हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 227 ⇒ लेखन और अवचेतन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लेखन और अवचेतन।)

?अभी अभी # 227 ⇒ लेखन और अवचेतन… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

लेखन का संबंध सृजन से है,चेतना और विचार प्रक्रिया से है । पठन पाठन,अध्ययन,चिंतन मनन ,अनुभव और अनुभूति के प्रकटीकरण का माध्यम है लेखन,जिसमें वास्तविक घटनाओं एवं कल्पनाशीलता का भी समावेश होता है । एक अच्छे लेखक के लिए,एक अच्छी याददाश्त और अनुभवों का खजाना बहुत जरूरी है। अगर चित्रण रुचिकर ना हुआ,तो लेखन नीरस भी हो सकता है।

जिन लोगों का चेतन अधिक सक्रिय होता है, वे अच्छे लेखक बन जाते हैं लेकिन जिनका अवचेतन अधिक प्रबल होता है, वे केवल सपने ही देखते रह जाते हैं ।।

लेखन की ही तरह एक संसार सपनों का भी होता है,जहां कथ्य भी होता है,घटनाएं भी होती है,सस्पेंस,रोमांस और मर्डर मिस्ट्री,क्या नहीं होता अवचेतन के इस संसार में ! लेकिन अफसोस,यहां कर्ता केवल दृष्टा बनकर सोया होता है,मानो किसी ने उसके हाथ पांव बांधकर पटक दिए हों। जब इस लाइव टेलीकास्ट वाले एपिसोड का अंत आने वाला होता है,तब उसे सपने के अवचेतन के चंगुल से मुक्त कर होश में ला दिया जाता है। ना कोई डायरी ना कोई वीडियो शूटिंग,सब कुछ सपना सपना ।

सपना मेरा टूट गया । जागने पर चेतन मन अवचेतन की कड़ियों को जोड़ने की कोशिश जरूर करता है,लेकिन कामयाब नहीं होता,क्योंकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था। जागृत और सुषुप्तावस्था में यही तो अंतर है। सोते समय बहुत कुछ याद रहता है,जो अवचेतन को प्रभावित करता है,लेकिन जागने के बाद अवचेतन मन इतना प्रभावित नहीं करता। सपनों के सहारे कोई लेखक नहीं बना । केवल जाग्रत प्रयास से ही कई लेखकों के सपने सच हुए हैं और वे एक अच्छा लेखक बन पाए हैं ।।

लेखन साहित्य का विषय है मनोविज्ञान का नहीं , सपने और अवचेतन,मनोविज्ञान का विषय है,लेखन का नहीं । लोग कभी सपनों को गंभीरता से नहीं लेते,उनकी अधिक रुचि सपनों को सच करने में होती है,जो जाहिर है,कभी कभी सपने में भी सच हो जाती है,जब वे कहते हैं,मैने तो सपने में भी नहीं सोचा था, मैं एक सफल लेखक बन पाऊंगा ।

सपनों का एक लेखक के जीवन में कितना योगदान होता है,यह तो कोई लेखक ही बता सकता है। सुना है लेखन में एक लेखक को इतना आत्म केंद्रित होना पड़ता है कि भूख प्यास और नींद सब गायब हो जाती है। मुर्गी की तरह विचार अंडा देने को बेताब होते हैं और तब तक देते रहते हैं,जब तक सुबह मुर्गा बांग नहीं दे देता। उधर सूर्योदय और इधर हमारे सूर्यवंशी जी ऐसी तानकर सोते हैं कि आप चाहो तो घोड़े बिकवा लो।

सपना तो पास ही नहीं फटक सकता उनके और गहरी नींद के बीच ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 62 – देश-परदेश – हवाई हवा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 62 ☆ देश-परदेश – हवाई हवा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इन दिनों सब तरफ हवाई हवा छाई हुई हैं। हमारे देश में फुसतियों की आबादी दिन दोगुनी और रात चौगानी बढ़ रही हैं।

विगत दिन हवाई यात्रा के समय बहुत दुखद हुआ। पूरा देश सोशल मीडिया पर आकर  नाना प्रकार के msg का आदान प्रदान करने लगे। नव वर्ष/ दिवाली पर जितने बधाई संदेश कॉपी/ पेस्ट होते है, इस घटना को लेकर तो उससे कहीं अधिक msg व्हाट्स ऐप पर हम सबने पढ़े/ देखे।

एयर इंडिया के भी पुराने गड़े हुए विज्ञापन भी जनता ने खोद खोद कर ढूंढ निकाले। पुरानी बात हो, पुराने msg या पुरानी मदिरा हम लोग बहुत पसंद करते हैं।

विषय ये है कि मदिरा भेद भाव नहीं करती। गरीब, अनपढ़, अमीर, बुद्धिजीवी कोई भी उसकी शरण में जाता है, तो वो सबका होश छीन ही लेती हैं। चर्चा ये भी हुई इतना पढ़ा लिखा, विश्व के सबसे अच्छी संस्थानों में से एक में कार्यरत व्यक्ति इतनी गिरी हुई हरकत कैसे कर सकता हैं। दोष उसकी पढ़ाई और परवरिश को देना तो बेमानी होगा।

दोषी तो वो मदिरा है, उसकी बुराई सामाजिक मंचों पर नहीं के बराबर हुई। किसी मंच से ये आवाज नहीं उठी कि हवाई यात्रा में मदिरा पान प्रतिबंधित हो जाना चाहिए। इसके व्यय की राशि से यात्रा किराए में कमी भी हो सकती हैं।

मदिरा पान को अंतरराष्ट्रीय आवश्यकता का पैमाना बनाकर उसकी आड़ में हम में से बहुत सारे इसके सेवन के आदी हो चुके हैं।

अब आप कहेंगें हजारों वर्षों से हमारे समाज में मदिरा सेवन का जिक्र होता रहा हैं। सुर/असुर, राजा रजवाड़े, पूंजीवाद/ समाजवाद कोई भी काल रहा हो, मदिरा सेवन चलता रहा है, और चलता रहेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अक्स ? ?

कैसे चलती है क़लम

कैसे रच लेते हो रोज़?

खुद से अनजान हूँ

पता पूछता हूँ रोज़,

खुदको हेरता हूँ रोज़,

दर्पण देखता हूँ रोज़,

बस अपने ही अक्स

यों ही लिखता हूँ रोज़!

© संजय भारद्वाज 

( प्रातः 11:10 बजे, 6.6.2019 )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 226 ⇒ एक स्थगित शव – यात्रा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक स्थगित शव – यात्रा।)

?अभी अभी # 226 ⇒ एक स्थगित शव – यात्रा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

इंसान समय और परिस्थिति का गुलाम है, कब क्या हो जाए,कुछ कहा नहीं जा सकता। वक्त की चुनौतियां हमें अगर मजबूत बनाती हैं,तो कभी कभी कुछ कर गुजरने को मजबूर भी कर देती है।

शुभ अशुभ अवसर किसके जीवन में नहीं आते। हम बारिश,आंधी तूफान,भूकंप और कोरोना काल की बात नहीं कर रहे,किसी भी अपरिहार्य कारण से कई मंगल कार्य,स्वागत सम्मान समारोह,जन्मदिन,शोभा यात्रा और जुलूस तक स्थगित किए जा सकते हैं,लेकिन मृत्यु तो अटल है, चार कांधों की शवयात्रा कभी स्थगित नहीं की जा सकती।।

हर व्यक्ति के अपने अपने जीवन का अनुभव होता है,जिसमें घर गृहस्थी संभालना,मकान बनवाना और शादी ब्याह भी शामिल होता है। व्यक्तिगत प्रयास और सामूहिक सहयोग से आखिर बेड़ा पार लग ही जाता है। बीमारी और दुख के समय में भी अपने ही साथ देते हैं।

हाल ही में एक रात,मेरे साथ अचानक ऐसा कुछ अप्रत्याशित हुआ,जिसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं था। बात एक रात की तरह ही अचानक एक अज्ञात,अनजान महिला मेरे सामने चक्कर खाकर गिर पड़ी। इंसानियत के नाते मैं मदद को दौड़ा,तो मालूम पड़ा,वह तो मर चुकी है। मैं आपको पहले ही बता दूं,यह हकीकत नहीं एक सपना था,यानी मैं अवचेतन अवस्था में था।।

लेकिन मुझे इंसानियत के नाते कुछ तो करना ही था।

बहुत कोशिश की,सपने में हाथ पांव भी मारे,लेकिन उस महिला के बारे में कुछ पता नहीं चला। ऐसी परिस्थिति में विवेक से काम लिया जाता है,लेकिन सपने में कैसा विवेक। कुछ रायचंदों द्वारा मुझे सुझाया गया,आप ही इसकी अंतिम क्रिया अर्थात् अन्त्येष्टि की जिम्मेदारी उठा लें,और हम अवचेतन भगत,इसके लिए तुरंत तत्पर भी हो गए।

आनन फानन में गम का माहोल तैयार हो गया। और शवयात्रा का प्रबंध भी। सपने में सब कितना आसान होता है न,ना कोई प्रश्न और ना कोई प्रति प्रश्न। एकाएक ट्यूब लाइट जली,महिला लावारिस है,कानूनी पेचीदगी है,और हमें थाने वकील का नहीं, एस. पी. और कलेक्टर का खयाल आया।।

हम अवचेतन में भी पूरी तरह तनावग्रस्त हो चुके थे। ऐसे में कपड़ों और मोबाइल का भी होश नहीं ! सोचा सोसाइटी के साथियों का सहयोग ले ही लिया जाए। तभी ना जाने कहां से फोन की घंटी बजी और हमारे हाथ में मोबाइल भी आ गया। भोपाल से उसी महिला के कोई रिश्तेदार चिंतित और दुखी मुद्रा में बात कर रहे थे। यानी मेरे लिए एक राहत और आशा की किरण !

अच्छा भरा पूरा परिवार था महिला का। मैने सुझाव दिया, आपके आने तक हम इंतजार करते हैं,लेकिन इतने में ही,फोन नहीं कटा,हमारा सपना टूट गया,यानी हम बदहवास,अचानक जाग गए।

सपना टूटने के साथ ही हमारा उस दिवंगत महिला,और एंटायर परिवेश से भी संपर्क टूट गया,क्योंकि हम बैचेनी की नींद से,चैन से जाग गए थे। ऐसी अवस्था में जागकर इंसान सोचता है,अगर मैं नहीं जागता तो क्या होता। अब उस इंसान को कौन समझाए,अरे पगले,कुछ हुआ ही नहीं था। यह तो महज एक सपना था।

हुई ना एक स्थगित शवयात्रा ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 225 ⇒ आड़े तिरछे लोग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग।)

?अभी अभी # 225 ⇒ आड़े तिरछे लोग… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर दुनिया चमन होती,

तो वीराने कहां जाते

अगर होते सभी अपने

तो बेगाने कहां जाते ….

फूल और कांटों की तरह ही इस संसार में अगर सीधे सादे, भोले भाले लोग हैं, तो आड़े तिरछे लोग भी हैं। कहीं ब्रिटेनिया ५०-५०, तो कहीं कुरकुरे, कहीं डाइजेस्टिव तो कहीं हाजमोला। क्योंकि यह दुनिया का मेला है, झमेला नहीं। यहां हर इंसान थोड़ा टेढ़ा है, पर मेरा है।

ऊपरी तौर पर हर व्यक्ति एक नेक, शरीफ इंसान ही होता है, लेकिन जीवन का संघर्ष उसे हर कदम पर सबक सिखलाता चलता है। सत्य पर चलो, लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र मत बनते फिरो, अमन चैन से रहो, लेकिन इतना भी नहीं कि किसी ने एक गाल पर चांटा मारा, तो दूसरा भी पेश कर दो। रक्षा, प्रतिरक्षा, अन्याय और अत्याचार का जवाब सत्याग्रह से नहीं दिया जाता। शठे शाठ्यम् समाचरेत ! घी टेढ़ी उंगली से ही निकाला जाता है। ।

पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। घर हो या दफ्तर, कुछ काम बिना उठापटक के नहीं होते।

जो कार्यकुशल लोग होते हैं, वे साम, दाम, दंड, भेद से अपने सभी अच्छे बुरे कार्य आसानी से संपन्न करवा लेते हैं, लेकिन जो लकीर के फकीर होते हैं, वे अपने तरीके से ही काम करते हैं।

ऊपर से हर आदमी आदर्श का पुतला नजर आता है, पढ़ा लिखा, समझदार, व्यवहारकुशल, भला आदमी, लेकिन जब जीवन की जंग जीतनी पड़ती है, तो उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, कहां कहां झुकना, तनना, गिड़गिड़ाना और मुस्कुराना पड़ता है, यह वह ही जानता है। पीठ पीछे वार सहन भी करना पड़ता है और समय आने पर करना भी पड़ता है। ।

आदमी आड़ा तिरछा पैदा नहीं होता, दुनिया जब उसे नाच नचाती है, तब उसे आड़ा तिरछा होना ही पड़ता है। आड़े तिरछे को आप बांका भी तो कह सकते हैं। हमारे बांके बिहारी को ही देख लीजिए, दुनिया ने कब उन्हें सीधा रहने दिया। अगर दुनिया आपको नाचने को मजबूर करे, तो समझदारी इसी में है कि आप इस दुनिया को ही नचा दो।

क्या आपने किसी सीधे आदमी को, किसी को अपनी उंगलियों पर नचाते हुए देखा है। बेचारा सीधा आदमी तो भागवान की टेढ़ी नजर के इशारे पर ही झोला उठा सब्जी लेने बाजार चला जाता है। मजाल है, रास्ते में दस मिनिट दोस्तों के बीच गुजार ले। किस गरीब इंसान की पेशी नहीं होती, कभी घर में, तो कभी दफ्तर में। ।

फिल्म पड़ोसन में भी एक भोला था, और एक टेढ़ा मेढा चतुर नार वाला मद्रासी संगीत मास्टर। लेकिन भोला तब तक ही भोला रहा, जब तक वह बांगरू रहा। लेकिन जैसे ही चलचित्रम् किशोरकुमारम् का वह शागिर्द बना, उसने भी घोड़े को घास खिला ही दी, उसकी भी सामने वाली खिड़की खुल ही गई और सिंदूरी, माथेरी बिंदी, उसकी बिंदू बन गई। टेढ़े को कोई टेढ़ा ही सीधा कर सकता हैं। कांटा ही कांटे का इलाज है, लोहा ही लोहे को काटता है।

कौन कहता है आज आपसे, शराफत छोड़िए, लेकिन इतना भी सीधा मत बनिए कि कल से कोई भी आड़ा तिरछा इंसान आपके बारे में यह कहता फिरे, देखो मैंने उसे सीधा कर दिया न, बहुत अकड़ता था। ।

अखाड़े की तरह दुनिया में भी दांव पेंच चलते हैं। गए जमाने पंचशील की कहानियों के… 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 219 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 219 ☆ गीता सुगीता…. ? 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

अर्थात धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?

यह प्रश्न धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा था। यही प्रश्न श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम श्लोक भी है।

18 अध्यायों में विभक्त श्रीमद्भगवद्गीता 700 श्लोकों के माध्यम से जीवन के विभिन्न आयामों का दिव्य मार्गदर्शन है। यह मार्गदर्शन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञानकर्म-संन्यास योग, कर्म-संन्यास योग, आत्मसंयम योग, ज्ञान-विज्ञान योग, अक्षरब्रह्म योग, राजविद्याराजगुह्य योग, विभूति योग, विश्वरूपदर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुणत्रयविभाग योग, पुरुषोत्तम योग, दैवासुरसंपद्विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग, मोक्षसंन्यास योग द्वारा अभिव्यक्त हुआ है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी को गीता का ज्ञान दिया था। गीता जयंती इसी ज्ञानपुंज के प्रस्फुटन का दिन है। इस प्रस्फुटन की कुछ बानगियाँ देखिए-

1) यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचराम्।।

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इस श्लोक से स्पष्ट है कि हर जीव, परमात्मा का अंश है।

2) यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

3) न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थात न ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये सारे राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

इसे समझने के लिए मृत्यु का उदाहरण लें। मृत्यु अर्थात देह से चेतन तत्व का विलुप्त होना। आँखों दिखता सत्य है कि किसी एक पार्थिव के विलुप्त होने पर एक अथवा एकाधिक निकटवर्ती उसका प्रतिबिम्ब -सा बन जाता है।

विज्ञान इसे डीएनए का प्रभाव जानता है, अध्यात्म इसे अमरता का सिद्धांत मानता है। अमरता है, सो स्वाभाविक है कि अनादि है, अनंत है।

4) या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

सब प्राणियोंके लिए जो रात्रि के समान है, उसमें स्थितप्रज्ञ संयमी जागता है और जिन विषयों में सब प्राणी जाग्रत होते हैं, वह मुनिके लिए रात्रि के समान है ।

इसके लिए मुनि शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। मुनि अर्थात मनन करनेवाला, मननशील। मननशील कोई भी हो सकता है। साधु-संत से लेकर साधारण गृहस्थ तक।

मनन से ही विवेक उत्पन्न होता है। दिवस एवं रात्रि की अवस्था में भेद देख पाने का नाम है विवेक। विवेक से जीवन में चेतना का प्रादुर्भाव होता है। फिर चेतना तो साक्षात ईश्वर है। ..और यह किसी संजय का नहीं स्वयं योगेश्वर का उवाच है। इसकी प्रतीति देखिए-

5) वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

जिसने भीतर की चेतना को जगा लिया, वह शाश्वत जागृति के पथ पर चल पड़ा। जाग्रत व्यक्ति ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का अनुयायी होता है।

6) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

अर्थात कर्म करने मात्र का तुम्हारा अधिकार है, तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।

मनुष्य को सतत निष्काम कर्मरत रहने की प्रेरणा देनेवाला यह श्लोक जीवन का स्वर्णिम सूत्र है। सदियों से इस सूत्र ने असंख्य लोगों के जीवन को दिव्यपथ का अनुगामी किया है।

श्रीमद्भगवद्गीता के ईश्वर उवाच का शब्द-शब्द जीवन के पथिक के लिए दीपस्तंभ है। इसकी महत्ता का वर्णन करते हुए भगवान वेदव्यास कहते हैं,

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहै:।

या स्वंय पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ।।

(महा. भीष्म 43/1)

श्रीमद्भगवद्गीता का ही भली प्रकार से श्रवण, कीर्तन, पठन, पाठन, मनन एवं धारण करना चाहिए क्योंकि यह साक्षात पद्मनाभ भगवान के  मुख कमल से निकली है।

इस सप्ताह गीता जयंती है। इस अवसर पर श्रीमद्भगवद्गीता के नियमित पठन का संकल्प लें। अक्षरों के माध्यम से अक्षरब्रह्य को जानें, सृष्टि के प्रति स्थितप्रज्ञ दृष्टि उत्पन्न करें।

शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 224 ⇒ डाॅ अनोख सिंग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डाॅ अनोख सिंग।)

?अभी अभी # 224 ⇒ डाॅ अनोख सिंग… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ लोग अनोखे होते हैं तो कुछ लोगों के नाम में कुछ अनोखापन होता है, लेकिन डाॅ अनोख सिंग तो यथा नाम तथा गुण थे यानी एक अनोखे दिलचस्प इंसान। किसी व्यक्ति के आगे डॉक्टर लगते ही यह भ्रम हो जाता है कि जरूर वह कोई डॉक्टर होगा, और वाकई अनोख सिंग एक डॉक्टर ही थे।

भले ही जात न पूछो साधु की, लेकिन किसी डॉक्टर की डिग्री तो परख ही लेनी चाहिए। चिकित्सा एक व्यवसाय है और आजकल जितने रोग उतने डॉक्टर ! एलोपैथी की तरह ही कई समानांतर चिकित्सा आज उपल्ब्ध है, जिनमें एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर प्रमुख हैं। डा अनोख सिंग एक्यूपंक्चर चिकित्सा में पारंगत थे और दमा यानी अस्थमा का इलाज करने माह में एक बार भटिंडा से इंदौर आते थे। वे नियमित रूप से माह के हर पहले रविवार और सोमवार को आते मरीजों का इलाज करते थे। ।

उनके पास कोई जादू की छड़ी अथवा भभूत नहीं थी, लेकिन हां एक झोला जरूर था जिसमें कुछ सुइयां थीं, जो मरीजों को चुभाई जाती थी। डॉक्टर तो वैसे भी कसाई ही होते हैं, जब कि यह तो सिर्फ सुई ही चुभाता था। हमारे शरीर में हर बीमारी के कुछ पॉइंट्स होते हैं, जिनमें कहीं एक्यूप्रेशर काम करता है तो कहीं एक्यूपंक्चर।

सर्दी जुकाम, नजला और खांसी जब बेइलाज हो जाती है, तो वह सांस का रोग बन जाती है। कई इलाज हैं अस्थमा के एलोपैथी में ! गोली, इंजेक्शन, और सबसे अधिक कारगर इन्हेलर। बस मुंह खोलें और फुस फुस करते हुए दवा मुंह के अंदर। मछली की तरह तड़फता है एक दमे का रोगी, जब उसकी सांस उखड़ जाती है। एलर्जी टेस्ट से निदान में सहायता अवश्य मिलती है। कुछ लोग तो साउथ जाकर मछली का सेवन भी करने को तैयार हो जाते हैं तो कुछ आयुर्वेद पर भरोसा करते हैं। ।

अगर मैं भी सांस का शिकार ना होता तो शायद इस अनोखे इंसान से मिल भी नहीं पाता। किसी भुक्तभोगी सज्जन ने मुझे ना केवल इनकी जानकारी ही दी, एक दिन इनसे मेरा एक मरीज के रूप में परिचय भी करा दिया। छः फिट का एक आकर्षक खुशमिजाज सरदार, मानो अभी फौज से ही लौटकर आया हो।

नाम बताइए ? मैने अपना नाम बताया, पी के शर्मा !

उन्होंने मुझे घूरा अथवा निहारा, फिर बोले, महाराष्ट्र में हमें एक पी के झगड़े मिले थे, और हंस दिए।

हमारा उपचार शुरू हुआ, हमें भी छाती सहित कुछ जगह सुइयां चुभाई गई। खटमल मच्छर के काटने से थोड़ा अधिक दर्द भी महसूस हुआ, लेकिन असहनीय नहीं। केवल बीस मिनिट का खेल था सुइयां चुभाने का। हिदायतों का पिटारा लिए हमने उनसे विदा ली। ।

हम जहां भी गए हैं, अंध श्रद्धा नहीं, कुछ शंका लेकर ही गए हैं। सोचा अगर तत्काल असर ना भी हुआ तो अपनी दर्द निवारक सांस की गोली तो पास है ही। कुछ दिन तक हम अपनी सांस ढूंढते रहे लेकिन सांस ने उखड़ने से साफ इंकार कर दिया। हमें लगा डॉक्टर तेरा जादू चल गया।

अगले माह डॉक्टर ने फिर बुलाया था। मरीजों की भीड़ कहां नहीं, कितनी बीमारियां कितने रोग ! मुझे देखकर मुस्कुराए, कैसे हो झगड़े साहब ? यानी यहां मेरा नामकरण भी हो चुका था। अब मैं उनसे झगड़ा करने से तो रहा, क्योंकि उन्होंने मुझे पी.के.झगड़े के इतिहास के बारे में पहले ही बता दिया था। वे जितने आत्मीय थे, उतने ही मजाकिया भी।

हंसते हंसते सुइयां चुभाना कोई उनसे सीखे। ।

हर मरीज से उनका वार्तालाप बड़ा रोचक होता था। एक रिश्ता जो मन को भी मजबूत करे और रोगी में विश्वास का संचार करे। कई क्रॉनिक पेशेंट्स को स्ट्रेचर पर लाया जाता था, दूर दूर से रोगी इसी आस से आते थे, कि सांस में कुछ फायदा हो। लेकिन अगर हर डॉक्टर मसीहा ही होता तो शायद इस संसार में कोई रोगी ही नहीं होता।

हर व्यक्ति के जीवन में उतार चढ़ाव आते है, डाॅ अनोख सिंग भी आखिर थे तो एक इंसान ही। एक बार उन्हें लकवा मारा, फिर उठ खड़े हुए, बेटे की मौत का सदमा भी हंसते हंसते झेला, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी। जब भी वापस आते, उसी उत्साह और उमंग के साथ। जिस माह नहीं आते, मरीज निराश हो जाते। ।

मैं हमेशा उनके लिए मिस्टर पी.के.झगड़े ही रहा। हमेशा सबसे मेरा परिचय यही कहकर कराते, ये झगड़े साहब हैं, लेकिन कभी हमसे नहीं झगड़ते। कोरोना काल में उनका आना जो एक बार बंद हुआ तो हमेशा के लिए ही हो गया। कोरोना ने उनको भी नहीं छोड़ा।

आज जब भी कभी थोड़ी सांस उखड़ती है अथवा किसी अस्थमा के मरीज को देखता हूं, तो अनायास ही इस अनोखे इंसान की याद आ जाती है। कुछ सुइयां रिश्तों की भी होती हैं, जब याद आती है, बहुत चुभती है। एक ऐसा दर्द जो मर्ज को ही गायब कर दे। क्या इसे ही रिश्तों का मीठा दर्द कहते हैं, सुइयां चुभाने वाले डाॅ अनोख सिंग अगर आज होते, तो जरूर जवाब देते।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #210 ☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 210 ☆

☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆

‘आपका हर विचार, हर कथन व हर कार्य आपके  हस्ताक्षर होते हैं और जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अपने अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ यह वाक्य कोटिश: सत्य है, जिसमें ज़िंदगी का सार निहित है। मानव अपनी सोच व विचारों के लिए स्वयं उत्तरदायी है, क्योंकि वे ही कार्यों के रूप में प्रतिफलित होते हैं और आपके हस्ताक्षर बनते हैं। हम ही उन परिणामों के लिए उत्तरदायी भी होते हैं। गीता के कर्मफल का सिद्धांत, इसका अकाट्य प्रमाण है… ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान…वैसा ही भोगेगा इंसान।’ सो! मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहियें और वह शुभ कर्म तभी कर पाएगा, जब उसकी सोच सकारात्मक होगी… सोच तभी सकारात्मक होगी, जब वह नकारात्मकता के व्यूह से मुक्त होगा। ब्रह्मांड में दैवीय व राक्षसी शक्तियां अपने-अपने कार्य में लीन हैं अथवा संघर्षरत हैं… एक-दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेना चाहती हैं। यह मानव की प्रकृति व सोच पर निर्भर करता है कि वह शुभ-अशुभ में से किस ओर प्रवृत्त होता है। हम आधे भरे हुए गिलास को देख कर, उसके खाली होने पर चिंतित व निराश हो सकते हैं और सकारात्मक सोच के लोग उसे आधा भरा जान कर संतोष प्राप्त कर सकते हैं; अपने भाग्य की सराहना कर सकते हैं और प्रभु के शुक्रगुज़ार हो सकते हैं। सुखी व दु:खी होना तो हमारे जीवन के प्रति दृष्टिकोण और नज़रिये पर निर्भर करता है।

प्रकृति बहुत विशाल है और पल-पल रंग बदलती है।  हम गुलाब के मनोहारी सौंदर्य व उसकी खुशबू का आनंद ले सकते हैं, परंतु उसे कांटो से घिरा हुआ देखकर, नियति पर कटाक्ष भी कर सकते हैं। ओस पर पड़ी जल की बूंदों को, मोतियों के रूप में निहार कर, हम उस नियंता की कारीगरी की सराहना कर सकते हैं, दूसरी ओर संसार को दु:खालय समझ, ओस की बूंदों को प्रकृति के अश्रु-प्रवाह के रूप में अंकित कर सकते हैं। यह जीवन है… जहां सुख व दु:ख दोनों मेहमान हैं, बारी-बारी आते हैं और लौट जाते हैं, क्योंकि लंबे समय तक यहां कोई नहीं ठहर पाया। सो! मानव को सुख-दु:ख के आने पर खुशी व जाने का शोक नहीं मनाना चाहिए। प्रकृति का नियम अटल है और उसकी व्यवस्था निरंतर चलती रहती है। दिन-रात, अमावस-पूनम, पतझड़-वसंत सबका समय निश्चित है, निर्धारित है…जो आया है,  अवश्य जाएगा। ‘जब सुख नहीं रहा, तो दु:ख की औक़ात क्या’ जो वह सदैव बना रहेगा। हमें यह सोचकर अपने मन में मलिनता नहीं आने देनी चाहिए, क्योंकि यही सोच हमारी ज़िंदगी का आईना होती है और आईना कभी झूठ नहीं बोलता। शायद! इसीलिये चेहरे को मन का दर्पण कहा गया है, जो मन के भावों को उजागर कर देता है, उसकी हक़ीक़त बयान कर देता है तथा उसके अंतर्मन में वे भाव उसी रूप में परिलक्षित होने लगते हैं। यदि आप लाख परदों के पीछे छिप कर कोई ग़ुनाह करते हैं, तो वह भी परमात्मा के संज्ञान में होता है अर्थात् वह  सब जानता है। यह कोटिश: सत्य है कि उससे कोई भी बात छुपी नहीं रह सकती।

शायद! इसीलिए मानव को भाग्य-निर्माता की संज्ञा दी गई है, क्योंकि वह अपनी तक़दीर को किसी भी दिशा की ओर अग्रसर कर सकता है और वह उसके अथक परिश्रम व दृढ़-संकल्प पर निर्भर करता है। अब्दुल कलाम जी के शब्द इस भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘जो कठिन परिश्रम करते हैं, उन्हें मनचाहा फल शीघ्रता से प्राप्त हो जाता है और जो भाग्य के सहारे, हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहते हैं, उन्हें तो जो भाग्य में लिखा हुआ है अर्थात् शेष बचा हुआ ही प्राप्त होता है।’ सो! मानव को उस समय तक निरंतर कर्म-रत  रहना चाहिए, जब तक उसे इच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। इसके साथ ही मानव को खुली आंख से सपने देखने चाहियें और जब तक आप उन्हें साकार करने में सफल नहीं हो जाते, पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। सो! वे सपने एक दिन अवश्य फलित होंगे, क्योंकि साहसी लोगों की ज़िंदगी में कभी हार नहीं होती, वे सदैव विजयी होते हैं।

‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ इस संसार में असंभव कुछ है ही नहीं, क्योंकि असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में होता है। परंतु अपनी मंज़िल को प्राप्त करने हेतु मानव की दृष्टि सदा आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिएं, क्योंकि जब तक हमारी जड़ें ज़मीन से जुड़ी रहेंगी, मन में दैवीय गुण स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति, सहनशीलता आदि विद्यमान रहेंगे और हम मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे…मानव-मूल्यों के प्रति सदैव समर्पित रहेंगे। सो! समाज में आपका मान-सम्मान बना रहेगा। इस स्थिति में सब आपको नमन करेंगे और आपका अनुसरण करेंगे। मानव के आचार- विचार, उसकी शौहरत, कार्य-व्यवहार व व्यक्तित्व के गुण… व्यक्ति के पहुंचने से पहले उस स्थान पर पहुंच जाते हैं…यह शाश्वत सत्य है।

आइए! इस विषय पर चिंतन-मनन करें कि ‘जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ वास्तव में जब तक हमारे अंतर्मन में नकारात्मक भाव विद्यमान रहते हैं; हम उनके शिकंजे से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! उस स्थिति में हमारी दशा जहाज़ के उस पक्षी की भांति होती है, जिसे दूर-दराज़ तक केवल जल ही जल दिखाई देता है और असहाय दशा में वह बार-बार उसी जहाज़ पर लौट आता है। इसी प्रकार नकारात्मक विचार हमारे मन के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं और उससे अलग हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते… अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति व संकुचित दृष्टि से इतर कुछ भी देख नहीं पाते। मानव अपनी सोच के अनुसार स्वयं को, कोल्हू के बैल की भांति उसके आसपास चक्कर लगाता हुआ अर्थात् उस व्यूह के आसपास घूमता हुआ पाता है। हां! वह अनुभव तो करता है, परंतु उससे बाहर नहीं झांकता और वह स्थिति मानव की नियति बन जाती है। जब तक हम दूरदर्शिता नहीं रखेंगे, हमारा दृष्टिकोण विशाल नहीं हो पाएगा और हम उसी स्थिति में अर्थात् कूप-मंडूक बने रहेंगे। यदि हम जीवन में कुछ करना चाहते हैं, तो हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा। उसके लिए हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी होगी, बल्कि स्वयं पर भरोसा कर, लक्ष्य-प्राप्ति का हर संभव प्रयास करना होगा।

यह है आत्मविश्वास का दूसरा रूप…यदि हमारा निश्चय दृढ़ है, इरादा अटल है और हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास है, तो दुनिया की कोई ताकत हमारे पथ की बाधा नहीं बन सकती… अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। सो! आत्मविश्वास के साथ आवश्यकता है…दृढ़ निश्चय व अथक परिश्रम की, क्योंकि किस्मत व हौसलों की जंग में, विजय सदैव हौसलों की होती है और उस स्थिति में भाग्य भी उनके सम्मुख घुटने टेक देता है। यदि आप में साहस है, तो आप यथाशक्ति निर्देश देकर स्वयं को भी नियंत्रित कर सकते हैं और अपने भाग्य को जैसा चाहें, निर्मित कर सकते हैं । व्यवहार हमारे मस्तिष्क का आईना होता है। आईना सत्य का प्रतीक है, जिसमें सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, सब उसके यथार्थ  रूप में झलकता है तथा वह स्वयं से मुलाक़ात अथवा साक्षात्कार कराता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि ‘मानव को अपनी तुलना कभी भी दूसरों से नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमात्मा ने पृथ्वी पर आप जैसा दूसरा इंसान बनाया ही नहीं।’ इसलिए खुद पर विश्वास कर, दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि आप स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं, भाग्य-निर्माता हैं। आपकी सोच आपके मस्तिष्क की उपज होती है, जो आपके कार्य -व्यवहार में झलकती है और आपके विचार, कथन व कार्य आपके हस्ताक्षर होते हैं, जिसके उत्तरदायी आप स्वयं होते हैं। इसलिए सदैव सकारात्मक सोच को जीवन में धारण कर, अपने जीवन को श्रेष्ठ व अनुकरणीय बनाइए, क्योंकि मानव जीवन के समान समय भी अत्यंत अनमोल व दुर्लभ है। आप सारे जहान की दौलत की एवज़ में, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकते। सो! हर पल का सदुपयोग कीजिए, अपने मालिक स्वयं बनिये, अपने निर्णय लेने का अधिकार, दूसरों को मत सौंपिये और स्वतंत्रता व आनंद से अपना जीवन बसर कीजिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 223 ⇒ लिफाफा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिफाफा…।)

?अभी अभी # 223 ⇒ लिफाफा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Enve..lope*

खत का मजमून भांप लेते थे जो कभी लिफाफा देखकर, उन्हें आजकल कोई खत ही नहीं लिखता ! वैसे तो खाली लिफाफे का कोई वजूद नहीं, फिर भी लिफाफा आखिर लिफाफा ही होता है।

चिट्ठी वह, जिसमें मजमून हो, लिफाफा वह जिसमें कुछ शगुन हो। नकद को नजर जल्द लग जाती है, लिफाफे में इज्जत रह जाती है। लिफाफे की साइज नहीं, वजन देखा जाता है। कुछ बड़े बड़े नोटों ने जरूर बीच में लिफाफे की साइज बढ़ाने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन नोटबंदी ने सब कुछ संभाल लिया।।

याद आते हैं, बाबा आदम के जमाने के दस दस और सौ सौ रुपए के बड़े बड़े नोट, जो लिफाफों में फूले न समाए फिरते थे और आम आदमी बेचारा सवा, दो, पांच और ग्यारह रुपए के शगुन से ही शादियां निपटाया करता था।

दो और पांच रुपया आज सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन हमारे जमाने तक तो सरकार ने बीस और पचास रुपए के नोट छापकर हमें भी इस धर्मसंकट से मुक्त कर दिया था। शादी का निमंत्रण आने के पहले से ही ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन और एक सौ एक, के कड़क नोट लिफाफे में तैयार रख लिए जाते थे। अब किसको क्या मिला, यह मुकद्दर की नहीं, उसके और हमारे स्टेटस की बात है।।

अगर शादियों में जाना है, तो स्टेज पर तो जाना ही पड़ता है। खाली हाथ भी कभी कोई दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देता है, ससुरे वीडियो तक बना लेते हैं आजकल। आपका आशीर्वाद ही उपहार है, और वे भी जानते हैं आशीर्वाद खाली हाथ नहीं दिया जाता। गुलदस्ता भी हार फूल ही तो है, उपहार तो बनता ही है आखिर।

सामने वाला तो आजकल दिल खोलकर शादी में खर्च करता है, लेकिन हमें भी तो कई शादियां निपटानी हैं। सोच समझकर लिफाफा बनाना पड़ता है। कब इक्कावन एक सौ एक हो गया और कब एक सौ एक, पांच सौ, कुछ पता ही नहीं चला। बीच में कोई सम्मानजनक आंकड़ा भी नहीं, जहां थोड़ा सुस्ता लिया जाय, भैया वाजबी लगा लो। २५१ के भी कुछ लिफाफे बने, लेकिन बात नहीं बनी। सामने वाला भी सोचने लगे, यहां भी फिफ्टी फिफ्टी। चार लोग आए, चार चार सौ की चार प्लेट खाकर चले गए।।

दर्पण भले ही झूठ ना बोले, लेकिन लिफाफा कभी मुंह ना खोले। दूल्हा दुल्हन के साथ स्टेज पर आशीर्वाद स्वरूप उपहार संग्रह करने वाली अक्सर बहन अथवा सहेली ही हुआ करती है। उपहारों और लिफाफों का ढेर लग जाता है, जिसे बाद में पारखी नजरों से पहले टटोला जाता है। और सबसे आखिर में लिफाफों की जांच पड़ताल होती है।

खुल जा सिम सिम! नाम नोट करो भाई, किसने क्या दिया है, वापस लौटाते वक्त खयाल रखना पड़ता है। तेरा तुझको अर्पण। लिफाफे नहीं हुए, कच्चे चिट्ठे हो गए। शर्मा जी और इक्यावन ? शर्म नहीं आई, महंगी आइसक्रीम खाते और पान चबाते। बस चले तो इनकी लड़की की शादी में खाली लिफाफा ही टिका दें। बड़े, बड़े बाबू बने फिरते हैं दफ्तर में।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 223 ⇒ अच्छा बनना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अच्छा बनना।)

?अभी अभी # 223 अच्छा बनना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक कप अच्छी चाय बनाना ! चाय अच्छी बननी चाहिए। हर इंसान भी चाय की तरह अच्छा बनना चाहता है। मैंने लोगों को बुरी चाय को फेंकते भी देखा है। ऐसे लोग बुरे इंसानों को भी अपने जीवन से निकाल फेंकते हैं। क्या ऐसे लोग खुद अच्छे हैं, इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं।

कोई यह कहने को तैयार नहीं कि वह बुरा है। इसका तो यही मतलब हुआ कि सभी अच्छे हैं, जगत में कोई बुरा नहीं। फिर ये बुरे लोग और बुराई कहां है। मत पूछो बुराई कहां नहीं। लोग बहुत बुरे हैं, ज़माना बहुत बुरा है। हमारे जैसे अच्छे लोगों के रहने लायक बिल्कुल नहीं। क्या आपको किसी में बुराई नजर नहीं आती। कैसे आदमी हो। ।

‌लगता है, हमारा जन्म ही एक अच्छे इंसान बनने के लिए हुआ है। बड़े भाग मानुष तन पाया। बच्चे कितने अच्छे होते हैं। उन्हें अच्छा बनना नहीं पड़ता। लेकिन जैसे जैसे वे बड़े होते जाते हैं, हम उन्हें अच्छा बनाने में लग जाते हैं। पढ़ोगे लिखोगे, बनोगे नवाब ! खेलने कूदने से बच्चे खराब हो जाते हैं, अब विराट और धोनी को इस उम्र में कौन समझाए। वे तो खेल कूदकर ही नवाब बने हैं।

एक अच्छा आदमी बनने के लिए शिक्षा दीक्षा ज़रूरी है। जिन बच्चों में अच्छे संस्कार होते हैं, वे अच्छे इंसान बनते हैं और बुरे संस्कार वाले बुरे आदमी। हमारे संस्कार देखो, हम कितने अच्छे आदमी है। अब और कितना अच्छा बनें। अच्छा होना ज़रूरी नहीं, अच्छा बनना ज़रूरी है। वैसे भी आजकल ज़्यादा अच्छाई का ज़माना नहीं है भाई साहब। ।

केवल कबीर जैसे संत ही यह कहते पाए गए हैं, बुरा जो देखन मैं चला, मुझसे बुरा न कोय। और हमारा आलम यह है कि अच्छा जो देखन मैं चला, मुझसे भला न कोय। पर्सनालिटी डेवलपमेंट वाले ने समझाया है, मन में हमेशा यह कहते रहो, I am the best. I am the best. मुझसे अच्छा कौन है।

अपने आसपास देखिए, स्कूल कॉलेज, मंदिर मस्जिद, गुरुद्वारा, संत महात्मा, अदालत, पुलिस, कानून, कथा कीर्तन, समाज सेवी और राजनेता, प्रवचनकार, सभी हमें अच्छा बनाने पर तुले हैं, क्या हम इतने बुरे है। हम तो अच्छे हैं, फिर क्यों ये हमारे पीछे पड़े है। जो सबक बचपन में मास्टरजी देते थे, वह आज भी याद है। सदा सत्य का आचरण करो। कभी झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, एक अच्छे इंसान बनो। और लो जी, हम एक अच्छे इंसान बन गए। ।

आज जिसे हम बायो डाटा अथवा रिज्यूम कहते हैं, पहले नौकरियों के लिए टेस्टीमोनियल्स लगते थे। मार्क शीट और डिग्री की कॉपी और अन्य उपलब्धियों के साथ एक चरित्र प्रमाण – पत्र भी नत्थी किया जाता था। जिसका मजमून कुछ इस प्रकार का होता था। मैं इन्हें पिछले दस वर्षों से जानता हूं। आप एक मेहनती और ईमानदार इंसान हैं। और अंत में शुद्ध हिन्दी में ; He bears a good moral character.

क्या बनने में और होने में कोई फ़र्क होता है। क्या हम एक अच्छे इंसान नहीं, केवल बनते हैं इसका जवाब सिर्फ हमारे पास है। इस संसार में ऐसी कोई कसौटी नहीं, जो आपको अच्छा या बुरा इंसान साबित कर सके। बस अपने अंदर झांकिए, आपको जवाब मिल जाएगा। जब आप पर झूठे आरोप लगते हैं, आप लोगों की निगाह में बुरे साबित हो जाते हैं। कुछ अपराधी भी अदालत द्वारा निर्दोष बताए जाने पर छूट जाते हैं। किसी के चेहरे पर कुछ लिखा नहीं। फिर भी किसी का नाम है, और कोई बदनाम है।

अगर आप अच्छे हैं, तो बनने की कोशिश मत कीजिए। अगर नहीं हैं तो बन जाइए। बुरा इंसान किसी को अच्छा नहीं लगता। अब इस उम्र में तो सुधरने से रहे। साफ सुथरे कपड़े पहनिए, लोगों से प्रेम से व्यवहार कीजिए। लेकिन अगर कोई आपके साथ बेईमानी करे, आपको धोखा दे, आपकी बदनामी करे, तो उसे सबक सिखाइए। ज़्यादा अच्छा बनने की भी ज़रूरत नहीं है। तुमने मेरी अच्छाई ही देखी है, अब मेरा असली रूप भी देख लो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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