हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #143 ☆ व्यंग्य – जल-संरक्षण के व्रती ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘जल-संरक्षण के व्रती’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 143 ☆

☆ व्यंग्य – जल-संरक्षण के व्रती

दशहरा मैदान में जल-संरक्षण पर धुआँधार भाषण हो रहे थे। बड़े-बड़े उत्साही वक्ता और विशेषज्ञ जुटे थे। कुछ गाँवों, शहरों में ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ की बात कर रहे थे, कुछ पुराने टाइप के फटकारदार कुल्लों का त्याग करने की गुज़ारिश कर रहे थे। कुछ टॉयलेट में कम पानी बहाने का सुझाव दे रहे थे। कुछ की शिकायत थी कि स्त्रियाँ अमूमन ज़्यादा नहाती हैं और केश धोने में अधाधुंध पानी खर्च करती हैं, इसलिए जल- संरक्षण की दृष्टि से सभी स्त्रियों को अपने बाल छोटे करा लेना चाहिए। इससे जल की बचत होने के साथ-साथ वे आधुनिका भी दिखेंगीं। इससे घरेलू हिंसा भी कम होगी क्योंकि पति महोदय आसानी से पत्नी के केश नहीं गह सकेंगे। एक साहब ने क्रान्तिकारी सुझाव दिया कि भारत में टॉयलेट के भीतर ‘टॉयलेट पेपर’ का उपयोग कानूनन अनिवार्य बना देना चाहिए और वहाँ पानी बहाने वालों को जेल भेजना चाहिए।

यह भी सुझाव आया कि जैसे फौज में दारू का कम उपभोग करने वाले जवानों के अफसरों को पुरस्कृत किया जाता है वैसे ही शहरों में साल भर में पानी का न्यूनतम उपयोग करने वाले परिवारों को पुरस्कृत और सम्मानित किया जाना चाहिए और इसके लिए तत्काल जाँच- प्रक्रिया का निर्धारण किया जाना चाहिए।

इस सभा में मंच पर दूसरी पंक्ति में चार महानुभाव आजू बाजू विराजमान थे। बढ़ी दाढ़ी और मैले-कुचैले कपड़े। लगता था महीनों से शरीर को जल का स्पर्श नहीं हुआ। उनके आसपास बैठे लोग नाक पर रूमाल धरे थे।

अन्य वक्ताओं के भाषण के बाद संचालक महोदय बोले, ‘भाइयो, आज हमारे बीच चार ऐसी हस्तियाँ मौजूद हैं जिन्होंने अपने को पूरी तरह जल-संरक्षण के प्रति समर्पित कर दिया है। इन्होंने अपने व्रत के कारण समाज से बहुत उपेक्षा और अपमान झेला, लेकिन ये अपने जल-संरक्षण के व्रत से रंच मात्र भी नहीं डिगे। ज़रूरत है कि अपने उसूलों के लिए जीने मरने वाली ऐसी महान विभूतियों को समाज पहचाने और उन्हें वह सम्मान प्राप्त हो जिसके ये हकदार हैं। अब आपका ज़्यादा वक्त न लेकर मैं इन चार जल- संरक्षण सेनानियों में से श्री पवित्र नारायण को आमंत्रित करता हूँ कि वे माइक पर आयें और अपने साथियों के द्वारा जल-संरक्षण के लिए किये गये कामों पर विस्तृत प्रकाश डालें।’

नाम पुकारे जाने पर जल-संरक्षण के पहले सेनानी पवित्र नारायण जी सामने आये। उनके दर्शन मात्र से दर्शक धन्य हो गये। चीकट कपड़े, हाथ-पाँव पर मैल की पर्तें, पीले पीले दाँत और आँखों में शोभायमान कीचड़। दर्शक मुँह खोले उन्हें देखते रह गये।

पवित्र नारायण जी माइक पर आकर बोले, ‘भाइयो, आज मुझे और मेरे कुछ साथियों को आपके सामने आने का मौका मिला, इसके लिए हम आज के कार्यक्रम के आयोजकों के आभारी हैं। मैंने और मेरे साथियों ने जब से होश सँभाला तभी से हम जल-संरक्षण में लगे हैं, लेकिन हमें अफसोस है कि दुनिया ने हमें हमेशा गलत समझा है। इस कार्यक्रम में आने के बाद हमारे मन में उम्मीद जगी है फिर हमारे काम को समझा और सराहा जाएगा।

‘भाइयो, हमारी जल-संरक्षण की प्रतिबद्धता इतनी अडिग है कि हम कई साल से तीन-चार मग पानी में ही अपनी दिन भर की क्रियाएँ संपन्न कर रहे हैं। न हमें स्नान का मोह है, न कपड़े चमकाने का। पानी की बचत ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। कुछ लोग इस गलतफहमी का शिकार हो जाते हैं कि हम स्वभावतः गन्दे हैं, लेकिन यह सच नहीं है। हम यहाँ इस उम्मीद से आये हैं कि कम से कम आप लोग हमें सही समझेंगे और हमारे काम और त्याग को महत्व देंगे।’

इतना बोल कर उन्होंने जनता की तरफ देखा कि उनके वक्तव्य पर ताली बजेगी, लेकिन वहाँ तो सबको साँप सूँघ गया था।

जनता में माकूल प्रतिक्रिया न देख पवित्र नारायण जी ने अपने तीनों साथियों को जनता के सामने ला खड़ा किया। बोले, ‘भाइयो, इस जल-संरक्षण अभियान में शामिल अपने तीन साथियों का परिचय कराता हूँ। ये धवलनाथ हैं। इनके हुलिया से ही आप समझ सकते हैं कि इन्होंने कितनी ईमानदारी से अपने को जल-बचत अभियान में झोंक रखा है। ये पानी की एक बूँद को भी ज़ाया करना हराम समझते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि इनकी दस साल पहले शादी हुई और बीवी दूसरे ही दिन इस महान आदमी को छोड़कर चली गई। तब से उसने इधर का रुख नहीं किया। धवलनाथ जी का जज़्बा देखिए कि इस हादसे के बाद भी वे अपने मिशन में तन मन से लगे हैं।

‘और ये हमारे एक और साथी सुगंधी लाल हैं। आप देख सकते हैं कि इनकी उम्र ज्यादा नहीं है, लेकिन ये भी पूरी तरह हमारे मिशन को समर्पित हैं। अपने उद्देश्य के लिए इनका त्याग भी ऊँचे दर्जे का है। पिछले चार-पाँच सालों में इनको चार पाँच बार इश्क हुआ, लेकिन हर बार एक दो महीने में ही इनकी महबूबा ने इन से कन्नी काट ली। शिकायत वही  घिसी-पिटी है कि ये नहाते- धोते नहीं हैं। इसके जवाब में हमारे भाई सुगंधी लाल जी पूछते हैं कि जब मजनूँ, फरहाद, रांँझा और महीवाल इश्क फ़रमाने निकलते थे तो क्या वे रोज़ नहाते थे? महीवाल ज़रूर मजबूरी में नहाते होंगे क्योंकि कहते हैं कि वे दरया में तैर कर अपनी महबूबा से मिलने जाते थे, लेकिन बाकी महान प्रेमियों के नहाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जो भी हो, अब भाई सुगंधी लाल ने मुहब्बत जैसी फिजूल बातों से मुँह मोड़ लिया है और पूरी तरह जल-बचत अभियान में डूब गये हैं। लोग कहते हैं कि इन्हें ‘हाइड्रोफोबिया’ है। बात सही भी है, लेकिन यह कुत्ते को काटने वाला हाइड्रोफोबिया नहीं है। इन्हें आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है।’

पवित्र नारायण जी ने अपने आखिरी साथी का परिचय कराया, कहा ‘ये हमारे बड़े समर्पित साथी शफ़्फ़ाक अली हैं। इनके साथ यह जुल्म हो रहा है कि लोगों ने इनके मस्जिद में घुसने पर पाबन्दी लगा दी है। कहते हैं ये नापाक हैं। लेकिन भाई शफ़्फाक अली अपने उसूलों पर चट्टान की तरह कायम हैं। इनका कहना है नमाज़ तो कहीं भी और कैसे भी पढ़ी जा सकती है। उसके लिए मस्जिद की क्या दरकार?’

उपसंहार के रूप में पवित्र नारायण बोले, ‘तो भाइयो, मैंने जल-संरक्षण में पूरी तरह समर्पित इन साथियों से आपका परिचय कराया। हमारी इच्छा है कि समाज और सरकार हमारे काम को तवज्जो दे और हमें स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों के बराबर दर्जा दिया जाए। हमें प्रशस्ति-पत्र मिले और हमारे लिए पेंशन मुकर्रर हो। इसके अलावा जो लोग हमसे अछूतों जैसा बर्ताव करते हैं उन्हें छुआछूत कानून के अंतर्गत दंडित किया जाए। हमें पूरी उम्मीद है कि हमारी आवाज सरकार के कानों तक पहुँचेगी और हमें हमारी कुरबानी के हिसाब से सम्मान और पुरस्कार मिलेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 95 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 95 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 95) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 95 ?

☆☆☆☆☆

कर लिया करता हूँ बर्दाश्त

हर दर्द इसी आस के साथ,

कि खुदा भी  नूर बरसाता है

तमाम आज़माइशों के बाद…

Now  I  keep  tolerating

every pain with the hope,

That even God showers grace

after the harshest of trials…

☆☆☆☆☆ 

 डर लगता है इजहार करने से

इतने क़रीब हो तुम…

ज़िंदगी बदल देगी मेरी

तुम्हारा इंकार भी, इकरार भी…

I’m scared to express muyself

B’coz you’re so intimately close

It’ll change my life forever, be it

Your refusal or acceptance…!

☆☆☆☆☆ 

कब, कहाँ, कौन और कैसे बदला

इसका भी हिसाब रखता है ये

बहुत समझदार है ये दिल, जनाब,

खुद का दिमाग भी रखता है ये…

Who changed, where, when & how

It maintains all the records…

This heart is very wise, Sire,

It keeps its own mind, too…!

  ☆☆☆☆☆

वैसे तो बेशुमार लोग मिला करते हैं,

ज़िंदगी के सफर में

मगर नसीब वाले ही काबिज होते हैं,

किसी के दिल-ए-आशियाने में…!

Though we keep meeting countless

people in the journey of life

But only the lucky ones occupy

someone’s mansion of heart…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन ?

आज यूँ ही विचार उठा कि समय ने मूल्यों को कितनी गति से और आमूल बदल दिया है। अपवाद तो हर समय होते हैं पर समय के विश्लेषण का मानक तो परम्परा ही होती है। दो घटनाओं के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे।

पहली घटना लगभग चालीस वर्ष पुरानी है।  बड़े भाई महाविद्यालय में पढ़ते थे। उनके एक मित्र उनसे मिलने घर आए। यह साइकिल का जमाना था। गर्मी की छुट्टियों का समय रहा होगा। वे काफी दूर से आए थे, पसीने से लथपथ थे। पानी पीने के बाद माँ से बोले, “चाची शिकंजी बनाना।”  फिर पैंट की जेब में हाथ डाल कर दो नीबू निकाले और कहा, “सोचा, पता नहीं घर में नीबू होगा या नहीं। रास्ते में एक जगह नीबू दिखे तो खरीद लाया।” माँ ने उन्हीं नीबुओं से शिकंजी बनाई।

ये वे दिन थे जब जीवन को सहजता से जिया  जाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का दर्शन  हमारे सामाजिक-जीवन का केंद्र था। समय के साथ केंद्र सरका और दर्शन को प्रदर्शन ने विस्थापित कर दिया। इस विस्थापन का एक अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले।

एक व्याख्यान के लिए दिल्ली जाना था। सम्बंधित संस्था ने आने-जाने के लिए हवाई जहाज की यात्रा का किराया देने का प्रावधान किया था। मैंने इकोनॉमी क्लास के टिकट खरीदे। एक  परिचित भी उसी आयोजन में जाने वाले थे। सोचा एक से भले दो। यात्रा में साथ हो जाएगा। उनसे बात की। उन्होंने बताया कि वे एक अन्य प्रीमियम एयरलाइंस की बिजनेस क्लास से यात्रा करेंगे। बात समाप्त हो गई।… मैं दिल्ली पहुँचा। व्याख्यान हुआ। होटल में मैं और मेरे परिचित अड़ोस-पड़ोस के कमरे में ही ठहरे थे। बातचीत के दौरान किसी संदर्भ में उन्होंने आने-जाने के टिकट दिखाए। उनके टिकट भी इकोनॉमी क्लास के ही थे। उन्हें तो अपना असत्य याद नहीं रहा पर सत्य सारी परतें भेदकर बाहर आ गया।

गाड़ी के शीशे पर लिखा होता है, ‘ऑब्जेक्ट्स  इन मिरर आर क्लोजर देन दे एपियर।’ सत्य भी मनुष्य के निकट ही होता है, उसे दिखता भी है पर गाड़ी के शीशे में दिखती वस्तु की भाँति वह उसे दूर मानकर उससे भागने की फिराक में रहता है। नश्वरता को शाश्वत से बड़ा मान लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र है। ‘लार्जर देन लाइफ’ सामान्यत: अद्वितीय सकारात्मक क्षमता के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके मूल को नष्ट करते हुए हमने प्रदर्शन के लिए इसका प्रयोग करना आरंभ कर दिया है।

वस्तुत: जीवन जितना सादा होगा, जितना सरल होगा, जितना सहज होगा, उतना ही ईमानदार होगा। जीवन को काँच-सा पारदर्शी रखें, भीतर-बाहर एक-सा। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और.. इस ओर-छोर का संतुलन बनाये रखने की कोशिश में बीच की नदी सूख जाती है। जीवन प्रवाह के लिए है। अपने आप को सूखने से बचाइए।

प्रकृति का एक घटक है मनुष्य। प्रकृति हरी है, जीवन हरा रहने के लिए है। पर्यावरण दिवस पर इस हरेपन का सबसे बड़ा प्रतिदान मनुष्य, प्रकृति को दे सकता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 95 ☆ मुक्तिका…मीर मानो या न मानो… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…मीर मानो या न मानो…. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 95 ☆ 

☆ मुक्तिकामीर मानो या न मानो… ☆

जब हुए जंजीर हम

तब हुए गंभीर हम

 

फूल मन भाते कभी हैं

कभी चुभते तीर हम

 

मीर मानो या न मानो

मन बसी हैं पीर हम

 

संकटों से बचाएँगे

घेरकर प्राचीर हम

 

भय करो किंचित न हमसे

नहीं आलमगीर हम

 

जब करे मन तब परख लो

संकटों में धीर हम

 

पर्वतों के शिखर हैं हम

हैं नदी के तीर हम

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #126 ☆ नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 126 ☆

☆ ‌आलेख – नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

सुमिरी पवन सुत पावन नामू।

अपने बस करि राखे रामू।।

(रा० च०मानस०)

गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते है कि- नाम स्मरण करते करते हनुमान जी ने भगवान राम को भी अपने बस में कर लिया था और उनके प्रिय अनुचर बन बैठे थे। वहीं पर राम चरित मानस में नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि –

कलियुग केवल नाम अधारा।

सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा।।

के अलावा भी बहुत कुछ लिखा गया है यूँ  तो नाम व्याकरण के अनुसार एक संज्ञा है जिसके बारे में

हिंदी भाषा व्याकरण में पारिभाषित किया गया है कि –   किसी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं।

जिससे  हमें उसकी आकृति, प्रकृति, गुण, स्वभाव तथा प्रभाव का बोध होता है। नाम से ही सबकी पहचान है, यहाँ तक कि  सृष्टि के समस्त प्राणी देव दानव सुर असुर किन्नर गंधर्व मानव सभी अपनी पहचान के लिए नाम के ही मोहताज है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सारी  शक्तियों की सिद्धि में नाम जप ही मूल है। हजारों की भीड़ में पुकारा गया नाम आप आपको भीड़ से अलग कर देता है।

नाम में शक्ति है, नाम में भक्ति है, नाम में ही सार छुपा है, नाम में ही मारण मोहन वशीकरण सब कुछ समाया हुआ है इसकी महिमा अनंत है तभी तो नाम की महिमा से प्रभावित तुलसी दास जी लिखते है कि-

राम न सकहि नाम गुण गाई।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाम की महिमा अगम अगोचर अनंत है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – जपा पर्यावरणाला जपा वसुंधरेला – ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – जपा पर्यावरणाला जपा वसुंधरेला –  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

सूर्याभोवती पृथ्वी करितसे भ्रमण

फाटले की हो ओझोनचे आवरण

मानवा जागा हो सांभाळ पर्यावरण

वृथा होईल तुझी प्राणवायूसाठी वणवण…

झाडे तोडूनी जंगले ओसाडली

पर्जन्यराजाने नाराजी व्यक्त केली

मातीने तर आपली कूस बदलली

वार्‍याने उलट्या दिशेस मान फिरविली…

प्रखर दुपारी झाडांवरी कशी पाखरे गातील ?

गंध घेऊनी झुळूझुळू वारे सांगा कसे वाहतील ?

तार्‍यांचे ते लुकलुकणें तरी कसे पाहतील ?

पिढीतील लेकरे आपुलीच पुढे काय अनुभवतील..?

धरणीमाय तर तुझ्यासाठी आतुर

नको रे करूस तिचे स्वरुप भेसूर

हाती तुझ्याच आहे,रोख प्रदूषण

कर वृक्ष-संवर्धन तेच अमूल्य भूषण…

मनुजा जागा हो..हो तू शहाणा

नको लावूस बट्टा पर्यावरणाला

राखूनी हिरवं रान निसर्गाचं जतन

सांभाळ रे आपुल्या वसुंधरेला..

चल पृथेस हिरवळीने सजवायाला

चल पृथेस हिरवळीने सजवायाला…!!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 84 ☆ गजल – ’’आदमी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “आदमी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 84 ☆ गजल – आदमी…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आदमी से बड़ा दुश्मन आदमी का कौन है ?

गम बढ़ा सकता जो लेकिन गम घटा सकता नहीं।।

हड़प सकता हक जो औरों का भी अपने वास्ते

काट सकता सर कई, पर खुद कटा सकता नहीं।।

बे वजह, बिन बात समझे, बिना जाने वास्ता

जान ले सकता किसी की, जान दे सकता नहीं।।

कर जो सकता वारदातें, हर जगह, हर किस्म की

पर किसी को, मॉगने पर प्यार दे सकता नहीं।।

चाह कर भी मन के जिसकी थाह पाना है कठिन

हँस तो सकता है, मगर खुल कर हँसा सकता नहीं।।

रहके भी बस्ती में अपना घर बनाता है अलग

साथ रहता सबके फिर भी साथ पा सकता नहीं।।

नियत गंदी, नजर पैनी, चलन में जिनके दगा

बातें ऐसी घाव जिनका सहज जा सकता नहीं।।

सारी दुनियाँ में यही तो कबड्डी का खेल है

पसर जो पाया जहां पर, फिर सिमट सकता नहीं।।

कैसे हो विश्वास ऐसे नासमझ इन्सान पर

जो पटाने में है सबको खुद पै पट सकता नहीं।।           

लगाना चाहता हूँ पर कहीं भी मन नहीं लगता

जगाना चाहता उत्साह पर मन में नहीं जगता।।

न जाने क्या हुआ है छोड़ जब से तुम गई हमको

उदासी का कुहासा है सघन, मन से नही हटता

वही घर है, वही परिवार, दुनियाँ भी वही जो थी

मगर मन चाहने पर भी किसी रस में नही पगता।।

तुम्हें खोकर के सब सुख चैन घर के उठ गये सबके

घुली है मन में पीड़ा किसी का भी मन नहीं लगता।।

तुम्हारे साथ सुख-संतोष-सबल जो मिले सबको

उन्हीं की याद में उलझा किसी का मन नहीं लगता।।

अजब सी खीझ होती है मुझे तो जगमगाहट से

अचानक आई आहट का वनज अच्छा नहीं लगता।।

हमेशा भीड़-भड़भड़ से अकेलापन सुहाता है

तुम्हारी याद में चिंतन-मनन में मन नहीं लगता।।

सदा बेटा-बहू का प्यार-आदर मिल रहा फिर भी

तुम्हारी कमी का अहसास हरदम, हरजगह खलता।।

न जाने जिंदगी के आगे के दिन किस तरह के हों

नया दिन अच्छा हो फिर भी गये दिन सा नहीं लगता।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 105 – ही आस जीवनाची ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 105 – ही आस जीवनाची ☆

ही आस जीवनाची सोडू नको अशी।

उर्मी नवी मनाची हरवू नको अशी।

 

येतील वादळे ही झेलीत जा तया।

हा तोल सावराया कचरू नको अशी।

 

दारूण हार येथे चुकली कधी कुणा?

हो सज्ज जिकं ण्याला परतू नको अशी।

 

हेफास पेरलेले गळ लावले जरी।

प्रत्येक पावलांवर दचकू नको अशी।

 

स्पर्धेत खेचणारे आप्तेष्ट ते जनी

घे वेध भावनांचा अडकू नको अशी।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #135 ☆ अभिमानी और स्वाभिमानी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अभिमानी और स्वाभिमानी । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 135 ☆

☆ अभिमानी और स्वाभिमानी ☆

‘अभिमानी और स्वाभिमानी में केवल इतना-सा  फ़र्क़ है कि स्वाभिमानी व्यक्ति कभी किसी से कुछ मांगता नहीं और अभिमानी व्यक्ति किसी को कुछ देता नहीं।’ अहंकार में डूबे व्यक्ति को न तो ख़ुद की ग़लतियाँ दिखाई देती है, न ही दूसरों की अच्छी बातें उसके अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। उसे विश्व मेंं स्वयं से अधिक बुद्धिमान कोई दूसरा दिखाई नहीं देता। वैसे भी छिद्रान्वेषण अर्थात् दूसरों में दोष-दर्शन की प्रवृत्ति मानव में स्वाभाविक रूप से होती है। उसे सभी लोग दोषों व बुराइयों का आग़ार भासते हैं और वह स्वयं को दूध का धुला समझता है। दूसरी ओर जहाँ तक स्वाभिमानी का संबंध है, उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा होता है और वह स्व अर्थात् मैं में विश्वास रखता है और उसका अहं उसे दूसरों के सम्मुख नत-मस्तक नहीं होने देता। उसे प्रभु में आस्था होती है और वह ‘तुम कर सकते हो’ के विश्वास के सहारे बड़े से बड़ा कार्य कर गुज़रता है, क्योंकि उसके शब्दकोश में असंभव शब्द होता ही नहीं है।

‘सफलता हासिल करने के लिए मानव का विश्वास भय से बड़ा होना चाहिए, क्योंकि असफलता का भय ही सपनों के साकार करने में बाधा बनता है। यदि आप भय पर विजय पा लेते हैं, तो आपकी विजय निश्चित् है’ प्लेटो का यह संदेश अत्यंत कारग़र है। यदि हमारा लक्ष्य निश्चित् और हृदय में आत्मविश्वास है, तो कोई भी बाधा आपका पथ नहीं रोक सकती। इसलिए कहा जाता है,’मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।’ हमारा मन ही जय-विजय का कारक है। सो! ‘विजयी भव’ एक सर्वश्रेष्ठ भाव है, जिसके साथी हैं– विद्या, विनय व विवेक। इन मानवीय गुणों के आधार पर हम आपदाओं से मुकाबला कर सकते हैं। विनम्रता सर्वोत्तम गुण है, जो अहंनिष्ठ व्यक्ति के हृदय से कोसों दूर रहता है। इसके लिए वस्तुस्थिति का ज्ञान होने के साथ- साथ यथा-समय लिया गया निर्णय भी हमें सफलता की सीढ़ियों पर पहुंचाता है। दु:ख में धैर्य का बना रहना अत्यंत आवश्यक व सार्थक है।

‘कोई भी चीज़ आपके लिए फायदेमंद नहीं हो सकती, जिसे पाने के लिए आपको आत्म- सम्मान से समझौता करना पड़े।’ मार्क्स ऑरेलियस का यह तथ्य आत्म-सम्मान को सर्वश्रेष्ठ समझ समझौता न करने का सुझाव देता है। सो! समझौता परिस्थितियों से करना चाहिए, आत्म-सम्मान से नहीं, क्योंकि जब उस पर आँच आ जाती है; तो व्यक्ति सिर उठा कर नहीं जी सकता। ऐसी स्थिति में प्रभु शरणागति कारग़र उपाय है। मुझे स्मरण हो रही हैं दुष्यंत की यह पंक्तियाँ ‘कौन कहता है आकाश में सुराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ से हमें यह संदेश मिलता है कि दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं, सिर्फ़ आप में जज़्बा होना चाहिए उस कार्य को अंजाम देने का। ‘राह  को मंज़िल बनाओ, तो कोई बात बने’ में भी यही सोच व भाव निहित है। जब हम दृढ़-संकल्प कर उन राहों पर  निकल पड़ते हैं, तो हमारा मंज़िल पर पहुंचना निश्चित हो जाता है। लाख आँधी, तूफ़ान व सुनामी भी आपके पथ के अवरोधक नहीं बन सकते।

स्वाभिमान व आत्मविश्वास पर्यायवाची हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए इनकी महत्ता को नकारना असंभव है। सो! हमारे हृदय में शंका भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि यह तनाव की स्थिति का द्योतक है, जो हमें पथ-विचलित करता है। भगवद्गीता में भी यही संदेश दिया गया है कि सुख का लालच व दु:ख का भय मानव के अजात शत्रु हैं। यदि मानव भविष्य के प्रति आशंकित रहता है, तो वह वर्तमान के अपरिमित सुखों से वंचित हो जाता है, क्योंकि यही है दु:खों का मूल। व्यक्ति जीवन में अधिकाधिक धन-सम्पदा व पद-प्रतिष्ठा पाना चाहता है, परंतु उसको एवज़ में छोड़ना कुछ भी नहीं चाहता; जबकि संसार का नियम है ‘एक हाथ दे, दूसरे हाथ ले’ अर्थात् जो भी आप इस संसार में देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। वैसे भी आप एक साँस छोड़े बिना बिना दूसरी साँस नहीं ले सकते। यह संसार का नियम है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। केवल सत्कर्म ही उसके साथ जाते हैं। इसलिए मानव हरपल प्रभु का सिमरन तथा समय का सदुपयोग करना चाहिए।

अहंनिष्ठ प्राणी आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझा रहता है। वे उसे अपना गुलाम बनाए रहती हैं। उसके कदम धरा पर नहीं टिकते। वह केवल दूसरों की भावनाओं को आहत नहीं करता, बल्कि अपना जीवन भी नरक बना लेता है तथा आजीवन इसी उधेड़बुन में खोया रहता है। डॉ वसुधा छवि का यह कथन भी इस तथ्य की सार्थकता सिद्ध करता है कि ‘जब व्यक्ति के पास पैसा होता है, तो वह भूल जाता है कि वह कौन है और जब पैसा नहीं होता, तो लोग भूल जाते हैं कि वह कौन है,’ यही जीवन का कटु यथार्थ है। धन-लिप्सा उसे अपने शिकंजे साथ बाहर नहीं निकलने देती और वह इस भ्रम में अपने जीवन के प्रयोजन को भुला बैठता है। मानव स्वार्थी है और संसार व संबंध मिथ्या। मानव केवल स्वार्थ साधने हेतू संबंध साधता है और उसके पश्चात् उसे भुला देता है। इतना ही नहीं, वह माया महा-ठगिनी के मायाजाल में आजीवन उलझा रहता है और लख चौरासी से मुक्त नहीं हो सकता।

सहारे मानव को खोखला कर देते हैं और उम्मीदें कमज़ोर। मानव को अपने बल पर जीना प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि उसका आपसे अच्छा साथी व हमदर्द कोई दूसरा नहीं हो सकता। वैसे भी ‘मंज़िलें बड़ी जिद्दी होती हैं/ हासिल कहाँ नसीब से होती हैं/ मगर तूफ़ान भी वहां हार जाते हैं/ जहां कश्तियां ज़िद पर होती हैं।’ जी हां! यदि मानव का हृदय साहस व धैर्य से लबालब है, तो तूफ़ान भी रुक जाते हैं और व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ सिद्ध होता है। जब मन रूपी कश्ती ज़िद पर होती है, तो तूफ़ानों को अपने रास्ते से हट जाना पड़ता है, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी नहीं ठहर नहीं सकता। मानव को न तो किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न ही उम्मीद रखनी चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां उसके मनोबल को तोड़ती हैं। मानव स्वयं अपना साथी व हमदर्द है। इसलिए जीवन में अपेक्षा व उपेक्षा को त्याग कर जीवन पथ पर बढ़ते जाना चाहिए, अन्यथा यह मानव को अवसाद की स्थिति में ले जाती है। मानव को अहं को शत्रु समझ अपने आसपास नहीं आने देना चाहिए और आत्मविश्वास को धरोहर सम संजोए रखना चाहिए, क्योंकि आत्मविश्वास के बल पर आप असंभव कार्य को भी कर गुज़रते हैं। इसलिए आत्मसम्मान से कभी भी समझौता न करें, क्योंकि जिसमें आत्मविश्वास है, वह सिर उठाकर जीता है; किसी के सम्मुख घुटने नहीं टेकता और न ही नतमस्तक होता है। सो! अभिमानी नहीं;  स्वाभिमानी बनें और अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा को क़ायम रखें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #134 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 134 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मन से मन तो मिल रहा, ओ प्यारे मनमीत।

मन ही मन में गूंजता, तेरा अपना गीत।।

 

मिलते ही मन मिल गए, ओ प्यारे मनमीत।

सांस सांस में बज उठा, प्रेम प्यार का गीत।।

 

पारिजात के वृक्ष का, होता ही उपयोग।

योगी सदा बता रहे, इसका योग प्रयोग।।

 

बारिश होती झूमकर, झरने लगे प्रपात।

मिलते ही आनंद में, खुश होती बरसात।।

 

गरमी कैसी बढ़ रही, उगल रही अंगार।

धरती व्याकुल हो रही, कर दो अब उद्धार।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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