हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- कुंडलिनी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  लघुकथा- कुंडलिनी ??

अजगर की कुंडली कसती जा रही थी। शिकार छटपटा रहा था। उसकी मंद होती छटपटाहट द्योतक थी कि उसने नियति के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। भीड़ तमाशबीन बनी खड़ी थी। केवल खड़ी ही नहीं थी बल्कि उसके निगले जाने के क्लाइमेक्स को कैद करने के लिए मोबाइल के वीडियो कैमरा शूटिंग में जुटे थे।

एकाएक भीड़ में से एक सच्चा आदमी चिल्लाया, ‘मुक्त होने की शक्ति तुम्हारे भीतर है। जगाओ अपनी कुंडलिनी। काटो, चुभोओ, लड़ो, लड़ने से पहले मत मरो। …तुम ज़िंदा रह सकते हो।…तुम अजगर को हरा सकते हो।’

अंतिम साँसें गिनते शिकार के शरीर छोड़ते प्राण, शरीर में लौटने लगे। वह काटने, चुभोने, मारने लगा अजगर को। शीघ्र ही वेदना ने पाला बदल लिया। बिलबिलाते अजगर की कुंडली ढीली पड़ने लगी।

कुछ समय बाद शिकार आज़ाद था। उसने विजयी भाव से अजगर की ओर देखा। भागते अजगर ने कहा, ‘आज एक बात जानी। कितना ही कस और जकड़ ले, कितनी ही मारक हो कुंडली, कुंडलिनी से हारना ही पड़ता है।’

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9:22 बजे, 28.10.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो पटरियों के बीच ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। 

☆ कथा-कहानी ☆ दो पटरियों के बीच ☆ डॉ. हंसा दीप 

बिटिया अपने एक अलग ही संसार में रहने लगी थी, सबसे अलग-थलग। उसे किसी से कभी कोई शिकायत नहीं होती थी, यहाँ तक कि खुद से भी नहीं। छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाती, बड़ी-बड़ी बातों से दु:खी नहीं होती। बड़े-बड़े काम भी आसानी से कर लेती थी। एक ओर उसकी माँ थीं जो शिकायतों का पुलिंदा साथ लिये, सीने से लगाए घूमती थीं। छोटी-छोटी बातों से उदास हो जातीं, छोटे-छोटे कामों को करने से कतराती थीं। दोनों के स्वभाव में यही अंतर था। कहने को  छोटा-सा अंतर परन्तु आकाश और पाताल की दूरी जितना बड़ा अंतर। पाताल में से ऊपर आकाश को देखने जैसा। एक दूसरे की पहुँच से काफी दूर। 

एक ही लाड़ली घर में और एक ही माँ। दो अलग-अलग आकार-प्रकार के पिलर पर टिका घर। एक पिलर ऊँचा, एक नीचा। एक पतला, एक थुलथुल। संतुलन तो बिगड़ना ही था। रोज बिगड़ता था। दोनों में कहीं कोई साम्य नहीं था। माँ के मन में कई बार यह सवाल उठता कि क्या उन्होंने इसी बच्ची को जन्म दिया था या फिर अस्पताल में कहीं कोई अदला-बदली हो गयी थी। माँ-बेटी के स्वभाव, उनके रहन-सहन में और सोच-विचार में दूर-दूर तक कहीं कोई साम्य नहीं! 

बचपन से माता-पिता का सारा दुलार माँ की ओर से उसी पर बरसता रहा। और वह माँ की आँखों से देखती रही दुनिया का वह खुशनुमा रूप जहाँ सब कुछ अच्छा ही अच्छा था। किसी बुराई के लिये कोई जगह नहीं थी। लेकिन बुराइयों को अपनी जगह बनाने में कहाँ समय लगता है! वो कहीं न कहीं से सुराख तलाश ही लेती हैं। वही हुआ। एक के बाद एक तिनके जैसी उड़-उड़ कर आती रहीं और घोंसला बनाने के लिये जगह करती रहीं। माँ और बेटी के उस घोंसले में एक और घोंसला बनता गया। एक और घर बनता गया उसी घर में। एक ओर माँ का व्यक्तित्व था सात्विक, निरा शुद्ध तो दूसरी ओर बेटी का ऐसा व्यक्तित्व जो आधुनिकता की आड़ में वह सब करना चाहता था जो किया जा सके। न कोई आदर्श उसका रास्ता रोकता था, न कोई सिद्धांत कभी आड़े आता था। जहाँ अपना फायदा दिखे वह सब कुछ अच्छा था, जहाँ अपना फायदा नहीं उसकी कोई जगह नहीं थी उसके अपने हिस्से की दीवार के अंदर।

एक घर था, दो लोग थे। धीरे-धीरे एक घर के दो घर हो गए थे बीच में दीवार की आड़ लिये। अब एक छत के नीचे दो अलग-अलग दुनिया थी। एक दीवार के पार मंदिर था, पूजा थी, आराध्य थे। दूसरी दीवार के पार सारे भौतिक सुख थे, खुद ही आराध्य और खुद ही पूजा। खुद की प्रसन्नता का पूजा घर था। सात्विकता पर तामसिकता का जोर कुछ अधिक ही भारी होने लगा था। लेकिन दोनों के लिये अपनी जिंदगी सात्विक ही थी, अलग-अलग परिभाषाओं के साथ। आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ा कर सारे घिसे-पिटे ख़्यालों को आजाद करने की कामयाब कोशिश थी। उन काई जमे ठस्स ख्यालों पर रद्दा ऐसे चलता था जैसे कहा जा रहा हो – “बहुत हो गया अब, छोड़ आए वह जमाना।” 

माँ के लिये एक प्रश्न चिन्ह सदा आँखों की किरकिरी बना रहता कि आखिर जीवन के किस मोड़ पर बिटिया इतनी आहत हुई होगी कि उसके लिये ‘स्व’ ही जहान था? किसी और का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। शायद सबसे बड़ी वजह यही रही हो कि माँ को इतने कष्ट उठाकर उसे बड़ा करते देख वह बगावती हो गयी हो। जबकि माँ ने तो सोचा था कि कष्टों में बीता जीवन इंसान में सहानुभूति लाता है, हमदर्दी लाता है। यह बगावत कब और कैसे जगह बना ले गयी, यह एक पहेली थी उनके लिये। माँ ने तमाम कष्टों में भी अपने तई बिटिया को हर खुशी देने की कोशिश की थी लेकिन उसके लिए शायद वह सब पर्याप्त नहीं था। उसकी चाहतों की ऊँचाइयाँ, माँ की सोच की छत से काफी ऊपर थीं।  

जमीनी सच्चाइयों में जीते हुए वह आसमान की ऊँचाइयों में उड़ती चली गयी। उसके सामने अब सिर्फ उड़ानें ही थीं। चलना तो जैसे सीखा ही नहीं था उसने। सीधे पंख फैला लिये थे उड़ने के लिये। आकाश की उन ऊँचाइयों तक उड़ना जहाँ से अगर गिरे तो इस कदर टूट जाए कि शरीर का हर हिस्सा एक दूसरे से कोसों दूर हो कर बिखर जाए! घर बैठे भी उसकी दिनचर्या में दुनिया भर की खुशियाँ शामिल थीं। दीवार के उस पार का संसार बगैर देखे भी दिखाई देता था माँ को। वो समझ नहीं पाती थीं कि यह कैसे संभव था कि बोया गुलाब मगर उग गया बबूल!    

माँ बूढ़ी होती रहीं और वह जवान। माँ शादी करके बेवा बनी रहीं और उसने ताउम्र शादी ही नहीं की। एक के बाद एक ऐसे दोस्त बनाती गयी जो उसकी तन, मन, धन की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे। वह अपनी जिंदगी में इस कदर मस्त रही कि कभी यह नहीं देख पाई कि इन आदतों से उसकी अपनी माँ कितनी त्रस्त थीं।  

आए दिन के ये हालात रोज की किच-किच में बदलने लगे – “अब मैं नहीं देख सकती यह सब अपने घर में। तुम किसी एक के साथ शादी क्यों नहीं कर लेतीं।”

“तुमने शादी करके किया क्या माँ? बस मुझे ले आयीं इस दुनिया में।”

“तुम्हें लायी वरना जीती कैसे? दीवारों से सिर टकरा-टकरा कर मर जाती।”

“अब मैं दीवारों से सिर टकरा रही हूँ, लेकिन चोट खाने के लिये नहीं बल्कि चोट देने के लिये।”

“कम से कम एक बार मुझे यह तो बता दो कि तुम चाहती क्या हो अपने जीवन से!”

“मैं अपने जीवन से जो चाहती हूँ वह ले रही हूँ लेकिन माँ तुम क्या चाहती हो? बस यही न कि मैं शादी कर लूँ।”

“हाँ”

“लेकिन क्यों, जब बगैर शादी के ही सब कुछ है मेरे पास तो फिर किसी ऐसे सर्टिफिकेट की क्या जरूरत?”

“बस अभी सब कुछ है तुम्हारे पास किन्तु बाद में सब छोड़ जाएँगे तुम्हें।”

“पति नहीं छोड़ेगा इसकी क्या गारंटी माँ? तुम तो इतनी पतिव्रता थीं, पर तुम्हारा पति छोड़ गया न तुम्हें!”

“हर बात में नकारात्मक ही क्यों सोचती हो तुम? जरूरी है कि मेरे साथ जो हुआ वही तुम्हारे साथ भी हो? शादी से घर बसेगा, परिवार बनेगा, तुम्हारे अपने होंगे परिवार में।”

“अपने? अपने-पराए सारे अपने-अपने स्वार्थ की डोरी से बंधे हैं। एक डोरी टूटी और किस्सा खत्म। मेरे लिये ये जो रोज आते हैं, ये ही मेरे परिवार का हिस्सा हैं।”

“इन क्षणभंगुर रिश्तों से परिवार नहीं बनता। कुछ पलों का साथ तो बस मनोरंजन के लिये ही हो सकता है।”

“मनोरंजन! हाँ माँ, मन खुश हो तो ही दुनिया भली लगती है। आप खुश नहीं हो तो आपको हर कोई दुखियारा नज़र आता है।”

“अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहती हो? मुझे अच्छा नहीं लगता जब अकेले इन लोगों से माथा फोड़ती रहती हो। कभी फोन वाले से लड़ रही हो तो कभी बिजली वाले से, कभी डॉक्टर से तो कभी राह चलते से।”

“माथा मैं नहीं फोड़ती ये लोग फोड़ते हैं।”

“अरे बाबा! इसीलिये तो कहती हूँ कि ढूँढ लो कोई, ऐसा जो तुम्हारा अपना हो, जीवन के हर काम में तुम्हारे साथ रहे, तुम्हारी मदद करे। ढूँढ लो कोई मेरे बच्चे, कुछ पलों का साथ तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा।”

“हाँ सारे लाइन लगा कर खड़े हैं न मेरे लिये कि आ जाओ मेरे गले में माला डाल दो।”

“देखोगी तो पता लगेगा कि खड़े हैं या नहीं।”

“तुम बस एक ही बात को ले कर क्यों बैठ जाती हो माँ!”

“देखने के लिये तो कह रही हूँ, अभी की अभी शादी करने के लिये तो कह नहीं रही न।”

“माँ ये सारी बातें हम कितनी बार कर चुके हैं?”

“अनगिनत बार।”

“तो फिर, कोई हल निकला कभी?”

“नहीं।”

“तो फायदा क्या घुमा-फिरा कर एक ही एक बात के पीछे पड़ने का? वही-वही बात, जब देखो तब!”

“वही-वही बात तुम्हारी तसल्ली के लिये नहीं, मेरी अपनी तसल्ली के लिये करती हूँ।”

“माँ तसल्ली से जीवन नहीं चलता, तृप्ति से चलता है, मन की, तन की और धन की। तुम्हें क्या लगता है कि एक लड़के के साथ शादी करके तन-मन-धन की खुशियाँ मेरे कदमों में होंगी, तीनों मिल जाएँगी मुझे!”

“हाँ, क्यों नहीं, अपनी-अपनी संतुष्टि के पैमाने तो तय करने ही पड़ते हैं।”

“वही तो करती हूँ, मेरी संतुष्टि का पैमाना थोड़ा बड़ा है।”

“तुम दुनिया में अच्छाइयाँ क्यों नहीं देख पातीं? सब कुछ इतना तो बुरा नहीं है जितना तुम्हें लगता है।”

“हों तब तो देखूँ दुनिया की अच्छाइयाँ, एक भी हो तो बता दो मुझे। वैसे सच कहूँ माँ, तुम इस दुनिया के काबिल न पहले थीं, न अब हो। तुम समय से पीछे ही रहती हो। अब वह जमाना नहीं रहा जब सिर्फ शादी करके, बच्चे पैदा करके, सुबह से शाम तक खाने के लिये इंतज़ार करके काट लो अपनी ज़िंदगी। अब तो हर पल, हर घड़ी का फायदा उठाने का जमाना है।”

“शादी नहीं, बच्चे नहीं तो फिर तुम्हारा अपना रहेगा क्या? बेकार में बहस करती हो। तन, मन, धन की बात करती हो, अगर खुश रहना है तो कभी-कभी इन तीनों में से एक को चुनना पड़ जाता है।”

“हाँ, चुनना चाहा था मैंने। मन की तृप्ति चुनी थी तो पता चला कि इसमें कई बार भूखे मरना पड़ता है। तन की तृप्ति भी चुनी थी जो उम्र के साथ कम हो जाती है, तो अब बचती है क्या, धन की तृप्ति न, वही तो मैंने चुन ली है। और देखो माँ, इसमें तो हर हाल में जीत ही जीत है।”

माँ निरुत्तर थीं, क्या कहतीं। कुछ कहने को छोड़ा ही नहीं था उसने। कितनी बार बहस करतीं अपनी बेटी से जो समय से पहले ही जीवन का मर्म समझ गयी थी और उसकी माँ रह गयी थीं पीछे। जमाने के साथ न तब चल पायी थीं, न अब। रह गयी थीं नासमझ की नासमझ, आला दर्जे की बेवकूफ।

क्या सचमुच वे जमाने की दौड़ में इतनी पीछे रह गई थीं कि उनकी अपनी संतान के और उनके विचारों में कोई मेल नहीं था? एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत थे। सब कुछ तो वैसा ही था उसके बचपन में, जैसा उन्होंने चाहा था। अकेली माँ जैसे बच्चे को बड़ा कर सकती है उसी तरह सब किया था उन्होंने। फिर यह सब कब और कैसे हुआ, पता ही नहीं चला। बेटी खुश है लेकिन माँ को उसकी यह खुशी नकली लगती है। बेटी इस बात को स्वीकार नहीं करती कि वह यह सब गुस्से में कर रही है।

न माँ, न बेटी, न यह घर और न उनके कमरे की दीवारें, कोई भी बदलने को तैयार ही नहीं। सबकी अपनी-अपनी जिद तो थी पर कोई झुकने को तैयार नहीं था। वह तो बस इसी तरह जीना चाहती थी, एक आजाद परिंदे की तरह जिसे घर लौटने की कोई जल्दी न हो, घर से जाने की भी कोई जल्दी न हो। घड़ी के काँटे आगे बढ़ें तो उसकी इच्छा से और समय का चक्र बस उसके आदेशों पर चलता रहे।  

एक बार माँ ने कोशिश की थी कि इन दीवारों को नया रूप दे दिया जाए तब शायद बिटिया का मन बदले पर वह भी न हो पाया। दीवारों की मजबूती ऐसी थी कि तोड़ने वाले ने कहा– “एक दीवार टूटने से पूरा मकान ही टूट जाएगा। इसकी मजबूती पर सब कुछ टिका हुआ है।”

और तब उन्होंने भी घुटने टेक दिए थे। इंसान तो इंसान, ईंट और पत्थर भी अपनी जिद पर अड़े थे कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे। माँ-बेटी दोनों के अपने-अपने रास्ते थे, चल तो रहे थे मगर पटरियों की तरह अलग-अलग। दो पटरियाँ समानान्तर चल रही थीं। कभी न मिलना उनकी नियति थी। शायद माँ भी सही थीं और बेटी भी। जितनी तेजी से जमाना बदल रहा था उतनी ही तेजी से पीढ़ियों का गहराता अंतर बोल रहा था, दीवारों के आर-पार से।

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 105 – लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “बेटी बचाओ ” जैसे अभियान जो पोस्टर एवं बयानों तक ही सीमित रह जाते हैं , पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “प्रायश्चित। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 105 ☆

? लघुकथा – प्रायश्चित ?

सुलोचना आज पुरानी पेटी से शादी का जोड़ा निकाल कर देख रही थी। बीते 25 वर्षों से वह अपनी नन्ही सी परी को लेकर पतिदेव से अलग हो चुकी थी। परी ने आवाज लगाई… मम्मी फिर वही पुरानी बात भूल जाओ, मैं अब बड़ी हो गई हूँ। मैं अपनी मम्मी को किसी प्रकार का कष्ट होने नहीं दूंगी।    

 माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा… तुम बेटी हो न, इसी बात को लेकर मुझे चिंता होती है। तुम्हारे पापा सहित ससुराल में सभी ने मुझे बेटी हुई है, और उन्हें बेटा चाहिए था, यह कह कर मुझे घर से निकाल दिया था।

परी ने देखा मां की आंखें नम हो चली थी । उसने कहा.. अच्छा चलो मैं ही तुम्हारा बेटा हूँ मैं आपको छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगी।

माँ ने कहा… यह संभव नही है। हमारी संस्कृति है कि बेटियों को एक दिन ससुराल जाना पड़ता है। बात करते-करते सुलोचना अपना काम कर रही थी और परी अपना बैग उठा ऑफिस के लिए निकल गई।

शाम को उसके साथ एक नौजवान आया परी ने कहा… मम्मी इनसे मिलिए ये संदेश हैं और इनको मैं बारात लेकर ब्याह कर लाऊंगी।  यह हमारे साथ घर पर रहेंगे क्योंकि इनकी यही इच्छा है जो लड़की इनको पसंद करेगी। यह उनके घर ही रहेंगे।

आपकी समस्या का समाधान हो गया। चाय नाश्ता चल ही रहा था कि डोर बेल बज उठी। मां ने दरवाजा खोला। देखा सामने जाना पहचाना चेहरा और मुस्कुराती आंखों पर आंसू.. पतिदेव ने कहा… सुलोचना तुम्हारे जाने के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ ‘प्रायश्चित’ करने के लिए मैं इसी दिन का इंतजार कर रहा था।

यह हमारे ऑफिस में काम करता है इसका कोई नहीं है मैं इसे जानता हूं। मैं अपना कोई अधिकार नहीं जमा रहा हूँ पर मुझे एक मौका दो और माफ कर सको तो मेरा प्रायश्चित हो जाएगा और एक परिवार फिर से बन संवर जाएगा। संदेश और परी दूर से यह सब देख रहे थे।

सारा खेल अब सुलोचना को समझ आने लगा। मन अधीर हो उठा। परी सचमुच बड़ी हो गई है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो अलहदा छोर ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। 

☆ कथा-कहानी ☆ दो अलहदा छोर ☆ डॉ. हंसा दीप 

“ए लड़की…”

कानों ने सुना तो सही पर न तो ध्यान दिया, न ही पलट कर देखने की जरूरत महसूस हुई। मैं जानती थी कि यह बुलावा मेरे लिये नहीं था। भला अब कौन पुकारता है, “ए लड़की…” ? 

एक युग गुजर गया। कान अम्मा, आंटी, दादी और नानी सुनने के आदी थे। चश्मे को आँखों पर खिसकाते हुए लगा कि देखूँ तो सही कि किस लड़की को कौन सा लड़का पुकार रहा है। रोज नये जोड़े बनते हैं इन आँखों के सामने और टूट भी जाते हैं। आजकल युवा लड़के-लड़कियों की चुहलबाजियाँ और इशारे देखना सामान्य बात है। बूढ़ी अम्मा समझ कर मेरी उपस्थिति को कोई गंभीरता से लेता भी नहीं पर मेरा अच्छा टाइम पास है। हैरान हो जाती हूँ जब हफ्ते–दर-हफ्ते इनके साथी बदलते देखती हूँ।

“चलो देख ही लिया जाए कि आज कौन किसके पीछे दीवाना हो रहा है।”

देखने की उत्कंठा में सिर उठाया तो आसपास कोई नहीं दिखा। सामने जो था वह मेरी ही उम्र का एक बूढ़ा था। मरियल शरीर, बढ़ी हुई दाढ़ी और बिखरे-बिखरे-से बाल। कपड़े सलीके से पहने थे। किसी को ढूँढ रहा था शायद। मेरी आँखें मिलीं उससे और फिर अपना रास्ता नापने लगीं। मानो सीधे यह सोचकर उपेक्षा कर दी हो कि– “तुमसे मेरा कोई लेना-देना नहीं।”

एक बार फिर से सुनायी दिया– “ए लड़की, सुन…” इस बार कानों को मजबूत संदेश मिला। अब उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। अब मेरे पैर ठिठके, आवाज उसी ओर से आ रही थी जिस ओर से वह बूढ़ा चला आ रहा था।

मैंने घूम कर देखा, आँखें मिचमिचायीं, अपनी ओर इशारा करके पूछा– “मैं?”

“हाँ, तू। सड़क से बोल रहा हूँ क्या मैं!”

मैं उसे देखती रह गयी। पगला गया है बूढ़ा, मति मारी गयी है इसकी– “ए लड़की” कह रहा है। यह अपना चश्मा बदल लेता तो इसे थोड़ा साफ़ दिखाई देता। सनकी कहीं का, हेकड़ी तो देखो, नालायक बच्चे की तरह धौंस झाड़ रहा है– “सड़क से बोल रहा हूँ क्या…!”

मेरा गुस्सा शायद पलभर का था। अगले पल मन बिल्कुल बदल गया। इतने सभ्य समाज में रहने का आदी मन “आप”, “सुनिए” से परे जो कुछ महसूस कर रहा था उससे मीठी-सी गुदगुदी हुई। अरे यह तो सुबह-सुबह अच्छी-खासी गिफ्ट मिल गयी, बुढ़िया से लड़की बनने की। मैंने सोचा क्यों न इसे भी यह रिटर्न गिफ्ट दे दी जाए। विश्वास था कि उसने भी यह बरसों से नहीं सुना होगा। मीठे-से शब्द बाहर आए– “ए लड़के बोल!”

वह भी मुस्कुराया। एक अर्थपूर्ण मुस्कान, शायद उसकी योजना कामयाब हो गयी थी और दूसरी ओर खड़ी लड़की ने उसके मंसूबों को समझ लिया था। अंकल जी, सर और दादाजी-नानाजी के बदले जो मिला वह आँखों में उतर आया, ऐसा लगा जैसे तोहफा कुबूल हुआ हो। उसे भी किसी ने सालों से “ए लड़के” कह कर नहीं बुलाया होगा। वह खुश दिखा।

“कहाँ रहती है तू?”

“मैं तो यहीं रहती हूँ, तू कहाँ रहता है?”

उन चारों आँखों में एक चमक-सी इठला रही थी। मस्ती रग-रग में सहसा दौड़ने लगी थी। तू-तड़ाक वाला बचपन दोनों के सामने था।

“सामने उस बिल्डिंग में। चल खेलती क्या?”

“क्या?”

“जो तू कहे।”

दोनों ओर से जैसे एक प्रतिस्पर्धा वाली ललक थी, न जाने एक दूसरे को खुश करने के लिये या फिर कुछ नया करते हुए फिर से बच्चा बनने के लिये। बड़ों का जीवन जीते हुए तो बरसों हो गए थे। वैसे भी अब जी कहाँ रहे थे! उस जीवन को ढो रहे थे और ढोते हुए भी साल-दर-साल गुजरते जा रहे थे। दोनों के चेहरे उस बचपनी कौतूहल से चमक रहे थे जो तब पैदा होता है जब नये दोस्त के साथ खेलने का मन बन रहा हो और दोस्त सामने ही खड़ा हो।

“चल छुपा-छुपी खेलते हैं।” ऐसा शुद्ध अपनापन जहाँ अजनबीपन की कोई दीवार नहीं होती बीच में, होता है तो सिर्फ़ दोस्ती का पैगाम।

“हाँ, चल खेलते हैं, पर सुन ले, एक मिनट का समय है, नहीं ढूँढा तो आउट, मंजूर?”

“हाँ, हाँ, मंजूर।”

मैं जल्दी से छुपने की जगहों की टोह लेने लगती हूँ। कानों में उसके नंबर बोलने के टकारे गूँजते हैं, एक, दो तीन, चार फिर जल्दी-जल्दी नंबर बोले जाने लगते हैं। वह नंबर बोल रहा था पर साथ ही हथेलियों के बीच से उसकी आँखें झाँक रही थीं। यह पता करने के लिये कि “किस ओर जा रही है लड़की!”

मैं भी कोई कम नहीं थी कि ऐसे ही पकड़ में आ जाती। कई ऐसी जगहें थीं जहाँ आँखों ने युवा होते बच्चों को एकमेक होते देखा था और अनदेखा कर दिया था। सबको यही लगता था कि मेरी आँखें बहुत कमजोर हैं, बराबर दिखाई नहीं देता शायद इसलिये वे मुझे अपने रास्ते का रोड़ा नहीं समझते थे। और मैं इस कला में माहिर होती जा रही थी कि देखो सबको, पर दिखाओ ऐसे कि “मैंने कुछ नहीं देखा।” 

इस लड़के को क्या मालूम कि कैसी शैतान लड़की से पाला पड़ा है इसका, ढूँढ-ढूँढ कर थक जाएगा पर मुझे पकड़ नहीं पाएगा। मैं भी मन में एक-दो-तीन नंबर बोलने लगती हूँ, साठ तक बोलना होगा ताकि मेरा एक मिनट का हिसाब बराबर रहे। उसकी बड़बड़ाहट मेरी मुस्कुराहट बढ़ा रही थी। मैं उसे कहीं दिखाई नहीं दी।

“कहाँ गायब हो गयी यह लड़की! धरती खा गयी कि आकाश निगल गया।” वह बोल रहा था और मैं साँस रोके सुन रही थी जैसे कि साँस लेने की आवाज भी उस तक न पहुँच जाए और उसे पता चल जाए कि मैं यहाँ छुपी हूँ।

कुछ ही पलों में मैं बाहर थी, अपनी जीत की खुशी के साथ – “एक सेकंड ऊपर हो गया। चल, तू आउट हो गया।”

“अरे ऐसे कैसे आउट हो गया, अभी तो दो सेकंड बचे थे। चल रोत्तल कहीं की, रोत्तल खेलती है तू।”

“मैं नहीं, तू खेलता है रोत्तल!”

“चीटर!”

“तू है चीटर, जा मैं नहीं खेलती तेरे साथ।” मैं रूठकर जाने लगी तो वह पीछे-पीछे आया, मनाते हुए।

“अच्छा सुन, चल वहाँ बैठते हैं, चाकलेट खाएगी क्या?”

“चाकलेट?” आँखें गोल हो जाती हैं मेरी। सचमुच बहुत दिनों से नहीं खायी थी। वह चाकलेटी स्वाद जबान के इर्द-गिर्द लाग-लपेट के साथ लिपटता महसूस होता है।

“है क्या तेरे पास?”

“हाँ, चुरा कर लाया हूँ।”

“चोर कहीं का, कहाँ से चोरी की, बेटे के घर से कि बेटी के घर से?”

“कहीं से भी की हो, तुझे क्यों बताऊँ, खाना हो तो बोल।”

मैं मुस्कुरा दी। अपनी दोस्ती में किसी घरवाले को नहीं लाना है इसे, यह तो और भी अच्छी बात है वरना कोई अमीर बेटे का बाप होता तो अपनी दोस्ती शुरू होते ही खत्म हो जाती। मैंने उसकी आँखों में झाँककर संदेश दिया कि मुझे अच्छा लगा यह छुपा-छुपी का खेल। हम दोनों चाकलेट के रैपर खोलते हुए बहुत खुश थे। गटाक से मुँह में रख ली कि कहीं कोई देख न ले। मुँह से चट-चट की आवाज भी आ रही थी। स्वाद का भरपूर मजा था, साथ का भी।

“मेरे पास भी है कुछ!”

मैंने अपने जैकेट की जेब से टिकटैक का पूरा पैकेट निकाला। दोनों ने एक-एक करके बाँटी और खायी। और भी खेलने का मन था पर शाम हो रही थी, बच्चे लौटने वाले थे।

“कल मैं सीटी बजाऊँगा, आएगी न तू?”

“हाँ, पर कल, कल तो छुट्टी है सब घर पर होंगे, सोमवार को आना, फिर खेलेंगे।”

उदास हो गया वह, और मैं भी। मानो दो दिन तक इंतजार करना पसंद नहीं आया पर उसके आने के बारे में पक्का कर लेना चाहती थी मैं।

“अच्छा सुन, दो बार सीटी बजाना, एक बार में तो पता ही नहीं चलेगा कि यह तू है।”

“दो क्या तीन बार बजा दूँगा, पर मेरी सीटी तो एक बार में ही सुन लेगी तू, मैं बहुत जोर से बजाता हूँ।”

और उसने इतनी जोर से सीटी बजाई कि मेरी आँखें चौड़ी हो गयीं। सचमुच सीटी क्या थी, चीखती-सी आवाज थी किसी को पुकारती हुई। मैंने भी उसी की तरह सीटी बजानी चाही पर वह फुस्स हो कर रह गयी। वह सिखाने लगा – “देख ऐसे गोल कर होठों को, और फिर हवा छोड़, जरा दम लगाकर।” 

“हाँ, हाँ, ज्यादा लेक्चर मत दे, मैं कल तक बजाना सीख लूँगी। ठीक है चल, बाय।”

“बाय।”

हम अपने-अपने रास्ते पर चल दिए। घर आकर अपने काम करते हुए घर वालों की नजर बचाकर सीटी बजाने की प्रैक्टिस करती रही मैं। पहले से बेहतर थी अब मेरी सीटी पर इतनी भी अच्छी नहीं कि कोई बाहर से सुन सके। बार-बार मन करता था कि उसकी बिल्डिंग के सामने जाकर बजा दूँ सीटी, बुला लूँ उसे और खेलती-फिरती रहूँ उसके साथ, इधर से उधर। छुपा-छुपी के अलावा भी कई नये-नये खेलों की योजना बनने लगी दिमाग में। वे सारे खेल याद आने लगे जो अपने आँगन में खेला करते थे और दौड़-दौड़ कर, हाँफ-हाँफ कर सामने वाले को आउट करने का हँसते-हँसते मजा लेते थे।

अपने बचपन को वापस लाकर बहुत खुश थे हम दोनों। निश्छल और अनौपचारिक जीवन, जहाँ “ए” और “तू” के बीच दोस्ती हो गयी थी गहरी। टाइम मशीन लग गयी थी जैसे दोनों के दिमाग में, सालों पीछे आ गए थे। वैसे भी आगे का सोचने के लिए कुछ बचा नहीं था। बहुत सा समय गुज़र चुका था। जो नहीं बीता था वह था आने वाला कल, जो रह-रहकर सामने आ जाता और हताशा के अलावा कुछ न दे पाता था। अब जो सामने आया था वह एक अजूबा था। सालों से भीतर रहकर अंदर के बच्चे ने कभी इस तरह बाहर आने की हिम्मत नहीं की थी। अंदर ही छुपा रहा सकुचाया सा। और अब देखो पूरी ताकत से बाहर, एक नया जन्म, एक नया बचपन और एक नया दोस्त। खेलने के लिये, खिलाने के लिये बगैर रोकटोक के कुछ अपना-सा। सभ्य समाज की औपचारिकताओं में मन भूलने लगा था कि मन का अपनापन कैसा होता है। अब सोमवार से शुक्रवार तक का, दिन का हर समय हमारा अपना था। खेलते-लड़ते-झगड़ते और वापस चले जाते। अगले दिन का इंतजार करते। यह वो समय होता जब आसपास के सारे बच्चे स्कूल में होते व उनके माता-पिता काम पर। भर-दोपहर का सूनापन हमारा अपना होता, किलकारियों से भरा। बूढ़े मनों में नया उत्साह भर गया था। हम दोनों खाते-पीते खेलते और नयी जगह तलाशते जहाँ दो बूढ़ों के बचपन को कोई देख न सके।

ऐसी ही एक दोपहर थी, आपस में कुछ छीना झपटी करते, एक दूसरे के पीछे दौड़ने लगे हम दोनों। जीतने के लिये दौड़ना जरूरी था। हारना किसी को पसंद नहीं था इसीलिये कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था। भूल गए थे कि हम दौड़ नहीं सकते अब। भूल गए थे कि हम सात साल के नहीं सत्तर साल के हैं, जीतने का हौसला ऐसा था कि अपना पूरा दम लगाकर दौड़ रहे थे। कुछ ही पलों में एक दूसरे को पकड़ने के लिये हाथ फैलाए, टकराए, गिरे और ऐसे गिरे कि फिर उठ नहीं पाए।

कुछ देर तक वैसे ही पड़े रहे। अपनी धक-धक करती साँसों को सामान्य गति देने का प्रयास करते रहे। कोई आसपास होता तो उठाने आता लेकिन वहाँ तो कोई था ही नहीं। पलटकर एक दूसरे को देखते रहे। साँसों की गति बेतहाशा तेज थी, धक-धक-धक-धक मशीन फिट हो गयी थी जो थामे नहीं थम रही थी। हम दोनों ने एक-दूसरे को हाथ से इशारा किया कि “चिंता न करो, थोड़ी देर रुको, कुछ न कुछ कर ही लेंगे।” लाख चाहने पर भी उठने की कोशिश नाकामयाब रही तो पड़े रहने में ही भलाई समझी।

आगे क्या होगा, उठ पाएँगे या नहीं, फिर से खेल पाएँगे या नहीं, कुछ पता नहीं चल पा रहा था, बस इतना जरूर मालूम था कि ये खुशनुमा घड़ियाँ थीं, दो अलहदा छोर मिल रहे थे। अलग-अलग दूरी पर, जमीन पर पड़े हुए हम दोनों मुस्कुरा रहे थे, एक संतृप्ति की मुस्कान। अपने-अपने मनों की मनमानी कर लेने की मुस्कान। उस छोर तक पहुँचने की, जहाँ से जीवन का सफर शुरू हुआ था।

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

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दूरभाष – 001 647 213 1817

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #67 – सच्चा ज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #67 – सच्चा ज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

एक संन्यासी ईश्वर की खोज में निकला और एक आश्रम में जाकर ठहरा। पंद्रह दिन तक उस आश्रम में रहा, फिर ऊब गया। उस आश्रम के जो बुढे गुरु थे वह कुछ थोड़ी सी बातें जानते थे, रोज उन्हीं को दोहरा देते थे।

फिर उस युवा संन्यासी ने सोचा, ‘यह गुरु मेरे योग्य नहीं, मैं कहीं और जाऊं। यहां तो थोड़ी सी बातें हैं, उन्हीं का दोहराना है। कल सुबह छोड़ दूंगा इस आश्रम को, यह जगह मेरे लायक नहीं।’

लेकिन उसी रात एक ऐसी घटना घट गई कि फिर उस युवा संन्यासी ने जीवन भर वह आश्रम नहीं छोड़ा। क्या हो गया?

दरअसल रात एक और संन्यासी मेहमान हुआ। रात आश्रम के सारे मित्र इकट्ठे हुए, सारे संन्यासी इकट्ठे हुए, उस नये संन्यासी से बातचीत करने और उसकी बातें सुनने।

उस नये संन्यासी ने बड़ी ज्ञान की बातें कहीं, उपनिषद की बातें कहीं, वेदों की बातें कहीं। वह इतना जानता था, इतना सूक्ष्म उसका विश्लेषण था, ऐसा गहरा उसका ज्ञान था कि दो घंटे तक वह बोलता रहा। सबने मंत्रमुग्ध होकर सुना।

उस युवा संन्यासी के मन में हुआ; ‘गुरु हो तो ऐसा हो। इससे कुछ सीखने को मिल सकता है। एक वह गुरु है, वह चुपचाप बैठे हैं, उन्हे कुछ भी पता नहीं। अभी सुन कर उस बूढ़े के मन में बड़ा दुख होता होगा, पश्चात्ताप होता होगा, ग्लानि होती होगी—कि मैंने कुछ न जाना और यह अजनबी संन्यासी बहुत कुछ जानता है।’

युवा संन्यासी ने यह सोचा कि ‘आज वह बूढ़ा गुरु अपने दिल में बहुत—बहुत दुखी, हीन अनुभव करता होगा।’

तभी उस आए हुए संन्यासी ने बात बंद की और बूढ़े गुरु से पूछा कि- “आपको मेरी बातें कैसी लगीं?”

बूढे गुरु खिलखिला कर हंसने लगे और बोले- “तुम्हारी बातें? मैं दो घंटे से सुनने की कोशिश कर रहा हूँ तुम तो कुछ बोलते ही नहीं हो। तुम तो बिलकुल भी बोलते ही नहीं हो।”

वह संन्यासी बोला- “मै दो घंटे से मैं बोल रहा हूं आप पागल तो नहीं हैं! और मुझसे कहते हैं कि मैं बोलता नहीं हूँ।”

वृद्ध ने कहा- “हां, तुम्हारे भीतर से गीता बोलती है, उपनिषद बोलता है, वेद बोलता है, लेकिन तुम तो जरा भी नहीं बोलते हो। तुमने इतनी देर में एक शब्द भी नहीं बोला! एक शब्द तुम नहीं बोले, सब सीखा हुआ बोले, सब याद किया हुआ बोले, जाना हुआ एक शब्द तुमने नहीं बोला। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम कुछ भी नहीं बोलते हो, तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती हैं।”

‘वास्तव में दोस्तों!! एक ज्ञान वह है जो उधार है, जो हम सीख लेते हैं। ऐसे ज्ञान से जीवन के सत्य को कभी नहीं जाना जा सकता। जीवन के सत्य को केवल वे जानते हैं जो उधार ज्ञान से मुक्त होते हैं।

हम सब उधार ज्ञान से भरे हुए हैं। हमें लगता है कि हमें ईश्वर के संबंध में पता है। पर भला ईश्वर के संबंध में हमें क्या पता होगा जब अपने संबंध में ही पता नहीं है? हमें मोक्ष के संबंध में पता है। हमें जीवन के सभी सत्यों के संबंध में पता है। और इस छोटे से सत्य के संबंध में पता नहीं है जो हम हैं! अपने ही संबंध में जिन्हें पता नहीं है, उनके ज्ञान का क्या मूल्य हो सकता है?

लेकिन हम ऐसा ही ज्ञान इकट्ठा किए हुए हैं। और इसी ज्ञान को जान समझ कर जी लेते हैं और नष्ट हो जाते हैं। आदमी अज्ञान में पैदा होता है और मिथ्या ज्ञान में मर जाता है, ज्ञान उपलब्ध ही नहीं हो पाता।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं एक अज्ञानी और एक ऐसे अज्ञानी जिन्हें ज्ञानी होने का भ्रम है। तीसरी तरह का आदमी मुश्किल से कभी-कभी जन्मता है। लेकिन जब तक कोई तीसरी तरह का आदमी न बन जाए, तब तक उसकी जिंदगी में न सुख हो सकता है, न शांति हो सकती है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 78 ☆ अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 78 ☆

☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते   ☆

पुलिस की रेड पडी थी। इस बार वह पकडी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम।‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर सी हो गई है। पहली बार नहीं पडी थी यह लताड, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खडे होते हैं पर —।

महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक  है कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को  ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड  तो इंद्र को मिलना चाहिए।

उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढकेल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब  जीवन भर इस शाप को ढोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती- जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 – लघुकथा – बने रहो…. ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “बने रहो….।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 ☆

☆ लघुकथा — बने रहो…. ☆ 

मोहन को चार डाक बना कर देना थी। महेश से कहा तो महेश बोला,” लाओ कागज ! अभी बना देता हूं,” कह कर  महेश ने कागज लिया। जानकारी भरी।  जोड़ लगाई ।

” 9 धन  6 बराबर 14 ।” फिर अचानक बोला, ” अरे ! यह तो गलत हो गया। 9 धन 6 बराबर 16 होता है।” कहते हुए उसने जोड़ के आंकड़े को घोटकर 14 के ऊपर 16 बना दिया।

तभी अचानक माथे पर हाथ रख कर बोला, ” साला !  दिमाग भी कहां जा रहा है ? 9 धन 6 तो 15 होते हैं।”

” हां, यह ठीक है।” जैसे ही महेश ने यह कहा तो मोहन बोला, ”  यह क्या किया सर ? जानकारी में काटपीट ?”

” कोई बात नहीं सर । एक कागज और दीजिए । अभी नई बना देता हूं, ” कह कर महेश ने दूसरा कागज लिया। कॉलम खींचे। मगर यह क्या ? एक कालम छूट गया था।

” सर!  यह क्या किया?  आपने तो एक कालम ही छोड़ दिया?”

यह सुनकर महेश बोला,” अच्छा!  देखें। कौन सा कॉलम छूटा है ?” कहकर महेश ने माथे पर हाथ रख कर कहा,” अरे! यार एक और कागज दो ।अभी बना देता हूं।”

बहुत देर से पत्रवाहक यह सब देख रहा था । वह खड़ा होते वह बोला, ”  सर!  मुझे देर हो रही है । आप डाक बनाकर भेज दीजिएगा। मैं चलता हूं।” 

” अरे! नहीं सर जी। मोहन ने हड़बड़ा कर कहा, ” आप थोड़ी देर बैठिए।  मैं स्वयं बनाकर दे देता हूं।”

मोहन के यह कहते हुए ही महेश हमेशा की तरह मुस्कुरा कर अपने तकिया कलाम वाक्य को धीरे से सीटी बजा कर दोहराने लगा, “बने रहो पगला, काम करेगा अगला।”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर  ??

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”, ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़बान पर होता है ज़हर। ज़बान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगीभर टीसता है। ..जो ज़िंदगीभर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत को भोपाल जाना था तो अपनी आदत के अनुसार सुबह सुबह की जनशताब्दी ट्रेन से जाने का त्वरित निर्णय अर्धरात्रि को लिया गया.तो सुबह सुबह की रेलगाड़ी को प्लेटफार्म पर बिना टिकट खरीदे चढ़ने का विचार उस वक्त बदलना पड़ा जब गाड़ी के आने के पहले टिकट काउंटर से टिकिट लेने के लिये समय पर्याप्त और लाईन लगभग नहीं थी.“एक हबीबगंज”असहमत ने कम शब्दों में समय की बचत की पर काउंटर पर बैठे सज्जन के पास समय ही समय था तो बोले “हबीबगंज नहीं मिलेगा”

“जनशताब्दी के लॉस्ट स्टाप का टिकिट नहीं मिलता क्या?”

“मिलता है पर कमलापति बोलो तो मिलेगा.”

असहमत अपना समय यहां बर्बाद करने की जगह सुबह की पहली चाय का रसास्वादन करना चाहता था. फिर भी बोल उठा “अच्छा कमलापति त्रिपाठी के नाम पर ही दे दो वैसे हमारा नाम असहमत है,तात्या टोपे परेशान तो नहीं करेगा?”

“ये तात्या टोपे का रेल में क्या काम, मजाक करते हो वो भी हमसे?”

असहमत : “तो शुरु किसने किया?”

काउंटर : “अरे यार कुछ पढ़ा लिखा करो,कम से कम अखबार ही बांच लो.”

असहमत: “सब डिज़िटल है,मोबाईल है न हमारा,चार्ज भर करना है बस”

काउंटर : “तो तुमको मालुम नहीं पडा़ कि विश्वस्तरीय बनने से हबीबगंज स्टेशन का नाम अब कमलापति हो गया है.”

असहमत : “अच्छा जैसे पहले कभी कोकाकोला का बदला था,शायद फर्नाडिस थे जो विदेशी के बदले स्वदेशी पेय पसंद करते थे. चलो ठीक है कमलापसंद ही दे दो एक”

काउंटर : “कमलापसंद नहीं कमलापति बोलो, रट लो नहीं तो पिट जाओगे कहीं न कहीं”

भीड़ के दबाव और समय के अन्य उपयोग की खातिर असहमत उसी मूल्य पर टिकिट लेकर लाईन से बाहर आया. छुट्टे वापसी की उम्मीद सरकारी विभागों से करना नादानी होती है और असहमत न तो नादान था न मूर्ख पर उसकी मुंहफटता उसे अक्सर फंसाती रहती थी. स्टेशन की चाय पीने से आई ताज़गी और ऊर्जा का उपयोग असहमत ने विंडो सीट पाने में किया और आराम से रात की बाकी नींद पूरी करने में लग गया. लगभग एक घंटे के पहले ही नींद खुली तो सुबह के नाश्ते की चाहत ने गोटेगांव के स्टेशन वाले पांडे जी के आलूबोंडों की याद दिला दी. स्वाभाविक रुप से समीपस्थ यात्री से पूछा : “गोटेगांव निकल गया क्या?”

सहयात्री सज्जन थे और मजाकिया भी ,बोले “भाईसाहब कितने साल बाद इस रूट पर जा रहे हैं गोटेगांव जो पहले छोटा छिंदवाड़ा भी कहलाता था अब उसका नाम बहुत पहले ही श्रीधाम हो चुका है और वो स्टेशन निकल चुका है.आपको श्रीधाम उतरना था क्या?”

असहमत : “नहीं जाना तो भोपाल है, टिकिट हबीबगंज…..” अचानक टिकिट देने वाले की सलाह याद आ गई तो फौरन भूल सुधार किया गया और हबीबगंज की जगह कमलापति हो गया.

सहयात्री पढ़े लिखे भोपाल वासी ही थे (भोपाली और पढ़ालिखा पर्यायवाची शब्द हैं) मुस्कुराते हुये बोले : “समय लगता है, होशियार हो जो हबीबगंज से सीधे कमलापति पर आ गये वरना लोग हबीबगंज से पहले कमलापसंद और फिर धीरे धीरे कमलापति पर आते हैं. हम तो जब रेलयात्रा करना हो तो ऑटो वाले को हबीबगंज ही बोलते हैं ताकि टाईम से पहुंच जायें. बंबई को मुबंई बनने में भी टाईम लगा जबकि वहां का प्रेशर तो आप समझ सकते हो.”

असहमत ने बड़े भोलेपन से दो सवाल पूछे, पहला “अब सुरक्षित और स्वादिष्ट नाश्ता किस स्टेशन पर मिल सकता है?” और दूसरा कि – “स्टेशन का सिर्फ नाम बदला है या कुछ और भी?”

सहयात्री : “बेहतर है अब भोपाल में ही पेटपूजा करें जो आपके स्वाद और सुरक्षा दोनों की दृष्टि से उपयुक्त है.आखिर प्रदेश की राजधानी है तो उसके हिसाब से इमेज़ बिल्डिंग हर भोपालवासी का परम कर्तव्य है.और जहां तक बात रेल्वेस्टेशन की है तो पूरी तरह विश्वस्तरीय बनाया गया है. अब आगे मेंटेन करने का काम सिर्फ रेल्वे का नहीं बल्कि यात्रियों का भी है, याने विश्वस्तरीय यात्रा के दौरान वांछित जागरूकता.”

नाम पर चली चर्चा पर जब बात इतिहास को गलत ढंग से पढ़ाये जाने पर आई तो असहमत बोल ही उठा: “हम तो इतिहास की पुस्तक उसी बुक स्टोर से खरीदते थे जो हमारे शिक्षक कहा करते थे.” मौजूद राजनीति के चतुर सहयात्री असहमत की मासूमियत पर मुस्कुराने लगे. अचानक किसी संगीत प्रेमी सहयात्री के मोबाइल पर ये गीत बजने लगा “नाम गुम जायेगा,चेहरा ये बदल जायेगा,मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे” तो असहमत अपनी हाज़िरजवाबी के बावज़ूद क्या भूलूं क्या याद करूं की उलझन में उलझ गया और उसकी यात्रा,”भूखे पेट न भजन गोपाला “की भावना के साथ जारी रही.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – मेरा ये ग्रीटिंग ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक कालजयी लघुकथा  मेरा ये ग्रीटिंग )

 

☆ लघुकथा ☆ मेरा ये ग्रीटिंग ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

*स्वर्ण जयंती* से *हीरक जयंती* तक आते-आते कितना कुछ बदल गया। न बदले तो देश की आज़ादी, उसकी भूख और उसके सपने।            

हमारी आज़ादी पच्चीस साल और बड़ी हो गई। उसके साथ उसकी भूख भी बड़ी हो गई और सपने भी।

इतनी बड़ी भूख के लिए, इन पच्चीस सालों में हम भूख मिटाने को एक छोटी- सी रोटी तो न बना पाए, पर हां, भूख  भूलाने के लिए हमने सपने बड़े कर दिये।

भूख के अनुपात में।

(यहां, ‘हमने’ का मतलब, पक्ष-विपक्ष से नहीं, पच्चीस सालों से है।)

               *

जब तक ये सिलसिला जारी रहेगा, मेरा ये ग्रीटिंग, “*75 वर्ष से शताब्दी महोत्सव* तक कभी पुराना नहीं होगा। हरबार एक नई टीस लिए आपके आसपास आता रहेगा।

             *

‘बाल दिवस” की पूर्व संध्या पर

सरकार की ओर से :-

बच्चों को।

(यहां ‘सरकार’ से मतलब भाजपा…., कांग्रेस…., अमूक….., ढमूक….. से नहीं, सरकार का मतलब  सिर्फ, ‘सरकार’ से है।)

            *

* आपने पढ़ा, आपने, महसूसा – आपको प्रणाम।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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