हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 178 ☆ मखमल के झूले पड़े… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मखमल के झूले पड़े। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 178 ☆

☆ मखमल के झूले पड़े…

भावनाओं को सीमा में नहीं बाँधा जा सकता, हर शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ होता है जिसको परिस्थितियों के अनुसार हम परिभाषित करते हैं। लाभ – हानि , सुख- दुख ये मुख्य कारक होते हैं; व्यक्ति के जीवन में एक के लिए जो अच्छा हो जरूरी नहीं वो दूसरे के लिए भी वैसा हो। काल और समय के अनुसार विचारों में परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

परिभाषा वही सार्थक होती है जो दूरदर्शिता के आधार पर निर्धारित हो, इसी तरह कोई भी रचना जब भविष्य को ध्यान में रख वर्तमान की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है तो वो लोगों को अपने साथ जोड़ने लगती है तब उसमें निहित संदेश व मर्म लोगों को समझ आने लगता है।

केवल मनोरंजन हेतु जो भी साहित्य लिखा व पढ़ा जाता है उससे हमारे व्यक्तित्व विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु जब हम ऐसे लेखन से जुड़ते हैं जो कालजयी हो तो वो आश्चर्यजनक रूप से आपके स्वभाव को बदलने लगता है और जो संदेश उस सृजन में समाहित होता है आप कब उसके हिस्से बन जाते हो पता ही नहीं चलता अतः अच्छा पढ़े, विचार करें फिर लिखें तो अपने आप ही सारे शब्द व विचार परिभाषित होने लगेंगे।

यही बात जीवन के संदर्भ में समझी जा सकती है, निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिना शाखा के बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आँकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है , सच पूछे तो वास्तविक आंनद भी तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले। हम सब सौभाग्यशाली हैं, 500 वर्षों की तपस्या रंग ला रही है, भावनात्मक जीत का प्रतीक राम जन्मभूमि स्थान पुनः जगमगाने लगेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #29 ☆ कविता – “अभी तो मैं जवान हूँ…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 29 ☆

☆ कविता ☆ “अभी तो मैं जवान हूँ…☆ श्री आशिष मुळे ☆

दिमाग की तलवार हूँ

समय की मैं धार हूँ

चढ़ता हुआ नशा हूँ

मैं बढ़ती हुई रात हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

 

दरिया हूँ भरा हुआ

कश्तियों की जान हूँ

जिगर की मैं शान हूँ

दिल की एक आन हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

 

वक्त की जो धूप है

सावन की ये आग है

फूलों की एक छांव हूँ

काँटों की मैं मौत हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

 

ज़ुल्फों की जो चांदी है

वो तो गुजरी आंधी है

चमकता एक अंदाज हूँ

जैसे कोई बाज हूँ

अभी तो मै जवान हूँ ।

 

जंगे पाया हजार हूँ

फिर भी आज जिंदा हूँ

पीकर भी एक प्यासा हूँ

जिंदगी का मैं प्यार हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 189 ☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 189 ☆

☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चंदा मामा, चंदा मामा

हमने सुंदर चित्र बनाए

हम लाए कुर्ता , पाजामा

तुमको पहनाकर  हरषाए।।

 

देखो चित्र एक अपना तो

जिसमें सूत कातती माता

गोल पूर्णिमा की आभा से

धरती का हर जीव सुहाता

 

खीर पेट भर खा लो मामा

काजू , किशमिस फल भी लाए।।

 

देखो एक चित्र अपना तो

चपटी लगे कछुआ – सी पीठ

कभी नारियल – से भूरे हो

कभी लगते बच्चों – से ढीठ

 

देख तुम्हारी सूरत , मूरत

रोज – रोज ही हम मुस्काए।।

 

तरबूजे की खाँफ सरीखे

रसगुल्ला – से लगते सफेद

रूप बनाते न्यारे – न्यारे

और न कभी तुम करते भेद

 

रात तुम्हारी मित्र अनोखी

रोज प्रेम से तुम बतलाए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #212 – कविता – ☆ माँ के बुने हुए स्वेटर से… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके माँ के बुने हुए स्वेटर से…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #212 ☆

☆ माँ के बुने हुए स्वेटर से… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

लगे काँपने कंबल

बेबस हुई रजाई है

ठंडी ने इस बार

जोर से ली अँगड़ाई है।।

 

सर्द हवाएँ सुई चुभाए

ठंडे पड़े बदन

ओढ़ आढ़ कर बैठे लेटें

यह करता है मन,

बालकनी की धूप

मधुर रसभरी मलाई है।

ठंडी में…

 

 धू-धू कर के लगी जलाने

 जाड़े की गर्मी

 रूखी त्वचा सिकुड़ते तन में

 नष्ट हुई नरमी,

 घी-तेलों से स्नेहन की

 अब बारी आई है।

 ठंडी ने….

 

बाजारु जरकिनें विफल

मुँह छिपा रहे हैं कोट

ईनर विनर नहीं रहे

उनमें भी आ गई खोट,

माँ के बुने हुए स्वेटर से

राहत पाई है।

ठंडी ने….

 

घर के खिड़की दरवाजे

सब बंद करीने से

सिहरन भर जाती है

तन में पानी पीने से,

सूरज की गुनगुनी धूप से

प्रीत बढ़ाई है।

ठंडी ने….

 

कैसे जले अलाव

पड़े हैं ईंधन के लाले

जंगल कटे,निरंकुश मौसम

लगते मतवाले

प्रकृति दोहन स्पर्धा की अब

छिड़ी लड़ाई है।

ठंडी ने….।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 36 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 36 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(एक पुराना गीत)

एक मिट्टी का

घड़ा है आदमी

छलकते अहसास से रीता।

 

मुँह कसी है

डोर साँसों की

ज़िंदगी अंधे कुँए का जल,

खींचती है

उम्र पनहारिन

आँख में भ्रम का लगा काजल

 

झूठ रिश्तों पर

खड़ा है आदमी

व्यर्थ ही विश्वास को जीता।

 

दर्द से

अनवरत समझौता

मन कोई

उजड़ा हुआ नगर

धर्म केवल

ध्वजा के अवशेष

डालते बस

कफ़न लाशों पर

 

बड़प्पन ढोता

है अदना आदमी

बाँचता है कर्म की गीता।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी“)

✍ ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ख़ुशी की जलती कहीं पे मशाल अब भी है

हमारे  घर में खुशी का अकाल अब भी है।

बदल गया है कलेंडर महज दीवारों पर

जो हाल पहले था वैसा ही हाल अब भी है

ये आ गया है नया साल बस मिथक हमको

हमारी रोज़ी का वो ही सवाल अब भी है

ये चौचले है रहीसों के जश्न मनते सब

श्रमिक के हाथ में देखो कुदाल अब भी है

ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी

गरीब घर में जो मकड़ी का जाल अब भी है

ये नाम अम्न के बारूद जो जमा रख्खा

विनाश करने उसका इस्तेमाल अब भी है

किसी के गाल से चिकनी सड़क के दावे भर

सड़क पे चैन से चलना मुहाल अब भी है

सबक न वक़्त से कुछ सीख ले के सीख सके

अरुण ये धर्म पे होता वबाल अब भी है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 90 – शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  शेर, बकरी और घास

☆ आलेख # 90 –  शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षक गण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टि प्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.

तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर  का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और  बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.

शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में

अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा. 

कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-६ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-६ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(मेघजल से सरोबार चेरापूंजी (सोहरा) और भी कुछ कुछ)

प्रिय पाठकगण,

आज भी फिरसे कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

डॉकी नदी पर बांग्ला देशवासी नौकाओंको, यानि मोटर बोटों को देखने के बावजूद मुझे हमारी चप्पा चप्पा चलने वाली नौका अधिक सुखकारक लगी! क्योंकि प्रकृति की हरीतिमा और नीलिमा को और गौर से देखने का और इस स्वर्गसुख को और अधिक क्षणों के लिए अनुभव करने का सौभाग्य मिला| मित्रों, आप भी नौका नयन करने का मौका मिले तो कभी कभी मोटर बोटों की स्पीड को नकारते हुए मन्द-मन्द, मद्धिम चाल से चप्पू चलने वाले नाविकों की नावों में बैठने का स्वर्गसुख अवश्य महसूस करें! इस नौकाविहार की स्मृतियाँ संजोकर हम बढे चेरापूंजी की ओर!

मेघजलसुंदरी चेरापुंजी! (यहाँ की जनजातियों में सोहरा नाम से ही प्रसिद्ध!) 

मेघालय को भेंट देते समय नयनरम्य चेरापुंजी पर्यटकों का आकर्षण रहना ही है, ऐसी है इसकी ख्याति! शिलाँग से ५६ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह स्थान यानि अनगिनत झरने, कभी कोहरे में खोया हुआ तो कभी कोहरे के तरल होने पर हमें दर्शन देता हुआ! यहाँ वर्षभर जलधरों की मर्जी के अनुसार और उनकी लय पर थिरकती हुई जलधाराओं का नृत्य जारी रहता है! वृक्षवल्लरियों की हरितिमा में पुष्पों की कढ़ाई से समृद्ध शाल ओढ़े हुए पर्वतों के प्राकृतिक सौंदर्य से निखरा रोमांचक चेरापुंजी(सोहरा)! यह स्थान समुद्र तल से १४८४ मीटर ऊंचाई पर है| जगत में सर्वाधिक वर्षा होने वाले स्थान के रूप में प्रसिद्ध चेरापुंजीने सर्वाधिक वर्षा को झेलने के रिकॉर्ड समय समय पर दर्ज किये हैं, गुगल गुरु इसकी जानकारी देते रहते हैं!

अब इस गांव के नाम के बारे में बताती हूँ| करीबन १८३० वर्ष के दशक में अंग्रेजों ने सोहरा को उनका प्रादेशिक मुख्यालय बनाया था, उन्हें इसमें स्कॉटलंड की छबि नजर आ रही थी| वर्षा का पानी और कोहरा इस छोटे से गांव को ढंक लिया करता था, इसलिए उन्होंने इस गांव को “पूर्व का स्कॉटलंड” ऐसी उपाधि दे डाली| मात्र उन्हें इसके नाम का उच्चारण करने में बहुत परेशानी होती थी! फिर क्या, सोहरा का चेहरा/चेरा बना| किन्हीं बंगाली नौकरशाहों उसमें पुंजो (यानि झुंड) यह और परिशिष्ट जोड़ा और गांव का नामकरण “चेरापुंजी” हुआ| चेरापुंजी का दूसरा अर्थ है संतरे का गांव| परन्तु जाहिर था कि खासी लोगों को यह बदलाव मंजूर नहीं था, इस नाम के खातिर काफी आंदोलन किये गए| स्थानीय लोग इस गांव को सोहरा ही कहते हैं| आश्चर्य की बात यह है कि, यहाँ इतनी अधिक वर्षा के रहते भी स्थानीयों को पेयजल की कमी महसूस होती है| मित्रों यहाँ पर भी मातृसत्ताक पद्धति है, स्त्रियों को स्वातंत्र्य है तथा उन्होंने विविध क्षेत्रों में अपना स्थान निर्माण किया है, शिक्षा और आर्थिक स्वातंत्र्य ही खासी स्त्रियों के सक्षमीकरण होने का मूल कारण है!

हम चेरापुंजी यहाँ के क्लीफ साइड होम स्टे (cliffside home stay) में कुल दो दिन रहे| इस घर की मालकिन है अंजना! उनके पति का देहांत होने के बाद उन्होंने आत्मबल के बलबूते बच्चों को बड़ा किया| अत्यंत कर्तव्यदक्ष, समर्पित और आत्मविश्वास से भरपूर इस अंजना की मैं प्रशंसक बन गई हूँ| उनका होम स्टे है काँक्रीट का, घर की दीर्घा और खिड़की से चेरापूंजी के मेघाच्छादित तथा कोहरे के आलिंगन में बद्ध क्षेत्र का अद्भुत नजारा देख नैनों की प्यास बुझ गई! अलावा इसके, उन्होंने जब एक रात को खुद बड़ी मेहनत और चाव से पकाया हुआ गरमागरम खाना हमें परोसा, तो वह हमारे लिए “खासमखास” मेहमाननवाजी ही हो गई! प्रिय अंजना, कितने धन्यवाद दूँ तुम्हें! मात्र दो दिनों के लिए आए हम जैसे पर्यटकों के लिए तुम्हारी यह आत्मीयता भला कैसे भूल सकूंगी मैं!

मित्रों, चेरापुंजी की वर्षा का प्रमोद कुछ निराला ही है! कुछ ठिकाना न रहना, यहीं उसका स्थायी भाव है| हमने थोडेसे बून्दनीयों के बूँद झेलने के बाद रेनकोट पहना कि यह अदृश्य होगा  और धूप को देखकर छाता या रेनकोट के बगैर बाहर आए तो यह बेझिझक बरसेगा| मेहमानों को कैसे मज़ा चखाया, ऐसा इसका बर्ताव! पाठकों, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे पुणे की वेधशाला से इसने स्पेशल कोर्स किया होगा! हम यहाँ दो दिन ही थे, उसमें हमने सेव्हन सिस्टर्स फॉल्स (Nohsngithiang Falls/Mawsmai Falls) देखे| सप्तसुरों के समान दुग्धधवल धाराओं को पूर्व खासी पर्वतश्रृंखला से गिरते हुए देखना यानि दिव्यानुभव! १०३३ फ़ीट से कल कल बहते ये जलप्रपात भारत के सर्वाधिक ऊंचाई से गिरने वाले झरनों में से एक हैं! मौसमयी गांव से १ किलोमीटर दूरी पर इनकी झूमती और लहराती मस्ती देखनी चाहिए वर्षा ऋतु में ही, याद रहे, बाकी दिनों में ये थोड़े मुरझाये से रहते हैं! हम खुशकिस्मत थे इसलिए हमें यह प्राकृतिक शोभा देखने को मिली| नहीं तो यौवन के दहलीज़ पर खड़ी सौंदर्यवती “घूंघट की आड़ में” जैसे अपना मुखचंद्र छुपाती है वैसे ही ये जलौघ घनतम कोहरे की आड़ में छुप जाते हैं और बेचारे पर्यटक निराश होते हैं| कोहरे की ओढ़नी की लुकाछिपी का अनुभव हमने भी कुछ कालावधि के लिए लिया! (यू ट्यूब का एक विडिओ शेअर किया है)

कॅनरेम झरना(The Kynrem Falls) पूर्व खासी पर्वत आईएएस जिले में,चेरापुंजी से १२ किलोमीटर अंतर पर है| थान्गखरांग पार्क के अंदर स्थित यह झरना ऊंचाई में भारत के सकल झरनों में ७ वे क्रमांक पर है| क्यनरेम झरना त्रिस्तरीय झरना है| उसका जल 305 मीटर(१००१ फ़ीट) की ऊंचाई से गिरता है! (इसका विडिओ लेख के अंतमें शेअर किया है)

प्रिय पाठकों, अगले प्रवास में हम चेरापुंजी और मेघालय के और कुछ स्थानों का अद्भुत प्रवास करेंगे| तैयारी में रहें!!!

तब तक के लिए फिर एक बार खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!

डॉ. मीना श्रीवास्तव                                                     

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें  और वीडियो (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ,

चेरापुंजी (सोहरा) का मेघमल्हार!

https://photos.app.goo.gl/aFDhbS2nQToY21eQ9

कॅनरेम त्रिस्तरीय झरना (Kynrem three tier Waterfalls)

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 4 – खूब तरक्की ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – खूब तरक्की ।) 

☆ लघुकथा – खूब तरक्कीश्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अमित शारदा को ऐसी नजरों से देखा रहा था जाने वह क्या करेगा?

परंतु शारदा इग्नोर करती हुई, अपने किचन के कामों में भोजन बनाने के लिए जुट जाती है। अमित को बर्दाश्त नहीं होता और वह जोर जोर से गाली देने लगता है, बेटे आकाश को अपशब्द बोलने लगता है।

शारदा ने गंभीर स्वर में कहा-

“आप स्वयं जिम्मेदार पद पर हो और जब बेटा ड्यूटी ज्वाइन करने जा रहा है तो उसे अपशब्द बोल रहे हो।”

” असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी।”

तभी आकाश अपने कमरे से बाहर आता है।

माँ कहाँ हो?

जल्दी करो मुझे एयरपोर्ट जाना है, फ्लाइट पकड़नी है।

अपने आंसू को जल्दी से पल्लू से छुपाती हूई मुस्कुराते हुए कहती है,हां मुझे पता है इसीलिए तुम्हारा नाम मैंने आकाश रखा है, तुम गगन में उड़ो।

मैं चाहती थी कि तुम एयर फोर्स में जाओ । तुम्हारे पिताजी, दादाजी और नाना जी बरसों से देश की सेवा करते रहे है। बस तुम्हारे पिताजी को ही सरकारी नौकरी करनी थी।

तुम इतना सब कुछ जानने के बाद भी क्यों रोती रहती हो? सुबह से मेरे लिए इतना नाश्ता खाना क्यों बना रही हो?

बेटा तू एक मां के दिल को नहीं समझेगा कि उसके दिल पर क्या बीतती है, तू चला जाएगा तो यह सब मैं कहां बनाती हूं, तेरे बहाने मैं भी खा लेती हूँ।

रोते हुए नम आंखों से उसका सामान पैक करती है और कहती है कि बेटा क्या करूं?

मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो तुम मुझे भगा दोगी, अब जा रहा हूं तो उदास हो।

क्या करूं बेटा? तुम्हारे भविष्य के लिए मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ेगा । बेटा तुम बारिश की एक बूंद की तरह रहना जो हर जगह गिरकर सबको तृप्ति करती है। आकाश चरण स्पर्श करते हुए बोलता है – मां मुस्कुराते हुए विदा करो, अपना सामान उठाकर टैक्सी की ओर जाता है।

शारदा उसे मन ही मन ढेर सारा आशीर्वाद देती है और कहती है बेटा जीवन में हमेशा आगे बढ़ो कभी अपने कदम पीछे की ओर मत रखना खूब तरक्की करो।

उमा मिश्रा© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 212 ☆ लहान अभंग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 212 ?

लहान अभंग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

पंढरीच्या विठूराया

आले तुलाच भेटाया ।

देवा थकला हा देह

नाही आता माया मोह ॥१॥

आयुष्याचा खेळ मोठा

खाच खळग्याच्या वाटा ।

तुझ्या कृपेने सरले

दिन थोडेच उरले ॥२॥

माझा विठ्ठल साजिरा

माझ्या हृदयीचा हिरा।

जीव भक्तीत रंगला

पंढरीत विसावला ॥३॥

तुझ्यावीण देवराया

कोण मार्ग दाखवाया ।

मोहमयी ही दुनिया

लाभो तुझी कृपा छाया॥४॥

चंद्रभागा माझी आई

दूजी असे रूखुमाई ।

बाप विठ्ठल सावळा

माझा भाव साधाभोळा ॥५॥

मी न जना, कान्होपात्रा

परी तूच माझा त्राता ।

जीव कुडीतून जावा

तुझ्या चरणी पडावा॥६॥

“प्रभा” म्हणे विठ्ठला रे

असे घडेल का बरे ।

नाही पुण्यवान फार

तरी जीव हा स्वीकार ॥७॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares
image_print