(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य ‘मर्ज़ लाइलाज’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 140 ☆
☆ व्यंग्य – मर्ज़ लाइलाज ☆
नगर के स्वघोषित महाकवि अच्छेलाल ‘वीरान’ की हालत निरंतर चिंताजनक हो रही है। पहले वे रोज़ शाम को छड़ी फटकारते पास के पार्क तक घूमने निकल जाते थे। वहाँ तीन-चार साहित्यकार मित्र मिल जाते थे। उनके साथ घंटों गोष्ठी जमी रहती थी।
अब यह सिलसिला बन्द है। घर में ही पलंग पर लेटे सीलिंग की तरफ टुकुर-टुकुर निहारते रहते हैं। कभी धीरे-धीरे गेट पर आकर खड़े होते हैं, लेकिन किसी परिचित को देखते ही जल्दी से घर में बन्द हो जाते हैं। घर में कोई तबियत का हाल-चाल पूछे तो ‘हूँ’ ‘हाँ’ में टरका देते हैं। कोई ज़्यादा पूछे तो उसे खाने को दौड़ते हैं। लेटे लेटे कुछ बुदबुदाते रहते हैं। घरवालों ने कान देकर सुना तो पता चला ग़ालिब का शेर बोलते हैं— ‘कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता।’ भोजन में रुचि निरंतर कम होती जा रही है। भोजन देखकर मुँह फेर लेते हैं। घर वाले परेशान हैं।
महाकवि की चेला-मंडली विशाल है, लेकिन अभी उनकी हिम्मत गुरूजी का सामना करने की नहीं होती। शिष्यों के सामने आते ही महाकवि के मुख से ‘नाकिस,नाकारा, नालायक’ जैसे सुभाषित फूटते हैं। इसीलिए चेले गुरू जी के गेट पर तो मंडराते रहते हैं, लेकिन भीतर घुसने से कतराते हैं।
फ़ेमिली डॉक्टर को बुला कर महाकवि की जाँच पड़ताल करायी गयी है। डॉक्टर के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। कह गये, ‘शारीरिक रोग तो कोई समझ में नहीं आता। किसी दिमाग के डॉक्टर को दिखा लो।’
चेलों को गुरूजी का रोग पता है। मर्ज़ की जड़ यह है कि एक साल से महाकवि का कहीं सम्मान नहीं हुआ। नगर के दूसरे कवियों के कई सम्मान-अभिनंदन हो गये, लेकिन महाकवि साल भर से सूखे हैं। न गले में माला पड़ी, न कंधे पर दुशाला। इसके पहले कोई साल सम्मान-विहीन नहीं गुज़रा। किसी चेले के सामने आते ही महाकवि किसी सुखद समाचार की उम्मीद में उसके चेहरे की तरफ देखते हैं, लेकिन वहाँ बैठी मायूसी पढ़ कर बुदबुदाते हैं— ‘डूब मरो चुल्लू भर पानी में।’
अंततः गुरुपत्नी ने चेलों को अल्टीमेटम दे दिया कि अगर महाकवि को कुछ हो गया तो उन्हें गुरुहत्या का पाप लगेगा और उन्हें नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।
घबराकर चेलों ने जुगाड़ जमाया। एक शाम गुरूजी को सूचित किया कि अगले सवेरे घर पर ही नगर की जानी-मानी संस्था ‘साहित्य संहार’ द्वारा उन्हें सम्मानित किया जाएगा। सुनकर महाकवि के चेहरे पर रक्त लौटा। चेलों को भरे गले से आशीर्वाद दिया। चेलों ने चन्दा करके सम्मान का खर्चा संस्था को सौंप दिया।
दूसरे सवेरे महाकवि जल्दी उठकर, कपड़े बदल कर, पलंग पर अधलेटे हो सम्मान टीम का इंतज़ार करने लगे। थोड़ी देर में संस्था के अध्यक्ष और सचिव और चेलों का हुजूम आ गया। महाकवि के कंठ में माला, हाथ में श्रीफल और कंधों पर शॉल अर्पित की गयी। फिर सम्मान-पत्र पढ़ा गया। संस्था के अध्यक्ष हँस कर बोले, ‘आपके सम्मान-पत्र के लिए हमारे सचिव ने तीन दिन तक शब्दकोश छान कर आला दर्जे के विशेषण निकाले।’ महाकवि ने सचिव को धन्यवाद दिया।
आज बहुत दिनों के बाद सम्मान- दल के साथ महाकवि ने ठीक से जलपान किया। परिवार ने राहत की साँस ली।
महाकवि ने शरीर में नये बल के संचार का अनुभव किया। सम्मान-टीम विदा होने लगी तो उठकर गेट तक उन्हें छोड़ने आये। फिर लौटकर पत्नी से बोले, ‘बहुत दिनों से टहलने नहीं गया। मित्रों से भी नहीं मिला। आज शाम को जाऊँगा। अब तबियत बिलकुल ठीक लग रही है।’
शिष्य-मंडली भी एक साल की मोहलत पाकर खुशी खुशी विदा हुई।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 138 ☆ स्थितप्रज्ञ ☆
एक ऑटो रिक्शा ड्राइवर हमारी सोसायटी के पास ही रहा करते थे। सज्जन व्यक्ति थे।अकस्मात मृत्यु हो गई। एक दिन लगभग उसी जगह एक रिक्शा खड़ा देखा तो वे सज्जन याद आए। विचार उठा कि आदमी के जाने के बाद कोई उसे कितने दिन याद रखता है? चिता को अग्नि देने के बाद परिजनों के पास थोड़ी देर रुकने का समय भी नहीं होता।
एक घटना स्मरण हो आई। एक करीबी परिचित परिवार में शोक प्रसंग था। अंतिम संस्कार के समय, मैं श्मशान में उपस्थित था। सारी प्रक्रिया चल रही थी। लकड़ियाँ लगाई जा रही थीं। साथ के दाहकुंड में कुछ युवा एक अधेड़ की देह लेकर आए थे। उन्होंने नाममात्र लकड़ियाँ लेकर अधिकांश उपलों का उपयोग किया। श्मशान का कर्मचारी समझाता रह गया, पर केवल उपलों के उपयोग से से देह के शीघ्र फुँक जाने का गणित समझा कर अग्नि देने के तुरंत बाद वे सब चलते बने।
हमें सारी तैयारी में समय लगा। दाह दिया गया। तभी साथ वाले कुंड पर दृष्टि गई तो जो दृश्य दिखा, उससे भीतर तक मन हिल गया। मानो वीभत्स और विदारक एक साथ सामने हों। उस देह का एक पाँव अधजली अवस्था में लगभग पचास अंश में ऊपर की ओर उठ गया था। अधिकांश उपलों के जल जाने के कारण देह के कुछ अन्य भाग भी दिखाई दे रहे थे।
श्मशान के कर्मचारी से सम्पर्क करने पर उसने बताया कि हर दिन ऐसे एक-दो मामले तो होते ही हैं, जिनमें परिजन तुरंत चले जाते हैं। बाद में फोन करने पर भी नहीं आते। अंतत: मृत देह का समुचित संस्कार श्मशान के कर्मचारी ही करते हैं।
लोकमान्यता है कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। अपनी कविता ‘स्थितप्रज्ञ’ याद हो आई-
शव को / जलाते हैं / दफनाते हैं,
शोक, विलाप / रुदन, प्रलाप,
अस्थियाँ, माँस, / लकड़ियाँ, बाँस,
बंद मुट्ठी लिए / आदमी का आना,
मुट्ठी भर होकर / आदमी का जाना,
सब देखते हैं /सब समझते हैं,
निष्ठा से / अपना काम करते हैं,
श्मशान के ये कर्मचारी
परायों की भीड़ में /अपनों से लगते हैं,
घर लौटकर /रोज़ाना की सारी भूमिकाएँ
आनंद से निभाते हैं / विवाह, उत्सव
पर्व, त्यौहार /सभी मनाते हैं
खाते हैं, पीते हैं / नाचते हैं, गाते हैं,
स्थितप्रज्ञता को भगवान,
मोक्षद्वार घोषित करते हैं,
संभवत: / ऐसे ही लोगों को,
स्थितप्रज्ञ कहते हैं..!
विश्वास हो गया कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। इस स्थितप्रज्ञता को प्रणाम !
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
Anonymous Litterateur of Social Media # 92 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 92)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – करना होगा… )
☆ कविता – राग बासंती ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
(जहां एक तरफ प्रकृति का सौंदर्य बोध कराती है तो वहीं पर प्रेम व विरह के भावों से बखूबी परिचय भी कराती है। इस रचना में जहां ऋतुराज बसंत को नायक के रूप में चित्रांकित किया गया है वहीं धरती के सौंदर्य को दुल्हन के रूप में वर्णित किया गया है। कहीं संयोग प्रभावी है तो कहीं विरह प्रधान है। प्रकृति का रंग निखरता बिखरता दिखाई देता है, जो यह बताता है कि किस प्रकार मानव जीवन प्रकृति से प्रभावित होता है।)
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तुम महज़ मूक दर्शक हो …”।)
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 81 ☆ गजल – यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.
पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”
साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं? दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”
“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “