(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता ‘अच्छे दिन !’। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “तुझको चलना होगा”.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “जड़ों को सूखने मत दो….”।)
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना “नदी और पहाड़ ”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 15 – परम संतोषी भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
परम संतोषी के नाम से जानते थे बैंक में उन्हें, वैसे नाम था पी.एल.संतोषी. नाम के अनुरूप ही संतोषी जीव थे उप प्रबंधक महोदय. वेतनमान में सारे स्टेगनेशन इंक्रीमेंट पा चुके थे, डी.ए.जब सबका बढ़ता तो सबके साथ उनका भी बढ़ जाता. वेज़ रिवीज़न के लिये हाय तौबा करते नहीं थे, क्योंकि वो जानते थे कि जिस मंथर गति से वो बैंक में काम करते थे, वेज़ रिवीज़न उससे भी कई गुना धीमी गति से आता था. “कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचनम” का बोध वाक्य उनकी डेस्क पर हमेशा शोभायमान रहता था. बैंक में काम करने के प्रति विरक्त थे पर साहित्यिक ग्रंथो का पठन पाठन उनकी वाक्पटुता हमेशा उच्च कोटि की रखता था. हिंदी साहित्यजगत के मूर्धन्य व्यक्तियों के जीवन के दृष्टांत दे देकर सामने अल्पज्ञानी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की कला में माहिर थे संतोषी साहब और कस्टमर उनके प्रवचन के चक्कर में अक्सर भूल जाते थे कि वो बैंक किस काम से आये थे. जब तक होश आता, दुनिया लुट चुकी होती थी याने बैंक बंद होने का समय आ चुका होता. तो “आशा पर आकाश टंगा है” की आस लेकर कस्टमर इस कसम के साथ विदा लेते कि कल से इन संतोषी साहब के चक्कर में फंसना नहीं है. बैंक आयेंगे, अपना काम निपटायेंगे और इन साहब से सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रखेंगे. हालांकि उस जमाने में ये शब्द डिक्शनरी में ही कैद था,आज के समान बच्चे बच्चे की जुबान पर वायरस के जैसे चढ़ नहीं पाया था.
निस्पृहता जैसा कठिन शब्द संतोषी साहब को देखकर आसानी से समझ में आ जाता था. प्रमोशन और पुत्ररत्न पाना उनके भाग्य में नहीं था पर इसके लिये न उनको विधाता से शिकायत थी न ही बैंक से. पोस्टिंग और सुदूर स्थानांतरण से भय उनको लगता नहीं था. जहाँ के ऑर्डर आते अपनी भार्या और तीन कन्या रत्नों के साथ पहुंच जाते. बैंक तो बैंक, अर्धांगिनी भी उनको अपने रंग में ढाल नहीं पाती थी. उच्च प्रबंधन हो या संघ के पदाधिकारी, सब उनकी वरिष्ठता और काम नहीं करने की कला से वाकिफ थे और ये भी जान चुके थे कि इस बंदे को तो हमसे कुछ चाहिए ही नहीं तो इनका क्या करें. उनके साथ कभी काम कर चुके लोग क्षेत्रीय प्रबंधक का पद सुशोभित कर रहे थे पर संतोषी साहब का परम संतोषी स्वाभाव ऐसी सांसारिक माया से मुक्त था. जीवन और नौकरी अपने हिसाब से जीने या करने की उनकी अदा से उनके शाखा के मुख्य प्रबंधक हमेशा परेशान भी रहते थे पर उनका इस ब्रांच में होने को अपना नसीब मान चुके थे. जब ईश्वर ने उनकी पोस्टिंग इस ब्रांच में सुनिश्चित की थी तो बात ज़ोनल प्लेसमेंट कमेटी की बैठक से प्रारंभ हुइ जब चार कर्मवीरों के साथ पांचवे सांत्वना पुरस्कार के रूप में इनके नाम का भी चयन किया गया. जिस रीज़न को ये मिलने वाले थे, स्वाभाविक था कि वो इन्हें अनचाही संतान समझकर विरोध कर बैठे. तब उप महाप्रबंधक महोदय ने अपनी धीर गंभीर उच्च प्रबंधन की शैली में समझाया कि जीवन से 100% अच्छा पाने की उम्मीद करना अव्यवहारिकता है. तुम्हें तो सिर्फ एक रीज़न चलाना है पर मुझे तो पूरे माड्यूल को मैनेज करना पड़ता है. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय, उप महाप्रबंधक महोदय के इन उद्गगारों को अपने प्रबंधकों पर आजमाने के लिये अपनी मेमोरी में सेव कर चुके थे इसलिए obediently yours की प्रथा का पालन करते हुये इन्हें हर्षरहित होकर और ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार किया और जैसा कि विधाता ने सुनिश्चित किया था. संतोषी साहब मुख्य प्रबंधक शासित एक शाखा में उप प्रबंधक की हैसियत से पदस्थ कर दिये गये. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय ने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय को सूचित न करने की व्यवहारिकता के साथ पोस्टिंग आदेश के साथ संतोषी साहब को उनकी ब्रांच रवाना कर दिया. और इस तरह संतोषी साहब अपनी सदा सर्वदा संतुष्ट मुद्रा के साथ अपना स्थानांतरण आदेश लेकर मुख्य प्रबंधक महोदय के चैंबर में पहुंच ही गये. “होइये वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावै साखा” पर शाखा के मुख्य प्रबंधक इस कहावत को भूल गये जब वो ये जान गये कि ये सज्जन कोइ कस्टमर नहीं बल्कि अपने हिसाब से नौकरी करने वाले परम संतोषी साहब हैं जो उनके नसीब में किसी दुर्घटना के समान घटित हो चुके थे. कभी कभी या अक्सर काम नहीं करने वाले ज्यादा प्रसिद्धि पा जाते है तो संतोषी साहब को काफी लोग जानते थे और इस सूची में शाखा के मुख्य प्रबंधक भी थे. उन्होंने फौरन क्षेत्रीय प्रबंधक जी को फोन लगाया, साहब के करीबी थे क्योंकि बिजनेस करके देते थे तो बात इस तरह शुरू हुई “सर, हमारी ब्रांच तो पार्किंग लॉट बन गई है, इनको भी हम ही झेलें क्या?”
“अरे यार,स्टाफ तो तुम्हीं मांगते हो और जब देते हैं तो फिर नखरे बाजी करते हो.”
“सर, काम करने वाला मांगा था और आपने इन्हें भेज दिया, किसी ब्रांच का मैनेजर बना दीजिए.”
“अरे, कैसी बात करते हो यार, ब्रांच बैठ जायेगी. बड़ी ब्रांच में तो वैसे ही एडजस्ट हो जायेंगे जैसे दूध में पानी. तुम्हारे आसपास तो बहुत सी ब्रांच हैं, रिलीफ अरेंजमेंट के लिये यूज़ कर लेना.”
ऐसा भी होता है जब अपनी शर्तों पर नौकरी करने वाले संतोषी साहब जैसे लोग डेपुटेशन के नाम पर अतिरिक्त राशि पा जाते हैं.
तो अंतत: मुख्य प्रबंधक महोदय ने न चाहने के बावजूद संतोषी साहब को उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे माता अपनी पसंद और सहमति के बिना आई बहू को स्वीकार कर लेती है.
इस तरह संतोषी साहब की गाड़ी चलने लगी.
ये कहानी का पहला भाग है तो आगे भी जारी रहेगा. व्यंग्य है, जो पुराने दृष्टान्तों और व्यक्तियों के अवलोकन और कुछ कल्पनाओं पर आधारित हैं पर उद्देश्य सिर्फ भूतकाल के अनुभवों के माध्यम से मनोरंजन प्रदान करना ही है. हास्यरस का आनंद लीजिए, प्रोत्साहित करेंगे तो अगली कड़ी के लिये ऊर्जा मिलेगी. धन्यवाद।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #92 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 3- कार्यालयीन दौरा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
बड़े साहब के कक्ष से पांडे जी, सहायक महाप्रबंधक के साथ बाहर निकले तो मन में लडुआ फूट रहे थे। नीचे अग्रणी बैंक विभाग के कक्ष में पहुंचते ही सहायक महाप्रबंधक ने पांडेजी को गले से लगा लिया । बोले गजब पांडे तुम तो आज शेर की माँद से जीवित निकाल आए। पांडे जी भी झट बोल उठे “सरिता, कूप, तड़ाग नृप, जे घट कबहुँ न देत, करम कुम्म जाकौं जितै सो उतनों भर लेत।“ (नदी कुआँ तालाब और राजा सबको मनचाहा देते हैं, जिसका जितना कर्म और पुरुषार्थ होता है वह उतना ही प्राप्त कर लेता है।) ऐसे तो अवस्थी जी और पांडे जी में सदैव खटा-पटी होती रहती, लोग इन दोनों के आरोप प्रत्यारोपों का मजा लेते हुए यही कहते “कुत्ता, बामन, नाऊ जात देख गुर्राऊ।“ पांडे जी का उपरोक्त कहावत कहना अवस्थी जी को खल तो गया पर आज का दिन पांडे जी का था और उन्हे नाराज करना यानि ‘बर्रन के छिदनों में हांत डारबों’ जानबूझकर आपत्ति मोल लेना होता। इसीलिए वे चुप रह गए।
खैर पांडे जी ने अवस्थी जी के साथ मिलकर प्रस्ताव तैयार करवाया और लगे हाथ बड़े साहबों की स्वीकृति ले ली। जब यह प्रक्रिया चल रही थी तब पांडे जी को रह रहकर पंडिताइन की याद आ रही थी । पिछले एक महीने से वे हटा जाकर भी पंडिताइन से ठीक से मिल भी न सके थे और पंडिताइन भी उलाहना देती रहती थी, तो पांडे जी ने उचित अवसर जान कर अवस्थी जी से अपना यात्रा कार्यक्रम हटा जाने का स्वीकृत करा लिया, बहाना यह बनाया कि कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार से बिजूका कार्यशाला की बात पक्की करनी है। अवस्थीजी भी पांडे जी के मन में उठ रहे प्रेमालाप की बात समझ गए और मुस्कराते हुए उन्हें हटा दो दिन रुकने की अनुमति दे बैठे।
रात के दो बजे जब पांडेजी दमोह स्टेशन पर उतरे तो टेक्सी उनका इंतजार कर रही थी। हमेशा दमोह से हटा बस के धक्के खाते हुए जाने वाले पांडेजी का भाग्य आज पांचों उँगरिया घी में और सर कड़ाही में की कहावत को चरितार्थ कर रहा था। ब्रह्ममुहूर्त में पांडेजी को घर आया देख पंडिताइन खुश तो हो गई पर तनक बिदक भी गई कारण पिछली बार पांडेजी से हुई तकरार का रोष अभी भी सर चढ़कर बोल रहा था।
सुबह उठते ही पांडे जी ने अपने अधोवस्त्र, धोती और गमछा खोजा और सरकारी गाड़ी में बैठकर सुनार नदी की ओर चल दिए। पांडेजी जब कभी कोई बड़ा तीर मारकर हटा आते तो सुनार नदी में डुबकी लगाने जरूर जाते। बुंदेलखंड की जीवन रेखा सुनार नदी, पांडे जी के लिए काशी की गंगा, वृंदावन की यमुना और नाशिक की गोदावरी से कम पवित्र न थी । नहा धोकर पवित्र पांडे जी ने सुरई घाट पर अवस्थित पंचमुखी शिव मंदिर की ओर रुख किया और रुद्राभिषेक के लिए पूजन सामग्री के साथ साथ गाय का एक किलो शुद्ध दूध भी क्रय कर लिया । मंदिर के पुजारी को पांडेजी का यह स्वरूप आश्चर्यचकित कर गया । उसने तो पांडे जी को सदैव एक पाव दूध में भरपूर पानी मिलाकर, मंदिर की पूजन सामग्री से ही पूजा करते और दक्षिणा देने में आनाकानी करते देखा था । पण्डितजी ने भी पूजा शुरू करने के पहले उलाहना दे ही दिया कि आज सूरज नारायण पश्चिम दिशा से कैसे कढ़ आए । पांडेजी आज परमसुख का अनुभव कर रहे थे उन्होंने पण्डितजी के कटाक्ष का कोई उत्तर तो नहीं दिया पर भोपाल में फहराई गई विजय पताका का वर्णन ‘धजी कौ साँप’ या तिल का ताड़ राई का पहाड़’ बनाकर अवश्य करते हुए बोला कि आज तो भगवान की पूजा पूरे विधि विधान से करा दो। पंडित जी भी समझ गए कि आज लोहा गरम है, पहले दक्षिणा की बात तय की फिर दाहिने हाथ में अक्षत, जल व मुद्राएं रखवाकर संकल्प का मंत्र पढ़ दिया और साथ ही मंत्र के अंत में पांडे जी से दक्षिणा की रकम भी बोलवा दी । पंडित का पूर्व अनुभव इस मामले में अच्छा न था और अक्सर उन्हे पांडेजी अपर्याप्त दक्षिणा देते थे।
मंदिर में पूजा पाठ कर आगे बढ़े ही थे कि पांडेजी को दूर से नाऊंन आती दिखी । इस नाऊंन की गोदी में पांडेजी ने बचपन बिताया था और उसके प्रति उनके मन में सदैव सम्मान रहा है। पांडेजी ने नाऊंन को प्रणाम काकी कहा बदले में नाऊंन के मुख से ‘सुखी रहो बिटवा’ और ‘आज देख के तुम्हें हमाओ जी जुड़ा गओ’। पांडेजी को गदगद देखकर नाऊंन ने भी यही कहा आज तो बिटवा बड़े खुश दिख रहे हो। पांडेजी ने नाऊंन को भी भोपाल का सारा किस्सा बड़े चाव से सुनाया और गमछे में बंधा प्रसाद उसे दिया । नाऊंन भी पांडेजी को यह कहते हुए कि बेटा तुमाओ डंका बजतई रहे और जल्दी से पटवारी बन जाओ आगे बढ़ गई।
घर पहुंचकर पांडेजी ने पंडिताइन को धीरे से इशारा कर कमरे में बुलाया और गलबैयाँ डाल दी। पंडिताइन ने तनिक क्रोध दिखाते हुए कहा कि आज तो बड़ा प्रेम उमड़ रहा है पिछली बार तो नकुअन पै रुई डाले घूमत रहे थे, खूब गुस्सा हो रहे थे । पांडे जी ने पंडिताइन की बात का बुरा न माना । उलटे उसके मुँह में भोपाल से लाई मिठाई का टुकड़ा डालते हुए भोपाल में अपने अगवान होबे का पूरा किस्सा एक सांस में सुना डाला। पति की इस सफल दास्तान को बड़े ध्यान से सुनने के बाद पंडिताइन के मुख से यही निकला कि पिटिया सुद्ध होकें तुम जोन काम में जुट जात हो तो तुम्हें सफलता मिलती ही है। ऐसी बात तो हमाए दद्दा हमेशा से कहते रहे है।
पंडिताइन के हाथ की बनी रसोई से निवृत होकर सरकारी गाड़ी में पांडेजी झामर की ओर कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार से मिलने चल पड़े।
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १७ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
✈️ मोरोक्को – रसरशीत फळांचा देश ✈️
टॅ॑जेरहून तीनशे किलोमीटरचा प्रवास करून फेज या शहरात पोचायचे होते. टॅ॑जेर ते फेज हा प्रदेश घनदाट जंगलांनी समृद्ध आहे. रिफ पर्वतरांगांच्या उतारावरील या सुपीक प्रदेशात लक्षावधी ऑलिव्ह वृक्षांची घनदाट लागवड केली आहे. फार पूर्वी इथे मारिजुआना या एक प्रकारच्या अमली द्रव्याची झाडे होती. आता सरकारने कायद्याने या मारिजुआना लागवडीस बंदी केली आहे. शेतकऱ्यांना प्रशिक्षण देऊन इथे गहू, मका, बार्ली यांचे उत्पन्न घेतले जाते व ऑलिव्ह वृक्षाची लागवड केली जाते. रस्त्याच्या कडेला निलगिरी वृक्षांची लागवड आहे. वाटेत दिसलेल्या बऱ्याच तलावांवर जलविद्युत प्रकल्प उभारलेले दिसत होते.
फेज हे शहर पाचशे वर्षांपूर्वीचे आहे. मौले इद्रिस हा पहिला धर्मसंस्थापक इथे आला. इथल्या गावांना सभोवती तटबंदी आहे. इथले मेदिना म्हणजे जुने मार्केट अफाट आहे. गाईड मागोमाग त्या दगडी, अरुंद,चढ- उतार असणाऱ्या रस्त्यांवरून जाण्याची कसरत केली. फुले, फळे, भाज्या, कापड विणणे, रंगविणे, प्रिंट करणे, चामडी कमावणे, त्याच्या वस्तू बनविणे, शोभेच्या वस्तू, पर्सेस, सुकामेवा, तयार कपडे अशा अनेक वस्तूंची दुकाने भुलभुलैय्या सारख्या त्या दगडी बोळांमध्ये आहेत. मालवाहतुकीसाठी गाढवांचा वापर करण्यात येत होता.
या मार्केटमध्ये एक मोठी मशीद आहे. तसेच तिथल्या धर्म संस्थापकाच्या दोन कबरी आहेत. इथली फार प्राचीन इ.स. ८५९ पासून अजूनही चालू असलेली लहान मुलांची शाळा शिशुविहार बघायला मिळाली. त्या बालवर्गातील छोटी छोटी गोरीगोमटी मुले आमच्याकडे कुतूहलाने बघत होती. गुलाबी गोऱ्या नाकेल्या शिक्षिकेने हात हलवून हाय हॅलो केले. गालिचे बघण्यासाठी गाईडने तिथल्या एका जुन्या हवेलीमध्ये नेले. मध्ये चौक व चार मजले उंच अशा त्या जुन्या वास्तूचे खांब संगमरवरी होते. निळ्या हिरव्या डिझाईनच्या मोझाइक टाइल्स भिंतीवर होत्या.छत खूप उंच होते. गालीचे बघताना पुदिना घातलेला व बिन दुधाचा गरम चहा मिळाला.
फेजहून ५०० किलोमीटरचा प्रवास करून मर्राकेश या शहरात जायचे होते. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूला सफरचंदांच्या, संत्र्यांच्या खूप मोठ्या बागा होत्या.झीझ व्हॅलीमध्ये खजूर व पामचे वृक्ष सगळीकडे दिसत होते. वाटेत मेकनेस हे गाव लागले. गाईडने सांगितले की मोरोक्कोमध्ये मॉरिटोनामार्गे आलेल्या रोमन लोकांनी सर्वप्रथम वस्ती केली. मोरोक्कोपासून जवळ असलेल्या वालीबुलीस येथे आजही सूर्य मंदिर, सार्वजनिक वाचनालय यांचे रोमन काळातील भग्न अवशेष बघायला मिळतात. नंतर इफ्रान या शांत, स्वच्छ गावात चहा पिण्यासाठी थांबलो. गळ्याने हे शिक्षणाचे केंद्र आहे. अमेरिकन- मोरोक्को युनिव्हर्सिटी आहे. शिक्षणाचे माध्यम इंग्रजी आहे. या प्रायव्हेट युनिव्हर्सिटीमध्ये शिकविण्यासाठी अमेरिका, ब्रिटन, ऑस्ट्रेलिया येथील नामवंत प्रोफेसर येतात. आफ्रिका खंडातील विद्यार्थ्यांना इथे प्रवेश मिळतो.
वळणा- वळणांच्या सुंदर रस्त्याने घाट माथ्यावर आलो. वाटेत अकेशिया (एक प्रकारचा बाभूळ वृक्ष), ओक आणि कॉर्क वृक्षांचे घनदाट जंगल दोन्ही बाजूला आहे.कॉर्क या वृक्षाच्या लाकडापासून बनविलेली बुचं पूर्वी आपल्याकडे सोडावॉटरच्या बाटल्यांना लावलेली असत. अजूनही कॉर्कची बुचं शाम्पेनच्या बाटल्यांसाठी वापरली जातात. तसेच चप्पल बुटांचे सोल, फॉल्स सिलिंग यासाठी याचा उपयोग होतो. मोरोक्कोहून कॉर्कची मोठ्या प्रमाणात निर्यात होते. घाटमाथ्यावरील केनित्रा हे एक सुंदर, टुमदार, हिरवे हिलस्टेशन आहे .आर्टिस्ट लोकांचे हे माहेरघर आहे. अनेक कलाकार मुक्तपणे चर्च, शाळा, हॉस्पिटल, वेगवेगळ्या बिल्डिंग्ज् यांच्या कंपाऊंड वॉलवर सुंदर कलापूर्ण चित्रे रंगवीत होते. पर्वत उतारावर छोटी- छोटी घरे दिसत होती. इथल्या पर्वतरांगांमध्ये जंगली कुत्रे व बार्बरी एप्स (शेपूट नसलेली माकडं) असल्याचे गाईडने सांगितलं.व्हॅलीतल्या रस्त्यावरून जाताना एके ठिकाणी ताजी फळे विकण्यासाठी दिसली. तिथला शेतकरीच या फळांची विक्री करीत होता. आमच्या विनंतीवरून गाडी थांबवून गाईडने आमच्यासाठी ताजी, लालबुंद, टपोरी चेरी,पीचेस,ताजे , रसरशीत, मोठे, ओले अंजीर खरेदी केले. या फळांची चव जन्मभर लक्षात राहील अशीच होती. तेवढ्यात शेतकऱ्याची लाल- गोरी, देखणी, तरुण बायको गाढवावर बसून, गाढवावर लादून आणखी फळे घेऊन आली. त्यात प्रचंड मोठी कलिंगडे होती. गाईड मजेत विचारीत होता की घ्यायचे का एक कलिंगड? पण एवढे मोठे कलिंगड कापणार कसे आणि खाणार कसे आणि प्रत्येक हॉटेलमधील सकाळच्या नाश्त्याच्या वेळी असलेल्या लालबुंद, रसाळ कलिंगड कापांना आम्ही भरपूर न्याय देतच होतो. व्हॅलीतील घरांसमोरील अंगणात खजूर वाळत ठेवलेला दिसला. तसेच स्ट्रॉबेरी, चेरी,पीच,लिची यांचे मुरांबे मोठ्या काचेच्या बरण्यांतून उन्हात वाळवत ठेवलेले दिसले. (आपण छुंदा उन्हात ठेवतो. आपल्यासारख्याच साटप गृहिणी जगभर पसरलेल्या आहेत). नंतरच्या बेनिमलाल या ठिकाणी खूप मोठे शेतकी संशोधन केंद्र व शेतकी शाळा असल्याचे गाईडने सांगितले. आम्ही तिथे जून महिन्यात गेलो होतो. तेव्हा तिथे चेरी फेस्टिवल चालू होता. असाच उत्सव खजूर, स्टॉबेरी यांचा केला जातो.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत “सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़…..”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 16 – बुंदेली गीत – सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़….. ☆