हिन्दी साहित्य – हास्य व्यंग्य – पादुकाओं  की आत्म कथा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
हास्य व्यंग्य  कथा – पादुकाओं  की आत्म कथा

 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक  बेहतरीन  सार्थक हास्य व्यंग्य कथा) 

 

मैं पादुका हूँ. वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणो से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था. इस तरह मुझे वर्षो राज काज  चलाने का विशद  अनुभव है. सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूँ, क्योकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है, वह बाकी सब को जूती की नोक पर ही रखता है. आवाज उठाने वाले को  को जूती तले मसल दिया जाता है. मेरे भीतर सुखतला होता है, जिसका कोमल, मृदुल स्पर्श पादुका पहनने वाले को यह अहसास करवाता रहता है कि वह मेरे रचे सुख संसार का मालिक है.   मंदिरो में पत्थर के भगवान पूजने, कीर्तन, भजन, धार्मिक आयोजनो में दुनियादारी से अलग बातो के मायावी जाल में उलझे , मुझे उपेक्षित लावारिस छोड़ जाने वालों को जब तब मैं भी छोड़ उनके साथ हो लेती हूं , जो मुझे प्यार से चुरा लेते हैं . फिर ऐसे लोग मुझे बस ढ़ूढ़ते ही रह जाते हैं. मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व होता है जब विवाह में दूल्हे की जूतियां चुराकर जीजा जी और सालियो के बीच जो नेह का बंधन बनता है, उसमें मेरे मूल्य से कहीं बड़ी कीमत चुकाकर भी हर जीजा जी प्रसन्न होते हैं. जीवन पर्यंत उस जूता चुराई की नोंक झोंक के किस्से संबंधो में आत्मीयता के तस्में बांधते रहते हैं. कुछ होशियार सालियां वधू की जूतियां कपड़े में लपेटकर कहबर में भगवान का रूप दे देतीं हैं और भोले भाले जीजा जी एक सोने की सींक के एवज में मेरी पूजा भी कर देते हैं. यदि पत्नी ठिगनी हो तो ऊंची हील वाली जूतियां ही होती हैं जो बेमेल जोड़ी को भी साथ साथ खड़े होने लायक बना देती हैं. अपने लखनवी अवतार में मैं बड़ी मखमली होती हूं पर चोट बड़ी गहरी करती हूँ. दरअसल भाषा के वर्चुएल अवतार के जरिये बिना जूता चलाये ही, शब्द बाण से ही इस तरह प्रहार किये जाते हैं, कि जिस पानीदार को दिल पर चोट लगती है, उसका चेहरा ऐसा हो जाता है, मानो सौ जूते पड़े हों. इस तरह मेरा इस्तेमाल मान मर्दन के मापदण्ड की यूनिट के रूप में भी किया जाता है. सच तो यह है कि जिंदगी में जिन्हें कभी जूते खाने का अवसर नही मिला समझिये उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव नही है. बचपन में शैतानियो पर मां या पिताजी से जूते से पिटाई, जवानी में छेड़छाड़ के आरोप में किसी सुंदर यौवना से जूते से पिटाई या कम से कम ऐसी पिटाई की धमकी का आनंद ही अलग है.
तेनाली राम जैसे चतुर तो राजा को भी मुझसे पिटवा देते हैं. किस्सा है कि एक बार राजा कृष्णदेव और तेनालीराम में बातें हो रही थीं. बात ही बात में तेनालीराम ने कहा कि लोग किसी की भी बातों में बड़ी सहजता से आ जाते हैं, बस कहने वाले में बात कहने का हुनर और तरीका होना चाहिये. राजा इससे सहमत नहीं थे, और उनमें शर्त लग गई. तेनालीराम ने अपनी बात सिद्ध करने के लिये समय मांग लिया. कुछ दिनो बाद कृष्णदेव का विवाह एक पहाड़ी सरदार की सुंदर बेटी से होने को था. तेनाली राम सरदार के पास विवाह की अनेक रस्मो की सूची लेकर पहुंच गये, सरदार ने तेनालीराम की बड़ी आवभगत की तथा हर रस्म बड़े ध्यान से समझी. तेनालीराम चतुर थे, उन्हें राजा के सम्मुख अपनी शर्त की बात सिद्ध करनी ही थी, उन्होने मखमल की जूतियां निकालते हुये सरदार को दी व बताया कि राजघराने की वैवाहिक रस्मो के अनुसार , डोली में बैठकर नववधू को अपनी जूतियां राजा पर फेंकनी पड़ती हैं, इसलिये मैं ये मखमली जूतियां लेते आया हूँ, सरदार असमंजस में पड़ गया, तो तेनाली राम ने कहा कि यदि उन्हें भरोसा नही हो रहा तो वे उन्हें जूतियां वापस कर दें, सरदार ने तेनाली राम के चेहरे के विश्वास को पढ़ते हुये कहा, नहीं ऐसी बात नही है जब रस्म है तो उसे निभाया जायेगा. विवाह संपन्न हुआ, डोली में बैठने से पहले नव विवाहिता ने वही मखमली जूतियां निकालीं और राजा पर फेंक दीं, सारे लोग सन्न रह गये. तब तेनाली राम ने राजा के कान में शर्त की बात याद दिलाते हुये सारा दोष स्वयं पर ले लिया. और राजा कृष्णदेव को हंसते हुये मानना पड़ा कि लोगो से कुछ भी करवाया जा सकता है, बस करवाने वाले में कान्फिडेंस होना चाहिये.
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय  के निर्माण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय धन एकत्रित कर रहे थे,अपनी इसी मुहिम में  वे  हैदराबाद पहुंचे. वहां के निजाम से भी उन्होंने चंदे का आग्रह किया तो वह निजाम ने कहा की मैं हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए पैसे क्यों दूं? इसमें हमारे लोगों को क्या फायदा होगा. मालवीय जी ने कहा कि मैं तो आपको धनवान मानकर आपसे चंदा मांगने आया था, पर यदि आप नहीं भी देना चाहते तो कम से कम  मानवता की दृष्टि से जो कुछ भी छोटी रकम या वस्तु दे सकते हैं वही दे दें. निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की भावना से  अपना एक जूता उन्हें दे दिया. कुशाग्र बुद्धि के मालवीय जी ने उस जूते की बीच चौराहे पर नीलामी शुरू कर दी .निजाम का जूता होने के कारण उस जूते की बोली हजारो में लगने लगी. जब ये बात निजाम को पता चली तो उन्हें अपनी गलती का आभास हो गया और उन्होंने अपना ही जूता  ऊंचे दाम पर मालवीय जी से खरीद लिया. इस प्रकार मालवीय जी को चंदा भी मिल गया और उन्होने निजाम को अपनी विद्वता का अहसास भी करवा दिया. शायद मियाँ की जूती मियां के सर कहावत की शुरुआत यहीं से हुयी. भरी सभा में आक्रोश व्यक्त करने के लिये नेता जी पर या हूट करने के लिये किसी बेसुरी कविता पर कविराज पर भी लोग चप्पलें फेंक देते हैं. यद्यपि यह अशिष्टता मुझे बिल्कुल भी पसंद नही. मैं तो सदा साथ साथ जोडी में ही रहना पसंद करती हूं . पर जब पिटाई के लिये मेरा इस्तेमाल होता है तो मैं अकेली ही बहुत होती हूं. हाल ही नेता जी ने भरी महफिल में अपने ही साथी पर जूते से पिटाई कर मुझे एक बार फिर महिमा मण्डित कर दिया है.
वैसे जब से ब्रांडेड कम्पनियो ने लाइट वेट स्पोर्ट्स शू बनाने शुरू किये हैं , मैं अमीरो में स्टेटस सिंबल भी बन गई हूँ, किस ब्रांड के कितने मंहगे जूते हैं , उनका कम्फर्ट लेवल क्या है , यह पार्टियो में चर्चा का विषय बन गया है .एथलीट्स के और खिलाड़ियों के जूते टी वी एड के हिस्से बन चुके हैं. उन पर एक छोटा सा लोगो दिखाने के लिये करोड़ो के करार हो रहे हैं. नेचर्स की एक जोड़ी चप्पलें इतने में बड़े गर्व से खरीदी जा रहीं हैं, जितने में पूरे खानदान के जूते आ जायें . ऐसे समय में मेरा संदेश यही है कि  दुनियां को सीधा रखना हो तो उसे जूती की नोक पर रखो.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * चीज़ों को रखने की सही जगह  * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

चीज़ों को रखने की सही जगह  

(डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का  एक सटीक व्यंग्य) 
जबसे मेरी पुत्री ने नया टीवी ड्राइंगरूम से हटवा कर भीतर रखवा दिया है तबसे मेरा जी बहुत दुखी रहता है।टीवी के कार्यक्रमों का रंग और आनंद आधा हो गया है।पुत्री का कहना है कि मेहमानों के आवागमन के कारण ड्राइंगरूम में टीवी एकचित्त होकर नहीं देखा जा सकता और मेरा कहना है कि मंहगा टीवी सिर्फ देखने के लिए नहीं, दिखाने के लिए भी होता है।देखने के लिए कोई मामूली टीवी पर्दे के भीतर रखा जा सकता है, लेकिन मंहगा टीवी तो ड्राइंगरूम में ही होना चाहिए।जिन लोगों को जंगल में नाचता हुआ मोर अच्छा लगता है, उन्हें उनका मोर मुबारक।अपना मोर तो ड्राइंगरूम में नाचना चाहिए।
मेरी एक बुआजी हुआ करती थीं जो पैरों में सोने की पायलें धारण किया करती थीं।जब कोई मिलने वाला आता तो वे उसकी तरफ पाँव पसारकर बैठ जाती थीं ताकि पायलों की चौंध सामनेवाले की आँखों तक पहुँचे।अगर बुआजी पायलों को अलमारी में बन्द करके रखतीं तो वे दुनिया को जलाने के सुख से वंचित हो जातीं।इसलिए चीज़ें अपने सही स्थान पर रहें तो वे इच्छित प्रभाव छोड़ती हैं।
शास्त्रों में कहा है कि स्थानभ्रष्ट होने से अनेक चीज़ें अपना महत्व खो देती हैं, जैसे केश,दाँत, नख और नर।चीज़ों की यह फेहरिस्त पुरानी है।मैं इसमें टीवी, फ्रिज, म्यूज़िक सिस्टम, एयरकंडीशनर, कार, मंहगे वस्त्र और कलात्मक वस्तुएं जोड़ने की इजाज़त चाहूँगा।
फ्रिज को रसोईघर में रखना मैं फ्रिज का दुरुपयोग मानता हूँ।फ्रिज ड्राइंगरूम में ही होना चाहिए।अगर फ्रिज अस्सी हजार का है तो उसे भीतर छिपा कर रखना कौन सी अक्लमंदी है?दूसरी बात यह है कि उसमें कुछ ऐसे ऊँचे किस्म के खाद्य पदार्थ स्थायी रूप से रखे रहना चाहिए कि फ्रिज का दरवाज़ा खोलते ही देखने वालों पर खासा रोब पड़े। स्थायी खाद्य सामग्री में मंहगे फलों, मेवों, डिब्बाबंद भोजन को शामिल किया जा सकता है।ये सब चीज़ें सिर्फ दिखाने के लिए होना चाहिए, खाने के लिए नहीं।जब दिखाते दिखाते ज़्यादा खराब या बासी होने लगें तब इनका इस्तेमाल करके तुरंत फ्रिज में नयी वस्तुएं भर दी जाएं।
बढ़िया वाला टीवी ड्राइंगरूम में ही रखा जाना चाहिए।अगर आपके पास थ्री-डी वाला टीवी है तो उसे ड्राइंगरूम से मत हिलाइए।किसी मेहमान के आते ही उसे चालू करना न भूलें।
एयरकंडीशनर ड्राइंगरूम में ज़रूर लगाना चाहिए, बाकी घर में लगे या न लगे।भीतर ठंड लगे तो उसका मुकाबला रज़ाई से और गर्मी का मुकाबला मामूली कूलर से किया जा सकता है, लेकिन एयरकंडीशनर तो ड्राइंगरूम में ही शोभा देता है।एयरकंडीशनर के दर्शन से लोगों के मुख पर जो ईर्ष्या का भाव आता है वह गृहस्वामी को शीत-ताप से लड़ने की पर्याप्त शक्ति देता है।
कीमती पेन्टिंग, मूर्तियां, झाड़-फानूस वगैरः भी ड्राइंगरूम में ठेल देना चाहिए।ये चीज़ें गृहस्वामी की संपन्नता के साथ उसकी सुरुचि और कलाप्रेम को प्रदर्शित करती हैं।इन चीज़ों में अगर उनकी कीमत की चिप्पियाँ लगी हों तो बेहतर है।अगर न लगी हों तो गृहस्वामी अपनी तरफ से लगा सकता है।
आभूषण और मंहगी साड़ियां स्त्रियों के शरीर पर ही ज़्यादा शोभते हैं, इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि रात्रि के सोने के समय को छोड़कर सारे वक्त उन्हें धारण किये रहें।हमारे समाज में स्त्रियों ने गहनों के बोझ को कभी बोझ नहीं माना।चोरों लुटेरों के डर से उन्हें बाहर ज़ेवर पहनने का मोह कम करना पड़ा, लेकिन घर के भीतर सारे वक्त ज़ेवर पहने रहने में कोई हर्ज़ नहीं है।कोई न कोई मिलने वाला आता ही रहता है।
अगर आपका किचिन माड्यूलर है और उसमें कुकिंग रेंज, मंहगा ओवन, न चिपकने वाले बर्तन, वैक्युअमाइज़र और अन्य आधुनिक खटर-पटर हो तो किचिन को ड्राइंगरूम के ठीक बगल में रखें और बीच का पर्दा इस तरह उठा कर रखें कि मेहमानों को किचिन का साज़ो-सामान दिखता रहे।सामान बहुत बढ़िया हो तो ड्राइंगरूम के एक कोने में ही किचिन बनाया जा सकता है।
अगर सब सामान भरने के बाद ड्राइंगरूम में बैठने की जगह न बचे तो उसकी चिंता न करें।मेहमान खुद ही बैठने की जगह ढूंढ़ लेंगे।यह भी हो सकता है कि अगर सामान नायाब हुआ तो मेहमान उसको देखने और तारीफ करने में इतने मसरूफ हो जाएं कि उन्हें बैठने की फुरसत ही न मिले।जो भी हो, आपकी प्रमुख दिलचस्पी मेहमानों को आराम देने में नहीं, उन पर रोब ग़ालिब करने में होना चाहिए।
अब इसके बाद कार के बारे में विचार कर लिया जाए क्योंकि ड्राइंगरूम में कार रखना मुश्किल होगा।अगर कार पुरानी खटारा या दो चार लाख वाली हो तो उसे ज़्यादातर वक्त पर्दे में यानी गैरेज में रखना ही ठीक होगा।अगर बीस पच्चीस लाख वाली हो तो रात को छोड़कर उसे दरवाज़े के सामने या घर के सामने सड़क पर रखना चाहिए।और अगर मर्सिडीज या बी.एम.डब्ल्यू जैसी कोई गाड़ी हो तो उसे दिन रात खुले में ही रखना चाहिए, भले ही रात को जागकर उसकी चौकीदारी करना पड़े।वैसे जाग कर चौकीदारी करने के बजाय बेहतर होगा कि रात को एक आदमी कार के भीतर ही सोये।बुरा से बुरा यही हो सकता है कि जब कार चोरी होगी तो आदमी भी उसके साथ चला जाएगा, लेकिन जब कार ही न रही तो आदमी की जान की क्या फिक्र!
तो मेरी बात का निचोड़ यह है कि अगर आपको समाज में ऊँचा मुकाम पाना है तो चीज़ों को उनकी सही जगह रखने का शऊर हासिल करना ज़रूरी है।
© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * साहित्यिक सम्मान की सनक * – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

साहित्यिक सम्मान की सनक 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी का एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य।)  

सच कह रहा हूँ भाईसाब उम्र को मत देखिए न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइये, मेरी साहित्यिक सनक को देखिए सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है, सनक एकदम नई नई है, नया नया लेखन है, नया नया जोश है ये सब माई की कृपा है कलम घिसते बननी लगी, कितनी घिसना है कहाँ घिसना है ये तो अभी नहीं मालूम, पर घिसना है तो घिस रहे है।

हमने कहा- “भाईसाब जरूर घिसिये पर इतना ध्यान रखिए आपके घिसने से कई समझदार पिस रहें हैं।” वे अकडकर बोले-  “आप बड़े कवि हैं इसलिए हम पर अत्याचार कर रहें हैं।आपको नहीं मालूम हम पूरी दुनिया में पुज रहे हैं। हमारी रचनाएं दुनिया के अनेक देशों में उड़ते उड़ते साहित्य पिपासुओं द्वारा भरपूर सराही जा रहीं हैं।”

मैंने एक चिंतनीय लम्बी साँस खींची और कहा – “आपकी इसी प्रतिभा का तो हमें मलाल है, जो कविता हमें और हमारे कुनबे को समझ नहीं आ रही है आपकी उसी कविता पर पूरी दुनिया तालियां बजा रही है। ये हिंदी साहित्य की भयंकर  बीमारी है। विदेशियों का षड्यंत्र है ।”

मुझे तो लगता है जिस तरह पूरी दुनिया ने भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर कोहराम मचा दिया है वैसे ही अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा कहानी- नाटक को कुचलने की तैयारी है। और आप अपने सम्मान पर ऐंठे हैं, गर्वित हैं पर मुझे तो इस सम्मान में भी षड्यंत्र की बू आ रही है। श्रीमान जी व्यर्थ के बकवास सम्मान से आपकी छाती फूली जा रही है। माना कि आपको सम्मान का अफीमची नशा है जिसकी हिलोर मारती रंग तरंग में आप पूरी तरह वैचारिक रूप से नङ्ग धड़ंग हैं। मर्यादा का कलेवर आपको ढक नहीं सकता। लेकिन हे साहित्यिक विकलांगो इसे अपने ही बीच रहने दो, वरना 21 सदी के प्रारंभिक तीन दशकों का  साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान जब भी लिखा जाएगा स्वयम्भू  सम्मानित साहित्यिक सनकियों में आपका भी नाम आएगा।

आप आत्ममुग्ध हो अपने सम्मान से स्वयम अभिभूत हो, आप सोचते हो कि आप जीते ही रहोगे, भूत नहीं बन सकते। प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और जयशंकर प्रसाद के वंशज आपके तथाकथित साहित्य को अलाव में भी फेंक दें पर आप भभूत नहीं बन सकते। आपका पेन सामाजिक सांस्कृतिक, कुरीतियों, कुप्रथाओं पर अमोघ बाण नहीं हो सकता, और आप जैसे सनकियों से राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।

धन दूषित हो जाये तो शास्त्र में शुद्धि का उपाय है पर साहित्य दूषित होगा तो राष्ट्र की वैचारिक समृद्धि पर प्रश्न चिन्ह लगेगा इसलिये हे माँ सरस्वती या तो इनकी कलम को शुभ साहित्य से भर दो या फिर इन्हें साहित्यिक सनक से मुक्त कर दो।

© कवि मनीष तिवारी, जबलपुर

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

बाअदब बा मुलाहिजा होशियार, बादशाह सलामत पधार रहे हैं … कुछ ऐसा ही उद्घोष करती थीं मंत्रियो, अफसरो की गाड़ियों की लाल बत्तियां. दूर से लाल बत्तियों के काफिले को देखते ही चौराहे पर खड़ा सिपाही बाकी ट्रेफिक को रोककर लालबत्ती वाली गाड़ियो को सैल्यूट करता हुआ धड़धड़ाते जाने देता था.  लाल बत्तियां  आम से खास बनने की पहचान थीं. चुनाव के पहले और चुनाव के बाद लाल बत्ती ही जीतने वाले और हारने वाले के बीच अंतर बताती थीं. पर जाने क्या सूझी उनको कि लाल बत्ती ही बुझा दी यकायक. मुझे लगता है कि यूं लाल बत्ती का विरोध हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है. हम सब ठहरे देवी भक्त. मंदिर में दूर से ही उंचाई पर फहराती लाल ध्वजा देखकर भक्तो को जिस तरह माँ का आशीष मिल जाता है कुछ उसी तरह लाल बत्ती की सायरन बजाती गाड़ियो के काफिले को देखकर हमारी बेदम जनता में भी जान आ जाती थी और भीड़, भरी दोपहर तक में  लाल बत्ती वाली गाड़ी से उतरते श्वेत वस्त्रावृत  नेता से अपनी पीड़ा कहकर या ज्ञापन सौंपकर, आम जनता राहत महसूस कर पाती थी. अब जब लाल बत्ती का ही रसूख न रहा तो भला बिना लाल बत्ती का नेता जनता के हित में शोषण करने वालो को क्या बत्ती दे सकेगा ? लाल बत्ती से सजी चमचमाती कार पर सवार नेता, मंत्री जब किसी मंदिर भी जाते,  तो उनके लिये आम लोगों की भीड़ से अलग वी आई पी प्रवेश दिया जाता है, पंडित जी उनसे विशिष्ट पूजा करवाते हैं, खास प्रसाद देते हैं. जब ये लाल बत्ती वाले खास लोग कही किसी शाप में पहुंचते हैं या किसी आयोजन में जाते हैं तो इन्हें घेरे हुये सुरक्षा कर्मी और प्रोटोकाल आफीसर्स देखकर ही सब समझ जाते हैं कि कुछ विशिष्ट है.

दुनिया भर में  विवाह में मांग में लाल सिोंदूर भरने का रिवाज केवल हमारी ही संस्कृति में है, शायद इसलिये कि लाल सिंदूर से भरी मांग वाली लड़की में किसी की कुलवधू होने की गरिमा आ जाती है. अब जब मंत्री जी की गाड़ी से लाल बत्ती ही उतर गई तो उनसे किसी गरिमा की अपेक्षा किस मुंह से करेंगे हम? वी आई पी गाड़ियो से लाल बत्ती क्या उतरी मेरी पत्नी का तो सपना ही टूट गया. गाड़ियो से लालबत्ती का उतर जाना मेरी पत्नी के गले नही उतर पा रहा है. शादी होते ही मेरी पत्नी ने मुझे आई ए एस बनाने की मुहिम चलाई थी, और इसके लिये वह टाटा मैग्राहिल्स से प्रकाशित एक प्राईमर बुक भी खरीद लाई थी, उसका कहना था कि अपने पिता और भाई की लाल बत्ती वाली गाड़ियो में घूमने के कारण उसे उनका महत्व मालूम है,जब किसी के पोर्च में तेज गति से पहुंचती गाड़ी को ब्रेक मारकर रोका जाता है और फिर जब कार का दरवाजा कोई संतरी खोल कर आपको उतारता है तो जो सुख मिलता है वह मंहगी मर्सडीज में भी स्वयं ड्राइव कर पार्किंग में खुद गाड़ी लगाकर उतरकर आने में नहीं आता.  मूढ़मति मैं अपनी पत्नी को  समझाता ही रह गया कि जो मजा आम बने रहने में है वह खास बनने में नहीं? हमारा संविधान हम सब को बराबरी का अधिकार देता हैं.  खैर ! जब वह मेरी ओर से हताश हो गई तो उसने अपने सपने सच करने के लिये अपने बच्चो को लाल बत्ती वाले अधिकारी  बनाने की पुरजोर कोशिश की. प्राइमरी स्कूल से ही हर महीने कम्पटीशन सक्सेज रिव्यू खरीद कर बच्चो पर लाल बत्ती का भूत चढ़ाने की पत्नी की सारी कोशिश नाकाम हो गई क्योकि बच्चे इंफ्रा रेड वी आई पी बन गये हैं. उन्हें देश ही छोटा लगने लगा है. वे वर्ल्ड सिटिजन बन चुके हैं. उन्हें आई ए एस बड़े बौने लगते हैं.  एक ही समय में हमारा परिवार कई टाइम जोन में बना रहता है. बच्चे उस कल्चर को एप्रीसियेट करते हैं जहां उनका टैक्सी ड्राइवर भी बराबरी से बैठकर ब्रेकफास्ट करता है. बच्चो को जब कारो से लालबत्ती उतरने की घटना पता चली तो उन्होने कुछ सवाल किये. क्या लाल बत्ती उतरने से जनता और मंत्री जी के बीच का घेरा टूट जायेगा ? क्या मंत्री जी का वी वी आई पी दर्जा समाप्त हो जायेगा ?

बच्चो के सवाल मेरे लिये यक्ष प्रश्न हैं. मेरे लिये ही क्या, ये सवाल तो स्वयं उनके लिये भी  अनुत्तरित सवाल ही हैं जिन्होने लालबत्ती हटवाने की घोषणायें की हैं ! आपको इन सवालो के जबाब मिल जाये तो जरूर बताईयेगा.  जो भी हो कभी समाचारो की सुर्खियो में जनता के सामने बने रहने में लाल बत्ती मददगार होती थी तो अब जाते जाते भी लालबत्तियो ने अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से निभाया है, सबकी लाल बत्तियां बंद, बुझ हो रही हैं. लाल बत्ती हटने के समाचारो के कारण भी इन दिनो सारे वी आई पी सुर्खियो में हैं.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र”।)

शहर में क्या पूरे प्रदेश में हलचल है। वैसे यह हलचल यदाकदा दो-चार महीने में समुद्री ज्वार-भाटा की भांति उठती गिरती है कि ‘‘लोकतंत्र खतरे में है’’ या ‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गयी है’’ यह उसी तरह है जब पाकिस्तान में इस्लाम खतरे में हो जाता है। जब-जब देश में चुनाव होते हैं तब-तब लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगता है। चुनाव और लोकतंत्र, ये हैं तो सगे भाई, पर दिखते दुश्मन जैसे हैं।

लोकतंत्र है तो चुनाव है, और चुनाव है तो लोकतंत्र भी रहेगा। पर देश में हर पार्टी का अपना लोकतंत्र है, जो कभी लाल हरे, केशरिया हरे तो कभी तीन रंगों में रंगे हैं। सभी पार्टियों ने लोकतंत्र को अपने रंग में रंगकर, लोकतंत्र की दुकान सजा ली है। वे अपने-अपने तरह से लोकतंत्र की मार्केटिंग कर रहे हैं। लोकतंत्र इनके हाथ में है। आज लोकतंत्र शोकेस का पीस बन गया है। लोग उसे देख सकते हैं पर महसूस नहीं कर सकते हैं।

यह सब सोच रहा था कि भाई रामलाल आ धमके – नमस्कार। मैंने उन्हें सदा की भांति हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई। वे इस मुद्रा को व्यंग्य समझते हैं, पर इसके उत्तर में दुबारा नमस्कार कह जवाब भी देते हैं। ‘‘कहिये क्या समाचार है।’’ मैंने उनसे पूछा, तब उनका जवाब आया – गुप्ता जी का फ़ोन आया है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई। वे बता रहे थे कि किसी कद्दावर नेता ने किसी चैनल पर कहा है। पर भाई साहब, मुझे नहीं लगता कि यह ख़बर सही है। इस पर मुझे संदेह है, गुप्ता कभी-कभी लम्बी फेंकता है। जब कोई गंभीर मामला होता है तभी वह फ़ोन करता है, वरन वह सिर्फ मिस-काल करता है। उसकी बैटरी मिस-काल में खर्च हो जाती है। तब मैंने रामलाल को रोकते हुए कहा – अरे ऐसा नहीं हो सकता। वरना अब तक शोर मच गया होता। मेरी बात को बीच में काटते हुए उन्होंने कहा – भाई साब, आप किस दुनिया में रहते हैं, हल्ला मच गया है। गुप्ता कह रहा था वाट्स ऐप, फेस बुक,  ट्वीटर, पूरे सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा है।

मैंने कहा – राम लाल अभी तो सुबह के सात बजे हैं और लोग….? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा – भाई साब, अब कट-कॉपी और पेस्ट का जमाना है, हवा फैलते देर नहीं लगती है। फिर भी मुझे गुप्ता पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने अपने मुहल्ले के राजनैतिक विशेषज्ञ नागपुरकर को फ़ोन लगाया। तब उसने बताया कि ऐसी कोई ख़बर नहीं है। नागपुरकर तो राजनीति का एंटीना है, वह इस तरह की ख़बर जल्दी पकड़ता है। उसकी न सुनकर यह लगा कि वह भी फेल हो गया है। अचानक रामलाल जी को स्मरण आया और उन्होंने अंदर की ओर इशारा किया – ‘‘चाय कहाँ है?’’ मैंने भी निश्चिन्त रहो का इशारा किया। चाय आ रही है। हमारे घर में रामलाल जी की आवाज सुनकर सब लोग उनके लिए चाय-नाश्ता की तैयारी में लग जाते हैं, वरना वे इसके बिना खिसकते नहीं है। यह सब चर्चा तो उनके लिए चाय का बहाना है। जब वे आश्वस्त हो गये तब उन्होंने कहा – ‘‘तब मैंने स्वयं दो-तीन चैनल पलटाये, सब जगह अपनी-अपनी चिंताएँ, अपने-अपने राग बज रहे थे, पर लोकतंत्र की ख़बर नहीं थी।’’

ऐसा लगता है वे लोकतंत्र को लेकर निश्चिन्त हैं। उनका लोकतंत्र मजबूत है, कोई भी उसे कुछ भी कहला सकता है। पूरा लोकतंत्र उन्होंने नेताओं पर छोड़ दिया है। वे (मीडिया) तो बस जनता के मनोरंजन के लिए बने हुए हैं। मैंने उन्हें रोका – चाय आ गयी है। चाय देखकर वे तुरन्त रुक गये। उनकी नज़रें नाश्ते की प्लेट को ढूढ़़ रही थीं। नाश्ता भी आया, तब नाश्ता और चाय लेकर वे कहने लगे – एक चैनल में लोकतंत्र की हत्या पर कुछ लोग बतियाते हुए दिख रहे थे, पर उनके चेहरे शांत, प्रसन्न और निर्विकार थे। जैसे वे लोकतंत्र के सन्यासी हों। उन्हें उससे कोई लेना-देना नहीं। वे अपना काम समान भाव से कर रहे थे। उनके सामने चाय के कप रखे थे। फिर भला आप ही सोचिए, लोकतंत्र या किसी की भी हत्या हो जाय तो दुख की बजाय कोई  बेशर्मी से चाय पी सकता है, क्या?। फिर मैंने सोचा यह ख़बर सही नहीं है। सह कहकर रामलाल जी मेरे मुँह की ओर देखने लगे तब मैं अचकचाया और फिर कहा, आप सही कह रहे हैं, का इशारा किया। मेरे इशारे से उनके चेहरे पर रौनक फैल गई। यह देखकर लगा कि रामलाल जी की चिन्ता कम हो गई है। थोड़ी देर तक हमारे बीच अनबोला रहा। उन्होंने एक-दो बार सांस ली और कहा – ‘‘लोकतंत्र की हत्या होने पर यह भी पता चलता कि हत्या कहाँ हुई, कैसे हुई, किस हथियार से हुई, किसने की, कितने लोग थे? या हत्या के पीछे सिर्फ लूट थी या हत्या अवैध सम्बन्धों की वजह से हुई। कुछ इस तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। अरे, हत्या के बाद पुलिस जाँच-परख करती है। हत्या होने पर पुलिस की सूंघने की शक्ति बढ़ जाती है। वह उसमें अपना फायदा देखने लगती है। पर वहाँ तो पुलिस का अता-पता तक नहीं था। हमारे यहाँ की पुलिस इतनी निकम्मी नहीं है कि हत्या हो जाये और कुछ न करे। पर गुप्ता इतना बड़ा झूठ नहीं बोल सकता।

कहीं कुछ तो है, पर सन्नाटा फैला है। अब लोगों को चिन्ता नहीं रही है। लोकतंत्र 70 साल का हो गया है। बूढ़े लोकतंत्र की कौन चिन्ता करता है।’’ रामलाल की चिन्ता देख मैं चिन्तित हो गया। उनको रोकते हुए कहा – रामलाल जी आप जल्दी भावुक हो जाते हैं। कभी-कभी इतिहास भी पढ़ लिया करो। क्यों क्या हुआ? उन्होंने प्रश्न झोंका। मैंने कहा, भाई साहब लोकतंत्र की हत्या अब से 43 बरस पहले हो चुकी थी। तब लोगों की बोलती बंद हो गई थी। बोलने वालों को जेल में ठूंस दिया गया था। शहरों में सन्नाटा फैला रहता था। अभी जो लोकतंत्र देख रहे हो वह तो लोकतंत्र की लाश है। इस लाश को नेताओं ने सम्हालकर, मतलब का लेप लगाकर फ्रीज़र में रख दिया है। तब से लोकतंत्र की लाश सुरक्षित है। जब-जब नेताओं को ज़रूरत पड़ती है, वे किराया चुकाकर लाश को बाहर निकाल लेते हैं और चीख-चीख कर कहते हैं – लोकतंत्र खतरे में है। फलानी पार्टी ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है, या करने वाली है। जब उनका काम हो जाता है, तब उस लाश को पुनः फ्रीज़र में वापिस रख देते हैं।

यह खेल सभी पार्टियाँ अपने मतलब के लिए खेल रही हैं और जनता को पता नहीं है कि लोकतंत्र कहाँ है। वैसे राजनीतिक पार्टियों को पता है कि लोकतंत्र कहाँ है। वे जनता को लोकतंत्र का लेज़र शो दिखाती हैं और जनता इस रंग-बिरंगे खेल से खुश है तो नेता भी खुश हैं। जब दोनों खुश हैं तो लोकतंत्र की ज़रूरत नहीं है। जब लोकतंत्र की ज़रूरत पड़ेगी तो उसकी लाश तो है।

© रमेश सैनी , जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * उधार प्रेम का बंधन है * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

उधार प्रेम का बंधन है

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “उधार प्रेम का बंधन है”।)

आज रामलाल की दूकान पर पान खाने पहुँच गया। पान खाकर पैसे देने लगा तो उन्होंने नोट देखकर कहा – भैया छुट्टे नहीं हैं। तब मैंने कहा – कल ले लेना। तब नई-नई चिपकी सूक्ति की ओर इशारा किया जिसमें लिखा था – उधार प्रेम की कैंची है। दूसरी ओर इशारा किया, वहाँ लिखा था – आज नगद कल उधार। बस मेरा भेजा उखड़ गया – क्या तमाशा है, यह सब गलत है, इस संबंध में भ्रम फैला रहे हो तुम। मैंने कहा तो यह सुनकर वह मुस्करा दिया। उसकी मुस्कराहट में व्यंग्य छिपा था, जो मुझे अंदर तक भेद गया। अब वक़्त आ गया है कि उन्हें एक लम्बा डोज़् पिलाऊं। वैसे उनकी आदत है साल-छः महीने में एक लम्बे डोज़् की। तभी वे काफी समय तक ठीक रहते हैं।

रामलाल जी आप गलतफहमी मत पालिए आज उधार का जमाना  है – उधार बिन सब सून। उधार प्रेम का बंधन है। उधार से प्रेम के रिश्ते बनते हैं और लम्बे चलते हैं। नहीं चलते हैं तो चलाना पड़ता है। उधार ऐसा माध्यम है जिसमें दोनों पक्षों को प्रेम सम्बंध बनाए रखना पड़ता है। इससे ऐसी संभावना बलवती रहती है कि सम्बंध बने रहेंगे। ऐसे सम्बंध में हर रंग और स्वाद मौजूद रहता है। आप उधार ले लो, उधार देने वाला आपकी पूरा ध्यान और खोज-ख़बर रखने लगता है। वह समय-समय पर आपको फोन करता है। कभी-कभी आपके घर भी आ जाता है, यह पता लगाने के लिए आप ठीक-ठाक तो हैं न…। आप ठीक रहेंगे तो उधार भी चुका ही देंगे। यहाँ वह याचक सा हो जाता है। अपने पैसे की सलामती के लिए वह भगवान से दुआ मांगता है कि आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें। प्रसन्नता का निर्णय उधार देने वाला करता है। आप बीमार हैं तो आपको इलाज के लिए पैसा दे देता है ताकि आप ठाक हो जाएं। वरना उसकी उधारी…? पहले उधारी शर्म की बात मानी जाती थी। मगर आज वही शान की बात है – कि देखो हमारी औकात इतनी है, कि लोग हमें उधार देने खड़े रहते हैं।

मान लीजिए कि उधार अब एक फैशन हो गया है। आपके पास इतना पैसा है कि आपका काम आसानी से चल सकता है। फिर भी आप उधार लेते हैं। टी.व्ही., फ्रिज, सिलाई मशीन, मिक्सी, मोबाइल, प्रेशर कुकर, माइक्रोवेव आदि अनेक चीज़् बाजार में हैं जो आपके घर आने को उतावली हैं। बस आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए, एक-एक कर वे घर आने लगेंगी। इज्जत का फालूदा न निकले इसलिए पहले लोग उधार छिपाते थे। पर इसके उलट अब प्रचार करते हैं कि उन्होंने मकान, गाड़ी या किसी अन्य चीज़् – जो उनका सम्मान बढ़़ाती है – के लिए लोन लिया है। मतलब यह कि घर में जो महँगी नई चीज़् है वह लोन की। अब यह बताना पड़ता है कि कौन सी चीज़् बिना लोन के खरीदी गई है। जो लोग लोन नहीं लेते उन्हें पिछड़ा समझा जाता है। और जो पिछड़ा नहीं दिखना चाहते या कहलाना चाहते वे लोन लेकर कुछ ने कुछ खरीदते ज़रूर हैं।

उधार विकास की कुंजी है।’ इसके बिना विकास रूपी ताला खुल नहीं सकता। उधार से आप सम्पन्न हो जाते हैं। उधार से आपके पास हर चीज़् पलक झपकते आ सकती है। विकास की गति तीव्र हो जाती है। बस इशारा करना पड़ता है। उधार का बंधन ऐसा अटूट है कि आदमी उसमें जकड़ जाता है। उधार या कहें लोन के लिए एक बात और निहायत ज़रूरी है… कि आप उधार लो और भूल जाओ… वरना आप हर पल तनाव में रहोगे। यह काम अगले का है कि वह आपका ख़्याल रखे। मतलब ‘टेंशन लेने का नहीं देने का…।’ अपन यह कह सकते हैं कि अधार टेंशन मुक्त जीवन का अवसर देता है। बस, आपमें उधार लेने का टेलेण्ट होना चाहिए कि आप अवसर का लाभ उठा सकें। जो लोग उधार लेकर टेंशन में रहते हैं उनके लिए ‘बेवकूफ’ से अच्छा शब्द किसी कोश में नहीं।

उधार की महिमा अपरम्पार है।’ जिसने इस सूक्ति वाक्य को समझ लिया उसका इहलोक तो संवर ही गया, परलोक भी सुधर जाता है। आगे आने वाली पीढ़ियाँ आपको याद कर इस रास्ते पर आत्मविश्वास से विकास रथ पर सवार हो आगे बढ़ती जाती हैं।

यह संसार विचित्र है। यहाँ उधार देने वालों की कतार लगी रहती है। आप एक से उधार मांगते हो और कई लोग कतार तोड़ आप पर झपट्टा मारने के दौड़ पड़ते हैं। इसलिए उधार लेने वालों के आजकल भाव बढ़े हुए हैं। उधार देने वाले से उधार लेने वाले अब बड़े माने जाने लगे हैं।

उधार लेने और देने से चरित्रगत परिवर्तन भी आ जाते हैं। ऐसे लोग सामान्य धारा से अलग दिखते हैं। देने वाले के चेहरे पर आत्मविश्वास टपकता-टपकता सा दिखाई देता है। चेहरे पर कठोरता आ जाती है। रहम का भाव केवल उधार देते वक़्त दिखाता है। उसकी भाषा विकसित हो जाती है। माषा में माँ-बहन से सम्बंधित मृदु वचन धारा प्रवाह निकलने लगते हैं। उसकी सहनशक्ति विकसित हो जाती है। कज़र्दाता चाहता है कि उसे ब्याज मिलता रहे। मूलधन न भी मिले तो चलेगा। वह उपदेशक हो जाता है। साधुओं के बाद वही अर्थतंत्र और बाजार तंत्र की व्यवस्था को समझता समझाता है। एक सिद्ध पुरुष की तरह उसे अपने ऊपर पैसा खर्चना अपमान लगता है। सिर्फ उधार लेने वाले से पैसा खर्च करवाना अपना उसे धर्म प्रतीत होता है।

इसी तरह उधार लेने वाले के चरित्र में भी आमूल परिवर्तन आ जाता है। उसमें  माँ-बहन से सम्बंधित वचन सुनने और सहने की क्षमता बढ़ जाती है। कभी-कभार एकाध हाथ भी सह लेता है। वह पैसे की महत्ता को समझने लगता है। उसे पैसे लौटाने की अपेक्षा लटकाने में अधिक विश्वास रहता है। वह छुपा-छुपी के खेल में भी माहिर हो जाता है, बहाने बनाना सीख जाता है। समय आने पर बहानों का, वह रक्षा कवच की तरह भलीभाँति उपयोग करने लगता है। उसमें एक कला और विकसित हो जाती है। वह टोपी बदलना सीख कर अपनी टोपी दूसरे, तीसरे को पहनाने की कुशलता हासिल कर लेता है। यह अद्भुत कला अर्थतंत्र में जादुई महत्व रखती है। और उधार लेने की कला से ही यह गुण पनपता विकसित होता है।

बड़े-बड़े लोग और उनकी कम्पनियाँ उधार लेना अपनी शान समझती हैं। खुद का पैसा लगाना उन्हें बेवकूफी लगती है। वह कम्पनी, कारख़ाना, प्रतिष्ठान खोलने के लिए सरकार या बैंक को चूना लगाते हैं। उनको लगता है पराये चूने से पान का रंग और स्वाद बढ़ जाता है। ‘‘हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा।’’ बिन पैसे का खेल और उसका मजा। मतलब  बाय वन  गेट वन फ्री। मतलब धंधा चल कर रफ़्तार पकड़ गया तो पैसा चुका दिया और साख बनाकर दुगना उधार ले लिया और न चला तो कुण्लली मार कर चिंता का त्याग कर चुपचाप बैठ जाओ। देश में न बैठ सको तो विदेश में आसन जमा लो। चिन्ता फिर सरकार करेगी या बैंक। बस कोशिश यह होनी चाहिए कि उधार इतना हो कि सरकार या बैंक वसूलते वसूलते थक जाएँ, पर वसूल न कर पायें। प्रतिभाशालियों के लिए यह बहुत आसान है। इसमें शान तो बनती ही है मुफ़्त में प्रचार भी मिलता रहता है। इसमें राजयोग और तंत्रयोग का सहयोग मिलना निहायत ज़्ारूरी है अन्यथा उधार योजना में आपकी सफलता संदेह से परे नहीं।

अभी कुछ समय पहले की बात है। एक उद्योगपति शराब पिलाकर पहले दूसरों को हवा में उड़ाते रहे। फिर उन्होंने सोचा कि ख़ुद ही क्यों न उड़ा जाये। सरकार, बैंक और अन्य शासकीय संस्थाओं की मदद से वे हवा में उड़ने लगे। फिर उन्होंने इतनी ऊंचाई पर उड़ान भरी कि सबके होश उड़ गये। मदद देने वाले और उसमें हाथ बंटाने वालों के तो हाथ-पाँव ही फूल गए। वे उड़ते गये… ऊंचे और ऊंचे… जब उन्हें समझ में आया कि अब ज़्यादा उड़ना ख़तरनाक होगा तो अपनी लेंडिंग विदेश में कर ली। अब जिम्मेदार लोग उनकी लेंडिंग देश में कराने के प्रयास में जी जान से लगे हैं। अब वह बड़ा उधारची है। यह सब उधार का कमाल है।

अब यही लफड़ा देश के मामले में है। देश का विकास करना है तो उधार लो भी और दो भी। उधार नहीं दोगे तो कोई माल को नकद नहीं खरीदेगा और माल डंप होगा। उधार और विकास का चोली-दामन का सम्बंध है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। एक दूसरे के बिना दोनों असहाय।

मुझे रोकते हुए रामलाल ने कहा – भाई साहब बस करो अब। मैं पूरी तरह समझ गया। मुझे माफ कर दो। आपसे पैसा मांगकर हमने गल्ती कर दी। आप अब उधार ही रहने दें। रामलाल ने खड़े होकर भाई साब से माफी मांगने लगे और भाई जी पीक को दूकान के बाजू में थूककर आगे बढ़ गये।

© रमेश सैनी , जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * तलाश एक अदद प्रेमिका की * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

तलाश एक अदद प्रेमिका की

पिछले कुछ दिनों से श्रीमती जी हमारी साहित्यिक गतिविधियों पर जरूरत से ज्यादा नजर रखने लगीं थीं । उनकी पैनी निगाहैं न जाने हमारे किस अन किये अपराध को ढूंढने में लगी रहती थीं। जब उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो आखिर एक दिन मुझसे पूछ ही बैठीं- “क्यों जी, शादी के पूर्व आपकी कोई प्रेमिका थी क्या?”

उनके इस सवाल पर हमने आश्चर्य चकित हो उनकी ओर देखते हुए उनसे ही पूछा – “क्यों, क्या बात है ? आज तुम्हारी तबियत तो ठीक है न।”  “अरे तबियत खराब हो मेरे दुश्मनों की, में सिर्फ यह पूछ रही हूँ कि तुम्हारी कोई प्रेमिका है या नहीं । क्योंकि हमने पिछले दिनों  टी.व्ही. में देखा था जिसमें तुम्हारे  ही जैसे लेखक ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि ये सब लिखने की प्रेरणा मुझे अपनी प्रेमिका से ही मिलती है, पत्नी से नहीं।”

श्रीमती जी के इतने दिनों की जासूसी का रहस्य मुझे आज समझ आया था कुछ देर तो हम चुप रहे फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और श्रीमती जी से कहा -“अरी भागवान, उसने जो कहा ठीक ही कहा । प्रेमिका की प्रेरणा से रचनाकार महान हो जाता है किंतु पत्नी की प्रेरणा से अच्छे से अच्छा लेखक भी  आटा, दाल, तेल, घी, शक्कर के प्रपंच में उलझकर सिर्फ आदमी रह जाता है । लेकिन मेरी बन्नो यदि मेरी कोई प्रेमिका होती तो मैं भी  उसकी प्रेरणा से  शादी से पहले श्रंगार रस का कवि एवं शादी के बाद उसकी याद में विरह रस का कवि बनकर कविता के आकाश की ऊंचाइयां नाप रहा होता । दोनों ही स्थिति में मेरी जिंदगी में रस तो होता , लेकिन हमारी किस्मत इतनी अच्छी कहां जो हमें एक प्रेमिका भी नसीब होती । यही तो मेरी बदकिस्मती है तभी तो मैं कवि न बनकर व्यंग्यकार बन गया हूँ,  हाय तुमने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मेरी वर्षों  से सोई हुई तमन्ना  को जगा दिया है अब तुम्हीं बताओ में कैसे प्रेमिका की तलाश करूं।”

श्रीमती ने मुझे कल्पना के सागर  में गोते लगाने से पहले ही यथार्थ के कठोर धरातल पर पटकते हुए कहा – “बस बस बहुत हो गयी आपकी ये रामायण, आप मुझसे ही मेरी सौतन का पता पूछने चले हैं, खबरदार जो ये ख्याल भी अब मन में लाया, नहीं तो आपकी इस रामायण के बाद में अपनी महाभारत की तैयारी शुरू करूं।”

श्रीमती जी के चंडी रूप का ध्यान आते ही हमने उन्हें शांत कर कहा  -“बस देवी जी, फिलहाल महाभारत के ये एपिसोड अभी शुरू मत कीजिये,  दर्शक (यानि हमारे बच्चे) अपने घरेलू महाभारत के दृश्य देख देख कर बोर हो चुके हैं।”

हमारे दिमाग में प्रेमिका ढूढ़ने का कीड़ा कुलबुलाने लगा।  बस क्या था हम घर से थोड़ा सज संवर कर निकले, कालोनी में प्रेमिका ढूंढना बेकार था क्योंकि बहुत जल्दी पोल खुलने की संभावना रहती है और वैसे भी कालोनी की प्रायः सभी खूबसूरत विवाहित- अविवाहित कन्यायें हमें अंकल जी के लेबिल से नवाज चुकी  हैं । अतः हमने  अपना प्रेमिका ढूंढो अभियान कालोनी के बाहर से ही प्रारंभ किया । सड़क पर हर आती जाती लड़की में  मैं अपनी प्रेमिका की छवि ढूढ़ने लगा ।

दो तीन दिन में यहां से वहां भटकता रहा, बहुत सी प्रेमिकाएं नजर आईं लेकिन वे सब किसी और  की थीं , मेरी कोई भी प्रेमिका नजर नहीं आ रहीं  थीं । एक दिन मेरे मित्र ने मुझे सलाह दी कि यार क्या तुम यहाँ से वहां भटकते फिर रहे हो । अरे प्रेमिका चाहिये तो लड़कियों के  कालेज के पास खड़े हो जाओ, एक ढूढोगे हजार मिलेंगी । हमने अपने मित्र की नेक? सलाह मानकर अपने खिचड़ी बालों  पर हाथ फेर लड़कियों के कॉलेज के पास खड़ा हो  गया । कुछ देर इधर उधर ताकने के बाद  में निराश होकर घर लौटने ही वाला था कि मुझे एक रूपसी बाला नजर आयी जो मेरे नजदीक से इठलाती बलखाती एक तिरछी चितवन और मोनालिसा सी मुस्कान बिखेरती आगे बढ़ गई ।

मेरा दिल अचानक बल्लियों उछला (ऐसा तो श्रीमती जी को शादी के बाद पहली बार देखकर भी नहीं उछला था) और दिल से बस यही आवाज निकली – “यूरेका -यूरेका” यानी पा लिया, पा लिया । और दिल के हाथों हम मजबूर होकर उस रूपसी बाला के पीछे हो लिये, हमारे कदम उस रूपसी के हमकदम होने को बेताब थे और हम ख्यालों में खोये प्रेमिका पा जाने की खुशी में फूले न समा रहे थे तभी हमारे गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद हुआ और हम ख्यालों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की सड़क पर जा गिरे और हमारे कानों में ‘मारो साले को’ की आवाजें थोड़ी देर तक गूंजती रहीं और हम पर लातों घूसों की बारिश होती रही ।

हमें जब होश आया तो हम अस्पताल के बिस्तर पर थे और हमारे चारों ओर हमारे परिचितों के साथ ही पुलिस के सिपाही भी थे , उनमें एक खाकी वर्दी वाली महिला पर नजर पड़ी तो हमारे होश पुनः फाख्ता हो गये क्योंकि जिसे हमने समझा था प्रेमिका, वह निकली महिला पुलिस ।

बस जनाब आगे का किस्सा क्या  सुनायें , आप लोग खुद समझदार हैं ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * रिटायरमेंट का चैक * – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

रिटायरमेंट का चैक 

(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य कथा।) 

महीने का आखिरी दिन होता है और तोप गाड़ी फैक्ट्री के गेट के सामने ढोल – ढमाके और डांस इंडिया डांस का नजारा देखने लायक होता है। इतनी भीड़ बढ़ जाती है कि ट्रेफिक जाम हो जाता है, रंग गुलाल और फूलों से सड़क तरबतर हो जाती है। हर महीने की आखिरी तारीख को तोप गाड़ी फैक्ट्री से दस – पन्द्रह लोग रिटायर होते हैं और उनके परिवार, रिश्तेदार और दोस्त भाई ढोल – ढमाके के साथ फैक्ट्री के गेट के सामने डेरा डाल देते हैं। अनुमान है कि ठंड के नौ महीने बाद पैदा हुए लोग जुलाई – अगस्त में ज्यादा रिटायर होते हैं।

आज जानकी प्रसाद का भी रिटायरमेंट है नात – रिश्तेदार और मोहल्ले वाले ढोल – नगाड़ों एवं सजी बग्घी लेकर जानकी प्रसाद का इंतजार कर रहे हैं। गेट के सामने भीड़ ज्यादा बढ़ रही है ढोल – ढमाकों का शोर बढ़ रहा है क्योंकि आज अधिक लोग रिटायर हो रहे हैं जो लोग रिटायर होकर चैक लेकर बाहर आ गए हैं उनके खेमे में उछलकूद बढ़ गई है डांस हो रहे हैं। फूल माला की बिक्री अचानक बढ़ गई है ढोल की थाप पर सब लोग थिरक रहे हैं।

वो देखो माला पहने जानकी प्रसाद फैक्ट्री गेट के सुरक्षा गार्ड से गले मिलकर बिदा ले रहे हैं उनको देखते ही उनके रिश्तेदारों में बिजली सी कौंध गई, ढोल – नगाड़े बजने चालू हो गए मोहल्ले वाले थिरकने लगे। बहू-बेटे फूल माला लेकर दौड़ पड़े और देखते देखते जानकी फूलों से लद गए, चारों तरफ हबड़धबड़ मच गई, रंग गुलाल से रंग गए। दोनों बहू बेटे खुशी से झूम कर नाचने लगे। डांस चालू… ढोल में तेजी… सजी बग्घी तैयार, युवाओं की टोली का सरसराहट लिए नागिन डांस…. वीडियो की बहार…. तड़ा तड़…. भड़ा भड़… सब तरफ उत्साह, उमंग, थिरकन दिख रही है पर इन सबके पीछे नेपथ्य में चुपचाप वो चालीस लाख का चैक हंस रहा है जो रिटायरमेंट में जानकी को मिला है जिसमें बहुओं एवं बेटों की उम्मीद के पंख लग गए हैं। मोहल्ले वालों और रिश्तेदारों की रिटायरमेंट पार्टी के छप्पन व्यंजन में नजर है इसलिए डांस करके ज्यादा उचक रहे हैं।

सजी हुई चमचमाती बग्घी में जानकी प्रसाद दूल्हे जैसे बैठ चुके हैं। सामने एक चैनल वाले ने माइक अड़ा दिया, पूछ रहा है अब कैसा लग रहा है ? नाईट ड्यूटी जब लगती थी तो काम करते थे कि सो जाते थे ? फैक्ट्री के अंदर जुआ – सट्टा में भाग लिया कि नहीं ?

बड़ा लड़का आ गया, एक हजार रुपये की न्यौछावर कर पत्रकार को दी, जब तक जानकी प्रसाद ने बोल ही दिया – रात सोने के लिए बनी है इसलिए घर हो या फैक्ट्री सोना जरूरी था और सीधी सी बात है कि जब नाईट ड्यूटी लगती थी तो मनमाना ओवरटाइम भी मिलता था। पत्रकार डांस करते हुए अगले ठिकाने तरफ बढ़ गया था। इतने सारे रिटायरमेंट हुए हैं कि सारी सड़कों में जाम लग गया है डांस मोहल्ला डांस चल रहा है। ट्रेफिक पुलिस वाले परेशान हैं जाम की खबर एसपी तक पहुंच गई है और पुलिस फोर्स पहुंच गई है, डांस की भीड़ को तितर-बितर करने डंडे भी चलाये नहीं जा सकते इसलिए पुलिस वाले ढोल की थाप पर मटक रहे हैं। जानकी प्रसाद ये सब देख देख मस्त हो रहा है आज न गांजा मिला है न भाँग, पर मजा उनसे ज्यादा मिल रहा है। सबसे बड़ा जुलूस जानकी का है क्यूँ न हो, जानकी विनम्र रहा है रामलीला में रावण के रोल में हिट हुआ है, लाल झंडे के साथ नारे लगवाने में पापुलर रहा है, मधुर मुस्कान से दिलों को जीता है, अहीर नृत्य में हर बार टॉप पर रहा है तभी न इतने सारे लोग डांस करके पसीना बहा रहे हैं। जानकी को अचानक धर्मपत्नी याद आ गई, वो लेने नहीं आई.. वो घर में थाली सजाकर दिया जलाकर इंतजार कर रही होगी। जानकी को बग्घी में दूल्हे जैसा सुख मिल रहा है फर्क इतना है कि दूल्हे बनकर तन्दुरस्त घोड़े में बैठे थे और आज बग्घी को बुढ़िया घोड़ी खींच रही है। डांस करती टोलियाँ मस्ती में चूर हैं उसे याद आया…. चालीस साल पहले जब बारात निकली थी तो डांस के चक्कर में गोली चल गई थी 30-35 बरातियों को पुलिस पकड़ कर ले गई थी….

जुलूस घर पहुंचने वाला है, घरवाली देख कर दंग हो जाएगी उसको आज समझ आ जाएगा कि दमदार आदमी मिला है। चैक की चिंता में बेटे बहू ने रास्ते भर पानी को पूछा, इसका मतलब चैक में दम तो है। बेटे बहू जानकी से ज्यादा खुश दिख रहे हैं और बीच-बीच में चैक ठीक से रखने की हिदायत भी दे रहे हैं।

रिटायरमेंट ग्रांट पार्टी के लिए मुंबई से बार-बालाओं को खास तरह के डांस के लिए बुलाया गया है रिश्तेदार और मोहल्ले वाले भी इस खबर से खुश हैं।

पान की दुकानों में आजकल डब्बू अंकल के चर्चे चल रहे हैं। विदिशा की शादी के डांसिंग अंकल ने सड़ा सा डांस क्या कर दिया, मुख्यमंत्री ने एंबेसडर बना दिया, स्थूलकाय डब्बू अंकल की नचनिया देह के थिरकने से सोशल मीडिया कांप गया, गोविंदा का दिल थरथराके डांस करने लगा। कुछ जले भुने ताली बजा  बजाकर कहने लगे डब्बू अंकल नर है कि नारी कि ……. ।

जानकी ने चालीस साल फैक्ट्री में नौकरी करी। फैक्ट्री की नौकरी में समय पर गेट के अंदर घुसने का बड़ा महत्व है, हर दिन का जेल जैसा है। सुबह सात बजे हूटर बजने के साथ घुसो, शाम को हूटर बजने पर साईकिल लेकर भागो, चालीस साल में जानकी ने इतना ही सीखा है। चालीस साल पहले जुगाड़ से फैक्ट्री में भर्ती हो गई थी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे। लड़किया के बाप ने फैक्ट्री की नौकरी देख के शादी कर दी थी। बारात में सबने गेटपास वाला आई कार्ड देखा था जिसमें नाम के आगे जानकी प्रसाद अहीर लिखा था और दांत निपोरते फोटो लगी थी। सो रिटायरमेंट की पार्टी में धर्मपत्नी के मायके के लोगों की भीड़ रही। सबने खूब मस्ती की, बार-बालाओं के भड़काऊ डांस को देखकर सब पगलाए रहे फिर सबने पेट भर खाया पिया और पार्टी में जानकी प्रसाद तगड़े से उतर गए।

दो चार दिन तो शान्ति रही फिर बहू बेटों को चैक की सेहत की चिंता सताने लगी तब धर्मपत्नी ने चैक छुपा कर संदूक में रखा और अलीगढ़ का ताला लगा दिया।

एक रात जानकी को सपना आया कि चैक को चूहे कुतर रहे हैं तब संदूक से चैक निकाला गया। जानकी चैक लेकर बैंक पहुंचे, बैंक वालों ने चैक देखा और जमा करने से इंकार कर दिया। खाता जानकी प्रसाद यादव के नाम पर था जबकि चैक जानकी प्रसाद अहीर के नाम पर जारी हुआ था। आधार कार्ड देखा गया उसमें भी जानकी प्रसाद यादव लिखा था। जब चैक जमा नहीं हुआ तो जानकी ने बैंक वालों को बताया कि चालीस साल पहले फैक्ट्री में जानकी प्रसाद अहीर के नाम से भर्ती हुए थे। ज्यादा पढ़े लिखे नहीं है तो नये जमाने के लड़कों ने खाता खोलने के फार्म में यादव लिख दिया होगा और आधार भी उसी नाम से बना होगा। क्या है कि जबसे लालू, मुलायम, शरद बड़े नेता बने हैं तब से नयी उमर के लड़कों को यादव लिखने का शौक चरार्या है, जे सालों ने खाते में यादव लिखवा के चैक को डांस करने मजबूर कर दिया है बैंक वाले ने सलाह दी कि फैक्ट्री से जानकी प्रसाद यादव के नाम का चैक बनवा लो तब खाते में चैक जमा हो जाएगा।

जानकी प्रसाद की दौड़ फैक्ट्री तरफ बढ़ने लगी, फैक्ट्री का बाबू एक न माना बोला – चालीस साल से फैक्ट्री के रिकॉर्ड में जानकी प्रसाद अहीर चल रहा था तो चैक भी वही नाम से बनेगा। बाबू ने सलाह दे दी कि कोई दूसरे बैंक में जानकी प्रसाद अहीर नाम से खाता खोल कर जमा कर दो। अब तक जानकी समझ चुका था कि लापरवाही में किसी का बस नहीं है। सलाह सुनकर जानकी बैंक दर बैंक भटकने लगा पर किसी बैंक ने खाता नहीं खोला इसप्रकार चालीस लाख का चैक तीन महीने तक बैंक से फैक्ट्री और फैक्ट्री से बैंक डांस करता रहा पर किसी को दया नहीं आयी। नब्बे दिन बाद एक बैंक वाले ने कह दिया चैक तो मर चुका है अब कोई काम का नहीं रहा। चैक का जीवनकाल तीन महीने का था, जानकी के काटो तो खून नहीं….. अचानक दिमाग में विस्फोट सा हुआ और जानकी का दिमाग खिसक गया…… अंट-संट बकने लगा..कभी नाचने लगता… कभी रोने लगता…. तंग आकर बहू – बेटों ने घर से निकाल दिया।

अब वो कभी बैंक के सामने कभी फैक्ट्री के गेट पर बड़बड़ाता, चिल्लाता, रोने लगता, डांस करने लगता, लोग भीड़ लगाकर मजा लूटते।  एक दिन चैक लेकर फैक्ट्री के गेट में जबरदस्ती घुसने की कोशिश की तो सिक्योरिटी गार्ड ने डण्डा पटक दिया, चैक डांस करते हुए जेब से बाहर गिरा तो जानकी झुक कर नाचने लगा… नाचते नाचते वहीं गिरा और मर गया……….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * ठंड है कि मानती नहीं * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

ठंड है कि मानती नहीं  

सुबह सुबह पड़ोसी लाल कंपकंपाते हुए, दोनों हाथों को रगडते हुए हमारे यहाँ आ धमके और आते ही हमारे ऊपर प्रश्न दाग दिया — ” सिंह साहब, ये ठंड कब जायेगी ? अब तो जनवरी भी खत्म हो गई है । आप तो कहते थे कि मकर संक्रांति के बाद तिल तिल करके ठंड कम होने लगती है । लेकिन कम होने की जगह यह तो बढ़ती ही जा रही है । अब आप ही बताइये ऐसा क्यों हो रहा है ?”

हमने पड़ोसी लाल को आराम से सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए श्रीमती जी को अदरक वाली चाय बंनाने को कहा ।  फिर पड़ोसी लाल की ओर मुखातिब होते हुए कहा — “आप क्यों इतना घबरा रहे हो,  मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार यह जो ठंड पड़ रही है यह लंदन से आयातित है, अपने यहां ठंड का स्टॉक खत्म हो गया था न इसलिये लंदन से ठंड मंगवायी है ।जिस वजह से कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों पर भारी बर्फ बारी होने से ठंड का दौर कुछ लम्बा खिंच गया है लेकिन जैसे दिये की लौ बुझने से पहले और तेजी से जलने लगती है उसी प्रकार ठंड का यह आखिरी दौर है । ठंड अब कुछ दिनों की मेहमान है । हमें मालूम है कि आप रजाई में दुबके  दुबके बोर हो गये हैं और रजाई से छुटकारा पाना चाहते हैं । अभी तक आप सिकुड़े हुए थे,अब अकड़ना चाहते हैं ।”

पड़ोसी लाल ने मुस्कराते हुए कहा –” सिंह साहब,  अच्छा है जो वैज्ञानिकों ने बता दिया, नहीं तो विपक्ष सरकार पर ही इतनी ठंड पड़ने का आरोप लगाकर सरकार से इस्तीफा मांगने लगता । आप तो  जानते हैं, बहुत दिन हो गये सिकुड़े हुए, सिकुड़ने का यही हाल रहा तो फिर सिकुड़े सिकुड़े ही अकड़ न जायें ।इस बार की ठंड में ऐसी घटनायें कुछ ज्यादा ही हो रही हैं । ऐसे में वास्तविक रूप से अकड़ने का मौका हाथ से न निकल जावे । अब तो  अकड़ दिखाने का मौका आ गया है, देखो बजट भी पेश हो गया है । बजट के हलुआ का प्रसाद जो केवल वित्त मंत्रालय के अधिकारियो , नेताओं के अलावा किसी को भी प्राप्त न हो पाता था, इस बार  किसान, मजदूर गरीबों के साथ ही मध्यम वर्ग को भी मिल गया है  । चुनावी वर्ष में ये सभी अकड़ने को तैयार हैं लेकिन ठंड है कि मानती नहीं ।  वसन्त भी एक कोने में दुबका खड़ा है इस इंतजार में कि ठंड जाए तो फिर मैं चहुँ ओर अपना जलवा बिखेरकर जनमानस को बौराना शुरू करूं । बसन्ती बयार भी बहने को बेताब हैं । लेकिन रह रहकर चलने लगती  शीत लहर के कारण वह भी ठिठक जाती हैं । युवा वर्ग भी अपना वसन्त ( वेलेंटाइन डे ) मनाने की तैयारी में है, वह भी अपने शरीर पर लदे जैकेट,स्वेटरों से छुटकारा पाने के लिये छटपटा रहा है ।  किसान कर्ज के बोझ तले दबा है ।उसके पास न रजाई है न स्वेटर  वह ठंड से कंपकंपा रहा है और सरकार कर्ज माफी का अलाव जलाकर खुद अपनी ठंड दूर कर रही है । बेरोजगार सिकुड़ रहा है नोकरी की आस में, कब नोकरी मिले और वह भी अकड़ दिखा सके ।”

पड़ोसी लाल की चिंता की वजह अब समझ आयी ।  हमने कहा — “आप तो ऐसे चिंता कर रहे हैं जैसे इस देश के चौकीदार आप ही हो । अरे भाई ठंड का क्या है ,आज नहीं तो कल चली ही जायेगी । लेकिन आपको भी मालूम है कि ठंड के जाते ही गर्मी अपना असर दिखाने लगेगी इसलिए कुछ दिन और ठंड का मजा ले लो । फिर गर्मी के साथ साथ चुनावी गर्मी का भी आनन्द उठाना।”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * फूलों के कद्रदाँ * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

फूलों के कद्रदाँ 

(कई लोगों को अड़ोस-पड़ोस, बाग-बगीचे सोसायटी गार्डेन से फूल चुराने  की एक आम बीमारी है। डॉ  कुन्दन सिंह परिहार  जी की पैनी कलम से ऐसी किसी भी सामाजिक बीमारी से ग्रस्त लोगों का बचना असंभव है। प्रस्तुत है फूल चुराने की बीमारी से ग्रस्त उन तमाम लोगों के सम्मान में  समर्पित एक व्यंग्य)
कहावत है कि मूर्ख घर बनाते हैं और अक्लमन्द उनमें रहते हैं। उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि मूर्ख फूल उगाते हैं और होशियार उनका उपभोग करते हैं।
यकीन न हो तो कभी सबेरे पाँच बजे उठकर दरवाज़े या खिड़की से झाँकने का कष्ट करें।अलस्सुबह जब अँधेरा पूरी तरह छँटा नहीं होता और फूलों के मालिक घर के भीतर ग़ाफ़िल सोये हुए होते हैं तभी हाथों में छोटे छोटे झोले और लकड़ियां लिये फूलों के असली कद्रदानों की टोलियां निकलती हैं।किसी भी घर में फूल देखते ही ये अपने काम में लग जाते हैं। फूल चारदीवारी के पास हुए तो फिर कहना क्या, अन्यथा जैसे भी हों,उन्हें तोड़कर झोले के हवाले किया जाता है।कई बार खींचतान में पूरी डाल ही टूट जाती है। फूलों का मालिक जब सोया था तब घर में बहार थी, सबेरे जब उठता है तो ख़िज़ाँ या वीराना मिलता है। ‘कल चमन था आज इक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ!’
फूलों की चोरी में कोई निचले दर्जे के लोग या छोकरे ही नहीं होते।इनमें ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें भद्र पुरुष या भद्र महिला कहा जाता है।इन्हें आप रंगे-हाथों पकड़ भी लें तब भी चोरी का इलज़ाम लगाना मुश्किल होता है।
एक सज्जन दूध का डिब्बा लेकर सपत्नीक निकलते हैं। दूध लेकर लौटते वक्त फूलों के दर्शन होते ही पति पत्नी दोनों एक एक पौधे पर चिपक जाते हैं। फायदा यह होता है कि दस मिनट का काम पाँच मिनट में मुकम्मल हो जाता है। स्त्री के साथ होने से मकान-मालिक के द्वारा कोई बड़ी बदतमीज़ी करने का भय कम रहता है।
एक महिला हैं जो स्लीवलेस ब्लाउज़ और मंहगी साड़ी पहन कर सुबह की सैर को निकलती हैं। ‘गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट’ की शैली में सैर के साथ फूलों का संग्रह होता चलता है।
एक और सज्जन हैं जो हाथ में लकड़ी लेकर निकलते हैं जिसके छोर पर कोई कील जैसी चीज़ है। वे चारदीवारी के पार से पौधे की गर्दन कील में फँसाकर अपनी तरफ खींच लेते हैं और फिर इत्मीनान से फूल तोड़ लेते हैं। कील की मदद से दूरियां नज़दीकियों में तब्दील हो जाती हैं।
एक साइकिल वाले हैं जो फूल देखते ही अपनी साइकिल धीरे से स्टैंड पर लगाते हैं और बड़ी खामोशी से झटपट फूल तोड़कर ऐसे आगे बढ़ जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। अमूमन साइकिल वाले से झगड़ा करने या उसे गालियाँ देने में फूल-मालिक को ज़्यादा दिक्कत नहीं होती।ये सज्जन भी कई बार फूल-मालिकों की गालियाँ खा चुके हैं, लेकिन वे ‘स्थितप्रज्ञ’ के भाव से आगे बढ़ जाते हैं। पीछे से कितनी भी गालियां आयें, वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते, न ही उनके पुष्प-संग्रह के कार्यक्रम में कोई तब्दीली होती है।
कुछ महिलाएं घर की बेटियों को लेकर फूलों के विध्वंस को निकलती हैं। माताएँ एक तरफ खड़ी हो जाती हैं और बेटियाँ फूलों पर टूट पड़ती हैं। देश की भावी माताओं को ट्रेनिंग दी जा रही है।आगे यही माताएँ अपनी संतानों को फूल चुराने की ट्रेनिंग देंगीं। परंपरा आगे बढ़ेगी। पुण्य कमाने के काम में कैसा पाप?
किशोरों की टोलियाँ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर पुष्प-संहार के लिए निकलती हैं। शायद इनके जनक-जननी घर में आराम से सो रहे होंगे।जब पुत्र अपने विजय-अभियान से लौटेंगे तब माता-पिता नहा धो कर पूजा-पाठ में लगेंगे। देश की अगली पीढ़ी का ज़रूरी प्रशिक्षण हो रहा है।आगे रिश्वतखोरी और कमीशन-खोरी करने में दिक्कत नहीं होगी।अभी से मन की हिचक निकल जाये तो अच्छा है। शायद इसी को अंग्रेजी में ‘पर्सनैलिटी डेवलपमेंट’ कहते हैं। ये लड़के उन्हें बरजने वाले गृहस्वामियों को दूर से कमर हिलाकर मुँह चिढ़ाते हैं। बात बढ़े तो पत्थर भी फेंक सकते हैं।
एक दिन सबेरे सबेरे हल्ला-गुल्ला सुना तो आँख मलते बाहर निकला।देखा, सामने के मकान वाले नवीन भाई स्लीवलेस ब्लाउज़ वाली मैडम से उलझ रहे थे।
मैडम गुस्से से कह रही थीं,’थोड़े से फूल तोड़ लिये तो कौन सी आफत आ गयी। फूल कोई खाने की चीज़ है क्या?’
नवीन भाई ने उसी वज़न का उत्तर दिया,’आपको पूछ कर फूल तोड़ना चाहिए था। इस तरह चोरी करना आपको शोभा नहीं देता।’
मैडम चीखीं,’व्हाट डू यू मीन?मैं चोर हूँ? जानते हैं मेरे हज़बैंड मिस्टर सोलंकी आई ए एस अफसर हैं।’
नवीन भाई हार्डवेयर के व्यापारी हैं।आई ए एस का नाम सुनते ही वे ‘हार्डवेयर’से बिलकुल ‘साफ्टवेयर’ बन गये। हकलाते हुए बोले,’मैडम,मेरा मतलब है आप कहतीं तो मैं खुद आपको फूल दे देता।’
मैडम बोलीं,’वो ठीक है, लेकिन आप किस तरह से बात करते हैं! आप में ‘मैनर्स’ नहीं हैं।’
वे अपना झोला नवीन भाई की तरफ बढ़ाकर बोलीं,’आप अपने फूल रख लीजिए।आई डोंट नीड देम।’
नवीन भाई की घिघ्घी बँधने लगी, बोले,’नईं नईं मैडम।आप फूल रखिए। मैंने तो यों ही कहा था।आप रोज फूल ले सकती हैं।गुस्सा थूक दीजिए।’
मैडम अपना झोला लेकर चलने लगीं तो पीछे से नवीन भाई बोले,’अपने हज़बैंड से,मेरा मतलब है ‘सर’ से, मेरा नमस्ते कहिऐगा।’
फूल चुराने वालों में से कइयों को देखकर ऐसा लगता है कि वे महीनों नहाते नहीं होंगे। फिर सवाल यह उठता है कि वे किस लिए फूल चुराते हैं?लगता यही है कि ये सज्जन दूसरों को पुण्य कमाने में मदद करते होंगे। इस बहाने आधा पुण्य उन्हें भी मिल जाता होगा।
पूछने पर कुछ पुष्प-चोरों से मासूम सा जवाब मिलता है कि देवता पर चोरी के फूल चढ़ाने से ज़्यादा पुण्य मिलता है। उस हिसाब से अगर देवता पर चढ़ाने के लिए दूकानों से नारियल और प्रसाद चुराये जाएं तो पुण्य की मात्रा दुगुनी हो जाएगी।
© कुन्दन सिंह परिहार

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