हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 42 ☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ”.)

☆ किसलय की कलम से # 42 ☆

☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆

 कुछ वर्षों पूर्व स्वाधीनता दिवस पर देश के प्रधानमंत्री जी ने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से हर विकासखंड में एक आदर्श ग्राम विकसित करने का आह्वान किया था।

यदि इस योजना पर गंभीरतापूर्वक अमल हुआ होता तो निश्चित ही देश का कायाकल्प हो जाता। आज भी गाँवों से गरीबी एवं बेरोजगारी के कारण बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन जारी है। कहीं न कहीं सरकारी तंत्र की उदासीनता ग्रामीण प्रगति के आड़े आती है। ग्राम विकास की पहले भी कई योजनाएँ चलाई गईं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में खामियों और भ्रष्टाचार के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके हैं। हमारे देश में विकास का आधार गाँव ही हैं। आज भी हमारी अधिसंख्य आबादी गाँवों में ही निवास करती है। जब तक गाँवों में शिक्षा, विकास एवं सम्मानजनक जीवनशैली के प्रति जागरूकता नहीं आती। जब तक तीव्रगामी शहरों की तरह ग्रामीण प्रगति भी प्रतिस्पर्धात्मक रूप नहीं लेती। जब तक हमारी सरकारें ग्रामीण विकास की योजनाओं के लिए समुचित बजट आवंटन और योजनाओं के क्रियान्वयन की पारदर्शी व्यवस्था लागू नहीं करतीं, तब तक  ‘सुविकसित गाँव’ का सपना यथार्थतः साकार होना मुश्किल ही लगता है। हमें देखना होगा कि सरकारें आशा के अनुरूप आदर्श ग्राम योजना हेतु बजट आवंटित करती रहेंगी अथवा ये भी हवा हवाई घोषणाएँ ही सिद्ध होंगी। सरकारें विकास के क्या पैमाने बनाती हैं और योजनाओं को कैसे अमल में लाती हैं। सिर्फ नेक सोच जताने या घोषणा करने से काम नहीं चलेगा। आप, हम, सभी को यह भी स्मरण रखना होगा कि सुपरिणामों के बाद ही सही मायनों में इंसान वाहवाही का हकदार होता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 89 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 89 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मटक मटक कर चल रही,

कर सोलह शृंगार।

साजन से वह कर रही,

जन्म जन्म का प्यार।।

 

अलंकार से हो रहा,

कविता का शृंगार।

शोभा ऐसे बढ़ रही,

रूप रंग साकार।।

 

गोरी कैसे लिख रही,

अपने भाव विचार।

व्याकुल मन में चल रहा,

करना है अभिसार।।

 

विनती तुमसे कर रही,

करती हूँ मनुहार।

नयन हमारे पढ़ रहे,

कितना तुमसे प्यार।।

 

द्वार द्वार पर सज रहे,

मनहर बंदनवार।

राम पधारे राज्य में,

मंगलमय त्योहार।।

 

संकट की इस दौर में,

कैसे पाएँ त्राण।

जाप करो हनुमंत का,

बच जायेंगे प्राण।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 79 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 79 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

भाग सराहें आपने, आ गई वेक्सीन

कोरोना से जूझती, अब मत हों गमगीन

 

दुनिया में इज्जत बढ़ी, नाम हुआ चहुँ ओर

मोदी जी का ये जतन, मचा रहा है शोर

 

दो गज दूरी साथ रख,मुँह पर रखें मास्क

सेनिटाइज हाथ करें,नव समझकर टास्क

 

दवाई के साथ रखें,खूब कड़ाई आप

घर में रह कर कीजिये, नित भगवत का जाप

 

वेक्सीन लगवाइए, बिन डर बिन संकोच

तभी सुरक्षा आपकी, रखिये ऊँची सोच

 

अफवाहों से बच चलें, दें न उन पर ध्यान

मुश्किलों से डरें नहीं, चलिए सीना तान

 

बीमारी ना देखती, जाति धरम आधार

इसीलिए सब भाइयो, बदलो अब आचार

 

कोरोना के काल में, वेक्सीन वरदान

कोरोना भी डर रहा, सुन कर उसकी तान

 

सब मिलकर लगवाइए, कहता यह “संतोष”

फिर पछितावा होयगा, मत देना फिर दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 – विजय साहित्य – अस्तित्व….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 – विजय साहित्य ☆ अस्तित्व….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

शब्दांनीच शब्दांची

ओलांडली आहे मर्यादा

फेसबुक प्रसारण आणि

ऑनलाईन सन्मानपत्र,

नावलौकिक कागदासाठी

धावतात शब्द…..

अर्थाचं, आशयाचं,

आणि साहित्यिक मुल्यांचं

बोटं सोडून…..;

आणि करतात दावा

कवितेच्या चौकटीत

विराजमान झाल्याचा..

खरंच कविते,

लेखक बदलला तरी चालेल

पण तू अशी

विकली जाऊ नकोस

किंवा येऊ नकोस घाईनं ;

कवितेच्या, काव्याच्या

मुळ संकल्पनेशी

फारकत घेऊन….!

तू सौदामिनी,

होतीस,आहेस आणि

राहशीलही….!

पण तुला खेळवणारे

खुशाल चेंडू हात

एकदा तरी,

होरपळून

निघायला हवेत..;

तुझ्या बावनकशी

अस्तित्त्वासाठी…!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 64 ☆ अजीजन बाई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित प्रेरक लघुकथा अजीजन बाई। यह लघुकथा हमें हमारे इतिहास के एक भूले बिसरे  स्त्री चरित्र की याद दिलाती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 64 ☆

☆ अजीजन बाई ☆

वह प्रसिद्ध नर्तकी थी, उसे घुंघरू पहना दिए गए थे। महफिल में उसका नृत्य देखने दूर – दूर से लोग आया करते थे। बात सन् 1857 की है जब स्वतंत्रता सेनानी मातृभूमि की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा रहे थे। अजीजन बाई उदास थी, तबले की थाप और  घुंघरुओं की आवाज अब उसे अच्छी नहीं लग रही थी।  उसने घुंघरू उतार दिए। जहाँ कभी महफिलें गुलजार हुआ करती थीं, वहाँ  अजीजन क्रांतिकारियों के साथ मिलकर स्वाधीन भारत के सपने संजोने लगी। उसका प्रेम अब देशभक्तों पर लुट रहा था। उसने अपने बेशकीमती गहने, धन-दौलत सब भारत माता के आँचल में खुशी -खुशी न्यौछावर कर दिए।

अजीजन की मस्तानी टोली अंग्रेजों की छावनी में जाकर उनका मनोरंजन करने के बहाने वहां की गुप्त सूचनाएं स्वतंत्रता सेनानियों तक पहुंचाया करती थी। वे घायल क्रांतिकारियों की देखभाल करतीं, उन्हें भोजन और जरूरी सामान पहुँचातीं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बिठूर के युद्ध में हार जाने  पर नाना साहब और तात्या टोपे तो बच निकले, अजीजन पकड़ी गई। अंग्रेज अधिकारी ने शर्त रखी कि यदि वह स्वतंत्रता सेनानियों की योजनाओं के बारे में बता दे तो उसे माफ कर दिया जाएगा। अजीजन मुस्कुराते हुए बोली – जानकारी देने का तो सवाल ही नहीं है और माफी तो अंग्रेजों को हमारे देशवासियों से मांगनी चाहिए जिन पर उन्होंने अत्याचार किए हैं। हम तो अपनी मातृभूमि का कर्ज उतार रहे हैं बस। इतना सुनते ही अपमान से तिलमिलाए अंग्रेज अधिकारी ने अजीजन के शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया।

अजीजन पूरे भारत देश की अज़ीज़ हो गईं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 61 ☆ जुगाड़ की संस्कृति ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जुगाड़ की संस्कृति”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 61 – जुगाड़ की संस्कृति

भागने और भगाने का खेल करते- करते सोहमलाल जी अपने सारे कार्य पूरे करवा ही लेते हैं। हर बार एक नए बहाने के साथ उनका भाषण सुनने को मिल जाता है। अच्छी- अच्छी सोच, समझदारी भरी बातें किसी को भी आसानी से अपने जाल में फसाने के लिए काफी होती हैं। बस एक खूबी है, जिससे वो आज तक अपना परचम फहरा रहे हैं कि सब को साथ लेकर चलना है। जो जिस लायक हो उससे वैसा कार्य करवाना, साथ ही साथ सीखना और सिखाना।

खैर ये दुनिया तो किसी के लिए नहीं रुकती है , बस चलते रहो तो एक न एक दिन अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाओगे। इसी मंत्र को लेकर संभावना जी लगातार प्रचार – प्रसार में लगी हुई हैं। किसी भी तरह से पोस्टर की रौनक बनना है। शहर की लगभग सभी होर्डिंग उनकी तस्वीर के बिना पूरी होती ही नहीं है। इस सब के जुगाड़ में वो दिन- रात बस चरैवेति- चरैवेति की धुन को अलापते हुए बढ़ती जा रही हैं। जो कोशिश करेगा वो तो जीतेगा ही। उच्च पद पर विराजित सोहमलाल जी व संभावना जी दोनों में यही समानता है कि वे एक पल के लिए भी मोबाइल अपने से दूर नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके सारे कार्यों का हमराज यही स्मार्टफोन ही तो है। उनके दिमाग मे क्या चल रहा है , ये उनसे पहले ही जान जाता है। दरसल दोनों लोग अपने दिमाग़ से नहीं किसी और के सपनों को पूरा करने के लिए दूसरे के अनुसार कार्य करते हैं।

अच्छा यही कारण है कि पल में तोला पल में मासा उनके व्यवहार से झलकता है। वे लोग अपने कहे हुए कथनों में अडिग नहीं रह पाते हैं। जैसे ही उनको नया संदेश मिला तो तुरंत पुरानी बातों को बदलते हुए नए सुर को पकड़ लेते हैं। सुर और साज का तो पुराना नाता है। राग और वैराग्य दोनों को एक साथ सम्हाल के चलना बिल्कुल ऐसे ही, जैसे रस्सी पर सधा हुआ व्यक्ति चल कर दिखाता। ऐसे कुशल लोगों को तालियाँ तो खूब मिलती हैं किंतु जब बात पैसों की हो तो वहाँ चमक- दमक ही आगे विराजित होकर सम्मानित होती हुई नज़र आती है। सम्मान के बारे में जितना कहा जाए वो कम होगा क्योंकि इसे तो उनकी ही गोद पसंद होती है जो हरे भरे नोटों से सजी रहती हो। पैसा आते ही जहाँ एक तरफ चेहरे की रौनक बढ़ती है तो दूसरी तरफ बोलने का अंदाज भी आसमान छूने लगता है।

कहते हैं कि आजकल तो वस्तुओं के भाव ही इसकी बराबरी कर सकते हैं। करें भी क्यों न?  दोनों जगह लक्ष्मी की ही पूजा जो होती है। भाव व प्रभाव का गहरा नाता है। प्रभाव बढ़ते ही भाव का बढ़ना लाजिमी होता है। छोटी- छोटी बातों को तूल देते हुए झगड़ पड़ना संभावना जी की आदतों में शुमार है। एक छोर इधर से और दूसरा उधर से इसे जोड़ने की नाकाम कोशिश करते हुए सोहमलाल जी अक्सर अपना आपा खोने लगते हैं। जुगाड़ की संस्कृति न जाने कितने घरों को बर्बाद कर चुकी है।  ऐसे व्यक्ति  न तो घर के न ही देश के सगे होते हैं ये तो बस येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने पर ही विश्वास रखते हैं। बस समय पास करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको बलगराते  रहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 81 – हाइबन- ओस्प्रे ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- ओस्प्रे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 81 ☆

☆ हाइबन-ओस्प्रे ☆

ओस्प्रे को समुद्री बाज भी कहते हैं। इसे समुद्री हॉक, रिवर हॉक, फ़िश हॉक के नाम से भी जाना जाता है। 7 सेंटीमीटर लंबा और 180 सेंटीमीटर पंखों की फैलाव वाला यह पक्षी मछलियों का शिकार करके खाता है।

यूरोपियन महाद्वीप में बहुतायत से पाया जाने वाला यह पक्षी भारत में भ्रमण के लिए आता रहता है। 1 से 2 किलोग्राम के वजन का यह पक्षी तैरती हुई मछली को झपट कर पंजे में दबा लेता है। इस के पंजों के नाखून गोलाई लिए होते हैं। एक बार मछली पंजे में फंस जाए तो निकल नहीं पाती है।

इसके करिश्माई पंजे के गोलाकार नाखून ही कभी-कभी इसकी मौत के कारण बन जाते हैं। वैसे तो यह अपने वजन से दुगुने वजन की मछली का शिकार कर लेता है। फिर उड़ कर अपने प्रवासी वृक्ष पर आकर उसे खा जाता है। मगर कभी-कभी अनुमान से अधिक वजनी मछली पंजे में फंस जाती है। इस कारण इसकी पानी में डूबने से मृत्यु हो जाती है।

इस पक्षी का सिर और पंखों के निचले हिस्से भूरे और शेष भाग हल्के काले रंग के होते हैं। इसे हम सब बाज के नाम से भी जानते हैं।

शांत समुद्र~

ओस्प्रे डूबने लगा

मछली संग।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 68 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है सप्तम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 68 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का सप्तम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवद ज्ञान

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सरल शब्दों में इस तरह भगवद ज्ञान दिया।

पृथापुत्र मेरी सुनो,भाव भरी सौगात।

मन मुझमें आसक्त हो, करो योगमय गात।। 1

 

दिव्य ज्ञान मेरा सुनो, सरल,सहज क्या बात।

व्यवहारिक यह ज्ञान ही, जीवन की सौगात।। 2

 

यत्नशील सिधि-बुद्धि हित, सहस मनुज में एक।

सिद्धि पाय विरला मनुज, करे एक अभिषेक।। 3

 

अग्नि, वायु, भू, जल, धरा; बुद्धि, मनाहंकार।

आठ तरह की प्रकृतियाँ, अपरा है संसार।। 4

 

पराशक्ति है जीव में, यह ईश्वर का रूप।

यही प्रकृति है भौतिकी, जीवन के अनुरूप।। 5

 

उभय शक्तियाँ जब मिलें, यही जन्म का मूल।

भौतिक व आध्यात्मिकी, उद्गम, प्रलय त्रिशूल।। 6

 

परम श्रेष्ठ मैं सत्य हूँ, मुझसे बड़ा न कोय।

सुनो धनंजय ध्यान से, सब जग मुझसे होय।। 7

 

मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूरज-चन्द्र-प्रकाश।

वेद मन्त्र में ओम हूँ , ध्वनि में मैं आकाश।। 8

 

भू की आद्य सुगंध हूँ, ऊष्मा की मैं आग।

जीवन हूँ हर जीव का, तपस्वियों का त्याग।। 9

 

आदि बीज मैं जीव का, बुद्धिमान की बुद्धि।

मनुजों की सामर्थ्य मैं, तेज पुंज की शुद्धि।। 10

 

बल हूँ मैं बलवान का, करना सत-हित काम।

काम-विषय हो धर्म-हित, भक्ति भाव निष्काम।। 11

 

सत-रज-तम गुण मैं सभी, मेरी शक्ति अपार।

मैं स्वतंत्र हर काल में, सकल सृष्टि का सार।। 12

 

सत,रज,तम के मोह में, सारा ही संसार।

गुणातीत,अविनाश का, कब जाना यह सार।। 13

 

दैवी मेरी शक्ति का, कोई ओर न छोर

जो शरणागत आ गया, जीवन धन्य निहोर।। 14

 

मूर्ख, अधम माया तले, असुर करें व्यभिचार।

ऐसे पामर नास्तिक, पाएँ कष्ट अपार।। 15

 

ज्ञानी, आरत लालची, या जिज्ञासु उदार।

चारों हैं पुण्यात्मा, पाएँ नित उपहार।। 16

 

ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है, करे शुद्ध ये भक्ति।

मुझको सबसे प्रिय वही, रखे सदा अनुरक्ति।। 17

 

ज्ञानी सबसे प्रिय मुझे, मानूँ स्वयं समान।

करे दिव्य सेवा सदा, पाए लक्ष्य महान।। 18

 

जन्म-जन्म का ज्ञान पा, रहे भक्त शरणार्थ।

ऐसा दुर्लभ जो सुजन, योग्य सदा मोक्षार्थ।। 19

 

माया जो जन चाहते, पूजें देवी-देव।

मुक्ति-मोक्ष भी ना मिले, रचता चक्र स्वमेव।। 20

 

हर उर में स्थित रहूँ, मैं ही कृपा निधान।

कोई पूजें देवता, कोई भक्ति विधान।। 21

 

देवों का महादेव हूँ, कुछ जन पूजें देव।

जो जैसी पूजा करें, फल उपलब्ध स्वमेव।। 22

 

अल्प बुद्धि जिस देव को,भजते उर अवलोक।

अंत समय मिलता उन्हें, उसी देव का लोक।। 23

 

निराकार मैं ही सुनो,मैं ही हूँ साकार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, घट-घट पारावार।। 24

 

अल्पबुद्धि हतभाग तो, भ्रमित रहें हर बार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, धरूँ रूप साकार।। 25

 

वर्तमान औ भूत का, जानूँ सभी भविष्य।

सब जीवों को जानता, जाने नहीं मनुष्य।। 26

 

द्वन्दों के सब मोह में, पड़ा सकल संसार।

जन्म-मृत्यु का खेल ये, मोह न पाए पार।। 27

 

पूर्व जन्म, इस जन्म में, पुण्य करें जो कर्म।

भव-बन्धन से मुक्त हों,करें भक्ति सत्धर्म।। 28

 

यत्नशील जो भक्ति में, भय-बंधन से दूर।

ब्रह्म-ज्ञान,सान्निध्य मम्,पाते वे भरपूर।। 29

 

जो भी जन ये जानते, मैं संसृति का सार।

देव जगत संसार का , मैं करता उद्धार।। 30

 

इस प्रकार श्रीमद्भागवतगीता सातवाँ अध्याय,” भगवद ज्ञान ” का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 73 – मी… ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #73 ☆ 

☆ मी… ☆ 

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी.

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १४ ) – राग~जौनपूरी/जीवनपूरी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १४ ) – राग~जौनपूरी/जीवनपूरी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सूर संगत~राग~जौनपूरी/जीवनपूरी

मागील आठवड्यांत आसावरी थाटांतील दरबारी कानडा रागाविषयीच्या विवेचनानंतर त्याच आसावरी थाटांतील राग जौनपूरी किंवा जीवनपूरी या रागाविषयी लिहावे असे मला वाटते.

आपल्याला माहीतच आहे की सर्वसाधारणपणे थाटातील स्वरांप्रमाणेच त्या त्या थाटोत्पन्न रागांतील स्वर रचना असतात. आसावरी  थाटात गंधार,धैवत व निषाद कोमल म्हणून दरबारी कानडा आणि जौनपूरी दोन्ही रागांत ग ध नी कोमल! हे सर्व स्वर सारखे असूनही दोन राग भिन्न का बरे वाटतात? त्याचे कारण रागांचे चलन!

षाडव ~ संपूर्ण जातीचा हा राग आरोही रचनेत सरळ मार्गी आहे तर अवरोही रचना मात्र वक्र स्वरूपाची असल्याचे आपल्या लक्षांत येते.

सा रे म प(ध)(नी) सां ~ आरोह

सां रें (नी)(ध)प (ध)म प (ग) रे सा.~असा वक्र स्वरूपी अवरोह.

असे असले तरी काही लोक सां (नी)(ध)प म (ग) रे सा असा सरळ अवरोहही घेतात.मात्र वक्रतेमुळे आणि गंधार व धैवताच्या आंदोलनामुळे रागाचे माधूर्य अधिक वाढते.तसेच तीच या रागाची ओळख आहे.

धैवत वादी व गंधार संवादी मानून हा राग सादर करायचा असतो. वादी धैवत हा उत्तरांगांतील स्वर असल्यामुळे याची बढत मध्य व तार सप्तकांतच केली जाते.रियाजासाठी मात्र मंद्र सप्तकांतही गाणे आवश्यक आहे.

आसावरी हा जनक राग प्राचीन आहे.जौनपूरी आणि आसावरी या दोहोत तसा फारसा फरक नाही.जौनपूरीत आरोही निषाद आहे तर आसावरीत आरोहात निषाद वर्ज्य आहे येवढाच काय तो फरक!हिंदुस्तानी संगीतातला आसावरी हा राग दक्षिणेकडे गायला जातो,पण ते जीवनपूरी व आसावरीचे मिश्रण असते.उत्तर हिंदुस्तानी संगीतातही हे दोन राग वेगळे ठेवणे बर्‍याचदां शक्य होत नाही.

मंगेश पाडगांवकरांच्या “दूर आर्त सांग कुणी छेडिली आसावरी” ह्या कवितेला यशवंत देव यांनी जी संगीत रचना केली आहे ते आसावरी व जीवनपूरी यांच्या मिश्रणाचे उत्तम उदाहरण आहे.

दिवसा सादर होणारा हा राग मधूर तर आहेच,पण खेळकर वृत्तीचाही आहे.किशोरीताई अमोणकर यांची “छुम छननन बिछुवा बाजे”किंवा अश्विनी भिडे यांनी गायिलेली “अब पायल बाजन लागी रे” या बंदिशी ऐकल्या की जौनपूरीतला खेळकरपणा आपल्या डोळ्यासमोर साकार होतो, आणि मनाची सगळी मरगळ झटकून नवचैतन्य निर्माण झाल्याचा भास होतो.

मायकेल राॅबीन्सन या अमेरिकेतील संगीतप्रेमी माणसाने जौनपूरी ऐकल्यानंतर एखाद्या मादक आणि सुंदर स्त्रीचे चित्र डोळ्यासमोर उभे रहाते असे उद्गार काढले आहेत.

मानापमान नाटकांतील”प्रेमभावे जीव जगी या नटला”हे जौनपूरीतील पद असेच चेतना जागृत करणारे आहे.भक्तिरचनाही ह्या रागात गोड आणि भावपूर्ण वाटतात.याचे उदाहरण म्हणजे अभिषेकीबुवांनी गाजविलेला संत गोरा कुंभार या नाटकातील

“अवघे गरजे पंढरपूर/चालला नामाचा गजर”हा अभंग,तसेच “देवा तुझा मी सोनार”ही भक्तीरचना!सी रामचंद्र यांनी सरगम या चित्रपटांतील”छेड सखी सरगम”हे गाणे जीवनपूरी/आसावरी ह्या मिश्रणांतूनच संगीतबद्ध केले आहे.टॅक्सी ड्रायव्हरमधील”जाये तो जाये कहाॅं,मुघलेआझममधील”मुहब्बतकी झूठी कहानीपे रोये” ह्या गाण्यांवर जौनपूरीची छाप आहे असे जाणवते.

जौनपूर या गांवाच्या नावावरून जौनपूरी हे नाव आले असावे व नंतर त्याचे जीवनपूरी झाले असे काहींचे मत आहे.सुलतान शर्की या अमीर खुश्रोच्या शिष्याने हा राग बनविला असेही मानतात.

तानसेन वंशाचे गायक मात्र या रागाचे अस्तित्व नाकारतात.काहीही वाद असले तरी भारतीय संगीतात जौनपूरी अथवा जीवनपूरी या रागाला निश्चितपणे स्वतंत्र अस्तित्व आहे.

क्रमशः ….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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