हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 140 ☆ गीत: कोई अपना यहाँ… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत: कोई अपना यहाँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 139 ☆ 

गीत: कोई अपना यहाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मन विहग उड़ रहा,

खोजता फिर रहा.

काश! पाये कभी-

कोई अपना यहाँ??

*

साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,

श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?

चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-

भोगता दिल रहा

सिर्फ तपना यहाँ…

*

जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.

जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.

जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-

बच न पाया कभी

कोई सपना यहाँ…

*

जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.

दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.

बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-

कैद कर ना सके,

कोई नपना यहाँ…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #191 – 77 – “दूर बहुत मत जाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दूर बहुत मत जाना…”)

? ग़ज़ल # 76 – “दूर बहुत मत जाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मरघट जैसी आग लगी गलियों ओ चौबारों में,

बारूदो अस्लाह मिल रहे मस्जिद गुरुद्वारों में।

जाकर बैठें किस दर थोड़ी सांस भर मिलती जाये,

नफरत के  छींटे  ना आएँ घृणा की बौछारों में।

फ़ेसबुक पर सब लेते दिखते हैं माँ सेवा का व्रत,

जीवित माँ झाँके वृद्ध आश्रम के बंद किवारों में। 

हाथ पर रखा सब कुछ मिल जाए हरेक की चाह यही,

ये ही  आशा ले  जाती  चोरों  के  बाज़ारों में।

आओ दूर तलक साथ दिखलाएँ खेल ज़माने का,

हर  कोई  दौड़  रहा जैसे  जाना  हो तारों में।

गोकुल कृष्ण का यही है और यही कंस की मथुरा,

क़ाबिज़ भूमाफिया जमुना के हर कोर कछारों में।

आतिश तुम जाते हो जाओ दूर बहुत मत जाना,

इंतज़ार  बढ़ता  जाता  आते  तीज त्योहारों में।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मिलन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मिलन ??

नश्वर आशंकाएँ खेत रहीं,

शाश्वत आकांक्षाएँ बनी रहीं,

ठगा-सा तकता रहा संसार,

चलो मिलें फिर देह के पार..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 10:11 बजे, 3 जून 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 69 ☆ ।। लोक परलोक इसी धरती इसी जन्म में सुधरता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। लोक परलोक इसी धरती इसी जन्म में सुधरता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सौ बरस सामान क्यों रखा  बेहिसाब है।

सब कुछ छोड़कर जाना यही  साहब है।।

धरती पर रहके स्वर्ग सी जियो जिंदगी तुम।

मत सोचते रहो स्वयं स्वर्ग जाने का ख्वाब है।।

[2]

मानव बनकर जीना प्रभु इच्छा जनाब है।

बसअच्छे कर्म करो यही इसका जवाब है।।

नित प्रतिदिन करोंअपना स्व मूल्यांकन भी।

तजते रहो हर  आदत जो लगती खराब है।।

[3]

उम्र तकाजा शरीर भी एक दिन गल जाता है।

यह पद रुतबा सब कुछ जैसे ढल जाता है।।

रिश्तेनाते सब छूट जाते इस दुनिया लोक में।

बनकर राख अपना शरीर भी  जल जाता है।।

[4]

मधुरभाषा सुंदर सभ्य  जीवन जीना चाहिए।

उत्तम भाव,लगन, दिव्य जीवन जीना चाहिए।।

आंख की नमी दिल की संवेदना मत मरने देना।

इन सद्गुणों साथ भव्य जीवन जीना चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 133 ☆ बाल गीतिका से – “हिल मिल रहें…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “हिल मिल रहें…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #133 ☆ बाल गीतिका से – “हिल मिल रहें…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हम छोटे बच्चे, भगवान ।

हमें दीजिये यह वरदान ॥

 

रखकर भारत माँ का ध्यान । 

करे सदा कुछ जन-कल्याण॥ 

 

करे देश ऐसा उत्थान ।

बढ़े जगत् में इसका मान ॥

 

हो सबका बहुमुखी विकास । 

कोई कभी न दिखे उदास ॥

 

कठिन रास्ते हो आसान ।

हिलमिल रहें सभी इन्सान

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्वार्थ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – स्वार्थ ??

सारा जीवन

जो मरता रहा

स्वार्थ के पीछे,

ज़रा पूछना उससे,

अपनी मृत्यु पर

स्वार्थ जियेगा कैसे?

© संजय भारद्वाज 

सुबह 10:37 बजे,24.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #183 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 183 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

ग्रीष्म काल की तपन का, अब होता आभास।

झुलस रहे देखो सभी, बस वर्षा की आस।।

धरती तपती ताप से, पंछी हैं बेहाल।

सूखे है जल कूप अब, बुरा हुआ है हाल।।

गर्मी जब से आ गई, नहीं मिली है ठांव।

गांव-गांव सब सूखते, गायब होती छांव।।

जितनी बढ़ती तपन हैं, सूरज खेले दांव।

धीरे-धीरे बढ़ रहे, वर्षा के अब पांव।।

धरती कहे आकाश से, तपन बहुत है आज।

बरसो घन अब आज तुम, हे बादल सरताज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #169 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 169 ☆

☆ “संतोष के दोहे …☆ श्री संतोष नेमा ☆

(विधा:-  कुंडलिया छंद,  विधान:-1 दोहा (13-11) 2 रोला (11-13))

गरमी में जो रख रहे, पशु-पक्षी का ध्यान

रखें सकोरा जल सहित, धन्य वही इंसान। 

धन्य वही इंसान, समझते जो पर पीड़ा

रख ओरों का मान, बनो मत बिच्छू कीड़ा।

कहते कवि “संतोष”, बनें हम सच्चे धरमी

खोजें खुद में दोष, रखें शांत मन गरमी। 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माटी कहे कुम्हार से… ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

☆ कविता ☆ माटी कहे कुम्हार से…   ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

मैं भी माटी का बना हुआ

तू भी माटी से बना हुआ

 

मैं भट्टी की आंच में पका हुआ

तू जीवन संघर्ष से तपा हुआ

 

मैं प्यासे की प्यास बुझाता हुआ

तू अपनों की आस लगाता हुआ

 

मैं भी इंसानों की प्रतिक्षा में

तू भी उनकी राह तकता हुआ

 

मैं हर रंग, रूप और आकार में

तू अनुभव के स्वरूप साकार में

 

बस तुझमें मुझमें इतना अंतर

मैं चोट लगी तो टूट जाऊंगा

तू चोट लेकर और पक जाएगा।।।।

 

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ “विश्व विवशता दिवस…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ “विश्व विवशता दिवस…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

(कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें  👉 Compulsion… .)

[1] 

मछली

अपने आँसू

दिखा नहीं सकती

समंदर

देख नहीं सकता

यह विवशता है।

 

[2] 

बादल हों न हों

पानी

बरसे न बरसे

कुछ मेंढ़कों को

डराँव डराँव

करना ही पड़ता है

यह विवशता है।

 

[3] 

पानी और तंत्र की

सांठगांठ है

कुछ लोग जंगल की आग

शब्दों से

बुझाने में लगे हैं

यह भी तो विवशता है।

 

[4] 

बिल्ली के गले में

घंटी बाँधना तो

चाहती हैं

चूहे 

पर

ख्वाब में

यह भी विवशता है।

 

[5] 

ऐसे हैं वैसे हैं

काँटे

खुद के जैसे हैं

ढोंगियों के पाँव तले

फूलों की तरह

बिछाए नहीं जाते

दोनों की विवशता है।।

 

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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