डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चित्र नहीं चरित्र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 134 ☆

☆ चित्र नहीं चरित्र

‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ’ चाणक्य का यह संदेश अनुकरणीय है, क्योंकि मंदिर में जाकर देवताओं की प्रतिमाओं के सम्मुख नतमस्तक होने से कोई लाभ नहीं; उनके सद्गुणों को आत्मसात् करो और मन को मंदिर बना लो तथा कबीर की भांति उन्हें नैनों में बसा लो। ‘नैना अंतर आव तूं, नैन झांपि तोहे लेहुं/  ना हौं देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ यह है प्रभु से सच्चा प्रेम। उसे देखने के पश्चात् नेत्रों को बंद कर लेना और जीवन में किसी को भी देखने की तमन्ना शेष न रहना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मैं मन को मंदिर कर लूं/ देह को मैं चंदन कर लूं/ तुम आन बसो मेरे मन में/ मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’ यही है मन को मंदिर बना उसके ध्यान में स्वस्थित हो जाना। देह को चंदन सम घिस कर अर्थात् दुष्प्रवृत्तियों को त्याग कर सच्चे हृदय से स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना और उसका दरश पाने पर किसी अन्य को न निहारना व वंदन करना–आसान नहीं है; अत्यंत दुष्कर है। वास्तव में स्अपने अंतर्मन को परमात्मा के दैवीय गुणों से आप्लावित करना व अपने चरित्र में निखार लाना बहुत टेढ़ी खीर है। राम आदर्शवादी व पुरुषोत्तम राजा थे तथा उन्होंने घर-परिवार व समाज में सामंजस्य स्थापित किया। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति व आदर्श राजा थे तथा त्याग की प्रतिमूर्ति थे। कृष्ण सोलह कलाओं के स्वामी थे। उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों से दुष्टों को पराजित किया तथा कौरवों व पांडवों के युद्ध के समय अर्जुन को युद्ध के मैदान में संदेश दिया, जो भगवद्गीता के रूप में देश-विदेश में मैनेजमेंट गुरू के रूप में आज भी मान्य है।

‘अहं त्याग देने के पश्चात् मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध त्याग देने से वह शोकरहित; काम त्याग देने से धनवान व लोभ  त्याग देने से सुखी हो जाता है।’ युधिष्ठिर का यह यह कथन मानव को अहं त्यागने के साथ-साथ काम, क्रोध व लोभ को त्यागने की सीख भी देता है और जीवन में प्यार व त्याग की महत्ता को दर्शाता है। महात्मा बुद्ध भी इस ओर इंगित करते हैं कि ‘जो हम संसार में देते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है।’ इसलिए सबको दुआएं दीजिए, व्यर्थ में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव हृदय में मत आने दीजिए। दूसरी ओर त्याग से तात्पर्य अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना है, क्योंकि इससे मानव तनाव मुक्त रहता है। वैसे भी बौद्ध व जैन मत में अपरिग्रह अथवा संग्रह न करने की सीख दी गई है, क्योंकि हम सारी धन-सम्पदा के बदले में एक भी अतिरिक्त सांस उपलब्ध नहीं करा सकते। दूसरी ओर ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर शख़्स यहां है अकेला/ तन्हाई में जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा’ स्वरचित गीत की यहां पंक्तियाँ उक्त भाव को दर्शाती हैं कि इंसान इस संसार में अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है। एकांत, एकाग्रता व प्रभु के प्रति समर्पण भाव कैवल्य-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं।

यदि हम आसन्न तूफ़ानों व आग़ामी आपदाओं के प्रति पहले से सजग व सचेत रहते हैं, तो शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं और वे  सहसा प्रकट नहीं हो सकती। हमें ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ के सिद्धांत को जीवन में न अपना कर, भविष्य के प्रति सजग व सचेत रहना चाहिए। शायद! हमें इसलिए ही ‘खाओ, पीओ व मौज उड़ाओ’ के सिद्धांत को जीवन में न अपनाने की सीख दी गयी है। इस सिद्धांत का अनुसरण न करने पर हमारी जग-हंसाई होगी और हमें दूसरों के सम्मुख हाथ पसारना पड़ेगा। ‘मांगन मरण समान’ अर्थात् किसी के प्रति के सम्मुख हाथ पसारना मरने के समान है। विलियम शेक्सपियर के मतानुसार ‘हमें किसी से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि एक न एक दिन उम्मीद टूटती अवश्य है और उसके टूटने पर दर्द भी बहुत होता है।’ वैसे तो उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, स्वयं से रखनी चाहिए। इसके साथ-साथ हमारे अंतर्मन में कर्ता भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि अहं मानव को पल भर में अर्श से फर्श पर ला  पटकता है।

लोग विचित्र होते हैं। स्वयं तो ग़लती स्वीकारते नहीं और दूसरों को ग़लत साबित करने में अपना अमूल्य समय नष्ट कर देते हैं। सफल इंसान की नींव उसके विचार होते हैं। महात्मा बुद्ध भी अच्छे व अनमोल विचार रखने की सीख देते हैं, क्योंकि कर्म ख़ुद-ब-ख़ुद अच्छाई की ओर खिंचे चले आते हैं और अच्छे कर्म हमें अच्छाई की ओर अग्रसर करते हैं। सफलता जितनी देर से मिलती है, व्यक्ति में उतना निखार आता है, क्योंकि सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है। गुरूनानक जी भी मानव को यही सीख देते हैं कि ‘नेकी करते वक्त उम्मीद किसी से मत रखो, क्योंकि सत्कर्मों का बदला भगवान देते हैं। किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान।’ सो! अपनी सोच मोमबत्ती जैसी रखें। जैसे एक मोमबत्ती से दूसरी मोमबत्ती जलाने पर उसका प्रकाश कम नहीं होता, वैसे ही जीवन में बाँटना, परवाह व मदद करना कभी बंद मत करें; यही जीवन की सार्थकता है, सार है। सब अंगुलियों की लंबाई बराबर नहीं होती, परंतु जब वे झुकती व मुड़ती हैं, तो समान हो जाती हैं। इसी प्रकार जब हम जीवन में झुकना व समझौता करना सीख जाते हैं; ज़िंदगी आसान हो जाती है और तनाव व अवसाद भूले से भी दस्तक नहीं सकते।

वास्तव में हम चुनौतियां को समस्याएं समझ कर परेशान रहते हैं और संघर्ष नहीं करते, बल्कि पराजय स्वीकार कर लेते हैं। वैसे समाधान समस्याओं के साथ ही जन्म ले लेते हैं। परंतु हम उन्हें तलाशने का प्रयास ही नहीं करते और सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं। नेपोलियन समस्याओं को भय व डर की उपज मानते थे। यदि डर की स्थिति विश्वास के रूप में परिवर्तित हो जाए, तो समस्याएं मुँह छिपा कर स्वत: लुप्त हो जाती हैं। इसलिए मानव आत्म-विश्वास को थरोहर सम संजोकर रखना चाहिए; यही सफलता की कुंजी है। वैसे भी ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ विवेकानंद जी के मतानुसार ‘यदि आप ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाते हो; अगर ताकतवर समझते हैं तो ताकतवर, क्योंकि हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है ।’ इसलिए हमें अपनी सोच को सकारात्मक रखना चाहिए–यह आत्म-संतोष की परिचायक है। हमारे अंतर्मन में निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा होना चाहिए; लक्ष्य को जुनून बनाकर उसकी पूर्ति में अपनी शक्तियों को झोंक देना चाहिए। ऐसी स्थिति में सफलता प्राप्ति निश्चित है। सो! हमें निष्काम कर्म को पूजा समझ कर निरंतर आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि यह सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है।

‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तो में/ अलग- अलग विचारों को एक होना पड़ता है’ में निहित है–पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व त्याग का भाव। यदि मानव में उक्त भाव व्याप्त हैं, तो रिश्ते लंबे समय तक चलेंगे, अन्यथा आजकल रिश्ते भुने हुए पापड़ की तरह पलभर में टूट जाते हैं। सो! अपने अहं को मिटाकर, दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारना आवश्यक है। इसलिए जहाँ दूसरे को समझना मुश्किल हो; वहाँ ख़ुद को समझ लेना बेहतर है। इससे तात्पर्य यह है कि मानव को आत्मावलोकन करना चाहिए और अपने भीतर सुप्त शक्तियों को पहचानना चाहिए।

इंसान की पहचान दो बातों से होती है– एक उसका सब्र; जब उसके पास कुछ न हो और दूसरा उसका रवैया अथवा व्यवहार; जब उसके पास सब कुछ हो। ऐसे लोग आत्म-संतोषी होते हैं; वे और अधिक पाने की तमन्ना नहीं करते, बल्कि यही प्रार्थना करते हैं कि ‘मेरी औक़ात से ज़्यादा मुझे कुछ ना देना मेरे मालिक/ क्योंकि ज़रूरत से अधिक रोशनी भी मानव को अंधा बना देती है।’ ऐसे लोगों का जीवन अनुकरणीय होता है, क्योंकि वे प्रत्येक जीव में परमात्मा की सत्ता का आभास पाते हैं तथा प्रभु के प्रति सदैव समर्पित रहते हैं। वे अपनी रज़ा को उसकी रज़ा में मिला देते हैं। सो! ईश्वर चित्र में नहीं; चरित्र में बसता है। भगवान राम, कृष्ण व अन्य देवगण अपने दैवीय गुणों के कारण पहचाने जाते हैं तथा उनकी संसार में पूजा-अर्चना व उपासना होती है। सो! मानव को उन दैवीय गुणों व शक्तियों को अपने जीवन में  जाग्रत करना चाहिए, ताकि वे भी संसार में अनुकरणीय व वंदनीय बन सकें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments