मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘झुळूक’ – भाग – २ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ❤️

☆ ‘झुळूक’ – भाग – २ ☆ श्री अरविंद लिमये

(पूर्वसूत्र- एक छोटं टेबल. साधी खुर्ची. पेशंट तपासणीसाठी मागे पडदा लावून केलेला एका आडोसा. हे सगळं मुंबईतल्या डॉक्टरला शोभणारं नक्कीच नव्हतं. आणि तरीही यांच्यासाठी माझ्या भावाचा हट्टी आग्रह?)

अर्धा तास उलटून गेला, तरी नंबर लागायचं चिन्हच नव्हतं. डाॅ. आपले समोर बसलेल्या प्रत्येक पेशंटबरोबर हसतखेळत हास्यविनोद, गप्पा करीत मग प्रिस्क्रीप्शन लिहून देत. स्वत:बरोबर वाट पहात बसलेल्या पेशंटसच्या मौल्यवान वेळेचं  याना कांहीच कसं वाटत नाही या विचारानं मी अधिकच अस्वस्थ. तडक इथून निघून जावं असं वाटून त्याच तिरीमिरीत मी उठणार एवढ्यात माझा नंबर आला.

“बोला, काय प्राॅब्लेम?” डाॅ. नी हसतमुखाने विचारलं. त्या स्मितहास्याने मनातली अस्वस्थता थोडी कमी झाली. मी माझा प्राॅब्लेम सविस्तर सांगितला. मनातली थाॅयराईडची शंकाही बोलून दाखवली. माझं बोलणं लक्षपूर्वक ऐकतच ते जागचे उठले.

“कम. लेट मी चेक. “ते आत गेले. पाठोपाठ मी. नाडी परीक्षा झाली. टाॅर्चच्या प्रकाशात माझ्या घशातून त्यानी त्यांची शोधक नजर चौफेर फिरवली. इनमीन तीन मिनिटात चेकअप झालासुध्दा.

“बसा. नथिंग टू वरी. “त्यानी दिलेला दिलासा मला वरवरचाच वाटला.

“डाॅक्टर, थाॅयराईडचं काय करायचं?”

त्यानी माझ्याकडे एकदा रोखून पाहीलं. मग जागचे उठले. माझा गळा सर्व बाजूनी नीट चाचपून पाहीला.

“डोण्ट वरी. नो साईन आॅफ थायराईड अॅट आॅल. “

“हो डाॅक्टर, पण टेस्ट?”

डाॅक्टर हसले. “आय हॅव जस्ट नाऊ डन इट . युवर रिपोर्ट इज निगेटीव. “मी खरं तर आनंदी व्हायला हवं होतं, पण. . . .

“हो पण तरीही. . . “

“लिसन. “माझ्या नजरेतला अविश्वास त्यानी वाचला होता बहुतेक. “व्हाय शूड आय गिव्ह यू अनरिअॅलिस्टीक रिपोर्ट?प्लीज डोण्ट वरी. बिलीव मी. थायराईडचं इंडिकेशन नाहीय हे समजायला ती महागडी टेस्ट करुन तुमचा हार्डमनी कशाला वेस्ट करायचा?”बोलता बोलता प्रिस्क्रिप्शन लिहायला त्यानी पॅड पुढे ओढलं. मी सोबत आणलेली माझ्या डाॅ. नी दिलेली औषधं दाखवायला खिशातून बाहेर काढून ती त्याना दाखवणार, तेवढ्यात मला जाणवलं, माझं प्रिस्प्रिक्शन लिहीता लिहीता त्यांचा हात थबकलेला होता. त्यांची गंभीर एकाग्र नजर समोर दाराकडे पहात कशाचा तरी वेध घेत होती. मी मागे वळून पाहीलं. एक वृध्द जोडपं आत आलेलं मला दिसलं. आजी हात जोडत डाॅ. ना नमस्कार करीत होत्या. पण डाॅ. चं आजींकडे लक्षच नव्हतं. त्यांची गंभीर नजर बसायला मोकळी जागा शोधणार्या पण धाप लागल्यामुळे कासावीस झालेल्या आजोबांवर खिळलेली होती. दुसऱ्याच क्षणी हातातलं पेन तसंच टेबलवर टाकून त्यानी खुर्ची   मागे ढकलली. . . लगेच उठून आजोबांकडे धावले. एकदोघाना जवळ बोलावून आजोबाना उचलून बाहेर आणायला सांगून पार्किंगच्या दिशेने स्वत: बाहेर निघून गेले. पुढे क्षणार्धात आजोबाना आत बसवून कारने एक झोकदार वळण घेतलं आणि डाॅक्टर स्वत: चालवत असलेली ती कार गर्दीत दिसेनाशी झाली. सगळेच पेशंट अवाक् होऊन पहात होते. आजींच्या हुंदक्याने मी भानावर आलो. आजोबा हार्ट पेशंट होते आणि रूटीन चेकअपसाठी इथे आले होते हे आजींकडून समजल़ं. अर्ध्या तासाने डाॅक्टर परत आले. आजी जागच्या उठल्या. जीव मुठीत धरुन थरथरत त्यांच्यासमोर उभ्या राहील्या.

“ही इज आऊट आॅफ डेंजर नाऊ. ‘आधार’ हाॅस्पिटलमधे इंटेन्सीवमधे अॅडमीट आहेत. तिथे जाऊन डाॅ. कर्णिकना भेटा. ही वील हेल्प यू. “आजी क्षणभर घुटमळल्या. हात जोडून उभ्या राहील्या. डाॅक्टर हसले तेव्हा कुठे त्या रिलॅक्स झाल्या. लगबगीने बाहेर पडल्या. डाॅ. नी मनातला आजोबांचा स्वीच आॅफ केला. आणि शांतपणे माझं प्रिस्क्रिप्शन लिहायला घेतलं. मी आता त्याना एकटक न्याहाळत राहीलो. ते मला वेगळेच वाटू लागले. देवासारखे. मग मात्र खिशातून औषधे बाहेर काढणारा माझा हात तसाच घुटमळत राहीला. ती औषधं त्याना दाखवायची मला आता गरजच वाटेना.

“व्हाॅट इज दॅट?”डाॅक्टरांचं  लक्ष माझ्या हाताकडे होतंच.

क्रमशः…

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 85 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 85 –  दोहे ✍

नहीं प्रेम की व्याख्या, नहीं प्रेम का रूप।

कभी चमकती चांदनी, कभी दहकती धूप।।

 

प्रेम किया जाता नहीं, लगता औचक तीर।

 अनदेखे से घाव हों, मीठी मीठी पीर।।

 

स्वाति बिंदु -सा प्रेम है, पाते हैं बड़भाग।

प्रेम सुधा संजीवनी, ममता और सुहाग।।

 

बांच  सको तो बांच लो, आंखों का अखबार।

प्रथम पृष्ठ से अंत तक, लिखा प्यार ही प्यार।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #88 – “बाहर हाँफ रही गौरैया …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बाहर हाँफ रही गौरैया…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 88☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “बाहर हाँफ रही गौरैया…”|| ☆

एक सकोरा पानी-दाना

रक्खा करती माँ

औरों की खातिर चिड़ियों

सी उड़ती रहती माँ

 

छाती में दुनिया-जहान की

लेकर पीड़ायें

आँचल भर उसको सारी

जैसे हों क्रीड़ायें

 

आगे खिडकी में

आँखों के चित्र कई टाँगे

पीड़ा को कितनी आँखों से

देखा करती माँ

 

बाहर हाँफ रही गौरैया

उस मुँडेर तोती

जहाँ उभरती   दिखे

सभी को आशा की धोती

 

गर्मी गले-गले तक आकर

जैसे सूख गई

इंतजार में हरी-भरी सी

दिखती रहती माँ

 

लम्बे-चौड़े टीम-टाम है

बस अनुशासन के

जहाँ टैंकर खाली दिखते

नागर प्रशासन के

 

वहीं दिखाई देती सबकी

सजल खुली आँखें

इन्हीं सभी में भरे कलश

सी छलका करती माँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-04-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 134 ☆ वोटर की आकांक्षा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य “वोटर की आकांक्षा”।)  

☆ व्यंग्य  # 134 ☆ वोटर की आकांक्षा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

चुनाव में जो जीतता है वही सिकन्दर कहलाता है… भले वो पहले लल्लू पंजू कहलाता हो, येन केन प्रकारेण  कैसे भी करके जीत का मुकुट पहन लेने से सांढ़ बनने से अहंकार पैदा होता है। चुनाव में  हारने को बड़े बड़े दिग्गज हार जाते हैं और टक्कर देकर गिर  जाते हैं। 

जब चुनाव परिणाम आ रहे होते हैं  तो सांसे चलते चलते रुक जातीं हैं। आगे बढ़ने और पीछे होने के खेल में टीवी वाले विज्ञापन के जरिए खूब धन बटोर लेते हैं। परिणाम आते हैं… न आर, न पार… बहुमत मिलने के लिए पांच विधायक का कांटा फंस जाता है। जोड़ तंगोड़ करके बहुमत पे आते हैं तो रात को ढाई बजे राज्यपाल को जगाने पहुंच जाते हैं।

दूसरे दिन अस्थायी स्पीकर बनवा लेते हैं। अस्थायी स्पीकर के निर्देशन में अस्थिर सरकार को शक्ति परीक्षण कराने के निर्देश करा लेते हैं। पर जनता मजा लेना चाहती है, वह चाहती है सभी विधायक गणों से कहा जाए  कि हर विधायक जनता की आकांक्षाओं का ट्रस्टी होने के नाते जिम्मेदार विधायक होने का उदाहरण पेश करें। जनता की इच्छा है कि दोपहर दो बजे चिलचिलाती धूप में शक्ति परीक्षण किया जाए। जनता की अदालत चाहती है कि शक्ति परीक्षण के एक घंटे पहले सभी विधायक सब कपड़े उतार कर सिर्फ पट्टे की ….पहन लें, फिर नंगे पांव सड़क पर खड़े हो जाएँ और हारे लोग उन्हें इंसान और इंसानियत का पाठ पढ़ायें। फिर हर विधायक इस चिलचिलाती आग उगलती तेज धूप में नंगे पांव पांच किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए गांधी जी को याद करे। गांधी जी के भजन गाते हुए पदयात्रा निकाली जाए और ठीक दो बजे विधानसभा के सामने वाली सड़क पर नंगे पांव विधायक लाइन लगाकर खड़े हो जाएं।  यदि अस्थायी स्पीकर …. बनियान पहनकर डगमगाते नजर आयें तो समझ लेना कि बाकी विधायकों के साथ अन्याय हो रहा है, और उन्हें ठंडा ठंडा कूल कूल जौ के रस की बोतल नहीं दी गई है। 

एक दिन के लिए जनता की इच्छा है कि अस्थायी स्पीकर डगमगाते हुए लाइन में सभी विधायक की विश्वसनीयता चैक करें। वे ये देखें कि लाइन में कोई नकली विधायक तो नहीं लगा है। जनता की अदालत में जनता मूकदर्शक बनकर यह सब देखना चाहती है। जनता की आकांक्षाओं के ट्रस्टी प्रत्येक विधायक को ध्यान रखना होगा कि कोई इशारेबाजी करके बरगलाने की कोशिश करता है तो उसकी रिपोर्ट राज्यपाल को तुरंत करें। यदि कोई सौ करोड़ से ज्यादा की रकम आफर करता है तो तुरंत लाइन से अपने आप को अलग कर लें।

नयी परंपरा की शुरुआत है इसलिए विधायक होने की गरिमा का ध्यान रखते हुए अनुशासन और शान्ति का भरपूर नाटक करें। असली और अर्ध नकली देशभक्ति का सही परिचय देवें। शक्ति परीक्षण के दौरान मोबाइल पर अश्लील पिक्चर न देखें। मीडिया पर इस नयी परंपरा को पूरी दुनिया देख रही होगी इसलिए सेल्फी वगैरह न लेवें इस दौरान कोई सुंदर महिला दिख जाए तो उसे गलत निगाहों से न देखें। अस्थायी और सच्ची सरकार देने के लिए भेदभाव की नीति से दूर रहें, दल विहीन सोच के साथ सच्चे भारतीय नागरिक होने का उदाहरण पेश करे, हालांकि आज के नेताओं के लिए एक दिन के लिए ऐसा सब कुछ करना असंभव है पर पब्लिक ऐसा चाहती है और पब्लिक ये सब कुछ जानती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 78 ☆ # चलते चलते जीवन में # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# चलते चलते जीवन में #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 78 ☆

☆ # चलते चलते जीवन में # ☆ 

चलते चलते जीवन मे

कुछ मोड़ ऐसे आते हैं

कुछ मंजिल तक पहुंचाते हैं

कुछ राह से भटकाते हैं

 

जब दो-राहे पर खड़ा पथिक

असमंजस मे होता है

स्वयं के विवेक से निर्णय कर

अपना धैर्य नहीं खोता है

वही पाता है अपना लक्ष्य

जिसके पैरों में छाले आते हैं

 

तूफानों से क्या घबराना

उनका जोर है तबाही लाना

बसे बसाए आशियाने को

ताकत के बल पर उड़ा ले जाना

मर्द कहते हैं उन्हें

जो उजड़े आशियाने को बसाते हैं

 

फूलों की चाहत है सबको

कांटों का क्या दोष है

सदा फूलों की रक्षा करते

चुभते हैं पर निर्दोष हैं

उपवन का सौंदर्य तो

कांटे ही बचाते हैं

 

अनेक मिलते हैं राहों में

जो अपने सपने बुनते हैं

सपनों को साकार करने

किसी सहचर को चुनते हैं

जब बिछड़ जाता है वो

उसकी यादों से दिल बहलाते हैं /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 14 – अध्यात्मिकतेची खूण ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 14 – अध्यात्मिकतेची खूण ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

नरेंद्रला मन एकाग्र होण्याची अद्भुत शक्ती बालवयातच लाभली होती.मनाची एकाग्रता आणि उत्तम स्मरणशक्ती हे त्याचे विशेष गुण लहानपणापासूनच लक्षांत येत होते. लहान मुलं ऐकत नसतील तर आपण त्यांना,कशाची तरी भीती दाखवतो,तू ऐकलं नाहीस तर बाऊ होईल,बुवा येईल,देवबाप्पा अमुक करेल,असे आणखी काही.अशीच भीती नरेंद्रला ही दाखवली गेली होती,त्याला लहानपणी खेळताना झाडावर उंच चढण्याचा छंद होता.

मित्रांशी खेळताना,एकदा अंगणातल्या चंपक वृक्षावर पारंब्याना धरून लांबच लांब झोके घेण्याचा खेळ नरेंद्र खेळत होता. ते मित्राच्या वडिलांनी, रामरतन बसूंनी पाहिले,या वृक्षाच्या फांद्या फार बळकट नसतात,तुटल्या तर, खाली पडेल,नरेंद्रचे हातपाय मोडतील या काळजीने त्यांनी सांगितले,”नरेंद्र,खाली उतर,पुन्हा या झाडावर चढू नकोस”, त्यावर नरेंद्रने विचारले,”का? चढले तर काय होईल?यावर काहीतरी भीती आताच घालून ठेवली तर बरे होईल या हेतूने बसू म्हणाले,”या झाडावर ब्रम्हरक्षस आहे, मोठा भयंकर आहे, झाडावर कोणी चढलं तर तो रात्री येऊन मानगुटीवर बसतो” नरेंद्रने हे शांतपणे ऐकून घेतले आणि बसू पुढे निघून गेल्यावर तो पुन्हा झाडावर चढला, तसे मित्र म्हणाला,अरे ब्रम्हराक्षस मानगुटीवर बसेल ना? क्षणाचाही विलंब न करता, नरेंद्र म्हणाला, अरे तू काय खुळा आहेस का? आपण या झाडावर खेळू नये म्हणून असंच सांगितलंय आपल्याला, खरोखरीच ब्रह्मराक्षस असता तर तो या आधीच माझ्या मानगुटीवर नसता का बसला? असा हा घटनेच्या मुळाशी जाऊन,त्याचं स्वरूप समजावून घेण्याची नरेंद्रची वृत्ती होती.

लहान वयातच ध्यान मंदिरात ध्यानधारणा करणे हे नरेंद्र सुरुवातीला खेळ म्हणून खेळायचा. नंतर छंद म्हणून करू लागला. पण तो ध्यानासाठी बसला की सर्व देहभान विसरून जायचा. त्याला भानावर आणावे लागे.

बैराग्यांच्या मस्तकावरच्या जटांचे त्याला लहानपणी भारी आकर्षण वाटायचे. एकदा त्यानं ऐकलं होतं की बराच वेळ शिवाचं ध्यान केलं की आपल्या डोक्यावर जटा वाढतात आणि खूप लांब होऊन जमिनीत शिरतात. मग काय नरेंद्र ध्यान लावून बसला आणि आपले केस वाढताहेत का, लांब झालेत का, ते तपासू लागला. खूप वेळ झाला तरी काहीच घडेना, मग आईकडे जाऊन, “एव्हढा वेळ झाला तरी जटा का वाढत नाहीत?असे विचारले. आईने सांगितले, इतका थोडा वेळ ध्यान केल्याने जटा वाढत नसतात, त्यासाठी खूप दिवस जावे लागतात,”अशा घटनातून नरेंद्रला संन्यासी आणि बैरागी यांच्या बद्दल मनातून ओढ असायची हे दिसते. संन्याश्या चे नाते शिवाशी असते असे त्याला माहिती होते.

एक दिवस त्याने आपल्या अंगावर भस्माचे पट्टे काढले,कपाळावर टिळा लावला,कमरेभोवती एक भगव्या रंगाचे कापड गुंडाळले,आणि “हे बघा मी शिव झालो,”असे आनंदाने ओरडत घरभर उड्या मारू लागला.ही नकळत असलेली ओढ पाहून भुवनेश्वरींना मनातून धास्ती वाटली,की आपला हा मुलगा आजोबांच्या मार्गाने जाऊन संन्यासी तर होणार नाही ना?

मोठा होता होता नरेंद्र युवावस्थेत येईतो लहानपणीचे ध्यान लावणे, मित्रांना जमवून गप्पा मारणे, चर्चा करणे, गंगेवर जाणे हे प्रकार पुढे परिपक्वतेने होऊ लागले. ज्ञानाच्या आधारे होऊ लागले.

दिखाऊपणा किंवा उथळपणा त्यांच्या वृत्तीत मुळातच नव्हता, केवळ उत्तम कपडेलत्ते घालून मिरवणे म्हणजेच आपले सर्वस्व समजणारी मुले/मित्र यांचा त्याला खूप तिटकारा होता. कुठल्याही मिळमिळीत गोष्टी करमणुकीसाठी का असेना, नरेंद्रच्या जीवनात त्याला स्थान नव्हते.

त्याच्या संन्यस्त वृत्तीचा युवा अवस्थेतला एक बोलका प्रसंग आहे. ‘शांतपणे अभ्यास करायला नरेंद्र आपल्या आजीच्या घरी अधून मधून जात असे, माडीवरच्या खोलीत तो अधून मधून गाणी पण म्हणत असे. गाणे चालू असताना, एकदा समोरच्या घरांत एक वैधव्य आलेली तरुण मुलगी नरेंद्रच्या मधुर आणि धुंद स्वरांनी भान हरखून गेली आणि क्षणात बाहेर पडून,नरेंद्र गात होता त्या खोलीच्या दारात येऊन उभी राहिली,एक नवयौवना आपल्या दाराशी येऊन आपल्याला निरखते आहे हे कळताच नरेंद्र तत्परतेने उठून तिच्या पायाशी वाकून तिला प्रणाम करत म्हणाला,”माताजी का आला होतात? काय काम होतं? मोकळेपणाने सांगा, मी तुम्हांला माझ्या आईच्या जागीच मानतो” यातून व्यक्त झालेला अर्थ त्या मुलीने समजायचा तो समजला आणि दुसऱ्याच क्षणी निमुटपणे घरी निघुन गेली. नरेंद्रने त्या दिवसापासून अभ्यासाची खोली बदलली, पुन्हा कधीही तो तिथे बसला नाही, या तरुण वयात संन्यस्त वृत्तीच्या प्रकृतीचा आविष्कार एका क्षणात घडला होता. ही नरेंद्रच्या आंतरिक अध्यात्मिकतेची च खूण होती.

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 8 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 8 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

१४.

माझ्या इच्छा खूपच आहेत;

माझं रुदन दीनवाणं आहे

पण वारंवार निर्दयपणे नकार देऊन

तू मला सावरलंस

तुझ्या दयेनं माझं आयुष्य

पूर्णपणे भरलं आहे

 

मी न मागता छोट्या पण महान भेटी

तू मला देत असतोस

हे आकाश, हा प्रकाश, हे शरीर

आणि हे चैतन्य

या साऱ्या तुझ्याच भेटी,मला अवास्तव मागण्यांच्या धोक्यापासून वाचवतात,

दूर ठेवतात

 

खूपदा मी निरर्थकपणे भटकत असतो,

जागृतावस्थेत माझ्या स्वप्नपूर्ततेकडे

वाटचाल करीत असतो

पण निर्दयपणे तू माझ्या समोरून अदृश्य होतोस

 

 मला दुर्बल बनवणाऱ्या

 चंचल वासनांच्या जंजाळापासून

दूर नेऊन व त्यांना नकार देऊन

दिवसेंदिवस मी स्वीकारायोग्य कसा होईन

हे पाहतोस.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #137 ☆ व्यंग्य – छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 137 ☆

☆ व्यंग्य – छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम  

कुछ दिनों से छोटू भाई चिन्तित नज़र आते हैं। एक दिन आकर बैठ गये। कुछ इधर उधर की करने के बाद बोले, ‘देख भैया, अब अपन उमर के पचास पार कर गये। अब जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। कौन सा रोग चिपक जाये पता नहीं। वैसे भी सब तरफ मरने की सुविधा उपलब्ध है। मोटरें, मोटरसाइकिलें सड़कों पर इसीलिए दौड़ती फिर रही हैं। जो चाहे इस सुविधा का लाभ उठाकर स्वर्ग पहुँच सकता है। इस सेवा की कोई   फीस नहीं लगती।

‘अब चूँकि जिन्दगी अनिश्चित हो गयी है इसलिए हमने सोचा है कि अपनी पसन्द के हिसाब से अपनी मौत के बाद का इन्तजाम कर लिया जाए। जब जिन्दगी के हर कदम की प्लानिंग की तो इसे ही क्यों छोड़ दिया जाए। अब दिखावे और प्रचार का जमाना है। जो दिखावा नहीं करता उसे कोई नहीं पूछता। इसलिए मौत के बाद का काम भी स्टैंडर्ड और सलीके से होना चाहिए ताकि लोग पाँच दस साल याद करें कि मौत हो तो छोटू भाई की जैसी हो।’

मैंने कहा, ‘बात अक्ल की है। क्या इरादा है?’

छोटू भाई बोले, ‘ऐसा है कि तुम मुझसे तीन-चार साल छोटे हो इसलिए माना जा सकता है कि मेरे रुखसत होने के तीन चार साल बाद तुम्हारा नंबर लगेगा। मेरा इरादा है कि बीस पच्चीस हजार रुपये तुम्हारे पास छोड़ दूँ ताकि तुम स्टैंडर्ड से हमारा सब काम करा दो। खर्च करने के बाद कुछ बच जाए तो अपनी भाभी को लौटा देना। मुझे भरोसा है तुम बेईमानी नहीं करोगे।’

मैंने पूछा, ‘क्या चाहते हो?’

छोटू भाई बोले, ‘पहली बात तो यह है कि लोग उल्टे सीधे कपड़े पहन कर शवयात्रा में पहुँच जाते हैं। गन्दा कुर्ता-पायजामा पहन लिया और कंधे पर तौलिया डालकर चल पड़े। इससे शवयात्रा का स्टैंडर्ड गिरता है और मुर्दे की इज्जत दो कौड़ी की हो जाती है। मैंने अभी से अपने दोस्तों से कहना शुरू कर दिया है कि मेरी शवयात्रा में आयें तो ढंग के कपड़े पहन कर आयें, नहीं तो अपने घर में ही विराजें। मैंने यह भी बता दिया है कि जो मित्र सूट पहनकर आएँगे उनके सूट की धुलाई का पैसा तुमसे मिल जाएगा।
‘दूसरी बात यह कि शवयात्रा में कारें ज्यादा से ज्यादा हों। मैं कारवाले दोस्तों-रिश्तेदारों को बता रहा हूँ कि कार से ही पहुँचें और चाहें तो पेट्रोल का पैसा तुमसे ले लें। जरूरी समझो तो चार छः किराये की कारें बुलवा लेना। हाल में मेरे पड़ोस में हिकमत राय मरे थे तो उन की शवयात्रा में एक सौ दस कारें मैंने खुद गिनी थीं। क्या  ठप्पेदार शवयात्रा थी! श्मशान में लोग मुर्दे को भूल कारों के मॉडल देखते रह गये। वह शवयात्रा अब तक आँखों में बसी है।

‘तीसरी बात यह कि श्मशान में कम से कम तीन चार वीआईपी जरूर पहुंँचें। मैं इसके लिए लोकल वीआईपी लोगों से सहमति और वादा ले रहा हूंँ। साधारण जनता कितनी भी पहुँच जाए लेकिन बिना वीआईपी के किसी भी मजमे में रौनक नहीं आती। मीडिया वालों से भी बात कर रहा हूँ। उन्हें बता रहा हूँ कि एकाध दिन बाद तुम उन्हें बुलाकर चाय पानी करा दोगे। ध्यान रखना कि श्मशान में सभी वीआईपी मेरी तारीफ में थोड़ा-थोड़ा बोलें।

‘तुम्हारे पास अपना फोटो छोड़ जाऊँगा। चार छः दोस्तों के नाम से चार छः शोक- सन्देश फोटो के साथ अखबारों में छपवा देना। टीवी में भी ढंग से आ जाए। गुमनामी में मरे तो क्या मरे। जितना बन सके उतना प्रचार कर देना। एक दो दिन बाद दोस्तों और मीडिया वालों को बुलाकर किसी सार्वजनिक स्थान में शोकसभा कर लेना। इसके लिए एक बड़ा फोटो बनवा लिया है। सबको बता देना कि शोकसभा के बाद चाय- पकौड़े का इन्तजाम रहेगा ताकि उपस्थिति अच्छी हो जाए।’

छोटू भाई थोड़ा साँस लेकर बोले, ‘ये सब बुनियादी बातें हैं। इनमें तुम और जो जोड़ सको, जोड़ लेना। पाँच दस हजार तुम्हारे भी लग जाएँ तो लगा देना। आखिर दोस्ती किस दिन के लिए होती है। लेकिन मेरी आखिरी यात्रा जलवेदार होना चाहिए। बजट में आ जाए तो एक दो अच्छे से बैंड बुलवा सकते हो। लेकिन शानदार हों, जैसे आर्मी के होते हैं। कोई ढपर ढपर करने वाला मत बुलवा लेना। बढ़िया बैंड होगा तो हम भी रास्ते भर म्यूजिक सुनते चले जाएँगे। तुम जानते हो मैं संगीत का शौकीन हूँ।

‘विदेशों में किराये पर रोने वाले मिलते हैं जो काले कपड़े पहन कर पूरी ईमानदारी और जोश से रोते हैं। यहाँ भी यह सिस्टम शुरू हो जाए तो शवयात्रा में चार चाँद लग जाएँ।’
मैंने कहा, ‘छोटू भाई, आपने मेरे ऊपर बड़ी गंभीर जिम्मेदारी डाल दी, लेकिन जैसा आपने खुद कहा जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं है। कहीं मैं आपसे पहले दुनिया से रुखसत हो गया तो आपके दिये पैसों का क्या होगा?’

छोटू भाई मेरा कंधा थपक कर बोले, ‘उसकी चिन्ता तुम मत करो। तुम मेरे पैसे बहू के पास रख देना। तुम पहले चल बसे तो मैं उनसे ले लूँगा। वे धरम-करम वाली हैं। मेरा पैसा कहीं नहीं जाएगा।’

मुझसे पूरे सहयोग का आश्वासन पाकर छोटू भाई निश्चिंत उठ गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 135 ☆ जाग्रत देवता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 135 ☆ जाग्रत देवता ?

सनातन संस्कृति में किसी भी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही मूर्ति जाग्रत मानी जाती है। इसी अनुक्रम में मुद्रित शब्दों को विशेष महत्व देते हुए सनातन दर्शन ने पुस्तकों को जाग्रत देवता की उपमा दी है।

पुस्तक पढ़ी ना जाए, केवल सजी रहे तो निर्रथक हो जाती है। पुस्तकों में बंद विद्या और दूसरों के हाथ गये धन को समान रूप से निरुपयोगी माना गया है। पुस्तक जाग्रत तभी होगी जब उसे पढ़ा जाएगा। पुस्तक के संरक्षण को लेकर हमारी संस्कृति का उद्घोष है-

तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।

पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग) शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’

संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है। पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।

पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है, विज्ञान अपंग है, विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि पुस्तकरूपी दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,

किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ। अभिनेत्री एमिला क्लार्क के शब्दों में, ‘नेवर ऑरग्यू विथ समवन हूज़ टीवी इज़ बिगर देन देअर बुकशेल्फ।’ छोटे-से बुकशेल्फ और बड़े-से स्क्रिन वाले विशेषज्ञों की टीवी पर दैनिक बहस के इस दौर में अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

केवल देह नहीं होता मनुष्य,

केवल शब्द नहीं होती कविता,

असार में निहित होता है सार,

शब्दों के पार होता है एक संसार,

सार को जानने का

साधन मात्र होती है देह,

उस संसार तक पहुँचने का

संसाधन भर होते हैं शब्द,

सार को, सहेजे रखना मित्रो!

अपार तक पहुँचते रहना मित्रो!

मुद्रित शब्दों का ब्रह्मांड होती हैं पुस्तकें। असार से सार और शब्दों के पार का संसार समझने का गवाक्ष होती हैं पुस्तकें। शब्दों से जुड़े रहने एवं पुस्तकें पढ़ते रहने का संकल्प लेना, कल सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक दिवस की प्रयोजनीयता को सार्थक करेगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी  ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 89 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 89 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 89) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 89 ?

☆☆☆☆☆

इन निष्कर्षों का अवगुंठन,

वैचारिक भ्रम में उलझ रहा…

न मिलने से उत्पन्न वजह,

वाणी से अंतस बादल रहा…!

 

Facade of these inferences,

Kept entangled in ideological maze…

Cause for not getting solution,

Kept changing the psyche with voice…!

☆☆☆☆☆

बहुत मुश्किल है

उस शख़्स को गिराना,

जिसको चलना

ठोकरों ने सिखाया हो…

 

It’s very difficult to knock

down that person,

whom, stumbling blocks

have taught the walking

☆☆☆☆☆

 गुजर जाते हैं खूबसूरत लम्हें

यूँ ही मुसाफ़िरों की तरह

यादें वहीं खड़ी रह जाती हैं

रुके हुए रस्तों की तरह…! 

 

Beautiful moments keep passing

just like the travellers,

Memories remain rooted there only

like the stationary pathways…!

☆☆☆☆☆

हम भी दरिया हैं, हुजूर

अपना हुनर मालूम है हमें,

जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे,

रास्ता खुद-बख़ुद बन जाएगा

 

We are also river only,

We know our skills well

Whichever side we go,

the way gets crafted…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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