मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #111 – ती…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 111 – ती…! ☆

आजपर्यंत तिनं

बरंच काही साठवून ठेवलंय ..

ह्या… चार भिंतींच्या आत

जितकं ह्या चार भिंतींच्या आत

तितकंच मनातही…

कुणाला कळू नये म्हणून

ती घरातल्या वस्तूप्रमाणे

आवरून ठेवते…

मनातला राग..,चिडचिड,

अगदी तिच्या इच्छा सुध्दा..,

रोजच्या सारखाच

चेहऱ्यावर आनंद आणि समाधानाचा

खोटा मुखवटा लाउन

ती फिरत राहते

सा-या घरभर

कुणीतरी ह्या

आवरलेल्या घराचं

आणि आवरलेल्या मनाचं

कौतुक करावं

ह्या एकाच आशेवर…!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#134 ☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “किसे पता था….…”)

☆  तन्मय साहित्य # 134 ☆

☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वाँस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे सँवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पँखेरू उड़ जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,साँझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में 

ऐसे भटकाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 28 ☆ ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल “प्रीत के हिंडोले में…”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 27 ✒️

?  ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… — डॉ. सलमा जमाल ?

प्रीत के हिंडोले में ,

झूलती जवानी है ।

फूल हैं क़दमों तले ,

निगाहें आसमानी हैं ।।

 

मुझे रोक ना सकेगी दुनियां,

रूढ़ियों की जंज़ीरों से ।

मैं बहती हुई नदिया हूं ,

भावना तूफ़ानी है ।।

 

झर – झर , झरते – झरने ,

कल-कल करतीं नदियां ।

कर्मरत रहना ही ,

सफ़ल ज़िन्दगानी है ।।

 

चांदी की हों रातें ,

सोने भरे हों दिन ।

ऐसा स्वर्ग धरती पर ,

हमने लाने की ठानी है ।।

 

सपनों के पंख पसारे ,

क्षितिज के पार हम चलें । ‌

रात भीगी – भीगी है ,

भोर धानी – धानी है ।।

 

मेरा प्यार एक इबादत है ,

मेरे प्यार में शहादत भी है ।

हर हाल में ‘ सलमा ‘ को ,

वफ़ा ही निभानी है ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – salmakhanjbp@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 111 ☆ चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चंचल बैगा लड़की”)

☆ संस्मरण # 111 – चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अनपढ़ आदिवासी  कार्तिक राम बैगा और फूलवती बाई की दूसरी संतान के रूप में 02.05.1991 को जन्मी प्रेमवती के पिता को जब पता चला कि समीपस्थ ग्राम लालपुर में कोई बंगाली डाक्टर बैगा बालिकाओं को निशुल्क शिक्षा दे रहे हैं तो वे पत्नी के विरोध के बावजूद उसे भर्ती कराने चले आए।  अपने बचपन के दिनों की याद करते हुए प्रेमवती बताती है कि पूरा परिवार अत्यंत गरीब था । माता-पिता दिन भर मजदूरी करते, जंगल लकड़ियाँ फाड़ने जाते और उसे बेचकर जो धन मिलता उससे खंडा अध टुकड़ा व सस्ता चावल खरीदते । इससे बना पेज पीकर पाँच लोगों का परिवार किसी तरह जीवित रहता। यह पेज भी भरपेट नहीं मिलता और कई बार तो तीन चार दिन तक भूखे रहना पड़ता । प्रेमवती और उसके दो भाई आपस में भोजन के लिए लड़ते और अक्सर एक दूसरे के हिस्से का निवाला छीन लेते। अक्सर हम बच्चे रात भर भूख से बिलबिलाते और रोते रहते।

ऐसी विपन्न स्थिति में रहने वाली यह अबोध बालिका जब बिना किसी सामान के 1996 में सेवाश्रम द्वारा संचालित स्कूल में लाई गई, तो माता-पिता से बिछुड़ने का दुख, क्रोध में बदलते देर न लगी और इस आवेश की पहली शिकार बनी बड़ी बहनजी । प्रेमवती बताती है कि उस दिन जब माँ-बाप उसे छोड़कर जाने लगे तो वह उनके पीछे दौड़ी लेकिन बड़ी बहनजी ने उसे पकड़कर अपनी बाहों में संभाल लिया और मैं इतने आवेश में थी कि उनपर अपने हाथ पैर बड़ी देर तक फटकारती रही । बाबूजी ने अतिरिक्त जोड़ी कपड़े, पुस्तकें  और बस्ता दिया। धीरे धीरे सभी बच्चों से मैं हिल-मिल गई । लेकिन घर की याद बहुत आती। जब छुट्टियों में घर जाते तो वापस आने को मन न करता । माँ को भी मेरी बहुत याद आती और एक बार वह मुझे आश्रम से बहाना बनाकर घर ले आई । पिताजी को जब इस झूठ के बारे में पता चला तो वह मुझे पुन: स्कूल छोड़ने आए।

प्रेमवती का मन धीरे धीरे पढ़ने में रमने लगा।  पढ़ाई के दिनों की याद करते हुए वह बताती है कि बाबूजी शाम को सभी लड़कियों को एकत्रित करके पहाड़े रटवाते थे, उनकी बंगाली मिश्रित टोन से हम लोगों को हंसी आती और लड़कियों को हँसता देख बाबूजी भी मुस्करा देते । जब 2001 में उसने माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो  बाबूजी ने उसका प्रवेश पोड़की स्थित माध्यमिक शाला में करवा दिया । आठवीं पास करने के बाद पिता को यह भान हुआ कि लड़की बड़ी हो गई है और इसका ब्याह कर देना चाहिए। प्रेमवती को अब तक शिक्षा का महत्व समझ में आ चुका  था । वह अड गई कि आगे और पढ़ेगी और अपने पैरों पर खड़े होने के बाद शादी करेगी । उसकी इस भावना को सहारा मिला  बाबूजी का । उन्होंने उसका प्रवेश भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में करवा दिया तथा सेवाश्रम के छात्रावास में ही उसके रहने खाने की व्यवस्था कर दी । वर्ष 2008 में जब कला संकाय के विषय लेकर प्रेमवती ने बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तो डाक्टर सरकार ने गुलाबवती बैगा के साथ उसका प्रवेश भी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के बी ए पाठ्यक्रम में करवा दिया । दुर्भाग्यवश अंतिम वर्ष की परीक्षा के समय वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई और फिर ग्रेजुएट होने का सपना अधूरा ही रह गया।

बाबूजी के विशेष प्रयासों से उसे और उसकी सहपाठी गुलाबवती को वर्ष 2012 में मध्य प्रदेश सरकार ने सीधी नियुक्ति के जरिए प्राथमिक शाला शिक्षक के रूप में चयनित किया। इन दोनों बैगा बालिकाओं की सीधी नियुक्ति का परिणाम यह हुआ कि उसी वर्ष अनेक आदिवासी युवक युवतियाँ शिक्षक बनाए गए । लेकिन उसके बाद राज्य सरकार ने पढे लिखे बैगाओं की कोई सुधि नहीं ली और अब इस आदिम जनजाति के युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं । 

स्नातक युवा एवं फर्रीसेमर गाँव की प्राथमिक शाला में शिक्षक सोन शाह बैगा की पत्नी प्रेमवती स्वयं प्रातमिक विद्यालय अलहवार में शिक्षक है और तीन बच्चों की माँ है । वह परिवार को नियोजित रखना चाहती है तथा अपने सजातीय आदिवासियों को कुरीतियाँ त्यागने, शिक्षित होने की प्रेरणा देती रहती है ।                                   

मैंने प्रेमवती से बैगा आदिवासियों की विपन्नता का कारण जानना चाहा । उसने उत्तर दिया की गरीबी के कारण माता-पिता बच्चों को मजदूरी के लिए विवश कर देते हैं ।  जब माता पिता जंगल में मजदूरी करने जाते हैं तो बड़े बच्चे छोटे भाई बहनों को संभालते हैं या गाय-बकरियाँ चराते हैं । बालपन से ही मजदूरी को विवश बैगाओं के पिछड़ेपन का अशिक्षा सबसे बड़ा कारण है । शराब पीना तो बैगाओं में बहुत आम चलन है । इस बुराई ने स्त्री और पुरुषों दोनों को जकड़ रखा है । अत्याधिक मदिरापान से उनकी कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है । लेकिन इस बुराई को खत्म करना मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि बड़े बुजुर्ग इसे बैगाओं की प्रथा मानते हैं और छोड़ने को तैयार नहीं हैं । प्रेमवती कहती है कि पुरानी परम्पराएं अब धीरे धीरे कम हो रही हैं । नई पीढ़ी की लड़कियां अब गोदना नहीं गुदवाती, शादी विवाह में पारंपरिक  गीत संगीत का स्थान अब अन्य लोगों की देखादेखी में डीजे आदि ले रहे हैं । बैगा समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मान के भाव और उनको प्रदत्त स्वतंत्रता की प्रेमवती बड़ी प्रसंशक है । लड़की वर का चुनाव स्वयं करती है और वर पक्ष के लोग तीज त्योहार पर अक्सर कन्या को अपने घर बुलाते हैं। ऐसा तब तक होता जब तक वर वधू विवाह के बंधन में नहीं बंध जाते। वह बताती है कि विधवा को  पुनर्विवाह का अधिकार है । 

मैंने प्रेमवती के बालपन की यादों को कुरेदने का प्रयास किया । उसे आज भी नवाखवाई की याद है । वह बताती है कि जब खीरा,  कोदो, कुटकी, धान मक्का आदि की नई फसल घर आ जाती तो उसे सबसे पहले ग्राम के देवी देवताओं को अर्पित किया जाता और उसके बाद ही ने अनाज का हम लोग सेवन करते थे । इन्ही दिनों सारे बच्चे एक खेल गेंडी खेलते थे । लाठी में अंगूठे को फसाने के लिए जगह बनाकर उसपर चढ़ जाते और घर घर गाते हुए जाते थे ।  घर के लोग उन्हे नेंग में अनाज देते और फिर सभी बालक अपनी अपनी गेंडी पर चढ़े चढ़े  पास के किसी नाले के समीप जा प्रसाद चढ़ाते और गेंडियों को नदी में सिरा देते हैं ।

प्रेमवती के पास स्कूल और गाँव की यादों का पिटारा है और उससे वार्तालाप करते ऐसा नहीं लगता कि यह नवयुवती विपन्न आदिम जन जाति में जन्मी है, अच्छी शिक्षा का यही प्रभाव है ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 34 – आत्मलोचन – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 34 – आत्मलोचन– भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आत्मलोचन जी का प्रशासनिक कार्यकाल धीरे धीरे गति पकड़ रहा था. इसी दौरान जिला मुख्यालय के नगरनिगम अध्यक्ष की बेटी के विवाह पर आयोजित प्रीतिभोज के लिये स्वंय अध्यक्ष महोदय कलेक्टर साहब के चैंबर में पधारे और परिवार सहित कार्यक्रम को अपनी उपस्थिति से गौरवान्वित करने का निवेदन किया. यह कोरोनाकाल के पहले की घटना है पर फिर भी अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों के आगमन की संभावना को देखते हुये सीमित संख्या में ही आमंत्रण भेजे गये थे. नगर के लगभग सभी राजनैतिक दलों के सिर्फ वरिष्ठ नेतागण और उच्च श्रेणी के प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा परिजनों की संख्या भी सीमित थी. पर सीमित मेहमानों के बीच में भी सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित करने वाले विशिष्ट अतिथि थे प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जो महापौर की पार्टी के ही वरिष्ठ राजनेता थे.

राजनीति में आने के पूर्व वे संयुक्त मध्यप्रदेश के दो बड़े जिलों के कलेक्टर रह चुके थे और सिविल सर्विस को त्याग कर राजनीति में प्रवेश किया था. यहां भी मुख्य मंत्री का पद सुशोभित कर चुके थे और अपने दल के संख्या बल में पिछड़ने के कारण विपक्ष की शमा को रोशन कर रहे थे. विधाता दोनों हाथों से गुडलक और सफलता किसी को नहीं देता, यही ईश्वरीय विधान है. एक भयंकर कार एक्सीडेंट में जान तो बच गई पर क्षतिग्रस्त बैकबोन ने हमेशा के लिये व्हीलचेयर पर विराजित कर दिया. जो कभी अपनी पार्टी के प्रदेश स्तरीय बैकबोन थे अब स्वयं बैकबोन के जख्मों के शिकार बन कर उठने बैठने की क्षमता खो चुके थे. पर ये विकलांगता सिर्फ शारीरिक थी, मस्तिष्क की उर्वरता और आत्मविश्वास की अकूट संपदा से न केवल विरोधी दल बल्कि खुद की पार्टी के नेता भी खौफ खाते थे.संपूर्ण प्रदेश के महत्वपूर्ण व्यक्ति और घटनायें उनकी मैमोरी की हार्डडिस्क में हमेशा एक क्लिक पर हाज़िर हो जाती थीं.

आत्मलोचन तो उनके सामने बहुत जूनियर थे पर उनकी विशिष्ट कुर्सी की आदत के किस्से उन तक पहुँच ही जाते थे क्योंकि उनका जनसंपर्क और सूचनातंत्र मुख्यमंत्री से भी ज्यादा तगड़ा था. कार्यक्रम में भोजन उपरांत उन्होंने स्वंय अपने चिरसेवक के माध्यम से कलेक्टर साहब को बुलाया और औपचारिक परिचय के बाद जिले के संबंध में भी चर्चा की. फिर चर्चा को हास्यात्मक मोड़ देते हुये बात उस प्वाइंट पर ले गये जहां वो चाहते थे.

“आत्मलोचन जी जिस पद पर आप हैं वह तो खुद ही पॉवर को रिप्रसेंट करती है, आप तो जिले के राज़ा समझे जाते हैं फिर उस पर भी विशिष्ट कुर्सी का मोह क्यों. आप तो अभी अभी आये हैं पर मैने तो कई साल पहले दो महत्वपूर्ण जिलों में आपके जैसे पद पर कार्य किया, जो थी जैसी थी पर कुर्सी तो कुर्सी होती है. पावर की मेरी महत्वाकांक्षा तो इस कुर्सी के क्षेत्रफल में सीमित नहीं हो पा रही थी तो मैं ने राजनीति में प्रवेश किया और वह कुर्सी पाई जो लोगों के सपने में आती है याने चीफमिनिस्टर की. पर सत्ता तो चंचल होती है हमेशा नहीं टिक पाती.आज जिस कुर्सी पर बैठ कर मैं तुमसे बात कर रहा हूं वह भी पावरड्रिवन है पर ये साईन्स के करिश्में याने बैटरी से चलती है पर एक बात की गठान बांध लो , कुर्सी नहीं उस पर बैठा व्यक्ति महत्वपूर्ण है और साथ ही महत्वपूर्ण है वह नेटवर्क जो जितना मजबूत होता है, व्यक्ति उतना ही कामयाब होता है चाहे वह क्षेत्र राजनीति का हो, सिविल सर्विस का हो या फिर परिवार का.”

बात बहुत गहरी थी, आत्मलोचन बहुत जूनियर तो पूरा समझ नहीं पाये, प्रतिभा और जोश तो था पर अनुभव कम था. शायद यही बात उनका भाग्य उन्हें किसी और ही तरीके से समझाने वाला था.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 134 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 134 ?

☆ गझल… ☆

 चांगले आहे कुणाची भिस्त व्हावे

 आपल्या मस्तीत जगणे मस्त व्हावे

 

घातल्या आहेत कोणी या पथारी

मी कशासाठी इथे संन्यस्त व्हावे

 

 मागण्या आहेत ज्या त्या माग राजा

राज्य कोणाचे कसे उद्ध्वस्त व्हावे

 

 पांगले आहेत येथे कळप सारे

 विश्व त्यांचे का बरे बंदिस्त व्हावे

 

 शिस्त त्यांनी लावली होती मलाही

  का तरी आयुष्य हे बेशिस्त व्हावे

 

उगवले नाहीच जर जन्मून येथे

 का असे वाटे तुला मी अस्त व्हावे                                  

 

 तोच आहे नित्य माझा पाठिराखा

 वाटते आता मला आश्वस्त व्हावे

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे

(ग्रीष्म, चिरैया, गौरैया, लू, तपन)

ग्रीष्म-तप रहा मार्च से, कमर कसे है जून।

जब आएँगे नव तपा, तपन बढ़ेगी दून।।

दूँगा सबको भून।।

 

पतझर में तरु झर गए, ग्रीष्म मचाए शोर ।

उड़ीं चिरैया देखकर, कल को यहाँ न भोर।।

 

गौरैया दिखती नहीं, ममता देखे राह।

दाना रोज बिखेरती, रही अधूरी चाह।।

 

भरी दुपहरी में लगे, लू की गरम थपेड़।

कर्मवीर अब कृषक भी, लगते सभी अधेड़।।

 

सूरज की अब तपन का, दिखा रौद्र अवतार।

सूख रहे सरवर कुआँ, सबको चढ़ा बुखार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 160 ☆ आलेख – धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना …. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 160 ☆

? आलेख  धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना … ?

देश संविधान से चलता है. न्यायालय का सर्वोपरी विधान संविधान ही है. प्रत्येक अच्छे नागरिक का नैतिक कर्तव्य है कि वह संविधान का परिपालन करे. बचपन से ही मैं अच्छा नागरिक बनना चाहता हूं, पर अब तक तो मैं लाइनो में ही लगा रहा, इसलिये मुझे अच्छा नागरिक बनने का मौका ही नही मिल सका. सुबह सबेरे पानी के लिये नल की लाइन में,  मिट्टी तेल के लिये केरोसिन की लाइन में,  राशन के लिये लम्बी लाइन में, कभी बस या मेट्रो की कतार में, इलाज के लिये अस्पताल की लाइन में, स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर पंक्तिबद्ध रहना ही होता था, बैंक में रुपया जमा करने तक के लिये लाइन, इस या उस टिकिट की लाइन में लगे लगे ही जब अठारह का हुआ और संविधान ने चुपके से मुझे मताधिकार दे दिया तो मैं संविधान के प्रति कृतज्ञता बोध से अभीभूत होकर वोट डालने गया पर वहाँ भी लाइन में खड़े रहना ही पड़ा. मुझे लगा कि लाइन में लगकर बिना झगड़ा किये अपनी पारी का इंतजार करना ही अच्छे नागरिक का कर्तव्य होता है.

वरिष्ट जनो, महिलाओ, विकलांगों को अपने से आगे जाने का अवसर देना तो मानवीय नैतिकता ही है.नियम पूर्वक बने वी आई पी मसलन स्वतंत्रता सेनानी, सेवानिवृत मिलट्री पर्सनल भी सर आंखो पर, कथित जातिगत आरक्षण के चलते बनी आगे बढ़ती कतार को भी सह लेता किन्तु बलात पुलिस वाले के साथ आकर या नेता जी के फोन के साथ कंधे पर सवार नकली वी आई पी मैं बर्दाश्त नही कर पाता, बहस हो जाती . बदलता तो कुछ नहीं, मन खराब हो जाता. घर लौटकर जब अकेले में अपने आप से मिलता तो लगता कि मैं अच्छा नागरिक नही हूं. इसलिये एक अच्छे नागरिक बनने के लिये मैंने संविधान को समझने की योजना बनाई .

संविधान की प्रस्तावना से ज्ञात हुआ कि हमने संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये अपना संविधान अपने आप अंगीकृत किया है. अब मेरे लिए यह समझना जरूरी था कि यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ? मैं तो कई कई दिन एक बार भी मंदिर नही जाता था. जबकि मेरा सहकर्मी जोसफ प्रत्येक रविवार को नियम से प्रेयर के लिये चर्च जाता था. मेरा अभिन्न मित्र अब्दुल दिन में पाँच बार मस्जिद जाता है. अब्दुल बेबाक आफिस से कार्यालयीन समय में भी नमाज पढ़ने निकल लेता है. उसे कोई कुछ नही कहता. मस्जिद में या चर्च में एक ही धर्मावलंबी नियम पूर्वक तय समय से मिलते हैं, पूजा ध्यान से इतर चर्चायें भी होना अस्वाभाविक नहीं. किसे वोट देना है किसे नही इस पर मौलाना साहब के फतवे जारी होते भी मैंने देखा है. राजनैतिक दलो द्वारा अपने घोषणा पत्र में बाकायदा चुनाव आयोग के संज्ञान में धार्मिक प्रलोभन, नेताओ द्वारा अपने पक्ष में वर्ग विशेष के वोट लेने के लिये सार्वजनिक मंच से घोषणायें, कभी मंदिर न जाने वालों द्वारा एन चुनावी दौरो में मंदिर मंदिर जाना आदि देखकर मैं धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहुत कनफ्यूज हो गया.

कभी इस धर्म की तो कभी उस धर्म की रैलियां सड़कों पर देखने मिलती. अनेक अवसरो पर टीवी में बापू की समाधि पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा का सरकारी आयोजन मैनें देखा था मुझे लगा कि शायद यही धर्मनिरपेक्षता है.  कुछ अच्छी तरह समझने के लिये गूगल बाबा की शरण ली तो, सर्च इंजन ने फटाफट बता दिया कि दुनिया के 43 देशों का कोई न कोई आधिकारिक धर्म है, 27 देशों का धर्म इस्लाम तो 13 का धर्म ईसाईयत है.  भारत समेत 106 देश धर्मनिरपेक्ष देश हैं.ऐसा राष्ट्र एक भी नहीं है जिसका धर्म हिन्दू हो. दुनियां की आबादी का लगभग सोलह प्रतिशत हिन्दू धर्मावलंबी हैं. दुनियां का पहला धर्मनिरपेक्ष देश अमेरिका है. इस जानकारी से भी धर्मनिरपेक्षता समझ नही आ रही थी. तो मैंने शाम को टीवी चैनलो पर विद्वानो की बहस और व्हाट्सअप समूहो से कुछ ज्ञानार्जन करने का यत्न किया, पर यह तो बृहद भूलभुलैया थी. सबके अपने अपने एजेण्डे समझ आये पर धर्मनिरपेक्षता समझ नही आई. कुछ कथित बुद्धिजीवी बहुसंख्यकों को रोज नए पाठ पढ़ाते,उनके अनुसार बहुसंख्यकों को दबाना ही धर्म निरपेक्षता है। मुझे स्पष्ट समझ आ रहा था की यह तो  कतई धर्म निरपेक्षता नही है ।अंततोगत्वा मैं धर्मनिरपेक्षता की तलाश में देशाटन पर निकल पड़ा.  बंगलौर रेल्वे स्टेशन के वेटिंग रूम में मस्जिद नुमा तब्दीली मिली, मुम्बई के एक रेल्वे प्लेटफार्म पर भव्य मजार के दर्शन हुये, सड़क किनारे सरकारी जमीन पर ढ़ेरों छोटे बड़े मंदिर और मजारें नजर आईं, धर्मस्थलो के आसपास खूब अतिक्रमण दिखे. लाउड स्पीकर से अजान और भजन के कानफोड़ू पाठ सुनाई पड़े. सांप्रदायिकता मिली सरे आम बेशर्मी से बुर्के को तार तार करती मिली, कट्टरता ठहाके मारती मिली, रूढ़िवादिता भी मिली, कम्युनलिज्म टकराया  किन्तु मेरी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की तलाश अब तक अधूरी ही है. आपको धर्मनिरपेक्षता समझ आ जाये तो प्लीज मुझे भी समझा दीजीयेगा जिससे मैं एक अच्छा नागरिक बनने के अपने संवैधानिक मिशन में आगे बढ़ सकूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “बंदर के हाथ में उस्तरा।)

☆ आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कहावत हमारे देश की है, और बहुत पुरानी भी है। कहावत भले ही बंदर पर बनी हुई है, लेकिन मानव जाति इसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में यदा कदा करता रहता हैं। 

आज विश्व के सबसे संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका में एक अठारह वर्षीय युवा ने अपनी बंदूक से पाठशाला में पढ़ रहे करीब पच्चीस बच्चों की हत्या कर दी हैं। पचास से अधिक बच्चे हॉस्पिटल में इलाज़ करवा रहे हैं। युवा ने अपनी दादी और कुछ शिक्षकों को भी मौत के घाट उतार दिया।अमेरिका में ये घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।हमारे देश में भी कुछ लोग मानसिक रूप से ग्रस्त होते हुए कभी कभार बंदूक/ तलवार इत्यादि से एक दो लोगों पर हमला कर देते हैं,और अधिकतर पकड़े जाते हैं।इस सब के पीछे उनकी गरीबी या किसी रंजिश ( आर्थिक,सामाजिक या धार्मिक) प्रमुख कारण रहता हैं।                                          

अमेरिका की संपन्नता में वहां के हथियार उद्योग का बड़ा हाथ है,ये सर्वविदित हैं।हमारे देश में भी कुछ स्थानों पर देसी कट्टे/ रामपुरिया चाकू इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, चुकीं उनकी मारक क्षमता अमरीकी हथियारों के सामने शून्य से भी कम होती हैं।इसलिए जन हानि कम होती हैं।                                      

हम,अमरीकी युवा को इस प्रकार के होने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं।वहां की जीवन शैली के सामाजिक / पारिवारिक मूल्यों में आई भारी गिरावट और आसानी से हथियारों की उपलब्धता ही पूर्ण रूप से जिम्मेवार हैं।अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों की उपलब्धता सुनिश्चित कर अपनी तिज़ोरी भरता हैं।आज वो ही हथियार उसके अपने बच्चें इस्तमाल कर एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।बड़े लोग ठीक ही कहते थे,जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वो एक दिन स्वयं भी उसी गड्ढे में गिर जाता हैं।

सत्तर के दशक  में पाठशाला में एक निबंध का विषय ” विज्ञान एक अभिशाप” हुआ करता था।अब लग रहा है,कहीं निबंध का विषय आज भी मान्य तो नहीं हैं ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 125 – लघुकथा – पानी का स्वाद… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है सम्मान के पर्याय पानी पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “पानी का स्वाद…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 125☆

☆ लघुकथा  – 🌨️पानी का स्वाद 🌨️  

गर्मी की तेज तफन, पानी के लिए त्राहि-त्राहि। सेठ त्रिलोकी चंद के घर के आसपास, सभी तरह के लोग निवास करते थे। परंतु किसी की हिम्मत उसके घर आने जाने की नहीं थी, क्योंकि वह अपने आप  को बहुत ही अमीर समझता था।

सारी सुख सुविधा होने के बाद भी त्रिलोकी चंद मन से बहुत ही अवसाद ग्रस्त था, क्योंकि सारी जिंदगी उसने अपने से छोटे तबके वालों को हमेशा नीचा दिखाते अपना समय निकाला था।

उसके घर के पास एक  किराये के मकान में बिटिया तुलसी अपनी माँ के साथ रहती थी।

गरीबी की मार से दोनों बहुत ही परेशान थे। माँ मिट्टी, रेत उठाने का काम कर करती और बिटिया घर का काम संभाल रखी थी।

गर्मी की वजह से नल में पानी नहीं आ रहा था और मोहल्ले में पानी की बहुत परेशानी थी। मोहल्ले वाले सभी कहने लगी कि शायद त्रिलोकी चंद के यहाँ जाने से सब को पीने का पानी मिल जाएगा।

उसने पानी तो दिया परंतु सभी से पैसा ले लिया। जरुरत के हिसाब से सभी अपनी अपनी हैसियत से पानी खरीद रहे थे। सभी के मन से आह निकल रही थी।

कुछ दिनों बाद सब ठीक हुआ मोहल्ले में पानी की व्यवस्था हो गई। सब कुछ सामान्य हो गया।

आज त्रिलोकी चंद अपने घर के दालान दरवाजे के पास कुर्सी लगा बैठा था।

तुलसी माँ के काम में जाने के बाद पानी के भरें घड़े को  लेकर आ रही थी। उसके चेहरे पर पसीने और पानी की धार एक समान दिख रही थी।

ज्यों ही वह त्रिलोकी चंद के घर के पास पहुंची वह देख रही थी कि अचानक वह कुर्सी से गिर पड़े।

परिवार के सभी सदस्य घर के अंदर थे। तुलसी को कुछ समझ में नहीं आया फिर भी हिम्मत करके घड़े का पानी त्रिलोकी चंद के चेहरे और शरीर पर डाल  दिया। पास में रखे गिलास से उसने पानी पिलाया। त्रिलोकी चंद पानी पी कर बहुत खुश हुआ और उसे आराम लगा।

आज उसे पानी से स्वाद मिला। और उसकी आँखें भर आई। और उसे समझ आया कि मेहनत का पानी मीठा होता है।

घर के सभी सदस्य बाहर निकल कर तुलसी को डांटने लगे कि “तुमने कहां का पानी पापा को पिला दिया।”परंतु त्रिलोकी चंद को जैसे मन से भारी बोझ हट गया हो। उसे असीम शांति मिली। आज वह पानी में स्वाद  होता है ऐसा कह कर तुलसी के सर पर हाथ रखा।

मोहल्ले वाले कभी सपने में नहीं सोचते थे कि अपने घर के बाहर दरवाजे के पास पानी की व्यवस्था कर सभी को पानी लेने के लिए कहेगा।

परंतु यह सब काम उसने किया।

त्रिलोकी चंद  की जय जयकार होने लगी। वह समझ चुका था….

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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