हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆ आलेख – चौथी सीट… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “चौथी सीट“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆

✍ आलेख – चौथी सीट… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

छिहत्तरवेंं गणतंत्र दिवस के अवसर पर छिहत्तर वर्ष की आयु में जब पुणे में नई नवेली सी मेट्रो में स्वारगेट स्टेशन से संत तुकाराम नगर स्टेशन जाने के लिए सवार हुआ तो कोच में घुसते ही सामने की लंबी सीट पर और फिर उसके सामने की सीट पर एकदम नजर गई जो शायद खचाखच भीड पर ध्यान दिए बिना आखरी सीट ढूंढ़ रही थी।  मेट्रो में आमने सामने की सीट पर एक ओर छह और दूसरी और सात यात्री बैठे थे। सात यात्रियों में एक यात्री तीसरे नंबर पर ठुसा हुआ था।

यह देखकर मेरे अंदर एक मुस्कान ने दस्तक दी और कहने लगी कि भूल गए चवालीस-पैंतालीस साल पहले बंबई (अब मुंबई) लोकल में जैसे तैसे घुसके चौथी सीट ढूंढ़ा करता था। हालांकि तब उम्र इक्कीस बत्तीस होने पर एकाध घंटे खड़े होने की ताकत थी, फिर भी तीन सीट वाली सीट के कोने पर जैसे तैसे बैठने के अभ्यास ने चौथी सीट  का निर्माण कर दिया। चौथी सीट का दर्जा कैसे मिला किसने दिया, यह तो शोध का विषय है लेकिन है सत्य। तीन सीट वाली एक ही लंबी सीट पर चार लोग बैठते थे और यह सर्वमान्य था। एक सीट पर यदि तीन लोग नियमानुसार बैठे हैं और आप खडे़ हैं तो कोने पर बैठा तीसरा यात्री थोड़ा बहुत हिलडुलकर और दूसरे व पहले यात्री को हिलने डुलने का इशारा करके चौथी सीट बना कर आपके लिए जगह बना दिया करता था। यहाँ जान पहचान का कोई सवाल नहीं था। हाँ एक बात और अगर तीसरी सीट पर कोई महिला बैठी हो तो चौथी सीट का निर्माण नहीं होता था। कोई आग्रह भी नहीं करता था।

पुणे मेट्रो में सातवीं सीट के निर्माण की संभावना नहीं दिखाई देती। क्योंकि, मुंबई लोकल में यदि आप कल्याण से वीटी (अब सीएसटीएम) के लिए बैठे हैं और चौथी सीट भी न मिलने पर कोच के अंदर दो सीटों पर बैठे यात्रियों के बीच में पहुंच जाते थे तो आधे पौने घंटे के अंतराल पर पहला, दूसरा या तीसरा यात्री, इनमें से कोई भी व्यक्ति खड़ा हो कर आपसे थोड़ी देर बैठने का अवसर देकर राहत प्रदान करता था। यदि आपकी जगह कोई वृद्ध व्यक्ति अंदर तक आ गया हो तो कोई न कोई अपनी सीट से खड़े होकर उनको बैठने के लिए अपनी सीट दे दिया करता और स्वयं खड़ा रहता। जहाँ तक मुझे याद है उस समय ज्येष्ठ या वरिष्ठ नागरिक कोई अलग इकाई नहीं थी और लोकल में उनके लिए आरक्षित सीट भी नहीं थी परंतु वृद्धों को अलिखित, अकथित सम्मान व सुविधा स्वतः मिलती थी । इसी प्रकार महिलाओं का भी ध्यान रखा जाता था। लोग सीट से खडे होकर उनको बैठने की जगह दे दिया करते थे। आज भी ऐसा ही होता होगा। पर पुणे मेट्रो में ऐसा होगा, यह उम्मीद की जा सकती है। मेट्रो में गाड़ी की दीवार के किनारे पर सीट है जिस पर छः व्यक्ति बैठ सकते हैं और बाकी जगह खड़े रहने के लिए है। नियम कायदे अपनी जगह और सामाजिक दायित्व, बड़ों का लिहाज -खयाल, महिलाओं के प्रति सहानुभूति अलग बात है। लोकल में व्यक्ति नहीं इंसानियत दौड़ती थी, आज भी दौड़ती होगी और पुणे मेट्रो में भी दौड़ेगी। चौथी नहीं, सातवीं सीट का दर्जा भी शायद पैदा हो जाएगा।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हम तो गुलाम हैं…।)

☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज क्या बात है सोहन तुमने जल्दी दुकान को साफ कर दिया? सारी चीज अच्छे से जमा दिया और सफेद, ऑरेंज, हरे रंग के गुब्बारे से पूरी दुकान को सजा दिया। शाबाश बहुत बढ़िया किया।

भैया मैंने बहुत अच्छा काम किया इसके बदले में आज मैं शाम को 4:00 बजे जल्दी छुट्टी करके घर जाना चाहता हूं।

दुकान के मालिक किशोर ने कहा – वह तो मैं समझ गया था कि इतने काम करने के पीछे कुछ न कुछ मतलब होगा ।

सुनो, छुट्टी तो तुम्हें 7:00 बजे ही मिलेगी। अभी मैं दुकान का सामान लेकर पास में जो परेड ग्राउंड है वहां पर जा रहा हूं। बड़े-बड़े लोगों ने बुलाया है और जल्दी-जल्दी गिफ्ट पैक करो वहां पर सबको खेलकूद के लिए उपहार दिए जाएंगे।

भैया जब आप आओगे तब मैं चला जाऊंगा?

तुमने भी क्या छोटे बच्चों की तरह रट लगाकर रखी है। मैंने कहा जल्दी नहीं जाना है। ज्यादा बकवास करोगे तो रात में 10:00 ही जाने दूंगा।

ठीक है भैया सामान पैक करके उसने गाड़ी में रख दिया।

अपनी पत्नी और बच्चों को फोन किया कि तुम लोग जाओ घूम कर आओ मैं नहीं आ सकता। दुकान के मालिक भी परेड ग्राउंड गए हैं। शाम को 7:00 बजे छुट्टी देने के लिए भैया ने बोला है। फिर हम लोग एक साथ बाहर खाना खाने चलेंगे। आज तुम बच्चों के साथ घूम के आ जाओ। कुछ सामान बच्चों को दिला देना।  मैंने कुछ पैसे बच्चों के अकाउंट में डाल दिये हैं। बिटिया सुमन ऑनलाइन पेमेंट कर देंगी। कम से कम तुम लोग तो मजा करो मेरी मजबूरी को समझो।

तभी बिटिया सुमन ने फोन लेकर कहा कि ठीक है पापा हम लोग शाम को इकट्ठे खाना खाने चलेंगे। आप हमारी चिंता मत करो।

ठीक है बेटा ध्यान से जाना। सोहन दुकान में बैठे-बैठे सोचने लगता है। देश आजाद हो गया संविधान लागू हो गया। लेकिन हम गरीबों को कभी आजादी नहीं मिलेगी। जब तक जीवन है काम करना पड़ेगा। घूमना फिरना तो बड़े रईसों का काम है। हमारे लिए कैसा जश्न?  हम तो गुलाम  हैं

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 258 ☆ एक उनाड दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 258 ?

☆ एक उनाड दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

वयाच्या या टप्प्यावर…

वाटते फिरता येईल तोवर,

मुक्त फिरून घ्यावे,

सुख घ्यावे आणिक द्यावे !

 *

सोबती असाव्या—

आमच्याच पोरी बाळी,

आधारासाठी लागलाच जर,

हात द्यावा त्यांनी ऐनवेळी!

 *

प्रत्येक पिढीचे असते,

जगणे निश्चितच वेगळे

साधावा संवाद तरूणाईशी,

सांगावे शल्य मनीचे सगळे !

 *

 आजचा दिवस असाच,

उनाड होता—-

मस्त रेस्टॉरंट मधे भेटलो,

रुचकर जेवणासह, बोललो !

 *

अख्खा दिवस बरोबर असता,

 आलेली मरगळ गेली निघून

सऱ्याजणींच्या मनी आता

पुनर्भेटीची मंजुळ धून !

 *

या उनाड दिवसाने

सांगितले बरेच काही,

आला क्षण मस्त मानावा

उद्याचे काय? माहित नाही !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 223 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 223 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे… 

अपनाया नहीं

किया है

तुम्हारा

उपयोग, उपभोग

और

दोहन!

माना कि

पितृ इच्छा का

किया सम्मान

तुमने,

बनीं

आज्ञाकारिणी

किन्तु

किस मूल्य पर ?

स्त्रीत्व के

विसर्जन के

नाम पर

माधवी ।

और हाँ !

तुम्हारा कवच

वेद ऋषि का वरदान,

ऐसा ही कवच

दिया था

पाराशर ने

सत्यवती को ।

(तुमने

स्वयं

रहस्योदघाटित किया था )

क्या

तुम्हारे मन में भी

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 223 – “हँसे लगे वीणा को छेड़ा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत हँसे लगे वीणा को छेड़ा...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 223 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “हँसे लगे वीणा को छेड़ा...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

यह है वह दीवार रही

थी जिसमें खिड़की ।

खिडकी में दुवली-पतली

सी बादल- लड़की ॥

 

बारबार खिड़की में

जो आया करती भी ।

हर दिन बिन बरसात

बरस जाया करती थी ।

 

बुझते दिये सरीखी

लौ लहराया करती –

वैसे तो वह रानी थी

रौशन इस गढ़ की ॥

 

बूँदों बूँदों में झरती

मोती माला सी ।

कभीकभी होतीओझल

ज्यों मधुबाला सी ।

 

वह मधुमास लिये

बैजंती और कुमुदनी –

ले पूजा करती है

घर की बेटी बड़की ॥

 

हँसे लगे वीणा को छेड़ा

अल्हड़ पन में ।

पुष्पराग बो दिया

देवता ने दरपन में ।

 

जहाँ परावर्तित होती

छवि तन – मौसम की।

लगे शिराओं में जीवन

की आशा धड़की ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-01-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

राजेंद्र तिवारी “ऋषि”

☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ ☆

☆ “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

विषम परिस्थितियों के बीच भी परिहास करने वाले, जिनके मुख मंडल पर शांति और मुस्कान का स्थाई वास था, गौर वर्ण, ऊंचे कद, सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी कविवर प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” अच्छे कवि और लोकप्रिय शिक्षक थे। लोग उनकी हाजिर जवाबी के कायल रहते थे। किसी भी विषय / प्रसंग पर तुरंत कविता का सृजन कर लेना उनके लिए सहज कार्य था। उन्होंने प्रारंभिक सृजन काल में देशभक्ति, सामाजिक विसंगतियों, राजनीति, भ्रष्टाचार, धर्म – आध्यात्म आदि विविध विषयों पर तुकांत – अतुकान्त कविताओं का सृजन किया जिसे उनके विशिष्ट प्रस्तुतिकरण के कारण श्रोता – दर्शकों द्वारा बहुत पसंद किया गया। उन्होंने कवि गोष्ठियों/ सम्मेलनों में हमेशा मंच लूटा। उनकी कविताएं – “रुपयों का झाड़”, आंसुओं को बो रहा हूं”, ओ आने वाले तूफानों” और “पंडित, झूठी है चौपाई” आदि अत्यधिक पसंद की गईं। बाद में उन्होंने धर्म – आध्यात्म पर प्रवाहपूर्ण सहज सृजन किया जिसे बहुत पसंद किया गया।

प्रो. राजेन्द्र तिवारी जी का जन्म 9 सितंबर 1944 को हुआ था। इनके पिता देवी प्रसाद जी जबलपुर की पाटन तहसील के ग्राम जुग तरैया के मालगुजार थे। कुशाग्र बुद्धि राजेंद्र जी ने प्रारंभिक अध्ययन गांव में ही किया किंतु उनकी ज्ञान पिपासा उन्हें जबलपुर ले आई। यहां इन्होंने हिंदी और इतिहास में एम. ए. तथा एम.एड. किया। जबलपुर में ही रह कर अपने ज्ञान को लोगों में वितरित करने की बलवती भावना के कारण इन्होंने हितकारिणी महाविद्यालय में अध्यापन प्रारंभ कर दिया। आप बीएड कालेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। किशोर अवस्था से ही ऋषि जी कविता लिखने लगे थे। अनुभव से काव्य लेखन परिपक्व होता चला गया और आप चहुं ओर एक अच्छे कवि के रूप में पहचाने गए। “इक्कीसवीं सदी की ओर चलें”, “आपा”, “क्या कर लेगा कोरोना” और “श्रीकृष्ण काव्य” उनकी चर्चित कृतियां हैं।

“कृष्ण काव्य” की रचना में उन्होंने अलग अलग छंदों का प्रयोग किया है। अलंकारों का सौंदर्य तो देखते ही बनता है –

नज़रों पै चढ़ी ज्यों नटखट की,

खटकी – खटकी फिरतीं ललिता

कछु जादूगरी श्यामल लट की,

लटकी – लटकी फिरतीं ललिता

भई कुंजन में झूमा झटकी,

झटकी – झटकी फिरतीं ललिता

सर पै रखके दधि की मटकी,

मटकी – मटकी फिरतीं ललिता

और गोपियां निश्छल भाव से कान्हा से कहती हैं –

हम सांची कहैं अपनी हूँ लला,

हम आधे – अधूरे तुम्हारे बिना

मनमंदिर मूर्ति विहीन रहे,

रहे कोरे – कंगूरे तुम्हारे बिना

गोपियां कृष्ण को सिर्फ कान्हा के रूप में ही स्वीकार करते हुए कहती हैं –

तुम ईश रहौ, जगदीश रहौ,

हमें कुंज बिहारी सौं ताल्लुक है

हमको मतलब मुरलीधर सौं,

हमको गिरधारी सौं ताल्लुक है

शिक्षाविद्, साहित्यकार डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी लिखते है कि “प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” उस साहित्य – सर्जक पीढ़ी के कवि हैं जिसने बीसवीं एवं इक्कीसवीं दोनों शताब्दियों की संधिबेला की साहित्यिक प्रवृत्तियों को पनपते, पुष्पित और फलित होते हुए देखा है।

महाकवि आचार्य भगवत दुबे के अनुसार ऋषि जी अपनी छांदस प्रतिभा की अनूठी एवं मौलिक छवि छटाओं से श्रोताओं को सर्वदा मंत्र मुग्ध करते रहे। दर्शनशास्त्री एवं साहित्यकार डॉ.कौशल दुबे के अनुसार “द्वापरयुगीन कृष्ण और उनसे जुड़े पात्रों को वर्तमान परिवेश के अनुरूप आज की प्रवृत्तियों और भाषा के अनुरूप ढालकर प्रो. ऋषि ने हिंदी साहित्य को एक महनीय और उच्चकोटी के साहित्य की सौगात दी है। बुंदेली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के सुप्रसिद्ध विद्वान स्मृति शेष डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के  अनुसार कवि राजेंद्र सर्वत्र ही नैतिकता को अपना टिकौना बना कर चले हैं। मानव प्रज्ञा ने सौंदर्य बोधक स्तरों को संतुलित रखने का कार्य किया है। यह संतुलन वाह्यारोपित न होकर आत्म नियंत्रित है। अंतर्मन की संवेदनशीलता कवि के रक्त गुण के रूप में प्रकट होकर अभिव्यक्ति को ग्राह्य बनती है।

प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” ने “मध्यप्रदेश आंचलिक साहित्यकार परिषद” का गठन कर ग्रामीण अंचल के साहित्यकारों को जोड़ने और  उनकी प्रतिभा को लोगों के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में यह संस्था सक्रिय है। इसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक साहित्यकारों को हिंदी साहित्य जगत में उचित स्थान और सम्मान प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ साहित्य सृजन के साथ – साथ ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली साहित्य साधकों को प्रकाश में लाने के लिए प्रो.राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” सदा याद किए जाएंगे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 206 ☆ # “जय संविधान…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जय संविधान…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 206 ☆

☆ # “जय संविधान…” # ☆

जीने का महामंत्र है

प्रशासन का अचूक तंत्र है

हर आंख का सपना है

सबसे अलग अपना गणतंत्र है

 

खत्म हो गई पेशवाई

चली गई श्रीमंत शाही

नियंत्रित हो गई बेबंदशाही

तब आई है लोकशाही

 

हर चेहरे पर नई उमंग है

हर दिल में नई तरंग है

तम की काली रात ढल गई

नई सुबह में खुशियों के रंग है

 

खिले हुए हैं बगिया के फूल

दूर हो गई परतंत्र की धूल

भ्रमर पराग लूटा रहे हैं

चाहे फूल हो या हो शूल

 

सजे हुए हैं यह कार्यालय

राष्ट्रगीत बजाते यह विद्यालय

परेड करती यह नव पीढ़ी

उनके हौसलों के आगे नतमस्तक है ऊंचा हिमालय

 

कुछ संकीर्ण विचार वालों ने उठाया यह बेड़ा है

आस्थाओं के नाम पर कह रहे हैं कि यह टेढ़ा है

परिवर्तित करने इस महाग्रंथ को

एक अघोषित युद्ध छेड़ा है

 

यह जंग अब हमको लड़नी होगी

इन कुत्सित इरादों पर पाबंदी जड़नी होगी

जन-जन में अलख जगा कर

उनके चेहरे पर कालीख मढ़नी होगी

 

अब तक परतंत्र का जहर बहुत पीया है

गुलामी का जीवन बहुत जीया है

हम सब हैं इंसान बराबर

गणतंत्र ने अधिकार सबको दिया है

 

इसमें बसते हैं जनता के प्राण

इससे है हम सब का सम्मान

यह है हर भारतवासी की शान

गर्व से बोलो जय संविधान /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बचाओ मानवता को… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता बचाओ मानवता को।)

☆ कविता – बचाओ मानवता को… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

निःशब्द हूं, आहत हूं,

सोच पर, दुष्कृत्य पर,

शर्मसार हुई मानवता,

कराह उठी मानवता,

फिर वही चेहरे,

फिर वही लोग,

स्थान बदल गया,

नाम बदल गया,

चिता नहीं जली,

संस्कार जल गए,

रिवाज जल गए,

मुखोटे जल गए,

पर जला नहीं अहंकार,

क्रूरता, वीभत्सता,

हम किस दिशा में चलने लगे हैं,

यही सभ्यता है,

यही सभ्य समाज है,

कुछ कमी रह गई परवरिश में,

 संस्कार नहीं दे पाए बच्चों को,

संस्कारित नहीं बना समाज,

बहुत हो चुका, दंभ को त्यागो,

अस्वीकृति में हाथ उठाओ,

विरोध में खड़े रहो,

ऐसे दुष्कृत्य ना हों,

बचाओ मानवता को.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 200 ☆ भारत मातेचा जयघोष…  ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 200 ? 

☆ भारत मातेचा जयघोष … ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(मुक्त कविता…)

 देशाचा सण साजरा होतो आहे

स्मरणीय गणतंत्र दिन आज आहे.!!

 *

स्वातंत्र्य ज्योत हृदयात प्रज्वलित आहे

ध्वजाच्या रंगांनी देश उजळतो आहे.!!

 *

शूर वीरांचे बलिदान आम्ही जपतो आहे

त्यांच्या त्यागाने हा देश घडतो आहे.!!

 *

संविधानाचा मंत्र आम्हाला सांगत आहे,

लोकशाहीचा अधिकार सर्वांचाच आहे.!!

 *

गर्वाने पुन्हा कविराज म्हणतो आहे.

भारत मातेचा जयघोष आज आहे.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “नेक्सस” – लेखक : युवाल नोआ हरारी — अनुवाद : श्री प्रणव सखदेव – परिचय : डॉ. सतीश श्रीवास्तव ☆ प्रस्तुती – श्री हर्षल भानुशाली ☆

श्री हर्षल भानुशाली

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “नेक्सस” – लेखक : युवाल नोआ हरारी — अनुवाद : श्री प्रणव सखदेव – परिचय : डॉ. सतीश श्रीवास्तव ☆ प्रस्तुती – श्री हर्षल भानुशाली ☆ 

पुस्तक : नेक्सस

(‘नेक्सस: अश्मयुगापासून आर्टिफिशियल इंटेलिजन्सपर्यंत… माहितीच्या जाळ्यांचा संक्षिप्त इतिहास ‘) 

लेखक : युवाल नोआ हरारी

अनुवाद: श्री प्रणव सखदेव 

पृष्ठे : ४६४

मूल्य : ५००₹ 

‘होमो सेपियन’ आणि ‘होमो डियस’ या जगप्रसिद्ध पुस्तकांचे लेखक आणि इतिहासकार युवाल नोआह हरारी यांचे ‘नेक्सस: ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ इन्फॉर्मेशन नेटवर्क फ्रॉम द स्टोन एज टू एआय’ हे पुस्तक सध्या गाजते आहे. या निमित्ताने कृत्रिम बुद्धिमत्तेने (एआय) मानव जातीसमोर उभ्या केलेल्या धोक्याची चर्चा जगभर सुरू झाली आहे. हा धोका कशा स्वरूपाचा आणि किती व्यापक आहे याची तपशीलवार चिकित्सा ‘नेक्सस’ मध्ये हरारी यांनी केली आहे. इतिहासातील आणि आधुनिक काळातील असंख्य उदाहरणे, संदर्भ आणि पुरावे देत मानवी अस्तित्वाचा भविष्यातील धोका ओळखणारे ‘नेक्सस’ हे पुस्तक आहे. ‘एआय’मुळे मानवी अस्तित्वाच्या खुणा पुसल्या जाऊ शकतात, हा केवळ कल्पनाविलास नव्हे. मानवी जीवनाला कशा प्रकारे धोका पोहोचू शकतो यासंबंधीची ही विज्ञानावर आधारित मीमांसा आहे. २०२३ मध्ये अमेरिका, ब्रिटन, चीनसह ३० देशांच्या सरकारांनी ब्लेकली घोषणापत्रात ‘एआय’ मुळे जाणता अजाणता महाभयंकर धोका उद्भवू शकतो हे मान्य केले आहे. हरारी यांच्या मते सोव्हिएत रशिया आणि त्याची अंकित राष्ट्रे व अमेरिका आणि इतर युरोपियन राष्ट्रे यांच्यामध्ये शीतयुद्धाच्या काळात ज्याप्रमाणे पोलादी पडदा (आयर्न कर्टन) होता त्याचप्रमाणे जगातील राष्ट्रांमध्ये नजीकच्या भविष्यकाळात सिलिकॉन पडदा (सिलिकॉन कर्टन) निर्माण होऊ शकतो. ‘एआय’च्या संशोधनातून अशी स्वयंचलित डिजिटल शस्त्रे निर्माण होऊ शकतात, ज्यामुळे जगाचा विध्वंस होऊ शकतो.

मानवी इतिहासात प्रथमच माणसाकडे असणारी सत्ता ‘एआय’ कडे हस्तांतरित झालेली आहे. कारण ‘एआय’आधारित स्वयंप्रज्ञा स्वत:च निर्णय घेऊ शकते. कॉम्प्युटर अल्गोरिदम जर माणसांसाठी निर्णय घेत असेल तर ती निश्चितच धोकादायक गोष्ट आहे असे हरारी म्हणतात. त्यातच, अनेक देशांमध्ये लोकानुरंजन करणाऱ्या नेत्यांचा उदय झालेला आहे. अशा नेत्यांच्या बाबतीत वस्तुनिष्ठ तथ्य किंवा सत्य असे काही नसते, तर ते जे सांगतील तेच सत्य असते. त्यांच्या दृष्टीने सत्ता हेच सत्य (पॉवर इज रिअॅलिटी) असते. लोकशाहीतील मूलभूत तत्त्वांचे पालन करण्याऐवजी लोकानुरंजनातून सर्वशक्तिमान होण्याच्या प्रयत्नात वाढ झालेली आहे असे हरारी नमूद करतात. सत्ता मिळविण्यासाठी जेव्हा माहितीचा उपयोग केला जातो तेव्हा सत्य किंवा तथ्य भ्रमित करणारे असते. ‘सत्य’ म्हणवला जाणारा मजकूर हे ‘नेमके कुणाच्या बाजूचे सत्य’ आहे असा प्रश्न यातून निर्माण होतो हे स्पष्ट करून हरारी असा निष्कर्ष काढतात की दोन विचारधारांमधील संघर्ष हा प्रामुख्याने दोन माहितीजालांचा संघर्ष असतो. ‘होमो सेपियन’ याचा अर्थ ‘शहाणा माणूस’ असा होतो. परंतु या अभिधानास माणूस खरोखरच पात्र आहे काय असा सवाल हरारी विचारतात. गेल्या एक लाख वर्षाच्या इतिहासात माणसाने अनेक शोध लावले आणि इतर कुठल्याही प्रजातीपेक्षा श्रेष्ठ अशी ज्ञानात्मक सत्ता प्राप्त केली. स्पर्धा, युद्धे आंतरराष्ट्रीय तणाव, पर्यावरणाची हानी, सत्तालालसेतून निर्माण होणारी एकाधिकारशाही, मानवी अस्तित्वापुढे प्रश्न निर्माण करणारे तंत्रज्ञान असे अनेक प्रश्न जर निर्माण होत असतील तर माणूस शहाणा आणि ज्ञानी कसा म्हणता येईल. ‘नाझीवाद’ आणि ‘स्टॅलिनवाद’ अशी अलीकडची मानवी मूर्खपणाची उदाहरणे हरारी नमूद करतात. ग्रीक व रोमन साम्राज्यापासून अलीकडच्या काळातील निरंकुश सत्तेची अनेक उदाहरणे व दाखले देत हरारी हे स्पष्ट करतात की सत्ताकांक्षा असणारे लोक तंत्रज्ञानाला गुलाम बनून सर्वंकष सत्ता निर्माण करण्याचा प्रयत्न करतात. स्वाभाविकच यात मानवी मूल्यांची (स्वातंत्र्य, समता, बंधुता यांची) आहुती पडते. वस्तूचा ब्रँड ज्याप्रमाणे तयार केला जातो त्याचप्रमाणे एखाद्या व्यक्तीचाही ब्रँड माहिती तंत्रज्ञानातील तज्ज्ञांकडून तयार केला जातो. समाजमाध्यमातील त्या व्यक्तीचे किंवा ब्रँडचे अनुयायी त्या ब्रँडच्या इमेजशी स्वत:ला जोडतात. माहिती तंत्रज्ञानाचा उपयोग दोन प्रकारे केला जातो हे हरारी स्पष्ट करतात. एक म्हणजे माहितीचा उपयोग करून सत्य जाणून घेणे. उदाहरणार्थ आरोग्य, औषधे, हवामान, अणु, रेणू इत्यादींची माहिती मिळविण्यासाठी आणि दुसरे म्हणजे लोकांवर नियंत्रण निर्माण करण्यासाठी खोटी कथानके (फेक नॅरेटिव्ह) गोष्टी निर्माण करण्यासाठी!

‘नेक्सस’ च्या पाचव्या प्रकरणात लोकशाही आणि एकतंत्री राजवट याचे मूलगामी विवेचन करताना, दोन्ही राज्यपद्धतीमध्ये माहितीची वाहतूक कशी परस्परविरोधी असते याचा मागोवा हरारी घेतात. सत्ताधाऱ्यांकडची माहितीच निरंकुश आणि सर्वश्रेष्ठ अशी धारणा हुकूमशाहीत असल्याने, दुरुस्त करण्याची यंत्रणा हुकूमशाहीत नसते. याउलट लोकशाहीमध्ये माहितीचे वितरण करणारी आणि ती दुरुस्त करणारी यंत्रणा आपसूकच कार्यरत असते; कारण सरकारांशिवाय माहितीचे इतर अनेक स्राोत उपलब्ध असतात उदाहरणार्थ संसद किंवा सिनेटसारखी प्रतिनिधी गृहे, राजकीय पक्ष, न्यायालय, वृत्तपत्रे, सेवाभावी संस्था, दबावगट इत्यादी. त्यामुळे लोकशाहीत लोक स्वतंत्रपणे निर्णय घेऊ शकतात. ही स्वायत्तता हे लोकशाहीचे मूल्य आहे. त्यात हस्तक्षेप केल्यास लोकशाहीचा आत्माच हरवतो आणि असे झाल्यास अनियंत्रित सत्ता अस्तित्वात येण्याचा धोका निर्माण होतो. त्यामुळे ‘माहितीचे नियंत्रण करणारी आणि आपसूक दुरुस्तीची यंत्रणा नसणारी राज्य पद्धती म्हणजे हुकूमशाही’ अशी हुकूमशाहीची हरारी व्याख्या करतात. निवडणुका हा लोकशाहीचा एकमेव निकष नव्हे. जगातील अनेक हुकूमशहा लोकशाहीच्या मार्गाने सत्तेत येतात, याची आठवण देऊन तुर्कीचे अध्यक्ष एर्दोगान यांचे एक वाक्य हरारी उद्धृत करतात- ‘‘लोकशाही ही एखाद्या ट्रामसारखी आहे. तुमचं इच्छित स्थळ आल्यावर त्यातून तुम्हाला उतरायचं असतं. ’’

अश्मयुगात मानवांच्या टोळ्यांमध्ये माहितीचे चलनवलन सहज शक्य होते. शंभर ते हजारपर्यंत या टोळीमध्ये लोक असत. पंधराव्या शतकात छपाई तंत्रज्ञान आले आणि सोळाव्या शतकात वृत्तपत्रे प्रसिद्ध होऊ लागली. युरोप व अमेरिकेत लोकांची मते, इच्छा, अपेक्षा, विरोध निर्माण करण्याचे माध्यम निर्माण झाले. अर्थात तुलनेने वृत्तपत्र वाचणाऱ्यांचे प्रमाण त्या काळात कमी होते. मध्ययुगीन कालखंडात राजांच्या हाती निरंकुश सत्ता असली तरी लोकांवर नियंत्रण ठेवण्याचे तंत्रज्ञान उपलब्ध नव्हते. राजाचे प्रशासन ही कालापव्यय करणारी बाब होती. तसेच लोकांच्या प्रतिक्रिया राजापर्यंत पोहोचण्यासही बराच कालावधी लागत असे. प्रशासन करणे हे कठीण काम होते, यामुळे कर आणि सैन्य यावर त्या काळात अधिक लक्ष केंद्रित केले जात असे.

माहिती तंत्रज्ञानाची प्रेरक शक्ती संगणक आहे. मात्र संगणकीय प्रगतीच्या ‘एआय’ टप्प्यावर, स्वत: निर्णय घेतो आणि नवीन संकल्पनांची निर्मिती करणे या दोन महत्त्वाच्या मानवी शक्ती माणसाकडून ‘एआय’कडे गेल्या आहेत. गैरसमज पसरविणारे अल्गोरिदम यातून निर्माण झाले. यासाठी ते म्यानमार मधील फेसबुकवरील खोट्या बातम्यांचा दाखला देतात. सर्वाधिक चर्चा असणारी आणि बघितली जाणारी बातमी अल्गोरिदममुळे वारंवार बघण्यासाठी सुचविली जाते. यूट्यूब आणि गूगलचा वापर करताना हे नेहमी अनुभवास येते. म्हणजे काय बघायचे हे लोक नव्हे तर अल्गोरिदम ठरवते. समाजमाध्यमाचा वापरकर्त्यांनी अधिकाधिक काळ वापर केल्यास त्यांच्याबाबत अधिक माहिती गोळा करता येणे शक्य होते. या दृष्टीने लोकांना अधिकाधिक गुंतवून ठेवणारे अल्गोरिदम तयार केले जातात..

सर्व वित्तीय व्यवहारांचे अलीकडच्या काळात संगणकीकरण झालेले आहे. सर्व वित्तीय साधने डिजिटल झालेली आहेत. करांचे रिटर्न्स भरणे, तपासणे, कर भरणा हे सर्व संगणकाद्वारे होत आहे. त्रुटी असल्यास संगणकच निर्णय घेतो, म्हणजेच माणसांकडून माणसांकडे माहितीचे प्रसारण न होता ते संगणक ते संगणक असे होत आहे. माणसांच्या साखळीत २४ तास काम करणारा संगणक आता जोडला गेल्याने, माणसाच्या प्रत्येक व्यवहारावर आणि हालचालीवर लक्ष ठेवून माहिती गोळा करणेही संगणकाला शक्य झालेले आहे. माणसांवर नियंत्रण ठेवण्याचे अमर्याद अधिकार माणसाच्या नकळत संगणकाकडे जात आहेत.

महत्त्वाच्या सर्व विषयांवर मुक्त सार्वजनिक संवाद आणि त्यातून सहमती ही लोकतांत्रिक व्यवस्था आहे. परंतु सार्वजनिक हिताच्या चर्चेत आता मानवी नसलेल्या संसाधनाचा प्रवेश झालेला आहे. समाजमाध्यमांत ‘चॅट जीपीटी’चा कोलाहल वाढला आहे. २०१६ च्या अमेरिकेतील निवडणुकीत वीस दशलक्ष ट्विटस चॅट बॉटने निर्माण केलेले होते. अध्यक्षपदी कोणाची निवड व्हावी अशी चर्चा होत असताना बहुसंख्य मते जर संगणकाद्वारे तयार होत असतील तर याचा परिणाम किती घातक होऊ शकतो याची कल्पना केलेली बरी. माणसा-माणसांच्या संवादाशिवाय आता ‘एआय’ संचलित यंत्राचाही सार्वजनिक क्षेत्रात आवाज असेल. ट्विटरवरील ‘बॉट’निर्मित रेडिमेड भाष्ये हे त्याचे उदाहरण आहे. यातून डिजिटल अराजक (डिजिटल अॅनार्की) निर्माण होऊ शकते. व्यक्तीची मते ‘एआय’बदलू शकतो. भरकटवणारी माहिती, खोट्या बातम्या यातून लोकशाही पद्धती धोकादायक वळणावर उभी आहे असे हरारींना वाटते. तर्क, विवेक, न्याय दूर सारून जर विद्वेष, खोटी माहिती पसरत असेल तर लोकशाहीच्या भवितव्याबाबत प्रश्नचिन्ह निर्माण होते. यातून हरारी असा निष्कर्ष काढतात की जर लोकशाहीचा पराभव झाल्यास त्यास तंत्रज्ञान नव्हे, तर तंत्रज्ञान वापरणारा माणूस जबाबदार असेल.

‘एआय’च्या अमर्याद शक्यतांमुळेच ‘एआय’-संशोधनात जागतिक स्पर्धा सुरू आहे. जगावर अधिराज्य गाजवण्याच्या या स्पर्धेत अनेक राष्ट्रे सामील झालेली आहेत. अल्गोरिदम म्हणजे संगणकाकडून केल्या जाणाऱ्या कार्यासाठी वापरण्यात येणारे क्रमबद्ध सूचनाक्रम. यासाठी विदा प्रचंड प्रमाणात लागते. ज्याच्याजवळ सर्वाधिक विदासाठा ते राष्ट्र जगावर प्रभुत्व गाजविणारे राहील, हे बहुतेक सर्व राष्ट्रांच्या लक्षात आलेले आहे. त्यामुळे विदा वसाहतवादाला (डेटा कलोनिअॅलिझम) सुरुवात होऊ शकते. ‘एआय’वर आधारित अॅप्स तयार करण्यासाठी प्रचंड प्रमाणात विदा आवश्यक असते. यामुळे विदा ‘चोरणाऱ्या’ समाजमाध्यमांवर अनेक देशांत बंदी घालण्यात आली आहे.

माणसांशी संबंधित प्रचंड विदा कॉम्प्युटर गोळा करेल. माणसाच्या वृत्ती प्रवृत्तीचा कलही स्पष्ट करेल. परंतु तरीही कॉम्प्युटरला जग अचूकपणे कळेलच असे नाही. कारण माहिती म्हणजे सत्य नव्हे. (इन्फॉर्मेशन इज नॉट ट्रुथ) जी माहिती जमा होईल त्यातून एका नव्या जगाची निर्मिती होईल. आणि हे आभासी जगच माणसांवर लादण्याचा प्रयत्न होत राहील, ही हरारी यांची खरी चिंता आहे.

डिजिटलवर आधारित नोकरशाही (डिजिटल ब्यूरोक्रसी) ही आत्तापर्यंतची सर्वात शक्तिशाली आणि निर्दय नोकरशाही असेल, असे हरारी मानतात. माहिती तंत्रज्ञानातील प्रगती ही शहाणपणाकडे कमी आणि मूर्खपणाकडे अधिक जात असल्याची असंख्य उदाहरणे हरारी देतात. दोष माणसांचा नसून माहिती तंत्रज्ञानाचा आहे. दुष्काळ, साथीचे रोग, भूकंप यासारख्या आपत्तीच्या वेळी सत्तेचे केंद्रीकरण एक वेळ समजू शकते. परंतु माहितीच्या सत्तेचे केंद्रीकरण झाल्यास माणसाने स्वत: निर्माण केलेले हे मायाजाल माणसालाच भस्म करू शकते, याचा धोका जगाने आत्ताच ओळखला पाहिजे, असे हरारी कळकळीने सांगतात.

लोकप्रियता आणि चमत्कृतीजन्य कल्पनाविलास यांच्या पलीकडे जाऊन ‘एआय’चे नियंत्रण करण्याचे संघटित प्रयत्न जगातील सर्व देशांनी करणे आवश्यक आहे, हाच हे पुस्तक लिहिण्याचा प्रधान हेतू आहे असे प्रतिपादन हरारी करतात.

इतिहासात केवळ भूतकाळातील घटनांचा अभ्यास नसतो, तर या घटकांच्या बदलांचाही अभ्यास असतो. अश्मयुग ते आजचे कृत्रिम बुद्धिमत्तेचे युग असा हरारी यांच्या अभ्यासाचा व संशोधनाचा विस्तृत पैस आहे. विकासाच्या बदलांचे परिणाम मानवी समाजावर कसे झाले आणि त्यातून प्रगतीचे क्षेत्र मानवाने कसे पादाक्रांत केले याचा तपशीलवार आढावा संशोधनात्मक पद्धतीने हरारी यांनी घेतलेला आहे. ज्या कबुतराच्या संदेशामुळे पहिल्या महायुद्धात सैनिकांचे प्राण वाचले होते त्या शेर अॅमी या कबुतराचे प्रतीकात्मक चित्र पुस्तकाच्या मुखपृष्ठावर आहे. हरारी यांची भाषा अतिशय प्रभावी, ओघवती व पकड घेणारी आहे, हादेखील या पुस्तकाचा विशेष आहे. कृत्रिम बुद्धिमत्तेचा ‘न भूतो न भविष्यति’ असा धोका जेव्हा हरारी अधोरेखित करतात तेव्हा जगातील सबंध मानवी जातीच्या शहाणपणाची कसोटी पाहणारा हा काळ आहे असे हे पुस्तक वाचताना सतत जाणवत राहते.

परिचय : डॉ. सतीश श्रीवास्तव

प्रस्तुती : श्री हर्षल भानुशाली

पालघर 

मो. 9619800030

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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