हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 15 ☆ लघुकथा – मंदाकिनी… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा  – “मंदाकिनी“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 15 ☆

✍ लघुकथा – मंदाकिनी… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

मंदाकिनी को पूरा अहसास है कि कभी भी बुलावा आ सकता है। फिर भी चेहरे पर मुस्कराहट हमेशा की तरह विराजमान। बस बातें करती जा रही है जैसे कुछ अटका हुआ है और वह उससे मुक्ति पाना चाहती हो। अपनी एक मित्र सुस्मिता के बारे में बता रही है। बहुत बीमार थी। हृदयाघात का झटका पड़ा था। ऑक्सीजन लगी हुई थी परंतु सोमनाथ यानी कि उसके पतिदेव उसे बहुत उल्टा सुल्टा सुनाये जा रहे थे। झगड़ा तो होता रहता था उनमें परंतु समय का भी लिहाज नहीं। जैसे झगड़ा सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो, बीमारी से, उच्च रक्तचाप से और हृदयाघात से भी। यही नहीं दोनों एक दूसरे पर लांछन लगाने से पीछे नहीं हटते थे चाहे डॉक्टर नर्स आकर बार बार चेतावनी देते देते खुद परेशान क्यों न हो जाएं।

हंसते से बोली, और वह सुस्मिता, वह तो मुंह से ऑक्सीजन हटा कर सोमनाथ को दांत पीसते कहने लगी कि तुम नाली के कीड़े हो, तुमसे तो कुत्ता भी अच्छा है, खाकर दुम तो हिलाता है। तुम तो खाकर खाने को दौड़ते हो। मैंने उसे बिस्तर पर लिटाते हुए आराम करने के लिए कहा तो वह और सुनाने लगी- अरे दीदी तुम इस आदमी को नहीं जानती। इसके अंदर कितना विष भरा है, कितनी जलन भरी है। यह किसी की सफलता से खुश नहीं होता, न हो सकता है। किसी की तारीफ तो मानो इसके कानों को पिघले सीसे के समान लगती है। बस सब इसकी तारीफ करें। यह छींके भी तो लोग कहें कि वाह क्या छींक है तो यह अपनी छींक से भी खुश होता है लेकिन तारीफ करने वाले से खुश नहीं होता। और मेरी सफलता या तारीफ तो इसे ऐसी लगती है जैसे , जैसे और जब वह कहते कहते हांफने लगी तो मैंने जबरदस्ती उसके मुंह पर ऑक्सीजन मास्क लगा दिया।

सुस्मिता शांत लेट गई। उसकी सांस सहज होती जा रही थी और सोमनाथ कमरे से बाहर निकल कर बरामदे में टहलने का उपक्रम करने लगे। सुस्मिता शांत लेटी थी पर मेरे ख्यालों में बोले जा रही थी, अरे दीदी इस आदमी की क्या बताऊं, इसकी मरजी या पसंद वाला कोई नेता बड़ा मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बन पाता, कोई और बन जाता है तो वह इसका ऐसा जानी दुश्मन बन जाता है कि उसका नाम तक सुनना पसंद नहीं करता यह जबकि किसी भी नेता से इसका दूर दूर का कोई संबंध नहीं होता। न कभी मिला किसी से और न इसे कोई पूछता है, यह न किसी राजनीतिक दल में है, न कार्यकर्ता है, न किसी नेता से कभी मिला न कोई मतलब, फिर भी अपनी पसंद। और जो घर में है, ऑफिस में हैं उनसे भी यही आशा कि या तो इसकी तारीफ करें या इसकी पसंद के लोगों की। यह कभी ऐसा तो सोचता ही नहीं कि और लोगों की अपनी पसंद नापसंदगी होती है। यह मामूली आदमी मेरी और घर की चिंता छोड़ जब अपने पसंदीदा नेता की बेमतलब चिंता करता है तो मेरे तन बदन में आग लग जाती है। घर संभलता नहीं, देश संभालने की बात करता है।

अपने संस्मरण सुनाते सुनाते मंदाकिनी थकान सी महसूस करने लगी और उसकी आवाज़ धीमी से धीमी होने लगी। मुझे लगा उसे नींद आने लगी है। नींद में फुसफुसाने लगी अब आगे कल बताऊंगी भाईसाहब। और उसकी कल, नींद खुलने पर ही हो जाती है। मैं इसी सोच में डूबा हुआ हूं कि मंदाकिनी इतनी गंभीर कवयित्री, लेखिका इतना लिखने के बावजूद हृदय में कितना अंबार लिए हुए है। हर किसी की पीड़ा को अपनी समझ कर जीती है और परेशान रहती है। स्वार्थ तो उसे छू भी नहीं गया। औरों की पीड़ा सहते सहते अपनी पीड़ा से तो जैसे कोई सरोकार ही नहीं। और इसीलिए विवाह का सोचा तक नहीं। मां बाप जब तक जीवित रहे उनकी सेवा करती रही। भाई कोई था नहीं। एक बहन थी सो ब्याह करके अपनी दुनिया में बस गई। अपनी बीमारी की बात भी उसने किसी को नहीं बताई। मुझे भी कहां बताया। मैं अपने एक मित्र को देखने आया था, तब उसका कमरा खुला था सो मैंने देख लिया। अंदर जाकर देखा तो आंख मिलाने से कतरा रही थी। मुझे भी, … मेरे मुंह से इतना ही निकला तो उसकी आंख से एक आंसू ढुलक गया। भाभी को नाहक तकलीफ होती इसीलिए…. और वाक्य अधूरा छोड़ दिया। मैं गुस्से में मुंह फुलाकर स्टूल पर बैठा रहा कुछ बोला नहीं। धीरे से बोली अच्छा होता मुझे आप यहां देख ही न पाते। मेरी आंखों में आंसू तैर रहे थे पर बड़ी मुश्किल से रोक पा रहा था। आखिर उसका था कौन, भाई, मित्र, पिता, माता सब मिलकर एक मैं। डॉक्टर से पता चल गया था कि लास्ट स्टेज का कैंसर है। पर उसने मुझे अहसास तक नहीं होने दिया। भाई साहब होनी को कोई टाल नहीं सकता। आप मेरी बात सुन लीजिए, वही आपका आखरी अहसान होगा। मैंने सहमति सूचक निगाह से देखा तो सुनाने लगी, वो मेरी एक सहेली सुष्मिता, आप नहीं जानते, उसकी बहुत याद आ रही है। मैंने कहा जिसकी कहानी तुम कल सुना रही थी।

वह कहानी नहीं भाईसाहब, मनुष्य जीवन का एक ऐसा हिस्सा है जिसे मैं शब्द ही नहीं दे पाई। उसके पति और उसके बीच के संबंध की एक बानगी कल आपको सुनाई थी। मेरी हैरानी की बात यह है कि सुस्मिता उसके साथ रह कैसे रही है, कहती है पति को प्यार भी करती है। क्या स्त्री पुरुष के साथ रहने की विवशता को प्यार की संज्ञा दी जा सकती है। थोड़ी देर कुछ नहीं बोली तो मेरा ध्यान उसकी ओर गया तो देखा कि पंखे को घूर रही है। पर वह है कहां?

निर्जीव आंखें हैं। मैं सोच रहा हूं कि वास्तव में औरों के लिए जिया जा सकता है।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 65 – परवाह का रंग… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – परवाह का रंग।)

☆ लघुकथा # 65 – परवाह का रंग श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“अरे तुमने सुना कमला वो तुम्हारे पड़ोसी सोनी जी का बेटा विदेश जा रहा है? माँ बाप को वृद्धाश्रम भेजकर।  कितना आज्ञाकारी बनता था, भाई ऐसी औलाद से तो ईश्वर बच्चा ही न दे।” एक सांस में पूरी खबर सुना दी रेखा भाभी ने कमला को।

कमला धीरे से बोली – “आपको किसने कहा? किससे पता चली ये बात?”

“बस तुम्हें ही खबर नहीं, सारा मोहल्ला थू -थू कर रहा है अभी तो सुनकर आ रही हूँ।”

“भाभी सुनी हुई बात हमेशा सच हो जरूरी नहीं! अभी थोड़ी देर पहले फोन पर आंटी से मेरी बात हुई है। उन्होंने बताया कि उनका बेटा ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहा है। अपनी बिटिया के पास रहने के लिए जा रही हैं। आप स्वयं समझदार हैं? आपकी बहू और बेटे के बारे में भी तो लोग जाने क्या क्या कहते हैं…। अफवाहों पर यकीन ना करें तो अच्छा रहेगा बाकी आप स्वयं सोच लो…।”

“अच्छा चलो! यह सब बात छोड़ देते हैं। कमला एक कप चाय तो पिला दो। क्या करूँ ? आदत से मजबूर हूँ। लेकिन तुमने बहुत अच्छी बात कही अब मैं अपने घर परिवार के रिश्ते को मजबूत करूंगी। जा रही हूँ कमला।  बहू के घर के कामों में उसकी मदद करती हूं। तभी तो परवाह का रंग चढ़ेगा।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 266 ☆ बदल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 266 ?

☆ बदल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती बदलते सगळेच ,

एका रंगपंचमीला रंगीबेरंगी साड्या

नेसून मॉर्निंग वाॅकला गेलो….

आणि झाशीच्या राणीच्या,

पुतळ्याजवळ ,

साजरी झाली गप्पांची

रंगपंचमी !

 

एका तुकाराम बीजेला,

केली देहूची वारी,

कविता तिथेही होतीच,

आपली सांगाती!

 

गुढीपाडवा ही साजरा केला,

कवितेची गुढी उभारून

धुळ्यात!

दौंडची ‘भोगी’

 संक्रांत, दसरा,

दिवाळी, पंधरा ऑगस्ट,

सव्वीस जानेवारी, शिवरात्र….

सारेच सण आणि उत्सव,

कवितेच्या रंगात रंगलेले !

 

पण आता,

कुणाच्या तरी कवितेत ऐकलेलं—-

हे कवितेचं मांजर,

मलाही पोत्यात घालून,

दूर कुठेतरी सोडून —

द्यावसं वाटतंय ,

आणि हीच समारोपाची ,

कविता ठरावी असंही !!

१ एप्रिल!२०२५

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३५ – रेडिओ – भाग दुसरा ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – – ३५ – रेडिओ – भाग दुसरा  ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

रेडिओ – भाग दुसरा 

(हे “गीत रामायण” वर्षभर श्रोत्यांनी प्रचंड भावनात्मकतेने, श्रद्धेने आणि अपार आनंदाने ऐकले.) 

इथून पुढे — 

आज काय रामजन्म होणार…

सीता स्वयंवर ऐकायचे आहे…

राम, सीता, लक्ष्मण वनवासात चालले आहेत..

“माता न तू वैरिणी” म्हणत भरत कैकयीचा तिरस्कार करतोय…

भरत भेटीच्या वेळेस,

।पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा।

या गाण्याने तर कमाल केली होती.

सेतू बांधा रे” या गाण्याबरोबर श्रोतृवर्ग वानरसेने बरोबर जणू काही लंकेलाच निघाला. घरोघर “सियावर रामचंद्रकी जय” चा गजर व्हायचा.

शेवटचं,

।गा बाळांनो श्री रामायण। या गाण्याने कार्यक्रमाचा जेव्हा समारोप झाला तेव्हा एक अनामिक हुरहूर दाटून आली. खरोखरच या श्रोतृगणात आमची पिढी होती हे आमचं किती भाग्य! या अमर महाकाव्याची जादू आम्ही या रेडिओमुळे प्रत्यक्ष अनुभवली. त्यानंतरच्या काळात गीतरामायणाचे अनेक प्रत्यक्ष कार्यक्रम झाले.. आजही होतात पण रेडियोवर ऐकलेल्या त्या पहिल्या कार्यक्रमाची मजाच और होती! आजही आठवताना, लिहिताना, माझ्या अंगावर काटा फुलतो. कसे आम्ही कुटुंबीय, शेजारी, आजूबाजूचे सारेच हातातली कामे टाकून गीत रामायणातल्या समृद्ध रचना गाणाऱ्या रेडिओ जवळ मग्न होऊन, भान हरपून बसून राहायचे आणि पुढच्या आठवड्याची प्रतीक्षा करायचे.

आज ओठातून सहज उद्गार निघतात, “रेडिओ थोर तुझे उपकार.”

शालेय जीवनातला आणखी एक- रेडिओ सिलोन वरून प्रसारित होणारा अतीव आनंददायी, औत्स्युक्यपूर्ण कार्यक्रम म्हणजे “बिनाका गीतमाला

अमीन सयानी”चं बहाररदार निवेदन आणि तत्कालीन हिंदी चित्रपटातील एकाहून एक आवडती गाणी ऐकताना मन फार रमून जायचं. दर बुधवारी रात्री आठ वाजता, रेडिओ सिलोन वरून प्रसारित होणारा हा कार्यक्रम आम्ही न चुकता ऐकायचो. त्यासाठी दुसऱ्या दिवशीचा गृहपाठ पटापट संपवून “बिनाका गीतमाला” ऐकण्यासाठी सज्ज व्हायचे हे ठरलेलेच. आज कुठले गाणे पहिल्या पादानवर येणार यासाठी मैत्रिणींमध्ये पैज लागलेली असायची. तसेच नव्याने पदार्पण करणार्‍या शेवटच्या पादानवरच्या गाण्याचे ही अंदाज घेतले जायचे. आम्ही अक्षरश: “बिनाका गीतमालाची” डायरी बनवलेली असायची. शेवटच्या पादानपासून पहिल्या पादानपर्यंतची दर बुधवारची गाण्यांची यादी त्यात टिपलेली असायची. मुकेश, रफी, तलत, आशा, लताची ती अप्रतीम गाणी ऐकताना आमचं बालपण, तारुण्य, फुलत गेलं.

जाये तो जाये कहा..

जरा सामने तो आओ छलिया..

है अपना दिल तो आवारा..

जिंदगी भर नही भूलेंगे..

जो वादा किया वो..

बहारो फुल बरसाओ..

बोल राधा बोल..

बिंदिया चमकेगी, कंगना खनकेगी..

वगैरे विविध सुंदर गाण्यांनी मनावर नकळत आनंदाची झूल या कार्यक्रमातून पांघरली होती.

दुसऱ्या दिवशी शाळेतही मधल्या सुट्टीत पटांगणातल्या आंब्याच्या पारावर बसून आम्ही मैत्रिणी ही सारी गाणी सुर पकडून (?) मुक्तपणे गायचो. अमीन सयानीचे विशिष्ट पद्धतीने केलेले सूत्रसंचालन, त्याचा आवाज आम्ही कसे विसरणार? अजूनही हे काही कार्यक्रम चालू आहेत की बंद झालेत हे मला माहीत नाही. असतीलही नव्या संचासहित पण या कार्यक्रमाचा तो काळ आमच्यासाठी मात्र अविस्मरणीय होता हे नक्की.

फौजीभाईंसाठी लागणार्‍या विविधभारतीनेही आमचा ताबा त्याकाळी घेतला होता.

वनिता मंडळ नावाचा एक महिलांसाठी खास कार्यक्रम रेडिओवरून प्रसारित व्हायचा. तो दुपारी बारा वाजता असायचा. त्यावेळी आम्ही शाळेत असायचो पण आई आणि जिजी मात्र हा कार्यक्रम न चुकता ऐकायच्या. खरं म्हणजे त्या काळातल्या सर्वच गृहिणींसाठी हा कार्यक्रम महत्त्वाचा आणि मनोरंजनाचा ठरला होता. माझा या कार्यक्रमांशी प्रत्यक्ष संबंध आयुष्याच्या थोड्या पुढच्या टप्प्यावर आला. त्यावेळच्या आठवणी माझ्यासाठी खूप महत्त्वाच्या आहेत. अकरावीत असताना

माझे अत्यंत आवडते, इंग्लिश शिकवणारे, खाजगी क्लासमधले “काळे सर” हे जग सोडून गेले तेव्हा मी खूप उदास झाले होते. त्यांच्या स्मृतीसाठी मी एक लेख लिहिला आणि “वनिता मंडळ” या आकाशवाणीच्या कार्यक्रमात तो सादर करण्याची मला संधी मिळाली. त्यावेळी मा. लीलावती भागवत, विमल जोशी संयोजक होत्या. त्यांना लेख आणि माझे सादरीकरण दोन्ही आवडले आणि तिथूनच आकाशवाणी मुंबई केंद्रावर माझ्या कथाकथनाच्या कार्यक्रमाची नांदी झाली. तेवढेच नव्हे तर मी लेखिका होण्याची बीजे या आकाशवाणीच्या माध्यमातूनच रोवली गेली. माननीय लीलावती भागवत या माझ्या पहिल्या लेखन गुरू ठरल्या. रेडिओचे हे अनंत उपकार मी कसे आणि का विसरू?

अगदी अलीकडे “उमा दीक्षित” संयोजक असलेल्या एका महिला कार्यक्रमात कथाकथन करण्यासाठी मी आकाशवाणी मुंबई केंद्रावर गेले होते. पन्नास वर्षात केवढा फरक झाला होता! दूरदर्शनच्या निर्मितीमुळे आकाशवाणीला ही अवकळा आली असेल का असेही वाटले. नभोवाणी केंद्राचे एकेकाळचे वैभव मी अनुभवलेले असल्यामुळे त्या क्षणी मी थोडीशी नाराज, व्यथित झाले होते. फक्त एकच फरक पडला होता. त्या दिवशीच्या माझ्या कार्यक्रमाचा अडीच हजाराचा चेक मला घरपोच मिळाला होता पण त्याकाळचा १५१ रुपयाचा चेक खात्यात जमा करताना मला जो आनंद व्हायचा तो मात्र आता नाही झाला. आनंदाचे क्षण असे पैशात नाही मोजता येत हेच खरं! माझ्या कथाकथनाला अॉडीअन्स मिळेल का हीच शंका त्यावेळी वरचढ होती.

आता अनेक खाजगी रेडिओ केंद्रेही अस्तित्वात आहेत. गाडीतून प्रवास करताना अनेक RJ न्शी ओळख होते. कुठल्याही माध्यमांची तुलना मला करायची नाही पण एक नक्की माझ्या मनातलं नभोवाणी केंद्र… ऑल इंडिया रेडिओ… त्याचे स्थान अढळ आहे आज मी रेडिओ ऐकत नाही हे वास्तव स्वीकारून सुद्धा… 

“ताई उठता का आता? चहा ठेवू का तुमचा? साखर नाही घालत.. ”

सरोज माझ्या डोक्यावर हात ठेवून मला उठवत होती…

“अगबाई! इतकं उजाडलं का? उठतेच..

आणि हे बघ तो रेडियो चालूच ठेव. बरं वाटतं गं!ऐकायला”

गरमगरम वाफाळलेला आयता चहा पिताना रेडियोवर लागलेलं कुंदा बोकीलचं,

।शाळा सुटली पाटी फुटली

आई मला भूक लागली।

हे गाणं ऐकत पुन्हा मी त्या आनंददायी ध्वनीलहरीत बुडून गेले.

– क्रमश: भाग ३५ – समाप्त.

 क्रमशः…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 95 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 1 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 95 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 1 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

केवल तन रहता है घर में 

सदा रहे मन किन्तु सफर में 

बाहर नहीं दिखाई देता 

जो बैठा है अभ्यंतर में।

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हर साजो-सामान तुम्हारा,

यश वैभव सम्मान तुम्हारा,

माँ जैसे अनमोल रत्न बिन,

नाहक है अभिमान तुम्हारा।

0

जीवन के संघर्ष पिता थे,

सारे उत्सव हर्ष पिता थे,

संस्कृतियों के संगम थे वे,

पूरा भारतवर्ष पिता थे।

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बच्चों की अठखेली अम्मा, 

दुःख की संग सहेली अम्मा, 

प्यासों को शीतल जल जैसी, 

भूखों को गुड़-ढेली अम्मा।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 169 – अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 169 – अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ… ☆

अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ।

नेह आँख में झाँक-झाँक कर, जिंदा हूँ।।

*

आश्रय की अब कमी नहीं है यहाँ कहीँ,

चाहत रहने की अपने घर, जिंदा हूँ।

*

खोल रखी थी मैंने दिल की, हर खिड़की।

भगा न पाया अंदर का डर, जिंदा हूँ।

*

तुमको कितनी आशाओं सँग, था पाला।

छीन लिया ओढ़ी-तन-चादर, जिंदा हूँ।

*

माना तुमको है उड़ने की, चाह रही।

हर सपने गए उजाड़ मगर, जिंदा हूँ।

*

विश्वासों पर चोट लगाकर, भाग गए।

करके अपने कंठस्थ जहर, जिंदा हूँ।

*

धीरे-धीरे उमर गुजरती जाती है।

घटता यह तन का आडंबर, जिंदा हूँ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 174 ☆ “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” – कहानीकार – डॉ. हंसा दीप ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा डॉ. हंसा दीप जी द्वारा लिखित कहानी संग्रह मेरी पसंदीदा कहानियाँपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 174 ☆

“मेरी पसंदीदा कहानियाँ” – कहानीकार – डॉ. हंसा दीप ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कहानीकार – डॉ. हंसा दीप, टोरंटो

कहानी संग्रह – मेरी पसंदीदा कहानियाँ

किताब गंज प्रकाशन,

मूल्य 350रु

कथा साहित्य के मानकों पर खरी कहानियां

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव,

डॉ. हंसा दीप हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट कहानीकार हैं, जिनकी रचनाएँ प्रवासी जीवन की संवेदनाओं, मानवीय संबंधों की जटिलताओं और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के लिए जानी जाती हैं। उनका कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” (किताबगंज प्रकाशन) उनकी लेखन शैली की परिपक्वता और कथ्य की गहराई का प्रमाण है। हिंदी कथा साहित्य के मानकों—जैसे कथानक की मौलिकता, चरित्र-चित्रण की गहनता, भाषा की समृद्धि और सामाजिक संदर्भों का समावेश—के आधार पर इस संग्रह की कहानियां खरी उतरती हैं।

हिंदी कथा साहित्य में कथानक की मौलिकता लेखक की सृजनात्मकता का आधार होती है। डॉ. हंसा दीप की कहानियाँ साधारण जीवन की घटनाओं को असाधारण संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हैं। “टूक-टूक कलेजा” में एक नायिका अपने पुराने घर को छोड़ने की भावनात्मक यात्रा को जीती है। “सामान का आखिरी कनस्तर ट्रक में जा चुका था। बच्चों को अपने सामान से भरे ट्रक के साथ निकलने की जल्दी थी। वे अपनी गाड़ी में बैठकर, बगैर हाथ हिलाए चले गए थे और मैं वहीं कुछ पलों तक खाली सड़क को ताकती, हाथ हिलाती खड़ी रह गयी थी। ” यह अंश विस्थापन की पीड़ा और पारिवारिक संबंधों में बढ़ती दूरी को सूक्ष्मता से उजागर करता है। यह कथानक प्रेमचंद और जैनेन्द्र की परंपरा को आगे बढ़ाता है, जहाँ रोज़मर्रा की घटनाएँ गहरे मानवीय सत्य को प्रकट करती हैं।

वहीं, “दो और दो बाईस” में एक पैकेज की डिलीवरी के इर्द-गिर्द बुना गया कथानक प्रवासी जीवन की अनिश्चितता और अपेक्षाओं के टकराव को दर्शाता है। “पड़ोस में आयी पुलिस की गाड़ी ने मुझे सावधान कर दिया। उनके जाते ही बरबस वे पल जेहन में तैर गए जब मेरा पुलिस से सामना हुआ था। ” यहाँ सस्पेंस और मनोवैज्ञानिक तनाव का संयोजन कहानी को रोचक बनाता है।

उनकी कहानियाँ व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक संदर्भों से जोड़ने में सक्षम हैं।

कहानी में पात्रों का जीवंत चित्रण कथा की आत्मा होता है। डॉ. हंसा दीप के पात्र बहुआयामी और संवेदनशील हैं। “टूक-टूक कलेजा” की नायिका अपने घर के प्रति गहरे लगाव और उससे बिछड़ने की पीड़ा को इस तरह व्यक्त करती है कि वह पाठक के मन में एक सशक्त छवि बनाती है। “मैंने उस आशियाने पर बहुत प्यार लुटाया था और बदले में उसने भी मुझे बहुत कुछ दिया था। वहाँ रहते हुए मैंने नाम, पैसा और शोहरत सब कुछ कमाया। ” यहाँ उसका आत्मनिर्भर और भावुक व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। यह चरित्र-चित्रण हिंदी साहित्य में नारी के पारंपरिक चित्रण से आगे बढ़कर उसे एक स्वतंत्र और जटिल व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करता है।

“दो और दो बाईस” में नायिका की बेसब्री और आत्म-चिंतन—”अवांछित तनाव को मैं आमंत्रण देती हूँ”—उसके मनोवैज्ञानिक गहराई को दर्शाते हैं। उनकी कहानी “छोड़ आए वो गलियाँ” में भी एक प्रवासी स्त्री का अपने मूल से कटने का दर्द इसी संवेदनशीलता के साथ चित्रित हुआ है। उनकी इस अभिव्यक्ति क्षमता की प्रशंसा की ही जानी चाहिए। वे अपने पात्रों को सामान्य जीवन की असामान्य परिस्थितियों में रखकर उनकी आंतरिक शक्ति को उजागर करती हैं।

भाषा का लालित्य और शिल्प की कुशलता लेखक की पहचान होती है। डॉ. हंसा दीप की भाषा सहज, भावप्रवण और काव्यात्मक है। “टूक-टूक कलेजा” में “उसी खामोशी ने मुझे झिंझोड़ दिया जिसे अपने पुराने वाले घर को छोड़ते हुए मैंने अपने भीतर कैद की थी” जैसे वाक्य भाषा की गहराई और भावनात्मक तीव्रता को प्रकट करते हैं। इसी तरह, “आँखों की छेदती नजर ने जिस तरह सुशीम को देखा, उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी” जैसे वाक्य संवाद और वर्णन के बीच संतुलन बनाते हैं। उनकी शैली में एक प्रवाह है, जो पाठक को कथा के साथ रखता है।

उनकी शैली में लोक साहित्य की छाप भी दिखती है।

हंसा दीप की कहानियाँ प्रवासी जीवन के अनुभवों को हिंदी साहित्य में एक सामाजिक आयाम देती हैं।

 वे अपने मूल से कटने की भावना को रेखांकित करती हैं। उनकी कहानी “शून्य के भीतर” भी आत्मनिर्वासन और पहचान के संकट को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। वैश्वीकरण के दौर में भारतीय डायस्पोरा की भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक यात्रा को चित्रित करने में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी कहानियाँ न केवल व्यक्तिगत अनुभवों को उकेरती हैं, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों पर भी टिप्पणी करती हैं। यह हिंदी साहित्य की उस परंपरा को आगे बढ़ाता है, जिसमें कहानी सामाजिक चेतना का दर्पण बनती हैं। पुरस्कार और मान्यता के संदर्भ में

डॉ. हंसा दीप की लेखन प्रतिभा को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जैसे कमलेश्वर उत्तम कथा पुरस्कार (2018), विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस की अंतरराष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता (2019), और शत प्रतिशत कहानी संग्रह के लिए शांति-गया सम्मान (2021) । ये पुरस्कार उनकी कहानियों की गुणवत्ता और हिंदी साहित्य में उनके योगदान को प्रमाणित करते हैं।

इस पुस्तक में दोरंगी लेन, हरा पत्ता, पीला पत्ता, टूक-टूक कलेजा, फालतू कोना, शून्य के भीतर, सोविनियर, शत प्रतिशत, इलायची, कुलाँचे भरते मृग, अक्स, छोड आए वो गलियाँ, पूर्णविराम के पहले, फौजी, पापा की मुक्ति, नेपथ्य से, ऊँचाइयाँ, दो और दो बाईस, पुराना चावल, चेहरों पर टँगी तख्तियाँ शीर्षकों से कहानियां संग्रहित हैं।

डॉ. हंसा दीप का कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” हिंदी कथा साहित्य के सभी प्रमुख मानकों—कथानक की मौलिकता, चरित्र-चित्रण की गहराई, भाषा की समृद्धि और सामाजिक प्रासंगिकता—पर खरा उतरता है। संग्रह न केवल उनके व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक बनाता है, बल्कि प्रवासी चेतना को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में भी योगदान देता है। डॉ. हंसा दीप की यह कृति हिंदी साहित्य के समकालीन परिदृश्य में एक मूल्यवान जोड़ है और उनकी लेखन यात्रा का एक सशक्त प्रमाण है। कृति पठनीय है।

कहानीकार – डॉ. हंसा दीप 

22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817

[email protected]

पुस्तक चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 222 – नवरात्रि विशेष – जय माता दी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “जय माता दी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 222 ☆

🌻नवरात्रि विशेष🌻 🙏जय माता दी 🙏🌧️

सुंदर सजा दरबार माँ, पावन लगे सब रात है।

आराधना में जागते, देखो सजी नवरात है।।

 *

गल मुंड डाले कालिका, रण भेद करती शोर है।

गाते सभी माँ वंदना, कितनी सुहानी भोर है।।

शंकर कहें मैं जानता, है क्रोध में गौरी यहाँ।

मारे सभी दानव मरे, बच पाएगा कोई कहाँ।।

 *

जब युद्ध में चलती रही, दो नैन जलते  राह में।

कर दूँ सभी को नाश मैं, बस देव ही नित चाह में।।

ले चल पड़ी है शस्त्र को, देखें दिशा चहुँ ओर है।

अधरो भरी मुस्कान है, बाँधे नयन पथ डोर है।।

माँ कालिके कल्याण कर, हम आपके चरणों तले।

हर संकटों को दूर कर, बाधा सभी अविरल टले।।

विनती यही है आपसे, हर पल रहे माँ साथ में।

करुणा करो माँ चंडिके, स्वीकार हो सब हाथ में।।

 *

ये सृष्टि है गाती सदा, करती रहे गुणगान को।

जगतारणी माँ अंबिके, रखना हमारी शान को।।

नित दीप ले थाली सजी, करती रहूँ मैं आरती।

हो प्रार्थना स्वीकार माँ, भव पार तू ही तारती।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 125 – देश-परदेश – नज़र बट्टू ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 125 ☆ देश-परदेश – नज़र बट्टू ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में “नज़र बट्टू” विशेषकर उत्तर भारत के भागों में प्रमुखता से उपयोग किया जाता हैं। नए घर, संस्थान, वाहन या उस स्थान पर लगाया जाता है, जो सुंदर और आकर्षण होता हैं।

छोटे बच्चे को भी काजल का टीका लगा कर ये कवायत की जाती हैं। वाहन में विशेष रूप से ट्रक आदि पर काले रंग से भूत जैसी आकृति बना दी जाती हैं। कुछ वाहन चालक काले रंग की नकली बनी हुई चोटी भी लटका देते हैं।

ट्रक पर शेरो शायरी लिखने के साथ ही साथ “बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला” लिखने का रिवाज़ कई दशकों से चल रहा हैं। हमारे मित्र ने कुछ वर्ष पूर्व नई बाइक खरीदने के पश्चात उसकी पेट्रोल टंकी पर सिक्के से एक लाइन बना दी थी। पूछने पर बोला नज़र नहीं लगेगी और कोई दूसरा ये करता तो बुरा लगता है, इसलिए स्वयं ही इसे अंजाम दे दिया।

आज प्रातः काल भ्रमण के समय ऊपर लिखा हुआ दिखा  तो क्लिक कर दिया हैं। पहले तो हमें लगा कि कहीं अंधेरा होने के कारण कोई ट्रक तो नहीं हैं। वैसे मकान दिखने में भी कोई विशेष खूबसूरत नहीं प्रतीत हो रहा हैं, परंतु ये लगा हुआ बोर्ड बहुत चमक रहा हैं। हमें तो ये डर लग रहा है कहीं इस बोर्ड को ही ना नजर लग जाए। एक पुराना गीत भी है, ना, “नज़र लगी राजा तोरे बंगले पर”

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #278 ☆ हेका टाळण्यात गोडी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 278 ?

☆ हेका टाळण्यात गोडी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

देह गुऱ्हाळ केलेत, इतकी वागण्यात गोडी

वाटे घुंगरासारखी, तुमच्या बोलण्यात गोडी

*

येता दुसऱ्याच्या घरात, केला निर्मिती सोहळा

संसाराच्या चुलीमध्ये, हाडे जाळण्यात गोडी

*

गाठ मित्राच्या सोबती, होती सकाळीच पडली

सूर्यासोबत वाटावी, येथे पोळण्यात गोडी

*

कष्ट विस्मरणात जाती, बाळा पाहुनी झोळीत

फांदीवरती ही झोळी, वाटे टांगण्यात गोडी

*

सात जन्मातही नाही, त्यांचे फिटणार उपकार

आई-बापाचे हे ऋण, आहे फेडण्यात गोडी

*

वृक्षवल्ली तुकारामा, सारे तुमचेच सोयरे

माझ्यामध्ये शिरला तुका, झाडे लावण्यात गोडी

*

संन्यस्ताश्रमास पाळा, देईल शरीर इशारा

टाळा साखर झोपेला, हेका टाळण्यात गोडी

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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