हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 160 – सभी का आदर करें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय  एवं शिक्षाप्रद बाल लघुकथा “सभी का आदर करें ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 160 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 सभी का आदर करें 🙏

 

हमारी भारतीय परंपरा और बड़े बुजुर्गों का कथन – सदैव हमें जीवन में लाभ पहुँचाता है। ऐसा ही एक कथन “सभी का आदर करें” हमें बचपन से सिखाया जाता है।

कृति का आज दसवां जन्मोत्सव है सुबह से ही घर में तैयारियाँ हो रही थी। मेहमानों का आना जाना लगा था। मम्मी- पापा से लेकर नौकर चाकर सभी प्रसन्न होकर अपना – अपना काम कर रहे थे।

शानदार टेबल सजा हुआ था। मेहमान एक के बाद एक करके उपहार देते जा रहे थे। कृति भी बहुत खुश नजर आ रही थी। मम्मी पापा दोनों सर्विस वाले थे। घर पर आया एक मालिश वाली बाई थी। जो कभी दादी कभी मम्मी और कभी-कभी कृति के बालों, हाथ पैरों पर मालिश कर उसके दिन भर की थकान को दूर कर देती थी।

कृति की दादी पुरानी कहानियों के साथ-साथ वह सभी बातें सिखाती थी। जो अक्सर हम दादी नानी के मुँह से सुना करते हैं। दादी कहती अपने से बड़ों का और सभी का सदैव सम्मान आदर करना चाहिए, क्योंकि सभी के आशीर्वाद में ईश्वर की बात छुपी होती है।

कृति के मन पर भी यह बात बैठ गई थी। वह भी बहुत ही मिलनसार थी। परंतु मम्मी की थोड़ी नाराजगी रहती इस वजह से चुप हो जाया करती थी। मम्मी कहती छोटों को मुंह नहीं लगाना चाहिए।

कृति ने देखा मालिश वाली अम्मा अपने पुराने से झोले में कुछ निकालती फिर रख लेती। उसे वह दे नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था इतने सारे सुन्दर गिफ्ट में बेबी मेरा छोटा सा बाजा का क्या करेगी।

कृति दौड़कर आया बाई के पास आई और पैर छू लिए और बोली अम्मा मेरे लिए कुछ नहीं लाई हो। बस फिर क्या था आया अम्मा की आँखों से आँसू बह निकले और अपने झोले से निकालकर वह  मुड़े टुडे कागजों से बंधा खिलौना कृति के हाथों में दे दिया।

कृति ने झट उस खिलौने को निकाल कर मुँह से बजाने लगी और पूरे दालान में लगे सजावट के साथ-साथ भागने लगी। एक बच्चा, दूसरा बच्चा और पीठ पीछे बच्चों की लाइन लगती गई। बच्चों की रेलगाड़ी बन चुकी थी। आगे-आगे कृति उस बाजे को बजाते हुए और बच्चे एक दूसरे को पकड़े पकड़े दौड़ लगा रहे थे।

सभी लोग ताली बजा रहे थे। फोटोग्राफर ने खूब तस्वीरें निकाली। दादी ने खुश होकर कहा.. “अब मुझे चिंता नहीं है मेरी कृति अनमोल कृति है उसने सभी का आदर करना सीख लिया है।”

मालिश वाली बाई मम्मी से कह रही थी.. “खेलने दीजिए मेम साहब मैं अच्छे से मालिश कर उसकी थकान उतार दूंगी”, परंतु वह जानती थी। कृति तो आज उसको आदर दें उसे खुश कर रही है। दिल से दुआ निकली जुग जुग जिये बिटिया रानी ।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – पुराने ज़माने के लोग )

☆ लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

जिन दिनों बसों की अनिश्चितकालीन हड़ताल चल रही थी, उन्हीं दिनों में एक दिन अविनाश ने पिता से कहा, “पापा, गाँव से तीन‌‌-चार बार दादी का फ़ोन आ चुका है कि आकर मिल जाओ। कल चलें हम? परसों संडे को वापस आ जाएँगे।”

“क्यों नहीं? कौन-कौन जाएगा?”

“आप, मम्मी, मैं और सुनीता चारों चलेंगे।”

“क्यों न जनक को भी साथ ले लें, उसे भी गाँव जाना है, बसों की हड़ताल की वजह से नहीं जा पा रहा है। गाड़ी में सीट तो है ही।” जनक उनका बचपन का दोस्त था, उन्हीं के गाँव का और अब इसी शहर में रह रहा था। वे दोनों अक्सर एक साथ ही गाँव जाया करते थे।

“नहीं पापा, गाड़ी में चार आदमी ही आसानी से बैठ सकते हैं। और फिर प्राइवेसी भी तो कुछ होती है। कोई पराया साथ हो तो इन्जाॅय कैसे कर सकते हैं। मैं तो अकेला भी होऊँ तो किसी बाहर वाले को बैठाना पसंद नहीं करता।”

“यह तुम्हारी सोच है बेटा! मैं तो सोचता हूँ कि ख़ुद थोड़ी तकलीफ़ भी सहनी पड़े तो भी दूसरे को सुख देने की कोशिश की जानी चाहिए और हमें तो कोई तकलीफ़ सहनी ही नहीं है। गाड़ी में सीट है, सिर्फ़ पौन घंटे का रास्ता है।” नंदकिशोर को ‘पराया’ शब्द हथौड़े की तरह लगा था।

“पुराने ज़माने के लोग! हमेशा औरों के लिए सोचते रहे, तभी तो कभी ज़िंदगी को इन्जाॅय नहीं कर पाए। कभी अपने लिए जी कर देखिये पापा!”

नंदकिशोर कहना चाहते थे – किसी और के लिए जी कर देखो बेटा, असली आनंद उसी में है। यह आनंद का अभाव ही तुम में इन्जाॅय की तृष्णा पैदा करता है। तृष्णा कभी मरती नहीं है, इसीलिये लगातार इन्जाॅय करते हुए भी तुम कभी संतोष का अनुभव नहीं करते- पर प्रकटत: उन्होंने पूछा, “कल पक्का वापस आना है?”

“आना तो होगा ही, परसों ऑफ़िस भी तो जाना है।”

“तो फिर तुम हो आओ बेटा! मैं तो तीन-चार दिन रुकूँगा। एक दिन में मेरा मन नहीं भरता।”

अविनाश अपनी माँ और पत्नी के साथ गाँव के लिए रवाना हो गया। उसके जाने के पंद्रह-बीस मिनट के बाद नंदकिशोर ने स्कूटी उठाई और जनक को साथ लेकर गाँव की ओर चल दिए।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह लिखता रहा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – वह लिखता रहा ??

‘सुनो, रेकॉर्डतोड़ लाइक्स मिलें, इसके लिए क्या लिखा जाना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अश्लील और विवादास्पद लिखकर चर्चित होने का फॉर्मूला कॉमन हो चुका। रातोंरात (बद)नाम होने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अमां क्लासिक और स्तरीय लेखन से किसीका पेट भरा है आज तक? तुम तो यह बताओ कि पुरस्कार पाने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘चलो छोड़ो, पुरस्कार न सही, यही बता दो कि कोई सूखा सम्मान पाने की जुगत के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

वह लिखता रहा हर साँस के साथ, वह लिखता रहा हर उच्छवास के साथ। उसने न लाइक्स के लिए लिखा, न चर्चित होने के लिए लिखा। कलम न पुरस्कार के लिए उठी, न सम्मान की जुगत में झुकी। उसने न धर्म के लिए लिखा, न अर्थ के लिए, न काम के लिए, न मोक्ष के लिए।

उसका लिखना, उसका जीना था। उसका जीना, उसका लिखना था। वह जीता रहा, वह लिखता रहा..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #195 ☆ कहानी – एक मुख़्तसर ज़िन्दगी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ‘एक मुख़्तसर ज़िन्दगी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 195 ☆

☆ कहानी ☆  एक मुख़्तसर ज़िन्दगी

विष्णु अपने माँ-बाप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था। पिताजी पढ़े-लिखे आदमी थे। एक स्कूल में टीचर। पढ़े-लिखे आदमियों की उम्मीदें बेपढ़े-लिखे आदमियों की तुलना में कुछ ज़्यादा होती हैं क्योंकि उन्हें दुनिया की जानकारी होती है। विष्णु के पिता ने भरसक अपने बेटों को काबिल बनाने की कोशिश की थी। दोनों बड़े बेटे काम लायक पढ़कर नौकरी में लग गये थे, लेकिन विष्णु का मन पढ़ने में नहीं लगा। स्कूल की परीक्षा किसी तरह पास करके वह कॉलेज में तो गया, लेकिन कॉलेज की डिग्री नहीं ले पाया।

कॉलेज में उसे एक ग्रुप मिल गया था जिसका लीडर एक पैसे वाला लड़का था। नाम अरुण। वह शहर के एक बड़े व्यापारी का बेटा था। पढ़ने-लिखने के बारे में उसका नज़रिया साफ था। उसे ज्ञान की नहीं, डिग्री की ज़रूरत थी जिससे उसे अपने समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सके और ब्याह-शादी के मामले में उसकी स्थिति कमज़ोर साबित न हो। उसे नौकरी की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए कॉलेज में कक्षा में बैठने के बजाय उसका ज़्यादातर वक्त कैंटीन में या इधर उधर ठलुएबाज़ी में गुज़रता था। उसके पिछलग्गू भी कक्षाएँ छोड़कर उसके पीछे डोलते रहते थे, यद्यपि उन सब की हैसियत उस जैसी नहीं थी। विष्णु भी उन्हीं में से एक था। अभी उसे भविष्य की चिन्ता नहीं थी। यही काफी था कि आज का दिन मस्ती में गुज़र रहा था।

अरुण ने ही विष्णु को कार चलाना सिखाया। उसके सैर-सपाटे की पूरी जानकारी उसके घर में न पहुँचे इसलिए वह ड्राइवर को पच्चीस पचास रुपये देकर कहीं भेज देता था और फिर स्टियरिंग विष्णु को सौंप देता था। विष्णु को कार चलाने में बड़ा मजा आता था। अरुण ने ही उसे ड्राइविंग लाइसेंस दिलवाया।

पिताजी विष्णु की लापरवाही से दुखी थे, लेकिन उनकी सारी सीख विष्णु के सिर पर से निकल जाती थी। उसे इस बात की कल्पना नहीं थी कि उसका भविष्य उसके वर्तमान से भिन्न हो सकता था। लगता था कि कल आज का ही विस्तार होगा।

विष्णु प्रथम वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठा और इसके साथ ही अच्छी नौकरी पाने की उसकी संभावनाएँ खत्म हो गयीं। लेकिन उसे अभी समझ नहीं आयी क्योंकि अभी कोई बड़ा झटका नहीं लगा था। माता-पिता की कृपा से उसकी ज़िन्दगी की गाड़ी लुढ़क रही थी।

अरुण के साथ उसका घूमना-घामना  चलता रहा। कॉलेज से नाम कट जाने के बावजूद वह अब भी अरुण के पीछे-पीछे कॉलेज में डोलता रहता था। अरुण पास हो गया था क्योंकि घर में उसके लिए हर विषय के ट्यूटर लगे थे।

लेकिन विष्णु के पिता को उसका परीक्षा में न बैठना और फिर बेमतलब घूमना अखर रहा था। अब उसे गाहे-बगाहे उनकी झिड़की सुनने को मिल जाती थी। उनका कहना था कि यदि उसे उनके बताये रास्ते पर नहीं चलना है तो वह अपनी पसन्द का रास्ता चुने, लेकिन आवारागर्दी और व्यर्थ की ठलुएबाज़ी बन्द करे। उनके विचार से विष्णु अपनी हरकतों से उन्हें और अपनी माँ को तकलीफ दे रहा था, जिसका कोई औचित्य नहीं था।

विष्णु के भाई भी गाहे-बगाहे उसे ताना देने से नहीं चूकते थे। उनकी नज़र में वह खामखाँ बूढ़े माँ-बाप पर बोझ बना हुआ था। उनकी बातें सुन सुन कर विष्णु के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में दीमक लगने लगी थी। माँ अभी खामोशी से उसके सामने भोजन की थाली रख देती थी, लेकिन अब निवाला विष्णु के गले में अटकने लगा था। उसे समझ में आने लगा था कि जो रोटी वह खा रहा है वह बेइज़्ज़ती की है। खाना खाते वक्त अब उसकी नज़र थाली से ऊपर नहीं उठती थी।

मुश्किल यह थी कि उसकी पढ़ाई को देखते हुए अच्छी नौकरी की कोई संभावना नहीं थी और घर में इतनी पूँजी नहीं थी कि वह  अपना कोई व्यवसाय शुरू कर सके। भाइयों को तनख्वाह के अलावा अच्छी ऊपरी कमाई भी होती थी, लेकिन उनके रुख को देखते हुए उनसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। पिता-माता विष्णु को क्या देते हैं इस पर भी उनकी नज़र रहती थी।

विष्णु समझ गया कि अब बिना हाथ-पाँव चलाये काम नहीं चलेगा। मटरगश्ती से पूरी ज़िन्दगी नहीं काटी जा सकती। उसने अरुण से कहा कि उसे किसी निजी प्रतिष्ठान में नौकरी दिलवा दे और अरुण ने उसे आश्वस्त किया कि वह जल्दी उसे कहीं काम पर लगवा देगा।

एक हफ्ते बाद ही अरुण ने उसे एक टैक्सी-मालिक के पास भेज दिया जिसकी आठ दस टैक्सियाँ चलती थीं। उसका दफ्तर बस-स्टैंड के परिसर में था।

टैक्सी-मालिक को उसके जानने वाले बाबूभाई के नाम से पुकारते थे। वह मज़बूत काठी का अधेड़ आदमी था। हमेशा दस बारह दिन की बढ़ी दाढ़ी और पान से चुचुआते ओंठ। बात में पूरा व्यवसायी।

विष्णु से पहली भेंट में ही बोला, ‘कसाले का काम है, आराम की बात दिमाग से निकाल दो। दिन रात में कभी भी ड्यूटी हो सकती है, सवारी का क्या भरोसा! हम जरूरी आराम देने की कोशिश करेंगे, लेकिन कोई गारंटी नहीं दे सकते। सवारी के साथ पूरी ईमानदारी रखना है। सवारी गाड़ी में पर्स, सामान छोड़ देती है। उसमें गड़बड़ नहीं होना चाहिए। गड़बड़ी की तो बिना रू-रियायत के पुलिस में दे देंगे। सवारी दस तरह की होती है, सबके साथ एडजस्ट करने की आदत डालनी होगी। बदतमीजी बिलकुल नहीं। अभी पगार पाँच हजार होगी। बाहर भेजेंगे तो दो सौ रूपया रोज खाना- खूराक का देंगे। मंजूर हो तो जब से आना हो आ जाओ।’

विष्णु को सुनकर झटका लगा, लेकिन अभी उसके पास कोई विकल्प नहीं था। सोचा, कम से कम भाइयों का मुँह तो बन्द होगा। अभी अकेला छड़ा है, जब शादी होगी तब तक शायद कोई बेहतर नौकरी मिल जाए। पाँच हजार में से डेढ़ दो हजार माँ को देगा तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और खुद उसे भी।

हफ्ते भर में ही उसकी समझ में आ गया कि टैक्सी- ड्राइवर का काम कितना मुश्किल  है। काम का कोई निश्चित समय नहीं। जब सवारी को दरकार हो, लेकर चल पड़ो। सब कुछ सवारी के हिसाब से, ड्राइवर के आराम के लिए कोई गुंजाइश नहीं। कुछ सवारियाँ इतनी बदतमीज़ होतीं कि उनके साथ चार कदम जाना सज़ा होती, लेकिन फिर भी शिष्टता का नाटक करते हुए उनकी सेवा में घंटों रहना पड़ता। पैसे के मद में झूमते लोग, ड्राइवर को आदमी भी न समझने वाले। मालिक भी ऐसा कि कभी-कभी घर पहुँच कर नहा-धो भी नहीं पाता कि बुलावा आ जाता, ‘जल्दी चलो, सवारी खड़ी है। बाहर जाना है।’

सवारी लेकर शहर से बाहर जाता तो मालिक की हिदायत रहती— ‘गाड़ी या तो गैरेज में रखना है या नजर के सामने। कुछ भी नुकसान हुआ तो जिम्मेदारी तुम्हारी।’ नतीजतन अक्सर गाड़ी के भीतर ही सोना पड़ता, चाहे कितनी भी असुविधा क्यों न हो। इसके अलावा सवारी यह उम्मीद करती कि उसे जिस वक्त भी आवाज़ दी जाए वह हाज़िर मिले। दो चार आवाज़ें लगाने के बाद सवारी की त्यौरियाँ चढ़ जातीं।

बाहर अक्सर टॉयलेट की सुविधा न मिलती। निर्देश मिलता, ‘बोतल लेकर सड़क के आसपास कहीं चले जाओ। वहीं कहीं नल पर नहा लेना।’

एक बार एक सवारी को लेकर उसके गाँव गया था। वहाँ पहुँचकर उसने सवारी से एक कप चाय की फरमाइश कर दी तो सवारी ने कुपित होकर सीधे बाबूभाई को फोन लगा कर उसकी गुस्ताखी की शिकायत कर दी। जैसा कि अपेक्षित था, बाबूभाई ने बाजारू भाषा में उस की खूब खबर ली और विष्णु ने आगे सवारी से कोई भी फरमाइश करने से तौबा कर ली।

विष्णु लगातार कोशिश कर रहा था  कि कहीं ऐसी जगह नौकरी मिल जाए जहाँ काम के घंटे निश्चित हों और पगार भी कुछ बेहतर हो। लेकिन दुर्भाग्य से कहीं जम नहीं रहा था ।अब उसे समझ में आ रहा था कि पढ़ाई बीच में छोड़ कर उसने कितनी बड़ी गलती की थी।

उसके पिता को यह नौकरी पसन्द नहीं थी, लेकिन माँ का खयाल और था। उनकी नज़र में वह काम-धाम से लग गया था, इसलिए अब उसकी शादी हो जानी चाहिए थी। उनके हिसाब से शादी-ब्याह की एक उम्र होती है। घर अपना था, बाकी भगवान पूरा करता है।

माँ ने ज़िद करके जल्दी ही उसकी शादी एक सामान्य परिवार में करा दी। शायद कहीं विष्णु की भी इच्छा रही हो क्योंकि उसे लगता था कि दो आदमियों का खर्च वह उठा सकता है। घर अपना होने के कारण इज्जत का फालूदा बनने की गुंजाइश कम थी। लड़की के बाप को बताया गया कि लड़का एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी करता है।

शादी के बाद रश्मि के साथ विष्णु के कुछ दिन अच्छे कटे। एक दिन के लिए बाबूभाई ने उसे एक गाड़ी दे दी कि पेट्रोल भरा कर घूम-घाम ले। रश्मि ने उससे पूछा कि गाड़ी किसकी है, तो विष्णु का जवाब था, ‘अपनी ही समझो।’ उस दिन शहर के सभी दर्शनीय स्थानों की सैर हुई। खाना- पीना भी बाहर हुआ। रश्मि खूब आनंदित हुई।

लेकिन ये सुकून ज़्यादा दिन नहीं चला। एक रात ग्यारह बजे बाबूभाई का आदमी उनके सुख में खलल डालने आ गया। किसी सवारी को लेकर तुरन्त जाना था। रश्मि के ऐतराज़ के बावजूद विष्णु को जाना पड़ा। मना करने का मतलब नौकरी से हाथ धो लेना था, और शादी के बाद नौकरी उसकी और बड़ी ज़रूरत बन गयी थी।

फिर यह आये दिन की बात हो गयी। बाबूभाई का आदमी कभी भी सर पर सवार हो जाता, न रात देखता न दिन। रश्मि का माथा गरम होने लगा। कहती, ‘मैं कह देती हूँ कि तुम घर में नहीं हो।’ विष्णु उसके हाथ जोड़कर झटपट तैयार होकर भाग खड़ा होता।

रश्मि नाराज़ रहने लगी। वह विष्णु से पूछती थी कि यह कैसी नौकरी है जिसमें कभी भी पकड़ कर बुला लिया जाता है? उसने अभी तक ऐसी नौकरियाँ ही देखी थीं जिनमें आदमी सुबह काम पर जाता है और शाम को सब्ज़ी-भाजी लेकर वापस आ जाता है। उधर विष्णु जाता तो हफ्तों लौट कर न आता।

एक दिन विष्णु बाहर से लौटकर घर आया तो रश्मि की चिट्ठी उसका इंतज़ार कर रही थी। लिखा था— ‘मैं जा रही हूँ। अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब कोई ढंग की नौकरी मिल जाए तो खबर करना। तब तक मुझे मत बुलाना।’

विष्णु बदहवास ससुराल पहुँचा, लेकिन रश्मि उससे नहीं मिली। उसके बड़े भाई ने बेरुखी से कहा, ‘कोई ठीक नौकरी ढूँढ़ लीजिए तो हम भेज देंगे। तब तक रश्मि को यहीं रहने दीजिए।’

विष्णु को आघात लगा। उसने सोचा था कि उसकी कठोर और थकाने वाली दिनचर्या के बाद रश्मि उसके लिए ठंडी छाँह होगी। उसे बताया गया था कि पति-पत्नी का रिश्ता जन्म- जन्म का होता है। उसका दिल टूट गया। वह, परास्त, घर लौट आया। जब वह घर पहुँचा तो बाबूभाई का आदमी उसे ढूँढ़ता फिर रहा था। एक जोड़े को लेकर चार दिन के लिए पचमढ़ी जाना था।

जाने वाले नवविवाहित दिखते थे। दोनों एक दूसरे में रमे थे, दीन दुनिया से बेखबर। विष्णु का मन ड्यूटी करने का बिलकुल नहीं था। उस जोड़े का प्यार देखकर उसे चिढ़ हो रही थी। उसे लग रहा था प्यार व्यार सब ढोंग है। ढोंग न होता तो रश्मि उसे छोड़कर इस तरह कैसे चली जाती?

सफर के दौरान गाड़ी में भी वह जोड़ा एक दूसरे से लिपट-चिपट रहा था। विष्णु का दिमाग भिन्ना गया। पलट कर युवक से बोला, ‘ठीक से बैठिए। दुनिया देखती है।’

युवक गुस्से से आगबबूला हो गया। डपट कर बोला, ‘गाड़ी रोक।’

गाड़ी रुकने पर वह विष्णु से धक्का-मुक्की करने लगा। बोला, ‘तेरी यह हिम्मत! दो कौड़ी का आदमी।’

विष्णु ने अपना सन्तुलन खो दिया। उसने क्रोध में युवक को ज़ोर का धक्का दिया तो वह ज़मीन पर ढह गया। भय से विस्फारित नेत्रों से वह चिल्लाने लगा— ‘हेल्प, हेल्प, ही विल किल मी।’ उसकी पत्नी मुँह पर मुट्ठियाँ रखकर चीख़ने लगी।

विष्णु के मन में क्रोध का स्थान भय ने ले लिया। वह गाड़ी लेकर वापस भागा। पीछे मुड़ मुड़ कर देख लेता था कि पुलिस की या अन्य गाड़ी पीछा तो नहीं कर रही है। बदहवासी में उसे होश नहीं था कि गाड़ी की स्पीड कितनी ज़्यादा है। दूसरी तरफ उस पर यह डर भी हावी था कि बाबूभाई उसे कोई बड़ी सज़ा दिये बिना नहीं छोड़ेगा। इन्हीं दुश्चिंताओं के बीच फँसे विष्णु के सामने अचानक एक लड़का आ गया और उसे बचाने के चक्कर में गाड़ी सन्तुलन खोकर एक पेड़ से चिपक गयी।

राहगीरों ने खींच-खाँचकर विष्णु को गाड़ी से बाहर निकाला। गाड़ी की तरह उसका शरीर भी पिचक गया था। उसे सड़क के किनारे लिटा दिया गया। कोई दयालु गाड़ीवाला सौभाग्य से गुज़रे तो कुछ मदद की गुंजाइश बने।

जब बाबूभाई को दुर्घटना की खबर मिली तो वह बोला, ‘गनीमत है कि गाड़ी का बीमा था, वर्ना लौंडे ने तो कबाड़ा ही कर दिया था।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 119 ☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सच से दो- दो हाथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 119 ☆

☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिड़की से छनकर भीतर आ रही हैं। उसने लेटे- लेटे ही गहरी साँस ली – ‘ सवेरा हो गया फिर एक नया दिन,पर मन इजाजत ही नहीं दे रहा बिस्तर से उठने की। करे भी क्या उठकर? उसके जीवन में कुछ बदलने वाला थोड़े – ही है? वही-वही बातें, उसके शरीर को स्कैन करती निगाहें, मन में काई-सी जमी घुटन, जो न चुप रहने देती है, न चीखने। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच! दो पाटों के बीच वह घुन -सा पिस रहा है। कैसे समझाए उन्हें कि आँखों देखा हमेशा सच नहीं होता। ओफ्! —-‘

तब तो अपना सच उसकी समझ से भी परे था। छोटा ही था, स्कूल – रेस में भाग लिया था। उसने दौड़ना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – ‘अरे! महेश को देखो, कैसे लड़की की तरह दौड़ रहा है।‘ गति पकड़े कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो। वह वहीं खड़ा हो गया, बड़ी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे-धीरे चलता हुआ सब के बीच वापस आ खड़ा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक ‘लड़की-लड़की‘ कहकर चिढ़ाते रहे। तब से वह कभी दौड़ ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से कानों में आवाज गूँजती – ‘लड़की है, लड़की।‘ वह ठिठक जाता।

 ‘महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?‘ – माँ ने आवाज लगाई। ‘ कॉलोनी के सब लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं, तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ? कितनी बार कहा है लड़कों के साथ खेला कर। घर में घुसकर बैठा रहता है लड़कियों की तरह।‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना‘ – उसने गुस्से से कहा।

माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पड़ा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह इधर – उधर। साईकिल के पैडल के साथ ही विचार भी बेकाबू थे – ‘ बचपन से लेकर बड़ा होने तक लोगों के ताने ही तो सुनता आया है। आखिर कब तक चलेगा यह लुका छिपी का खेल ? ‘

घर पहुँचकर उसने साईकिल खड़ी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढ़कर सबके बीच में आकर बैठ गया।

सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।  

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ??

बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चाएँ हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गयी। फिर उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।

उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बुत युग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – बुत युग ??

सारे बदहवास थे। इस तरह की बीमारी इससे पहले न देखी, न सुनी। उस लेटे हुए आदमी के अंग एक-एक कर धीरे-धीरे पत्थर होते जा रहे थे।

अचानक एक औरत की चीख सन्नाटे को चीरने लगी। एक आदमी बालों से पकड़कर औरत को लात, मुक्कों से बेदम मार रहा था। वह चीख रही थी, मदद की गुहार लगा रही थी। भीड़ चुप थी। आदमी ने हैवान की मानिंद चाकू से कई वार औरत पर किए।

औरत अब लोथड़ा थी। आदमी जा चुका था। भीड़ मर चुकी थी।

उधर शोर उठा, ‘अरे आदमी बुत में बदल गया, आदमी बुत में बदल गया।’ लेटा हुआ आदमी ऊपर से नीचे तक पूरा पत्थर हो चुका था।

बुत युग की यह शुरुआत थी।

© संजय भारद्वाज 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 158 – बेघर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बेघर ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🏚️ बेघर 🏚️

अपनी मां के साथ वेदिका एक किराए के मकान में रहती थी। मां और बिटिया की कमजोरी को देखते हुए हर जगह से उन्हें निकाल दिया जाता था और फिर दूसरे किराए के मकान में, झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहना पड़ता था।

बचपन उसका कैसे बीता उसे ठीक से याद नहीं। थोड़ा संभलने पर समझ में आ गया उसे कि सारे रिश्ते नाते केवल पैसों का खेल होता है। पिताजी की मृत्यु के बाद कोई भी रिश्तेदार यह पूछने नहीं आया कि तुम मां बेटी कैसे अपना गुजारा करती हो या फिर किसी चीज की आवश्यकता को हम पूरा कर सकते हैं क्या? किसी तरह से वेदिका ने दसवीं की पढ़ाई कर ली गणित में  कंप्यूटर जैसा दिमाग पाई थी।

सिटी के एक किराने दुकान पर हिसाब किताब, समान का लेनदेन के लिए नौकरी करने लगी।

धीरे-धीरे यह यौवन की दहलीज चढ़ते जा रही थी। दुकानदार भी देख रहा कि वेदिका के समान लेनदेन से उसकी दुकान पर बहुत भीड़ होने लगी है। उसने एक दिन वेदिका से कहा.. अब तुम्हें कुछ और काम कर लेना चाहिए।

वेदिका इन बातों से अनजान दो-तीन वर्षों से उसके यहां काम कर रही थीं। उसने सोचा सेठ जी मुझे कुछ अच्छा काम करने के लिए कह रहे होंगे। उसने कहा ठीक है सेठ जी जैसा आप उचित समझे परंतु मुझे इस जोड़ घटाव हिसाब किताब में बहुत अच्छा लगता है। मुझे यही रहने दीजिए। सेठ जी ने कहा एक बार काम देख लो बाकी तुम्हें भी अच्छा लगेगा। मेरे यहां भी काम करते रहना। तुम्हारे लिए रहने का ठिकाना भी बन जाएगा और तुम बेघर होने से बच जाओगी। आराम से गुजर बसर करोगी अपनी माँ के साथ।

वेदिका उस जगह पर पहुंच गई। जहाँ सेठ जी ने बुलाया था। घर तो बड़ा खूबसूरत था।

सभी सुख-सुविधाओं का सामान दिख रहा था। सेठ जी के साथ चार व्यक्ति और भी बैठे हुए थे। जो देखने में अच्छे नहीं लग रहे थे परंतु वेदिका ने सोचा मुझे इससे क्या करना है मुझे तो अपना काम करना है। तभी सेठ ने कहा.. वही वेदिका है जो अब आप लोगों के साथ काम करेगी। सेठ के हाव भाव को देखकर वेदिका को अच्छा नहीं लगा। वेदिका ने कहा मुझे काम क्या करना है। सभी सेठ ने बाहर निकलते हुए कहा.. बाकी बातें अब यह बता देंगे।

वेदिका को समझते देर नहीं लगी कि वह बिक चुकी है। उसने बहुत ही धैर्य से काम की और बोली मैं अपना कुछ सामान बाहर छोड़ कर आ गई हूं। लेकर आती हूं। जैसे ही वह बाहर निकलना चाहा। किसी ने हाथ पकड़ापरंतु वेदिका की चुन्नी हाथ में आई।

और वेदिका दौड़ते हुए मकान से बाहर निकल चुकी थी। दौड़ते दौड़ते  माँ के पास आकर आँचल में छुप गई माँ को समझते देर न लगी। वह वेदिका  के सिर पर हाथ रखते हुए बोली बेटी हम बेघर ही सही बेआबरू नहीं है।

चल कहीं और चलते हैं यहां से दाना पानी उठ चुका है। वेदिका ने देखा माँ की कमजोर आंखों में एक अजीब सी चमक उठी है और मानों कह रही हो अभी तुम्हारी माँ का आँचल है तुम बेघर नहीं हुई हो।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 118 ☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘धूल छंट गई’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 118 ☆

☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

दादा जी! – दादा जी! आपकी छत पर पतंग आई है, दे दो ना !

दादा जी छत पर ही टहल रहे थे उन्होंने जल्दी से पतंग उठाई और रख ली।

हाँ यही है मेरी पतंग, दादा जी! दे दो ना प्लीज– वह मानों मिन्नतें करता हुआ बोला। लडके की तेज नजर चारों तरफ मुआयना भी करती जा रही थी कि कहीं कोई और दावेदार ना आ जाए इस पतंग का।

 वे गुस्से से बोले — संक्रांति आते ही तुम लोग चैन नहीं लेने देते हो। अभी और कोई आकर कहेगा कि यह मेरी पतंग है, फिर वही झगडा। यही काम बचा है क्या मेरे पास?  पतंग उठा – उठाकर देता रहूँ तुम्हें? नहीं दूंगा पतंग, जाओ यहाँ से। बोलते – बोलते ध्यान आया कि अकेले घर में और काम हैं भी कहाँ उनके पास? जब तक बच्चे थे घर में खूब रौनक रहा करती थी संक्रांति के दिन। सब मिलकर पतंग उडाते थे, खूब मस्ती होती थी। बच्चे विदेश चले गए और —

दादा जी फिर पतंग नहीं देंगे आप – उसने मायूसी से पूछा। कुछ उत्तर ना पाकर वह बडबडाता हुआ वापस जाने लगा – पता नहीं क्या करेंगे पतंग का, कभी किसी की पतंग नहीं देते, आज क्यों देंगे —

तभी उनका ध्यान टूटा — अरे बच्चे ! सुन ना, इधर आ दादा जी ने आवाज लगाई — मेरे पास और बहुत सी पतंगें हैं, तुझे चाहिए? 

हाँ आँ — वह अचकचाते हुए बोला।

तिल के लड्डू भी मिलेंगे पर मेरे साथ यहीं छ्त पर आकर पतंग उडानी पडेंगी – दादा जी ने हँसते हुए कहा।

लडके की आँखें चमक उठीं, जल्दी से बोला — दादा जी! मैं अपने दोस्तों को भी लेकर आता हूँ, बस्स – यूँ गया, यूँ आया। वह दौड पडा।

दादा जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बरसों से इकठ्ठी की हुई ढेरों पतंग और लटाई पर से धूल साफ कर रहे थे।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Short Stories ☆ ‘फीनिक्स…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Phoenix…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi short story “~ फीनिक्स ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स ??

भीषण अग्निकांड में सब कुछ जलकर खाक हो गया। अच्छी बात यह रही कि जान की हानि नहीं हुई पर इमारत में रहने वाला हरेक फूट-फूटकर बिलख रहा था। किसी ने राख हाथ में लेकर कहा, ‘सब कुछ खत्म हो गया!’ किसी ने राख उछालकर कहा, ‘उद्ध्वस्त, उद्ध्वस्त!’ किसी को राख के गुबार के आगे कुछ नहीं सूझ रहा था। कोई शून्य में घूर रहा था। कोई अर्द्धमूर्च्छा में था तो कोई पूरी तरह बेहोश था।

एक लड़के ने ठंडी पड़ चुकी राख के ढेर पर अपनी अंगुली से उड़ते फीनिक्स का चित्र बनाया। समय साक्षी है कि आगे चलकर उस लड़के ने इसी जगह पर एक आलीशान इमारत बनवाई।

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

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English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Phoenix ~ ??

Everything was burnt to ashes in a fierce fire. The good thing was that there was no loss of life, but everyone living in the building was crying uncontrollably. Someone took the ashes in hand and said, ‘Everything is over…!’ Someone tossed the ashes and said, ‘We’re destroyed, we’re destroyed…!’ No one could see anything beyond the massive cloud of ash. Someone was staring into the void. Some were in semi-consciousness state while some were completely unconscious.

A boy drew a flying phoenix with his finger on a pile of cooled ashes. Time is witness that later that boy built a state-of-the-art majestic building at that place.

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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