हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 20 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 20 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

घूमने को जगह और भी हैं कनाडा में, किंग्सटन के सिवा

जैसे जैसे रुपाई को मौका मिलता वह हमें लेकर आस पास के दर्शनीय स्थलों को घुमा ले आता। रोज ही बिटिया का मुँह और सूखने लगता – वापस जाने के दिन जो नजदीक आने लगे हैं। मगर क्या करूँ?

‘आज हम नैपानी चलेंगे। वहाँ जंगल है, खेत है, रास्ते के दोनों ओर सुंदर सुंदर कॉटेज हैं। एक छोटा सा कस्बा है नैपाची।’ रुपाई प्रदत्त इन्फार्मेशन।

रास्ते में बारिश शुरु हो गई। खेतों पर छोटे छोटे ट्रैक्टर चल रहे हैं। दोनों ओर मक्के के खेत। और वो देखिए लकड़ी के बने खलिहान। कितने बड़े हैं! खलिहान के पीछे अंदर की गर्मी निकलने के लिए चिमनी बनी है।

ओडेशा टाउन के पास एक जगह लिखा है लॅयालिस्ट विलेज। फिर वही इतिहास। यानी यहाँ के लोग ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। फ्रांसीसिओं के नहीं। ऐसे आपको और जगह भी देखने को मिलेंगे।

कार जहाँ पार्क की गई उसकी बगल में अद्भुत सब पत्थरों से दीवार या बाड़नुमा बनी है। उन पत्थरों पर आप एक एक स्तर को देख सकते हैं। कुछ ऐसे ही पत्थर हैं जोशीमठ के आगे बद्रीनाथ के रास्ते पर। केदार के रास्ते दूसरे ढंग के पत्थर हैं। इन पत्थरों की दास्तान भी जरा सुनिए। पंद्रह हजार साल पहले लौरेनटाइड बर्फ की परत बनी थी, जो बारह हजार साल पहले पिघलने लगी। इसी से ग्लेशियल लेक का निर्माण हुआ। बनी ऑन्टारिओं झील। एक जगह यह पूरी दास्तान लिखी हुई है।

यहाँ नैपानिस नदी से निर्झर निकल कर दाहिने से बांये बहती जा रही है। नदी पर दो पुल बने हैं। एक पास में। दूसरा वहीं दूर। सामने एक फव्वारा छलाँग लगा रहा है। सामने नदी की धारा के बीच पत्थरों की सेज पर माँ बतख अपने बच्चों के साथ सो रही है। उसकी चोंच पीछे पीठ पर पंखों के बीच अलसायी सी पड़ी हुई है। कभी कभी गले को तान कर माँ नेक एक्सरसाईज कर ले रही है। बच्चे टुकुर टुकुर माँ को निहार रहे हैं। दोस्त, केवल दृश्यों का मजा लूटिए। इन नयन मनोहर नजारों से अपने नयनों को तृप्त कीजिए। निर्झर के गीत सुनिए। बस…….

यहाँ से हम पहुँचे बाथ। इंग्लैंड के बाथ से ही यह नाम लिया गया है। यहाँ लॅयालिस्ट क्लब भी है। एक जगह इंग्लैंड का यूनियन जैक लटक रहा है। एंग्लिकन चर्च से आगे हम पहुँचे बाथ म्यूजियम। झील के किनारे होने के कारण यहाँ प्राचीन काल में मछलिओं का व्यवसाय ही होता रहा। तो फैक्टरी लेन की पुरानी फिशरी बिल्डिंग के तराजू वगैरह रक्खे हुए हैं। पंसारी के तराजू में एक पैन एक तरफ, जिस पर सामान रखा जाता था। और स्केल पर पाँच पाउंड के बाट को खिसका कर दूरी के अनुसार उसका वजन कर लिया जाता।

यहाँ के सर्वप्रथम अधिवासी मछली पकड़ते थे। फिर बच जाने पर बेचने लगे। उस समय बार्टर यानी सिर्फ माल का लेन देन करके ही व्यवसाय होता था। फिर उद्योग बना और मछलियां निर्यात की जाने लगी। काशी पर ऐसा कोई म्यूजियम है?

यहाँ रूथ डुकास की पेंटिंगस हैं। वही कनाडा के चित्र बनाने वाले सर्वप्रथम चित्रकार हैं। उनके बने चित्रों में रेड इंडियनस् के पास कोई घोड़ा नहीं है। आखिर घोड़ा तो पर्तुगीज/स्पेनीश लोग ही यहाँ लेकर आये थे। वो देखिये अल्मारी के भीतर लौरेन्टाइन आर्चाइक काल की कुल्हाड़ी का मोटा सेल्ट से बना अगला हिस्सा, जिससे चोट की जाती है, वो रखा है। उधर ग्राउन्ड स्लेट से बने भाले का अग्रभाग। अरे मैडम, वो है आपलोगों की पसंद की चीज। उस जमाने की इस्त्री। पहिये पर खड़ा एक पुराना वाशिंग मशीन। अरे इसके ऊपर एक नन्हे से बास्केट में दो तीन साबुन के टुकड़ें भी हैं। और मिट्टी के बने उन तंबाकु सेवन की पाइप को तो देखिए। साथ ही मिट्टी के बर्तन।

इतने अच्छे म्यूजियम देखने के बाद हम लौट चले। उस रोज वुल्फ आइलैंड से लौटते समय तो एक और तमाशा हो गया था। रुपाई ने कहा था – डेढ़ बजे की फेरी है। जल्दी जल्दी वहाँ पहुँचे तो पता चला सवा एक बजे जहाज चल चुका है। अगली फेरी ढाई बजे। चलो कर लो इंतजार। एक घंटा हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो। ऊपर चिलचिलाती धूप। पेट में छछूंदर का तहलका। डन बैठकी। रुपाई के मुखमंडल पर दार्शनिक चिंतन के मेघ। मैं श्रीमती के कान में भुनभुनाता हूँ,‘ये लोग आसानी से खाने पीने का सामान साथ ला सकते थे। मगर सब केवल डरते हैं कि भोजन साथ ले जाना अनुमोदित है कि नहीं। अरे भाई अंदर न ले जाने देते तो वहीं बैठे गपर गपर खा लेते, और क्या?’

मिजाज का उतार चढ़ाव देखने से अच्छा है कि हम चलें लहरों की उछल कूद देखें। मैं, झूम और उसकी माँ जेटी के पास टहलने लगे। रुपाई कार को इंतजार करनेवालों की लाइन में लगा कर उसी में बैठा रहा। बाहर धूप, पर भीतर कुछ ठंडा। वहाँ और दो एक सैलानी टहल रहे हैं। एक कोरियन लड़की ने हमारी फोटो खींच दी। हमने मुस्कुराते हुए कहा,‘थैंक्यू !’

जहाज जहाँ लगता है वहाँ जेटी पर लिखा है एमर्जेन्सी एव्याकुएशन (अंग्रेजी) या ‘एव्याकुएशन द्य अरजेन्स’(फ्रेंच)। फ्रांसीसी का मजा देखिए – फारसी अरबी की तरह – ‘जन्नत की राह’ के लिए ‘राहे जन्नत’!

यहाँ की घड़िओं की बैटरी कभी खतम नहीं होती है क्या? वाह रे वक्त की पाबंदी। ठीक 2.20 पर जहाज का आगमन। दूर से उसका भोंप सुनाई पड़ा। जेटी पर लगते ही उधर के यात्री इस पार उतर रहे हैं। फिर हमारी पारी। चढ़ने लगे। एक के बाद एक गाड़ियाँ। सामने साईकिल सँभाले हुए खड़े हैं बच्चे, बूढ़े, बुढ़िया। यहाँ उम्रदराज महिलायें भी मन की मलिका होती हैं। फेशियल करवा रही हैं, तरह तरह के नेल पॉलिश लगा रही हैं, टैटू करवा रही हैं, साईकिल लेकर वुल्फ आइलैंड घूमने आई हैं। और हमारे यहाँ ?-‘अब का होई बचवा? जिनगी में का धरल हौ? पता नाहीं भगवान हम्में काँहे नांही बुला ले थउअन कि यहू दिन देखे के पड़ थौ!’ फिर बहू बेटे की समालोचना या परम बेचारे भगवान को कोसना।

और वक्त की पाबंदी? महाशय, जरा सोचिए हमारे ही देश में दक्षिण में अगर कोई ट्रेन 3.20 पर छूटती है तो वह 3.30 भी नहीं होता। क्यों और कैसे? मगर हमारे इलाके में? ‘अरे भइया, दू तीन घंटा लेट कौनो लेट हौ? अगर उ टरेन आता (‘आती’ नहीं) ही नहीं, तो आप का उखाड़ लेते? अरे कितनी बार तो सिंगल (सिग्नल) डाउने नहीं होता। जल्दी बाजी में कहीं एक्सिडेंटे हो जाए तो सीधे घर नहीं जमलोक पहुँच जाइयेगा।’ प्रवचन सुधा सुनिए।

बारंबार मैं अपने देश की बात क्यों इस भ्रमण कथा में लिख रहा हूँ ? मैं अगर किसी दूसरे की माँ को देखूँ कि वह सुंदर बनारसी पहन रक्खी हैं, उनके गले में हाथां में सोने के सुंदर गहने हैं और मेरी माँ तो बस फटी साड़ी में ही घूम रही हैं, तो मेरे मन में टीस नहीं होगी? इतना सुंदर होते हुए भी मेरा मादरे वतन इतना असुंदर क्यों है? हम उसके लिए कर क्या रहे हैं?

हम लौट चले हैं। अब जरा इस राजमार्ग की यातायात व्यवस्था को ही देख लीजिए। सन् 2014 में हमारे देश में कुल 4.89.400 सड़क हादसे हुए। शहरी क्षेत्र में 2.26.415 और ग्रामीण क्षेत्र में 2.62.985 और मौत ? 56.663 शहरी क्षेत्र में तथा 83.008 ग्रामीण क्षेत्र में।(अमर उजाला. 21.9.15) यानी वहाँ गाँववाले ही ज्यादा हादसों के शिकार होते हैं। पर यहाँ की सड़क देखिए और यहाँ की रफ्तार। एक भी कार-कंकाल आपको सड़क किनारे पड़े नहीं मिलेंगे। कोई फालतू में भों पों घों घों करके ठकुरई नहीं जताता। मैं ने तो एक बार रुपाई से पूछ ही बैठा,‘अरे बेटे, यहाँ की सभी कारें गूँगी हैं क्या?’

एक महीने तक हमने कोई हार्न नहीं सुना। यह अतिशयोक्ति नहीं, मादरे वतन की कसम!

किंग्सटन के आस पास पर्थरोड और बेडफोर्ड मिल्स दो भूतहा गांव है। यानी उन्हें कुछ लोगों के बसने के लिए बनाया तो गया था। मगर कोई वहाँ पहुँचा नहीं। अरे साहब, हमारे देश से कुछ आबादी लेते क्यों नहीं आते?

फिर एक सुबह कन्या जामाता ले चले मैलोरी टाउन लैंडिंग। वही जल जंगल और जमीन की दास्तान। वहाँ सेंट लॉरेन्स आइलैंड पार्क में दिन भर तफरीह कीजिए। वहाँ के म्यूजियम में वहाँ पाये जाने वाले कीड़े मकौड़े और तितलियां अल्मारी में रखे हुए हैं। क्या रंग है! ‘बीट्ल’ जाति के कीड़ों के तो अद्भुत रंग होते हैं। लगता है वे अँगूठी में लगाने वाले नगीने हों।

वहीं मेज पर जंगल के बारे में किताबें भी रक्खी हुई हैं। एक शिक्षा – कभी ग्रिजली बीअर से अगर आप की भेंट हो तो जोर शोर से चिल्लाइयेगा। मगर बबुआ, उस विशालकाय दीर्घरोमा को देख कर कंठ से आवाज निकलेगी तभी न आप चिल्लाइयेगा ?

आगे जाकर नदी के पानी में पैर डुबो कर हम बैठे रहे। मैं पत्थर पर लेटे लेटे देख रहा था – कैसे आकाश की नीलिमा पिघल पिघल कर झील के पानी में समा जा रही थी। धरती की छाती पर जल और व्योम का यह कैसा सेतु बंधन है! लहरें खिलखिला रही हैं, परिंदे पूछ रहे हैं, मैं तो बस देखे जा रहा हूँ ……..

वापसी में झील पर एक और सेतु बंधन देखा। अगल बगल दो छोटे छोटे द्वीप। दोनों पर बस एक एक कॉटेज। और दोनों को जोड़ते हुए छोटा सा पुल। सड़क से देखने पर लगता मानो कोई खिलौनों का संसार रमा बसा है।

घर लौटते लौटते रात काफी हो गई। रुपाई ने सास से कहा,‘ माँ, अब घर पहुँचकर खाना वाना क्या बनाना? रास्ते से ही कुछ लेते चलें।’   

किंग्सटन का ही एक मोहल्ला है पोर्टसमाउथ। वहाँ पहुँचकर कार सुस्ताने लगी। यहाँ सामने असंख्य नावें रखी हुई हैं। यहाँ उनसे ट्रेनिंग दी जाती है और स्पोर्टस की तैयारी होती है। वहीं एक चीनी परिवार कैस डेलाइट रेस्टूरेंट चलाता है। रुपाई सीढ़ी से चढ़ गया। एक बच्चा कुर्सी पर बैठकर अपने दादाजी के साथ कैरम खेल रहा था। उसकी माँ ने आर्डर लिया। थोड़ी देर में दो गरमा गरम पैकेट लेकर हम घर पहुँचे। अजी धीरज की परीक्षा मत लो। चलो लगाओ प्लेट। मगर एक बनारसी हाथ मुँह धोये बिना भोजन को हाथ कैसे लगाये ?

मेनू में क्या क्या नाम है बाबा ! चिकन विथ जिंजर सैलाड। जेनरल ताओं चिकन। साथ में फॉर्चून कूकी। खाने के बाद झूम ने एक कूकी मेरी तरफ बढ़ा दी,‘बाबा, जरा इस रैपर को खोलकर कूकी खाओ।’

मैं ने बिटिया आज्ञा का पालन किया।

‘अब उसमें क्या लिखा है, देखो।’

अरे हाँ ! उस रैपर के अंदर तो कुछ बातें लिखी हैं।

‘इसमें आपके बारे में कुछ लिखा होता है। शायद आपके जीवन के लिए दिशा निर्देश भी हो!’

मैं पढ़ रहा था -‘तुम में सारी दुनिया जीतने की ताकत है। मगर अतीत के बारे में सोचा न करो। बस भविष्य के सुनहरे स्वप्नों को देखो। और तुम्हारे शुभ नम्बर हैं – 3, 5, 55, 15…’… ऐसा ही कुछ…

चारों ओर की हताशा में फँसा इंसान कह उठता है,‘अरे ये लोग कैसे सच सच सब बता देते हैं?’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ जन्म दिवस विशेष –  शिक्षाविद डॉ. अभिजात कृष्ण ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆ समन्वय-सामंजस्य के जादूगर – शिक्षाविद डॉ. अभिजात कृष्ण ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

26 मार्च को जन्म दिवस पर विशेष –

अपने विद्यार्थियों, मित्रों, परिचितों सहित अपरिचितों की सहायता को भी सदा तत्पर रहने वाले सहज-सरल प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी श्री जानकीरमण महाविद्यालय के ऊर्जावान प्राचार्य डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी की व्यस्त दिनचर्या हैरान करने वाली है । उनके महाविद्यालय सम्बन्धी दायित्वों के निर्वहन, लोगों की मदद, साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यक्रमों में योगदान और नियमित अध्ययन, चिंतन-मनन के साथ-साथ विद्वतजनों से उनकी चर्चाओं के दौर को देखकर लगता है कि आखिर ये महानुभाव भोजन और विश्राम आदि कब करते होंगे ? आश्चर्य यह कि जब भी अभिजात से मिलो वो हमेशा तनाव मुक्त और ताजगी से भरे दिखाई देते हैं । आज के दौर में कर्म और सामाजिक दायित्वों के प्रति ऐसे समर्पित-निष्ठावान अनुज पर गर्व होता है ।

शिक्षाविद, साहित्यकार, पत्रकार स्व.पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी के यशस्वी पुत्र अभिजात कृष्ण हिन्दी में स्नातकोत्तर, पुस्तकालय विज्ञान एवं विधि में स्नातक हैं । आपने “पंडित गंगा प्रसाद अग्निहोत्री के साहित्य का समग्र अनुशीलन” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है । अपनी विद्वत्ता, अध्यापन कौशल एवं प्रबंधन क्षमता के कारण अभिजात न सिर्फ अपने महाविद्यालय के विद्यार्थियों, सहयोगियों के चहेते हैं वरन नगर के अन्य महाविद्यालयों सहित विश्विद्यालय के जो भी छात्र और शिक्षक-कर्मचारी उनके संपर्क में आते हैं वे सदा के लिए उनके प्रशंसक बन जाते हैं ।

डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी द्वारा  विभिन्न महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन स्तर पर आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में लगभग दो दर्जन शोध पत्रों को प्रस्तुत किया जा चुका है जिनका प्रकाशन भी हुआ है । विविध विषयों पर लेख, विशिष्टजनों के साक्षात्कार एवं व्यक्तित्व-कृतित्व पर आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित होते रहते हैं । आपके संपादन में रचित प्रो.जवाहरलाल चौरसिया “तरुण” पर एवं प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल पर अभिनंदन ग्रंथ, आंचलिका 2013, साहित्य सहोदर, गौवंश, साक्षी, कामधेनु तथा जबलपुर जिले का साहित्य गजेटियर आदि अति महत्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते हैं । आपके संयोजन में नवीन चतुर्वेदी द्वारा आदि शंकराचार्य पर लिखित नाटक नाट्य लोक संस्था के माध्यम से संजय गर्ग के निर्देशन में रीवा, दिधौरी एवं श्रीधाम में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा चुका है । आपने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर रहे श्रीजानकी महिला बैंड की स्थापना की और श्रीजानकीरमण मंदिर के भव्य पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ करा चुके हैं । महाविद्यालय में नए उपयोगी पाठ्यक्रमों की संरचना के लिए प्रयासरत हैं । महाविद्यालय प्रांगण में छात्र-छात्राओं के साथ ही नगर के साहित्य कला जगत के लिए उपयोगी संग्रहालय एवं प्रेक्षागृह बनाना भी आपके कार्यों की प्राथमिकता में शामिल है । आपके द्वारा कालेज अवधि के उपरांत यहां का सुसज्जित वर्तमान मंच, माइक और कुर्सियों सहित नगर की सभी  साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को निःशुल्क प्रदान कर सकारात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है । योग निकेतन एवं आरोग्य मंदिर के द्वारा महाविद्यालय परिसर में प्रतिदिन निःशुल्क योग प्रशिक्षण कार्यक्रम का सफल संचालन किया जा रहा है । आपके मार्गदर्शन में महाविद्यालय की कीर्ति निरंतर बढ़ रही है । महाविद्यालय की राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई को 51 हजार रुपये का नेशनल यंग अचीवर अवार्ड प्राप्त हुआ । छात्र/छात्राओं ने विभिन्न विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किए । क्रीड़ा गतिविधियों में भी महाविद्यालय आगे है । छात्रा रागिनी मार्को को तीरंदाजी में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक मिला । आशीष सोनकर (कुश्ती), देवेंद्र मिश्रा(योग), करण गुप्ता ने बॉक्सिंग में ख्याति अर्जित की । अभिजात जी मध्यप्रदेश शासन साहित्य अकादमी के माध्यम से वर्ष 2011 से पाठक मंच का संचालन कर रहे हैं जिसका लाभ नगर के साहित्यकारों को मिल रहा है । अनेक संस्थाओं-समितियों के पदाधिकारी और सदस्य के रूप में अभिजात जी के द्वारा आयोजित कार्यक्रम सदा ही उद्देश्यपूर्ण होते हैं । शिक्षा जगत और समाज के लिए आपके योगदान पर आपको अनेक सम्मान/पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं ।

आज 26 मार्च को आपके जन्म दिवस पर सभी मित्रों, परिचितों, प्रशंसकों, विद्यार्थियों एवं ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपके स्वस्थ, सुदीर्घ, सक्रिय, यशस्वी जीवन की शुभकामनाएं । बधाई ।

– प्रतुल श्रीवास्तव

जबलपुर, मध्यप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 9 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 9 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

प्रपात के पीछे

यानी सबसे पहले आज बिहाइंड द फॉल देखने जायेंगे। मालूम हुआ हम तीनों को वहाँ नायाग्रा के किनारे तक छोड़ कर वापस आकर रुपाई यहाँ की लाइब्रेरी में बैठकर अपना पेपर पूरा करेगा।

कल दिनभर पिज्जा वगैरह खाने के कारण आज प्रातःकाल पेट कुछ बेअदब हो गया। मेरी सरहज टिपटॉप, सुबह से ही फुलस्टॉप। फिर भी प्रयास जारी रखना, यार। नहा धोकर निकला तो देखा माखनचोर गोपाल के सामने झूम ने केले के दो टुकड़े और एक बड़ी बोतल में पानी रख दिया है। वह जहाँ कहीं भी जाती इस गोपाल की मूर्ति को साथ ले चलती है। बनारस में भी जब आती है तो माखनचोर उसकी गोद में ही रहते हैं। वहाँ हमारे घर के ठाकुर घर में रामकृष्ण परमहंस, शारदा मां, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, महादेव, ससुरजी एवं उनके महाराज, मेरे नाना नानी, बाबा माँ, यानी झूमके दादा दादी और माँ काली आदि के साथ विराजमान हो जाते हैं। मॉन्ट्रीयल के यूल एअरपोर्ट में भी तो गोपाल हम नाना नानी को रीसिव करने आये थे।

मेरा मन भारी होने लगा। हे विश्वद्रष्टा, तुम कब हमारी बात सुनोगे? कब मेरी गुड़िया की गोद में आकर खेलोगे? माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा / करिअ सिसु लीला अति प्रियसीला यह रूप परम अनूपा (बालकांड)! जब शिशु रामचंद्र माता कौशल्या को अपना दिव्य रूप दिखाने लगे तो माँ को वह उतना पसंद क्यों आये ? तो :- माँ कौशल्या हाथ जोड़कर / बोली, ‘खेलो बच्चा बनकर।/देवरूप तो नहीं सुहाता/किलकारी में मन सुख पाता!’  यही तो जीवन का परम सत्य है ! इसी में जीवन का अमृत रस है!

मैं ने हँस कर बेटी से कहा,‘अरे जननी, इतनी बड़ी बोतल में पानी दिया है। बेचारा दिन भर सब कुछ भिंगाता रहेगा।’

अम्मां बोली,‘एक साथ पीने को किसने कहा है? एक एक घूँट पीकर रख दे।’

पहले पेट पूजन, फिर हरि दर्शन। नाश्ते के बाद हम चल पड़े।

जलप्रपात की ओर सड़क की ढलान बिलकुल नीचे चली गई है। नजदीक से नायाग्रा का दीदार करने करीब दस बजे तक हम तीनों वहाँ पहुँच गये। कैसिनो की लंबी इमारत के सामने से सड़क पार करके हम सीढ़ी उतर गये। पहले टिकट, फिर लिफ्ट से नीचे जाओ। फिर एक जगह पीले रंग के पतला सा रेनकोट लो। आगे बढ़ते ही,‘ऐ भाई जरा रुक के चलो।’ वहाँ फोटो खींचा जा रहा है। मैं ने सोचा कि शायद यह फोटो उठाकर मुसाफिर दर्शकों की सूची बना रहे हैं। अरे नहीं मूरख। वापस आते समय वे इसे बेचेंगे। शायद बीस डालर की एक फोटो। कौन लेगा ? खैर, हम अब लिफ्ट के जरिए पहुँचे ठीक जलप्रपात के पीछे बनी सुरंग में। सुरंग के भीतर फर्श पानी पानी जरूर है, मगर फिसलन कहीं नहीं। इसे कहते हैं मेंटेनेंस।

नायाग्रा नदी आकर यहाँ दो भागों में बहती है। पूरब की ओर यूएसए वाला हिस्सा। और इस पार घोड़े के नाल की शक्ल में कनाडावाला। तो जमीन से करीब 56 मीटर नीचे जाकर प्रपात के पीछे बनी सुरंग में खड़े होकर हम झरने को देख रहे हैं। प्रकृति की अद्भुत महफिल सजी हुई है। सामने लाखों मृदंगों की थापों के साथ करोड़ों उर्वशी और रंभायें नाच रही हैं। सारा ब्रह्मांड मदमस्त है। इस दिव्य रूप को देखते जाओ। इसके आगे रोजमर्रे की सारी शिकायतें बिलकुल तुच्छ जान पड़ती है। नायाग्रा जलप्रपात ने अपने ध्रुपद संगीत का ऐसा समाँ बांधा है कि मानो कह रहा हो :-‘ऐ इन्सानों, मेरी इन लहरों की तरह सब एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर चलते रहो। एक दूसरे का साथ न छोड़ो। गले लगालो सबको। अपने मुहल्लेवालों को, अपने शहरवालों को, अपने देशवासिओं को, अपने पड़ोसी मुल्क के लोगों को। तुम्हारे हृदय की धड़कन सुनाई दे सारे विश्ववासियों के सीने में -!’  

सुरंग के अंदर कतार आगे बढ़ रही है। दीवाल पर यहीं के तरह तरह के पुराने फोटोग्राफ लगे हैं। कैसे सुरंग बनी, कैसे एक सुरंग बनते बनते रह गई, कैसे नायाग्रा से हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर का उत्पादन आरंभ हुआ, कौन कौन से विख्यात व्यक्ति इसे देखने यहाँ आये हुए थे, वगैरह। पानी के परदे के उस पार कुछ नहीं दिख रहा है। कुछ नहीं। समझ में आता है कितना बड़ा सत्य छिपा है इस कथन में :- गिरा अनयन नयन बिनु बानी (बालकाण्ड)। वाणी नहीं नैनों के पास/दृष्टि बिन जीभ सारी उदास।

यहाँ भी मनौती की रकम बिखरी पड़ी थी प्रपात धारा के ठीक पीछे, पत्थरों पर। हर जगह भगवान को खुश करने के लिए हम यही उपाय क्यों चुनते हैं? शायद वेदों से ही इसका शुभारंभ है। हे इन्द्र, हे अग्नि, हवि ग्रहण करो, और मुझे यह दो, वह दो! वामन शिवराम आप्टे ने हवः के अर्थ में आहुति, यज्ञ, आवाहन, आदेश से लेकर चुनौती या ललकार तक दिया है। हवनम् का एक अर्थ तो युद्ध के लिए ललकार तक है।

स्वामी जगदीश्वरानंद अनूदित बांग्ला ऋग्वेद के चतुर्थ सुक्त के नौवें श्लोक में है :-(हे इंद्र), धनप्राप्ति के लिए हम आपको हवि के रूप में अन्नदान करते हैं। उसी पुस्तक में है – मार्कंडेय पुराण में देवी लक्ष्मी से कहा गया है – हे चंचला, आप हमारे गृह में पधारिए। आपके प्रसाद से हम ढेर सारा सोना, गायें, पुत्र, पौत्र, दास और दासियां प्राप्त होंगे!(तां म आवहो जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गाबो दास्यो विन्देयं पुरुषानहम्। श्लोक सं. 15)

साथ ही साथ सैमुयेल बटलर (1835-1902) अनूदित होमर का महाकाव्य इलियाड से एक कहानी, इसी विषय पर …….। होमर का दूसरा महाकाव्य ओडिसी को आप इसीका दूसरा खंड कह सकते हैं। एक में अगर ट्राय युद्ध का वर्णन है, तो अगले में है योद्धाओं की घर वापसी।

अब औरत को लेकर झमेला एवं जंग तो रामायण की सीता से लेकर इलियाड की हेलेन ऑफ ट्रॉय तक होते ही आये हैं। नारी महामारी। खैर, जब ट्रॉय का राजकुमार पेरिस स्पार्टा की रानी एवं राजा मेनेलाउस की पत्नी हेलेन को चुरा ले गया तो ट्रॉय के खिलाफ एचियन ग्रीकों ने युद्ध छेड़ दिया। अब जरा अंदर की बात। यहाँ तक पढ़ लेने के पश्चात प्रसिद्ध बाल साहित्यकार श्रीप्रसादजी की बहू डा0 उषा लगी मुझे डाँटने,‘अरे ट्रॉय की कहानी को तो बताना चाहिए। आप भी न बस्स….’। अब पाठकों को क्या मालूम कि हम जैसे चवन्निया लेखकों को जाने कहाँ कहाँ और कितनी बार समालोचनाओं से शराहत होना पड़ता है! और हम तो कोई ‘कलम के अशर्फिया रण बाँकुरे’ नहीं न हैं। हाय अदब, फिर भी हम आते हैं तेरी गलिओं में पत्थरों से लोहा लेने। नश्शए कलम वो है कि छूटता ही नहीं। सो इलियाड से यह कहानी पहले …..

तो स्पार्टा की रानी हेलेन विश्व विख्यात सुंदरी थी। जाने कितने थे उसके चाहनेवाले। रूप ऐसा कि मानो उसी के लिए किसी ने लिखा है – आँखों ने मए हुस्न पिलाई थी एक रोज़, अँगड़ाइयाँ लेता हूँ अभी तक खुमार में! उधर ट्रॉय के राजा प्रियाम और रानी हेकुबा के दो बेटे थे। बड़ा हेक्टर और छोटा पेरिस या आलेक्जांडर। पेरिस भी बला का खूबसूरत था। पेरिस कभी स्पार्टा घूमने गया था। और मौका पाते ही वह हेलेन को अपने संग उड़ा ले आया। ग्रीक योद्धा जहाजों पर सवार होकर ट्रॉय के तट पर आ धमके,‘मेनेलाउस की पत्नी को वापस करो!’

मगर वहाँ भी वही दशानन की तरह जवाब मिला,‘हिम्मत है तो लड़ कर ले जा!’

दस साल तक चला यह युद्ध! कितने योद्धा रणभूमि में खेत रहे। मगर नतीजा जीरो बटा सन्नाटा। आखिर ग्रीक सेनापति ओडिसियस को एक तरकीब सूझी,‘हम एक लकड़ी का खोखला घोड़ा बनायें। उसके अंदर हमारे चुने हुए सिपाही रहेंगे। उस लकड़ी के घोड़े को ट्रॉय के सिंहद्वार के पास छोड़ कर हम जहाज लेकर दूर हट जायें। उन्हें लगेगा कि हम पराजय स्वीकार कर युद्धभूमि से लौट चले हैं। वे उस घोड़े को नगर के अंदर ले जायेंगे तो रात के अँधेरे में हमारे सिपाही घोड़े के पेट से निकल कर ट्रॉय का मुख्यद्वार खोल देगा और हम तब तक वापस आकर अंदर पहुँच जायेंगे।’

बस यही हुआ। घोड़े के पेट पर लिखा था – देवी एथिना के लिए ग्रीकों की भेंट! क्योंकि जंग के दौरान ग्रीकों ने एथिना के मंदिर को तहस नहस कर दिया था। ट्रोजान (ट्रॉय निवासी) पुरोहित लाओकून ने सबको होशियार किया,‘अरे उस घोड़े को फाटक के अंदर मत लाओ। इसमें जरूर ग्रीकों की कोई चाल है।’

मगर उस मौके पर कौन किसका सुनता? ‘ग्रीक भाग गये। हम जंग जीत गये!’कहते हुए ट्रोजान वीर उसे सिंहद्वार के अंदर लेते आये और उसी रात…..अँधेरे में ……..। ग्रीक अपने जहाजी बेड़े को दिन के उजाले में तो दूर ले गये थे, मगर रात तक सब वापस आ चुके थे। और फिर शुरू हो गयी मार काट। बहुत हुआ खून खराबा। अनेकानेक घटनाओं के बाद हेलेन मेनेलाउस को मिल गयी।

अब चढ़ावे की यह कहानी है तब की जब ग्रीकों ने ट्रॉय के बाहर समुद्री तट पर अपने जहाजी बेड़े को खड़ा कर रक्खा था। यानी इलियाड के आरम्भ में। यह उनके अंदरूनी झगड़े की गाथा है। उनके पुरोहित क्राइसेस की बेटी क्राइसिस को ग्रीक सेनापति अगामेनन ने रखैल बनाकर अपने पास रख लिया। क्राइसेस दौलत लेकर गया अगामेनन के पास,‘इसे लेकर मेरी बेटी को छोड़ दो।’

मगर वह इंकार कर गया। पुरोहित क्राइसेस की प्रार्थना से ईश्वर अपेलो अपने चाँदी के धनुष लेकर आये और उनके जहाज पर तीर की वर्षा करने लगे। तो ग्रीक वीर एकिलिस ने सबको बुलाकर कहा,‘अरे इस तरह तो हम सब मारे जायेंगे। जरा पुरोहितों से पूछो कि आखिर फिबस अपेलो हम पर इतना क्रुद्ध क्यों हैं? क्या हमने कोई प्रतिज्ञा तोड़ी है या उन्हें जो ‘हेकाटॉम्ब’ (भेंट) देने की बात कही थी उससे हम मुकर गये?’

प्राचीन ग्रीस में एक हेकाटन का मतलब होता था सौ अच्छे नस्ल के साँड़ों की सौगात। वैसे बारह से भी काम चल जाते। फिर देखिए सौदेबाजी। चेंबर्स में ‘हेकाटॉम्ब’ के अर्थों में लिखा है – शिकारों की एक बड़ी संख्या। ध्यान दीजिए हम भी तो माँ काली को प्रसन्न करने के लिए उनके सामने बलि चढ़ाते हैं। बंगाल में डाकात काली के सामने नरबलि तक होता था। इन्सान अपने लालच में माँ के नाम पर भी कीचड़ उछालने में पीछे नहीं हटता। किसी माँ को क्या अपनी संतान या किसी भी जीव का बलि चाहिए ? बकरीद का अर्थ अब क्या होकर रह गया है? इब्राहीम ने तो अल्लाह के रास्ते पर चलते हुए अपनी सबसे प्यारी वस्तु अपनी औलाद की भी कुरबानी देनी चाही थी। मगर अब -? तो कहानी पर लौटें …….

आगे एकिलिस फिर पूछता है,‘अगर हम उन्हें भेंड़ और बकरिओं का चढ़ावा चढ़ायें तो क्या वे हमें माफ कर देंगे ?’

फिर यहाँ से शुरू होता है ग्रीकों का आपस में मतभेद, मनमुटाव। अब अगामेनन एकिलिस की रखैल ब्राइसिस की माँग करने लगता है। एक हाथ से दो, दूसरे हाथ से लो। वाह! खैर, तो चढ़ावा या मनौती का इतिहास वहाँ भी है। तो आगे……

फिर हम सब सुरंग से निकल आये। लौटते समय हम दोबारा उसमें पहुँचे थे। सीढ़ी से उतरते समय ऊपर लिखा है – जर्नी बिहाइंड द फॉल। तो बाहर प्रपात की बगल में एक छतनुमा घेरे में खड़े होकर चंद्रमौलि पर गंगावतरण का साक्षात दर्शन। शायद इसी ध्वनि से प्राचीन ऋषियों ने हर हर शब्द का निर्माण किया था। हर हर हर हर…… हे कनाडा की गंगा, बस इसी तरह निरंतर बहती जाओ। तुमसे शिकायत रह गयी कि पानी के कतरों में इन्द्रधनुष नहीं दिखा। जो हमने जगदलपुर के चित्रकूट में देखा था। आज आसमां में बादल जो छाये थे।

‘नर्मदा के अमृत’, नंदलाल वसु का शिष्य, चित्रकार एवं लेखक जबलपुर निवासी अमृतलाल वेगड़ ने कहा है,‘जब कोलाहल नहीं रहता, कलरव तभी सुनाई देता है।’ चारों ओर कितनी भाषाओं के पंछी पंख फैलाकर उड़ रहे हैं। कहाँ कहाँ से लोग नहीं आये हैं! शायद अरब, इराक और इज्रायल (सिर पर वही चपटी टोपी, साफ मूँछें और बढ़ी हुई दाढ़ी देख कर कह रहा हूँ।)। उधर जापान, कोरिया और पता नहीं चीन के भी हैं या नहीं। फ्रेंच तो जरूर होंगे। आज भी तो कनाडा में फ्रेंच और अंग्रेजी की तू तू मैं मैं जारी है। उधर अंडाकार चेहरेवाली डच बालायें, तो अफ्रीकी या द0 अमेरिकी भी। मगर कहाँ हैं इस माटी के सच्चे मालिक? एकदिन यहाँ की समूची धरती जिनकी थी। रेड इंडियन ? उनका क्या हुआ ? यहाँ सेंट लारेंस के किनारे की इरोक्विन भाषा में कनाता का अर्थ है गांव या बस्ती। 1763 में उसी से कनाडा का प्रचलन हुआ। आज यहाँ दस प्रदेश हैं। गोरे अगर 76.7 फीसदी हैं, तो एशियन 14.2, अश्वेत 2.9 और आदिवासी सिर्फ 4.3 प्रतिशत। यहाँ के मिलिट्री तमगे पर लैटिन में लिखा होता हैः- ए मारी उस्कू एड मारे। यानी सागर से सागर तक। अर्थात अटलांटिक से प्रशांत महासागर तक साम्राज्य हो! यहाँ का राष्ट्रगान अगर ‘ओ कनाडा’ है, तो राजकीय गान है ‘गॉड सेव द क्वीन’! यानी ग्रेट ब्रिटेन की रानी के प्रति श्रद्धा प्रदर्शन!

इतिहास बहुत निर्मम है। कोलम्बस द्वारा अमरीका की खोज के पश्चात जहाज में बैठकर फ्रेंच और अंग्रेजों का यहाँ आगमन – और फिर? आह! वे रेड इंडियन दौड़ रहे हैं। केवल तीर चलाकर वे कैसे इन बंदूकों का सामना करते? ओह! उस जमाने में तो उनके पास घोड़े भी नहीं थे। घोड़े तो यूरोपियों के साथ ही यहाँ आये। मानो वह समूचा दृश्य आँखों के सामने से गुजर रहा है। बच्चे माँ की छाती से चिपक कर रो रहे हैं। मायें चिल्ला चिल्ला कर अपने ईश्वर को बुला रही हैं। कनाडा की धरती लाल हो उठी है। कैटारकी, सेन्ट लॉरेन्स नदियाँ, ईरी से लेकर ऑन्टारिओ झील – सबकुछ रक्तिम हो गया।

नायाग्रा, तुम्हारी इस गर्जन में उस दिन जाने कितने प्रतिवाद के स्वर मुखर हुये होंगे। हे भगीरथ, आओ, अपना शंख शंख फूँको! इस प्रपात की धारा से इस धरा से सारी कालिमा मिटा कर चिता की राखों से एक नये प्राण का आह्वान कर नहीं सकते ? इन तमाम कुटिल द्वन्द्वों और संघर्षों के बीच अमृत मंथन कर नया जीवन संचार कर नहीं सकते? मगर आज ……

हो हो हो …… सबकी उन्मुक्त हँसी मानो गगन को छू रही है। कोई बच्चे को बुला रहा है, कोई पत्नी या प्रेयसी को। एक दोस्त दूसरे से अनर्गल बातें किया जा रहा है। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मगर शब्द को समझने की जरूरत क्या है ? उनकी भावना की स्निग्ध धारा से हमारा तन मन भी तो सिक्त हो गया। मुक्त हँसी से आ गयी, गुदौलिया (काशी की हृदय स्थली स्थित चौराहा।) की याद। जीअ र’जा, मजा लऽ गुरू, हो आनंद आबाद !

वापसी में एक जगह लिखा था पर्यावरण की रक्षा के लिए प्लास्टिक के रेनकोट को यहीं त्यागते जाइये। अरे नहीं भाई। यहाँ के मौसम का मिजाज समझना बहुत कठिन है। अचानक बारिश होने लगती है। तो इन्हें सँभाल कर ही रक्खा जाए। फिर उन फोटोग्राफरों का सवाल,‘यादगार के लिए अपनी फोटो तो लेते जाइये।’ उनलोगों ने बाकायदा कमरे के अंदर खिंची गयी फोटो के बैकग्राउंड में नायाग्रा की धारा को फिट कर दिया है। वाह भई, फोटोग्राफी के जादू।

आगे बढ़ा तो हमें एक गिफ्ट सेंटर के बीच से होकर निकलना पड़ा। वहाँ एक बड़े हिरण जैसा प्राणी मूस खड़ा है। यानी एक तरह की मूर्ति ही समझिये। उत्तरी यूरोप और एशिया में इसी प्राणी को एल्क कहते हैं। हमे कुछ खरीदना नहीं है भैया। भागो…….भागो………

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ जन्म दिवस विशेष – शिक्षाविद, साहित्यकार ‘विदग्ध’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆23 मार्च को जन्म दिवस पर विशेष – शिक्षाविद, साहित्यकार ‘विदग्ध’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

(ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से गुरुवर प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी को उनके यशस्वी 95 वें जन्म दिवस पर सादर प्रणाम एवं हार्दिक शुभकामनाएं।)

संघर्ष-साधना से भरे सात्विक जीवन के साथ अध्ययन, चिंतन-मनन से प्राप्त परिपक्वता और आभा के तेज से जिनका मुखमंडल सदा दीप्त रहता है उन्हें हम सब कवि-साहित्यकार, अनुवादक, अर्थशास्त्री और शिक्षाविद प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” के नाम से जानते हैं । हिंदी, अर्थशास्त्र एवं शिक्षा में स्नातकोत्तर उपाधियां प्राप्त कर आपने साहित्य रत्न की उपाधि भी प्राप्त की । विभिन्न नगरों के विद्यालयों में अपनी विद्वता एवं अध्यापन कौशल से अपने सहयोगियों और छात्रों में विशिष्ट आदर व स्नेह के पात्र रहे प्रो. चित्रभूषण जी केन्द्रीय विद्यालय क्रमांक 1, जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं । वे प्रान्तीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

1948 में देश की प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती में विदग्ध जी की प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी तब से आज तक देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं के प्रकाशन का सिलसिला जारी है । आकाशवाणी केन्द्रों एवं दूरदर्शन से भी उनकी रचनाओं का प्रसारण जब-तब होता रहता है । ईशाराधन, वतन को नमन, अनुगुंजन, नैतिक कथाएं, आदर्श भाषण कला, कर्मभूमि के लिए, बलिदान, जनसेवा, अंधा और लंगड़ा, मुक्तक संग्रह, समाजोपयोगी उत्पादक कार्य, शिक्षण में नवाचार, मानस के मोती आदि उनकी चर्चित पुस्तकें हैं । प्रो.चित्रभूषण जी ने भगवतगीता, मेघदूतम एवं रघुवंशम के हिंदी अनुवाद के साथ ही संस्कृत एवं मराठी के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिंदी अनुवाद किया है । सम सामयिक घटनाओं पर निर्भीकता से कलम चलाने वाले गांधीवादी साहित्यकार  “विदग्ध”जी के प्रशंसकों में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी भी शामिल थे । शिक्षा विभाग की अनेक समितियों में पदाधिकारी/सदस्य रहे प्रो.चित्रभूषण जी जबलपुर सहित जिन-जिन नगरों में सेवारत रहे वहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के माध्यम से प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने का कार्य भी करते रहे । उन्होंने मंडला में रेडक्रॉस समिति की स्थापना की । छात्र जीवन में हॉकी एवं वालीबॉल के खिलाड़ी रहे विदग्ध जी नई पीढ़ी को संदेश देते हुए कहते हैं कि “नियमित एवं सादा जीवन मनुष्य को शारीरिक-मानसिक व्याधियों से दूर रखता है ।” वे गीता को धर्म विशेष का ग्रंथ न मान कर इसे समस्त मानव जाति का पथ प्रदर्शक मानते हैं । उनके अनुसार जीवन में क्या उचित, क्या अनुचित है यही गीता में बताया गया है ।

ज्ञान-साधना से प्राप्त अनुभवों को आजीवन उदारता पूर्वक समाज को वितरित करते रहने वाले प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी को उनके यशस्वी 95 वें जन्म दिवस पर सादर प्रणाम । वे स्वस्थ रहें और वर्षों-वर्षों तक हमें मार्गदर्शन व आशीर्वाद प्रदान करते रहें ।

– प्रतुल श्रीवास्तव

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

(आप प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध”  जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित एक पूर्वप्रकाशित आलेख इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👉 प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व )

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बतरा : होलिया में भर आती हैं आंखें ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆ 

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – रमेश बतरा : होलिया में भर आती हैं आंखें ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆

(15 मार्च – प्रिय रमेश बतरा की पुण्यतिथि । बहुत याद आते हो मेशी। तुम्हारी माँ  कहती थीं कि यह मेशी और केशी की जोड़ी है । बिछुड़ गये ….लघुकथा में योगदान और संगठन की शक्ति तुम्हारे नाम । चंडीगढ़ की कितनी शामें तुम्हारे नाम…. – कमलेश भारतीय ) 

एक संस्मरण ( कृपया क्लिक करें) 👉  हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बतरा : कभी अलविदा न कहना ☆ श्री कमलेश भारतीय

होली फिर आ रही है और धुन सुनाई दे  रही है -होलिया में उड़े रे गुलाल,,,,पर दिल कहता है होलिया में भर आती हैं आंखें हर बार, हर बरस। रमेश बतरा को याद करके। मेरी रमेश बतरा से दोस्ती तब हुई जब वह करनाल में नौकरी कर रहा था और ‘बढ़ते कदम’ के लिए रचना भेजने के लिए खत आया था। अखबार के साइज की उस पत्रिका के प्रवेशांक में मेरी रचना को स्थान मिला था और हमारी खतो खतावत चल निकली थी।

फिर रमेश बतरा का तबादला चंडीगढ़ हो गया। इतना पता है कि सेक्टर आठ में उसका ऑफिस था और मैं बस अड्डे से सीधा या उसके पास या फिर बस अड्डे के सामने सुरेंद्र मनन और नरेंद्र बाजवा के पास पहुंचता। शाम को हम लोग इकट्ठे होते अरोमा होटल के पास बरामदे में खड़ी रेहड़ी के पास। वहीं होती कथा गोष्ठी और विचार चर्चा। इतनी खुल कर कि यहां तक भी कह दिया जाता कि इस रचना को फाड़कर फेंक दो या इतनी प्रशंसा कि इसे मेरी झोली में डाल दे, साहित्य निर्झर में ले रहा हूं। शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड ने रमेश बतरा को साहित्य निर्झर की कमान सौंप दी थी। हर वीकेंड पर मेरा चंडीगढ़ आना और रमेश के सेक्टर बाइस सी के 2872 नम्बर घर में रहना तय था और साहित्य निर्झर की लगातार बेहतरी की चर्चायें भी। यहीं अतुलवीर अरोड़ा, राकेश वत्स और जगमोहन चोपड़ा से भी नजदीकियां हुईं। तीनों के स्कूटरों पर हम लोग पिंजौर गार्डन भी मस्ती करने जाते।

 सेक्टर इक्कीस में प्रिटिंग प्रेस थी और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब लघुकथा विशेषांक निकल रहा था तब उसी प्रेस में बैठे मैंने उस टीन की प्लेट पर कागज़ रख लिखी थी -कायर। जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और बोला था कि जहां जहां संपादन करूंगा यह लघुकथा जरूर आयेगी। यह थी उसकी अच्छी रचना के प्रति एक संपादक की पैनी नजर। बहुत से नये कथाकार बनाये इस दौरान। चित्रकारों व फोटोग्राफर्स को भी जोड़ा।  कितने सुंदर कवर चुनता था। पानी की टोंटी पर चोंच मारती चिड़िया का चित्र आज तक याद है। नये से नये कथाकार जोड़ता चला गया। एक काफिला बना दिया -महावीर प्रसाद जैन, अशोक जैन, नरेंद्र निर्मोही, मुकेश सेठी, सुरेंद्र मनन, नरेंद्र बाजवा, गीता डोगरा, प्रचंड, तरसेम गुजराल और संग्राम सिंह आदि। चंडीगढ़ की साहित्यिक गोष्ठियों में भी साहित्य निर्झर में प्रकाशित रचनाकारों को चर्चा मिलती रही। धीरे धीरे सभी लोग हिंदी साहित्य में छा गये।

रमेश फिल्म देखते समय विज्ञापनों को बहुत ध्यान से देखता और कहता कि कम शब्दों में अपनी बात कहनी सीखनी है तो विज्ञापनों से सीखो। लघुकथा में इसीलिए वह सबसे छोटी लघुकथा दे पाया -रात की पाली खत्म कर जब एक मजदूर घर आया तब उसकी बेटी ने कहा कि एक राजा है जो बहुत गरीब है। बताइए यह प्रयोग किसके बस का था ? चंडीगढ़ में संगठन खड़ा करने, एक नये आंदोलन जैसा माहौल बनाने के साथ साथ लघुकथा को नयी दिशा देने का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। साहित्य निर्झर व शुभतारिका  के लघुकथा विशेषांक इसके योगदान के अनुपम उदाहरण हैं। खुद लिखना और सबको लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहने की कला रमेश बतरा में ही थी। चंडीगढ़ रहते रमेश बतरा एक अगुआ की भूमिका में था और उसकी पारखी नज़र को देखते कमलेश्वर ने भी सारिका में उपसंपादक चुन लिया। मुम्बई जाकर भी रमेश पंजाब, चंडीगढ़ व हरियाणा के रचनाकारों को नहीं भूला। वह वैसे ही यारों का यार बना रहा और सारिका में सबको यथायोग्य स्थान  मिलता रहा। मुझसे कुछ विशेषांक के लिए कहानियां लिखवाई जिनमें एक है -एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा। पंजाबी से श्रेष्ठ रचनाओं के अनुवाद कर प्रकशित किये। वह हिंदी पंजाबी कथाकारों के बीच पुल बना। कितनी यादें हैं और जब मुझे दैनिक ट्रिब्यून में कथा कहानी पन्ना संपादित करने को मिला तो नये रचनाकारों को खोज कर प्रकाशित करने और आर्ट्स काॅलेज से नये आर्टिस्ट के रेखांकन लेकर छापने शुरू किये जो रमेश से ही सीखा जो बहुत काम आया।

अब रमेश नहीं है और उसकी चेतावनी भी नहीं कि अगर नयी कहानी लिखकर नहीं लाये तो मुंह मत दिखाना। इसी चेतावनी ने न जाने कितनी कहानियां लिखवाईं।

फिर तीन वर्ष मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में रहा तब रमेश और वे अरोमा के पीछे के बरामदे देखने जरूर जाता था पर रमेश कहीं नहीं मिला। बस। सूनापन और सन्नाटा ही मिला। काश, होलिया में गुलाल उड़ा पाता पर रमेश को याद कर भर भर आती हैं आज भी आंखें। कहां चले गये यार रमेश ?

 

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद… श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ आत्मसंवाद… श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

आत्मसंवाद या लेखमालेतील शेवटचा लेख सौ.उज्वला केळकर यांचा असून ते सहा भाग आज पुन्हा एकदा वाचले.

ही लेखमाला सुरू करण्याची मूळ कल्पना त्यांचीच. ती चालू करण्यासाठी व चालू ठेवण्यासाठी त्यांनी केलेले प्रयत्न व धडपड याची आम्हाला कल्पनाआहे.या निमित्ताने दीर्घकाळ गांभीर्याने लेखन करणा-या साहित्यिकांची जडणघडण, लेखनातील विविधता, आलेले अनुभव हे सर्व वाचायला मिळाले व सर्वांत महत्त्वाचे म्हणजे अंतर्मुख होऊन विचार करण्याची संधी मिळाली.

आज सौ.केळकर यांचा आत्मसंवाद वाचल्यावर मात्र एक वेगळाच अनुभव आला. आपल्या सहवासातील व्यक्ती कशी आहे हे आपल्याला समजले आहे असे आपल्याला वाटते. पण प्रत्यक्षात आपण त्या व्यक्तीला खूपच कमी ओळखत असतो.

सांगलीतीलच असल्यामुळे त्यांना भेटण्याचा योग अनेक वेळेला येतो. ‘ई-अभिव्यक्ती’ च्या निमित्ताने अनेक वेळा चर्चाही होते. पण त्यांच्या स्वतःच्या साहित्य प्रवासाविषयी एवढी माहिती कधीच मिळाली नव्हती. ती आज मिळाली.

खरेच, त्यांचा साहित्यप्रवास थक्क करणारा आहे. कथा, कविता, नाट्य, बालसाहित्य, अनुवाद, श्रुतीका, नभोनाट्य अशा विविध प्रांतात सहजतेने प्राविण्य मिळवून इतरांनाही मार्गदर्शन, सहकार्य करण्याची त्यांची वृत्ती कौतुकास्पद आहे. आजही त्यांचा उत्साह थक्क करून सोडणारा आहे.

त्यांना उत्तम आरोग्य लाभो व लेखनकार्य अविरतपणे चालू राहो ही सरस्वतीचरणी प्रार्थना.

 

वर उल्लेख केलेले, सौ. उज्वला केळकर यांच्या आत्मसंवाद चे सहा भाग आपण खाली दिलेल्या लिंकवर वाचू शकता .

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 3 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 4 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 6 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

 

– सुहास रघुनाथ पंडित

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 6 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? जीवन यात्रा ?

☆ आत्मसंवाद…भाग 6 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पहिलं – मी – तू अनुवादाकडे कशी वळलीस? आता इथून पुढे )

उज्ज्वला – अगदी योगायोगाने. साधारण मी निवृत्त होण्याचा तो काळ होता. लायब्ररीतून एकदा  एक हिन्दी कथासंग्रह वाचायला आणला. ‘कविता सागर.’ हा तारीक असलम तस्नीम या बिहारी लेखकाचा विशेषांक होता. विचार असा, हिन्दी लेखकांचे आस्थेचे विषय कोणते? काय, कसं लिहितात, बघावं. या वेळेपर्यंत माझ्या कथांचे फास्ट फूड, कृष्णस्पर्श, धुक्यातील वाट आणि झाले मोकळे आकाश ही ४ पुस्तके प्रकाशित झाली होती. 

पुस्तिकेच्या आकाराचे हे त्रैमासिक होते. वाचायला लागले, आणि चकीतच झाले. अर्धं, पाऊण, एक पानी कथा. कुठेही वर्णनाचा फापट पसारा नाही॰ थेट विषयाशी भिडणं आणि सत्य, तथ्य मांडणं. मराठीत आशा प्रकारच्या कथा लिहीलेल्या माझ्या पहाण्यात तरी नव्हत्या. याचा अनुवाद केला, तर मराठी वाचकाला एका वेगळ्या साहित्य प्रकाराची ओळख होईल, असं वाटलं. म्हणून मग मी काही कथांचे अनुवाद केले आणि तेव्हाचे लोकमतचे संपादक दशरथ पारेकर यांना दाखवले. त्यांनीही आस्था दाखवली. आणि या कथा सदर स्वरूप लोकमतमध्ये येऊ लागल्या. या दरम्यान ‘बेळगाव तरुण भारत’ च्या ‘खजाना’ पुरवणीसाठीही  कथांचा अनुवाद पाठवू लागले. ‘कथासागर’ची वर्गणी भरली. त्यामुळे मला अनुवादासाठी कथा उपलब्ध झाल्या. मी त्या त्या  लेखकांना त्यांच्या कथांचे मराठी अनुवाद पाठवत असे. मग ते आणि त्यांच्या परिचयाचे इतर लेखक आपापले लघुकथा संग्रह अनुवादासाठी पाठवत. त्यामुळे मला अनुवादासाठी कथांची कमतरता कधी भासली नाही. बारा वर्षे होऊन गेली. ‘खजाना’ मधील माझे हे सदर अजून चालू आहे.

या लेखनातून माझी लघुतम कथांची ६ पुस्तके झाली. यातील कथांचा आकृतिबंध वेगळा असल्याने सुरूवातीला पुण्याच्या ‘मेहता पब्लिशिंग हाऊसने’ स्पॉट लाईट- तारीक असलम तस्नीम व सवेदना – डॉ. कमल चोपडा ही पुस्तके प्रकाशित केली. यापैकी ‘स्पॉट लाईट’ला बुलढाण्याचा ‘तुका म्हणे’ हा अनुवादाचा पुरस्कार मिळाला. त्यानंतर ‘आवाज: आतला… बाहेरचा …हे घनश्याम अग्रवाल यांच्या लघुतम कथांचे पुस्तक निघाले. पुढे प्रत्येकी दहा लघुतम कथाकारांच्या प्रत्येकी १० कथांचे मिळून ‘थेंब थेंब सागर’ व कण कण जीवन’ आसे दोन संग्रह निघाले. अगदी अलीकडे ‘प्रातिनिधिक पंजाबी कथां’चा संग्रह निघाला. हा पंजाबीच्या हिन्दी अंनुवादावरून केलेला होता इतक्या कथांचा अनुवाद करता करता मीही काही लघुतम कथा लिहिल्या. त्या हिन्दी मासिके व पुस्तक संकलने यातून प्रकाशित झाल्या.

मी – तू केवळ लघुतम कथाच नव्हेत, तर मोठ्या कथाही केल्या आहेसं.

उज्ज्वला – हो. त्यावेळीही असंच झालं. लायब्ररीतून वाचायला आणलेल्या एका पुस्तकात मोहनलाल गुप्ता यांची ‘आशीर्वाद’ ही ऐतिहासिक कथा वाचली. ती मला खूप आवडली. मनात आलं, हा इतिहास मराठी वाचकांना कळावा, म्हणून मग त्यांच्या परवानगीने मी तिचा अनुवाद केला. परवानगी देताना त्यांनी लिहिलं होतं, ‘त्यांचं जे साहित्य मला आवडेल, त्याचा अनुवाद करून मला हव्या त्या ठिकाणी प्रसिद्ध करायला मी स्वतंत्र आहे.’  या सोबत त्यांनी तोपर्यंत त्यांची प्रकाशित झालेली सगळी पुस्तके मला पाठवली. त्यात ४ कथासंग्रह होते. कथा छानच होत्या. मी इतरही कथांचे अनुवाद केले. ते मासिकातून, दिवाळी अंकातून प्रसिद्ध झाले. पुढे त्याचं पुस्तक निघालं ‘सांजधून’. हे माझं पहिलं अनुवादीत पुस्तक. त्यानंतर इतर अनेक निघाली. कथांचा अनुवाद करताना एक विचार मनात असे, तेच तेच घिसं-पीटं लिहिण्यापेक्षा आशय, रचना या सगळ्या दृष्टीने वेगळं आणि वैशिष्ट्यपूर्ण असेल, ते वाचकांपर्यंत पोचवावं. त्याचप्रमाणे कथा अनुवादीत वाटू नयेत. मूळ मराठीत लिहिलेल्या वाटाव्या. त्यानंतर मी मोहनलाल गुप्ता, सरला अग्रवाल, आणि डॉ. कमल चोपडा या ३ लेखकांच्या प्रत्येकी ८ कथांचा अनुवाद ‘त्रिधारा’ म्हणून केला. हेही पुस्तक ‘मेहता पब्लिशिंग हाऊस’ने प्रकाशित केले. या पुस्तकाला शिरगावचा  (जि. धुळे)  ‘स्मिता पाटील’ पुरस्कार अनुवादासाठी मिळाला.

त्यानंतर मी प्रतिमा वर्मा (बनारस), सूर्यबाला ( मुंबई),  मधू कांकरीया ( मुंबई),  डॉ. कमल चोपडा ( दिल्ली ) इ.च्या कथासंग्रहांचा अनुवाद केला. याशिवाय अनेक लेखकांच्या कथांच्या अनुवादाची संकलित पुस्तकेही आली. हे सारं करत असताना आणखीही एक महत्वाची गोष्ट घडली. माझ्या एका मराठी कथेचा अनुवाद ( लीडर) साहित्य अॅहकॅदमीच्या मुखपत्रात ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ यात आला म्हणून ते द्वैमासिक माझ्याकडे आले. तोपर्यंत त्या नियतकालिकाबद्दल मला काहीच माहीत नव्हते. त्यानंतर मी त्याची वर्गणी भरली. या नियतकालिकाचे वैशिष्ट्य असे की इथे हिन्दी साहित्याबरोबरच अन्य भाषातील दर्जेदार साहित्याचा हिन्दी अनुवाद प्रकाशित होत असे.  यातून मला अन्य भाषेतील चांगल्या कथा अनुवाद करण्यासाठी मिळाल्या. आवर्जून उल्लेख करावा आशा कथा म्हणजे- राक्षस – सुकान्त गंगोपाध्याय ( बंगाली), उत्तराधिकारी  केशुभाई देसाई -(गुजराती), मुडीवसंतम्-  व्होल्गा (तेलुगू)  मागच्या दाराने – ममतामयी चौधुरी ( आसामी). या सगळ्या कथा माझ्या ‘विविधा या कथासंग्रहात संग्रहित आहेत.

त्यानंतर माझ्या धुक्यातील वाट, गणवेश, मीच माझ्याशी या कथांचे हिदी अनुवादही यात प्रकाशित झाले. पुढे गणवेशचा तर कन्नड आणि तेलुगूमध्येही अनुवाद झाला.

मी – तुझी हिंदीतील अनुवादाची एकूण किती पुस्तके झाली?

उज्ज्वला – लघुतम कथासंग्रह -६, लघुकथासंग्रह ( हिंदीत याला कहानी म्हणतात.) – १३ , कादंबर्या -६, , तत्वज्ञान – ५ अशी माझी अनुवादाची पुस्तके प्रकाशित आहेत. कथासंग्रहांच्या अनुवादाच्या २-३ आवृत्याही निघाल्या आहेत. यातील काही पुस्तके मला प्रकाशकांनी सांगितली, म्हणून मी ती केली.

मी – तुझ्याही कथांचा हिन्दी अनुवाद झालाय.

उज्ज्वला – होय. मानसी काणे, सुशीला दुबे, प्रकाश भातंब्रेकर यांनी तो केलाय. तो हिंदीतल्या दर्जेदार मासिकातून प्रकाशित झालाय.

मी – तू आत्तापर्यंत तुझा झालेला लेखनप्रवास मांडलास. तुला असं नाही का वाटलं, की या क्षेत्रात आपल्या अजून काही गोष्टी करायच्या राहिल्या ?

उज्ज्वला – नाही. माझ्या कुवतीप्रमाणे, जे आणि जेवढं करावसं वाटलं. तेवढं मी मनापासून केलं. मी जेवढं करू शकले, त्याबद्दल मी तृप्त आहे. समाधानी आहे. वाचकांना माझ्या लेखनाबरोबरच अनुवादीत साहित्यही आवडलं. त्याबद्दल ते फोन करतात. मला म्हणतात, ‘पुस्तकात लिहिलं आहे, अनुवादित म्हणून आम्हाला तो अनुवाद आहे, हे कळलं. एरवी आम्हाला हे लेखन मूळ मराठीतीलच वाटतं. मी ऐकते आणि मला कृतार्थ वाटतं. एकूणच माझ्या लेखनाच्या बाबतीत मी तृप्त आहे. कृतार्थ आहे. जे मिळालं, त्यात मी समाधानी आहे.

समाप्त

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? जीवन यात्रा ?

☆ आत्मसंवाद…भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पाहिलं  – उज्ज्वला–मी अनुवादात घुसले. आणि चक्रव्यूहासारखी त्यातच अडकले. मग माझं स्वतंत्र कथालेखन थांबल्यासारखच झालं. आता इथून पुढे) 

मी – तुला कादंबरी लिहावीशी नाही वाटली?

उज्ज्वला – नाही. तेवढा स्टॅमिना मला नाही, असं वाटलं. तसंच मी नाटकाही लिहिलं नाही.

मी – पण संवाद माध्यम तू हाताळलं आहेस.

उज्ज्वला – हो. आकाशवाणीवरील कार्यक्रमात मी संवाद लिहिले आहेत. सांगली आकाशवाणीवर ‘प्रतिबिंब’ ही कौटुंबिक श्रुतिका सुरू झाली. पूर्वी मुंबईहून ‘प्रपंच’ मालिका सादर व्हायची. त्या स्वरूपाची. हे सादर १० वर्षे चालू होते. यात मी एकूण १०० तरी श्रुतिकांचं लेखन केलय. श्रोत्यांची पत्रे आणि त्यांनी प्रत्यक्ष भेटल्यावर दिलेल्या प्रतिक्रिया यातून लोकांना ते लेखन आवडल्याचं लक्षात आलं. अनेक जणी मला विचारायच्या, ‘आमच्या घरातले संवाद तुला कसे कळतात? ‘

मी – आणि तुझी नभोनाट्ये?

उज्ज्वला – माझी ५ नभोनाट्ये आकाशवाणीवरून प्रसारित झाली. त्यापैकी पहिले नभोनाट्य ‘इथे साहित्याचे साचे मिळतील’, हे मी स्वत: नेऊन दिले होते. इतर सर्व नाटके मी सबंधित विभागांच्या प्रमुखांनी सांगितली म्हणून मी लिहिली.

मी – म्हणजे?

उज्ज्वला – त्यावेळी शशी पटवर्धन नाट्यविभागाचे प्रमुख होते. एकदा त्यांनी मला बोलावलं . म्हणाले,’जागतिक आरोग्यदिन’ आहे. या निमित्ताने ‘फास्ट फूड’ या विषयावर नाटक लिहा.’ मी विचार करू लागले. ‘फास्ट फूड’वरून जुनी पिढी- नवी पिढी यातील वाद हा ठरीव विषय मनाला काही भिडेना. विचार करता करता मला ‘फास्ट फूड’च्या अनेक परी सुचल्या, जसे इंटलेक्चुअल ‘फास्ट फूड’ ( १० दिवसात १०वी मराठी, इतिहास, भूगोल, विज्ञान वगैरे…),  संस्कृतिक ‘फास्ट फूड’ (झट मंगनी, पट ब्याह, फट विभाजन ). तरी क्लायामॅक्स पॉइंट मिळेना. मग सुचलं, ‘जेनेटिक फास्ट फूड ‘. ९ महीने बाळंतपणासाठी लागतात. त्यामुळे स्त्रियांची कार्यशक्ती फुकट जाते. तेव्हा  त्या ९ आठवड्यात आणि पुढल्या काही वर्षात ,९ दिवसात बाळंतीण झाल्या तर… महिला कल्याण विभागाच्या अध्यक्षा संशोधनाला उत्तेजन देतायत. त्यांचा प्रयोग पूर्णत्वाला येऊ पहातोय . सर्व डाटा पी.सी. वर सुरक्षित आहे आणि त्याच वेळी विष्णु त्यात व्हायरस सोडून तो सगळा प्रयोगाचा तपशील डी लिट. करून टाकतो. फॅंटसीवर आधारलेलं हे नभोनाट्य छान जमून गेलं. आकाशवाणीच्या सर्व केंद्रावरून ते प्रसारित झालं. ही नाटिका मला लिहायला सांगितली नसती, तर लेखनाचा विषय म्हणून मला हे सुचलं नसतं. त्यामुळे माझ्या लेखनात योगायोगाचासुद्धा भाग आहे.

मी – पुढे यावर तू कथासुद्धा लिहिलीस. 

उज्ज्वला – हो. त्यानंतर थोड्याच दिवसात सावंतवाडीचा साहित्य संमेलनात, किस्त्रीमचे संपादक ह. मो. मराठे भेटले. ‘नवीन काय लिहिलय’ वगैरे बोलणं झालं. नुकतच ‘फास्ट फूड’ लिहिलेलं असल्यामुळे मी त्याबद्दल बोलले. ते म्हणाले, ‘ताबडतोब याचं कथा रूपांतरण कर आणि ‘स्त्री’कडे पाठव.’ नंतर ती कथा स्त्री’च्या महिला विनोद विशेषांकात आली. पुढे मी जेव्हा विनोदी कथांचं पुस्तक काढलं, तेव्हा त्याचं नाव ‘फास्ट फूड’च दिलं.

मी – तुझ्या आणि नभोनाट्यांचं काय?

उज्ज्वला – तिसरं नभोनाट्य मी एड्स्वर लिहिलं. ‘सुनीलची डायरी’ म्हणून. तेही त्यांच्याच सांगण्यावरून. हेही आकाशवाणीच्या सर्व केंद्रावरून प्रसारित झालं होतं. यासाठी मला आर्यापाइकी अभ्यास कारावा लागला होता. त्यानंतर ‘पठ्ठे बापूराव’ यांच्यावर ‘नाही तर रंग पुन्हा सुना सुना..’ हे नभोनाट्य झालं. शेवटचं नभोनाट्य ‘सावित्री’ ( सावित्रीबाई फुले) मी संजय पाटील यांच्या सांगण्यावरून लिहिलं.त्यानंतर आकाशवाणीकडून मला पुन्हा काही बोलावणं आलं नाही आणि माझं नभोनाट्य लेखन थांबलं.

मी – तू अनुवादाकडे कशी वळलीस?

क्रमश: ….

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 4 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? जीवन यात्रा ?

☆ आत्मसंवाद…भाग 4 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पाहिलं- मी –  डी.एड.ल असताना एका संस्थाभेटीतूनही तू कथा लिहिली होतीस. आता इथून पुढे-)

उज्ज्वला – हो. एक नाही, मी दोन कथा लिहिल्या होत्या तेव्हा. ती संस्था म्हणजे ‘ममता क्रेश’. आमच्या कॉलेजपासून थोड्या अंतरावर असलेल्या चर्चने ते क्रेश चालवलं होतं. क्रेश म्हणजे सांगोपनगृह. विद्यार्थिनींच्या अभ्यासक्रमात समाजसेवी संस्थांना भेट देऊन तेथील कामकाजाची माहिती करून घेणे, हा भाग होता. म्हणून आम्ही मुलींना घेऊन त्या क्रेशमध्ये आलो. इथे माहिती कळली की इथल्या परिसरातील गोर-गरीब मुलांसाठी हे क्रेश चालवलं जातं. याला मदत जर्मन मिशनची होती. त्यांनी जगभरच्या उदारमनस्क धांनिकांना विनंती केली होती की त्यांनी इथल्या एका मुलाला दत्तक घ्यायचं. म्हणजे इथल्या एका मुलाचा खर्च चालवायचा. पन्नास- साठ मुले होती तिथे. ८वाजता मुले येत. प्रार्थना होई. मुलांना नाश्ता मिळे. खेळ, शिक्षण होत असे. दुपारचं जेवणही इथे मिळे. ६ वाजता मुले घरी परतत. तिथल्या एक केअर टेकर महिला आम्हाला माहिती देत होत्या, इतक्यात एक दीड दोन वर्षाची चिमुरडी लडखडत्या पावलांनी तिथे आली. त्यांनी तिला जवळ घेत म्हंटलं, ही क्रेशाची पहिली दत्तक मुलगी सूझान. आम्ही एका लेपर भिकार्यातच्या जोडीकडून हिला दत्तक घेतली. त्यांना म्हणालो, आम्ही हिच्या आयुष्याचं कल्याण करू, पण तुम्ही तिला ओळख द्यायची नाही. ते कबूल झाले. आम्ही हिला डॉक्टर करणार आहोत. पुढे जर्मनीला पाठवणार आहोत.

इथे मला कथाबीज मिळालं. मी मुलीचं नाव ठेवलं जस्मीन. कथेची सुरुवात, मुलगी डॉक्टर झालीय व लेप्रसीवर संशोधन करण्यासाठी जर्मनीला निघालीय, इथून केली. तिला एव्हाना हे कळलेलं असतं की एका लेपर झालेल्या भिकारी जोडप्याची आपण मुलगी आहोत पण ते कोण हे तिला कळलेलं नाही.

मी – मिशन हॉस्पिटलच्या कॅरिडॉरमध्ये एक मोठं पोस्टर पहिलं होतं. त्यात येशू एका सुरईतून पाणी घालत आहे व एका स्त्रीने त्याखाली ओंजळ धरली आहे. त्याखाली लिहिलं होतं, त्याने दिलेल्या पाण्याने जो तहान भागावतो, त्याला कधीच तहान लागत नाही.  प्रतिकात्मक असं हे चित्र. मी माझ्या कथेत ते पोस्टर क्रेशच्या हॉलमध्ये लावलं. जस्मीनचा सेंडॉफ होतो. ती टॅक्सीत  बसताना तिच्या मनात येतं , आपण लहानपणापासून त्याने दिलेल्या पाण्यानेच ( शिकवणुकीने ) तर तहान भागावतो आहोत. तरीही आपल्याला तहान लागलीय. खूप तहान. आपले आई-वडील कोण हे जाणून घेण्याची तहान. कथा इथेच संपते. मी कथेचं नावही ‘तहान’च ठेवलं. मराठी आणि हिन्दी दोन्ही वाचकांना ही कथा आवडली होती. या कथेचा हिन्दी अनुवाद हिंदीतील सुप्रसिद्ध मासिक ‘मधुमती’मध्ये प्रकाशित झाला होता. प्रा.झुल्फिकारबांनो देसाईंनी तो केला होता. 

आम्ही गेलो होतो, त्या दिवशी क्रेशमद्धे आणखी एक कार्यक्रम होता. चादर वाटपाचा. थंडीचे दिवस होते, म्हणून मुलांच्या जर्मन पालकांनी त्यांना चादरी पाठवल्या होत्या, असा क्रेशाच्या प्रमुख संचालिका रेमण्डबाईंनी प्रास्ताविक केलं. मुलांच्या आयांना चादरी न्यायला बोलावलं होतं. त्या म्हणाल्या, मुलांच्या पालकांना थॅंक्स गिव्हींगची पत्र लिहा. आमच्याकडे या. आम्ही लिहून देऊ, असाही म्हणाल्या.  इथे माझ्या ‘पांघरूण’ कथेचा जन्म झाला. सर्जा कथेचा नायक. मी चादरींऐवजी आकर्षक विविध रंगी ब्लॅंकेटस केली. तिथल्या शिक्षिका म्हणल्या होत्या, ‘जर्मन पालकांची मुलांना पत्रे येतात. खेळ येतो. चित्रे येतात. मुलांची प्रगतीही त्या पालकांना कळवावी लागते.’ आम्ही ते सगळं बघितलं होतं. शिक्षिकेच्या माध्यमातून सर्जाने जर्मनीतल्या पालकांशी खूप भावनिक संबंध प्रस्थापित केले होते. तो दोन दिवस विचार करत होता, ‘आपल्याला कोणत्या रंगाचं ब्लॅंकेट मिळेल? अखेर कार्यक्रम झाला. आई सर्जाला घेऊन घरी आली. घरी येताक्षणी सर्जा ब्लॅंकेट पांघरून झोपला.

सर्जाचा दारुड्या बाप घरी आला. त्याच्याकडे पैसे नव्हते. रखेलीकडे तर जायचे होते. त्याच्या मनात विचार आला, हे मऊ ऊबदार ब्लॅंकेट पाहून माझी राणी खूश होऊन जाईल. त्याने सर्जाचं ब्लॅंकेट ओढून घेतलं. सर्जाचा सगळा प्रतिकार लटका पडला. त्याच्या सख्ख्या बापानं त्याच्यावर पांघरूण घालायचं. पण होतं उलटच. त्याच्या मानलेल्या परदेशी बापानं पाठवलेलं पांघरूण त्याचा सख्खा बाप ओढून नेतो. सर्जा रडतो. आक्रोशतो. आई अखेर फटका पदर, त्याच्या अंगावर पांघरूण म्हणून पसरते.

ही कथादेखील मराठी, हिन्दी दोन्ही वाचकांना आवडली. माझ्या सगळ्या काथांमागे ठोस वास्तव आहे. काही प्रसंग, काही हकिकती आहेत. माझी ‘परक्याचं पोर’ ही कथा ७८ मध्ये स्त्री मध्ये प्रकाशित झाली. त्याला अनेक खुषीपत्रे आली. तेव्हा फोन घरी -दारी सर्वत्र  उपलब्ध नव्हता. त्यानंतर काही महिन्यांनी मला अनंत साठे यांचे लंडनहून , तर अनिल  पाटील यांचे रियाधहून कथा आवडल्याचे पत्र आले.

मी – अर्थात या मुळे तुझ्या कथालेखनाची गती वाढली असेल?

उज्ज्वला – नाही. असे काही झाले नाही. माझे व्याप सांभाळत अतिशय संथ गतीने माझे कथालेखन चालू होते. पण मी लिहिलेली कथा प्रसिद्ध झाली नाही, असंही कधी झालं नाही.

मी – पुढे पुढे तुझ्या कविता लेखनाप्रमाणेच क्थालेखनही कमी होत गेलं.

उज्ज्वला – खरं आहे. मी निवृत्त झाल्यानंतर माझा समाज संपर्क कमी होत गेला. नवनवे अनुभव मिळणं दुष्कर होत गेलं. मग कथालेखनही ओसरलं. आणखीही एक झालं.

मी – काय?

उज्ज्वला – मी अनुवादात घुसले. आणि चक्रव्यूहासारखी त्यातच अडकले. मग माझं स्वतंत्र कथालेखन थांबल्यासारखच झालं. 

क्रमश: ….

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 3 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? जीवन यात्रा ?

☆ आत्मसंवाद…भाग 3 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पहिलं- श्रोत्यांनाही कविता आवडतात, हे त्यांच्या प्रतिसादावरून म्हणजे टाळ्यांवगैरे वरून कळत होतं. आता इथून पुढे – ) 

मी – पण काय ग, काव्यक्षेत्रात तू अशी स्थिरावली असताना, तू एकदम कविता करणं बंद कसं केलस?

उज्ज्वला – मी बंद केलं असं नाही, कविता माझ्या हातून निसटून गेली. माझं जसं गद्य लेखन वाढलं, ललित, वैचारिक लेख, व्यक्तिचित्रण , पुस्तकावरील अभिप्राय, तसतशी कविता माझ्यापासून दूर जाऊ लागली. मी १९७० मध्ये सांगलीला डी.एड. कॉलेजमध्ये नोकरीला लागले. कॉलेज मुलींचं, वसतिगृहयुक्त होतं. तिथे वेगवेगळ्या गावाहून, बर्या चशा खेड्यातून मुली राहायला यायच्या. त्या प्रत्येकीचे प्रश्न वेगळे, समस्या वेगळ्या, कथा-व्यथा वेगळ्या. त्यांच्या बोलण्यात मला कथांची बीजे दिसायची. पुढे मी कथा लिहायला लागले.

मी – कधीपासून बरं? आठवतय?

उज्ज्वला – साधारण १९७६पासून मी कथा लिहायला लागले. याशिवाय आसपास घेतलेल्या अनुभवातूंही मला कथाबीजे मिळाली आहेत.  मी तुला २-३ अनुभव सांगते. म्हणजे मी तिथे नोकरी करत नसते, तर तशा कथा माझ्याकडून लिहून झाल्या नसत्या असं मला तरी वाटतं.   मी – सांगच! नाही तरी मी तुला तुझ्या कथांबद्दल विचारणारच होते.

उज्ज्वला – आता साल माझ्या लक्षात नाही. आमच्या कोलेजमध्ये राधा नावाची मुलगी होती. ती पूर्व प्राथमिककडे होती. त्यावेळी शासनाने पूर्व प्राथमिक आणि प्राथमिक असे २ भाग केलेले होते.

पूर्व प्राथमिक म्हणजे बालवाडीचे आणि इ. १ ली ते ४ थी पर्यन्त शिकवणार्याा शिक्षिका तर प्राथमिक म्हणजे इ. १ली ते ७वी पर्यन्त शिकवणार्याण शिक्षिका. मुली म्हणायच्या डी.एड. झालं की राधाची नोकरी पक्की. ‘कसं काय?’ मी विचारलं. इतर मुलींच्या बोलण्यातून कळलं, तिच्या गावात बालवाडी आहे. एक बाई त्या चालवतात. पण त्या ट्रेंड नाहीत. त्यामुळे सरकारी अनुदान नाही. तिढा खराच होता.  राधाचे सासरे सरपंच आहेत. त्यामुळी राधाची नोकरी नक्की. माझं मन मात्र  तिच्यापाशी रेंगाळत होतं, जी आजूनपर्यंत तिथली बालवाडी चालवते आहे.   राधा डी.एड. झाली की तिला शाळेत शिक्षिकेची नेमणूक द्यायची, म्हणजे शाळेला सरकारी अनुदान चालू होईल. शाळेच्या विकासासाठी अनुदान आवश्यकच होतं. पण, जिने ३-४ वर्षं काटकसरीत आणि कमी पगारात शाळा चालवली होती, तिचं काय?  त्यातून माझी ‘पायाचा दगड’ ही कथा लिहिली गेली. मराठी आणि हिन्दी दोन्ही भाषांच्या वाचकांना ती आवडली.

मी – खरं म्हणजे याच सुमाराला तू मुलांसाठीही कथा लिहिल्यास नाही का?

उज्ज्वला – हो. त्यालाही एक कारण झालं. शासनाच्या लघुशोध प्रकल्पाच्या माहितीचं एक सर्क्युलर आलं होता. त्यात एक विषय होता, किशोर मासिकाच्या ५ वर्षांचा अभ्यास व सुधारणेसाठी शिफारसी. विषय छान होता. किशोरचे ६० अंक वाचून होणार होते. म्हणून मी हा प्रकल्प निवडला. तो वर्षभरात पूर्ण केला. तो करता करता मुलांसाठी गोष्टी लिहायला मला सुचल्या. तसंच आणखी एक गोष्ट दिसली. मुलांसाठी लिहीलेल्या नाटिका कमी आहेत. मग मी नाटिकाही लिहिल्या. माझी नाटीकांची ५ पुस्तके झाली. त्यापैकी गवत फूल गात राहिलेला बाल कुमार साहित्य संमेलनाचा पुरस्कार मिळाला.

मी – तुझी एकूण बलवाङ्मायाची किती पुस्तके झाली आणि पुरस्कार कुणाला मिळाले? माझी बालवाङ्मयाची ३०-३२ पुस्तके झाली. दोन दोन आवृत्याही निघाल्या. त्यात कथा, नाटिका, चरित्र, भौगोलिक , कादंबरी, कविता सगळ्या प्रकारची आहेत. त्यात ‘गरगर गिरकी ‘ या कविता संग्रहाला साहित्यप्रेमी भगिनी मंडळाचा व ‘बदकाचे बूट’ ला बाल कुमार साहित्य संमेलनाचा आणि द्क्षिण महाराष्ट्र साहित्य सभेचा पुरस्कार मिळाला.

मी – डी.एड.ल असताना एका संस्थाभेटीतूनही तू कथा लिहिली होतीस, नाही का?

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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