हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 58 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – बड़ा उपन्यास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 58 

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – बड़ा उपन्यास ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपके बहुत सारे पाठकों-प्रशंसकों से की प्रबल इच्छा रही है कि छोटे-आकार-प्रकार वाले लेखों-टिप्पणियों में जिनमें स्तम्भ लेखन भी शामिल है, से मुक्त होकर अब आपको कोई बड़ा उपन्यास या नाटक या ऐसी ही कोई और चीज लिखनी चाहिए, कोई ऐसी रचना जिसमें समकालीन जीवन अपेक्षाकृत अधिक विविधता और सम्पूर्णता के साथ एक जगह चित्रित हो सके, इस इच्छा में क्या आप स्वंय को भी शामिल मानते हैं ?

हरिशंकर परसाई –

हां, मुझसे अपेक्षा तो बहुत पहले से की जा रही है, मैं उस तरह का उपन्यास, जिसको परंपरागत उपन्यास कहते हैं, उसको तो नहीं लिख सकता। मुझमें वह टेलेंट नहीं है और जैसा कि मैंने आपसे कहा कि मैं एक फेन्टेसी उपन्यास लिख सकता हूं, जिसमें सभी क्षेत्र आ जावें जीवन के, और कोशिश भी कर रहा था उसके लिए…..अब इस अवस्था में जबकि मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता, क्षीणता भी आ गई है, मैं उतनी मेहनत भी नहीं कर पाता….उम्र भी 71 साल के लगभग हो रही है, मैं कोई उपन्यास बड़ा लिख सकूंगा उसकी मुझे अभी संभावना तो नहीं दिखती है। हो सकता है कि कुछ परिस्थितियां पलटें और मैं लिखूं। लिखना जरूर चाहता हूँ, लेकिन फिर या तो किसी व्यक्ति को लेकर, उसके जीवन पर आधारित उपन्यास, जिसमें और भी बहुत से पात्र आ जावेंगे, उसमें समाज का चित्रण हो सकेगा या फिर वौ एक लम्बी फेन्टेसी होगी उपन्यास के रूप में। मैं आशा करता हूं कि जैसी अपेक्षा है मुझसे, इस तरह का एक बड़ा उपन्यास लिखूं……

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 10 ☆ कोरोना काळातील संवेदना…☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “कोरोना काळातील संवेदना…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 10 ☆ 

☆ कोरोना काळातील संवेदना… 

 

कोरोना काळातील संवेदना

कैसी विशद करावी

अनपेक्षित या विपदेची

भरपाई कैसी मिळावी…१

 

विदेशी संक्रमण झाले

नेस्तनाबूत करून गेले

पडल्या प्रेताच्या राशी

अंत्यविधी, हात न लागले… २

 

मातृभूमी आठवताच

पदयात्रा कुठे निघाली

उपवास घडले अनेकांना

कित्येकांची कोंडमारी झाली… ३

 

अजगर रुपी विषाणू

मजूर वर्ग, हकनाक संपला

शेवटचे स्वप्न, रात्र न पुरली

रक्त, मांस सडा, शिंपल्या गेला… ४

 

आईचा पान्हा जसा आटला

अवकाळी देह पार्थिव बनला

स्वार्थ मोह, क्षणात सुटता

शेवटचा श्वास, कुणी घेतला… ५

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 60 ☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘पटरी से उतरी व्यवस्था’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से पटरी से उतरी व्यवस्था और व्यवस्था को पटरी से उतारने के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 60 ☆

☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था

वे दोनों मेरे पुराने मित्र थे। धंधे के सिलसिले में मेरे शहर आते जाते रहते थे। वे समझदार लोग थे, मेरे जैसे गावदी नहीं थे। उन्होंने ज़माने को पकड़ लिया था, मैं ज़माने की दुलत्तियाँ सहते सहते अधमरा हो रहा था। उन पर लक्ष्मी की कृपा थी,मेरे सरस्वती-मोह ने लक्ष्मी जी को हमेशा मुझसे दो हाथ दूर रखा था। वे अपनी हैसियत के हिसाब से होटल में रुकते थे, धंधे से निपट कर वक्त गुज़ारने के लिए मेरे घर आ जाते थे।

उस शाम वे आये तो मगन थे। बोले, ‘दो तीन सरकारी इमारतों का ठेका मिलना है। पिछली बार आये थे तो अफ़सरों से बात हो गयी थी। पक्का वादा मिल गया था। मंत्री जी से भेंट हो गयी थी। उनका आशीर्वाद भी मिल गया था। इस बार पूरी तैयारी से आये हैं।’

उन्होंने गोद में रखा ब्रीफ़केस बजाया। मैं समझ गया कि उसमें लक्ष्मी जी कैद हैं।

वे बोले, ‘यहाँ यह बहुत अच्छा है कि सही रास्ता पकड़ लिया जाए तो फिर कोई परेशानी नहीं होती। हाँ,सही रास्ते की खोज में ही थोड़ी दिक्कत होती है,लेकिन एक बार मिल गया तो फिर गाड़ी अपने आप चलने लगती है। फिर तो अफ़सर खुद ही टेलीफोन करके बुलाने लगते हैं। हम अगर अफ़सरों और मंत्रियों से बेईमानी न करें तो वे पूरी ईमानदारी से साथ देते हैं। नीयत साफ रहना बहुत ज़रूरी है। ‘
मैंने सहमति में सिर हिलाया।

वे बोले, ‘नीयत में खोट न हो तो सब काम आराम से चलता जाता है। पेमेंट टाइम से मिल जाता है,और जो दिक्कतें हों उन्हें दूर करने में सबकी मदद मिलती है। सब काम प्यार मुहब्बत से चलता है। दूसरी जगहों जैसी बेईमानी यहाँ नहीं होती। वहाँ तो पैसा लेने के बाद भी काम होने की कोई गारंटी नहीं होती। ‘
दूसरी शाम वे आये तो उनके मुँह लटके हुए थे। माथे का पसीना पोंछते हुए बोले, ‘यहाँ तो सब गड़बड़ हो गया। कोई अफ़सर हाथ नहीं धरने देता। ऐसे बिदकते हैं जैसे हम प्लेग या एड्स के मरीज़ हों। मंत्री ने पहचानने से इनकार कर दिया। सब महतमा गांधी हो गये। ‘

मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या

हुआ?’

वे बोले, ‘हमारी समझ में आये तो बताएं। सुना है कि हाल में मंत्रियों अफ़सरों पर सी.बी.आई. के. छापे पड़े हैं। उसी से सब गड़बड़ हुआ है। ‘

मैंने कहा, ‘हाँ,अखबारों में पढ़ा तो था। ‘

वे माथे पर हाथ धर कर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया कि मंत्रियों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। अब आप बताइए ऐसे में कौन काम करेगा और कैसे कमाई करेगा?’

मैंने हमदर्दी के स्वर में कहा, ‘चिन्ता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा। जब वे दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे।’

वे कृतज्ञ भाव से मेरी तरफ देखकर बोले, ‘यही उम्मीद है, लेकिन अफसोस तो होता ही है कि ऐसी बढ़िया चल रही व्यवस्था खटाई में पड़ गयी। किसी चीज़ को बनाने में सालों लग जाते हैं, लेकिन बिगाड़ने में मिनट भी नहीं लगते। ‘

मैंने उनके दुख में अपना दुख मिलाते हुए कहा, ‘इसमें क्या शक है!’

वे शून्य में आँखें गड़ाकर जैसे अपने आप से बोले, ‘आहा! क्या सिस्टम था। एकदम ‘वेल आइल्ड’, एकदम ‘परफेक्ट’। ‘

मैंने कहा, ‘ऐसे सिस्टम को ‘वेल आइल्ड’ न कहकर ‘वेल ग्रीज़्ड’ कहना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी में रिश्वत के लिए ‘ग्रीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘

वे कुछ अप्रतिभ होकर बोले, ‘कुछ भी कहिए, काम होना चाहिए। चाहे तेल से हो, चाहे ग्रीज़ से। जब काम ही नहीं होना है तो तेल क्या और ग्रीज़ क्या। काम नहीं होगा तो देश आगे कैसे बढ़ेगा और लोग ख़ुशहाल कैसे होंगे?’

मैंने कहा, ‘ठीक कहते हैं। ‘

विदा होने लगे तो वे बोले, ‘हमने उम्मीद नहीं छोड़ी है। हम जल्दी ही फिर आएंगे। व्यवस्था फिर बदलेगी। जब अच्छी व्यवस्था नहीं रही तो बुरी भी नहीं रहेगी। शक-शुबह की रात ढलेगी और प्यार-मुहब्बत की सुबह फिर फूटेगी। ‘

चलते वक्त वे बोले, ‘इस ब्रीफ़केस में कुछ रुपये हैं। हम सोचते हैं इस को यहीं छोड़ जाएं। कहाँ लिये लिये फिरेंगे। बाद में तो यहाँ इसकी ज़रूरत पड़ेगी ही। ‘

मैंने पूछा, ‘इसमें कितना रुपया है?’

वे बोले, ‘तीन लाख हैं। ‘

सुनकर मेरा रक्तचाप बढ़ गया। घबराकर बोला, ‘भाईजान, इतना रुपया संभालने की मेरी कूवत नहीं है। हमारा घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। दिन का चैन और रात की नींद हराम हो जाएगी। इसे आप अपने साथ ले जाएं या किसी हैसियत वाले के पास छोड़ जाएं।’

वे सुनकर हँसने लगे। बोले, ‘आप तो ऐसे घबरा गये जैसे हम कोई साँप या बिना लाइसेंस की बन्दूक छोड़े जा रहे हों। तीन लाख तो आजकल लोगों की एक दिन की ख़ूराक होती है।’

मैंने कहा, ‘हाँ,मैंने भी ऐसे महापुरुषों के बारे में पढ़ा सुना है, लेकिन साथ करने का सौभाग्य नहीं मिला। अपनी तो हालत यह है कि एक बार भोपाल जाते समय एक मित्र ने बीस हज़ार के नोट थमा दिये कि वहाँ पहुँचकर उनके रिश्तेदार को दे दूँ। बस भाईजान,अपना तो पेशाब-पानी बन्द हो गया। नोट हैंडबैग में थे। टायलेट जाता तो हैंडबैग भीड़ के बीच से गले में लटका कर ले जाता। साथ के यात्री सोचने लगे कि मैं सनका हूँ। जब गाड़ी भोपाल पहुँची तब जान में जान आयी। ‘

वे हँसकर बोले, ‘अगली बार हम आपको भी कुछ धंधा करना सिखाएंगे। तभी आपको रुपया संभालने की आदत पड़ेगी। ‘

मैंने कहा, ‘भाई, बूढ़े तोते को राम राम पढ़ाना मुश्किल है। ‘

वे बोले, ‘हुनर सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जब जागे तभी सबेरा। ‘

मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘पधारना भाई। मैं इन्तज़ार करूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 16 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 16/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 16 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

क्या करेगा रौशन उसे आफ़ताब बेचारा

लबरेज़ हो जो खुद अपने ही रूहानी नूर से

जब चाँद ही हो आफ़ताब से ज़्यादा नूरानी 

तो उसे क्या ताल्लुक़ात अंधेरे या उजाले से

 

How can poor sun illumine him 

Who is self-effulgent with spiritual light

When moon itself is brighter than sun

Then what’s its concern with darkness or light

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 

गुफ़्तुगू करे हैं अक्सर

उंगलियां ही अब तो..

ज़बां तरसती है

कुछ कहने के लिए..

 

Fingers only chat 

these days now ..

The tongue  longs

To say something…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तेरी बात को यूँही…

 खामोशी से मान लेना

 ये भी एक अंदाज़ है,

मेरी  नाराज़गी  का…

 

Just simply accepting

your  words  quietly…

Is  also  my  way  of

expressing resentment…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

रूबरू  होने   की  तो  छोड़िये,

गुफ़्तगू से  भी  क़तराने  लगे हैं,

ग़ुरूर ओढ़ते  हैं  रिश्ते  अब तो,

हैसियत पर अपनी इतराने लगे हैं…

 

Leave apart being face to face,

They’ve begun  to avoid talking,

Relations are so conceited now,

Proudly unmask their haughtiness

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का प्रथम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-1

अलाव घास फूस तथा‌ लकडी  के उस ढेर को कहते हैं जो जाड़े के दिनों में दरवाजों पर जलाया जाता है, जिससे लोग हाथ सेकते हैं जिसके अलग अलग भाषाओं में अनेक नाम हैं, जैसे कौड़ा, तपनी,  तपंता, धूनी आदि। यही वो जगह है जहां  कथा-कहानियों की अविरल धारा बहती थी। यहीं गीता,  रामायण, महाभारत की कथाओं  का आकर्षण खींच लाता था। अगर अलाव न होते तो आज सारी दुनियां मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचनाओं से  वंचित ही‌ रहती और कफ़न जैसी काल जयी रचना का जन्म न हो पाता। शायद  इस कथा का जन्म भी यहीं हुआ था। इसका उद्गम स्थल भी अलाव ही है। ‌– सूबेदार पाण्डेय

हमारे बगल वाले गांव के ही रहने वाले थे रघु काका। उन्होंने अपने जीवन में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे थे। हमारे दादा जी जब कभी अलाव के पास बैठ रघु काका के बहादुरी की चर्चा छेड़ते तो लगता जैसे वे उनके साथ बीते दिनों की स्मृतियों में कहीं खो जाते। क्योंकि वे उनके विचारों के प्रबल समर्थक थे और इसके साथ हम बच्चों के ज़ेहन में रघू काका का व्यक्तित्व तथा उनके निष्कपट व्यवहार की यादें बस‌ जाती। तभी वे हमारे लोक कथा के नायक बन उभरे।

यद्यपि आज वो हमारे बीच नहीं रहे। दिल की लगी गहरी भावनात्मक चोट ने उन्हें विरक्ति के मार्ग पर ढकेल दिया। लेकिन वे और उनका चरित्र हमारी स्मृतियों में बसा हुआ आज भी कहानी बन कर पल रहा है।अब जब कभी स्मृतियों के झरोखे खुलते हैं, तो उनकी यादें  बरबस ही ताजा हो उठती हैं। उनके द्वारा बचपन में सुनाये गये गीतों के स्वर लहरियों की ध्वनितरंगे  कानों में मिसरी सी घोलती गूँज उठती है। उनका प्रेम पगा व्यवहार संस्मरण बन जुबां ‌पे मचल उठता है।

रघू काका ने पराधीन भारत माता की अंतरात्मा की पीड़ा, बेचैनी की  छटपटाहट को बहुत ही नजदीक से अनुभव किया था। वे भावुक हृदय इंसान थे। वो उस समुदाय से आते थे, जो अब भी यायावरी करता जरायम पेशा से जुड़ा हुआ है। जहां आज भी अशिक्षा, नशाखोरी, देह व्यापार गरीबी तथा कुपोषण के जिन्न का नग्नतांडव देखा जा सकता है। सरकारों द्वारा उनके विकास की बनाई गई हर योजना उनके दरवाजे पहुँचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती हैं। उनके कुनबों के लोगों का जीवन आज भी आज यहाँ तो कल वहाँ सड़कों के किनारे सिरकी तंबुओं में बीतता है। ढोल बजाकर, गाना गाकर, भीख मांग कर खाना तथा आपराधिक गतिविधियों का संचालन ही उस समुदाय का पेशा था। उसी समुदाय की उन्हीं परिस्थितियों से धूमकेतु बन उभरे थे रघू काका जिनका स्नेहासिक्त  जीवन व्यवहार उन्हें औरों से अलग स्थापित कर देता है। वे तो किसी और ही मिट्टी के बने थे। वे भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में वतन से दूर साल के आठ महीने टहला करते। बहुत दूर दूर तक उनका जाना होता।

लेकिन वे बरसात के दिनों का चौमासा अपने गांव जवार में ही बिताते। वो बरसात के दिनों में गांवों-कस्बों में घूम घूम आल्हा कजरी गाते सुनाते। ईश्वर ने उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का मालिक बनाया था। शरीर जितना स्वस्थ्य हृदय उतना ही कोमल चरित्र बल उतना ही निर्मल। बड़ी बड़ी सुर्ख आंखें, घुंघराले काले बाल  रौबदार घनी काली मूंछें, चौड़ा सीना लंबी कद-काठी, मांसल ताकतवर भुजाओं का मालिक बनाया था उन्हें। बांये कांधे पर लटकती ढोल थामें दांये कांधे पर अनाज की गठरी ही उनकी पहचान थी। वे बहुत ज्यादा की चाह न रख बहुत थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले इंसान थे। वे भले ही चौपालों में गीत गा कर पेट भरते रहे हो, लेकिन हृदय दया से परिपूर्ण था और हम बच्चों के तो वो महानायक हुआ करते थे।  लोकगायक होने के नाते वे भावुक हृदय के मालिक थे।

वो बरसात में जब हमारे चौपालों में आल्हा या कजरी गीतों के सुर भरते तो मीलों दूर से लोग उनकी आवाज़ सुन उसके आकर्षण से बंधे खिंचे चले ‌आते और  चौपालों में भीड़ मच जाती। वे भावों के प्रबल चितेरे थे। कभी आल्हा-ऊदल केशौर्य चित्रण करते जोश में भर नांच उठते तो कभी कजरी गीतों में राम की विरह वेदना का चित्रण करते रो पड़ते। अथवा सुदामा द्रोपदी के चीर हरण कथा सुना लोगों को रोने पर विवश कर देते। वे जब कभी रामचरितमानस की चौपाइयों में बानी जोड़ ‌गाते———–

लछिमन कहां जानकी होइहै, ऐसी विकत अंधेरिया ना।
घन घमंड बरसै चहुओरा, प्रिया हीन तरपे मन मोरा।
ऐसी विकट अंधेरिया ना।।

(अरण्यकांड रामचरित मानस )से

तो उनकी भाव विह्वलता से सबसे ज्यादा प्रभावित महिला ‌समाज ही‌ होता और उसके ‌बाद चौपालों में बिछी चादर पर कुछ पलों में ही अन्नपूर्णा और लक्ष्मी दोनों ही बरस पड़ती। गांवों घरों की‌ महिलाएं अन्न के रूप में स्नेह वर्षा से उनकी झोली भर देती। जिसे बाजार में बेच वे नमक तेल लकड़ी तथा आंटे का प्रबंध कर लेते और उनकी गृहस्थी की गाड़ी ‌आराम से चल जाती। वे जब भी बाजार से लौटते तो हम बच्चों के लिए रेवड़ियाँ तथा नमकीन का उपहार लाना कभी भी नहीं भूलते। हम बच्चों से मिलने का उनका अपना खास अंदाज था। वे जब हमारे झुण्डों के करीब होते तो खास अंदाज में ‌ढ़ोलक पर थाप देते।  हम बच्चों का झुंड उस ढ़ोलक की चिर परिचित आवाज के ‌सहारे आवाज की दिशा में दौड़ लगा देते,उनकी तरफ कोई गले का हार बन उनसे लिपट जाता तो कोई पांवों में जंजीर बन।  इसी बीच शरारती बच्चा उनके हाथ का थैला छीन भागता तो दौड़ पड़ते उसके पीछे पीछे और नमकीन का थैला ले सबको बराबर बराबर बांट देते ।

क्रमशः …. 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 4 ☆ पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( स्वतंत्रता दिवस के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  रचना पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा। अब हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 4 ☆

☆ पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा ☆

पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा
आजाद हुआ था इसी दिन देश हमारा
फहराता तिरंगा इसी दिन आसमान में
सूरज ने नई रोशनी दी थी विहान में
मन को मिली खुशी और आंखों को एक चमक
सबकी जुबां पर चढ़ा जय हिंद का नारा

आजाद हुआ देश आजाद ही रहेगा
सदियों ने किया बर्बाद अब आबाद रहेगा
आई बहार कैसे यह सपने चमन में
ये लंबी कहानी है इतिहास है सारा
फिर मिलकर कसम आज यहां साथ में खाएं
मेहनत के बल पर देश को मजबूत बनाएं

सपना जो शहीदों का था साकार करें हम
अब चाहता है हमसे यह कर्तव्य हमारा
गांधी ने, शहीदों ने जो पौधे थे लगाए
होकर बड़े अब आज फलने को आए
हम इनको सींच देश को खुशहाल रखे अब
लू की लपट इनको नहीं होती है गवारा

जिस देश की धरती ने हमें इतना दिया है
उसके लिए अब तक भला हमने क्या किया है
हम खुद से करें सवाल और जवाब दें
हम से ही तो बनता है सदा देश हमारा

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 – व्ही शांताराम-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : व्ही शांताराम पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ व्ही शांताराम…1 ☆

शांताराम राजाराम वनकुर्डे जिन्हें व्ही शांताराम या शांताराम बापू या अन्ना साहब के नाम से भी जाना जाता है का जन्म 18 नवम्बर 1901 को कोल्हापुर रियासत के ख़ास कोल्हापुर में हुआ था। वे हिंदी-मराठी फ़िल्म निर्माता, और अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने ड़ा कोटनिस की अमर कहानी, झनक-झनक पायल बाजे, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, दुनिया न माने, और पिंजरा जैसी अमर फ़िल्म बनाईं थीं।

डॉ. कोटनीस की अमर कहानी हिंदी-उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में निर्मित 1946 की भारतीय फिल्म है। इसकी पटकथा ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी है और इसके निर्देशक वी शांताराम थे। अंग्रेजी संस्करण का शीर्षक “द जर्नी ऑफ डॉ. कोटनीस” था। दोनों ही संस्करणों में वी शांताराम डॉ॰कोटनीस की भूमिका में थे। फिल्म एक भारतीय चिकित्सक द्वारकानाथ कोटनीस के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में जापानी आक्रमण के दौरान चीन में अपनी सेवाएँ दी थीं।

फिल्म ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी “एंड वन डिड नॉट कम बैक” पर आधारित थी, जो खुद भी डॉ.द्वारकानाथ कोटनीस के बहादुर जीवन पर आधारित है। डा. कोटनीस को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान येनान प्रांत में जापानी आक्रमण के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए चीन भेजा गया था। चीन में रहते हुए उन्होंने जयश्री द्वारा अभिनीत एक चीनी लड़की चिंग लान से मुलाकात की। उनकी मुख्य उपलब्धि एक विपुल प्लेग का इलाज ढूँढना थी, लेकिन बाद में वे स्वयं इससे ग्रस्त हो गए। वे एक जापानी पलटन द्वारा पकड़े भी गए, किंतु वहाँ से भाग निकले। आखिरकार बीमारी ने उनकी जान ले ली।

व्ही शांताराम कोल्हापुर में बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में फुटकर काम करते थे। उन्हें 1921 में मूक फ़िल्म “सुरेखा हरण” में सबसे पहले काम करने का अवसर मिला। उन्होंने महसूस किया कि फ़िल्म सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम हो सकता है। उन्होंने एक तरफ़ मानवता और मानव के भीतर अंतर्निहित अच्छाइयों को सामने लाते  हुए अन्याय और बुराइयों का प्रतिकार प्रस्तुत किया, वहीं संगीत के प्रभाव से मनोरंजन का संसार रचा। सात दशक तक उनकी फ़िल्म संसार में सक्रियता रही। उनमें संगीत की समझ थी इसलिए वे संगीतकारों से विचारविमर्श करके कलाकारों से कई बार रिहर्सल करवाते थे। चार्ली चैप्लिन ने उनकी मराठी फ़िल्म मानूस की प्रशंसा की थी

उन्होंने विष्णुपंत दामले, के.आर. धैबर, एस. फट्टेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 1929 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी बनाई जिसने नेताजी पालेकर फ़िल्म का निर्माण किया और 1932 में “अयोध्याचे राजा” फ़िल्म बनाई। उन्होंने 1942 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी छोड़कर राजकमल कलामंदिर की स्थापना की, जो कि अपने समय का सबसे श्रेष्ठ स्टूडियो था।

शांताराम की सृजनात्मकता उनके प्रेम प्रसंगों और उनकी तीन शादियों से जुड़ी थी। उन्होंने 1921 में पहली शादी अपने से 12 साल छोटी विमला बाई से की थी। उनका पहला विवाह उनके बाद के दो विवाहों के वाबजूद पूरे जीवन चला, पहली शादी से उनके चार बच्चे हुए। प्रभात, सरोज, मधुरा और चारूशीला। मधुरा का विवाह प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित जसराज से हुआ था।

शांताराम की एक  नायिका जयश्री कमूलकर थी, जिनके साथ उन्होंने कई मराठी फ़िल्म और एक हिंदी फ़िल्म शकुंतला की थी, दोनों ने प्रेम में पड़ कर 22 अक्टूबर 1941 को शादी कर ली। जयश्री से उनको तीन बच्चे हुए, मराठी फ़िल्म निर्माता किरण शांताराम, राजश्री (फ़िल्म हीरोईन) और तेजश्री। शांताराम ने राजश्री को बतौर हीरोईन और जितेंद्र को हीरो के रूप में  साथ-साथ “गीत गाया पत्थरों में” अवसर दिया था।

दो आँखे बारह हाथ, झनक-झनक पायल बाजे, जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली, सेहरा और नवरंग की नायिका संध्या के साथ काम करते-करते शांताराम और संध्या में प्रेम हो गया तो 1956 में उन्होंने शादी कर ली।

जब “झनक-झनक पायल बाजे” और “दो आँखे बारह हाथ” बन रही थी तब शांताराम के पास के सभी आर्थिक संसाधन चुक गए इसलिए उन्होंने विमला बाई और जयश्री से उनके ज़ेवर गिरवी रखकर बाज़ार से धन लेने माँगे। विमला बाई ने तुरंत अपने ज़ेवर निकालकर दे दिए, संध्या ने शांताराम की प्रेमिका और फ़िल्म की नायिका होने के नाते भी शांताराम के माँगे बिना अपने सभी ज़ेवर शांताराम को सौंप दिए लेकिन जयश्री ने अपने ज़ेवर दुबारा माँगने पर भी नहीं दिए। इस बात को लेकर शांताराम और जयश्री के सम्बंधों में खटास पड़ गई। जयश्री को जब बाद में संध्या द्वारा दिए गए ज़ेवरों के बारे में पता चला तो उसने कुछ ज़ेवर उसे देना चाहे लेकिन संध्या ने यह कहकर कि उसने ज़ेवर पहनना छोड़ दिया है, ज़ेवर लेने से मना कर दिया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 57 ☆ लफ़्जों के ज़ायके ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख लफ़्जों के ज़ायके।  यह बिलकुल सच है कि लफ़्जों के ज़ायके होते हैं । आदरणीय गुलज़ार साहब के मुताबिक़ परोसने के पहले चख लेना चाहिए। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 57 ☆

☆ लफ़्जों के ज़ायके

‘लफ़्जों के भी ज़ायके होते हैं। परोसने से पहले चख लेना चाहिए।’ गुलज़ार जी का यह कथन महात्मा बुद्ध के विचारों को पोषित करता है कि ‘जिस व्यवहार को आप अपने लिए उचित नहीं मानते, वैसा व्यवहार दूसरों से भी कभी मत कीजिए’ अर्थात् ‘पहले तोलिए, फिर बोलिए’ बहुत पुरानी कहावत है। बोलने से पहले सोचिए, क्योंकि शब्दों के घाव बणों से अधिक घातक होते हैं; जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। सो! शब्दों को परोसने से पहले चख लीजिए कि उनका स्वाद कैसा है? यदि आप उसे अपने लिए शुभ, मंगलकारी व स्वास्थ्य के लिए लाभकारी मानते हैं, तो उसका प्रयोग कीजिए, अन्यथा उसका प्रभाव प्रलयंकारी हो सकता है, जिसके विभिन्न उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘अंधे की औलाद अंधी’ था…महाभारत के युद्ध का मूल कारण…सो! आपके मुख से निकले कटु शब्द आपकी वर्षों की प्रगाढ़ मित्रता में सेंध लगा सकते हैं; भरे-पूरे परिवार की खुशियों को ख़ाक में मिला सकते हैं; आपको या प्रतिपक्ष को आजीवन अवसाद रूपी अंधकार में धकेल सकते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए और तभी बोलिए जब आप समझते हैं कि ‘आपके शब्द मौन से बेहतर हैं।’ समय, स्थान अथवा परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही बोलना सार्थक व उपयोगी है, अन्यथा वाणी विश्राम में रहे, तो बेहतर है।

मौन नव-निधि के समान अमूल्य है। जिस समय आप मौन रहते हैं… सांसारिक माया-मोह, राग-द्वेष व स्व-पर की भावनाओं से मुक्त रहते हैं और आप अपनी शक्ति का ह्रास नहीं करते; उस प्रभु के निकट रहते हैं। यह भी ध्यान की स्थिति है; जब आप  निर्लिप्त भाव में रहते हैं और संबंध सरोकारों से ऊपर उठ जाते हैं… यही जीते जी मुक्ति है। यही है स्वयं में स्थित होना; स्वयं पर भरोसा रखना; एकांत में सुख अनुभव करना… यही कैवल्य की स्थिति है; अलौकिक आनंद की स्थिति है; जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। इस स्थिति में यह संसार उसे मिथ्या भासता है और सब रिश्ते-नाते झूठे; जहां मानव के लिए किसी की लेशमात्र भी अहमियत नहीं होती।

सो! ऐ मानव, स्वयं को अपना साथी समझ। तुमसे बेहतर न कोई तुम्हें जानता है, न ही समझता है। इसलिए अन्तर्मन की शक्ति को पहचान; उसका सदुपयोग कर; सद्ग्रन्थों का निरंतर अध्ययन कर, क्योंकि विद्या व ज्ञान मानव का सबसे अच्छा व अनमोल मित्र है, सहयोगी है; जिसे न कोई चुरा सकता है; न बांट सकता है; न ही छीन सकता है और वह खर्च करने पर निरंतर बढ़ता रहता है। इसका जादुई प्रभाव होता है। यदि आप निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो मन कभी भी भटकेगा नहीं और उसकी स्थिति ‘जैसे उड़ि-उड़ि जहाज़ का पंछी, उड़ी-उड़ी जहाज़ पर आवै’ जैसी हो जाएगी। उसी प्रकार हृदय भी परमात्मा के चरणों में पुनः लौट आएगा। माया रूपी महाठगिनी उसे अपने मायाजाल में नहीं बांध पायेगी। वह अहर्निश उसके ध्यान में लीन रहेगा और लख चौरासी से जीते जी मुक्त हो जाएगा, जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है…  और उसकी मुख्य शर्त है; ‘जल में कमलवत् रहना अर्थात् संसार में जो हो रहा है, उसे साक्षी भाव से देखना और उसमें लिप्त न होना।’ इस परिस्थिति में सांसारिक माया-मोह के बंधन व स्व-पर के भाव उसके अंतर्मन में झांकने का साहस भी नहीं जुटा पाते। इस स्थिति में वह स्वयं तो आनंद में रहता ही है, दूसरे भी उसके सान्निध्य व संगति में आनंद रूपी सागर में अवगाहन करते हैं, सदा सुखी व संतुष्ट रहते हैं। इसलिए ‘कुछ हंस कर बोल दो,/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां तो बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ अर्थात् जीवन को आनंद से जियो, क्योंकि सुख-दु:ख तो मेहमान हैं, आते-जाते रहते हैं। इसलिए दु:ख में घबराना कैसा…खुशी से आपदाओं का सामना करो। यदि कोई अप्रत्याशित स्थिति जीवन में आ जाए, तो उसे वक्त पर टाल दो, क्योंकि समय बड़े से बड़े घाव को भी भर देता है।

मुझे स्मरण हो रही हैं, गुलज़ार जी की यह पंक्तियां ‘चूम लेता हूं/ हर मुश्किल को/ मैं अपना मान कर/ ज़िदगी जैसी भी है/ आखिर है तो मेरी ही’ अर्थात् मानव जीवन अनमोल है, इसकी कद्र करना सीखो। मुश्किलों को अपने जीवन पर हावी मत होने दो। जीवन को कभी भी कोसो मत, क्योंकि ज़िंदगी आपकी है, उससे प्यार करो। उन्हीं का यह शेर भी मुझे बहुत प्रभावित करता है… ‘बैठ जाता हूं/ मिट्टी पर अक्सर/ क्योंकि मुझे अपनी औक़ात अच्छी लगती है।’ जी! हां, यह वह सार्थक संदेश है, जो मानव को अपनी जड़ों से जुड़े रहने को प्रेरित करता है और यह मिट्टी हमें अपनी औक़ात की याद दिलाती है कि मानव का जन्म मिट्टी से हुआ और अंत में उसे इसी मिट्टी में मिल जाना है। सो! मानव को सदैव विनम्र रहना चाहिए, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! इसे अपने जीवन में कभी भी प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि अहं हृदय को पराजित कर मस्तिष्क के आधिपत्य को स्वीकारता है। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर कभी हावी न होने दें, क्योंकि यह मानव से गलत काम करवाता है। स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है और दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है। सो! मानव को आत्म- केन्द्रित अर्थात् निपट स्वार्थी नहीं बनना चाहिए; परोपकारी बनना चाहिए। ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल/ ज़माने के लिए।’ औरों के लिए जीना व उनकी खुशी के लिए कुर्बान हो जाना…यही मानव जीवन का उद्देश्य है अर्थात् ‘नेकी कर, कुएं में डाल’ क्योंकि शुभ कर्मों का फल सदैव अच्छा व उत्तम ही होता है।

‘कबिरा चिंता क्या करे/ चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करें/ मोहे चिंता न होए।’ कबीरदास जी का यह दोहा मानव को चिंता त्यागने का संदेश देता है कि चिंता करना निष्प्रयोजन व हानिकारक होता है। इसलिए सारी चिंताएं हरि पर छोड़ दो और आप हर पल उसका स्मरण व चिंतन करो। कष्ट व दु:ख आप से कोसों दूर रहेंगे और आपदाएं आपके निकट आने का साहस नहीं जुटा पाएंगी। ‘सदैव प्रभु पर आस्था व विश्वास रखो, क्योंकि विश्वास ही एक ऐसा संबल है, जो आपको अपनी मंज़िल तक पहुंचाने की सामर्थ्य रखता है’– स्वेट मार्टन की यह उक्ति मानव को ऊर्जस्वित करती है कि सृष्टि-नियंता पर अगाध विश्वास रखो और संशय को कभी हृदय में प्रवेश न पाने दो। इससे आप में आत्मविश्वास जाग्रत होगा। विश्वास सबसे बड़ा संबल है, जो हमें मंज़िल तक पहुंचा देता है। इसलिए सपने में भी संदेह व शक़ को जीवन में दस्तक न देने दो। जीवन में खुली आंखों से सपने देखिए; उन्हें साकार करने के लिए हर दिन उनका स्मरण कीजिए और अपनी पूरी ऊर्जा उन्हें साकार करने में लगा दीजिए। स्वयं को कभी भी किसी से कम मत आंकिए… आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

जीवन में हर कदम पर हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। सो! मानव को जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि हमारी सोच, हमारी वाणी के रूप में प्रकट होती है और हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-विधाता होते हैं। इसलिए कहा गया है कि बोलने से पहले चख लेना श्रेयस्कर है। सो! अपनी वाणी पर नियंत्रण रखिए। सदैव सत्कर्म कीजिए। लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं… चख कर उनका सावधानी-पूर्वक प्रयोग करना ही उपयोगी, कारग़र व सर्वहिताय है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 10 ☆ वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति।)

☆ किसलय की कलम से # 10 ☆

☆ वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति ☆

प्रेम समस्त ब्रह्मांड का एकमात्र बहुआयामी, व्यापक व परम् पावन ऐसा शब्द है, जिसे मानव के साथ समग्र प्राणी जगत भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अनुभव करता है। प्रेम की बोली, प्रेम प्रदर्शन, प्रेमिल क्रियाकलापों की अनुभूति सबके हृदय व चेतना को सकारात्मकता से ओतप्रोत कर देती है। ऐसा माना जाता है कि प्रेम पूर्व में एक निश्छल तथा सत्यपरक परम् कर्त्तव्य परायणता का आदर्श रूप माना जाता था। सर्वोत्कृष्टता के आधार पर राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्पूर्ण जनमानस परिचित है। प्रेमान्त अथवा वियोग की परिणति मृत्यु का भी कारण बन जाती है। मनुष्य व पशु-पक्षियों के ऐसे अनेकानेक उदाहरण हम में से अधिकांशों ने देखे होंगे, जब एक निश्छल प्रेमी अपने प्रिय के वियोग में कुछ पल भी जीवित नहीं रहे। हमारी भारतीय संस्कृति व हमारे भारतीय इतिहास में ऐसे विविध उदाहरण व लेख हैं। ऐसे आदर्श प्रेम के बारे में यह सत्य ही कहा गया है कि प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। उभय पक्षों का परस्पर प्रेम तभी सफलता की ऊँचाई पर पहुँचता है, जब प्रेम क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ, अहंकार, लोभ, मोह, आसक्ति, असमानता, भय, संशय, असत्य, घृणा जैसे नकारात्मक भावों की तिलांजलि न दे दी जाए। इनमें से एक भाव भी प्रेम के मध्य विद्यमान होने पर उसकी विराटता कलंकित हो जाती है। प्रेम किसी जाति-पाँति, रंग-रूप, लिंगभेद, उम्र, आदि का भेद नहीं करता। प्रेम देश, धर्म अथवा संस्कृति से भी हो सकता है, प्रेम मीरा, सूर, तुलसी के समान भी किया जा सकता है। प्रेम मानव की विचारधारा बदल देता है। प्रेम में डूबे मानव को आसपास के परिवेश में कुछ भी पराया नहीं लगता। प्रेम तो वह व्यापक और निष्कलंक धर्म के सदृश है जो हर किसी से किया जा सकता है। यह ईश्वर, प्रकृति, जीव-जंतु, पशु-पक्षी, माता-पिता, भाई-बहन, पिता-पुत्र, माँ-बेटी, पति-पत्नी अथवा स्त्री-पुरुष किसी से भी हो सकता है। पूर्वकाल में नैतिक व मानवीय मूल्यों की सर्वोच्च महत्ता थी, तत्पश्चात ही अर्थ-स्वार्थ की बात आती थी, इसी कारण प्रेम को आदर्श स्थान प्राप्त था। प्रेम किसी पूजा-आराधना से कमतर नहीं होता। शनैःशनैः स्वार्थ, ऐशोआराम व धन के मोह ने हमारी प्रगति का मार्ग प्रशस्त तो किया लेकिन अनैतिक कृत्यों व अवांछित स्वार्थगत गतिविधियों के क्रम को अंतहीन बना दिया।

आज इक्कीसवीं सदी के आते-आते वह आदर्श प्रेम गहन अंधकार की गहराई में विलुप्त होने को है। आज मात्र ‘प्रेम’ नामक शब्द ही शेष रह गया है, इसके मायने पूर्णरूपेण बदल चुके हैं। आज ऐसी कोई  मिसाल अथवा उदाहरण नजर नहीं आते, जिसे हम वास्तविक प्रेम कह सकें। ‘मैं उससे प्रेम करता हूँ’। ‘हम प्रेम की बातें करेंगे’। ऐसे वाक्य प्रेम को व्यक्त करने हेतु कदापि सक्षम नहीं हैं। प्रेम प्रदर्शित नहीं किया जाता, वह स्वयमेव अनुभूत होता है। युवक-युवती का किसी उद्यान में अकेले वार्तालाप करना प्रेम हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आसक्ति हो सकती है, मोह भी हो सकता है। यह जरूरी नहीं है कि नौकर का मालिक के हितार्थ कार्य अथवा सेवा करना प्रेम की श्रेणी में आए, क्योंकि इसमें स्वार्थ हो सकता है, भय भी हो सकता है। मेरी दृष्टि में यह तथाकथित प्रेम का अनुबंध ही आज की परिपाटी बन गई है। आज तो किसी भी प्रकार से दूसरे पक्ष को खुश रखना, उसके हितार्थ काम करना, उसकी हाँ में हाँ मिलाना, उसकी प्रशंसा करना अथवा अपना स्वार्थ सिद्ध करना भी प्रेम की श्रेणी में गिना जाने लगा है। आज प्रायः एक पुत्र अपने पिता से प्रेम इसलिए करता है कि उसे माँ-बाप के रूप में अवैतनिक नौकर और उनके जीवन भर की कमाई तथा अचल-संपत्ति की चाह होती है। प्रेमी अथवा प्रेमिका के मध्य मोह, स्वार्थ व आसक्ति के भाव ही प्रमुख रूप से रहते हैं। मित्रता में भी परस्पर हित व अवसरवादिता ही दिखाई देती है। लाभपूर्ति के पश्चात अथवा अहम के आड़े आते ही यह मित्रता रूपी प्रेम फुर्र से उड़ जाता है। पड़ोसी या मोहल्ले वाले स्वार्थ, लाभ, लालच जैसे अनेक कारणों से छद्म प्रेम प्रदर्शित करते हैं। यह हमारी विवशता ही कहलाएगी कि हम यदि किसी से आदर्श प्रेम करना भी चाहें तो सामने वाला बदले में हमें वही प्रेम दे, आज की परिस्थितियों में ये संभव ही नहीं है। एक अहम बात यह भी है कि जब हमारे पास खाने को नहीं रहता, तब हम कमाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं और जब हमारे पास अकूत धन-संपत्ति और खाने को रहता है, तब हम स्वास्थ्य कारणों से खा नहीं पाते। स्वास्थ्य, शांति, सुख व प्रेम की तलाश करते-करते हम पुनः पूर्ववत जीवन अपनाने हेतु बाध्य हो जाते हैं। निश्चित रूप से ये कमाई की होड़ ही हमें लालची, स्वार्थी, भ्रष्टाचारी व अचारित्रिक बनाती है, इसलिये ही यहाँ प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं बचता। तत्पश्चात बुढ़ापे में जब मानव इस प्रेम की तलाश करता है, तब तक अधिकांश हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं। आशय यह है कि जब एक अवधि के बाद हम अपने ही कमाए धन का उपयोग नहीं कर पाएँगे, तो हम वे सारे अनैतिक कार्य करते ही क्यों हैं? उतना धन एकत्र करते ही क्यों हैं, जिसे दान, धर्मशालाओं, चैरिटेबल आदि को देकर बुढ़ापे में शांति की कामना करना पड़े। प्रारम्भ में ही हमारे मानस में यदि प्रेम और सौहार्दभाव का बीजारोपण कर दिया गया होता तो हमारी स्वार्थलिप्तता हमें इतनी भावहीन न कर पाती। हम निश्छल प्रेम को बखूबी समझ गए होते।

प्रेम के कारक समाज में आपकी राह देख रहे हैं। संतोष, सदाचार व अपरिग्रह के भाव अपने हृदय में अंकुरित होने दें। मानव के प्रति प्रेमभाव जागृत करें। आपका जीवन कुछेक कठिनाईयों को छोड़कर शेष प्रेममय, आनंदमय व शांतिमय बीतने लगेगा। वृद्धावस्था में तनाव के स्थान पर शांति व प्रसन्नता का अनुभव होगा। हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है, कलयुग में अनैतिकता बढ़ेगी, बुराई, ईर्ष्या और द्वेष की वृद्धि होगी, प्रेम का पूर्ण अंत होगा, लेकिन अपने किये गए कर्मों से अपना वर्तमान तो सुधारा ही जा सकता  है। जैसा कि कहा गया है ‘हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा’। हो सकता है आपका प्रयास एक आंदोलन बने, आंदोलन एक अभियान बने और वह अभियान प्रेम को आदर्श दिशा की ओर मोड़ने में सफल हो।

आज ऐसे ही चिंतन की महती आवश्यकता है, जो समाज में आदर्श प्रेम को बढ़ावा दे सके एवं स्वयं को निश्छल, निःस्वार्थ तथा कल्याणकारी प्रेमपथ का अनुगामी बना सके।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 56 ☆ जवाब ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “जवाब। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 56 – साहित्य निकुंज ☆

☆ जवाब ☆

क्या आप जानते हैं

हमें मिलते नहीं

कुछ सवालों के जवाब

सदियां बीत जाती है

युगों युगों तक

ढूंढते रह जाते हैं जवाब

पीढ़ी दर पीढ़ी

बढ़ती चली जाती है

अपना रूप रंग परिवर्तन

होता जाता है

और सवाल

बन जाते हैं एक धरोहर

सवाल खो जाते हैं

किसी भीड़ के साए में

खामोशी ओढ़ लेते हैं

और यहां से वहां

कुछ सवालों के जवाब

रेत की तरह ढह जाते हैं

नदिया में बह जाते हैं

समंदर में मिल जाते हैं.

सब

अपने के बहाव में बहते रहते हैं

इन्हीं सारे सवालों

की गुत्थी पर खड़ा होता है

समाज

तब फिर नए सवालों का जन्म होता है

नित नित

युगों युगों तक

सवाल उपजते हैं

तब भी

नहीं मिलता है उनका जवाब .।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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