हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 144 ☆ बाल-कविता  – डालों पर फल चाँदी -चाँदी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 144 ☆

☆ बाल-कविता  – डालों पर फल चाँदी – चाँदी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆ \

अतिशय मौसम प्यारा – प्यारा।

बिल्ली मौसी चली सैर पर

बच्चों का सँग लिए पिटारा।।

 

पेड़ों पर चाँदी है लिपटी

डालों के फल चाँदी – चाँदी।

देख चकित हैं बच्चे सारे

अद्भुत लगता आज नजारा।।

 

घर हैं चाँदी , घर हैं चंदा

चारों ओर बर्फ के बदरा।

हाथ में ले – ले खेलें होली

गिरा मौसमी देखो पारा।।

 

गिरि – पर्वत सब ढके बर्फ से

सन्नाटा हर ओर है पसरा।

मूल निवासी कैद घरों में

पानी जमा नलों में सारा।।

 

बिल्ली जैसे निरे सैलानी

धूम मचाने शिमला आए।

हुई दिक्कतें निरी वहाँ पर

लौट के बुद्धू घर को आए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #132 – लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “चोर !”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 132 ☆

☆ लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”

“आप उसे उतारते नहीं है?”

“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।

“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।

“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”

यह सुन कर एकटक देखता रहा।

“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”

“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।

“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”

यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #145 ☆ आठवांच्या आसवांनी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 145 ☆ आठवांच्या आसवांनी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

आभाळालाही असते तुझ्या पदराची ओढ

जरी असला अंथाग तरी ममता अजोड..!

 

ओठी जेव्हा पहिलाच शब्द आई अंकुरतो

आईलाही तेव्हा तिचा शब्द आई आठवतो..!

 

आई शब्दात असतो माया ममतेचा झरा

आई शब्दानेच होतो वेदनेचा अंत सारा..!

 

जात्यावरची ही ओवी त्यात नशीबाच गाणं

काळ्या आईच्या कुशीत आई पेरते बियाण..!

 

आई स्नेहाची साऊली घाली मायेची पाखर

तिच्या साऊलीत मिळे रोज प्रेमाची भाकर..!

 

देवळात गेल्यावर लीन जाहलो भक्तीने

असो आई माझी सुखी देवा मागतो मागणे..!

 

आई विना आयुष्यची झाली आहे परवड

संकटाची रोजनिशी रोज नवी धडपड..!

 

तुच माझी जिजाविठा आहे तुलाच कदर

आठवाच्या आसवांनी तुझा भिजला पदर…!

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – शाम मोहिनी – ☆ सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– शाम मोहिनी – ? ☆ सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे ☆

कुंजवनात कदंबाला

झोका सुरेख झुलतसे

राधामोहन भावमग्न

देखणे चित्र शोभतसे ||

झुल्यावरती कान्हासंगे

झुलते तल्लीन होऊनी

सावळ्यात सामावताना

घेतले नयन मिटुनी ||

लोकलज्जा तुटले बंध

कृष्णप्रीती जडली बाधा

सर्वस्वाने एकरूपता

विसरली ‘मी’ पण राधा ||

कृष्णमय होऊनी राधा

भान विसरुनी जगते

पूर्वजन्मीच्या पुण्याइने

अद्वैत प्रीतीत रमते ||

चित्र साभार – सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #166 – तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं  आपके भावप्रवण तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव…। )

☆  तन्मय साहित्य  #166 ☆

☆ तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव…

पथरीली  पगडंडियाँ,  उस पर  नंगे पाँव।

चिंताओं के बोझ से, गुमसुम-सा है गाँव।।

बारिश में  कीचड़ लगे, गर्मी जले अलाव।

ठंडी  ठिठुराती  यहाँ, डगमग जीवन नाव।।

नव विकास की आँधियाँ, उड़ा ले गई गाँव।

लगा केकटस आँगने, अब तुलसी के ठाँव।।

गाँव  ताकता  शहर को,  शहर  गाँव  की ओर

अपनी-अपनी सोच है, किस पर किसका जोर।।

पेड़  सभी  कटने  लगे,   जो  थे  चौकीदार।

कौन नियंत्रित अब करे, मौसम के व्यवहार।।

कलप रही है कल्पना,  कुढ़ता रहा समाज।

साहूकार की डायरी, चढ़ा ब्याज पर ब्याज।।

ऊब गई है जिंदगी, गिने माह दिन साल।

रीता मन कृशकाय तन,  ढूँढे पंछी डाल।।

अब प्रभात फेरी नहीं, गुम सिंदूरी प्रात

चौराहे चौपाल की,  किस्सों वाली रात।।

इकतारे खँजरी नहीं, झाँझ मृदंग सुषुप्त।

पर्व-गीत औ’ लावणी, होने लगे विलुप्त।।

चौके चूल्हे बँट गए, बाग बगीचे खेत।

दीवारें  उठने  लगी,  घर में फैली रेत।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 54 ☆ गणतंत्र दिवस विशेष ☆ गीत – मातृभूमि… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “मातृभूमि…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 52 ✒️

?  गणतंत्र दिवस विशेष ☆ गीत – मातृभूमि…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

हे मातृभूमि तेरा वंदन

करते हैं हम।

अंजुरी में अर्ध्य लेकर

अर्चन करते हैं हम।।

 

फ़िरते हैं वेश बदले

चहूं ओर भेड़िऐ ,

अपनों की भीड़ में हैं

असंख्य भेदिऐ ,

साग़र की भांति उन पे

गर्जन करते हैं हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

हैं रिश्वती हवाएं

आतंक की बदलियां,

कोहरा है भ्रष्टाचार का

स्वार्थ की बिजलियां ,

फ़िर से नूतन गगन का

सृजन करेंगे हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

कुछ तो शरम करो ऐ

ग़द्दार – ए – वतन ,

अपने ही मृत भाई का

खींचो न तुम कफ़न ,

फ़िर से एक बनेंगे

संकल्प ले – लें हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

किस वास्ते किया है

आत्मा का हनन ,

संकीर्ण सांप्रदायिकता को

कर दें हम दफ़न ,

हैवानियत को छोड़कर

इन्सां बन जाए हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

फ़िर ना उठाएगा कोई

हम पर उंगलियां ,

नई आन – बान होगी

ना उजड़ेगीं बस्तियां ,

दुआ मांगती है सलमा

भारत में हो अमन ।

हे मातृभूमि ——– ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 166 ☆ द्वेषामुळे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 166 ?

☆ द्वेषामुळे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

एक होती जात आणिक धर्म नाही वेगळे

काल माझे गाव केवळ पेटले द्वेषामुळे

कोण अपुले कोण परके हे कळाले पाहिजे

वैर सारे या पुढे आता जळाले पाहिजे

झाड त्यांनी लावलेले खोल ही पाळेमुळे

काल माझे गाव केवळ पेटले द्वेषामुळे

धर्म जाती सोडुनी या एक होऊ सर्वथा

माणसांना तोडणा-या टाकुनी देऊ प्रथा

या ,स्वतःची शान राखू थांबवू ही वादळे

काल माझे गाव केवळ पेटले द्वेषामुळे

दीनबंधू जाहले जे भाग्य त्यांचे थोरले

अल्पस्वल्पच लोक,कोणी वीष येथे पेरले

गौर कोणी,कृष्ण कोणी,कोण होते सावळे

काल माझे गाव केवळ पेटले द्वेषामुळे

प्रेमभावानेच येथे माणसाने वागणे

हेच माझे ध्येय आणिक हेच माझे सांगणे

कळत आहे सर्व काही परि तयांना ना वळे

काल माझे गाव केवळ पेटले द्वेषामुळे

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मला फक्त मज्जा हवीय… लेखक – अनामिक ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? विविधा ?

☆ मला फक्त मज्जा हवीय… लेखक – अनामिक ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

(अतिशय गंभीर चिंतनीय पोस्ट!)

“मला फक्त मज्जा हवीये” (Todays Goal of Every Youth)

तुमच्या आयुष्याचं उद्दिष्ट काय आहे?

प्राचीन काळी “ज्ञानप्राप्ती आणि परमार्थसाधना” हे उदात्त उत्तर मिळत असे.

अर्वाचीन काळी “प्रापंचिक सुख” हे व्यवहारात बसेल इतपत उत्तर देत असत.

आत्ता काल-परवा “पैसा, समाधान, शांती” हे शब्द ऐकू यायचे.

हल्ली थेट विकेट पडते –

“मला फक्त मज्जा करायचीये”.

विषय संपला.

“मज्जा केलीच पाहीजे” ही बळजबरी माणसं एकमेकांच्या ऊरावर पांघरू लागलीयेत.

इथे “मज्जा” ही निवडीची गोष्ट राहीली नाहीये; ती “निकड” झालीये; केली गेलीये. मज्जा कशी करायची हे निवडण्याचंही स्वातंत्र्य नाही; ती समाजातल्या “मॉडर्न” शहाण्यांनी (!) आखून दिलेल्या पद्धतीनेच व्हायला हवी.

तशी ती नाही केली म्हणजे फालतू आहात तुम्ही, हे तुमच्या तोंडावर फेकून मारलं जातंय. म्हणजे पहा –

“बर्थडे सेलिब्रेशन घरात? शी…”

“पार्टी नाही? शी…”

“फ्रायडे नाईट, आणि तू घरी आहेस? शी… पथेटिक…”

तुम्ही घरी स्वयंपाक वगैरे करून खाता विकेंडला!? फारच बोरिंग ….

“तू आजवर कधी पब मध्ये गेलीच नाहीस? काय काकूबाई आहेस गं…”

“वेलेन्टाईन डे; आणि नो रोजेस? शी, बोअर…”

“डेटवर चाललायस? आणि हातात नो गिफ्ट्स? So sad…”

“वीकेन्ड घरच्यांबरोबर? नो फ्रेन्ड्स? नो आऊटिंग? शी…”

यात नफ्याची आर्थिक गणितं ठासून भरलेली आहेत. नव्वदच्या दशकात ग्लोबलायजेशन आपल्यावर येऊन आदळलं; आणि त्या नवश्रीमंतीच्या लाटेवर अनेकजणांनी विचार-विवेक गहाण टाकले.

तसे त्यांनी ते टाकावेत, जास्तीत जास्त मासे या भोगवादात सापडावेत, यासाठी (त्यातल्या त्यात।पाश्चात्य) कॉर्पोरेट कंपन्यांनी मार्केटिंगची जाळी मस्तपैकी सर्वदूर फेकली होतीच.

TV, सिनेमा, सततच्या जाहिरातींच्या भडिमाराने आमचा सुरेख ब्रेन वॉश केला.

न्युरोलिंग्विस्टिक प्रोग्रामिंग तंत्राच्या वापराने, ध्वनी व दृश्य या दोघांनी आमचे कान आणि डोळे स्वप्नांत गुंतवले. मध्यमवर्गीय काटकसरीने म्हातारपणाच्या चिंता सोडून “आजचं बघा” हा अमेरिकन मंत्र स्वीकारला. मग अचानक वाढदिवसाला निरांजनांच्या ओवाळणी backward झाल्या; वीस-पंचवीस हजारांचं हॉटेलवालं सेलिब्रेशन रितीचं झालं.

सी सी डी अन् बरिस्तामधल्या दोनशे रुपयाच्या कॉफ्या आम्हाला स्वस्त वाटू लागल्या.

“अनलिमिटेड बुफे” च्या नावाखाली बार्बेक्यूंच्या भट्टीत पगार जाळून घेणं हे “त्यात काय एवढं?” असं झालं.

जीन्स पाचशेच्या पाच हजार झाल्या. पुर्वी कुत्रा कोण ज्या कॉटनला विचारत नव्हतं, तेच कॉटन “लिनन”च्या रुपात थेट स्टेटस सिम्बॉल बनलं.

एक दिवसाचं मराठी लग्न पाच दिवसांचं “big fat पंजाबी वेडिंग” झालं; घराच्या हॉलमधले साखरपुडे नि टिळे हे फाईव स्टारवाले “इवेन्ट्स” झाले.

मज्जा, आनंद, आपल्या आत निर्माण करायचा असतो म्हणताय? तुमची संस्कृती तसं सांगते? हड. चुलीत घाला तुमची संस्कृती. आमचं Grand Live life kingsize उधळणं घ्या. बायकोला सोन्या-चांदीतून बाहेर काढा; हिरे नि प्लेटिनम मध्ये तिला बुडवून काढा.

तुमच्या पोराला गर्लफ्रेन्ड नि पोरीला बॉयफ्रेन्ड असलाच पाहीजे. त्यांच्या “प्रेमाचं” मूल्यमापन गिफ्टच्या किमतीवर ठरेल.

कमवा; आणि उडवा.

तुम्ही तुमच्या नवाबज़ाद्यांकडे पाहा बघू. लिव Macho !!

भले तुम्ही स्टायपेन्डवाले ट्रेनी इंजिनिअर असा.

विषय इतपत येऊन थांबलेला नाही. दारू नि सिगरेटचं उदात्तीकरण तर आता जुनं झालं. आता त्याच्यापुढे सर्वसामान्य मराठी मध्यमवर्गीय पोरांच्या तोंडीही “वीड”, “ग्रास” हे शब्द येऊ लागलेत.

यांचे अर्थ माहितीयेत? गांजासारख्या भयानक नशील्या पदार्थांची अमेरिकेतून उचललेली बोली भाषेतली नावं आहेत ही.

या घाणीची जाहिरात थेट करता येत नाही; पण त्यासाठी आमचे नव्याने पैदास झालेले “रॉकस्टार्स” आणि “rap singers” आहेत ना! त्यांच्या गाण्यांतून या अमली विकृतीची भलावण रोजच्या रोज होतेय. “मनाली ट्रान्स” म्हणे. शोधा गुगलवर लिरिक्स. शब्दांना जोड दृश्यांची. दृश्यांत ठासून भरलेला सेक्स. अनिर्बंध, अमर्याद आणि मुद्दाम चाळवणऱ्या अनैतिक नात्यांचा, अगदी घरच्या अंतर्गत नात्यातही तो  मुक्तहस्ते सपोर्ट करणारा !!! एकेक वेब सिरिज मनोरंजन कमी, आणि पोर्नोग्राफी जास्त  इतपत मज्जेच्या डेफिनेशन्स गेलेल्या !!! तरुणांना नाद लावायला तेवढं पुरतं.

चील… एंजॉय… पार्टी चलेगी टिल सिक्स इन द मॉर्निंग.

मग मेलात तरी चालेल.

आपण ठरवलेलं उद्दिष्ट हे प्रत्यक्षात आपण स्वत: निवडलेलं नसून, ते आपल्याला गंडवून आपल्याकडून निवडून घेतलं गेलंय, हे लक्षात येतंय आपल्या?

चंगळवाद हा एक कॉर्पोरेटधार्जिणा पंथ झालाय. पंथामध्ये विचार आणि आचार निवडीचं स्वातंत्र्य नसतं. कुणीतरी महाभागाने सांगितलेलं तत्वज्ञान तो महापुरूष आहे असं सगळे म्हणतात म्हणून, मुकाट्याने नाकासमोर धरून चालणं, हे पंथाचं आचारशास्त्र असतं. तेच चंगळवादाचं आहे. “आम्ही कित्ती आनंदात आहोत”, “आमचं कित्ती मस्त चालू आहे”, “आम्ही कित्ती एंजॉय करतोय”, हे दुसऱ्याला दाखवणं, हा चंगळवादाचा अट्टहास असतो.

ते दुसऱ्याने सत्य म्हणून मान्य केलं, तर चंगळवादाचा विजय असतो. आणि आपण ओढवून घेतलेल्या पद्धतीचा दुसऱ्याने स्वीकार केला, तर तो चंगळवादाचा दिग्विजय असतो.

मुद्दा हा आहे, की या झुंडीत सामील झाल्यावर आपण किती “cool” आहोत, याच्या देखाव्यांचं एक compulsion असतं ना;  त्यात बऱ्याच जणांचा श्वास कोंडला जातो.

तो देखावा न करणाऱ्यांना पाखंडी समजून झुंडीबाहेर फेकलं जातं.

मुळात जे झुंडीत कधी सामील झालेच नाहीत, किंवा आर्थिक कारणांमुळे होऊ शकले नाहीत, त्यांच्याकडे आगाऊपणाने “सो पथेटिक” म्हणून नकारात्मकतेने पाहीलं जातं; त्यांच्या मनात स्वत:बद्दल न्यूनगंड निर्माण होईल याचे पद्धतशीर प्रयत्न सुरू होतात.

गंमत म्हणजे, चंगळवादाचे पुरस्कारकर्ते व्यक्तिस्वातंत्र्याच्या गप्पा मारतात; पण हीच सोंगं आयुष्य आनंदाने जगण्याचे प्रत्येकाचे स्वतंत्र वेगळे मार्ग असू शकतात, हे साधं सत्य दुसऱ्याला नाकारतात.

त्यावेळी आपण त्याच्या व्यक्तिस्वातंत्र्याचा संकोच करतोय, हे यांच्या गावीही नसतं. म्हणूनच मग “तुम्ही दारू पिऊन पार्ट्या करत नाही, म्हणजे आयुष्य कसं एंजॉय करायचं ते तुम्हाला माहीतच नाही”, अशी बिनडोक तर्कटं मांडली जातात; जी हास्यास्पद ठरतात.

हेअर जेल, मेक अप आणि ब्रांडेड कपड्यातली बिनधास्त आहोत हे दाखवत राहण्याची केविलवाणी धडपड नजरेत लपत नसते. ब्रांडेड आयुष्यातल्या पोकळ्या वेडावतातच.

जागे होऊया रे.

स्वत्व नको विकूया आपण.

दुनियेतल्या प्रत्येकाला आपण आवडलोच पाहीजे, हा मूर्ख विचार सोडूया; आणि करूया हिंमत स्वत:चा स्वतंत्र जीवनभाव निवडण्याची. सेलिब्रेशन्स मिळकतीची होऊ देत; आणि ती नजाकतीची होऊ देत !! 

उधळण्याच्या फुलबाज्या क्षणभरच चमकतात; स्वतंत्र विवेकाचा सूर्य अनंतकाळ चमकतो.

आपण सूर्य निवडू या.

लेखक – अज्ञात 

प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 36 – भाग 1 – काळं पाणी आणि हिरवं पाणी ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 36 – भाग 1 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ काळं पाणी आणि हिरवं पाणी  ✈️

अंदमान, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर आणि काळं पाणी या शब्दांचं नातं अतूट आहे. स्वातंत्र्यवीर सावरकरांप्रमाणेच लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक यांच्या पदस्पर्शाने हे स्थान पवित्र झालं आहे. लोकमान्यांना ब्रह्मदेशातील मंडाले येथील तुरुंगात नेताना एका दिवसासाठी येथील कारागृहात ठेवण्यात आलं होतं. इसवी सन १९४२ साली सुभाषचंद्र बोस यांनीही या तुरुंगाला भेट दिली होती.

अंदमान व निकोबार हा दक्षिणोत्तर पसरलेला जवळजवळ ३५० बेटांचा समूह भारताच्या आग्नेय दिशेला बंगालच्या उपसागरात आहे. चेन्नई आणि कोलकता  अशा दोन्हीकडून साधारण १२०० किलोमीटर अंतरावर ही बेटं येतात. पूर्वी तिथे बोटीने पोहोचण्यासाठी चार-पाच दिवस लागत. आता चेन्नई किंवा कोलकताहून विमानाने दोन- तीन तासात पोहोचता येतं. आम्ही चेन्नईहून विमानाने अंदमानची राजधानी पोर्ट ब्लेअरच्या वीर सावरकर विमानतळावर उतरलो. जेवून लगेच सेल्युलर जेल बघायला निघालो.

ब्रिटिशांनी १९०६ साली या जेलचं बांधकाम पूर्ण केलं. चक्राच्या दांड्यांसारख्या सात दगडी, भक्कम तिमजली इमारती व त्या इमारतींना जोडणारे मधोमध असलेले वॉच टाॅवर अशी या तुरुंगाची रचना आहे. दुसऱ्या महायुद्धानंतर काही काळ अंदमान जपानी लोकांच्या ताब्यात होते. इमारतींच्या सात रांगांपैकी तीन रांगा जपान्यांनी नष्ट करून टाकल्या. आता एका इमारतीत हॉस्पिटल आहे व एकात सरकारी कर्मचारी राहतात.हा सेल्युलर जेल म्हणजे भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील अनेक ज्ञात व अज्ञात शूरवीरांनी भोगलेल्या हालअपेष्टांचं काळं पान. साम्राज्यवादी ब्रिटिशांना हाकलून देऊन स्वातंत्र्य मिळविण्याच्या वेडाने भारलेल्या अनेकांनी या यज्ञकुंडात उडी घेतली. अशा अनेकांना  अंदमानला सश्रम कारावासाच्या शिक्षेवर पाठविले जाई. ब्रिटिशांच्या क्रूर, कठोर, काळ्याकुट्ट शिक्षांमधून केवळ काळच त्यांची सुटका करू शकणार असे. अंदमानचा तुरुंग म्हणजे काळं पाणी. एकदा आत गेला तो संपल्यातच जमा!

दगडी, दणकट, अंधारलेले जिने चढून तिसऱ्या मजल्यावर आलो. तिथल्या शेवटच्या ४२ नंबरच्या खोलीत स्वातंत्र्यवीर सावरकरांचे वास्तव्य होते. आज त्याला पवित्र तीर्थस्थानाचं महत्त्व आहे. सावरकरांनी लिहिलेले ‘कमला’ काव्यही तेथील दगडी भिंतीवर आहे. स्वातंत्र्यवीरांचा फोटो व अशोकचक्राची प्रतिमा आहे. एकावेळी एकच माणूस जेमतेम वावरू, झोपू शकेल अशी ती अंधार कोठडी. भिंतीवर अगदी वरच्या बाजूला एक लहानशी खिडकी. जेलची रचनाच अशी की समोरासमोरच्या खोल्या एकमेकांना पाठमोऱ्या. खोल्यांच्या दगडी भिंती भक्कम आणि बाहेर लोखंडाचे मजबूत दार. बाहेरून कुलूप लावायची कडी सरळ भिंतीत घुसवलेली. स्वातंत्र्यासाठी हे लोक काय साहस करतील याचा नेम नाही म्हणून एवढा बंदोबस्त केलेला असावा. आम्ही तिथे ‘ने मजसी ने….’ जयोस्तुते श्री महन् मंगले….’ अशी गाणी म्हणून श्रद्धांजली वाहिली. अनेक ज्ञात- अज्ञात वीरांना मनोमन, मनःपूर्वक नमस्कार केला.

ध्वनीप्रकाश शोमध्ये  पूर्व इतिहासावर प्रकाश पाडला आहे. अपार कष्ट भोगणारे, कदान्न खाणारे, कोलू पिसणारे,  उघड्या पाठीवर फटके खाणारे, वंदे मातरम् म्हणत हसतमुखाने फासावर जाणारे ते कोवळे जीव हृदयात कालवाकालव निर्माण करतात.

स्वातंत्र्यवीर सावरकर अतिशय विज्ञाननिष्ठ होते. आधुनिक विचार व विज्ञान आपलंसं केलं तरच राष्ट्राची प्रगती होईल. राष्ट्र कणखर सुसज्ज व बलवान हवं अशीच या साऱ्या थोर नेत्यांची  शिकवण होती. गोरगरीब, कष्टकरी, दलित या साऱ्यांबरोबर माणुसकीने वागण्याची, शिक्षणाचे महत्त्व सांगणारी अशी त्यांची शिकवण होती. स्वातंत्र्याच्या ७५ वर्षानंतरही हे विचार आपण पूर्णतः आत्मसात करू शकलो नाही याची खंत वाटली.

देशाच्या संरक्षणाच्या दृष्टीने आज अंदमान- निकोबार बेटांना अतिशय महत्त्व आहे. निकोबार ही संरक्षित बेटं आहेत. आपल्या हवाई दलाचा तळ इथे आहे. सर्वसामान्य प्रवाशांना तिथे जाण्याची परवानगी नाही. या निकोबार बेटाचं दक्षिण टोक जे कन्याकुमारीपेक्षाही दक्षिणेला होतं त्याला इंदिरा पॉईंट असं नाव दिलं होतं. २००४ सालच्या त्सुनामीमध्ये हे स्थान सागराने गिळंकृत केलं. अंदमानला आपल्या नौदलाचा तळ आहे. तसंच तटरक्षक दलही आहे. त्यांची अति वेगवान व अत्याधुनिक जहाजं सतत समुद्रावर गस्त घालित असतात. किनाऱ्याजवळ फ्लोटिंग डॉक आहे. त्याचे १६ अवाढव्य टँकर्स पाण्याने भरले की ते डॉक समुद्राखाली जातं. मग डॉकच्या  वरच्या प्लॅटफॉर्मवर दुरुस्तीसाठी बोटी घेतल्या जातात. बोटीची दुरुस्ती, देखभाल होऊन ती बाहेर पडली की टँकर्समधलं पाणी काढून टाकलं जातं व डॉक पुन्हा समुद्रावर येतं

अंदमान – भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 66 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 66 – मनोज के दोहे ☆

1 बसंत

ऋतु बसंत की धूम फिर, बाग हुए गुलजार।

रंग-बिरंगे फूल खिल, बाँट रहे हैं प्यार।।

2 शिशिर

शिशिर काल में ठंड ने, दिखलाया वह रूप।

नदी जलाशय जम गए, तृण हिमपात अनूप।।

3 ऋतु

स्वागत है ऋतु-राज का, छाया मन में हर्ष।

पीली सरसों बिछ गई, मिलकर करें विमर्ष।।

4 बहार

आम्रकुंज बौरें दिखीं, हुआ प्रकृति शृंगार।

कूक रही कोयल मधुर, छाई मस्त बहार।।

5 परिवर्तन

परिवर्तन अब देश में, दिखने लगा उजास।

शत्रु पड़ोसी देख कर, मन में बड़ा उदास।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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