डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 210 ☆

☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆

‘आपका हर विचार, हर कथन व हर कार्य आपके  हस्ताक्षर होते हैं और जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अपने अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ यह वाक्य कोटिश: सत्य है, जिसमें ज़िंदगी का सार निहित है। मानव अपनी सोच व विचारों के लिए स्वयं उत्तरदायी है, क्योंकि वे ही कार्यों के रूप में प्रतिफलित होते हैं और आपके हस्ताक्षर बनते हैं। हम ही उन परिणामों के लिए उत्तरदायी भी होते हैं। गीता के कर्मफल का सिद्धांत, इसका अकाट्य प्रमाण है… ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान…वैसा ही भोगेगा इंसान।’ सो! मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहियें और वह शुभ कर्म तभी कर पाएगा, जब उसकी सोच सकारात्मक होगी… सोच तभी सकारात्मक होगी, जब वह नकारात्मकता के व्यूह से मुक्त होगा। ब्रह्मांड में दैवीय व राक्षसी शक्तियां अपने-अपने कार्य में लीन हैं अथवा संघर्षरत हैं… एक-दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेना चाहती हैं। यह मानव की प्रकृति व सोच पर निर्भर करता है कि वह शुभ-अशुभ में से किस ओर प्रवृत्त होता है। हम आधे भरे हुए गिलास को देख कर, उसके खाली होने पर चिंतित व निराश हो सकते हैं और सकारात्मक सोच के लोग उसे आधा भरा जान कर संतोष प्राप्त कर सकते हैं; अपने भाग्य की सराहना कर सकते हैं और प्रभु के शुक्रगुज़ार हो सकते हैं। सुखी व दु:खी होना तो हमारे जीवन के प्रति दृष्टिकोण और नज़रिये पर निर्भर करता है।

प्रकृति बहुत विशाल है और पल-पल रंग बदलती है।  हम गुलाब के मनोहारी सौंदर्य व उसकी खुशबू का आनंद ले सकते हैं, परंतु उसे कांटो से घिरा हुआ देखकर, नियति पर कटाक्ष भी कर सकते हैं। ओस पर पड़ी जल की बूंदों को, मोतियों के रूप में निहार कर, हम उस नियंता की कारीगरी की सराहना कर सकते हैं, दूसरी ओर संसार को दु:खालय समझ, ओस की बूंदों को प्रकृति के अश्रु-प्रवाह के रूप में अंकित कर सकते हैं। यह जीवन है… जहां सुख व दु:ख दोनों मेहमान हैं, बारी-बारी आते हैं और लौट जाते हैं, क्योंकि लंबे समय तक यहां कोई नहीं ठहर पाया। सो! मानव को सुख-दु:ख के आने पर खुशी व जाने का शोक नहीं मनाना चाहिए। प्रकृति का नियम अटल है और उसकी व्यवस्था निरंतर चलती रहती है। दिन-रात, अमावस-पूनम, पतझड़-वसंत सबका समय निश्चित है, निर्धारित है…जो आया है,  अवश्य जाएगा। ‘जब सुख नहीं रहा, तो दु:ख की औक़ात क्या’ जो वह सदैव बना रहेगा। हमें यह सोचकर अपने मन में मलिनता नहीं आने देनी चाहिए, क्योंकि यही सोच हमारी ज़िंदगी का आईना होती है और आईना कभी झूठ नहीं बोलता। शायद! इसीलिये चेहरे को मन का दर्पण कहा गया है, जो मन के भावों को उजागर कर देता है, उसकी हक़ीक़त बयान कर देता है तथा उसके अंतर्मन में वे भाव उसी रूप में परिलक्षित होने लगते हैं। यदि आप लाख परदों के पीछे छिप कर कोई ग़ुनाह करते हैं, तो वह भी परमात्मा के संज्ञान में होता है अर्थात् वह  सब जानता है। यह कोटिश: सत्य है कि उससे कोई भी बात छुपी नहीं रह सकती।

शायद! इसीलिए मानव को भाग्य-निर्माता की संज्ञा दी गई है, क्योंकि वह अपनी तक़दीर को किसी भी दिशा की ओर अग्रसर कर सकता है और वह उसके अथक परिश्रम व दृढ़-संकल्प पर निर्भर करता है। अब्दुल कलाम जी के शब्द इस भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘जो कठिन परिश्रम करते हैं, उन्हें मनचाहा फल शीघ्रता से प्राप्त हो जाता है और जो भाग्य के सहारे, हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहते हैं, उन्हें तो जो भाग्य में लिखा हुआ है अर्थात् शेष बचा हुआ ही प्राप्त होता है।’ सो! मानव को उस समय तक निरंतर कर्म-रत  रहना चाहिए, जब तक उसे इच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। इसके साथ ही मानव को खुली आंख से सपने देखने चाहियें और जब तक आप उन्हें साकार करने में सफल नहीं हो जाते, पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। सो! वे सपने एक दिन अवश्य फलित होंगे, क्योंकि साहसी लोगों की ज़िंदगी में कभी हार नहीं होती, वे सदैव विजयी होते हैं।

‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ इस संसार में असंभव कुछ है ही नहीं, क्योंकि असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में होता है। परंतु अपनी मंज़िल को प्राप्त करने हेतु मानव की दृष्टि सदा आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिएं, क्योंकि जब तक हमारी जड़ें ज़मीन से जुड़ी रहेंगी, मन में दैवीय गुण स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति, सहनशीलता आदि विद्यमान रहेंगे और हम मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे…मानव-मूल्यों के प्रति सदैव समर्पित रहेंगे। सो! समाज में आपका मान-सम्मान बना रहेगा। इस स्थिति में सब आपको नमन करेंगे और आपका अनुसरण करेंगे। मानव के आचार- विचार, उसकी शौहरत, कार्य-व्यवहार व व्यक्तित्व के गुण… व्यक्ति के पहुंचने से पहले उस स्थान पर पहुंच जाते हैं…यह शाश्वत सत्य है।

आइए! इस विषय पर चिंतन-मनन करें कि ‘जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ वास्तव में जब तक हमारे अंतर्मन में नकारात्मक भाव विद्यमान रहते हैं; हम उनके शिकंजे से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! उस स्थिति में हमारी दशा जहाज़ के उस पक्षी की भांति होती है, जिसे दूर-दराज़ तक केवल जल ही जल दिखाई देता है और असहाय दशा में वह बार-बार उसी जहाज़ पर लौट आता है। इसी प्रकार नकारात्मक विचार हमारे मन के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं और उससे अलग हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते… अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति व संकुचित दृष्टि से इतर कुछ भी देख नहीं पाते। मानव अपनी सोच के अनुसार स्वयं को, कोल्हू के बैल की भांति उसके आसपास चक्कर लगाता हुआ अर्थात् उस व्यूह के आसपास घूमता हुआ पाता है। हां! वह अनुभव तो करता है, परंतु उससे बाहर नहीं झांकता और वह स्थिति मानव की नियति बन जाती है। जब तक हम दूरदर्शिता नहीं रखेंगे, हमारा दृष्टिकोण विशाल नहीं हो पाएगा और हम उसी स्थिति में अर्थात् कूप-मंडूक बने रहेंगे। यदि हम जीवन में कुछ करना चाहते हैं, तो हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा। उसके लिए हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी होगी, बल्कि स्वयं पर भरोसा कर, लक्ष्य-प्राप्ति का हर संभव प्रयास करना होगा।

यह है आत्मविश्वास का दूसरा रूप…यदि हमारा निश्चय दृढ़ है, इरादा अटल है और हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास है, तो दुनिया की कोई ताकत हमारे पथ की बाधा नहीं बन सकती… अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। सो! आत्मविश्वास के साथ आवश्यकता है…दृढ़ निश्चय व अथक परिश्रम की, क्योंकि किस्मत व हौसलों की जंग में, विजय सदैव हौसलों की होती है और उस स्थिति में भाग्य भी उनके सम्मुख घुटने टेक देता है। यदि आप में साहस है, तो आप यथाशक्ति निर्देश देकर स्वयं को भी नियंत्रित कर सकते हैं और अपने भाग्य को जैसा चाहें, निर्मित कर सकते हैं । व्यवहार हमारे मस्तिष्क का आईना होता है। आईना सत्य का प्रतीक है, जिसमें सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, सब उसके यथार्थ  रूप में झलकता है तथा वह स्वयं से मुलाक़ात अथवा साक्षात्कार कराता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि ‘मानव को अपनी तुलना कभी भी दूसरों से नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमात्मा ने पृथ्वी पर आप जैसा दूसरा इंसान बनाया ही नहीं।’ इसलिए खुद पर विश्वास कर, दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि आप स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं, भाग्य-निर्माता हैं। आपकी सोच आपके मस्तिष्क की उपज होती है, जो आपके कार्य -व्यवहार में झलकती है और आपके विचार, कथन व कार्य आपके हस्ताक्षर होते हैं, जिसके उत्तरदायी आप स्वयं होते हैं। इसलिए सदैव सकारात्मक सोच को जीवन में धारण कर, अपने जीवन को श्रेष्ठ व अनुकरणीय बनाइए, क्योंकि मानव जीवन के समान समय भी अत्यंत अनमोल व दुर्लभ है। आप सारे जहान की दौलत की एवज़ में, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकते। सो! हर पल का सदुपयोग कीजिए, अपने मालिक स्वयं बनिये, अपने निर्णय लेने का अधिकार, दूसरों को मत सौंपिये और स्वतंत्रता व आनंद से अपना जीवन बसर कीजिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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