग्लास दारुचा ओठांना ह्या भिडल्या नंतर

 

हातामधला ग्लास डोलतो चढते त्याला

मी तर मानव डोलणार ना चढल्या नंतर

 

दया करावी धर्म सांगती सारे येथे

पामरास या उचलुन घ्यावे पडल्या नंतर

 

देशाची ह्या अर्थव्यवस्था माझ्यावरती

देश चालणे कठीणच दारु सुटल्या नंतर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

बेचैनी  मन की बढ़ी, व्यस्त क्षणों के बाद ।

कोलाहल को चीर कर, आई कोमल याद।।

 

बैठा हूं मैं दूर पर, यादों में प्रिय पास ।

सारी दूरी पा, मन उपजा विश्वास ।

 

बहुत दूर है आज हम, कल थे बहुत करीब।

काट रहे हैं जिंदगी, यादें बनी सलीब।।

 

वे मधुमेह पल याद है, याद मधुर संवाद ।

बहुत चाहता भूलना, आ जाती है याद ।।

 

प्रकट नहीं मुख से अगर, होती नहीं प्रतीति।

ठहरेगी कब तक भला, कालपात्र’ में प्रीति ।।

 

दहक रही है जिंदगी, ज्यों जंगल की आग ।

स्वाहा ध्वनियों से परे, कहां रहा है भाग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 13 ☆ व्यंग्य ☆ आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 13 ☆

☆ व्यंग्य – आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो 

नमस्ते ट्रम्प सर,

आपको हम भारतीय लोग बेहद पसंद करते हैं यह तो पता था, मगर क्यों, यह अब जाकर समझ में आया. इन्कम टैक्स की चोरी के मामले में आप तो बिलकुल हमारे जैसे निकले. सेम-टू-सेम. बल्कि हमारे भी गुरू निकले !! क्या जिगरा पाया है सर, पिछले अठारह साल में से ग्यारह साल तो धेलाभर टैक्स नहीं चुकाया. 2016 में चुकाया भी तो बस सात सौ पचास डॉलर, बोले तो मात्र पचपन हज़ार रुपये. इत्ता तो हमारे यहाँ लोअर क्लास बाबू की सेलेरी से कट जाता है. बहरहाल, खबर छपी तो आपका रिएक्शन आया ‘ये फेक न्यूज है’. सेम-टू-सेम हमारे जननायकों टाईप. लगा कि वाशिंगटन में भी हमारा अपना कोई राजनेता है जो अभी बस ट्वीट करने ही वाला है – ‘अपन तो बाबा-फ़कीर आदमी है, न इन्कम जानते हैं न टैक्स. सेवा कर रहे हैं देश की.’

बहरहाल, सोने जैसे बाल हैं आपके, सर. हम तो इन पर बहुत पहले से फ़िदा हैं मगर राज तो न्यूयार्क टाईम्स ने खोला. कंपनी खर्चे में डेबिट डाल के सत्तर हज़ार डॉलर तो आपने अपने बाल सवांरने पर खर्च किये, बोले तो पचास लाख रूपये. इत्ते में तो इंडिया में नया माथा प्लांट कर दें कॉस्मेटिक सर्जन्स. वैसे ईमानदारी से आपके सरतराश ने तो आपसे ज्यादा ही चुकाया होगा टैक्स. छोटे लोग ऐसी हिम्मत कहाँ कर पाते हैं. आदमी एक बार जमीर से गिरे तो वो अपने मातहतों के जमीर से भी नीचे गिर जाता है.

कसम से ट्रंप सर, कल को खुदा न ख्वास्ता आप चुनाव हार जाएँ तो घबराना मत – इंडिया में लड़ लेना. ऐसी क्वालिटी वाले नेताओं को हम सर-माथे पर बैठा के रखते हैं. हारते वे ही हैं जो ईमानदारी से टैक्स चुकाते हैं. बल्कि, आप तो सोचो मत, इंडिया आ ही जाओ सर. कुछ हम आपसे सीखेंगे, कुछ आप हमसे सीखना. माल कहाँ छुपाना है – टाईलेट की टाईल्स के पीछे, गद्दे में कॉटन के बीच, दीवार में ठुकी टोंटियों में, घर में लगी ठाकुरजी की प्रतिमा के नीचे. ट्रंप हाउस ऐसा बनवा देंगे कि इन्कम टैक्स ऑफिसर्स का बाप भी माल नहीं सूंघ पायेगा. और वैसे भी आपके घर छापा पड़ने की संभावना नहीं रहेगी. वो तो अपन के यहाँ तभी पड़ता है जब आप विपक्ष में हों और सत्तापक्ष में पाले गये दोस्तों से आपकी जुगाड़ कम हो गई हो. मंतर ये कि रहें तो सत्ता में, ना रहें तो भी सभी दलों में अपने मोहरे बिठाकर रखियेगा, तब कुछ ना बिगड़ेगा.

जब आयें तो पांच-सात एकड़ की खेती खरीद लीजियेगा. हमारे जननायक इत्ती खेती में तो करोड़ों की इन्कम दिखा लेते हैं. प्रोग्रेसिव कृषक जो ठहरे. कृषि वैज्ञानिक हैरान हैं कि बंजर जमीन में करोड़ों के सेब फल कैसे उग आते हैं. कहते हैं – ‘भाग्‍यवाले का खेत भूत जोतता है’. अपन के जननायक कमाते राजनीति में हैं, दिखाते खेती में हैं, इन्वेस्ट करते हैं शेल कंपनियों में, लांड्रिंग करते हैं शेयर बाज़ार में. उनका न कुछ बेनामी होता है और न कुछ आय से अधिक. देश सेवा का शुल्क मान कर रख लेते हैं मनी-मनी. एजेंसियां कहती हैं पनामा, सेशल्स या लिचटेंस्टीन टैक्स हेवन कंट्रीज हैं, वे गलत हैं. आदमी में थोड़ा सा रसूख और ढ़ेर सारी बेशर्मी हो तो कर बचाने का स्वर्ग अमेरिका भी है और इंडिया तो है ही.

इंडिया में इतना सब होते हुवे भी जब से आपके बारे में पढ़ा है – एक बड़ा वर्ग डिप्रेशन में चला गया है. उनको लगता है कि उनके ऊँट पहाड़ के नीचे आ गये हैं. उन्हें बचाने का उपाय ये है कि आप एक किताब लिखें – ‘रैपिडेक्स – आयकर बचाने के एक सौ एक शर्तिया नुस्खे’. बेस्ट सेलर वहाँ भी, यहाँ भी.

और अंत में, ये अपन के शर्ट की कॉलर ऊँची करके चलने के पल हैं. आखिर, अपन आप से ज्यादा इन्कम टैक्स जो चुकाते हैं ट्रंप सर. नहीं क्या ?

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 19 – कुछ शब्दचित्र ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “कुछ शब्दचित्र। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 19– ।। अभिनव गीत ।।

☆ कुछ शब्दचित्र

 

चित्र :: आमुख

 

बिखर गईं मुस्काने

होंठों की दराज से

माँगा जिनको सबने

चेहरे के समाज से

 

चित्र :: एक

 

मौसम डरा -डरा सा

बाहर को झाँका है,

मौका परदे के विचार

से भी बाँका है

 

चुपके पूछ रहा-

कपड़े क्या सस्ते हैं कुछ?

“तो खरीद लूँगा मैं”

कस्बे के बजाज से

 

चित्र :: दो

 

पेड़ों के पत्तों में

हलचल बढ़ने  वाली

शाख -शाख पर फैली

केसर उड़ने वाली

 

फैल रही खुशबू अब

चारों ओर सुहानी

हवा लुटाती है अपनापन

इस लिहाज से

 

चित्र :: तीन

 

वहीं ज्योति सी प्रखर

धूप की बेटी के मुख

अंग -अंग पर, छाया

रंग से बदल गया रुख

 

दोनों हाथों से घर में

वह सगुन स्वरूपा

डाल रही सगनौती है

छत पर अनाज से

 

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 65 ☆ कविता – महापौर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की एक सार्थक कविता  – महापौर। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 65

☆ कविता  – महापौर ☆ 

शहर का मुखिया,

महापौर ऐसा हो,

जब भी जहां मिले,

तो मुस्करा के मिले,

जन जन के दुःख दर्द,

खिल खिला के दूर करे,

धर्म सम्प्रदाय से उठकर,

मानव धर्म का निर्वाह करे,

तेज तर्रार आदर्श लिए,

हरियाली की बात करे,

धूल को शहर से भगा के,

चमचमाती सड़क दे,

गगनचुंबी इमारतों के पास,

झिलमिलाती रोशनी दे,

बेरोजगारों को रोजगार दे,

समस्याओं को मार दे,

वार्ड वार्ड घूमकर,

जन जन को प्यार दे,

जनहित के कार्य में,

घर -द्वार त्याग दे,

महकते गुलाब और,

आलीशान मुस्कान दे,

शहर के द्वार में,

शान शौकत प्यार दे,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 22 ☆ चाँद पाने का सफर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “चाँद पाने का सफर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 22 ☆ 

☆ चाँद पाने का सफर 

 

चांदी  की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

उसे पाने को जी भी ललचाया था कभी,

गोल-गोल चाँद से जड़ा आकाश,

आकाश में तारों के बीच में अड़ा,

सुन्दर कोमल, माँ की कटोरी से शायद बड़ा,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

छत पर खड़ी करती रहती हूँ मैं कोशिश कभी,

कैद करना चाहती हूँ आकाश के ये सुन्दर पूत को कभी,

छू लेना चाहती हूँ उस मौन प्रतीक को कभी,

क्या ये कोशिश पूरी हो पायेगी कभी,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #12 ☆ मास्क ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “मास्क”।  श्री श्याम खापर्डे जी ने  इस कविता के माध्यम से  मास्क के महत्व की चर्चा की है जो विचारणीय है।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 11 ☆ 

☆ मास्क ☆ 

दुविधा में है हर व्यक्ति

मिट ना जाये उसकी हस्ती

राह कोई सूझत नाही

डूब ना जाये जीवन की कस्ती

 

टोने टोटके काम ना आयें

व्यर्थ हो गई सारी सलाहें

तीव्र गति से फैलता जायें

कैसे रोकें कोई बतायें

 

लक्षण इसके समझ ना आये

हो जाये तब उभर कर आये

फेल हो गई सारी थ्योरी

कैसे अपनी जान बचाये

 

वैक्सिन नहीं जलद आने वाली

घोषणाएं है यह सब खाली

मास्क ही है बस एक उपाय

बिना मास्क कैसे करोगे रखवाली

 

मास्क आज कितना जरूरी है

मास्क बिना हर बात अधूरी है

मास्क नहीं तो कैसा जीवन

मास्क पहनना अब मजबूरी है

 

© श्याम खापर्डे 

09/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 18 ☆ अभंग—शब्दगंगा… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 18 ☆ 

☆ अभंग—शब्दगंगा… ☆

शब्दांचा प्रवाह,

वाहता असावा

मनात नसावा, न्यूनगंड…०१

 

शब्द गंगा सदा

वैचारिक ठेवा

अनमोल हवा, संदेश तो…०२

 

निर्मळ, सोज्वळ

असावे प्रेमळ

साधावे सकळ, योग्यकर्म…०३

 

शब्द ज्ञान देती

शब्द भूल देती

शब्द त्रास देती, नकळत…०४

 

म्हणुनी सांगणे

सहज बोलणे

शब्दांत असणे, प्रेमळता…०५

 

कवी राज म्हणे

अलिप्त असावे

सचेत रहावे, सदोदित…०६

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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