(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे।
इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 96 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 2 ☆ आचार्य भगवत दुबे
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी द्वारा लिखित “इनविजिबल इडियट” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 175 ☆
☆ “इनविजिबल इडियट” – व्यंग्यकार… श्री प्रभाशंकर उपाध्याय☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
चर्चित व्यंग्य संग्रह.. इनविजिबल इडियट
व्यंग्यकार .. श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
भावना प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य 300रुपए, पृष्ठ 164
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
चर्चित कृति इनविजिबल इडियट, सामयिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को व्यंग्य के तीखे तेवर के साथ प्रस्तुत करती है। लेखक ने समाज में व्याप्त विसंगतियों, राजनीतिक पाखंड, साहित्यिक अवसरवादिता और मानवीय दुर्बलताओं को बेबाकी से उजागर किया है।
विषयवस्तु और व्यंग्य की प्रकृति
किताब में शामिल किए गए व्यंग्य लेखों से झलकता है कि इस कृति में अपनी पुरानी व्यंग्य पुस्तकों के क्रम में ही प्रभा शंकर उपाध्याय जी ने समकालीन सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों पर चोट की है। “सरकार इतने कदम उठाती है मगर, रखती कहाँ है?” और “गुमशुदा सरकार” जैसे लेखों में व्यंग्यकार ने प्रशासनिक और राजनीतिक ढांचे की विसंगतियों को तीखे कटाक्ष के साथ उठाया है। वहीं “कोई लौटा दे मेरे बालों वाले दिन” और “पके पपीते की तरह आदमी का टूटना” जैसे शीर्षक मानवीय भावनाओं और जीवन की नश्वरता को हास्य और व्यंग्य के मेल से प्रस्तुत करते हैं।
भाषा और शिल्प
व्यंग्य-लेखन में भाषा की धार सबसे महत्वपूर्ण होती है, और यहां व्यंग्यकार ने सहज, प्रवाहमयी और चुटीली भाषा का प्रयोग किया है। “भेड़ की लात”, “घुटनों तक, …. और गिड़गिड़ा”, “जुबां और जूता दोनों ही सितमगर” जैसे शीर्षक ही भाषा में रोचकता और पैनेपन की झलक देते हैं।
हास्य और विडंबना का संतुलन
एक अच्छा व्यंग्यकार केवल कटाक्ष नहीं करता, बल्कि हास्य और विडंबना पर कटाक्ष का संतुलित उपयोग करके पाठक को सोचने पर मजबूर कर देता है। “फूल हँसी भीग गई, धार-धार पानी में”, “तीन दिवस का रामराज”, “लिट्रेचर फेस्ट में एक दिन” जैसे लेख संकेत करते हैं कि किताब में व्यंग्य के माध्यम से समाज के गंभीर पहलुओं को हास्य के साथ जोड़ा गया है।
समकालीनता और प्रासंगिक लेखन
लेखों के शीर्षकों से स्पष्ट है कि इसमें समकालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर तीखी टिप्पणियाँ हैं। “डेंगू सुंदरीः एडीस एजिप्टी”, “भ्रष्टाचार को देखकर होता क्यों हैरान?” और “अंगद के पांव” आदि व्यंग्य लेख आज के दौर की ज्वलंत समस्याओं को हास्य-व्यंग्य के जरिये प्रस्तुत करते है।
व्यंग्य के मूल्यों की पड़ताल
पुस्तक केवल समाज और राजनीति पर ही कटाक्ष नहीं करती, बल्कि साहित्यिक हलकों की भी पड़ताल करती है। “साहित्य का आधुनिक गुरु”, “ताबड़तोड़ साहित्यकार”, “साहित्य-त्रिदेवों का स्तुति वंदन” जैसे शीर्षक यह दर्शाते हैं कि इसमें साहित्यिक दुनिया के भीतर की राजनीति और दिखावे पर भी व्यंग्य किया गया है।
यह किताब व्यंग्य-साहित्य के मानकों पर खरी उतरती है। इसमें हास्य, विडंबना, कटाक्ष और सामाजिक जागरूकता का अद्भुत मिश्रण दिखाई देता है। भाषा प्रवाहमयी और चुटीली है, लेखों में पंच वाक्य भरपूर हैं। विषयवस्तु समकालीन मुद्दों से गहराई से जुड़ी हुई है। अगर लेखों का शिल्प और कथ्य शीर्षकों की रोचकता के अनुरूप है। मैने यह पुस्तक व्यंग्य की एक प्रभावशाली कृति के रूप में पाई है।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण सजल “साहित्यकार बहुत व्यस्त हैं…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 170 – सजल – साहित्यकार बहुत व्यस्त हैं… ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “मौन रामलला”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 223 ☆
🌻लघुकथा🌻 🛕 मौन रामलला🛕
बरसों से अस्पताल के चक्कर महंगे ईलाज, गाँव का झाड़ फूँक, जगह-जगह देवी देवताओं की मन्नत, करते-करते वह थक चुकी थी।
शायद उसके आँसू और हृदय की वेदना को समझने के लिए, अभी रामलला मौन है। यही कहकर सविता अपने आप को धीरज बाँधती थी।
भरा- पूरा परिवार, परिवार के ताने और शायद बच्चें की किलकारी के लिए तरसती सविता। वेदना से भरी।
पतिदेव की सांत्वना सब कुछ समय आने पर ठीक होगा। हजारों की संख्या में मंदिर में आज भक्त भगवान श्री रामनवमी का महोत्सव मना रहे थे। पूजा की थाल लिए पीछे खड़ी सविता अखियाँ बंद परंतु अश्रुं की धार अविरल बह रही थी। इतनी भीड़ में भी वह अकेली शायद प्रभु भी नहीं, मौन सिर्फ मौन।
थककर वह बैठ गई। अब तो दर्शन की चाहत भी नहीं, बस समय को जाते हुए देख रही थी। अचानक दस वर्ष का बालक सविता के आँखों को पोछते गले में बाहें डाल कहने लगा— माँ जल्दी दर्शन करो रामलला दिखने लगे। वह आवाज चारों तरफ देखने लगी। आश्चर्य से न जाने कहाँ से यह बच्चा इतनी भीड़ में आ गया। पीछे पतिदेव कंधे पर हाथ रख मुस्कुराते कहने लगे सविता यह तुम्हारा मौन रामलला।
बस स्वागत करो। सविता को समझते देर ना लगी। आज पतिदेव ने जो कर दिखाया। प्रभु राम को हाथ जोड़ थाली में रखा पुष्प हार पतिदेव को पहना, माथे तिलक लगा चरणों पर गिर पड़ी।
निवडुंग या काटेरी, झुडुप प्रकारच्या वनस्पतीशी माझ्या काही बालपणीच्या आठवणी जोडलेल्या आहेत. धारदार बोथट मणके असलेल्या निवडुंगाच्या चांगल्या गलेलठ्ठ फांदीचे एक सारखे उभे तुकडे करून, त्याचे सुरेख दिवे आई बनवायची. त्यात तेल वात रुजवायची. आणि चांदीच्या ताटात ते पेटवलेले दिवे लावून दिवाळीच्या धनतेरसच्या दिवशी धनाची पूजा करायची. इतका देखणा देखावा असायचा तो!
आजी म्हणायची प्रत्येक वनस्पतीचा सन्मान ठेवणे ही आपली संस्कृती आहे.
याच निवडुंगाशी माझी एक कडवट आठवणही आहे. आमच्या बागेत सदाफुली, मोगरा, जास्वंदी, जाई आणि जुई सोबत एका कुंडीत कोरफड लावलेलं होतं. काटेरी धारदार गुळगुळीत, मऊ, हिरवागार कोरफडीचा वाढलेला गुच्छ छानच दिसायचा. पण मला खोकला झाला की आजी, या कोरफडीची फणी कापून त्यातला गुळगुळीत गराचा रस करून प्यायला लावायची. खोकला पळायचा पण मनात रुतलेला त्याचा कडवटपणा मात्र नकोसा वाटायचा.
कधी कधी आजी तो गर केसांनाही चोपडायची. माझे कुरळे दाट केस पाहून मैत्रिणी म्हणायच्या,
“इतके कसे ग दाट तुझे केस?” मी त्यांना सांगायची, “कोरफडाचा चीक लावा”. तेव्हां त्या नाकं मुरडायच्या.
ठाण्याला शहराचे स्वरूप गेल्या काही वीस पंचवीस वर्षापासून आलं असेल. पण त्याआधी ठाण्याच्या आसपास खूप जंगलं होती. काटेरी, वेडी वाकडी, मोकाट वाढलेली. प्रामुख्याने तिथे निवडुंगाची झाडे आढळायची. आणि त्या वयात निवडुंग या वनस्पतीविषयी कधी आकर्षण वाटलंच नाही. नजर खिळवून ठेवावी असं कधी झालं नाही.
नंतर कॉलेजमध्ये वनस्पती शास्त्राचा अभ्यास करताना या निवडुंगाची पुन्हा वेगळी शास्त्रीय ओळख झाली. कॅक्टेसी, फॅमिली झीरोफाइट्स(xerophytes) अंतर्गत येणाऱ्या या निवडुंगाचे अनेक प्रकार हाताळले. पाहिले. कितीतरी वेगवेगळे प्रकार, वेगवेगळी नावे. वई निवडुंग, त्रिधारी निवडुंग, फड्या निवडुंग, बिनकाट्याचा निवडुंग, पंचकोनी निवडुंग, वेली निवडुंग, लाल चुटूक फळं येणारी काही गोंडस निवडुंगं, काही काटेरी चेंडू सारखे दिसणारे..असे कितीतरी प्रकार अभ्यासले. वाळवंटातही हिरवगार राहण्याची क्षमता असलेलं हे काटेरी झाड, फांद्यांमधे कसं पाणी साचवून ठेवतं आणि स्वतःला टिकवतं, याचा वनस्पतीशास्त्राच्या पुस्तकातून भरपूर अभ्यास केला. त्याचे पर्यावरणीय आणि वैद्यकीय फायदे जाणून घेतले. पुढील आयुष्यात तर या निवडुंगाच्या छोट्या कुंड्यांनी घरही सुशोभित केलं. एक काळ असा होता की घरात विशिष्ट प्रकारचं कॅक्टस असणं हे स्टेटस झालं होतं! आजकाल तर एलोवेरा जेल, एलोवेरा क्रीम, ऑइल यांनी तर घराघरात ठाण मांडलेआहे. एलोवेरा म्हणजे तेच ना आजीचं कोरफड?
आता माझ्या अंगणात एका कोपऱ्यात, आई ज्याचे दिवे बनवायची ते चौधारी निवडुंग खूप वाढले आहे. कधी कधी ते उपटून टाकावं का असेही माझ्या मनात येतं. पण उन्हाळ्यात जेव्हा काही झाडं सुकून मरगळतात तेव्हा हे हिरवंगार निवडुंगाचं झुडुप मला काहीतरी सांगतं. शिकवण देतं. माझा गुरू बनतं. मला ते काटेरी झाड स्वयंपूर्ण वाटतं. स्वतःची शस्त्रं सांभाळत स्वतःचं रक्षण करणारं सक्षम जैविक वाटतं. वाळवंटातही हिरवेपण जपणारं एक कणखर व्यक्तिमत्त्वाच्या रूपात ते माझ्यासमोर येतं. आणि मनात सहज येतं, आपणही असेच निवडुंग होऊन जावे. जीवनाच्या वाळवंटी, विराण वाटेवरही हिरवेगार राहावे. काटे सुद्धा दिमाखाने मिरवावेत…
आणि जमलं तर आईच्या पूजेच्या ताटातला दिवाच होऊन जावे..
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – बढ़त जात उजयारो…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 232 – बढ़त जात उजयारो… भाग-२
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “गौना नहीं करा पाये...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 232 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “गौना नहीं करा पाये...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मंडला, जबलपुर के गौरव रत्न – श्रद्धेय स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय
☆ कहाँ गए वे लोग # ५० ☆
☆ “मंडला, जबलपुर के गौरव रत्न – श्रद्धेय स्व. श्री रामकृष्ण पांडेय” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
तिथियां गिनने न बैठो
उत्थान और पतन की
सच मानो ये घड़ी है
संकल्प और प्रण की
——–
सुप्रसिद्ध कवि स्व. पं. श्रीबाल पांडेय जी की इन काव्य पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध करने वाले मंडला के गौरव रत्न स्व. श्री रामकृष्ण जी पांडेय के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में आज जब मैं कुछ लिखने बैठा हूं तो मैं सोचता हूं कि श्री पांडेय जी ने भी पं. श्रीबाल पांडेय जी की काव्य पंक्तियों के अनुसार उत्थान और पतन के दिन नहीं गिने बल्कि अपनी कर्म निष्ठा के माध्यम से विकास की दिशा तय करने में जीवन पर्यन्त संकल्पबद्ध रहे। सादा जीवन, उच्च विचार के धनी श्री रामकृष्ण पांडेय का जन्म मंडला जिले के ग्रामीण अंचल निवास के भीखमपुर में हुआ था संघर्ष की धूप में तपते हुए उन्होंने कठिनाइयों के बीच मैट्रिक की परीक्षा शानदार अंकों से उत्तीर्ण करते हुए मेरिट में स्थान प्राप्त किया और अपने गांव ही नहीं बल्कि अपने जिले को गौरवान्वित किया था।
इस कामयाबी के बाद तो पांडेय जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और शिक्षा के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ते रहे। उन्होंने जबलपुर विश्व विद्यालय से एम. ए. की परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करने के बाद महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे पूर्व सांसद डा. महेश दत्त मिश्रा के मार्गदर्शन में भारतीय संसदीय प्रणाली पर पी. एच. डी. की उपाधि अर्जित की। यह गौरवशाली सिलसिला यहीं नहीं रुका। पांडेय जी ने इसके बाद इंडियन प्राइम मिनिस्टर थ्योरी एंड प्रेक्टिस पर डी. लिट की उपाधि भी प्राप्त की बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री सचिवालय में विशेष राजनैतिक सलाहकार के दायित्व का भी निर्वाह किया। कम्युनिकेशन आफ इंडिया के डायरेक्टर के पद को सुशोभित करने के बाद पांडेय जी आकाशवाणी से श्रोता अनुसंधान अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए। उल्लेखनीय बात तो यह है कि सेवानिवृत्त होने के बाद पांडेय जी ने एल. एल. बी. की परीक्षा पास की और वह भी गोल्ड मेडल लेकर। फिर एल. एल. एम. में भी गोल्ड मेडल लिया और फिर छत्तीसगढ़ के रायपुर में सीनियर प्रोड्यूसर का काम करते हुए सफलता पूर्वक वकालत भी की।
पांडेय जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न उपाधियां अर्जित करने के साथ ही उन्हें ज्योतिष शास्त्र का भी विशेष ज्ञान था। प्रारंभिक जीवन में उन्होंने जबलपुर के कामता प्रसाद गुरु भाषा भारती संस्थान में असिस्टेंट डायरेक्टर का भी सफलता पूर्वक कार्य किया। पांडेय जी को पत्रकारिता का भी अच्छा अनुभव था। उन्होंने जबलपुर के दैनिक देशबंधु सहित अनेक अखबारों में भी पत्रकारिता कार्य किया और निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में ख्याति अर्जित की।
स्व. श्री पांडेय यूं रिश्ते में तो हमारे फूफाजी हुआ करते थे परंतु उन्होंने इस रिश्ते को तरजीह नहीं दी बल्कि मेरे पिताजी को हमेशा पितृ तुल्य माना और पिताजी के प्रति उनके मन में हमेशा श्रद्धा का भाव रहा। वे कभी कभी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए भी पिताजी के पास आते थे और हमेशा चेहरे पर एक सुकून का भाव लेकर लौटते। अपने कार्यक्षेत्र के बारे में पिताजी के साथ जब उनकी गंभीर चर्चा प्रारंभ होती तो समय का पता ही नहीं चलता। हम चारों भाइयों को उन्होंने अपने छोटे भाई जैसा स्नेह दिया। उनके सहज सरल स्वभाव में इतनी बेतकल्लुफी शामिल थी कि हमें उनके मित्र होने की अनुभूति होने लगती। स्व. श्री पांडेय सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में कल्याणकारी दृष्टिकोण और परस्पर सहयोग के लिए चर्चित रहे। वे सभी की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे चाहे वह उनका परिचित हो या अपरिचित । उन्होंने हम लोगों को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। मेरे एम. ए. करने के बाद एक बार उन्होंने पूछा कि मैं आजकल क्या कर रहा हूं। मैंने कहा, अभी तो कुछ नहीं। उस समय पांडेय जी जबलपुर में आकाशवाणी में श्रोता अनुसंधान अधिकारी थे। उन्होंने मुझसे रेडियो स्टेशन में मिलने को कहा। जब मैं उनसे जाकर मिला तो उन्होंने मुझसे मानदेय पर एशियाड ८२ के अंतर्गत सर्वे का काम सौंप दिया और यही नहीं उस समय पांडेय जी के अधीनस्थ लगभग ४० बेरोजगार युवक काम रहे थे। सर्वे कार्य के बाद जब हम सभी को मानदेय की इकठ्ठी राशि मिली तो हमारी खुशी देखते ही बनती थी।
श्रद्धेय पांडेय जी के साथ बिताया गया समय हमारे स्मृति कोष की अमूल्य धरोहर है। साहित्यिक गतिविधियों में भी श्री पांडेय जी हमें हमेशा प्रोत्साहित करते थे। उनका प्रोत्साहन और मार्गदर्शन मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हुआ करता। एक बार एक काव्य गोष्ठी में काव्य पाठ के पूर्व ही उन्होंने मुझे एक विशेष कविता पढ़ने का संकेत। दिया। शायद यह कविता उनके नजरिए से सामयिक और महत्वपूर्ण रही हो। आदरणीय डा. राजकुमार सुमित्र जी और आदरणीय डा. रामकृष्ण जी पांडेय के आतिथ्य में आयोजित उस काव्य गोष्ठी में मैंने वह कविता मैं अंधा ही अच्छा हूं, सुनाई और वह कविता सराही भी गयी।
पांडेय जी आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी यादें हमारे दिल और दिमाग में सदा उनके हमारे आस पास होने का अहसास दिलाती है –
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “ब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 2 ☆
☆ हास्य-व्यंग्य ☆ “अब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
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मैं सुबह अपने कम्पाउन्ड में बैठा शेविंग कर रहा था तभी पड़ोसी वर्मा जी ने प्रवेश करते हुए कहा – भाई साहब कुछ सुना आपने। मैंने कहा हां भाई जी सुना है – “बटोगे तो कटोगे”।
वर्माजी हंसते हुए बोले – भाई साहब आप भी मजाक करते हैं, मैं उसकी बात नहीं कर रहा। मैंने कहा फिर तो आप ही सुना डालें। वर्मा जी जैसे ही अपना मुंह मेरे कान के पास लाए, मैंने कहा, बहुत गोपनीय बात है क्या ? उन्होंने दांत निपोरते हुए कहा – नहीं ऐसा तो नहीं। फिर कान में नहीं सामने बैठकर सुनाओ।
उन्होंने कुर्सी सम्हालते हुए कहा – भाई साहब गजब हो गया। मैंने कहा भाई आप हर बात गजब हो गया से शुरू क्यों करते हैं ? हो सकता है कि जो आपके लिए गजब हो वो मेरे लिए गजब न हो। जब तक आपकी बात न सुन लूं, कैसे मान लूं कि गजब हुआ है।
वे फिर हंसे और बोले – उत्तर प्रदेश के महोबा के बीजेपी विधायक ब्रजभूषण राजपूत एक पेट्रोल पंप पर तेल भरवाने पहुंचे। जैसे ही एक कर्मचारी ने विधायक जी को देखा तो तुरंत दौड़ कर उनके पास पहुंचा। उसने कहा कि मैंने आपको वोट दिया है। अब आप लड़की ढूंढ कर मेरी शादी करवा दो। विधायक जी ने हंसते हुए जल्द ही उसकी शादी करवाने का आश्वासन दिया। इसका वीडीयो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।
बात सुनकर मैंने कहा भाई जी इतनी मामूली बात को आप गजब हो गया कह कर प्रस्तुत कर रहे थे ! मेरा जवाब सुनकर वे मायूस हो गए। मैंने कहा भाई जी क्या आपको पता नहीं कि नेता भाजपा का हो या किसी और पार्टी का वो अपने मतदाता की प्रत्येक मांग को पूरा करने का आश्वासन विश्वास के साथ देता है। नेताओं का वश चले तो वे सरकारी खर्चे से अपने मतदाताओं को चंद्रमा और मंगल ग्रह की यात्रा करवा दें। वर्मा जी के मुंह पर बेचैनी झलक रही थी। मेरे चुप होते ही वे बोले – लेकिन भाई साहब क्या अब विधायक अपने क्षेत्र के अविवाहितों का विवाह करवाने लड़के/लड़कियां भी ढूंढेंगे ?
मैंने कहा भाई जी – राजनीति में लोग समाज सेवा की भावना से आते हैं। क्या आप अविवाहितों का विवाह करवाना समाज सेवा नहीं मानते ?
वर्मा जी ने कहा – लेकिन….। मैंने कहा काहे का लेकिन, संख्या बल के कारण मतदाता का जो वर्ग सरकार बनाने में सक्षम नहीं है उसे ठेंगा और जो सक्षम है उसे मुफ्त राशन, सस्ते आवास, लाडलियों, बेरोजगारों को मासिक धनराशि, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त किताबें, साइकिल, स्कूटी, कन्या विवाह, गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक खुराक, अस्पतालों में मुफ्त जजकी, मुफ्त तीर्थ यात्रा, फ्री बिजली – पानी, वृद्धावस्था पेंशन, पांच लाख तक का मुफ्त इलाज आदि आदि, , , अब क्या क्या गिनाऊं ! वर्मा जी जब सरकार गरीबों के हाथ – पैर जाम करने उनकी इतनी सारी सेवाएं मुफ्त कर रही है तो चुनाव जिताने में सक्षम मतदाताओं की मांग पर वह अविवाहितों के लिए योग्य लड़के लड़कियां भी खोजने लगेगी। जो वर्ग वोट बैंक कहलाते हैं उनकी मांग पर, उन्हें लुभाने, उनका हमदर्द बनने क्या नहीं किया जा रहा ? भविष्य में “विवाह मंत्रालय” बना कर किसी को मंत्री पद भी सौंपा जा सकता है। अब यह न पूछना कि विवाह के इच्छुकों से रिश्वत में क्या क्या मांगा जा सकता है?
अब आप गजब कर रहे हैं भाई साहब कहते हुए वर्मा जी उठ कर चल दिये।