हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #144 – ग़ज़ल-30 – “पैमाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “पैमाना…”)

? ग़ज़ल # 30 – “पैमाना …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हर दुनियावी शख़्स का होता एक तय पैमाना है,

तौल कर देखिए हम सबका एक तय पैमाना है।

 

ज़िंदगी का ज़हर लोग गले में धीरे-धीरे उतारते,

बाहरी खोल जो हमें दिखता एक तय पैमाना है।

 

चाहत है खिला सकूँ मौज़ू चेहरों को महफ़िल में,

आँसुओं में झिलमिलाती रोशनी तय पैमाना है।

 

तिरछी होती जा रहीं महफ़िल में कुछ निगाहें,

मजलिस में मौजू दिमाग़ों  का तय पैमाना है।

 

नज़रों में पानी की कैफ़ियत अलग होती है हुज़ूर,

कद्रदाँ पेशानी पर उभरती रेखाएँ तय पैमाना है। 

 

फ़िरक़ों में बाँट कर रख दी खूबसूरत ज़िंदगी,

ईसा ओ मुहम्मद का भी एक तय पैमाना है।

 

हिंद की खुली फ़िज़ाओं में ज़िंदगी गुज़ार देखो,

जिसके गुलशन में ख़ुश्बू का नहीं तय पैमाना है।

 

मुनासिब नहीं हर शेर पर हौसला अफजाई हो,

चुप हाज़िरान भी उनकी तारीफ़ का पैमाना है।

 

मासूम माथे पर लिख दिया इंजीनियर डॉक्टर,

हँसते-खेलते बचपन का मार्कशीट तय पैमाना है।

 

तुम रिश्तों में भावना की असलियत न पूछो,

बैंक पास बुक में असल रक़म तय पैमाना है।

 

माना बहुत बेरंग चेहरा उस रोशन दिमाग़ का,

आख़िर वो किसी न किसी ढंग का पैमाना है।

 

तुम्हें क्या पता शायर को क्या मुश्किल आती है,

‘आतिश’ दिल को पिघला कर ढालता पैमाना है।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 83 ☆ गजल – ’’जुड़ गया है आंसुओं का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “जुड़ गया है आंसुओं का …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 83 ☆ गजल – जुड़ गया है आंसुओं का…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बीत गये जो दिन उन्हें वापस कोई पाता नहीं

पर पुरानी यादों को दिल से भुला पाता नहीं।

बहती जाती है समय के साथ बेवस जिंदगी

समय की भँवरों से बचकर कोई निकल पाता नहीं।

तरंगे दिखती हैं मन की उलझनें दिखती नहीं

तट तो दिखते हैं नदी के तल नजर आता नहीं।

आती रहती हैं हमेशा मौसमी तब्दीलियॉ

पर सहज मन की व्यथा का रंग बदल पाता नहीं।

छुपा लेती वेदना को अधर की मुस्कान हर

दर्द लेकिन मन का गहरा कोई समझ पाता नहीं।

उतर आती यादें चुप जब देख के तन्हाइयाँ

वेदना की भावना से कोई बच पाता नहीं।

जगा जाती आके यादें सोई हुई बेचैनियाँ

किसी की मजबूरियों को कोई समझ पाता नहीं।

जुड़ गया है आंसुओं का यादों से रिश्ता सघन

चाह के भी जिसको कोई अब बदल पाता नहीं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # ९२ – जीभ का रस ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #92 🌻 जीभ का रस  🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बूढ़ा राहगीर थक कर कहीं टिकने का स्थान खोजने लगा। एक महिला ने उसे अपने बाड़े में ठहरने का स्थान बता दिया। बूढ़ा वहीं चैन से सो गया। सुबह उठने पर उसने आगे चलने से पूर्व सोचा कि यह अच्छी जगह है, यहीं पर खिचड़ी पका ली जाए और फिर उसे खाकर आगे का सफर किया जाए। बूढ़े ने वहीं पड़ी सूखी लकड़ियां इकठ्ठा कीं और ईंटों का चूल्हा बनाकर खिचड़ी पकाने लगा। बटलोई उसने उसी महिला से मांग ली।

बूढ़े राहगीर ने महिला का ध्यान बंटाते हुए कहा, ‘एक बात कहूं.? बाड़े का दरवाजा कम चौड़ा है। अगर सामने वाली मोटी भैंस मर जाए तो फिर उसे उठाकर बाहर कैसे ले जाया जाएगा.?’ महिला को इस व्यर्थ की कड़वी बात का बुरा तो लगा, पर वह यह सोचकर चुप रह गई कि बुजुर्ग है और फिर कुछ देर बाद जाने ही वाला है, इसके मुंह क्यों लगा जाए।

उधर चूल्हे पर चढ़ी खिचड़ी आधी ही पक पाई थी कि वह महिला किसी काम से बाड़े से होकर गुजरी। इस बार बूढ़ा फिर उससे बोला: ‘तुम्हारे हाथों का चूड़ा बहुत कीमती लगता है। यदि तुम विधवा हो गईं तो इसे तोड़ना पड़ेगा। ऐसे तो बहुत नुकसान हो जाएगा.?’

इस बार महिला से सहा न गया। वह भागती हुई आई और उसने बुड्ढे के गमछे में अधपकी खिचड़ी उलट दी। चूल्हे की आग पर पानी डाल दिया। अपनी बटलोई छीन ली और बुड्ढे को धक्के देकर निकाल दिया।

तब बुड्ढे को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने माफी मांगी और आगे बढ़ गया। उसके गमछे से अधपकी खिचड़ी का पानी टपकता रहा और सारे कपड़े उससे खराब होते रहे। रास्ते में लोगों ने पूछा, ‘यह सब क्या है.?’ बूढ़े ने कहा, ‘यह मेरी जीभ का रस टपका है, जिसने पहले तिरस्कार कराया और अब हंसी उड़वा रहा है।’

शिक्षा:- तात्पर्य यह है के पहले तोलें फिर बोलें। चाहे कम बोलें मगर जितना भी बोलें, मधुर बोलें और सोच समझ कर बोलें।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 104 – तरी तयाच्या पुसते वाटा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 104 – तरी तयाच्या पुसते वाटा ☆

फुलात मजला दिसतो काटा।

तरी तयाच्या पुसते वाटा।

 

आठवणींच्या हिंदोळ्यावर।

आज अचानक झुलती लाटा।

 

संस्कृतीस या स्वार्थांधांच्या।

स्वार्थाने या दिधला चाटा।

 

नात्यामधली विरली गोडी।

जेव्हा फुटला तयास फाटा।

 

प्रेमालाही तोलू पाहे।

प्रेमवीर हा दिसता घाटा।

 

अजब जगाची रीत साजना।

लाथ मारती भरल्या ताटा।

 

देश धर्मही धाब्यावरती।

अखंड करशी त्यांना टाटा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #134 ☆ चित्र नहीं चरित्र ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चित्र नहीं चरित्र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 134 ☆

☆ चित्र नहीं चरित्र

‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ’ चाणक्य का यह संदेश अनुकरणीय है, क्योंकि मंदिर में जाकर देवताओं की प्रतिमाओं के सम्मुख नतमस्तक होने से कोई लाभ नहीं; उनके सद्गुणों को आत्मसात् करो और मन को मंदिर बना लो तथा कबीर की भांति उन्हें नैनों में बसा लो। ‘नैना अंतर आव तूं, नैन झांपि तोहे लेहुं/  ना हौं देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ यह है प्रभु से सच्चा प्रेम। उसे देखने के पश्चात् नेत्रों को बंद कर लेना और जीवन में किसी को भी देखने की तमन्ना शेष न रहना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मैं मन को मंदिर कर लूं/ देह को मैं चंदन कर लूं/ तुम आन बसो मेरे मन में/ मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’ यही है मन को मंदिर बना उसके ध्यान में स्वस्थित हो जाना। देह को चंदन सम घिस कर अर्थात् दुष्प्रवृत्तियों को त्याग कर सच्चे हृदय से स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना और उसका दरश पाने पर किसी अन्य को न निहारना व वंदन करना–आसान नहीं है; अत्यंत दुष्कर है। वास्तव में स्अपने अंतर्मन को परमात्मा के दैवीय गुणों से आप्लावित करना व अपने चरित्र में निखार लाना बहुत टेढ़ी खीर है। राम आदर्शवादी व पुरुषोत्तम राजा थे तथा उन्होंने घर-परिवार व समाज में सामंजस्य स्थापित किया। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति व आदर्श राजा थे तथा त्याग की प्रतिमूर्ति थे। कृष्ण सोलह कलाओं के स्वामी थे। उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों से दुष्टों को पराजित किया तथा कौरवों व पांडवों के युद्ध के समय अर्जुन को युद्ध के मैदान में संदेश दिया, जो भगवद्गीता के रूप में देश-विदेश में मैनेजमेंट गुरू के रूप में आज भी मान्य है।

‘अहं त्याग देने के पश्चात् मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध त्याग देने से वह शोकरहित; काम त्याग देने से धनवान व लोभ  त्याग देने से सुखी हो जाता है।’ युधिष्ठिर का यह यह कथन मानव को अहं त्यागने के साथ-साथ काम, क्रोध व लोभ को त्यागने की सीख भी देता है और जीवन में प्यार व त्याग की महत्ता को दर्शाता है। महात्मा बुद्ध भी इस ओर इंगित करते हैं कि ‘जो हम संसार में देते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है।’ इसलिए सबको दुआएं दीजिए, व्यर्थ में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव हृदय में मत आने दीजिए। दूसरी ओर त्याग से तात्पर्य अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना है, क्योंकि इससे मानव तनाव मुक्त रहता है। वैसे भी बौद्ध व जैन मत में अपरिग्रह अथवा संग्रह न करने की सीख दी गई है, क्योंकि हम सारी धन-सम्पदा के बदले में एक भी अतिरिक्त सांस उपलब्ध नहीं करा सकते। दूसरी ओर ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर शख़्स यहां है अकेला/ तन्हाई में जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा’ स्वरचित गीत की यहां पंक्तियाँ उक्त भाव को दर्शाती हैं कि इंसान इस संसार में अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है। एकांत, एकाग्रता व प्रभु के प्रति समर्पण भाव कैवल्य-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं।

यदि हम आसन्न तूफ़ानों व आग़ामी आपदाओं के प्रति पहले से सजग व सचेत रहते हैं, तो शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं और वे  सहसा प्रकट नहीं हो सकती। हमें ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ के सिद्धांत को जीवन में न अपना कर, भविष्य के प्रति सजग व सचेत रहना चाहिए। शायद! हमें इसलिए ही ‘खाओ, पीओ व मौज उड़ाओ’ के सिद्धांत को जीवन में न अपनाने की सीख दी गयी है। इस सिद्धांत का अनुसरण न करने पर हमारी जग-हंसाई होगी और हमें दूसरों के सम्मुख हाथ पसारना पड़ेगा। ‘मांगन मरण समान’ अर्थात् किसी के प्रति के सम्मुख हाथ पसारना मरने के समान है। विलियम शेक्सपियर के मतानुसार ‘हमें किसी से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि एक न एक दिन उम्मीद टूटती अवश्य है और उसके टूटने पर दर्द भी बहुत होता है।’ वैसे तो उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, स्वयं से रखनी चाहिए। इसके साथ-साथ हमारे अंतर्मन में कर्ता भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि अहं मानव को पल भर में अर्श से फर्श पर ला  पटकता है।

लोग विचित्र होते हैं। स्वयं तो ग़लती स्वीकारते नहीं और दूसरों को ग़लत साबित करने में अपना अमूल्य समय नष्ट कर देते हैं। सफल इंसान की नींव उसके विचार होते हैं। महात्मा बुद्ध भी अच्छे व अनमोल विचार रखने की सीख देते हैं, क्योंकि कर्म ख़ुद-ब-ख़ुद अच्छाई की ओर खिंचे चले आते हैं और अच्छे कर्म हमें अच्छाई की ओर अग्रसर करते हैं। सफलता जितनी देर से मिलती है, व्यक्ति में उतना निखार आता है, क्योंकि सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है। गुरूनानक जी भी मानव को यही सीख देते हैं कि ‘नेकी करते वक्त उम्मीद किसी से मत रखो, क्योंकि सत्कर्मों का बदला भगवान देते हैं। किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान।’ सो! अपनी सोच मोमबत्ती जैसी रखें। जैसे एक मोमबत्ती से दूसरी मोमबत्ती जलाने पर उसका प्रकाश कम नहीं होता, वैसे ही जीवन में बाँटना, परवाह व मदद करना कभी बंद मत करें; यही जीवन की सार्थकता है, सार है। सब अंगुलियों की लंबाई बराबर नहीं होती, परंतु जब वे झुकती व मुड़ती हैं, तो समान हो जाती हैं। इसी प्रकार जब हम जीवन में झुकना व समझौता करना सीख जाते हैं; ज़िंदगी आसान हो जाती है और तनाव व अवसाद भूले से भी दस्तक नहीं सकते।

वास्तव में हम चुनौतियां को समस्याएं समझ कर परेशान रहते हैं और संघर्ष नहीं करते, बल्कि पराजय स्वीकार कर लेते हैं। वैसे समाधान समस्याओं के साथ ही जन्म ले लेते हैं। परंतु हम उन्हें तलाशने का प्रयास ही नहीं करते और सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं। नेपोलियन समस्याओं को भय व डर की उपज मानते थे। यदि डर की स्थिति विश्वास के रूप में परिवर्तित हो जाए, तो समस्याएं मुँह छिपा कर स्वत: लुप्त हो जाती हैं। इसलिए मानव आत्म-विश्वास को थरोहर सम संजोकर रखना चाहिए; यही सफलता की कुंजी है। वैसे भी ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ विवेकानंद जी के मतानुसार ‘यदि आप ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाते हो; अगर ताकतवर समझते हैं तो ताकतवर, क्योंकि हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है ।’ इसलिए हमें अपनी सोच को सकारात्मक रखना चाहिए–यह आत्म-संतोष की परिचायक है। हमारे अंतर्मन में निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा होना चाहिए; लक्ष्य को जुनून बनाकर उसकी पूर्ति में अपनी शक्तियों को झोंक देना चाहिए। ऐसी स्थिति में सफलता प्राप्ति निश्चित है। सो! हमें निष्काम कर्म को पूजा समझ कर निरंतर आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि यह सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है।

‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तो में/ अलग- अलग विचारों को एक होना पड़ता है’ में निहित है–पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व त्याग का भाव। यदि मानव में उक्त भाव व्याप्त हैं, तो रिश्ते लंबे समय तक चलेंगे, अन्यथा आजकल रिश्ते भुने हुए पापड़ की तरह पलभर में टूट जाते हैं। सो! अपने अहं को मिटाकर, दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारना आवश्यक है। इसलिए जहाँ दूसरे को समझना मुश्किल हो; वहाँ ख़ुद को समझ लेना बेहतर है। इससे तात्पर्य यह है कि मानव को आत्मावलोकन करना चाहिए और अपने भीतर सुप्त शक्तियों को पहचानना चाहिए।

इंसान की पहचान दो बातों से होती है– एक उसका सब्र; जब उसके पास कुछ न हो और दूसरा उसका रवैया अथवा व्यवहार; जब उसके पास सब कुछ हो। ऐसे लोग आत्म-संतोषी होते हैं; वे और अधिक पाने की तमन्ना नहीं करते, बल्कि यही प्रार्थना करते हैं कि ‘मेरी औक़ात से ज़्यादा मुझे कुछ ना देना मेरे मालिक/ क्योंकि ज़रूरत से अधिक रोशनी भी मानव को अंधा बना देती है।’ ऐसे लोगों का जीवन अनुकरणीय होता है, क्योंकि वे प्रत्येक जीव में परमात्मा की सत्ता का आभास पाते हैं तथा प्रभु के प्रति सदैव समर्पित रहते हैं। वे अपनी रज़ा को उसकी रज़ा में मिला देते हैं। सो! ईश्वर चित्र में नहीं; चरित्र में बसता है। भगवान राम, कृष्ण व अन्य देवगण अपने दैवीय गुणों के कारण पहचाने जाते हैं तथा उनकी संसार में पूजा-अर्चना व उपासना होती है। सो! मानव को उन दैवीय गुणों व शक्तियों को अपने जीवन में  जाग्रत करना चाहिए, ताकि वे भी संसार में अनुकरणीय व वंदनीय बन सकें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #133 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 133 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

चलन हो चुका है लिखने का तो अब

अदब कम, हुनर कम, तमाशा बहुत है

 

इरादा  है मिलन का तुमसे लेकिन

समझो तो तुम ये इशारा बहुत है

 

लगाई है उम्मीद हमने जो अब तुमसे                

लगता है इसमे अब हताशा बहुत है।

 

हम पर किया है अपनो ने ही भरोसा

लगाई है उनने हमसे आशा बहुत है ।

 

न जाने क्यों लूटती  बेटी की अस्मत

जहां मे दिखावे का तमाशा बहुत है ।

 

करें हम अब किस पर इतना भरोसा

करीब से रिश्तों को तराशा बहुत है ।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #123 ☆मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  आपकी मनाली यात्रा पर “संतोष के दोहे …  । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 123 ☆

☆ मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कहता हिमगिरि आपसे, मुझसे ऊँचा कौन

सुन सवाल सब हो गए, शीश झुकाकर मौन

 

उन्नत है मेरा शिखर, धवल हमारा रंग

मन मोहक हैं वादियाँ, अजब निराले ढंग

 

साहस, दृढ़ता जो रखे, हो मजबूत शरीर

आता वही करीब तब, भजकर श्री रघुवीर

 

टेढ़े- मेढे रास्ते, जो होते हैं तंग

सिखलाते हैं जो हमें, जीवन के सब ढंग

 

हिम आच्छादित शैल से, बहती निर्मल धार

नदियों की कल-कल कहे, मेरी सुनो पुकार

 

धवल चाँदनी बर्फ की, जिसका ओर न छोर

मचल-मचल तारुण्य ज्यों, बढ़े  प्रेम की ओर

 

ऊपर से काँपे बदन, अंदर प्रीत-हिलोर

कैसे कोई कर सका, यहाँ  तपस्या घोर

 

घाटी दर घाटी चढ़ो, चलो शिखर की राह

जीवन पथ पर बढ़ चलो, रख मंज़िल की चाह

 

अटल इरादे हिम-शिखर, सिखलाते हैं रोज

पानी है गर सफलता, दिल में रखिये ओज

 

लतिकाओं तरु कुंज में, झरनों का संगीत

मानो प्रियतम कह रहा, आ जाओ मनमीत

 

सिर पर हिमगिरि सोहता, बनकर मुकुट विशाल

भारत माँ गर्वित हुई, दमक उठा है भाल

 

हवा सनक कर कह रही, मुझसे बचिए आप

शाल ओढ़ स्वेटर पहन, दें शरीर को ताप

 

मनमोहक-सा लग रहा, बर्फीला आघात

तपते दिल की भूमि पर, सुख का ज्यों हिमपात

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #126 – विजय साहित्य – गोडवा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 126 – विजय साहित्य ?

☆ गोडवा…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 (नदी या विषयावरील रचनां… सागर नदी विषयी बोलतो आहे..)

असंख्य सरिता येऊन मिळती

जलाशयी आगरा

तरीही का मी अथांग खारट ?

चिंता पडे  सागरा

 

प्रवास करूनी जीवन अवघे

वाटत येते नदी ..

लपवीत नाही, कणभर काही

दानशूर ती नदी ..!

 

समुद्र फळांची, राखण करतो

संचय खारा उरी

गोड नदीचा, होतो सागर

खारट जल ना उरी.

 

 नदी अविरत , उधळीत येते

जीवन वाऱ्यावरी

रत्नाकर मी, दडवीत राही

 माणिक रत्ने, नाना परी

 

जीवनावरती, उदार होऊन

गावोगावी वसते, अभ्यंतरी

म्हणून राहतो ,भरून गोडवा

नदी , तुझ्या अंतरी..!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 101 ☆ अवसरवादी व्यवस्था ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “अवसरवादी व्यवस्था…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 101 ☆

☆ अवसरवादी व्यवस्था… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

दूसरे के परिश्रम को छीन कर जब हम आगे बढ़ते हैं तभी से सीखने की प्रक्रिया रुकने लगती है। हमारा सारा ध्यान चोरी की मानसिकता व सत्य को झुठलाने की ओर मुड़ जाता है। देर सबेर जब आँख खुलती है तो पता चलता है कि हमारी कुर्सी खतरे में है। उपेक्षित होकर रहने से बेहतर है कि दूसरी जगह जाकर उनकी जी हुजूरी में अपना समय लगाएँ। हो सकता है वहाँ कोई नया अवसर मिले अवसरवादी बनने का।

हर जगह फोटो में छाए रहने वाले रौनक लाल जी  इस बार अपनी जगह सुनिश्चित न पाकर सोर्स लगाते हुए उपलब्धियों की सूची गिनाने लगे। तभी एक ने कहा हर बार यही विवरण देने से बात नहीं बनेगी। कुछ नया हो तो बताइए। उन्होंने झट से अखबार की कटिंग सामने रख दी। मजे की बात उसमें भी उनका नाम तो था पर सामान्य सदस्य के रूप में। अब बेचारे फोन उठा कर सम्बंधित व्यक्ति को उसकी भूल बतलाने लगे। तभी उनके सलाहकार ने कहा कोई बात नहीं अब आप दूसरी संस्था की ओर मुड़ जाइये यहाँ न सही वहाँ अध्यक्षीय कुर्सी पर विराजित होकर पेपर में नाम छपवाएँ।

उदास स्वर से रौनक लाल जी कहने लगे,” समय इतनी तेजी से बदलता जा रहा है। पहले जो लोग मेरी आँखों के इशारे से रास्ते बदल देते थे वे भी मुझे सलाह देते हुए कहते हैं कि ज्यादा लालच मत कीजिए। किसी एक संस्था के वफ़ादार बनें। हर जगह अध्यक्ष बनने की कोशिश में आपकी सदस्यता भी भंग हो जाएगी। सम्मान कमाना पड़ता है। कोई प्रेम से बोल दे तो इसका ये मतलब नहीं कि आप हर चीजों का निर्धारण करेंगे।

ऐसा अक्सर देखने में आता है किंतु अब ठहरा डिजिटल युग सो ऑनलाइन ही कार्यक्रम होने लगे हैं। जहाँ कुर्सी का किस्सा कुछ हद तक कमजोर होने लगा है। बस पोस्टर में फोटो हो फिर कोई शिकायत नहीं रहती। अपनी फोटो को देखने में जो आंनद है वो अन्य कहीं नहीं मिलता। सब कुछ मेरे अनुसार हो बस यही समस्या की जड़ है। जड़ उपयोगी है किंतु जड़बुद्धि की मानसिकता रखने वाला व्यक्ति घातक होता है।

मानव जीवन में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब ये लगने लगता है कि चेहरे की मासूमियत व मुस्कान अब वापस नहीं आने वाली किन्तु दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्प से  सब कुछ जल्दी ही सामान्य होकर पुनः जीवन में नव उत्साह का संचार हो पूर्ववत स्थिति आ जाती है।

मुस्कुराहट से न केवल हम सभी वरन जीव – जंतु भी आकर्षित होते हैं। जब चेहरे में प्रसन्नता झलकती है तो आसपास का परिवेश भी मानो खुशहाली के गीत गुनगुनाने लगता है। अनजाने व्यक्ति से भी  एक क्षण में ही लगाव मुस्कुराहट द्वारा ही संभव हो सकता है।

तो आइये देरी किस बात की ईश्वर प्रदत्त इस उपहार को  मुक्त हस्त से बाँट कर परिवेश में खुशहाली फैलायें। अवसरवादी बनने हेतु अवसरों की भरमार है बस मुस्कुराते हुए कार्य करने की कला आनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 159 ☆ कविता – कैमरा मेरा… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कैमरा मेरा…इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 159 ☆

? कविता – कैमरा मेरा… ?

 

हर बार एक नया ही चेहरा कैद करता है कैमरा मेरा…

खुद अपने आप को अब तक

कहाँ जान पाया हूं, 

खुद की खुद में तलाश जारी है

हर बार एक नया ही रूप कैद करता है कैमरा मेरा

प्याज के छिलकों की या

पत्ता गोभी की परतों सा

वही डी एन ए किंतु

हर आवरण अलग आकार में,

नयी नमी नई चमक लिये हुये

किसी गिरगिट सा,

या शायद केलिडेस्कोप के दोबारा कभी

पिछले से न बनने वाले चित्रों सा 

अक्स है मेरा.

झील की अथाह जल राशि के किनारे बैठा

में देखता हूं खुद का

प्रतिबिम्ब.

सोचता हूं मिल गया मैं अपने आप को

पर

जब तक इस खूबसूरत

चित्र को पकड़ पाऊं

एक कंकरी जल में

पड़ती है

और मेरा चेहरा बदल जाता है

अनंत

उठती गिरती दूर तक

जाती

लहरों में गुम हो जाता हूं मैं.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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