(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नुमाइश…”।)
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “ये जीवन है आसान नहीं”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
ये जीवन है आसान नहीं जीने को झगड़ना पड़ता है
चलने की गलीचों पै पहले तलवों को रगड़ना पड़ता है।
मन के भावों औ’ चाहों को दुनिया ने किसी के कब समझा
कुछ खोकर भी पाने को कुछ, दर-दर पै भटकना पड़ता है।
सर्दी की चुभन, गर्मी की जलन, बरसात का गहरा गीलापन
आघात यहाँ हर मौसम का हर एक को सहना पड़ता है।
सपनों में सजायी गई दुनियाँ, इस दुनियाँ में मिलती है कहाँ ?
अरमान लिये बोझिल मन से संसार में चलना पड़ता है।
देखा है बहारों में भी यहाँ कई फूल-कली मुरझा जाते
जीने के लिये औरों से तो क्या ? खुद से भी झगड़ना पड़ता है।
तर होके पसीने से बेहद, अवसर को पकड़ पाने के लिये
छूकर के भी न पाने की कसक से कई को तड़पना पड़ता है।
अनुभव जीवन के मौन मिले लेकिन सबको समझाते हैं
नये रूप में सजने को फिर से, सड़कों को उखड़ना पड़ता है।
वे हैं ’विदग्ध’ किस्मत वाले जो मनचाहा पा जाते है
वरना ऐसे भी कम हैं नहीं जिन्हें बनके बिगड़ना पड़ता है।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #81 – सत्य के तीन पहलू ☆ श्री आशीष कुमार☆
भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।
एक आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया।
आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्धि ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।
आनन्द ने पूछा- “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?”
बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।”
उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले- “प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है।”
“दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा।”
“तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा।”
आनन्द का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय कविता “भूख जहाँ है………”।)
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। )
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “क्या क्या तुम बाँटोगे–”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 21 – परम संतोषी भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
देखते देखते वह दिन भी आ गया जिसका इंतजार पूरी ब्रांच करती है,फाइनल डे जब ब्रांच की इंस्पेक्शन रिपोर्ट शाखा प्रबंधक को परंपरागत रूप से सौंपी जाती है और शाखा संचालन की स्थिति प्रगट होती है.सबके परिश्रम,बेहतर टीम वर्क, कुशल नेतृत्व और मिले आश्रित शाखाओं के समयकालीन सहयोग से शाखा ने दक्षतापूर्ण संचालन की रेटिंग प्राप्त की.पूरी ब्रांच में संतुष्टि और खुशी का माहौल बन गया.मौकायेदस्तूर मुंह मीठा करने का था तो बाकायदा शहर की प्रसिद्ध स्वीट शॉप से सबसे बेहतर मिठाई का रसास्वादन किया गया.चूंकि उस दिन संयोग से मंगलवार था,पवनपुत्र हनुमानजी जी का दिन,तो उस दिन परंपरागत चढ़ाया गया प्रसाद भी साथ में वितरित किया गया.संकटमोचक से पूरे निरीक्षण काल में लगभग डेढ़ साल किये गये अथक परिश्रम का मनोवांछित फल प्राप्त किये जाने की प्रार्थना अंततः फलीभूत हुई. शाखा की स्टाफ की टीम के वे सदस्य, जिनकी पदोन्नति की पात्रता थी,इस सुफल से आशान्वित हुये और उनकी उम्मीदों ने परवान पाया.संतोषी जी खुश थे और ये खुशी ,इंस्पेक्शन रेटिंग के अलावा, सहायक महाप्रबंधक की मेज़बानी और उनके स्निग्ध व्यवहार से भी उपजी थी. रीज़नल मैनेजर के विश्वास पर वे सही साबित हुये, इसका आत्मसंतोष भी था और शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय की उनके प्रति उत्पन्न अनुराग को भी वे महसूस कर चुके थे.अपनी इस पद्मश्री प्रतिभा के सफल प्रदर्शन पर वे संतुष्ट थे और इसके अलावा उन्हें कुछ और लाभ चाहिए भी नहीं था.
अंततः शाम को इंस्पेक्शन टीम के सम्मान में फेयरवेल आयोजित की गई. सहायक महाप्रबंधक ने सभी स्टाफ के किये गये परिश्रम को स्वीकारा और यही टीम स्प्रिट आगे भी काम करती रहे, ऐसी आशा प्रगट की. उन्होंने संतोषी साहब के सहयोग को भी मान दिया और कहा कि “वैसे तो हर खेल घोषित नियमों से खेले जाते हैं पर परफॉर्मेंस कभी कभी अघोषित पर हितकारी नियमों और प्रतिभा से भी परवान पाती है. एक कुशल टीम लीडर वही होता है जो अपनी टीम के हर सदस्य की मुखर और छुपी हुई प्रतिभा को पहचाने और शाखा की बेहतरी के लिये उनका उपयोग करे.शाखा प्रबंधक और शाखा से उम्मीद और अपेक्षा उनकी भी रहती है और ज्यादा रहती है जो बैंक काउंटर्स के उस पार खड़े होते हैं, याने शाखा के ग्राहक गण. यही लोग शहर में शाखा और बैंक की छवि के निर्धारक बन जाते हैं. इनकी संतुष्टि, स्टॉफ की आत्मसंतुष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है.
विदाई के दूसरे दिन से ही,जैसाकि होता है,शाखा अपने नार्मल मोड में आ गई. जिन्हें अपने महत्वपूर्ण कार्यों से छुट्टियों पर जाना था और जो निरीक्षण के कारण स्थगित हो गईं थी,वे सब अपनी डिमांड मुख्य प्रबंधक को कह चुके थे.आसपास की आश्रित शाखाओं के प्रबंधक भी ,छुट्टी पर जाने की उम्मीद लेकर आते थे.वे सारे समझदार ग्राहक, जिनके काम उनकी समझदारी का हवाला देकर विलंबित किये गये थे,अब बैंक में काम हो जाने के प्रति तीव्रता के साथ आशान्वित होकर आ रहे थे. शाखा के मुख्य प्रबंधक, चुनौती पूर्ण समय निकल जाने के बाद आये इस शांतिकाल में ज्यादा तनावग्रस्त थे क्योंकि इंस्पेक्शन के दौरान बनी टीम स्प्रिट धीरे धीरे विलुप्त हो रही थी. पर शायद यही सच्चाई है कि सैनिक युद्ध काल के बाद सामान्य स्थिति में नागरिकों जैसा व्यवहार करने लगते थें।ये सिर्फ बैंक की नहीं शायद हर संस्था की कहानी है कि चुनौतियां हमें चुस्त बनाती हैं और बाद का शांतिकाल अस्त व्यस्त. पहले पर्व निरीक्षण याने इंस्पेक्शन की कहानी यहीं समाप्त होती है पर शाखा, संतोषी जी और अगला पर्व याने वार्षिक लेखाबंदी अभी आना बाकी है. ये कलम को विश्राम देने का अंतराल है जो लिया जाना आवश्यक लग रहा था. इस संपूर्ण परम संतोषी कथा पर आपकी प्रतिक्रिया अगर मिलेगी तो निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेगी. हर लेखक और कवि इसकी अपेक्षा रखता है जो शायद गलत नहीं होती. धन्यवाद.
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी # 98 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 9 – ठाकुर खौं का चाइए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
“ठाकुर खौं का चाइए, पाखा पान और पौर।
भीतर घुसकैं देखिये, दये मुस्का कौ कौर॥“
शाब्दिक अर्थ :- बाहर से बडप्पन और भीतर से खोखलापन। ठाकुर साहब को क्या चाहिये शानदार दाढ़ी और गलमुच्छे (पाखा), दिन भर चबाने को पान के बीड़ा और बैठने के लिए बड़ा सा बारामदा (पौर)। लेकिन उनके घर के अंदर झाँख कर देखे तो भोजन के कौर भी बड़ी कठनाई (मुस्का) से मिलते हैं।
इस कहावत के सत्य को मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। वर्ष 1987 से 1989 तक मैं स्टेट बैंक की सतना सिटी शाखा में वाणिज्यिक व संस्थागत विभाग पदस्थ था, और उच्च मूल्य के ऋण संबंधी कार्य देखता था। अचानक मेरा स्थानांतरण पन्ना जिले के सूदूर गाँव बीरा , जिसकी सीमाएँ उत्तर प्रदेश के बांदा जिले से लगी थी, में नई नई खुली शाखा में शाखा प्रबंधक के पद पर हो गया । स्थानांतरण आदेश मिलते ही मुझे बड़ा दुख हुआ, लेकिन फिर सोचा कि चलो पुरखो की कर्मभूमि रहे पन्ना जिले के एक सुदूर गाँव मे सेवा कार्य कर पुराना पित्र ऋण चुकाउंगा । यह सोच मैंने जनवरी 1990 की शुरुआत में बीरा शाखा में अपनी उपस्थती शाखा प्रबंधक के रूप में दर्ज करा दी। तब मैं कोई 31 वर्ष का रहा होउंगा। छात्र जीवन के दौरान चले जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से मैं बड़ा प्रभावित था और उस समय से ही मैंने ग्रामीण विकास के बारे में कुछ कल्पनायेँ कर रखी थी जिसे पूरा करने एक अवसर मुझे दैव योग से इस नई नई खुली शाखा में मिल रहा था। मैंने गाँव में ही अपना निवास बनाने का निश्चय किया। बीरा ब्राह्मण बहुल गाँव था और पहले दिन ही मुझे जात पात संबंधी रुढीवादी परम्पराओं के कटु अनुभव हुये। अत: जब मैं उपस्थती दर्ज करा सतना वापस आया तो सर्वप्रथम मैंने संध्या वंदन कर यज्ञोपवीत धारण किया। विशुद्ध ग्रामीण माहौल में मेरे यज्ञोपवीत को न केवल धारण करने वरन उन सभी रूढ़ीगत मान्यताओं, जो जनेऊ के छह धागों से संबंधित हैं, के पालन व दो चार संस्कृत के श्लोक वाचन ने मुझे ग्रामीणों के मध्य पक्का पंडित घोषित करा दिया। इस जनेऊ ने बैंक के व्यवसाय बढ़ाने में मेरे भरपूर मदद करे ऐसा में आज भी मानता हूँ। स्टेट बैंक की विभिन्न जमा व ऋण योजनाओं की जानकारी देने मैं आसपास के सभी गाँवों का दौरा बैंक द्वारा प्रदत्त मोटर साइकिल से करने लगा। बीरा शाखा के आधीन बरकोला, उदयपुरा, सिलोना, सानगुरैया, खमरिया,फरस्वाहा, सुनहरा, कडरहा, बीहर पुरवा, लौलास, हरसेनी आदि लगभग 10-12 गाँव थे जो यदपि एक दूसरे से कच्चे सड़क मार्ग से जुड़े थे पर ग्रामीणों का बीरा आना जाना न के बराबर था। गाँव सुदूर स्थित था अत: ग्रामीणों में बैंक को लेकर शंकाएँ थी और वे आसानी से बैंकिंग सुविधाओं का लाभ लेने उत्सुक भी नहीं थे। ऐसे में इस नई खुली शाखा में व्यवसाय बढ़ाना बड़ा कठिन काम था। खैर मेरे लगातार दौरों और बुन्देली भाषा में मेरे वार्तालाप (और कमर से नीचे तक लटके जनेउ?) ने ग्रामीणों का दिल जीतने में मदद की और धीरे धीरे लोग बैंक में आकर खाता खुलवाने लगे।
बीरा से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर एक बुंदेला क्षत्री परिवार का गाँव था। ठाकुर साहब एक पुराने मकान में रहते थे जिसे देखकर कहा जा सकता था कि इमारत कभी बुलंद रही होगी। मुख्य द्वार के बाहर ही एक बड़ा सा बारामदा (पौड़) थी जिसकी दीवारों पर शिकार किए हुये जानवरों के सींग सुशोभित थे। बारामदे में एक तखत पर ठाकुर साहब बैठते और दो चार कुर्सियों पर हम व अन्य शासकीय कर्मचारी बिना किसी जातिभेद के बैठते। गाँव के लोग नीचे जमीन पर ही बिराजते और बैठने के पूर्व तीन बार ठाकुर साहब को झुक कर मुझरा (नमस्कार) पेश करते। ठाकुर साहब की पत्नी ग्राम पंचायत की सरपंच थी । मैं ग्राम पंचायत का खाता तो बीरा शाखा में खुलवाने में सफल रहा पर कभी भी मुझे सरपंच महोदया से वार्तालाप का अवसर नहीं मिला. हाँ मैंने बंक के दस्तावेजों में उनके हस्ताक्षर अवश्य ही देखे, जो किसने किये होंगे, इसको बताने की जरूरत नहीं आप सब स्वयं अंदाजा लगाने हेतु स्वतंत्र हैं। इस गाँव में मैं अक्सर जाता और हर बार ठाकुर साहब से मिलता और उनके व अन्य परिजनों के व्यक्तिगत खाते बीरा शाखा में खुलवाने का अनुरोध करता। मेरे अनगिनत प्रयास जब सफल नहीं हुये तो मैंने अपनी शाखा के भवन मालिक से चर्चा करी और उनसे ठाकुर साहब को प्रसन्न करने का उपाय बताने को कहा। शाखा के भवन मालिक जो किस्सा सुनाया वह बड़ा मजेदार था। हुआ यूँ कि एक बार पन्ना जिले में बड़ा अकाल पड़ा पानी बिल्कुल भी नहीं बरसा और गर्मी का मौसम आते आते कुएं तालाब आदि सब सूख गए। गाँव के आसपास के जंगलों में भी हरियाली का नामोनिशान न रह गया । मनुष्य तो किसी तरह जंगली फल बेर, महुआ, तेंदू और सरकारी राशन की दुकान से मिलने वाले अन्न से अपना गुज़ारा कर रहे थे पर जानवरों की बड़ी दुर्दशा थी । उनके लिए भूसे चारे की व्यवस्था करना बड़े बड़े किसानों के लिए मुश्किल था गरीब किसानों के लिए तो यह लगभग असंभव ही। गरीब की जायजाद तो बैल ही थे उनके लिए चारे भूसे के जुगाड़ में वे इधर उधर घूमते रहते। ऐसी ही विपत्ति के मारे एक गरीब किसान की मुलाक़ात कहीं ठाकुर साहब से हो गई, और उसकी अर्जी सुनकर ठाकुर साहब ने उसे भूसा लेने के लिए अपने गाँव स्थित बखरी ( आज भी बुंदेलखंड में ठाकुरों का निवास बखरी या गढ़ी कहलाता है) आने का निमंत्रण दे दिया। अब गरीब किसान हर दूसरे तीसरे दिन ठाकुर साहब के दरवाजे पर बैठ जाता। जब भी वह वहाँ पहुँचता तो घर से कोई न कोई आकर कह देता की अभी कुंवरजू बखरी पर नहीं हैं या ब्यारी (भोजन) कर रहे हैं। दो तीन घंटे बाद थक हारकर वह किसान अपने घर वापिस चला जाता। कई दिन इस प्रकार बीत गए एक दिन किसान घर से सोच कर ही निकला की आज तो वह ठाकुर साहब से मिलकर ही मानेगा। इस संकल्प के साथ जब वह ठाकुर साहब की बखरी पहुँचा तो उसे बताया गया कि ठाकुर साहब ब्यारी कर रहे हैं। गरीब किसान काफी देर तक बखरी के दरवाजे पर बैठा रहा । बहुत देर हो गई जब ठाकुर साहब बाहर नहीं निकले तो वह मुख्य द्वार से अंदर घुस गया और देखा कि ठाकुर साहब तो तेंदू के फलों को भूँज भूँज कर उससे अपना पेट भर रहे थे। मतलब गरीबी में ठाकुर साहब का खुद का ही आटा गीला था, वे गरीब किसान कि क्या मदद करते, लेकिन अपनी ठकुराइस और बाहर के बडप्पन को दिखाने के लिए उन्होने गरीब किसान को भूसा देने का झूठा वचन तो दे दिया पर अपनी हालात व भीतरी खोखलेपन के कारण उसे भूसा देने का वचन निभाने में असमर्थ थे और कुछ ना कुछ बहाना बना कर गरीब किसान को टरकाना चाहते थे। “ठाकुर खौं का चाइए, पाखा पान और पौर।भीतर घुसकैं देखिये, दये मुस्का कौ कौर” कहावत उन पर भरपूर लागू होती है।
मैं बीरा में जनवरी 1990 से मई 1993 तक पदस्थ रहा वहाँ के मीठे अनुभव, बुन्देली परम्पराओं का पालन करते किसान, तीज त्योहार, होली में गायी जाने वाली फागें, सावन का आल्हा पाठ, छोटे मोटे मेले और ग्रामीणों का आग्रहपूर्वक मुझे भोजन पर बुलाना आदि आज भी याद आता है। अपनी तीन वर्ष से भी अधिक की पदस्थी के दौरान मैंने लगभग अधिकांश लोगो के खाते खोले बस ठाकुर साहबों के खाते न खोल पाया और जब कभी उनसे मुलाक़ात होती वे मुझे भोजन का निमंत्रण अवश्य देते पर मैं भी उनकी हँडिया में कितना नौन है जान गया था, अत: आमंत्रण तो ठ्कुरसुहाती में स्वीकार कर लेता पर भोजन हेतु गया कभी नहीं और ठाकुर साहब ने भी कभी भी मेरे ना पहुंचने पर उलाहना भी नहीं दिया।