(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक भावप्रवण कविता – सब याद है। इस भावप्रवण रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है नवम अध्याय।
स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का नवम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए
– डॉ राकेश चक्र
परम् गुह्य ज्ञान
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को परम गुह्य ज्ञान के बारे में इस प्रकार बताया
हे अर्जुन मेरी सुनो, तुम हो प्रिय निष्पाप।
गुह्यज्ञान-अनुभूति से, मिट जाते सब पाप।। 1
सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है, गोपनीय यह तथ्य।
करे शुद्ध मन-आत्मा, अविनाशी यह कथ्य।। 2
श्रद्धा-निष्ठा जो रखें, वे ही मुझको पायँ।
भक्ति भाव से रहित नर, जनम-मरण घिर जायँ।। 3
व्याप्त रूप अव्यक्त यह, माया का संसार।
रहें जीव मुझमें सभी, मैं ही सबका सार।। 4
जीवों का पालन करूँ, मेरी सृष्टि अपार।
मैं कण-कण में व्याप्त हूँ, यही योग का सार।। 5
प्रबल वायु रहती गगन, श्वांसों का है सार।
सब जीवों में मैं रहूँ, मेरी सृष्टि अपार।। 6
अंत समय कल्पांत में, प्राणी करें प्रवेश।
कल्प होय आरंभ जब, देता नया सुवेश।। 7
सकल जगत ये सृष्टि ही, मेरे सभी अधीन।
प्रलय-सृष्टि सब मैं करूँ,देता दृष्टि नवीन।। 8
कर्म मुझे बाँधें नहीं, कर्म स्वयं आधीन।
भौतिक कर्मों से विरत, मैं हूँ श्रेष्ठ प्रवीन।। 9
मैं सबका अध्यक्ष हूँ, सब ही रहें अधीन।
प्राणी सचराचर सभी, बनें-मिटें सब लीन।। 10
मनुज रूप प्रकटा कभी, मूर्ख करें उपहास।
दिव्य स्वभावी रूप का, अर्जुन कर तू भास।। 11
मोह ग्रस्त जो जन रहें, चित आसुरी प्रभाव।
जाल मोह-माया घिरे,रखें न श्रद्धा-भाव।। 12
मोह मुक्त जो भी रहें, उन पर देव प्रभाव।
मैं अविनाशी ईश हूँ, प्रेम रखूँ सद्भाव।। 13
भक्ति भाव अर्पित करें, और करें नित ध्यान।
मेरी महिमा जो भजें, कर देता कल्यान।। 14
ज्ञान, यज्ञ-शीलन करें, भजें सदा प्रभु नाम।
विविधा रूपों में भजें, करते मुझे प्रणाम।। 15
कर्मकांड हूँ यज्ञ का, तर्पण करते लोग।
मैं ही आहुति अग्नि-घृत, मैं पितरों का भोग।। 16
मात-पिता हूँ पितामह, चेतन हूँ ब्रह्मांड।
ज्ञेय-शुद्ध ओंकार हूँ, सब वेदों का प्राण।। 17
पालक-स्वामी-धाम हूँ, शरण लक्ष्य प्रिय मित्र।
मसृष्टि -प्रलय संहार हूँ, मैंअविनाशी पित्र।। 18
ताप-शीत में दे रहा, वर्षा करता मित्र।
मृत्यु और अमरत्व मैं, सत्य-असत का पित्र।। 19
मैं वेदों का सोमरस, करें अर्चना लोग।
मैं ही देता स्वर्ग हूँ, देवों-का-सा भोग।। 20
पुण्य कर्म जब क्षीण हों, हटे स्वर्ग का भोग।
इन्द्रिय सुख चाहे मनुज,जनम-मरण का योग।। 21
जो अनन्य भावी भजें, मेरा दिव्य स्वरूप।
इच्छा-रक्षा मैं करूँ, मैं ही सबका भूप।। 22
जो जन पूजें देव को, भक्ति पावनी छोड़।
ऐसा कर गलती करें, पर मैं लेता ओढ़।। 23
सब यज्ञों का भोक्ता, स्वामी-दिव्या भूप।
जो जन मुझे न जानते, गिर जाते वह कूप।। 24
जो जैसी पूजा करें, वैसा ही फल पायँ।
देव-भूत जो पूजते, शरण उन्हीं की जायँ।। 25
पितरों की पूजा करें, जाएँ पितरों पास।
जो मेरी पूजा करें, पाए मम उर वास।।
पत्र-पुष्प-फल प्रेम से, अर्चन करते लोग।
जल को भी स्वीकारता, प्रेमिल श्रद्धा-भोग।। 26
अर्जुन जो भी तुम करो, अर्पित करना मित्र।
दान-तपस्या जो करो, ये ही प्रीत पवित्र।। 27
जो अर्पित मुझको करें, सारे अपने कृत्य।
भव सागर से मुक्त हों, मोक्ष मिले ध्रुव सत्य ।। 28
पक्षपात या द्वेष की,करता कभी न बात।
मैं रहता समभाव हूँ, भक्ति करो दिन-रात।। 29
हो जघन्य यदि पाप भी, करें भक्ति औ’ योग।
तर जाते ऐसे मनुज, मिट जाते सब शोग।। 30
शक्ति मिले मम् भक्ति से, मिले शान्ति का योग।
भक्ति करे मेरी सदा, रहता सुखी निरोग।। 31
जो आते मेरी शरण, स्त्री-वैश्या-शूद्र।
परमधाम पाते वही, कभी न रहते छूद्र।। 32
भक्त हृदय धर्मात्मा, पाएँ मेरा लोक।
प्रेम-भक्ति मम् लीन जो, मिट जाते सब शोक।। 33
नित मम चिंतन तुम करो, करो भक्ति औ’ प्यार।
मुझको सब अर्पण करो, वंदन बारंबार।। 34
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” राजविद्याराजगुह्ययोग ” नामक नवाँ अध्याय समाप्त।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता ‘नदी है विश्राम में….’। )
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘हाथों की लकीरें’। )
Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>> मृग तृष्णा
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 43 ☆
☆ हाथों की लकीरें ☆
☆
हाथों में लकीरों की भीड़ देखी,
दोनों हथेलियों पर लम्बी-लम्बी लकीरें देखी,
☆
ना जाने कौन सी लकीरें हाथों में भरी है,
लकीरें तो हमने अमीरों की ही पढ़ते देखी,
☆
फकीरों के हाथों में अमीरी की लकीरें देखी,
अमीर के हाथों में हमने फकीरी की लकीरें देखी,
☆
जीवन-रेखा उस अमीर की बड़ी लम्बी थी,
छोटी लकीर वाले फकीर की उम्र उससे ज्यादा लम्बी निकली,
☆
ना जाने कैसे लकीरों से लोग तकदीर पढ़ते हैं,
अमीरों के हाथों में भाग्य की लकीरें गरीबों के हाथों से कम देखी,
☆
गरीब की दुनिया में लकीरों की क्या अहमियत,
यहां तो गरीबों में और गरीबी, अमीरों में और अमीरी बढ़ती देखी ||
॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’॥
☆ “श्री रघुवंशम् ” हिन्दी पद्यानुवाद # ॥ श्री रघुवंशम कथासार ॥ ☆
(प्रिय प्रबुद्ध पाठक गण – अभिवादन! आपने अब तक प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के सत्साहित्य श्रीमद्भगवतगीता एवं महाकवि कालिदास रचित मेघदूतम का पद्यानुवाद आत्मसात किया। आज से हम आपके साथ महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य रघुवंशम का पद्यानुवाद साझा करेंगे। आशा है हमें आपका ऐसा ही अप्रतिम स्नेह एवं प्रतिसाद मिला रहेगा।)
कथासार… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
रघुवंश महाकाव्य कवि कुल गुरू कालिदास की एक प्रमुख तथा प्रौढ़ रचना है . मेघदूत महाकवि की कल्पना की उड़ान का दर्शन कराता है । अभिज्ञान शाकुंतलम् अप्रतिम नाटक है किन्तु रघुवंश और कुमारसंभव उनके वर्णन प्रधान महाकाव्य हैं । जिनमें कल्पना के साथ प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन , मनुष्य के विभिन्न मनोभावों का चित्रण , आदर्श स्थापना और उसके पाने के मानवीय प्रयासों के साथ ही सामाजिक परिवेश में स्वाभाविक कमजोरियों का भी दर्शन होता है । रघुवंश में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में आश्रमों का महत्व , गौ – भक्ति , राजा का अभीष्ट आचरण , दानशीलता , शूरवीरता , जन्मोत्सव , स्वयंवर समारोह , दाम्पत्य प्रेम , युद्ध क्षेत्र का वर्णन , वनस्थलों की शोभा , सरल हृदय ऋषि कन्याओं की वृक्षों और मृग छौनों से सहज आत्मीयता और मृत्यु के दारूण दुख पर संसार की असारता का बोध और स्वजन के वियोग में करूण रूदन आदि जीवन की अनेकानेक मनोदशाओं का सुंदर मधुर भाषा में चित्रण है ।
अपने नाम के अनुकूल ही संपूर्ण ग्रंथ इक्क्षाशु वंश के राजा रघु के वंश का वर्णन है । इसमें विभिन्न राजाओं के जीवन काल की घटनाओं का क्रमिक उल्लेख है । रघुवंश में कुल 19 सर्ग हैं । संक्षेप में प्रत्येक सर्ग का कथ्य इस प्रकार है ।
सर्ग 1 – राजा दिलीप पुत्रहीन होने के कारण दुखी हैं । पुत्र कामना से वे अपनी पत्नी सुदक्षिणा सहित कुल गुरू वशिष्ठ के आश्रम को प्रस्थान करते हैं । पुत्र प्राप्ति हेतु गुरुवर , कामधेनु की पुत्री नंदिनी , जो उनके आश्रम में धेनु है , की सेवा करने का परामर्श देते हैं ।
सर्ग 2 – राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा भक्ति भाव से श्रद्धापूर्वक गुरु की गौ , नंदिनी की सेवा में रत हो जाते हैं । नंदिनी को वनचारण के लिए प्रतिदिन ले जाते हैं और निरंतर सुश्रुषा करते हैं । नंदिनी उनकी परीक्षा लेती है जिसमें वे ह्रदय से सेवाभाव रखने के कारण सफल होते हैं । नंदिनी प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देती है और अपना क्षीरपान करने को कहती है । राजा और रानी वरदान प्राप्त कर गुरू आज्ञा ले राजधानी लौटते हैं ।
सर्ग 3 – उन्हें कालांतर में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है । जिसका नामकरण रघु किया जाता है । रघु बड़ा होता है । अश्वमेघ यज्ञ किया जाता है जिसमें युवा रघु अपना पराक्रम प्रदर्शित करते हैं । राजा दिलीप रघु को राज्य प्रदान कर पत्नी सहित वन गमन करते हैं एवं वानप्रस्थ धारण करते हैं ।
सर्ग 4 – पराक्रमी राजा रघु दिग्विजय करते हैं ।
सर्ग 5 – इस सर्ग में राजा रघु की अद्वितीय दानशीलता का वर्णन है । राजा रघु अपना सर्वस्व दान में न्यौछावार कर चुके होते हैं , तब ब्रह्मचारी कौत्स अपने गुरू को दक्षिणा प्रदान करने हेतु राजा से धनराशि की याचना करने उनके समीप पहुंचते हैं । रघु उसे चौदह कोटि स्वर्ण मुद्राएँ देने हेतु कुबेर पर आक्रमण की तैयारी करते हैं किन्तु कुबेर स्वयं ही स्वर्ण वर्षा कर दान देने हेतु राजा रघु को पर्याप्त धन दे देते हैं । कौत्स को राजा सारा स्वर्ण दे देना चाहते हैं किन्तु कौत्स केवल अपनी आवश्यकता का ही धन लेकर रघु को यशस्वी एवं उनके समान ही सुयोग्य पुत्र पाने का आशीष देकर के बिदा हो जाते हैं । कालांतर में रघु को अज के रूप में सुयोग्य पुत्र प्राप्त होता है ।
सर्ग 6 – इस सर्ग में अज युवावस्था को प्राप्त करते हैं और विदर्भ- राज की पुत्री इंदुमती के स्वयंवर में आमंत्रित किये जाते हैं । इंदुमती उन्हें अपना वर चुनती है । विवाह हर्षपूर्वक सम्पन्न होता है ।
सर्ग 7 – इंदुमती स्वयंवर में विफल राजागण विवाहोपरान्त विदाई में लौटते हुए अज – इंदुमती के ऊपर अचानक आक्रमण कर देते हैं । जिससे कि भीषण युद्ध होता है । अज की विजय होती है । राजा अज इंदुमती सहित राजधानी में प्रवेश करते हैं ।
सर्ग 8 – राजा अज के पुत्र दशरथ का जन्म होता है । रानी इंदुमती का पुष्पमाल के आघात से आकस्मिक निधन हो जाता है ।
सर्ग 9 से 15 – दशरथ के पुत्र राम और उनके तीन भाईयों का जन्म होता है । इन सर्गों में संक्षेप में समस्त रामायण की ही कथा कही गई है ।
सर्ग 16 – राम के पुत्र कुश का जन्म व तत्पश्चात् उनका नागकन्या कुमुद्वती से विावह व जलविहार का वर्णन है ।
सर्ग 17 – इस सर्ग में कुश के पुत्र अतिथि के जन्म और उनकी जीवन गाथा का सुन्दर वर्णन है ।
सर्ग 18 – राजा अतिथि के बाद की पीढ़ियों का वर्णन है । इसमें कुल 21 राजाओं की जीवन गाथा सोपानों में चित्रित हैं ।
सर्ग 19 – इसमें राजा सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण की विलासिता वर्णित हैं व उनकी दुःखद मृत्यु का हृदय विदारक चित्रण है । राजा अग्निवर्ण के वर्णन के साथ ही ” रघुवंश ” महाकाव्य की समाप्ति है ।
महाकवि कालिदास , महाकाव्य रघुवंश के माध्यम से राजा रघु की वंशावली का वर्णन करते हैं एवं राजाओं हेतु प्रजावत्सलता , दानशीलता , शूरवीरता और प्रजा के सदाचार व सद्भावना के कल्याणकारी संदेश देते हैं । आचार्यों ने रघुवंश में वर्णित विषय विविधता को ही ध्यान में रखकर महाकाव्य के लक्षणों का निर्धारण स्थापित किया है एवं महाकाव्य की परिभाषा व्यक्त की है । महाकवि कालिदास की लेखनी से लगभग 1600 वर्षों से अधिक समय पूर्व जो काव्य निःसृत हुआ वह आज भी उतना ही रसमय एवं नवीनता लिये हुए है ।
शताब्दियों से संपूर्ण विश्व के विद्वानों ने महाकाव्य रघुवंश की भूरि – भूरि प्रशंसा की है । अनेकों विद्वानों ने काजलयी कृति रघुवंश के रसास्वादन के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन किया । महाकवि कालिदास अद्वितीय थे और आज भी अद्वितीय ही हैं ।
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “जो मिला, सो मिला ”। )
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