हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ 

 

☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी☆

 

उनकी सब सुनना पड़ती है अपनी सुना नही सकते, ये बात रेडियो और बीबी दोनो पर लागू होती है।रेडियो को तो बटन से बंद भी किया जा सकता है पर बीबी को तो बंद तक नही किया जा सकता।मेरी समझ में भारतीय पत्नी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रतीक है।

क्रास ब्रीड का एक बुलडाग सड़क पर आ गया, उससे सड़क के  देशी कुत्तो ने पूछा, भाई आपके वहाँ बंगले में कोई कमी है जो आप यहाँ आ गये ? उसने कहा,  वहाँ का रहन सहन, वातावरण, खान पान, जीवन स्तर सब कुछ बढ़िया है, लेकिन बिना वजह भौकने की जैसी आजादी यहाँ है ऐसी वहाँ कहाँ ?  अभिव्यक्ति की आज़ादी जिंदाबाद।

अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में,जब हम कुछ अभिव्यक्त करने लायक हुये, हाईस्कूल में थे।तब एक फिल्म आई थी “कसौटी” जिसका एक गाना बड़ा चल निकला था, गाना क्या था संवाद ही था।.. हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है एक मेमसाब है, साथ में साब भी है मेमसाब सुन्दर-सुन्दर है, साब भी खूबसूरत है दोनों पास-पास है, बातें खास-खास है दुनिया चाहे कुछ भी बोले, बोले हम कुछ नहीं बोलेगा हम बोलेगा तो…हमरा एक पड़ोसी है, नाम जिसका जोशी है,वो पास हमरे आता है, और हमको ये समझाता है जब दो जवाँ दिल मिल जाएँगे, तब कुछ न कुछ तो होगा

जब दो बादल टकराएंगे, तब कुछ न कुछ तो होगा दो से चार हो सकते है, चार से आठ हो सकते हैं, आठ से साठ हो सकते हैं जो करता है पाता है, अरे अपने बाप का क्या जाता है?

जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले,  हम तो कुछ नहीं बोलेगा, हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है।

अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर रोक लगाने की कोशिशो पर यह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति थी।यह गाना हिट ही हुआ था कि आ गया था १९७५ का जून और देश ने देखा आपातकाल, मुंह में पट्टी बांधे सारा देश समय पर हाँका जाने लगा।रचनाकारो, विशेष रूप से व्यंगकारो पर उनकी कलम पर जंजीरें कसी जाने लगीं। रेडियो बी बी सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया।मैं  इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था,उन दिनो हमने जंगल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा लगाई, स्थानीय समाचारो के साइक्लोस्टाइल्ड पत्रक बांटे।सूचना की ऐसी  प्रसारण विधा की साक्षी बनी थी हमारी पीढ़ी। “अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे, जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे कलम के सिपाही अगर सो गये तो, वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे” ये पंक्तियां खूब चलीं तब।खैर एक वह दौर था जब विशेष रूप से राष्ट्र वादियो पर, दक्षिण पंथी कलम पर रोक लगाने की कोशिशें थीं।

अब पलड़ा पलट सा गया है।आज  देश के खिलाफ बोलने वालो पर उंगली उठा दो तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा जाने का फैशन चल निकला है।राजनैतिक दलो के  स्वार्थ तो समझ आते हैं पर विश्वविद्यालयो, और कालेजो में भी पाश्चात्य धुन के साथ मिलाकर राग अभिव्यक्ति गाया जाने लगा है  इस मिक्सिंग से जो सुर निकल रहे हैं उनसे देश के धुर्र विरोधियो, और पाकिस्तान को बैठे बिठाये मुफ्त में  मजा आ रहा है।दिग्भ्रमित युवा इसे समझ नही पा रहे हैं।

गांवो में बसे हमारे भारत पर दिल्ली के किसी टी वी चैनल  में हुई किसी छोटी बड़ी बहस से या बहकावे मे आकर  किसी कालेज के सौ दो सौ युवाओ की  नारेबाजी करने से कोई अंतर नही पड़ेगा।अभिव्यक्ति का अधिकार प्रकृति प्रदत्त है, उसका हनन करके किसी के मुंह में कोई पट्टी नही चिपकाना चाहता  पर अभिव्यक्ति के सही उपयोग के लिये युवाओ को दिशा दिखाना गलत नही है, और उसके लिये हमें बोलते रहना होगा फिर चाहे जोशी पड़ोसी कुछ बोले या नानी, सबको अनसुना करके  सही आवाज सुनानी ही होगी कोई सुनना चाहे या नही।शायद यही वर्तमान स्थितियो में  अभिव्यक्ति के सही मायने होंगे। हर गृहस्थ जानता है कि  पत्नी की बड़ बड़  लगने वाली अभिव्यक्ति परिवार के और घर के हित के लिये ही होती हैं।बीबी की मुखर अभिव्यक्ति से ही बच्चे सही दिशा में बढ़ते हैं और पति समय पर घर लौट आता है,  तो अभिव्यक्ति की प्रतीक पत्नी को नमन कीजीये और देस हित में जो भी हो उसे अभिव्यक्त करने में संकोच न कीजीये।कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातो में कही बीत न जाये रैना ! टी वी पर तो प्रवक्ता कुछ न कुछ कहेंगे ही उनका काम ही है कहना।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆ जनरेशन गेप ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “जनरेशन गेप ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆

 

☆ जनरेशन गेप  ☆

 

पापाजी  उसे समझा रहे थे ,” सीमा बेटी ! अब तुम्हारी सगाई हो गई है . अब इस तरह यार दोस्तों के साथ घूमने जाना, सिनेमा देखना, शापिंग करना ठीक नहीं है ?….” पापाजी उसे आगे कुछ समझते कि सीमा ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा , ” पापाजी ! आप भी ना , १७ वी सदी की बातें कर रहे है.  हम नई पीढ़ी के लोग हैं. ऐसी पुरानी बातों में विश्वास नहीं करते हैं .”

अभी सीमा अपने पिताजी को जनरेशन गेप पर कुछ और लेक्चर सुनाती कि उस के मोबाइल के वाट्सएप्प पर एक सन्देश आ गया. जिसे पढ़- देख कर सीमा ‘धम्म’ से जमीन पर बैठ गई .

“क्या हुआ ?” सीमा के चेहर पर उड़ती हवाईया देख कर पापाजी ने पूछा तो सीमा ने अपना मोबाइल आगे कर दिया. जिस में एक फोटो डला हुआ था और  नीचे लिखा था , ” सीमा ! मैं इतना भी आधुनिक नहीं हुआ हूँ कि अपनी होने वाली बीवी को किसी और के साथ सिनेमा देखते हुए बर्दाश्त कर जाऊ. इसलिए मैं तुम्हारे साथ मेरी सगाई तोड़ रह हूँ.”

यह पढ़- देख कर पापाजी के मुंह से निकल गया , “बेटी ! यह कौन सा जनरेशन गेप है ? मैं समझ नहीं पाया ?”

शायद  सीमा भी इसे समझ नहीं पाई थी.  इसलिए चुपचाप रोने लगी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 5 – आभाळ दाटून आलं की..! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। अब आप श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता आभाळ दाटून आलं की..!)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #5 ☆ 

 

☆ आभाळ दाटून आलं की..!☆ 

 

आभाळ दाटून आलं की भिती वाटते

येणा-या पावसाची आणि

येणा-या आठवणींची सुध्दा

डोळ्यासमोर सहज तरळून जातं

गावाकडचं घर..,गावाकडचं आंगण

मनामधल्या सा-याच जखमा

पावसाच्या प्रत्येक थेंबाबरोबर

ओल धरू लागतात सलू लागतात…

पण मी मात्र संयमानं त्या

जखमांवर फुंकर मारत राहतो

अगदी..पाऊस थांबेपर्यंत

पाऊस पडत असताना

घरात जायची भितीच वाटते

कारण ह्या पावसाने

गावच्या घरासारखं हे ही घर

माझ्या अंगावर कोसळेल की काय

ह्याची भिती वाटते

आणि माझ्या मायेसारखाच

मीही ह्या घराच्या ढीगा-यात एकाएकी

दिसेनासा होईल की काय ह्याचीही

कारण..घर जरी बदललं असलं तरी

अजून आभाळ तेच आहे

आणि कदाचित..पाऊस ही..,

आभाळ दाटून आलं की

भिती वाटते येणा-या पावसाची

आणि येणा-या आठवणींची सुध्दा..

 

……©सुजित कदम

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #4 – वातानुकूलित संवेदना ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “वातानुकूलित संवेदना”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #4 ☆

 

☆ वातानुकूलित संवेदना ☆

 

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती तीखी धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये हुए एक व्यक्ति पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास पहुँचा।

देखा – वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस कारुण्य दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

अनायास रिक्शेवाले से मिले इस नये विषय पर एक कहानी  बुनने की उधेड़बुन मेरे संवेदनशील मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगी।

घर पहुंचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार मेरी इस सशक्त दयनीय कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि – हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा दे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #5 – मला वाटते …. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  एक ऐसी  कविता जो वर्तमान पीढ़ी की प्रत्येक सास अपनी  बहू के लिए मन ही मन लिखती होंगी ।  किन्तु , प्रत्यक्ष में कोई प्रदर्शित कर पाती हैं और कोई नहीं कर पाती । कभी अहंकार (Ego) आड़े आ जाता है तो कभी कुछ। आपकी कविता में बहू ही नहीं बेटी का स्वरूप भी दिखाई देता है। सुश्री प्रभा जी को निश्चित रूप से ऐसे उत्कृष्ट साहित्य के लिए साधुवाद और उनकी लेखनी को नमन।  

सास और बहू के रिश्तों पर उनकी भावना उनके ही शब्दों में –

“ सासू सुनेचं नातं युगानुयुगे वादग्रस्तच ठरलेलं आहे……माझ्या सूनेबद्दल च्या भावना व्यक्त करणारी कविता….

आजच्या #कवितेच्या प्रदेशात  मध्ये! ” – प्रभा सोनवणे

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 5 ☆

 

 ☆ मला वाटते …..☆

 

ती खरोखर सुंदर आहे

आणि आवडतेही मला मनापासून !

ती दिसते अधिक आकर्षक आणि गोड

चुडीदार ,पंजाबीड्रेस मध्येच !

पैठणीत ही दिसते खुलून …….

पण मला वाटते ,

तिने क्वचितच नेसावी साडी ,

मात्र जीन्स वापरावी सर्रास ,

जावे ट्रेकिंगला ,

करावी मुलुखगिरी !

आयुष्यातले सारे सारे आनंद

लुटावेत  मनसोक्त !

स्वयंपाक ही करावा चटपटीत -चटकदार ,

हवा तसा हवा तेंव्हा !!

मला आवडते तिचे सफाईदार ड्राईव्हिंग ,

आणि फर्डा इंग्रजी संभाषणही .

मिळालेल्या स्वातंत्र्यातून आणि संधीतून

बनावे तिने स्वयंसिद्ध ,स्वयंपूर्ण !

 

तिच्यात दिसते मला नेहमीच

एक हरणाचे पाडस ,

जंगलात हरविलेले ……….

पण क्वचितच कधीतरी ………

तिच्यात एक मांजरही संचारते ,

फिस्कारते अधून मधून ,

न बोचकारता ,

रक्तबंबाळही  करते ………

पण ….पण …..तिच्यातले ते निरागस ,

टपो-या डोळ्याचे ,चकचकीत कांतीचे .

हरिणाचे पाडसच

बागडत असते आस पास !!

 

………तिच्या तिच्या  अभयारण्यात

असावे ते सुखरुप …..आनंदी !

 

ती खरोखर सुंदर आहे ,

आणि आवडतेही मला ,

मनापासून …………..

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #5 निःशब्द ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “निःशब्द ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 5 ☆

 

☆ निःशब्द ☆

दामोदर एक साधारण व्यक्ति। कद काठी सामान्य । थुलथला बदन और पान के शौकीन। मुंह से चारों तरफ से पान गिरना। गरीबी के कारण बुढापा जल्दी आ गया था। 50-52 साल के परन्तु लगते 70 साल के। प्लंबर का काम, घर घर जाकर काम करना जो उन्हें बुला ले। बेटे के नालायक निकल जाने के कारण दामोदर टूट चुके थे। पत्नी और बिना ब्याही बिटिया घर पर। रोजी से जो कुछ भी मिलता अपनी पत्नी को पूरा का पूरा ले जाकर दे देना।

अपने लिए कभी किसी से मांगने नहीं जाते। खुशी से दे दे तो गदगद हो जाना और यदि मेहनताना कम मिले तो कुछ कहना ही नहीं बस चलते बनना। उनके इस व्यवहार के कारण, सिविल एरिया पर नल सुधारना, पाईप बदलना छोटे-छोटे काम के लिये सिर्फ़ दामोदर का ही नाम होता था। सब काम बहुत मन लगाकर करना।

लगभग 3-4 महिने से दामोदर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। सभी एक दूसरे से पूछते पर कहीं गांव में रहने के कारण उनका पता कोई नहीं जान रहा था। सिर्फ एक मोबाइल नंबर दे रखा था उसने।

अचानक एक दिन  किचन का नल खराब हो जाने से, उस नम्बर पर काल करने से उधर से आवाज आई…. “कौन साहब बोल रहे हैं?”

“दामोदर जी घर पर है क्या?…..” बात शुरू करना चाहते थे। परन्तु उनकी पत्नी  इतना ही बोल सकी, “वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। एक माह पहले उनका देहांत हो गया।”

फोन पर “हैलो, हैलो….. ” की आवाज आती रही। पर उत्तर पर ‘निःशब्द ‘ कुछ बोल न सके। लगा शायद फोन आज डेड हो गया है।

सब कुछ दामोदर के लिए निःशब्द हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #5 – उडताही नाही आले ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक कवि  हृदय की कल्पना और कल्पना की सीमाओं में बंधी कविता “उडताही नाही आले”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 5  ☆

? उडताही नाही आले ?

 

बाहेर मला घरट्याच्या पडताही नाही आले

पंखाना धाक असा की उडताही नाही आले

 

हे बांध घातले त्यांनी हुंदके अडवले होते डोळ्यात झरे असतांना रडताही नाही आले

या काळ्या बुरख्या मागे मी किती दडवले अश्रू पुरुषांची मक्तेदारी नडताही नाही आले

 

धर्माचे छप्पर होते जातींच्या विशाल भिंती

मज सागरात प्रीतीच्या बुडताही नाही आले

 

या गोर्‍या वर्णाचीही मज भिती वाटते आता त्या अंधाराच्या मागे दडताही नाही आले

वरदान मला सृजनाचे नाकार कितीही वेड्या खुडण्याचे धाडस केले खुडताही नाही आले

 

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #2 – कहाँ गया बचपन ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । उन्होने यह साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकार किए इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की प्रथम कड़ी में उनकी एक कविता  “तुम्हें सलाम”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ कहां गया बचपन ☆

 

खबरदार होशियार

खुशनसीब बचपन।

ये जहर उगलते

मीडिया में बचपन।

 

ऊंगलियों में कैद

हो गया है बचपन।

हताशा और निराशा

में लिपटा है बचपन।

 

गिल्ली न डण्डा

न कन्चे का बचपन।

फेसबुक की आंधी

में डूबा है बचपन।

 

वाटसअप ने उल्लू

बनाया रे बचपन।

चीन के मंजे से

घायल है बचपन।

 

खांसी और सरदी

का हो गया बचपन।

कबड्डी खोखो को

भूल गया बचपन।

 

सुनो तो  कहीं से

बुला दो वो बचपन।

मिले तो आनलाइन

भेज दो वो बचपन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #5 – जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   पाँचवी कड़ी में प्रस्तुत है “जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  #-5 ☆

☆ जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन ☆

स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. जीवन में सात्विकता का महत्व निर्विवाद है.संस्कारों व विचारो में पवित्रता मन से आती है, मन में शुचिता भोजन से आती है.इसीलिये निरामिष भोजन का महत्व है. बाबा रामदेव ने भी फलाहार तथा शाक सब्जियों के रस को जीवन शैली में अपनाने हेतु अभियान चला रखा है. किन्तु पिछले दिनों सी एस आई आर दिल्ली के एक वैज्ञानिक की लौकी के रस के सेवन से ही मृत्यु हो गई. लौकी के उत्पादन को व्यवसायिक रूप से बढ़ाने के लिये लौकी के फलों में प्रतिबंधित आक्सीटोन के हारमोनल इंजेक्शन लगाया जा रहे हैं.

कम से कम समय में फसलों के अधिकाधिक उत्पादन हेतु रासायनिक खाद का बहुतायत से उपयोग हो रहा है, फसल को कीड़ों के संभावित प्रकोप से बचाने के लिये रासायनिक छिड़काव किया जा रहा है. विशेषज्ञों की निगरानी के बिना किसानो के द्वारा जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये व किसी भी तरह फसल से अधिकाधिक आर्थिक लाभ कमाने के लिये आधुनिकतम अनुसंधानो का मनमानी तरीके से प्रयोग किया जा रहा है. इस सब का दुष्प्रभाव यह हो रहा है कि पौधों की शिराओ से जो जीवन दायी शक्ति फल, सब्जियों, अन्न में पहुंचनी चाहिये, उसमें नैसर्गिकता का अभाव है,हरित उत्पादनो में रासयनिक उपस्थिति आवश्यकता से बहुत अधिक हो रही है. यही नही खेतों की जमीन में तथा बरसात के जरिये पानी में घुलकर ये रसायन नदी नालों के पानी को भी प्रदूषित कर रहे हैं.

यातायात की सुविधायें बढ़ी हैं, जिसके चलते काश्मीर के सेव, रत्नागिरी के आम, या भुसावल के केले सारे देश में खाये जा रहे हैं,यही नही विदेशों से भी फल सब्जी का आयात व निर्यात हो रहा है. इस परिवहन में लगने वाले समय में फल सब्जियां खराब न हो जावें इसलिये उन्हें सुरक्षित रखने के लिये भी रसायनो का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है.

विक्रेता भी फल व सब्जियां ताजी दिखें इसलिये उन्हें रंगने से नही चूक रहे, फल व सब्जियों की प्राकृतिक चमक तो इस लंबे परिवहन में लगे समय से समाप्त हो जाती है किन्तु उन्हें वैसा दिखाने हेतु क्लोरोफार्म जैसे रसायनो का उपयोग किया जा रहा है. व्यवसायिक लाभ के लिये आम आदि, कच्चे फलों को जल्दी पकाने के लिये कार्बाइड का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है. इथेफान नामक रसायन से केले समय से पहले पकाये जा रहे हैं.

जनसामान्य का नैतिक स्तर इतना गिर चुका है कि केवल धनार्जन के उद्देश्य की पूर्ति हेतु अप्रत्यक्ष रूप से यह जो रासायनिक जहर शनैः शनैः हम तक पहुंच रहा है उसके लिये किसी के मन में कोई अपराधबोध नहीं है. सरकार इतनी पंगु है कि उसका किसी तरह कोई नियंत्रण इस सारी कुत्सित व्यवस्था पर नहीं है. आबादी बढ़ रही है, येन केन प्रकारेण इस बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु हम उत्पादन बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे हुये हैं, किसी को भी इस प्रदूषण के दूरगामी परिणामों की कोई चिंता नहीं है, व्यवस्थायें कुछ ऐसी हैं कि हम बस आज में जीने पर विवश हे.

आर्गेनिक उत्पाद के नाम पर जो लोग नैसर्गिक तरीको से उत्पादित फल व सब्जियां बाजार में लेकर आ रहे हैं वे भी लोगों की इस भावना का अवांछित नगदीकरण ही कर रहे हैं.कथित नैसर्गिक उत्पादो के मूल्य नियंत्रण हेतु कोई व्यवस्था नही है, आर्गेनिक उत्पाद का उपयोग अभिजात्य वर्ग के बीच स्टेटस सिंबाल हो चला है.

बीटी बैगन का मसला

पहली जेनेटिकली मोडिफाइड खाद्य फसल बीटी बैगन के जरिए पैदा हुए विवाद ने ऐसी फसल के बारे में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाये हैं. देश विदेश में अनेक कृषि अनुसंधान हो रहे हैं, जेनेटिकली मोडिफाइड खाद्य फसलें बनाई जा रही हैं. बीटी बैगन को महिको ने अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो के साथ मिलकर विकसित किया है. बीटी बैगन में मिट्टी में पाया जाने वाला “क्राई 1 एसी” नामक जीन डाला गया है, इससे निकलने वाले जहरीले प्रोटीन से बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले फ्रूट एंड शूट बोरर नामक कीड़े मर जाएंगे. दरअसल, बीटी बैगन को लेकर आशकाएं कम नहीं हैं. सामान्यतया एक ही फसल की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती हैं लेकिन जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी अन्य पौधे या जंतु का जीन का किसी पौधे या जीव में प्रवेश कराया जाता है जैसे सूअर का जीन मक्का में, इसी कारण यह उपलब्धि संदिग्ध व विवादास्पद बन गई है. बिना किसी जल्दबाजी या अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के बहुत समझदारी से विशेषज्ञों की राय के अनुसार इस मसले पर निर्णय लिये जाने की जरूरत है.

जैविक खेती ही एक मात्र समाधान

आखिर इस समस्या का निदान क्या है ? भारत की परंपरागत धरती पोषण की नीति को अपनाकर गोबर, गोमूत्र और पत्ते की जैविक खाद के प्रयोग को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. हम भूलें नहीं कि भारत की लंबी संस्कृति लाखों साल की जानी-मानी परखी हुई परंपरा है. इससे धरती की उपजाऊ शक्ति कभी कम नहीं हुई. पिछले कुछ हीं दशकों में रासायनिक खाद का प्रचार-प्रसार किया गया और इसका आयात अंधाधुंध ढंग से हुआ. यदि हम इसी वर्तमान नीति पर चलते रहे तो भारत की खेती का वही हाल होगा जो आज चीन की खेती का हो रहा है. जैविक खेती करने के लिए किसानो को गायों का पालन करना होगा ताकि खेत में ही गोबर और गोमूत्र की उपलब्धि हो सके जिससे जैविक खाद बनाई जावे. महात्मा गांधी की ग्राम स्वायत्तता की परिकल्पना आज भी प्रासंगिक बनी हुई है. “है अपना हिंदुस्तान कहाँ वह बसा हमारे गाँवों में”.. भारत का प्रमुख उद्योग कृषि ही है, अतः देश व समाज के दीर्घकालिक हित में सरकार को तथा स्वयं सेवी संस्थानो को जनजागरण अभियान चलाकर भावी पीढ़ी के लिये इस दिशा में यथाशीघ्र निर्णायक कदम उठाने की जरूरत है.

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 5 – दो पिताओं की कथा ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “दो पिताओं की कथा ” जो निश्चित ही आपको  यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि बदलते सामाजिक परिवेश में दोनों पिताओं में किसका क्या कसूर है? कौन सही है और कौन गलत? इससे भी बढ़कर प्रश्न यह है कि इस परिवेश में समाज की भूमिका क्या रह जाएगी? ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 5 ☆

 

☆ दो पिताओं की कथा☆

 

कस्बे के एक समाज के प्रमुख सदस्यों की बैठक थी। समाज के एक सदस्य रामेश्वर प्रसाद की बेटी ने घर से भाग कर अन्तर्जातीय विवाह कर लिया था। अब लड़की-दामाद रामेश्वर प्रसाद के घर आना चाहते थे लेकिन रामेश्वर भारी क्रोध में थे। उनके खयाल से बेटी ने उनकी नाक कटवा दी थी और उनके परिवार की दशकों की प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी थी।

बैठक में इस प्रकरण पर विचार होना था। समाज के एक सदस्य किशोरीलाल एक माह पहले अपनी बेटी का विवाह धूमधाम से करके निवृत्त हुए थे। लड़के वालों की मांगें पूरी करने में वे करीब दस लाख से उतर गये थे। इस बैठक में वे ही सबसे ज़्यादा मुखर थे।

रामेश्वर प्रसाद को इंगित करके वे बोले, ‘असल में बात यह है कि कई लोग अपने बच्चों को ‘डिसिप्लिन’ में नहीं रखते, न उन्हें संस्कार सिखाते हैं। इसीलिए ऐसी घटनाएं होती हैं। हमारी भी तो लड़की थी। गऊ की तरह चली गयी।’

रामेश्वर प्रसाद गुस्से में बोले, ‘यहाँ फालतू लांछन न लगाये जाएं तो अच्छा। हम अपने बच्चों को कैसे रखते हैं और उन्हें क्या सिखाते हैं यह हम बेहतर जानते हैं।’

समाज के बुज़ुर्ग सदस्यों ने किशोरीलाल को चुप कराया। फिर समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। यह निष्कर्ष निकला कि लड़कों लड़कियों के द्वारा अपनी मर्जी से दूसरी जातियों में विवाह करना अब आम हो गया है, इसलिए इस बात पर हल्ला-गुल्ला मचाना बेमानी है। रामेश्वर प्रसाद को समझाया गया कि गुस्सा थूक दें और बेटी-दामाद का प्रेमपूर्वक स्वागत करें। अपनी सन्तान है, उसे त्यागा नहीं जा सकता। रामेश्वर प्रसाद ढीले पड़ गये। मन में कहीं वे भी यही चाहते थे, लेकिन समाज के डर से टेढ़े चल रहे थे।

यह निर्णय घोषित हुआ तो किशोरीलाल आपे से बाहर हो गये। चिल्ला चिल्ला कर बोले, ‘हमारी लड़की की शादी में दस लाख चले गये,  हम कंगाल हो गये, और इनको मुफ्त में दामाद मिल गया। या तो इनको समाज से बहिष्कृत किया जाए या फिर समाज मेरे दस लाख मुझे अपने पास से दे।’

वे चिल्लाते चिल्लाते माथे पर हाथ रखकर बिलखने लगे और समाज के सदस्य उनका क्रन्दन सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

 

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