हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

 (तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

चौराहे पर बैठे रघुनाथ चाचा की जिंदगी अब अखबार के कोने में छपे राशिफल से ज्यादा भरोसेमंद नहीं रही थी। रिटायरमेंट के बाद जो पेंशन मिलने वाली थी, वो अब तक ‘प्रक्रिया में’ थी — मतलब कागज़ ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर जा रहा था, लेकिन चाचा वहीं के वहीं थे — हाफ पैंट में, जो अब फुल हो चुकी थी छेदों से। हर छेद एक सरकारी विभाग की आत्मकथा सुनाता था। चाचा कहा करते थे, “अब हमारे कपड़े भी मंत्रालयों की तरह हैं—सिलवटें ज़्यादा, जवाब कम।” मोहल्ले में सब उन्हें “पेंशन वाले चाचा” कहते थे, जैसे यह कोई सम्मानसूचक पद हो।

बेटा दिल्ली में था, पर माँगता हर बार यहीं से था — “पापा, ज़रा दस हज़ार भेज देना, EMI है।” चाचा मन ही मन बड़बड़ाते, “EMI का नाम सुनते ही मेरी धड़कन UPI की तरह फेल हो जाती है।” उन्हें लगता था, सरकार ने रिटायर किया, बेटा ने इस्तीफा। अब अकेली पत्नी और पेंशन की उम्मीद में जीते थे। पत्नी कहा करती थी, “तुम्हारे भरोसे नहीं, भगवान भरोसे चल रहा है घर।” चाचा बोलते, “भगवान भी शायद मेरी फाइल के साथ ही प्रक्रिया में है।”

हर सुबह चाचा दफ्तर जाते थे—जैसे जेल की बैरक में तारीख पर पेशी हो। बाबू लोग उन्हें देखकर चाय की चुस्की और मोबाइल की स्क्रॉलिंग दोनों तेज़ कर देते। चाचा मुस्कुराते हुए कहते, “पेंशन मांग रहा हूँ, जमानत नहीं।” बाबू बोलते, “अंकल जी, सिस्टम धीमा है।” चाचा जवाब देते, “सिस्टम नहीं बेटा, संवेदना स्लो है।” एक दिन बाबू ने कहा, “अब ऑनलाइन पोर्टल पर ट्रैक कीजिए।” चाचा बोले, “बेटा, हमारी उम्र ट्रैक्टर चलाने की थी, पोर्टल नहीं।” फिर भी रोज़ जाते रहे—मानो उम्मीद का एटीएम हो, कभी तो कुछ निकलेगा।

इसी चक्कर में उन्होंने एक पकोड़े वाला ठेला शुरू किया। नाम रखा—”पेंशन पकोड़ा पॉइंट”। स्लोगन लिखा—”यहाँ तली जाती है निराशा, परोसी जाती है आशा।” सरकारी बाबू भी वहीं पकोड़ा खाते थे, जिनसे चाचा पेंशन के लिए हर बार चाय पिलाकर विनती करते थे। पर जवाब वही—“अभी ऊपर फाइल है।” चाचा सोचते, “फाइल ऊपर है या ऊपरवाले के पास?” एक बार एक पत्रकार आया, बोला—“चाचा, बहुत प्रेरणादायक हो आप।” चाचा बोले—“प्रेरणा नहीं बेटा, ये पेंशन के इंतज़ार की तड़प है। तुम भी मत करना सरकारी नौकरी।”

सर्दियों में एक दिन चाचा का ठेला गायब मिला। पता चला, नगर निगम उठा ले गया। कारण—”अवैध अतिक्रमण”। चाचा ने कहा, “सरकारी सिस्टम तो मेरी जिंदगी पर कब का अतिक्रमण कर चुका है, अब ठेला भी चला गया।” मोहल्ले वालों ने कहा—“FIR कराओ।” चाचा बोले, “अरे बेटा, FIR तो मैंने खुद की किस्मत पर दर्ज करवा रखी है।” कुछ दिन भूखे-प्यासे रहने के बाद एक NGO ने चाचा के लिए राशन दिया। उसमें लिखा था—“सहयोग पेंशन से नहीं, संवेदना से।” चाचा की आँखें भर आईं। बोले—“काश, ये लाइन मेरी फाइल पर लिखी होती।”

और फिर एक सुबह, चाचा की लाश पकोड़े के ठेले के पीछे मिली। हाथ में वही फाइल थी, जिस पर “Pending” की मोहर थी। कोई आंसू बहा रहा था, कोई वीडियो बना रहा था। मोहल्ले की बहू बोली—“सरकार से तो नहीं मिली पेंशन, पर YouTube से मिल जाए कुछ।” रिपोर्टर बोला—“हम इसे ‘भ्रष्ट व्यवस्था की बलि’ कहकर चलाएंगे।” चाचा की पत्नी रोती हुई बोली—“अब पेंशन आएगी?” बाबू बोला—“मृत्यु प्रमाणपत्र लगाइए, प्रक्रिया शुरू करेंगे।” और फिर वही—फाइल ऊपर भेजी गई।

कुछ महीने बाद चाचा की फोटो अखबार में छपी—”पूर्व कर्मचारी, पेंशन की प्रतीक्षा में निधन”। नीचे टिप्पणी थी—”सरकारी दायित्वों का पालन किया गया।” मोहल्ले के बच्चों ने दीवार पर लिखा—”यहाँ पेंशन नहीं, पकोड़े बिकते हैं।” एक बूढ़ा आदमी बोला—“देशभक्ति कुर्सियों में है, पर चप्पलों में धूल है।” चाचा की आत्मा शायद मुस्करा रही थी—“अब कोई पूछेगा नहीं—फाइल कहाँ है?” और पीछे से हवा ने कहा—“फाइल वहीं है… प्रक्रिया में।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 241 ☆ कर्म करते रहें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विस्तार है गगन में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 241 ☆ कर्म करते रहें

कहते हुए नित जा रहे सब, एकता के साथ में।

पूरे सपने होंगे उनके, हाथ थामे हाथ में।।

कोशिश करेंगे वक्त बदले, भावना हो नेक की।

सबसे आगे चलते जाना, ढाल बन हर एक की।।

कर्म से कुछ भी असंभव नहीं है भाग्य के भरोसे जो व्यक्ति बैठता है उसे वही मिलता है जो कर्मशील व्यक्ति छोड़ देते हैं।

एक बहुत पुरानी कहानी है एक गुरु के दो शिष्य थे एक तो बहुत मेहनत करता व दूसरा हमेशा ही इस आसरे रहता कि जैसे ही पहले वाला काम कर देगा तो वह तुरंत उसके साथ आगे आकर शामिल हो जायेगा। हमेशा वो मुस्कुराता हुआ गुरू जी के पास पहुँच कर कहता देखिए गुरुदेव ये कार्य सही हुआ है या नहीं। गुरु आखिर गुरु होते हैं उनसे कोई बात छुपी तो रह नहीं सकती।

एक दिन गुरू जी दोनों शिष्यों को बुलाया और कहा कि तुम दोनों में से कौन जाकर पहाड़ी से आवश्यक जड़ी बूटी ला सकता है।

पहले शिष्य ने कहा गुरू जी मैं लेकर आता हूँ दूसरे ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि यही ठीक होगा तुमको जड़ी- बूटी की जानकारी भी है। पहला शिष्य तुरंत ही चलने लगा तो गुरू जी ने उसे रोकते हुए कहा कि पहाड़ी के पास एक आश्रम है हो सकता है वहाँ पर तुम्हें जड़ी बूटी महात्मा जी के पास ही मिल जाय तुम उनसे मेरा संदेश कह देना।

यहाँ दूसरा शिष्य मन ही मन मुस्कुराता हुआ जाने लगा तो गुरू जी ने उसे पुकारा बेटा तुम यहाँ आओ आज तुम गुरु माँ के साथ काम करो जो भी कार्य वो कहें कर देना मैं आज वेद पाठ करूँगा बीच में मुझे मत टोकना।

दूसरे शिष्य ने कहा जी गुरुदेव अब वो गुरु माँ के साथ उनकी मदद करने लगा उसे कोई काम करना अच्छा नहीं लग रहा था वो जो भी करता उससे गुरु माँ का काम बढ़ जाता इसलिए उन्होंने उससे कहा बेटा लकड़ी समाप्त होने वाली है तुम जंगल से काट कर ले आओ।

उसने कहा जी , मन ही मन बड़बड़ाता हुआ वो चल दिया उसे लकड़ी काट कर लाने में पूरा दिन लग गया जबकि पहला शिष्य जैसे ही पहाड़ी के पास पहुँचा तो वहीं पर उसे एक सुंदर ताल दिखाई दिया व पास ही एक कुटिया जिसमें लोगों का आना – जाना लगा हुआ था वो अंदर गया उसने उनको प्रणाम कर अपने गुरुजी का संदेश दिया। महात्मा जी ने कहा बेटा उसके लिए तुमको परेशान होने की आवश्यता नहीं है मैं तुम्हें जड़ी बूटी देता हूँ तुम ले जाओ पर इससे पहले तुम हाथ -मुँह धोकर भोजन करो तत्पश्चात ही जाना।

महात्मा जी ने अपने बाग के फल- फूल भी उसको दिए और कहा इसे अपने गुरू जी को मेरी ओर से भेंट कर देना।

संध्या के समय पहला शिष्य मुस्कुराता हुआ आश्रम पहुँचा वहीं दूसरे थका -हारा पहुँचा। गुरु जी ने दोनों शिष्यों को पास बुलाकर कहा बेटा कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता कर्म को पूजा मान कर जो कार्य किया जायेगा वो मन को खुशी देगा वहीं जो उदास मन से किया जायेगा वो थकान।

भाग्य का निर्माता वही होता है जो कर्म करता है सतत् कर्म करने वाले का भाग्य भगवान स्वयं लिखते हैं जबकि भाग्य से उतना ही मिलता है जो पूर्वजन्मों का संचय होता है जैसे ही उसका फल समाप्त हो जाता है व्यक्ति भाग्यहीन होकर आसरा तलाश करने लगता है जबकि कर्मशील व्यक्ति किसी भी परिवर्तन में नहीं विचलित होता।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 177 ☆ “मैं कृष्ण हूँ” – उपन्यासकार… श्री दीप त्रिवेदी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री दीप त्रिवेदी जी द्वारा लिखित  “मैं कृष्ण हूँपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 177 ☆

“मैं कृष्ण हूँ” – उपन्यासकार… श्री दीप त्रिवेदी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा

दीप त्रिवेदी का उपन्यास “मैं कृष्ण हूँ”

प्रकाशक आत्मन इनोवेशन, मुंबई

मूल्य रु 349

चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव

कृष्ण भारतीय संस्कृति के विलक्षण महानायक हैं। वे एक मात्र अवतार हैं जो मां के गर्भ से प्राकृतिक तरीके से जन्मे हैं। इसीलिए कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है, रामनवमी की तरह कृष्ण अष्टमी नहीं। कृष्ण के चरित्र में हर तरह की छबि मिलती है। दीप त्रिवेदी का यह उपन्यास कृष्ण के बचपन पर केंद्रित एक अनूठा और विचारोत्तेजक साहित्यिक प्रयास है उपन्यास भगवान कृष्ण के जीवन को एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। उपन्यास न केवल कृष्ण के चरित्र की गहराई को उजागर करता है, बल्कि उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को आधुनिक संदर्भ में समझने का अवसर देता है। दीप त्रिवेदी, एक प्रख्यात लेखक, वक्ता और स्पिरिचुअल साइको-डायनामिक्स विशेषज्ञ माने जाते हैं। इस उपन्यास में कृष्ण को एक अलौकिक व्यक्तित्व के बजाय एक मानवीय और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया गया है।

कथानक

“मैं कृष्ण हूँ” पुस्तक कृष्ण की आत्मकथा के रूप में लिखी गई है, जिसमें वे स्वयं अपने जीवन की कहानी सुनाते हैं। यह आत्म कथा मथुरा के कारागृह में उनके जन्म से शुरू होती है, जहां वे कंस के अत्याचारों के बीच पैदा होते हैं, और गोकुल में यशोदा और नंद के संरक्षण में उनके बचपन तक ले जाती है। इसके बाद, कथा उनके जीवन के विभिन्न चरणों—कंस का वध, मथुरा से द्वारका तक का सफर, और महाभारत में उनकी भूमिका—को समेटती है। उपन्यास पारंपरिक धार्मिक कथाओं से हटकर कृष्ण के मन की गहराइयों को खंगालता है। लेखक ने उनके हर निर्णय, हर युद्ध, और हर रिश्ते के पीछे की मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।

 कृष्ण का बचपन, युवावस्था और परिपक्व जीवन विस्तार से वर्णित है। इससे पाठक को कृष्ण के व्यक्तित्व के विकास को क्रमबद्ध तरीके से समझने में मदद करती है।

लेखन शैली

दीप त्रिवेदी की लेखन शैली सरल, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है। उन्होंने हिंदी भाषा का उपयोग इस तरह किया है कि यह आम पाठक के लिए सहज होने के साथ-साथ विद्वानों के लिए भी गहन वैचारिक सामग्री प्रदान करती है। उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को ऐसा लगता है जैसे वे कृष्ण की अंतरात्मा से सीधे संवाद कर रहे हों।

पाठकों को यह शैली थोड़ी उपदेशात्मक लग सकती है, क्योंकि लेखक समय-समय पर कृष्ण के जीवन से सीख देने की कोशिश करते हैं। यह दृष्टिकोण कथा के प्रवाह को कभी-कभी धीमा कर देता है, लेकिन यह किताब के उद्देश्य—जीवन के युद्धों को जीतने की कला सिखाने के लिए जरूरी है।

चरित्र-चित्रण

 त्रिवेदी ने उपन्यास में कृष्ण को एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया है। एक चंचल बालक, एक प्रेमी, एक योद्धा, एक रणनीतिकार, और एक दार्शनिक। कथा वाचकों की पारंपरिक कथाओं में जहां कृष्ण को चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों के साथ जोड़ा जाता है, वहीं इस पुस्तक में उनकी मानवीयता और बुद्धिमत्ता पर जोर दिया गया है। उदाहरण के लिए, कंस के खिलाफ उनकी रणनीति को चमत्कार के बजाय उनकी बुद्धिमत्ता के रूप में वर्णित किया गया है।

अन्य पात्रों जैसे यशोदा, राधा, अर्जुन, और द्रौपदी भी, कथा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन वे मुख्य रूप से कृष्ण के दृष्टिकोण से ही चित्रित हैं। यह उपन्यास के आत्मकथात्मक स्वरूप को बनाए रखने में सफल रहती है।

 संदेश

“मैं कृष्ण हूँ” का केंद्रीय संदेश यह है कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें अपने मन को समझना और नियंत्रित करना होगा। लेखक ने कृष्ण के जीवन को एक प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत किया है, जो यह सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी हंसते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। पुस्तक में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि कृष्ण ने अपने जीवन में हर युद्ध—चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, या राजनीतिक हो—अपने मन की शक्ति से जीता।

इसके अलावा, यह उपन्यास आधुनिक जीवन से जोड़ने की कोशिश करता है। कृष्ण की साइकोलॉजी को समझकर पाठक अपने जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित हो सकता है। यह किताब धार्मिकता से अधिक आत्म-जागरूकता और आत्म-सुधार पर केंद्रित है, जो इसे एक प्रेरणादायक और व्यावहारिक रचना बनाती है।

दीप त्रिवेदी का “मैं कृष्ण हूँ” एक ऐसी पुस्तक है जो न केवल कृष्ण के जीवन को नए नजरिए से देखने का अवसर देती है, बल्कि पाठक को आत्म-चिंतन और आत्म-विकास के लिए भी प्रेरित करती है।

कृष्ण का चरित्र हर भारतीय का जाना पहचाना हुआ है, अतः उपन्यास में रोचकता और नवीनता बनाए रखने की चुनौती का सामना लेखक ने सफलता पूर्वक किया है और एक जानी समझी कहानी को नई दृष्टि दी है।

पुस्तक पठनीय तथा चिंतन मनन योग्य है।

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #209 – बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक ज्ञानवर्धक बाल कहानी –  “शिप्रा की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 209 ☆

☆ बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मैं मोक्षदायिनी शिप्रा हूं। मुझे मालवा की गंगा कहते हैं। मेरे जन्म के संबंध में दो किवदंतियां मशहूर है। पहली किवदंती के अनुसार मेरा जन्म अति ऋषि की तपस्या की वजह से हुआ था।

कहते हैं कि अति ऋषि ने 3000 साल तक कठोर तपस्या की थीं। वे अपने हाथ ऊपर करके इस तपस्या में लीन थें। जब तपस्या पूर्ण हुई तो उन्होंने आंखें खोलीं। तब उनके शरीर से दो प्रकार स्त्रोत प्रवाहित हो रहे थें। एक आकाश की ओर गया था। वह चंद्रमा बन गया। दूसरा जमीन की ओर प्रवाहित हुआ था। वह शिप्रा नदी बन गया।

इस तरह धरती पर शिप्रा का जन्म हुआ था।

दूसरी किवदंती के अनुसार महाकालेश्वर के क्रोध के परिणाम स्वरूप शिप्रा ने जन्म लिया था। किवदंती के अनुसार एक बार की बात है। महाकालेश्वर को जोर की भूख लगी। वे उसे शांत करने के लिए भिक्षा मांगने निकले। मगर बहुत दिनों तक उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। तब वे भगवान विष्णु के पास गए। उन से भिक्षा मांगी।

भगवान विष्णु ने उन्हें तर्जनी अंगुली दिखा दी। महाकालेश्वर अर्थात शंकर भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने त्रिशूल से अंगुली भेद दी। इससे अंगुली में रक्त की धारा बह निकली।

शिवजी ने झट अपना कपाल रक्त धारा के नीचे कर दिया। उसी कपाल से मेरा अर्थात शिप्रा का जन्म हुआ।

मैं वही शिप्रा हूं जो इंदौर से 11 किलोमीटर दूर विंध्याचल की पहाड़ी से निकलती हूं। यह वही स्थान हैं जो धार के उत्तर में स्थित काकरी-बादरी पहाड़ हैं। जो 747 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। वहां से निकलकर में उत्तर की दिशा की ओर बहती हूं।

उत्तर दिशा में बहने वाली एकमात्र नदी हूं। जिस के किनारे पर अनेक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। विश्व प्रसिद्ध महाकाल का मंदिर मेरे ही किनारे पर बना हुआ है। यह वही स्थान है जिसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथ ग्रंथों में होता है । जिसे पुराने समय में अवंतिका नाम से पुकारा जाता था। यही के सांदीपनि आश्रम में कृष्ण और बलराम ने अपनी शिक्षा पूरी की थी।

विश्व प्रसिद्ध वेधशाला इसी नगरी में स्थापित है। ग्रीनविच रेखा इसी स्थान से होकर गुजरती है। मुझ मोक्षदायिनी नदी के तट पर सिंहस्थ का प्रसिद्ध मेला लगता है। जिसमें लाखों लोग डुबकी लगाकर पुण्य कमाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति की अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

मैं इंदौर, देवास, उज्जैन की जीवनदायिनी नदी कहलाती हूं। मेरी पवित्रता की चर्चा पूरे भारत भर में होती है। मगर, मुझे बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है गत कई सालों से मेरा प्रवाह धीरे-धीरे बाधित हो रहा है। मैं ढलान रहित स्थान से बहती हूं। इस कारण मुझ में पहली जैसी सरलता, सहजता, निर्मलता तथा प्रवाह अब नहीं रह गया है।

मेरी दो सहायक नदियाँ है। एक का नाम खान नदी है। यह इंदौर से बह कर मुझ में मिलती है। दूसरी नदी गंभीरी नदी है। जो मुझ में आकर समाती है। इनकी वजह से मैं दो समस्या से जूझ रही हूं।

एक आजकल मुझ में पानी कम होता जा रहा है और गंदगी की भरमार बढ़ रही है। इसका कारण मुझ में बरसात के बाद नाम मात्र का पानी बहता है। मेरा प्रवाह हर साल कम होता जा रहा है। मैं कुछ सालों पहले कल-कल करके बहती थी। मगर आजकल मैं उथली हो गई हूं। इस कारण अब मैं बरसाती नाला बन कर रह गई हूं। इसे तालाब भी कह सकते हैं।

दूसरी समस्या यह है कि मुझ में लगातार प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। मेरा पानी लगातार गन्दा होता जा रहा है। इसका कारण यह है कि मुझमें खान नदी आकर मिलती है। यह इंदौर के गंदे नाले की गंदगी लेकर लेकर आती है जो मुझ में लगातार प्रवाहित होती है। मुझे गंदा व उथला बना रहा है।

इस पानी में प्रचुर मात्रा में धातुएं, हानिकारक पदार्थ, रसायन, ऑर्गेनिक व अपशिष्ट खतरनाक पदार्थ मुझ में लगातार मिलते रहते हैं। इसी तरह देवास के औद्योगिक क्षेत्र का चार लाख लीटर प्रदूषित जल भी मुझ में मिलता है। साथ ही मेरे किनारे पर बसे कल-कारखानों का गंदा पानी भी मुझ में निरंतर मिलता रहता है।

इन सब के कारणों से मेरा पानी पीने लायक नहीं रह गया है। ओर तो ओर यह नहाने लायक भी नहीं है। यह बदबूदार प्रदूषित पानी बनकर रह गया है। कारण, मुझ में लगातार गंदगी प्रवाहित होना है।

यही वजह है कि पिछ्ले सिंहस्थ मेले में मुझ में नर्मदा नदी का पानी लिफ्ट करके छोड़ा गया था। जिसकी वजह से गत साल सिंहस्थ का मेला बमुश्किल और सकुशल संपन्न हो पाया था। यदि बढ़ते प्रदूषण का यही हाल रहा तो एक समय मेरा नामोनिशान तक मिल जाएगा। मैं गंदा नाला बन कर रह जाऊंगी।

खैर! यह मेरे मन की पीड़ा थी। मैंने आपको बता दी है। यदि आप सब मिलकर प्रयास करें तो मुझे वापस कल-कल बहती मोक्षदायिनी शिप्रा के रूप में वापस पुनर्जीवित कर सकते हैं।

और हां, एक बात ओर हैं- मुझ में जहां 3 नदियां यानी खान, सरस्वती (गुप्त) और मैं शिप्रा नदियां- जहां मिलती हूं उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इस तरह में 195 किलोमीटर का लंबा सफर तय करके चंबल में मिल जाती हूं  यह वही चंबल है जो आगे चलकर यमुना नदी में मिलती है।  यह यमुना नदी, गंगा में मिलकर एकाकार हो जाती हूं इस तरह मैं मालवा की मोक्षदायिनी नदी- गंगा भारत की प्रसिद्ध गंगा नदी में विलीन हो जाती हूं।

यही मेरी आत्मकथा है।

आपसे करबद्ध गुजारिश है कि मुझे बनाए रखने के लिए प्रयास जरूर करना। ताकि मैं मालवा की गंगा मालवा में कल-कल कर के सदा बहती रहूं। जय गंगे! जय शिप्रा।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-06-2022

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 248 ☆ बाल गीत – मम्मा इत्ते  छोटे दिन … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 248 ☆ 

☆ बाल गीत – मम्मा इत्ते  छोटे दिन  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सूरज लगता बाल सुमन।

जगकर प्रातः करें नमन।।

नरम धूप सूरज की भइया

ता – ता – ता – ता थप्पक – थइया।।

बैठ धूप में मम्मा सुन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

 *

शाम गुलाबी , सुबह ठिठुरती।

रात की रानी खूब महकती।

हरसिंगार महक गुनगुन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

शीत सताए हवा ठुमकती।

बदरा बिजली कभी चमकती।

गाल गुलाबी , शीतल तन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

 *

कभी कुहासा, कभी उजाला।

धूप विटामिन डी का प्याला।

ओढ़ रजाई भरता मन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

 *

महक मोगरा मन है हरती।

चाँद चाँदनी खूब दमकती।

मम्मा इत्ते छोटे दिन।

सूरज लगता बाल सुमन।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #277 – कविता – ☆ कलरव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता कलरव…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #277 ☆

☆ कलरव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

सुबह शाम वृक्षों के झुरमुट में

बैठती पंचायतें

दिनभर की हलचल का, करें सब बखान

पंछियों का होता नित, मृदु कलरव गान।

 

सूर्योदय भोर के, प्रकाश में विभोर हो

गाते नित मिले-जुले, स्वरों में प्रभाती

गौरैया, तोते, तीतर, बटेर कोयल सँग

जुड़ जाते काग भी, कबूतर,मैना साथी,

मिला-जुला मोहक कलरव प्रवाह

मधुरिम सी तान,

पंछियों का होता नित

मृदु कलरव गान।

 

दाना-पानी तलासते, दिन भर यहाँ-वहाँ

पेट की जुगाड़ में, न देखते नदी पहाड़

मीलों की दूरियाँ, खग नापते इधर-उधर,

चुगना देते शिशुओं को, करते नेह लाड़,

गोधूलि बेला संध्या पूजन सँग

आरती-अजान

पंछियों का होता नित

मृदु कलरव गान।

 

कलरव जल-जंगल का, मन का संताप हरे

नदियों की हँसती, इठलाती हर्षित लहरें

प्रणव गान प्रकृति में,  गुंजित है  निश्छल सा

पोषित करती फसलें, जल अमृतमय नहरें

खग,मृग,जल-जंगल को, सुनें-गुनें

प्रकृति विधान

पंछियों का होता नित

मृदु कलरव गान।

 

दायित्वों को समझें, जो हमें निभाना है

गर भौरों की गुंजन, कलरव सुख पाना है

हरे-भरे वन, पर्यावरण शुद्ध स्वच्छ रखें

प्राणिमात्र के प्रति, सद्भाव शुभ दिखाना है

भूखे-प्यासे न रहे, ये निरीह पशु-पक्षी

रखें सदा ध्यान,

पंछियों का होता नित

मृदु कलरव गान।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 101 ☆ राजा जी की ड्योढ़ी ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “राजा जी की ड्योढ़ी” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 101 ☆ राजा जी की ड्योढ़ी ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

राजा जी की ड्योढ़ी चढ़-चढ़

अब तो पाँव पिराने

दिन बदले न रातें बदलीं

बदले सभी ठिकाने।

 

कहाँ लगाएँगे अर्जी

कुछ तो बतलाओ भाई

कौन करेगा ईमानों की

अपनी अब सुनवाई ।

 

तारीख़ें बदली हैं केवल

सदा लगे जुर्माने ।

 

पोंछ पसीना अगुवाई में

खड़े लगाए आशा

उम्मीदों में झूल रही है

आशा और निराशा

 

विश्वासों की बागुड़ टूटी

दर्द लगे चिल्लाने ।

 

दुख के घर में रहते

हरदम बस अभाव ही काटे

अनुदानों में बँटी रेवड़ी

अपने हिस्से घाटे

 

यद्यपि हक़ में लिखी गईं सब

कविताएँ,अफ़साने।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मलाल न कर ये वक्त भी गुजर जायेगा… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – मलाल न कर ये वक्त भी गुजर जायेगा।)

✍ मलाल न कर ये वक्त भी गुजर जायेगा… ☆ श्री हेमंत तारे  

दर पर खडा  आज  भी  कोई  पूरनम  होगा

कौन  जाने  किसने  किसको  रुलाया   होगा

*

कर    लेते   थे   दीदार  बन्द  आंखों  से कभी

अब वो बीनाई न रही, ये उम्र का सितम होगा

*

फिज़ा     में   तहलील   महक   का  इशारा   है

तू परीशाँ न हो, वो यहीं कहीं, आस-पास होगा

*

सुना     है   के   वो   घिरा  रहता  है   रकीबों  से

जो वफ़ादार होगा वो ही ईश्क में क़ामयाब होगा

*

लाजिमी  है  के   कोई  राज पोशिदा ना रहे

किया है ईश्क, तो भरोसा भी जताना होगा

*

मलाल   न  कर   ये   वक्त   भी   गुजर   जायेगा

चन्द लम्हों कि है बात, अब शम्स जलवागार होगा

*

इतना बेबस भी न हो, कुछ कदम और चल,

उस  ख़म   पर  वाके   मयकदा  खुला   होगा

*

तू  खुशहाल  है “हेमंत”,  ये   महज  इत्तेफ़ाक  नही

बहुत किया है धूप का सफ़र, ये उसका असर होगा

(बीनाई = आंखों की रोशनी, फिज़ा = वातावरण, तहलील = घुली हुई, रकीब = मुहब्बत में प्रतिद्वंदी, पोशिदा = छिपा हुआ, शम्स = सूरज, ख़म = मोड , वाके = स्थित)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 104 ☆ पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 104 ☆

✍ पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

दामन के बशर दाग छुपाने में लगे हैं

ये किसमें कमी क्या है गिनाने में लगे हैं

 *

पल अगला मिले या न मिले कुछ नहीं मालूम

सामान कई वर्ष जुटाने में लगे हैं

 *

पत्थर न कभी मोम हुआ और न पिघला

माशूक को ग़म अपना सुनाने में लगे हैं

 *

कुत्ते की न हो पाई कभी पूछ है सीधी

हैवान को इंसान बनाने में लगे हैं

 *

औरों से बड़ा होना है खुद को बड़ा करना

पर दूसरों को लोग झुकाने में लगे हैं

 *

जो सोचते कल बच्चों का धन जोड़ बना दें

कर वो न हुनरमंद मिटाने में लगे हैं

 *

मुझपे वो सितम करने से तौबा करें इक दिन

जो सब्र  की बुनियाद हिलाने में लगे है

 *

ले नाम अरुण जिसका धकडता है मेरा दिल

महबूब मेरे मुझको भुलाने में लगे हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “अहसास“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆

✍ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

श्रीमती जी की आदत थी कि आम खाकर उसकी गुठली घर के पास ही कच्ची जगह में मिट्टी के अंदर दबा देती । कभी कभी घर के पास कच्ची जगह में फेंक देती। समय आने पर गुठली में से अंकुर फूटता, पहले जड़ दिखती फिर छोटा सा तना और उस पर छोटी छोटी पत्तियां। श्रीमती जी देखकर खुशी के मारे फूल जाती। अंकुरित गुठली को वह जगह मिलती वहां गाड़ देती। जब आम का छोटा सा पेड़ हो जाता तो हमारा तबादला हो जाता। पेड़ का क्या हुआ हमें कुछ पता नहीं चलता। हां, जहां होते वहां श्रीमती जी उस पेड़ की कल्पना करती कि अब बड़ा हो गया होगा, अब तो आम भी आ गए होंगे। ऐसा ही चलता रहता।

रिटायर होने के बाद जब यह घर बना तो आसपास काफी खाली जगह थी। श्रीमती जी आदत के अनुसार गुठली डाल दिया करती। की पेड़ भी हुए परंतु उनमें से एक पेड़ ही जीवित रहा। उसे बढते हुए देखकर सब खुश होते। आशु कल्पना करता कि जब आम लगेंगे तो पहला आम मैं खाऊंगा। गुड्डी तपाक से बोल पड़ती कि तुम्हीं क्यों, क्या मैं नहीं खा सकती पहला आम। फिर दोनों समझौता करते, अच्छा आधा आधा हम दोनों। उनकी बात सुनकर सब हँस पडते। बच्चे बड़े होते गए और पेड़ भी बड़ा होता गया।

अब पांच साल से वह पेड़ फल दे रहा है। कहते हैं कि पेड़ अपना फल नहीं खाता, बांट देता है, यह हम उस समय महसूस करते जब पका आम धप्प से गिरता। कुछ ग सलाह देते कि कच्चे आम तोड़ कर अचार डाल लो तो कुछ कहते कि तोड़ कर अखबार में लपेट कर रख दो, पर जाएंगे। परंतु श्रीमती जी को आम तोड़ना मंजूर नहीं था। कोई तोड़ने की कोशिश करता तो वह नाराज होती हैं और बच्चों को तो डांट ही देती है। कहती हैं कि पेड़ खुद थोड़े ही आम खाता है। जब फल पर जाता है तो तुरंत नीचे गिरा देता है। जिसके नसीब में होता है वह खा भी लेता है।

आज सुबह श्रीमती जी दरवाजा खोलकर खुली हवा खाने के निकलीं तो देखा कि सामने राजू टहल रहा है। उसने अचानक उछल कर दो अधपके आम तोड़ लिए। श्रीमती जी ने ऊपर की ओर देखा तो जहां से आम तोड़े थे उस जगह से पेड़ की डाल से दो बूंद पानी टपक रहा है और इधर श्रीमती जी की आंख से दो आंसू निकल कर गालों पर लुढ़क गए।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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