हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 86 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 86 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है, जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व मंगल का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देख कर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना– प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! इससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उस से क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की, जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी गलतफ़हमियां व झगड़े तत्क्षण तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् क्षमा भाव सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति निर्दयता भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं, तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए, ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव समरसता का द्योतक है। सो! अपने दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 38 ☆ पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा”.)

☆ किसलय की कलम से # 38 ☆

☆ पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा ☆

देश-काल-संस्कृति के अनुरूप पत्रकारिता के गुण, धर्म और कार्यशैली में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसलिए वर्तमान एवं पूर्ववर्ती पत्रकारिता की तुलनात्मक समीक्षा औचित्यहीन होगी।

पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं, अच्छाई- बुराई एवं दैनिक गतिविधियों का प्रकाशन कर समाज को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना है। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं तथा उनकी मूलभावनाओं से अवगत कराना पत्रकारिता का एक अंग है। हमारे आसपास घटित घटनाओं, विशेष अवसरों , विभिन्न परिस्थितियों के साथ ही आसन्न विपत्तियों में सम्पादकीय आलेखों के माध्यम से सचेतक का अहम कार्य भी पत्रकारिता का माना जाता है। वर्षा, ग्रीष्म और शरद की परवाह किए बिना विस्तृत जानकारी के साथ समाचारों का प्रस्तुतिकरण इनकी ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा का ही परिणाम है जो हम रोज देखते और पढ़ते आ रहे हैं। अखबारों के माध्यम से उठाई गई आवाज पर हमारा समाज चिंतन-मनन करता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। विश्व के महानतम परिवर्तन इसके उदाहरण हैं।

वर्तमान पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से हम-आप सभी परिचित हैं। यदि खाली डेस्क पर बैठकर समाचारों का लेखन होता तो उनमें न ही प्रमाणिकता होती और न ही जीवन्तता। दर्द, खुशी और वास्तविकता का एहसास भी नहीं होता। प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की अभिव्यक्ति ही अपने अखबार के प्रति सामाजिक विश्वास पैदा कराती है।

इन सबके बावजूद आज के पत्रकार को शासकीय-अशासकीय उच्चाधिकारियों, नेताओं और दबंगों के दबाव में काम करने हेतु बाध्य किया जाता है, जो कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार पर शिकंजा कसने जैसा है। सामाजिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों की वास्तविक जानकारी के अभाव में खोखले समाचारों से अखबार नहीं चला करते। पत्रकारों का सहयोग न करना, वास्तविकता को प्रकाशित न होने देने के लिए दबाव बनाना, आयोजनों में प्रवेश की अनुमति न देना अथवा अड़ंगे लगाना तथा पत्रकारों से अभद्रता करने जैसी वारदातें भी दर्ज होने लगी हैं। पत्रकारिता पर आघात और अपमान का यह खेल अनेक क्षेत्रों में चलन का रूप ले रहा है। आज दबंगों के दबदबे से सहमे पत्रकार स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। दूसरों के लिए आवाज उठाने वाले स्वयं के लिए आन्दोलन, अनशन, बहिष्कार अथवा अन्याय के विरुद्ध मोर्चा खोलने को बाध्य होने लगेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? हमारे संविधान ने प्रत्येक भारतीय को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। इस पर अंकुश लगाना अथवा दबाव डालना निश्चित रूप से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन ही है।

इन परिस्थितियों में अब जनतंत्र के सिपहसालारों को चिंतन कर ऐसे प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, जिससे कोई भी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर अवांछित शिकंजा कसने की हिमाकत न करे, अन्यथा इनकी मनमर्जी देश को अवनति के रसातल में पहुँचाकर छोड़ेगी।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 85 ☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 85 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

पिया मिलन की राह में,

रोज करें  शृंगार।

अब तक वो आया नहीं,

ना चिट्ठी ना तार ।।

 

उसको अब लगने लगा,

अब जीना  दुश्वार।

तुझ बिन अब जीवन नहीं,

करना है अभिसार।।

 

छबि बसंत की दिख रही,

आया है त्यौहार।

फूलों से अब सज रहा,

हर घर बंदनवार।।

 

प्रभु अब तो तुम जान लो,

नहीं सहेंगे पीर।

धीरज अब मुझमें नहीं,

बदलो अब तकदीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 75 ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सारे रिश्तों की धुरी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष रचना  “सारे रिश्तों की धुरी। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 75 ☆

☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सारे रिश्तों की धुरी ☆

नारी से दुनिया बनी, नारी जग का मूल

हर घर की वो लक्ष्मी, दें आदर अनुकूल

 

चले सभी को साथ ले, सहज सरल स्वभाव

रखती कभी न बे-बजह, कोई भी दुर्भाव

 

सीता, दुर्गा, कालका, नारी रूप अनूप

राधा, मीरा, द्रोपदी, अलग-अलग बहु रूप

 

नारी बिन संभव नहीं, उन्नत सकल समाज

समझें मत अबला कभी, करती सारे काज

 

सारे रिश्तों की धुरी, उसका हृदय विशाल

माँ-बेटी भाभी बहन, बन पत्नी ससुराल

 

प्रेम, त्याग, ममता, दया, करुणा करे अपार

धीरज,-धरम न छोड़ती, उसकी जय-जय कार

 

रिश्तों की ताकत वही, रखती दिल में प्यार

जीवन में “संतोष” रख, आँचल चाँद-सितार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 – विजय साहित्य – भगवन शंकर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 – विजय साहित्य – भगवान शंकर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

भस्म विलेपित

देव महादेव शिव

रौद्ररूपी निव

अंगीकार ….!

 

शिवलिंग रूप

दुध, जल, अभिषेक

भक्तीभाव  नेक

पुजनात….!

 

उमा महेश्वर

त्याचा त्रिलोकी स्विकार

स्मशान संचार

उद्धारक….!

 

शिव लिलामृत

करा श्रवण पठण

शिवाचे मनन

लवलाही …..!

 

गणेशाचे पिता

निलकंठ शोभे नाम

कैलासाचे धाम

शिवलोक……!

 

त्रिशूल डमरू

सवे नंदी शिवगण

त्रिनेत्री सुमन

शंकरासी ….!

 

मार्त॔ड भैरव

अवतारी शिवाचेच रूप

सृजन स्वरूप

ओंकारात…..!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 63 ☆ नया पाठ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं अनुकरणीय लघुकथा  नया पाठ। यह लघुकथा हमें वर्तमान को सुधारकर अतीत को भुलाने की प्रेरणा देती हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस अनुकरणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 63 ☆

☆ नया पाठ ☆

बचपन से ही वह सुनती आ रही थी कि ’तुम लडकी हो, तुम्हें ऐसे बैठना है, ऐसे कपडे पहनने हैं, घर के काम सीखने हैं’और भी ना जाने क्या – क्या। कान पक गए थे उसके यह सब सुनते – सुनते। ’सारी सीख बस मेरे लिए ही है, भैया को कुछ नहीं कहता कोई’ – बडी नाराजगी थी उसे।

आज बच्चों को आपस में झगडते देखकर सारी बातें फिर से याद आ गईं। झगडा खाने के बर्तन उठाने को लेकर हो रहा था। ‘माँ देखो मीता अपनी प्लेट नहीं उठा रही है। उसे तो मेरा काम करना चाहिए, बडा भाई हूँ ना उसका।‘ तो – उसने गुस्से से देखा। ‘बडा भाई छोटी बहन के काम नहीं कर सकता क्या? जब मीता तेरा काम करती है तब? चल बर्तन उठा मीता के।‘

वह वर्तमान को सुधारकर अतीत को भुला देना चाहती थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 99 ☆ बिजली उत्पादन में बाँधों की भूमिका ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का बांधों की भूमिका के सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण पर सार्थक विमर्श करता एक विचारणीय तथा पठनीय  विशेष आलेख  ‘बिजली उत्पादन में बाँधों की भूमिका’ इस शोधपरक विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 99☆

? बिजली उत्पादन में बाँधों की भूमिका ?

व्यवसायिक  बिजली उत्पादन की जो विधियां वर्तमान में प्रयुक्त हो रही हैं उनमें कोयले से ताप विद्युत, परमाणु विद्युत या बाँधो के द्वारा जल विद्युत का उत्पादन प्रमुख हैं. पानी को उंचाई से नीचे गिराकर उसकी स्थितिज उर्जा को विद्युत उर्जा में बदलने की जल विद्युत उत्पादन प्रणाली लिये बाँध बनाकर ऊंचाई पर जल संग्रहण करना होता है. तापविद्युत या परमाणु विद्युत के उत्पादन हेतु भी टरबाइन चलाने के लिये वाष्प बनाना पड़ता है और इसके लिये भी बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है अतः जल संग्रहण के लिये बांध अनिवार्य हो जाता है. ताप विद्युत संयत्र से निकलने वाली ढ़ेर सी राख के समुचित निस्तारण के लिये एशबंड बनाये जाते हैं, जिसके लिये भी बाँध बनाना पड़ता है. शायद इसीलिये बांधो और कल कारखानो को  प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के तीर्थ  कहा था.पर वर्तमान संदर्भो में  बड़े बाँधों से समृद्धि की बात शायद पुरानी मानी जाने लगी है. संभवतः इसके अनेक कारणो में से कुछ इस तरह हैं.

१  बड़े क्षेत्रफल के वन डूब क्षेत्र में आने से नदी के केचमेंट एरिया में भूमि का क्षरण

२  सिल्टिंग से बांध का पूरा उपयोग न हो पाना,वाटर लागिंग और जमीन के सेलिनाईज़ेशन की समस्यायें

३  वनो के विनाश से पर्यावरण के प्रति वैश्विक चिंतायें, अनुपूरक वृक्षारोपण की असफलतायें

४  बहुत अधिक लागत के कारण नियत समय पर परियोजना का पूरा न हो पाना

५  भू अधिग्रहण की समस्यायें,पुनरीक्षित आकलनो में लागत में निरंतर अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि

६  सिंचाई,मत्स्यपालन व विद्युत उत्पादन जैसी एकीकृत बहुआयामी परियोजनाओ में विभिन्न विभागो के परस्पर समन्वय की कमी

७  डूब क्षेत्र के विस्थापितों की पीड़ा, उनका समुचित पुनर्वास न हो पाना

८  बड़े बांधो से भूगर्भीय परिवर्तन एवं भूकंप

९  डूब क्षेत्र में भू गर्भीय खनिज संपदा की व्यापक हानि,हैबीटैट (पशु व पौधों के प्राकृतिक-वास) का नुकसान

१० बड़े स्तर पर धन तथा लोगो के प्रभावित होने से भ्रष्टाचार व राजनीतीक समस्यायें

 विकास गौण हो गया, मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन गया

नर्मदा घाटी पर डिंडोरी में नर्मदा के उद्गम से लेकर गुजरात के सरदार सरोवर तक अनेक बांधो की श्रंखला की विशद परियोजनायें बनाई गई थी, किंतु इन्ही सब कारणो से उनमें से अनेक ५० वर्षो बाद आज तक रिपोर्ट के स्तर पर ही हैं. डूब क्षेत्र की जमीन और  जनता के मनोभावो का समुचित आकलन न किये जाने,  विशेष रूप से विस्थापितो के पुनर्वास के संवेदन शील मुद्दे  पर समय पर सही तरीके से जन भावनाओ के अनुरूप काम न हो पाने के कारण नर्मदा बचाओ आंदोलन का जन्म हुआ.इन लोगों की अगुवाई करने वाली मेधा पाटकर ने एक वृहद, अहिंसक सामाजिक आंदोलन का रूप देकर समाज के समक्ष सरदार सरोवर बाँध की कमियो को उजागर किया.  मेधा तेज़तर्रार, साहसी और सहनशील आंदोलनकारी रही हैं. मेधा के नर्मदा बचाओ आंदोलन से सरकार और विदेशी निवेशकों पर दबाव भी पड़ा, 1993 में विश्व बैंक ने मानावाधिकारों पर चिंता जताते हुए पूँजीनिवेश वापस ले लिया. उच्चतम न्यायालय ने पहले परियोजना पर रोक लगाई और फिर 2000 में हरी झंडी भी देखा दी.प्रत्यक्ष और परोक्ष वैश्विक हस्तक्षेप के चलते  विकास गौण हो गया, मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन गया. मानव अधिकार, पर्यावरण आदि प्रसंगो को लेकर आंदोलनकारियो को पुरस्कार, सम्मान घोषित होने लगे. बांधो के विषय में तकनीकी दृष्टिकोण की उपेक्षा करते हुये, स्वार्थो, राजनैतिक लाभ को लेकर पक्ष विपक्ष की लाबियिंग हो रही है. मेधा पाटकर और उनके साथियों को 1991 में प्रतिष्ठित राईट लाईवलीहुड पुरस्कार मिला, जिसकी तुलना नोबल पुरस्कार से की जाती है.मेघा मुक्त वैश्विक संस्था “वर्ल्ड कमीशन ओन डैम्स” में शामिल रह चुकी हैं. 1992 में उन्हें गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार भी मिला.

इन समस्याओ के निदान हेतु जल-विद्युत योजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी के बारे में विमर्श हो रहा है. बड़े बांधो की अपेक्षा छोटी परियोजनाओ पर कार्य किये जाने का वैचारिक परिवर्तन नीती निर्धारको के स्तर पर हुआ है.

क्लीन ग्रीन बिजली पन बिजली 

जल विद्युत के उत्पादन में संचालन संधारण व्यय बहुत ही कम होता है साथ ही पीकिंग अवर्स में आवश्यकता के अनुसार जल निकासी नियंत्रित करके विद्युत उत्पादन घटाने बढ़ाने की सुविधा के चलते किसी भी विद्युत सिस्टम में जल विद्युत  बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, इससे  औद्योगिक प्रदूषण भी नही होता किंतु जल विद्युत उत्पादन संयत्र की स्थापना का बहुत अधिक लागत मूल्य एवं परियोजना का लंबा निर्माण काल इसकी बड़ी कमी है. भारत में हिमालय के तराई वाले क्षेत्र में जल विद्युत की व्यापक संभावनायें हैं, जिनका दोहन न हो पाने के कारण कितनी ही बिजली बही जा रही है.वर्तमान बिजली की कमी को दृष्टिगत रखते हुये, लागत मूल्य के आर्थिक पक्ष की उपेक्षा करते हुये, प्रत्येक छोटे बड़े बांध से सिंचाई हेतु प्रयुक्त  नहरो में निकाले जाने वाले  पानी से हैडरेस पर ही जल विद्युत उत्पादन टरबाईन लगाया जाना आवश्यक है. किसी भी संतुलित विद्युत उत्पादन सिस्टम में जल विद्युत की न्यूनतम ४० प्रतिशत हिस्सेदारी होनी ही चाहिये, जिसकी अभी हमारे देश व राज्य में कमी है. वैसे भी कोयले के हर क्षण घटते भंडारो के परिप्रेक्ष्य में वैकल्पिक उर्जा स्त्रोतो को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है.

छत्तीसगढ़ के प्रसंग में 

छत्तीसगढ़ देश का उर्जा हब रहा है, यहां प्रचुर संभावनायें हैं कि ताप विद्युत के साथ साथ व्यापक जल विद्युत भी पैदा की जा सकती है. केशकाल की घाटी, बिजली की घाटी भी बनने की क्षमता रखती है . बोधघाट परियोजना को पर्यावरण व वन विभाग से अनुमति मिलने में जो वर्षौ की  देरी हुई उसका खामियाजा पुराने समग्र म. प्र. को भोगना पड़ा है. आवश्यकता है कि इंद्रावती, महानदी, व अन्य नदियो पर जल विद्युत उत्पादन को लेकर नये सिरे से कार्यवाही की जावे, गवर्नमेंट पब्लिक पार्टनरशिप से परियोजनायें लगाई जावें और उन्हें नियत समय पर पूरा किया जावे.

जल विद्युत और उत्तराखंड

भारत में उत्तराखंड में जल विद्युत की प्रचुर सँभावनाओ के संदर्भ में वहां की परियोजनाओ पर समीक्षा जरूरी लगती है. दुखद है कि बाँध परियोजनाओं के माध्यम से उत्तराखंड में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति चल रही है.  शुरूआती दौर से स्थानीय जनता बाँधों का विरोध करती आयी है तो कम्पनियाँ धनबल और प्रशासन की मदद से अवाम के एक वर्ग को बाँधों के पक्ष में खड़ी करती रही है. ‘नदी बचाओ आन्दोलन’ की संयोजक और गांधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा बहन भट्ट का कहना है कि ऊर्जा की जरूरत जरूर है, लेकिन सूक्ष्म परियोजनायें प्रत्येक गाँव में बनाकर बिजली के साथ रोजगार पैदा करना बेहतर विकल्प है. इस वर्ष इण्डोनेशिया की मुनिपुनी को गांव गांव में सूक्ष्म जल विद्युत परियोजनाओ के निर्माण हेतु ही मैग्सेसे अवार्ड भी मिला है.  क्या बड़े टनल और डैम रोजगार दे सकेंगे? पहाड़ी क्षेत्रो में कृषि भूमि सीमित है,लोगों ने अपनी यह बहुमूल्य  भूमि बड़ी परियोजनाओं के लिये दी, बाँध बनने तक रोजगार के नाम पर उन्हें बरगलाया गया तथा उत्पादन शुरू होते ही बाँध प्रभावित लोग परियोजनाओं के हिस्से नहीं रहे, मनेरी भाली द्वितीय पर चर्चा करते हुए राधा बहन ने विफोली गाँव का दर्द बताया, जहाँ प्रभावित ग्रामीणों ने अपनी जमीन और आजीविका के साथ बाँध कर्मचारियों की विस्तृत बस्ती की तुलना में वोटर लिस्ट में अल्पमत में आकर लोकतांत्रिक तरीको से अपनी बात मनवाने का अधिकार भी खो दिया.

चिपको आन्दोलन की प्रणेता गौरा देवी के गाँव रैणी के नीचे भी टनल बनाना इस महान आन्दोलन की तौहीन है। वर्षों पूर्व रैणी के महिला मंगल दल द्वारा इस परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये गये थे। मोहन काण्डपाल के सर्वेक्षण के अनुसार परियोजना द्वारा सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गये और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी को दुःख है कि पैसे के आगे सब बिक गये। रैणी से 6 किमी दूर लाता में एन.टी.पी.सी द्वारा प्रारम्भ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गाँव वालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गाँव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी विद्युत परियोजना लगा रही है। मलारी के महिला मंगल दल ने कम्पनी को गाँव में नहीं घुसने दिया तथा परियोजना के बोर्ड को उखाड़कर फैंक दिया। कम्पनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे लगा रखे हैं। इसके अलावा धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भ्यूँडार, काकभुसण्डी, द्रोणगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं का प्रबल विरोध है।

उत्तराखंड की जल-विद्युत परियोजनाओं पर कन्ट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल (कैग) की रपट 

उत्तराखंड की जल-विद्युत परियोजनाओं पर भारत के कन्ट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल (कैग) ने 30 सितंबर 2009 को एक बहुत कड़ी टिप्पणी कर स्पष्ट कहा है कि योजनाओं का कार्यान्वयन निराशाजनक रहा है। उनमें पर्यावरण संरक्षण की कतई परवाह नहीं की गई है जिससे उसकी क्षति हो रही है. कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तराखंड सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी कि वह अपनी जलशक्ति का उपयोग तथा विकास सरकारी तथा निजी क्षेत्र के सहयोग से करेगा. राज्य की जल-विद्युत बनाने की नीति अक्टूबर 2002 को बनी। उसका मुख्य उद्देश्य था राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाया जाय और उसकी बनाई बिजली राज्य को ही नहीं बल्कि देश के उत्तरी विद्युत वितरण केन्द्र को भी मिले. उसके निजी क्षेत्र की जल-विद्युत योजनाओं के कार्यांवयन की बांट, क्रिया तथा पर्यावरण पर प्रभाव को जाँचने तथा निरीक्षण करने के बाद पता लगा कि 48 योजनाएं जो 1993 से 2006 तक स्वीकृत की गई थीं, 15 वर्षों के बाद केवल दस प्रतिशत ही पूरी हो पाईं. उन सब की विद्युत उत्पादन क्षमता 2,423.10 मेगावाट आंकी गई थी, लेकिन मार्च 2009 तक वह केवल 418.05 मेगावाट ही हो पाईं.  कैग के अनुसार इसके मुख्य कारण थे भूमि प्राप्ति में देरी, वन विभाग से समय पर आज्ञा न ले पाना तथा विद्युत उत्पादन क्षमता में लगातार बदलाव करते रहना, जिससे राज्य सरकार को आर्थिक हानि हुई. अन्य प्रमुख कारण थे, योजना संभावनाओं की अपूर्ण समीक्षा, उनके कार्यान्वयन में कमी तथा उनका सही मूल्यांकन, जिसे उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड को करना था, न कर पाना. प्रगति की जाँच के लिए सही मूल्यांकन पद्धति की आवश्यकता थी जो बनाने, मशीनरी तथा सामान लगने के समय में हुई त्रुटियों को जाँच करने का काम नहीं कर पाई, न ही यह निश्चित कर पाई कि वह त्रुटियाँ फिर न हों. निजी कंपनियों पर समझौते की जो शर्तें लगाई गई थीं उनका पालन भी नहीं हो पाया.यह रिपोर्ट कैग की वेबसाइट पर उपलब्ध है.

जरूरी है कि  सजग सामयिक नीति ही न बनाई जावे उसका समुचित परिपालन भी हो

इन संदर्भो में समूची जल विद्युत नीति, बांधो के निर्माण, उनके आकार प्रकार की निरंतर समीक्षा हो, वैश्विक स्तर की निर्माण प्रणालियो को अपनाया जावे, गुणवत्ता, समय, जनभावनाओ के अनुरूप कार्य सुनिश्चित कया जावे. प्रोजेक्ट रिपोर्ट को यथावत मूर्त रूप दिया जाना जरूरी है, तभी  बिजली उत्पादन में बांधो की वास्तविक भूमिका का सकारात्मक उपयोग हो सके.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 58 ☆ एकला चलो रे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “एकला चलो रे… ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 58 – एकला चलो रे… ☆

छोटे – छोटे घाव भी नासूर बनकर पीड़ा पहुँचाते हैं। माना परिवर्तन प्रकृति का नियम है, परंतु अक्सर ऐसा क्यों होता है कि जब कोई व्यक्ति सफलता के चरम पर हो तभी उसे किसी न किसी कारण अपदस्थ होना ही पड़ता है। हम सभी एक लीक पर चलने के आदी होते हैं इसलिए आसानी से कोई भी बदलाव नहीं चाहते हैं। बस एक ही ढर्रे पर बने रहना हमारी नियति बन चुकी है। शायद इसी को मोटिवेशनल स्पीकर कंफर्ट जोन कहकर परिभाषित करते चले आ रहे हैं। बदलाव हमेशा बुरा नहीं होता है वैसे भी एक ही रंग देखकर मन परेशान हो उठता है, कुछ न कुछ नया होते ही रहना चाहिए तभी रोचकता बनी रहती है।

देश विदेशों सभी जगह बदलाव की ही बयार चल रही है। दरसल ये तो एक बहाना है, कुछ अपने लोगों को ही हटाना है। अब जो सच्चे सेवक हैं, उन्हें किस विधि से पदच्युत किया जावे सो बदलूराम जी ने एक नया ही राग अलापना शुरू कर दिया। चारो ओर गहमा – गहमी का माहौल बन गया। सोए हुए लोग भी सक्रिय हो गए, कहीं कोई अपने पद को छोड़ने से डर रहा था तो कहीं कोई नए पद के लालच में पूरे मनोयोग से कार्यरत दिखने लगे थे। अब तो उच्च स्तरीय कमेटी भी सक्रिय होकर अपनी भूमिका सुनिश्चित करने लगी। जो जिस पद पर है वो उससे आगे की पदोन्नति चाहता है।  सीमित स्थान के साथ,  एक अनार सौ बीमार की कहावत सच होती हुई दिख रही थी। अपने – अपने कार्यों का पिटारा सब ने खोल लिया। पूरे सत्र में जितने कार्य नहीं हुए थे उससे ज्यादा की सूची बना कर प्रचारित की जाने लगी।

लोग भी भ्रम में थे क्या करें, पर चतुरलाल जी समझ रहे थे कि ये सब कुछ कैबिनेट को भंग करने की मुहिम है, जब प्रधान बदलेगा तो अपने आप पुरानी व्यवस्था ध्वस्त होकर सब कुछ नया होगा, जिसमें वो तो बच जायेगा परन्तु पुराने लोग रिटार्यड होकर  वानप्रस्थ के नियमों का पालन करते हुए,स्वयं सन्यास की राह पकड़ने हेतु बाध्य हो जायेंगे। खैर ये तो सदियों से होता चला आ रहा है। फूल कितना ही सुंदर क्यों न हो उसे एक दिन मुरझा कर झरना ही होता है।

जब बात फूलों की हो तो काँटों की उपस्थिति भी जरूरी हो जाती है। यही तो असली रक्षक होते हैं। कहा भी गया है, सफलता की राह में जब तक कंकड़ न चुभे तब तक मजा ही नहीं आता है। वैसे भी शरीर को स्वस्थ्य रखने हेतु एक्यूप्रेशर का प्रयोग किया ही जाता। लाइलाज रोगों को ठीक करने हेतु इन्हीं विधियों का सहारा लिया जाता रहा है। व्यवस्था को ठीक करने हेतु इन्हीं उपायों का प्रयोग शासकों द्वारा किया जाता रहा है। कदम – कदम पर चुनौतियों का सामना करते हुए उम्मीदवार उम्मीद का दामन थामें, एकला चलो रे का राग अलापते हुए चलते जा रहे हैं। वैसे भी एकल संस्कृति का चलन परिवारों के साथ – साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी नज़र आने लगा है। जब भी जोड़ -तोड़ की सरकार बनती है, तो छोटे – छोटे दलों की पूछ – परख बढ़ जाती है, क्योंकि उन्हें अपने में समाहित करना आसान होता है।

खैर परिणाम चाहें जो भी निष्ठा व आस्था के साथ सुखद जीवन हेतु हर संभव प्रयास सबके द्वारा होते रहने चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79 – हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- धुआंधार जलप्रपात। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79☆

☆ हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆

संगमरमर एक सफेद व मटमैले रंग का मार्बल होता है। मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 20 किलोमीटर दूर भेड़ाघाट में इसी तरह के मार्बल पहाड़ियों के बीच नर्मदा नदी बहती है। नदी के दोनों किनारों की ऊंचाई 200 फीट के लगभग है।

भेड़ाघाट का दृश्य रात और दिन में अलग-अलग रूप में दर्शनीय होता है। रात में चांदनी जब सफेद और मटमैले संगमरमर के साथ नर्मदा नदी में गिरती है तो अद्भुत बिंब निर्मित करती है। इस कारण चांदनी रात के समय में नर्मदा नदी में नौकायन करना अद्भुत व रोमांचक होता है।

दिन में सूर्य की किरणें नर्मदा नदी के साथ-साथ संगमरमर की चट्टानों पर अद्भुत बिंब निर्मित करती है। सूर्य की रोशनी में नहाई नर्मदा नदी और संगमरमर की उचित चट्टानों के बीच नौकायन इस मज़े को दुगुणीत कर देती है।

इसी नदी पर एक प्राकृतिक धुआंधार जलप्रपात बना हुआ है। इस प्रपात में ऊंचाई से गिरता हुआ पानी धुएं के मानिंद   वातावरण में फैल कर अद्भुत दृश्य निर्मित करता है। यहां से नर्मदा नदी को निहारने का रोमांच और आनंद ओर बढ़ जाता है। इसी दृश्य प्रभाव के कारण इसका नाम धुआंधार जलप्रपात पड़ा है।

यह स्थान पर्यटकों का सबसे मन पसंदीदा स्थान है। आप भी एक बार इस स्थान के दर्शन अवश्य करें।

नदी का स्वर~

मार्बल पर दिखे

सूर्य का बिंब।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 65 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – चतुर्थ अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है चतुर्थ अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 65 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – चतुर्थ अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए चतुर्थ अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 4

चौथा अध्याय दिव्य ज्ञान

श्री कृष्ण भगवान ने अपने सखा अर्जुन से अष्टांग योग का दिव्य ज्ञान कुछ इस तरह दिया

प्रथम बार सूरज सुने, यह अविनाशी योग।

सूरज से मनु और फिर,बना इच्छु- संजोग।। 1

 

योग रीत ये चल रही, सदा-सदा से जान।

लोप हुआ कुछ काल तक, तुम्हें पुनः यह ज्ञान।। 2

 

वर्णन जो तुझसे किया, यही पुरातन योग।

तू मेरा प्रिय भक्त है, अति उत्तम संयोग।। 3

अर्जुन उवाच

जन्म हुआ प्रभु आपका, इसी काल में साथ।

सूर्य जन्म प्राचीन है, कैसे मानूँ बात।। 4

 

तेरे-मेरे जन्म तो, हुए अनेकों बार।

मुझे विदित,अनभिज्ञ तुम,प्रियवर पाण्डु कुमार।।5

 

जन्म नहीं प्राकृत मेरा, नहीं मनुज सादृश्य।

मैं अविनाशी अजन्मा, शक्ति-योग प्राकट्य।। 6

 

धर्म हानि जब- जब बढ़ी, बढ़ता गया अधर्म।

तब-तब माया-योग से, रचा नया ही धर्म।। 7

 

साधु जनों का सर्वदा,किया परम् उद्धार।

दुष्टों के ही नाश को, प्रकटा बारम्बार।। 8

 

मुझे अलौकिक मानकर, जो जानें सुख पाँय

मैं हूँ अविनाशी अमर, भक्त सदा तर जाँय। 9

 

राग-द्वेष,भय-क्रोध से, हो जाता है मुक्त।

साधक मेरी भक्ति का,भाव समर्पण युक्त।।

 

सब ही मेरी शरण में, सबके भाव विभिन्न।

फल देता अनुरूप में, कभी न होता खिन्न।। 11

 

करते कर्म सकाम जो, मिलें शीघ्र परिणाम।

देवों को वे पूजते, मुझे न करें प्रणाम।। 12

 

तीन गुणों की यह प्रकृति, सत, रज, तम आयाम।

वर्णाश्रम मैंने रचे, मैं सृष्टा सब धाम।। 13

 

कर्म करूँ जो भी यहाँ, पड़ता नहीं प्रभाव।

कर्म फलों से मैं विरत, सत्य जान ये भाव।। 14

 

दिव्य आत्मा संत जन, हुए पुरातन काल।

कर तू उनका अनुसरण,नित्य बनाकर ढाल।। 15

 

समझ न पाते मोहवश,बुधि जन कर्माकर्म।

कर्म बताऊँ शुभ तुझे, ये ही मानव धर्म।। 16

 

कर्म कौन हैं शुभ यहाँ, ये मुश्किल है काम।

कर्म, विकर्म, अकर्म का, जान सुखद परिणाम।। 17

 

कर्म सदा परहित करें, ये ही मानव धर्म।

लाभ-हानि में सम रहें, नहीं करें दुष्कर्म।। 18

 

इन्द्रिय-सुख की कामना, रखें न मन में ध्यान।

ऐसे ज्ञानी जगत में, होते बड़े महान।। 19

 

कर्म फलों के फेर में, पड़ें न ज्ञानी लोग।

ऐसे मानव जगत में, रहते सदा निरोग।। 20

 

माया के रह बीच में,स्वामि- भाव का त्याग।

कर्म गात निर्वाह को, गाए मेरा राग।। 21

 

अपने में संतुष्ट जो, द्वेष कपट से दूर।

लाभ-हानि में सम रहे, ऐसे मानव शूर।। 22

 

आत्मसात जिसने किया,अनासक्ति का भाव।

ऐसा ज्ञानी को मिले, हरि पद पंकज-ठाँव।। 23

 

जो मुझमें लवलीन है, पाए भगवत धाम।

यज्ञ यही है सात्विकी, भजें ईश का नाम।। 24

 

देव यज्ञ कुछ कर रहे, पूजें देवी-देव।

ज्ञानी-ध्यानी पूजते, ब्रह्म परम् महदेव।। 25

 

इन्द्रिय संयम हम करें, भजें प्रभू का नाम।

राग-द्वेष से विरत जो,  करें भस्म सब काम।। 26

 

चेष्टा जो इन्द्री करें, करें ब्रह्म का ज्ञान।

प्राणों के व्यापार का, योगी करते ध्यान।। 27

 

कुछ योगी परहित करें, कुछ करते तप यज्ञ।

करें योग अष्टांग कुछ, कुछ हैं ग्रंथ- गुणज्ञ।। 28

 

प्राण वायु का हवि करें, करते प्राणायाम।।

प्राण गती वश में रखें, लेवें प्रभु का नाम।। 29

 

प्राणों को ही प्राण में, योगी करते ध्यान।

पाप-शाप सारे मिटें , यज्ञ करें कल्यान।। 30

 

फलाभूत यज्ञादि से, करें ईश कल्यान।

यज्ञ न करते जो मनुज, भोगें कष्ट महान।। 31

 

वर्णन वेदों में हुआ, कतिपय यज्ञ- प्रकार।

तन, मन इन्द्री ही करें, निष्कामी उपचार।। 32

 

सब यज्ञों में श्रेष्ठतर, ज्ञान यज्ञ है ज्येष्ठ।

ज्ञान करे विज्ञान को, बने आत्मा श्रेष्ठ। 33

 

ज्ञानी पुरुषों को सदा, कर दण्डवत प्रणाम।

जान, ज्ञान के मर्म को, दें उपदेश महान।। 34

 

जब तुम जानो मर्म को, नहीं करोगे मोह।

ज्ञान बुद्धि चेतन करे, हटे हृदय अवरोह।। 35

 

सदा ज्ञान ही श्रेष्ठ है, करता नौका पार।

पापी भी सब तर गए, उत्तम हुए विचार।। 36

 

जैसे जलकर अग्नि में, ईंधन होता भस्म।

वैसे ही ये ज्ञान भी, करे पाप को भस्म।। 37

 

ज्ञान जगत में श्रेष्ठ है, इससे बड़ा न कोय।

पावन होता वह मनुज,खोट रहे ना कोय।। 38

 

ज्ञान ही करता स्व विजय, हो वही जितेंद्रिय।

ज्ञान बढ़ाए भक्ति को, जीवन बने अनिन्द्रिय।। 39

 

जो प्रभु भक्ति नहीं करें , रहें संशयाधीन।

लोक और परलोक में, रहें सदा ही दीन।। 40

 

कर ले बुद्धि समत्व तू, लगा मुझी में ध्यान।

अर्पित प्रभु को जो करें, उनका हो कल्याण।। 41

 

ज्ञान बढ़ा अर्जुन सखा, बुद्धि करो संशुद्ध।

संशय भ्रम को काट तू, करो धर्म का युद्ध।। 42

 

 इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के चतुर्थ अध्याय ” दिव्य ज्ञान” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ(समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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