हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 104 ☆ संस्मरण – एक जनम की बात सात जनम का साथ – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। साथ ही मिला है अपनी माताजी से संवेदनशील हृदय। इस संस्मरण स्वरुप आलेख के एक एक शब्द – वाक्य उनकी पीढ़ी के संस्कार, संघर्ष और समर्पण की कहानी है । गुरु माँ जी ने निश्चित ही इस आत्मकथ्य को लिखने के पूर्व कितना विचार किया होगा और खट्टे मीठे अनुभवों को नम नेत्रों से लिपिबद्ध किया होगा। यह हमारी ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी उनकी पीढ़ी के विरासत स्वरुप दस्तावेज हैं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104 ☆

? संस्मरण – एक जनम की बात सात जनम का साथ – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव ?

(पुराने कम्प्यूटर पर वर्ष 2001 की फाइलों में  स्व माँ की यह वर्ड फाइल  मिली, अब माँ के स्वर्गवास के उपरांत  इसका दस्तावेजी महत्व है । यथावत, यूनीकोड कन्वर्जन कापी पेस्ट – विवेक रंजन श्रीवास्तव)

मारा वैवाहिक जीवन पहले उस मुरब्बे के समान रहा जो पहले पहल कुछ खट्टा मीठा मिलने पर होता ही है। परन्तु जैसे – जैसे त्याग, दृढ़ संकल्प, प्यार, उम्र के शीरे में पगता गया तो सचमुच जीवन अति मधुर – मधुरतम होता गया। जो संतोष सबों को नहीं मिलता, वह हमें मिला है। और हमारे पास इसकी एक कुंजी है, हम दोनों का एक दूसरे पर अटूट भरोसा करते हैं। हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं हमारी सुयोग्य संतान।

यह सब शायद हमारे तपोमय गृहस्थ जीवन के फल हैं। धन तो नश्वर है, परन्तु चरित्रवान संतान पीढ़ी – दर – पीढ़ी रहने वाली सम्पत्ति है। सन 1951 में जब हमारी शादी हुई थी, तब मध्यप्रदेश सी.पी.एण्ड बरार कहलाता था मेरे पति जिला मण्डला के रहने वाले थे।  और मेरे पिता लखनऊ में शासकीय सेवा में थे। मेरी इन्टरमीडियट तक की शिक्षा (शादी के पहले) लखनऊ में ही हुई। मैं अपने सात बहनों व दो भाईयों में सबसे छोटी थी।  मेरे पति अपने चारों भाईयों में सबसे बड़े वे। शादी के समय मेरे पति इण्टर के साथ विशारद पास करके उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर खामगांव बरार में पदस्थ थे।  विशारद को उस समय बी.ए. के समकक्ष मान्यता थी। इसी आधार पर इन्हें उच्च श्रेणी शिक्षक का पद मिला था। सो शायद नासमझी में इन्होंने मेरे पिताजी को अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक ही बताई थी।  पहली रात को जब हम मिले तो इन्होंने मजाक किया कि तुम मुझे बी.ए. पास समझती हो, परन्तु यदि ऐसा न हो तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा ? और इन्होंने मैट्रिक का एडमीशन कार्ड रोल नंबर दिखाया, क्योंकि महाराष्ट्र में पदस्थ होने से मराठी भाषा सीखने के लिये उन्होंने उसी वर्ष मराठी भाषा की मैट्रिक की परीक्षा दी थी। बचपन में पढ़ी हुई रामायण के आदर्श की छाप मेरे मन में थी। सीता जैसी पत्नि का स्वरूप मेरे मन व मस्तिष्क में अंकित था। माता – पिता के द्वारा दी गई शिक्षा भी ऐसी ही थी कि जो स्त्री हर परिस्थिति में पति की सहधर्मिणी हो, वही श्रेष्ठ कहलाती है। मेरी आगे पढ़ने की लालसा ने और भी प्रेरणा दी और खुश होकर मैने कहा कि तो क्या हुआ, हम दोनों ही साथ – साथ बी.ए. इसी वर्ष कर लेंगे ।

इनका परिवार सामान्य मध्यम वर्ग का था। मण्डला जैसे पिछड़े स्थान का भी कुछ प्रभाव था, बहू को पढ़ाना तो शायद सोचा भी नहीं जा सकता था। इनके पिता की अस्वस्थता के कारण इन्हें मैट्रिक पास करके परिवार का आर्थिक खर्च वहन करने के लिये लिपिक की नौकरी से जीवन की शुरुवात करनी पड़ी थी। उस पहली नौकरी के साथ ही इन्होंने प्राइवेट ही साहित्य सम्मेलन से संचालित परीक्षा दे डाली और विशारद पास कर लिया, और इसी आधार पर खामगांव में इनकी उच्च श्रेणी हिन्दी शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गयी। शादी के समय पहली बार ही 10-15 दिन मुझे ससुराल में रहना पड़ा। मैने महसूस किया कि घर की आर्थिक स्थिति डॉवाडोल है। मेरे मन में कुछ करने का उत्साह था, बस मैनें इनसे अपनी इच्छा जाहिर की,कि यदि में नौकरी कर लूंगी तो दोनों मिलकर अधिक आर्थिक बोझ उठा सकेंगे।

इत्तिफाक से इन्हीं के स्कूल में एक लेडी टीचर का स्थान रिक्त था, और तत्कालीन डी.एस.ई. (नियुक्ति अधिकारी) ने मेरी नियुक्ति उस स्थान पर करने की सहमति भी दे दी। किन्तु मेरे सास ससुर व मेरे माता पिता उन पितृपक्ष के कड़वे दिनों में विदा के लिये तैयार नहीं थे इन्होंने मेरी राय जाननी चाही। पता नहीं किस दैवी प्रेरणा से मैने अपनी स्वीकृति इन्हें पत्र द्वारा सूचित कर दी।  मैंने सोचा आज जो मौका मिल रहा है, पता नहीं कल मिले या न मिले ? अतः मौके का लाभ ले ही लेना चाहिए उस समय पितृपक्ष चल रहा था। परम्परा के अनुसार लड़की की विदाई आदि के लिये यह समय शुभ मुहूर्त नहीं माना जाता, परन्तु हम दोनों के कहने से हमारे बड़ों ने भी अनुमति दे दी और पितृपक्ष में ही हमारी बिदा कर दी गयी।

मैंने चिखली बरार में इनके साथ पहुंचकर शिक्षकीय कार्य संभाल लिया। हम दोनो ने बी.ए.का फार्म भी  नागपुर विश्वविद्यालय से प्राइवेट भर दिया। और नई नई शादी में पढ़ाई भी शुरू हो गई। उस छोटी सी उम्र में नौकरी, पढ़ाई और नई गृहस्थी के कार्य संभालना पड़ा।  थोड़ी कठिनाई जरूर महसूस हुई परन्तु पतिदेव के सहयोग से सारी कठिनाईयाँ हंसी – खुशी हल होती गई। निरन्तर प्रयास से हम दोनों ने बी.ए., फिर एम.ए. व बी.टी. बिना रुकावट के पास कर लिया। बाद में जब मेरे पिताजी को इनकी इतनी सारी डिग्रियों का व विवाह के बाद पढ़ने की असलियत का पता चला तो उन्होंने खुश होकर इनको ‘आफताब” का खिताब तक दे डाला था। इसी बीच बड़ी बेटी वन्दना का जन्म हुआ और घर – गृहस्थी व नौकरी की व्यस्तता में मेरी पढ़ाई में तो फुलस्टॉप लग गया। परन्तु इन्होंने लगातार पढ़ाई जारी रखी और डबल एम.ए. व एम एड। पास किया। शासकीय सेवा में प्रमोशन होते रहे।  मैं प्राचार्य पद से सेवानिवृत हो चुकी हूँ व मेरे पतिदेव उसी प्रांतीय शिक्षक प्रशिक्षण कालेज से प्रोफेसर पद से  सेवानिवृत हुए, जहाँ कभी हमने साथ साथ शिक्षक प्रशिक्षण लिया था।

हमारे तीन बेटियां व एक बेटा है, सभी सुशिक्षित है। बेटा भी जैसी मेरी कल्पना थी कि ‘ वरम एको गुणी पित्ः न च मूर्खः शतान्यपि, वैसा ही गुणी निकला। आज वह भी विद्युत विभाग में एस.ई.के पद पर है। चारों बच्चों की अच्छी शादियां यथासमय हो गई। और सभी अपने परिवार के साथ प्रसन्न है। मुझे संतोष है कि नन्हें नन्हें प्यारे नाती नातिनो के रूप में मेरे अथक परिश्रम का फल मुझे पूरा मिल गया। बच्चों को सही दिशा मिल सकी। मेरे पतिदेव एक विख्यात साहित्यकार है, प्रारंभिक जीवन में पारिवारिक परिस्थितियों के कारण, साहित्य साधना के लिये समय व धन का अभाव रहा। इससे कुछ रचनायें यदि लिख भी लेते तो आर्थिक अभाव के कारण छपवाना कठिन था। कुछ तो इनका सिद्धांत था कि पहले इनके छोटे भाइयों की गृहस्थी बस जाये, फिर अपने लिये कुछ करूं। इसीलिए अपने लिये छोटे – छोटे खर्च भी नहीं करते थे। और 1972 के बाद ही, जब सब भाइयों की नौकरी, शादी आदि से निवृत हो गये, तभी अपनी गृहस्थी के लिये कुछ किया। कभी – कभी जब बच्चों तक की छोटी सी मांग को भी फिजूलखर्ची कहकर टाल जाते थे, तब जरूर मुझे दुख होता था और खिन्नता के कारण हमारी खटपट भी हो जाती थी। ऐसा नहीं था कि हमें अभाव में रखकर इन्हें दुःख नहीं होता था। कविता में मुखर हो जाते है उनके उदगार – कुछ इस प्रकार

“उदधि में तूफान में ही डाल दी है नाव अपनी” या 

” अंधेरी रात का दीपक बताये क्या कि उजियाला कहाँ है” अथवा

” रो रो के हमने सारी जिन्दगी गुजार दी, आई न  हँसी जिन्दगी में एक बार भी”

किन्तु आशावादी दृष्टिकोण के ही कारण  सारी झंझटें दूर होती गई व हमें सफलता हासिल हुई। मुझे भी इनके गीतों से बहुत सहारा मिलता था तथा प्रेरणा मिलती थी।

दुख से भरे मन को किसी का प्यार चाहिये।

दुख से घबरा न  मन, कर न गीले नयन।

आदमी वो जो हिम्मत न हारे कभी।

सचमुच अभाव में भी इनके प्यार के आगे सारे कष्ट विस्मृत हो जाते थे, और काम करते रहने की, सब कुछ  सहने की प्रेरणा मिलती थी। इनकी अनुगामिनी बनकर मैंने बहुत कुछ सीखा है। हमारे स्वभाव में साम्य होने को कारण ही हम कदम से कदम मिलाकर चल सके और स्वयं निर्धारित लक्ष्य को पा सके। हम दोनों ही सादगी, ईमानदारी, सच्चाई एवं कर्तव्य परायणता के कायल हैं। हमने कभी एक – दूसरे से कुछ छिपाया नही. एक – दूसरे पर अटूट विश्वास ही हमारी सफलता का राज है।

आज हम जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं और संतोषं परमं धनं, भरपूर है हमारे पास। सबका प्यार बना रहे, सब मिलकर प्यार से रहें, यही कामना है। इन्हीं की कविता की पंक्तियां हैं..

” मोहब्बत एक पहेली है, जो समझाई नहीं जाती” इसी प्रेरणा को लेकर हमारा परिवार,  हमारे बच्चे निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हों, ऐसी कामना है।

जीवन की कुछ खट्टी – मीठी यादें ही शेष है। ईश्वर पर विश्वास है। भगवान की कृपा ने हमारी सारी योजनायें पूरी कर जीवन में सफलता दी। अंतिम इच्छा है कि “ पति के सामने मेरी अंतिम सांस पूरी हो”, परमात्मा यह साध अवश्य पूरी करेगा। आज तक जो सोचा, जो चाहा, वह अवश्य हासिल हुआ है, अंतिम इच्छा भी पूरी होगी।

आज साहित्य जगत में एक अच्छे साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति है- और अब उनकी काव्य – कृतिया छपती जा रही है, यह इस प्रकार है 1.  मेघदत का हिन्दी काव्यानुवाद २. ईशाराधन ३. वतन को नमन ४. अनुगुंजन ५. रघुवंश का हिन्दी काव्यानुवाद छपने जा रहा है। हमारी शादी की पचासवीं सालगिरह बच्चों ने धुमधाम से मनाई है। इनकी अनेको उपदेशात्मक कहानियां व अन्य रचनायें भी छप चुकी हैं। आज साहित्य साधना ही उनका मुख्य लक्ष्य है, उसी में अपना समय आनंद से बीत जाता है। मेरे पतिदेव दिखावे की दुनिया से बिल्कुल दूर है, इसलिए रचनायें स्वान्तः सुखाय ही लिखते है। जिनके प्रकाशन में मेरे पुत्र विवेक का प्रयास प्रशंसनीय है।

 – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 69 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है अष्टम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 69 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का अष्टम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवत्प्राप्ति क्या है?

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से ब्रह्म और आत्मा आदि के बारे में कुछ प्रश्न किए, जो इस प्रकार हैं—–

 

हे माधव क्या आत्मा, ब्रह्म-तत्व- संज्ञान।

कौन देवता, जगत क्या, कर्मयोग- पहचान।। 1

 

कौन अधीश्वर यज्ञ का,कैसा धरे शरीर।

कैसे जानें अंत में, माधव तुम्हें कबीर।। 2

 

श्रीकृष्ण भगवान ने भगवत्प्राप्ति के सरल साधन अर्जुन को इस प्रकार बताए——-

 

दिव्य जीव ही ब्रह्म है, मैं हूँ परमा ब्रह्म।

नित्य स्वभावी आत्मा, तन से होयँ सुकर्म।। 3

 

प्रकृति-देह अधिभूत हैं, मैं हूँ रूप विराट।

सूर्य-चंद्र अधिदेव गण,मैं सबका सम्राट।। 4

 

जो मेरा सुमिरण करे, अंत समय भज नाम।

ऐसा सज्जन पुरुष ही,पाता मेरा धाम।। 5

 

अंत समय जो नाम ले, त्यागे मनुज शरीर।

करे स्मरण भाव से, पाए वही शरीर।। 6

 

चिंतन कर मम पार्थ तू, कर धर्मोचित युद्ध।

मनोबुद्धि मुझमें करो, बने आत्मा शुद्ध।। 7

 

मेरा सुमिरन जो करें, और करें नित ध्यान।

ऐसे परमा भक्त का, हो जाता कल्यान।। 8

 

परमेश्वर सर्वज्ञ है, लघुतम और महान।

परे भौतिकी बुद्धि से, सूर्य सरिस गतिमान।। 9

 

निकट मृत्यु के पहुँचकर, करता प्रभु का ध्यान।

योग शक्ति अरु भक्ति से, हो जाता कल्यान।। 10

 

वेदों के मर्मज्ञ जो, करें ओम का जाप।

ब्रह्मज्ञान पाएँ वही, मिट जाते सब पाप।। 11

 

योगावस्थिति प्रज्ञ हों, इन्द्रिय वश में होंय।

मन हिरदय में जा बसे, प्राण वायु सिर होयँ।। 12

 

अक्षर शुभ संयोग है, ओमकार का नाम।

चिंतन योगी जो करें, पहुँचें मेरे धाम।। 13

 

सदा सुलभ उनके लिए, रखें प्रेम सद्भाव।

करें भक्ति मेरी सदा,सुखमय बने स्वभाव।। 14

 

भक्ति योग में जो रमें, ऐसे मनुज महान।

परम् सिद्धि पाएँ सदा, छूटे दुःख- जहान।। 15

 

सभी लोक हैं दुख भरे, जनम-मरण का जाल।

पाते मेरा धाम जो, कट जाते जंजाल।। 16

 

ब्रह्मा का दिन एक है, युग का एक हजार।

इसी तरह होती निशा, अद्भुत सृष्टि अपार।। 17

 

दिन होता आरंभ जब , रहता जीवा व्यक्त।

आती है जब रात भी ,हुआ विलय अव्यक्त।।18

 

ब्रह्मा का दिन पूर्ण है, जीवन का प्राकट्य।

ब्रह्मा की जब रात हो, होयँ सभी अव्यक्त।। 19

 

परे व्यक्त-अव्यक्त से,परा प्रकृति का सार।

प्रलय होय संसार का,रचना अपरम्पार।। 20

 

अविनाशी इस प्रकृति का, कभी न होता नाश।

वेद कहें इस बात को, मेरा धाम प्रकाश।। 21

 

परम् भक्ति से प्राप्त हों, ईश्वर श्रेष्ठ महान।

सर्वव्याप अविनाश प्रभु, करें भक्त कल्यान।। 22

 

भरतश्रेष्ठ मेरी सुनो, वर्णन अनगिन काल।

योगी पाते मोक्ष गति, परम् सत्य यह हाल।। 23

 

शुक्लपक्ष दिन सूर्य गति, उत्तरायणी होय।

तन त्यागे इस अवधि में, मुक्ति सुनिश्चित होय।। 24

 

सूर्य दक्षिणायन समय, कृष्णपक्ष हो काल।

चन्द्रलोक उनको मिले, तन त्यागें तत्काल।। 25

 

वेद कहें इस बात को, जाने के दो मार्ग।

पथ है एक प्रकाश का, दूजा पथ अँधियार।। 26

 

जो जाता दिनमान में,मुक्ति सुनिश्चित होय।

अंधकार परित्याग तन, पुनः आगमन होय।। 26

 

भक्तगणों को हैं पता, जाने के दो मार्ग।

सदा भक्ति करते रहो, होता बेड़ा पार।। 27

 

भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, शुभ-शुभ सब ही होय।

नित्यधाम पाएँ मेरा, जनम सार्थक होय।। 28

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” अक्षर ब्रह्मयोग ” आठवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 62 ☆ सोचकर देखिए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “सोचकर देखिए”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 62 – सोचकर देखिए

क्या जिसने पौधा लगाया वही उसका स्वामी होगा , वही वृक्ष के सारे फलों का उपयोग करेगा?  जब ऐसा नहीं होता तो हम ये अपेक्षा क्यों करते हैं कि ये कार्य मैंने किया अब इस पर  मेरा ही अधिकार है। वास्तविकता तो यही  है कि जब तक आप सजग होकर कार्य करते रहेंगे तभी तक आपका मूल्य है जैसे ही कोई और सक्रिय व्यक्ति आपकी जगह लेगा  तब उसका अधिकारी वो कहलायेगा।

प्रकृति के सभी क्रियाकलापों को देखें तो पाते हैं कि सूर्य  , चन्द्रमा, धरती, ग्रह नक्षत्र, जीव -जंतु, नदी, सागर,पर्वत, वृक्ष  ये सब हमेशा कुछ न कुछ देते रहते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते तो हम मनुष्य ही क्यों केवल अपेक्षाओं का पुतला बन  हमेशा माँगते ही रहते हैं यहाँ तक कि परमशक्ति के आगे भी निःस्वार्थ भाव से शीश नहीं झुका पाते वहाँ भी भगवान ये दे दो वो दे दो  की ही माला जपते रहते हैं।

हर गलती का ठीकरा दूसरों पर फोड़ देना बहुत सरल होता है पर अपना मूल्यांकन करना जरा दुश्कर होने लगता है।

कामयाबी को शब्दों में बाँधना बहुत कठिन  है। केवल आर्थिक रूप से शीर्ष पर स्थापित होने से नाम और पहचान सहजता से मिलती है किंतु लोगों के हृदय में सम्मान बनाने हेतु निःस्वार्थ  भाव से कार्य करना पड़ता है।

जब आप मैं से दूर हो समाज के लिए उपयोगी हो जाते हैं  तभी अंतरात्मा प्रसन्न हो मनोवांछित फल देने लग जाती है। तब ये खुशी चेहरे की आभा बन जनमानस के लिए एक मार्गदर्शक व्यक्तित्व का निर्माण करती है।

हार्दिक बधाई, स्वागत है। ये लिखते- लिखते मानों साँसों की डोरी थम सी गयी हो। अपने क्रियाकलापों का अवलोकन करते हुए स्वतः विचार अवश्य करना चाहिए। समय के साथ जोड़ना – घटाना चलता ही रहेगा किन्तु अपना सफर कहाँ से कहाँ तक तय किया गया उसे याद कर आज कहाँ तक जा पहुँचे हैं ये भी सोचकर जिन्होंने देखा वो कामयाबी की माला पहने नज़र आए।

पतझड़ तो सबके जीवन में आते हैं, शाख से टूटे हुए पत्तों को कोई जोड़ नहीं सकता। नई कोंपले निकलेंगी वे ही वृक्ष की रौनक बढ़ाते हुए उसे पुष्पित और पल्लवित करेंगी। अब समय है कि इन बदलावों को सहजता से स्वीकार कर अपने साथ- साथ लोगों को भी बढ़ाएँ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 82 – लघुकथा  – इरादा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – इरादा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 82 ☆

☆ लघुकथा – इरादा ☆

पुराने मकान को विस्फोटक से उड़ाने वाले को दूसरे ने अपनी लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, ” इस मुर्ति को विस्फोट से उड़ा दो लाखों रुपए दूंगा।” सुन कर पहले वाला दाढ़ीधारी हँसा ।

” जानते हो इस मुर्ति को बनाने में सैकड़ों दिन लगे हैं और हजारों की आस्था जुड़ी हैं ।” पहले वाले ने कहा, ” मैं घर बनाने के लिए विस्फोट कर के मज़दूरी करता हूं किसी की जान लेने के लिए,” कहते हुए उस ने चुपचाप100 नम्बर डायल कर दिया।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 74 – आई…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #74 ☆ 

☆ आई…! ☆ 

माझ्यासाठी किती राबते माझी आई

जगण्याचे मज धडे शिकवते माझी आई

तिची कविता मला कधी ही जमली नाही

अक्षरांची ही ओळख बनते माझी आई…!

 

अंधाराचा उजेड बनते माझी आई

दु:खाला ही सुखात ठेवे माझी आई

कित्तेक आले वादळ वारे हरली नाही

सूर्या चा ही प्रकाश बनते माझी आई…!

 

देवा समान मला भासते माझी आई

स्वप्नांना ही पंख लावते माझी आई

किती लिहते किती पुसते आयुष्याला

परिस्थिती ला सहज हरवते माझी आई…!

 

ठेच लागता धावत येते माझी आई

जखमेवरची हळवी फुंकर माझी आई

तिच्या मनाचे दुःख कुणाला दिसले नाही

सहजच हसते कधी न रडते माझी आई…!

 

अथांग सागर अथांग ममता माझी आई

मंदिरातली आहे समई माझी आई

माझी आई मज अजूनही कळली नाही

रोज नव्याने मला भेटते माझी आई…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

 

 

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत~महाराष्ट्राची लोककला – पोवाडा ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

 

? सूरसंगत ?

☆ सूर संगत~महाराष्ट्राची लोककला – पोवाडा ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

वीर रसांतील लेखनाचा आणि गायनाचा महाराष्ट्रातील लोकप्रिय प्रकार म्हणजे पोवाडा.

पोवाड्यांत तीन प्रकारची कवने आढळतात

  1. देवतांच्या अद्भूत लीलांचे वर्णन,तीर्थक्षेत्रांचे महात्म्य. – >> हे गायक गोंधळी म्हणून ओळखले जातात.
  2. राजे,सरदार,धनिक यांचे पराक्रम,वैभव,कर्तुत्व इत्यादीचा गौरव आणि त्यांची शौर्य गाथा! ->> ह्या प्रकारातील गायक मंडळीना भाट म्हटले जाते.
  3. लढाई,दंगा,दरोडा,दुष्काळ,पूर आदि घटनांचे रसभरीत निवेदन. ->> ह्या प्रकारातील गायक शाहीर या संज्ञेत मोडतात.

पोवाड्याचे कार्य काही अंशी आजच्या वर्तमानपत्रासारखे होते. घडलेल्या घटनांवर शाहीर लगेचच कवने रचीत आणि पोवाड्याच्या स्वरूपात सादर करीत असत.

पोवाड्याची रचना द्दृष्य वाक्यांची प्रवाही व स्वैर पद्यात्मक असते.बोली भाषेतील जिवंतपणा,ओघ आणि लय ह्यामुळे ती प्रभावी होते.

रचना करतांना लघु गुरू मात्रा मोजल्या जात नाहीत मात्र एकेक चरण चार किंवा आठ मात्रांच्या आवर्तनात गायले जातात.

वीरश्रीयुक्त असा हा गायनाचा प्रकार असल्यामुळे गायकाचा आवाज एकदम खडा,उमदा,टीपेचा असला तरच रसनिष्पत्ती होऊन श्रोतृवृंदात एकप्रकारचा आवेश निर्माण होतो.हा प्रकार गद्य आणि पद्यमिश्रित असल्यामुळे उच्चरवातील संवाद व दमदार गायन हे पोवाड्याचे वैशिष्ठ्य आहे.

शिवाजी, महाराष्ट्राचा जाणता राजा, सर्वांना आदरणीय, त्यामुळे शिवछत्रपतींचे अनेक पोवाडे सतराव्या शतकापासून ते आज एकविसाव्या शतकापर्यंत लिहीले गेले. १६८९ साली शाहीर अज्ञानदासाने जिजाऊंच्या आदेशावरून “अफझलखानाचा वध” हा पोवाडा रचला आणि २००९ साली मी शिवाजीराजे भोसले बोलतो या चित्रपटासाठी अफझलखानाचा वध हा पोवाडा लिहिला गेला.

पोवाड्याची भाषा कशी जळजळीत,तडफदार आणि रांगडी असते त्याचा हा नमूना.

“उठला अफझलखान

जिता जागता सैतान

शिवबाला टाकतो चिरडून?

महाराजांची कीर्ति बेफाम

भल्याभल्यांना फुटला घाम

अशा वाघिणीचा तो छावा

गनिमाला कसा ठेचावा”

तानाजी मालुसरे, बाजीप्रभू देशपांडे, सिंहगड, धर्मवीर संभाजी महाराज यांच्यावर लिहिलेले पोवाडे उपलब्ध आहेत.

राष्ट्र शिवशाहीर बाबासाहेब देशमुख यांनी तानाजीच्या पोवाड्याप्रारंभी जे नमन गायले आहे ते पहा~~

“ओम् नमो श्रीजगदंबे

नमन तुज अंबे

करून प्रारंभे

डफावर थाप तुणतुण्या तान

शाहीर हा महाराष्ट्राचा प्रान

शिवरायाचे गातो गुनगान”

ह्यावरून शाहीराची भूमिका आपल्याला समजते.

डफ,ढोलकी,संबळ,झांजा ही तालवाद्ये तसेच तुणतुणे,पूंगी,घांगळी ही तंतूवाद्ये पोवाडा गाताना साथीला घेतली जातात.

पठ्ठे बापूराव,रामजोशी,कवी अनंतफंदी,होनाजी बाळा,प्रभाकर आणि अगदी आधुनिक काळात अमरशेख,शाहीर साबळे,विठ्ठल उमप इत्यादी शाहीरांची नावे आपल्याला परिचित आहेतच.

पठ्ठे बापूरावांनी मुंबईवर पोवाडा लिहिला होता आणि संगीत सौदागर छोटा गंधर्व यांनी तो गायला होता.

वाचकांसाठी काही पंक्ति देत आहे.

“मुंबई नगरी बडी बाका

जशी रावणाची दुसरी लंका

मुंबई नगरी सदा तरनी

व्यापार चाले मनभरनी”

शाहीर विठ्ठल उमप हे आंबेडकरवादी होते.त्यांनी त्यांच्या रचनांतून अनेक सामाजिक व मानवतावादी प्रश्न मांडले. ‘खंडोबाचं लगीन’,’गाढवाचं लग्न’,’जांभूळ आख्यान’ हे त्यांचे कार्यक्रम फार लोकप्रिय झाले आहेत.

महाराष्ट्राची ही लोककला म्हणजे नुसतेच लोकरंजन नसून समाजप्रबोधनही आहे.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 91 – हाइकु ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके कुछ अप्रतिम हाइकु’। )

☆  तन्मय साहित्य  # 91  ☆

 ☆ हाइकु ☆

 

व्याकुल पंछी

उड़ने को आकाश

छोड़ दें रास।

        *

मन बेचैन

संसाधनों के बीच

कहाँ है चैन।

         *

हंसते रहे

मन की बेचैनियाँ

किससे कहें।

        *

सुबह होगी

रात से निबाह लें

उजाले देगी।

       *

भूल गए हैं

जीवन के मर्म को

धर्म कर्म को।

        *

भटक गए

विलासी बाजार में

अटक गए।

       *

शिथिल हुए

समूचे अंग जब

समझे तब।

      *

काम न धाम

बुढ़ापे में बादाम

नहीं पचते।

       *

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 12 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 12 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 12 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ 

जब से भारत में शहरीकरण बढ़ा है और विकसित होते  व्यवसायिक केन्द्रों में युवा पीढी अपने सपनों को साकार करने हाड़-तोड़ मेहनत कर रही है तो उन्हें मानसिक सूकून देने पर्यटन के क्षेत्र में भी एक नई क्रान्ति हुई है । यह क्रान्ति है, प्रकृति के नज़दीक तेजी से, कुकुरमुत्तों की भाँती उगते हुए रिसार्टों की । शहर की जिन्दगी से दूर , हरी भरी वादियों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच बने  इन खूबसूरत  होटलों में,  जहाँ एक ओर रहन-सहन की आधुनिक सुविधाएं है, शहर की कोलाहल व  भागदौड़ भरी जिन्दगी से मुक्ति है तो दूसरी ओर उनके गतिविधि केंद्र या एक्टिविटी सेंटर मनोरंजन के लिए अनेक गतिविधियों को भी संचालित करते हैं और  साहस व रचनात्मकता से भरपूर यह गतिविधियाँ सभी उम्र के लोगों के लिए होती हैं, जिससे परिवार की तीन पीढियां एक साथ अवकाश के क्षणों का लुत्फ़ उठा सकती हैं ।

कोशी नदी, जिसका पौराणिक नाम  कौशिकी है के किनारे,  क्लब महिन्द्रा द्वारा संचालित, कार्बेट रिसार्ट, जहाँ हम ठहरे थे, ऐसी अनेक गतिविधियों का संचालन, अपने सदस्य अतिथियों के मनोरंजनार्थ सुबह से देर शाम तक करता रहता है । और जब कोई ग्यारह बजे हमने उनके एक्टिविटी सेंटर में  संपर्क किया तो पता चला कि नेचर वाक व सायकल चालन का आयोजन वे सुबह-सुबह करते हैं और दोपहर में विलेज वाक का मजा लिया जा सकता है । नेचर वाक का मजा तो मैं पिछली यात्रा के दौरान नौकुचियाताल में ले चुका था और अगले दिन यानी 29 नवम्बर की सुबह इस हेतु मैं जाने ही वाला था तथा बढ़ती उम्र के साथ सायकिल चलाना तो लगभग भूल ही चुका था, और ऐसा अनुभव मैंने एक्टिविटी सेंटर में खडी सायकिल को थोड़ी दूर चलाकर कर भी लिया, इसीलिए हमने विलेज वाक या ग्राम भ्रमण पर जाने का निर्णय लिया ।

हम लोग, एक गाइड के साथ जिप्सी में सवार होकर, गाँव की ओर चल पड़े । रिसार्ट से कोई दस किलोमीटर दूर सड़क के किनारे बसे एक गाँव में जब गाइड ने हमें उतरने को कहा तो एकबारगी लगा कि सड़क के किनारे बसे गाँव देखकर क्या मिलेगा । पर जैसे ही गाइड आगे बढ़ा और हम शनै-शनै रिंगौडा गांव की उबड़ खाबड़  गलियों से होकर गुजरने लगे तो आनंद दुगना होता चला  गया । हमारा भ्रमण हमें प्रकृति के नजदीक ले जा रहा था । प्रकृति द्वारा निर्मित कच्चा  मार्ग, उसके किनारे खड़े ऊंचे ऊंचे वृक्ष हमें मोह रहे थे । बीच-बीच में गाइड हमें बताता जाता था कि साहब यह साल का वृक्ष  है जो सालभर हराभरा रहता है, देखिये यह बेलपत्र का पेड़ है, इसके पत्ते छोटे हैं और यह बेलपत्र  आपके यहाँ की बड़े पत्तों वाली  प्रजाति जैसा नहीं है, यह हल्दू है जैसा नाम वैसा गुण, इसका तना अन्दर से पीले रंग का होता है । इतने में उसने कुछ और बृक्षों की ओर इशारा किया और मैं भी ठहरा वनस्पति  शास्त्र का पुराना विद्यार्थी, झट से बोल उठा हाँ भाई यह शीशम और सागौन के पेड़ हैं, सबसे अच्छी इमारती लकड़ी इन्ही से मिलती है ।  हम कुछ दूर चले ही थे कि एक विशाल बरगद के वृक्ष ने हमारा स्वागत किया । इस वृक्ष  के नीचे गिर ग्राम देवी विराजित हैं जो  ग्रामीणों की श्रद्धा व पूजा  का केंद्रबिंदु  है । बरगद के निकट ही एक बरसाती नाला था और बरगद की फैलती जड़ों ने भू स्खलन को रोक दिया था, जहाँ इस बड़े बृक्ष की जड़ें नहीं फ़ैली थी वहाँ से मिट्टी का कटाव स्पष्ट दिखता था । तनिक आगे, ढलान पर  एक सुन्दर दृश्य हमारा इन्तजार कर रहा था, पानी का झरना, गाँव से कोई दो किलोमीटर दूर,ग्रामीणों के लिए वर्ष भर जल का एक मात्र स्त्रोत । पहाड़ी क्षेत्रों में यही हाल है, उन्हें आज भी पेय जल लाने के लिए लम्बी दूरियाँ तय करनी पड़ती है लेकिन पहाड़ी महिलाएं इस जिम्मेदारी को प्रसन्नता पूर्वक तेज गति से निपटाती है । इस झरने का पानी बहुत ही मीठा था और बिस्लहरी या आरओ के पानी को भी मात कर रहा था । हम सब ने एक-एक चुल्लू पानी पिया और रिंगौडा गांव के  जीरो प्वाइंट की ओर चल दिए , सामने धीर गंभीर, कलकल  नाद करती हुई कोशी नदी बह रही थी और साल के दो विशाल बृक्षों के मध्य खड़े होकर जब हमने ऊपर, आसमान  की ओर देखा तो एक विरल-सघन आबादी का शहर दिखाई दिया, गाइड ने हमें बताया कि यह नैनीताल की वादियाँ हैं । इस नैसर्गिक  व्यु को हमें बहुत देर तक निहारते रहे और फिर दूसरे मार्ग से आगे बढ़ गए । एक कुटी के सामने, शुद्ध कुमायुनी अंदाज में हमारा स्वागत करने,  विमला आरती का थाल लिए खडी थी । उन्होंने हमें तिलक लगाया, आरती उतारी और फिर प्रेम से अपना घर दिखाया । लेंटाना और  कुरी की  झाड़ियों की फेंसिंग के मध्य सुन्दर बागीचा है जहाँ आम,कड़ी पत्ता,बेलपत्र, आवंला  और सब्जियों की बागवानी के मध्य दो कमरे व एक रसोईघर बनाया हुआ है । मकान के सामने ही कुछ खम्भों  पर  पुआल की छत से एक चबूतरानुमा जगह पर बेंच व टेबल लगाकर भोजन शाला बनाई गई है । यह विमला का स्वरोजगार है- होम स्टे, कुमायुनी भोजन  व जैविक उत्पाद का विक्रय केंद्र । ग्रामीणजन भी  हम शहरियों की मानसिकता अब समझने लगे हैं । यद्दपि चाय की चुस्कियों और कडी-पत्ता व  आलू के पकोड़े खाते हुए मैंने उसकी आर्थिक आमदनी के बारे में तो कुछ नहीं पूछा पर ग्रामीण समस्यायों के बारे में जरुर जानने की कोशिश की । पेय जल की समस्या का जिक्र तो मैं  पहले कर ही चुका हूँ , बिजली के खम्भे गाँव में इसलिए नहीं लगे हैं क्योंकि यह आबादी वन क्षेत्र  के अंतर्गत है लेकिन केंद्र सरकार ने सभी घरों में अनुदान देकर सोलर पेनल लगवा दिए हैं और इससे उत्पन्न ऊर्जा  से ग्रामीण प्रकाश, व हैण्ड-पम्प आदि चलाने की व्यवस्था कर लेते हैं । बच्चे शिक्षित हो रहे हैं यह अच्छी खबर विमला ने हमें दी । वह देर तक हमें अपने किस्से सुनाती रही और हर बार शाम को रुकने व भोजन कर वापस जाने का आग्रह करती रही पर हमें जिप्सी चालक को तय समय पर छोड़ना था सो हम उसके जैविक उत्पादों में से पहाडी लूंण ( एक प्रकार का मसाले दार नमक, कुछ कुछ वैसा ही जैसा बुंदेलखंड के हमारे जैन बंधू प्रयोग में लाते हैं ) व बोतल बंद चटनी क्रय कर अपने ठिकाने लौट आये जहाँ रात्रि का भोजन और बिछौना हमारा इन्तजार कर रहा था ।

पहाड़ के भोलेभाले  ग्रामीणजनों व उनके गावों का उल्लेख जिम कार्बेट ने अपनी किताब My ।nd।a में बख़ूबी किया है । वे लिखते हैं कि “जिस हिन्दुस्तान को मैं जानता हूँ, उसमें चालीस करोड़ लोग रहते हैं, जिनमें से नब्बे फीसदी लोग सीधे-सादे, ईमानदार, बहादुर, वफादार और मेहनती हैं जिनकी रोजाना की इबादत ऊपर वाले से यही रहती है कि उनकी जान-माल की सलामती बनी रहे और वो अपनी मेहनत का फल अच्छे से खा सकें । हिन्दुस्तान के ये वो लोग हैं जो निपट गरीब हैं और जिन्हें अक्सर ‘ हिन्दुस्तान के करोड़ों अधपेटे’ कहा जाता है ।”  जिम कार्बेट को ऐसे हिन्दुस्तानियों से बेपनाह मुहब्बत थी और एक बार ऐसे ही किसी गाँव के लोगों ने आदमखोर शेर से स्वयं को बचाने के लिए जिम कार्बेट को चन्दा जमा करके एक टेलीग्राम भेजा था । इस टेलीग्राम को भेजने के लिए ग्रामीणों का हरकारा कई मील दूर पैदल चलकर पोस्ट आफिस गया था । जिम कार्बेट ने भी इन विश्वासी  ग्रामीणों को निराश नहीं किया और वे, टेलीग्राम मिलते ही  मोकामघाट(बिहार ) से इस गाँव के लिए अपना काम छोड़कर आ गए – एक आदमखोर शेर को मारने के लिए । उन्हें हज़ार मील की लम्बी यात्रा  और लगभग बीस मील पैदल चलकर इस गाँव में पहुंचने में तब एक सप्ताह का समय लगा था । और वह गाँव इन्ही वादियों के मध्य स्थित था । लौटते वक्त हमें जंगल विभाग का वह गेस्ट हाउस भी दिखा जहाँ बाघ के शिकार के लिए आये जिम कार्बेट ने अपनी रातें बिताई थी।

आज़ादी के बाद इन सत्तर सालों में गाँव का नक्शा बदला है, घर अब पक्के हो गए हैं, पहुँच मार्ग और आवागमन के साधनों का जाल बिछा है , मूलभूत सुविधाएं भी सुधरी हैं और ग्रामीण जनों को उपलब्ध हुई हैं । लेकिन एक बात आज भी ठीक वैसी ही है जिसका जिक्र जिम कार्बेट ने My ।nd।a में किया  है और जिसका हिंदी अनुवाद मैंने ऊपर लिखा है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 42 ☆ उदास जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘उदास जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 42 ☆

☆ उदास जिंदगी 

ना जाने क्यों आज दिल बहुत उदास है,

किसी नदी किनारे पेड़ की छांव में,

बैठ कर रोने को मन कर रहा है ||

थक गया पहाड़ सी जिंदगी को ढ़ोते-ढ़ोते,

खुद को भूल गया बोझ के तले दब कर,

आज खुद को ढूंढने का मन कर रहा है ||

कितनी उतार-चढ़ाव भरी है जिंदगी,

दुर्गम रास्तों पर चलते हुए अब थक गया हूँ,

जिस्म भी साथ छोड़ने को आतुर हो रहा है ||

कितनी शांत एक लय में बह रही है नदी,

उलझन भरी इस जिंदगी में,

मेरा मन अशांत सा बह रहा है ||

क्या खोया क्या पाया, लेखा जीवन का देखा,

पाया तो थोड़ा कुछ और खोया सब कुछ,

खाता बही में शून्य ही बचा पाया हूँ ||

ना जिंदगी से गिला है ना अपनों से शिकवा,

मैं भी रिश्तों के जुर्म में,

बराबरी की भागीदारी निभा आया हूँ ||

अब जिंदगी में रखा भी क्या है?

कुछ रिश्तें मुझे भूल गए,

कुछ रिश्तों को में भूल आया हूँ ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 94 ☆ आत्मसाक्षात्कार – भाग -1 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 94☆

☆ आत्मसाक्षात्कार – भाग -1 ☆ 

आम्ही कुलिनांच्या कन्या

महाराष्ट्र साहित्य परिषदेच्या सभागृहात अखिल भारतीय महिला दिनाच्या निमित्ताने साहित्यदीप संस्थेचं  कवयित्री  संमेलन होतं, सूत्रसंचालन कवयित्री मृणालिनी कानिटकर जोशी करत होती.. मृणालिनी प्रत्येक कवयित्री ची ओळख करून देताना ज्येष्ठ कवयित्रींच्या कवितेतील ओळींचा आधार घेऊन त्या कवयित्रीच्या व्यक्तिमत्वाची ओळख करून देत होती.

मृणालिनीची निवेदनाची ही पद्धत खुपच छान  होती, ती कवितेविषयी न बोलता  कवयित्री विषयी बोलत होती…..माझ्या विषयी बोलताना  ती म्हणाली, प्रभा ताईंना पाहून मला पद्मा गोळेंच्या ओळी  आठवतात, “आम्ही कुलिनांच्या कन्या, चाफेकळ्या पानाआड…….”

मी सुखावले आणि आयुष्याचं  सिंहावलोकन करू लागले….

माझा जन्म सधन शेतकरी-बागाईतदार कुटुंबातला शहाण्णव कुळी मराठा घराणं, आजोबांची पंचक्रोशीत पत प्रतिष्ठा होती. वडील वर्षानुवर्षे गावचे पोलिस पाटील होते. खरंतर आम्ही नगर जिल्ह्यातील पारनेर तालुक्यातल्या वडनेर या गावचे वतनदार पण आजोबांची बहिण पुणे जिल्ह्यातील शिरूर तालुक्यातल्या पिंपरी -वाघाळे या गावातील सरदार पवार यांची पत्नी, सरदार पवार देवास(म.प्र.) येथे वास्तव्य करून होते पण पतिनिधनानंतर आजोबांची बहिण (आम्ही त्यांना मासाहेब म्हणत असू.) त्या त्यांच्या वतनाच्या जमीनी असलेल्या वाघाळे -पिंपरी या गावात आल्या, पवारांचे मामा म्हणून सगळे गाव आजोबांना मामा म्हणत असे. बहिणीच्या गावला आजोबांनी आपली कर्मभूमी मानली, तिथे स्वकष्टाने शेकडो एकर जमीन खरेदी करून तिथे फळांच्या बागा लावल्या. माझा जन्म झाला तो काळ खुप वैभवशाली, ऐश्वर्यसंपन्न काळ होता. आजोबांच्या तीन बहिणी देवास, बडोदा, सूरत येथे राजघराण्यातल्या सूना , माझ्या दोन आत्याही देवास व बडोदा येथील संस्थानिकांच्या घरातच नांदत होत्या.

जमीन जुमला, गाई म्हशी, घोडे, मोठा दगडीवाडा, नोकर चाकर अशा सरंजामशाही वातावरणातला माझा जन्म !त्या गावातला आमचा रूबाब काही वेगळाच होता….पण ते एक लहान  खेडेगाव असल्यामुळे चौथी पर्यंतच शाळा होती म्हणून आम्हा मुलांच्या शिक्षणासाठी माझी  आई माझ्या माँटेसरी पासून पुण्यात आम्हा सख्ख्या चुलत पाच भावंडांना घेऊन  बि-हाड करून राहिली होती.

आम्ही सुट्टीत गावाकडे जात असू, आमच्या वाड्याच्या शेजारी  एक गुजराती कुटुंब रहात होतं, त्यांचं किराणा मालाचं छोटसं दुकान होतं, त्या कुटुंबातल्या चंपा आणि शांतू या मुली वयाने माझ्या पेक्षा मोठ्या होत्या पण मी त्यांच्या घरी जात असे आणि त्या हंड्यावर हंडे घेऊन पाणी आणायला विहिरीवर जात त्याचं मला खुप कौतुक वाटत असे. त्या ओढ्यावर कपडे धुवायला चालल्या की मीही त्यांच्या बरोबर ओढ्यावर जाऊन पाण्यात खेळत असे, एकदा चंपा, शांतू बरोबर ओढ्यावर गेले असताना आमची मोलकरीण कमल मला बोलवायला आली, घरी आल्यावर आजीने समज दिली, “त्या चंपा शांतू बरोबर जात जाऊ नको, गावातले लोक नावं ठेवतील, मोठ्या घरची पोरगी ओढ्यावर हिंडती!”

मृणालिनी कानिटकर म्हटल्या प्रमाणेच, मी जन्माने कुलिनांच्या घरातली कन्या होते हे नक्की!

…….त्याचे फायदे तोटेही अनुभवले

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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