☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 24 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 24) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
☆ English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media# 24☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी की एक रचना। )
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख “काशी महिमा–काशी तीन लोक से न्यारी भाग–२”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी तीन लोक से न्यारी भाग–२☆
(दो शब्द लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता रहेगा । – सूबेदार पाण्डेय )
पिछले अंक में इस शोधालेख में आपने काशी तथा गंगा के पौराणिक कथाओं मान्यताओं के आधार पर उसकी जीवन शैली पौराणिक महत्व तथा विभूतियों के बारे लेखक की राय जानी, अब क्रमशःअगले भाग में काशी के बारे जनश्रुति तथा लोक मानस में व्याप्त ऐतिहासिक महत्त्व का अध्ययन करेंगे, तथा अपनी अनमोल प्रतिक्रिया से अभिसिंचित करेंगे। जी हां ये वही काशी है, जहां आज भी लोग विश्व के कोने-कोने से शिक्षा संस्कृति तथा अध्यात्म की गहराई को नजदीक से जानने समझने की कामना लेकर आते हैं। तथा अध्यात्मिक सांस्कृतिक जीवन शैली की गहराई में डूबकर यहीं के होकर रह जाते है।
वर्तमान समय में काशी के उत्तरी छोर पर बसा सारनाथ बौद्ध महातीर्थ यात्रा परिपथ है, यहीं से बौद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन चला था, उसके उत्तर में जिले के अंतिम सीमा पर बसे कैथी ग्राम में गंगा गोमती के पावन संगम तट पर बसा महाभारत कालीन मार्कण्डेय महादेव का ऐतिहासिक अतिप्राचीन मंदिर तथा तपस्थली है जिसके बारे में पौराणिक मान्यता है कि अपनी तपस्या के प्रताप से उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने आयु बल की पुनर्समीक्षा कर नवजीवन प्रदान करने के लिए देवताओं को बाध्य कर दिया था।
काशी के दक्षिण में महामना की ज्ञान बगिया भारतीय हिंदू युनिवर्सिटी है।
काशी के पूर्वी छोर पर गंगा के उस पार राजा बनारस का रामनगर का किला है, जहां आज भी राजसी आन बान शान के साथ एक माह तक अनवरत चलने वाला रामलीला का सांस्कृतिक मंचन तथा आयोजन होता है जो काशी के इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर है। तथा सारे विश्व में राजपरिवार के मुखिया की पहचान भगवान शिव के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रुप में होती है। रामनगर किले के पास से बहने वाली गंगा अर्धचंद्राकार स्वरूप में बहती है जिसके जल में पड़ने वाले द्वीप समूहों तथा प्रकाश स्तंभों का झिलमिल प्रकाश शिव के मस्तक पर चंद्रमा के होने का मृगमरीचिका का भ्रम पैदा कर देता है। वहीं पश्चिमी छोर पर पंचकोसी परिक्रमा पथ पर बसा महाभारत कालीन भगवान शिव का रामेश्वर महादेव स्वरूप काशी क्षेत्र को अभिनव गरिमा से भर देता है।
काशी में गंगा घाट पर उगते सूर्य के साथ सुबह बनारस, तथा लखनवी शामें अवध अपनी अद्भुत छवि के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है, सबेरे की गंगा घाट की सुर साधना तथा सायंकालीन गंगा आरती काशी के आध्यात्मिक सौंदर्य को नवीन आभा मंडल प्रदान करती है। यह काशी के आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव ही है, जो लोगों को बार बार काशी भ्रमण के लिए प्रेरित करता है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास में काशी वासियों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यहां के निवासियों का “अतिथि देवो भव” का सेवाभाव भक्ति साधनायुक्त जीवन-शैली से ओत-प्रोत फक्कडपन भरा खांटी देशी अंदाज की जीवन शैली लोगों के जीवन काल का अंग बन गई है। यहां रहनेवाला हर समुदाय तथा संप्रदाय का व्यक्ति उत्सवधर्मी है। यहां साल के तीसों दिन बारहों महीने कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। जो काशी वासियों के हृदय में उमंग उत्साह का सृजन तो करता ही है, यात्रीसमूहों को आकर्षित भी करता है।तभी तो काशी की महिमा से आश्वस्त कबीर कहते हैं – जौ काशी तन तजें कबीरा,रामै कौन निहोरा रे।
अर्थात् काशी में महाप्रयाण करने पर तो मोक्ष अवश्यंभावी है, इसमें राम का कैसा एहसान है, और अंतिम समय में अपने सत्कर्मो के परीक्षण के लिए मगहर चले जाते हैं। अनेक लोक कहावतें भी काशी को महिमा मंडित करती हैं, तथा उसकी महत्ता दर्शाती है, लोक मानस में ये उक्ति प्रचलित है ———–
ये कहावत काशी वासियों के हृदय का उद्गगार है। जिसमें आत्मसंतुष्टि से ओत-प्रोत जीवन की अलग ही छटा दीखती है। जिस काशी की महिमा पुराणों तथा लोक मानस ने गाई है, उस काशी के बारे में यह भी किंवदंती है कि इसी काशी में बाबा विश्वनाथ ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा स्वरूप वरदान मांगा था कि यहां भूखा भले ही कोई उठे, पर सायंकाल कोई भी व्यक्ति भूखा न सोये। काशी में मां गंगा तथा मां अन्नपूर्णा पेट भरने के लिए भोजन तथा पीने के लिए पवित्र गंगा जल हमेशा उपलब्ध कराती हैं। इस क्षेत्र में मां अन्नपूर्णा की कृपा सदैव बरसती है। यहां रहनेवाला कोई भी जीव चाहे पशु-पक्षी ही क्यों न हो, वह मां अन्नपूर्णा के आंचल की छांव तले सुखी शांत जीवन यापन करता है। यहां का धर्मप्राण चेतना युक्त जनसमूह पशुओं पंछियों बीमारों अपाहिजो सबका ध्यान रखता है। नर सेवा नारायण सेवा के कथन में विश्वास रखता है, बाबा विश्वनाथ को अवढरदानी भी कहते हैं। वह अपना सब कुछ लुटा कर लोगों का दुख हरते हैं। इसी विश्वास और भरोसे पर तो रामबनवास के समय अयोध्या में महाराज दशरथ का आकुल व्याकुल आर्तमन पुकार उठता है।
यही कारण है कि काशी में विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा, मां गंगा तथा काशी कोतवाल भैरवनाथ प्रात: स्मरणीय तथा पूजनीय है। जिनके स्मरण मात्र से जीव स्थूल शरीर त्याग स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। इसी भरोसे तथा विश्वास के पुष्टि में कबीर लिख देते हैं———
हेरत हेरत हे सखी ,रहा कबीर हेराइ।
बूंद समानी समझ में अरु किछु कहा न जाइ।।
संभवतः यही कारण बना होगा इस कहावत के पीछे कि – काशी तीन लोक से न्यारी।
( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की एक भावप्रवण कविता कभी अनचाहा जो जाता है । हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 11 ☆
☆ कभी अनचाहा जो जाता है ☆
जीवन की राहों में देखा ऐसे भी कभी दिन आते है
जिन्हें याद न रखना चाहते भी हम भूल कभी न पाते है।
होते हैं अनेकों गीत कि जिनके अर्थ समझ कम आते है
पर बिन समझे अनजाने ही वे फिर फिर गाये जाते है
छा जाते नजारे नयनों में कई वे जो कहे न जाते हैं
पर मन की ऑखो के आगे से वे दूर नहीं हो पाते है।
सुनकर या पढ़कर बातें कई सहसा आँसू भर आते हैं
मन धीरज धरने को कहता पर नयन बरस ही जाते हैं
अच्छी या बुरी घटनायें कई सहसा ही हो यों जाती हैं
जो घट जाती हैं पल भर में पर घाव बडे कर जाती हैं
सुंदर मनमोहक दृष्य कभी मन को ऐसा भा जाते हैं
जिन्हें फिर देखना चाहें पर वे फिर न कभी भी आते हैं
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 65 ☆
☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆
‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… अहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।
‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।
‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’…अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।
‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा- स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर, सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।
‘सपने देखो, ज़िद करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग- दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।
आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर, नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।
‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।
मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य“. )
☆ किसलय की कलम से # 17 ☆
☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆
अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बने। विश्व के समस्त धर्मों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है। किसी अन्य धर्म की आलोचना करना अथवा किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा। लोग अपने-अपने धर्मानुसार जीवन यापन व धर्मसम्मत पूजा,भक्ति, प्रार्थना और ध्यान कर आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं। विश्व के अलग-अलग देशों में किसी न किसी धर्म की बहुतायत होती ही है। उस देश के लोग वर्ष भर अपने धर्मानुसार पर्व, उत्सव, जन्मदिवस, मोक्ष दिवस आदि मनाते हुए सामाजिक जीवन खुशी-खुशी जीते हैं। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उस देश के अन्य धर्मावलंबी अपना जीवन अपने अनुसार नहीं जीते। अन्य धर्मों के कार्यक्रम अथवा पर्वों में जनाधिक्य का अभाव व यदा-कदा असहजता प्रकट होना अलग बात है, लेकिन विश्व के अधिकांश देशों में किसी को भी अपने धर्म सम्मत जीवन यापन करने की कोई रोक-टोक नहीं है। हर देश में वहाँ की परिस्थितियों, मान्यताओं, ग्रंथों एवं संस्कृति का महत्त्व होता है। प्राचीन प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुरूप धर्म का अनुकरण भी उस धर्म के अनुयायी करते हैं। पूरे विश्व में परम्परायें एवं परिस्थितियाँ समय, दूरी व मान्यताओं के चलते भिन्न भिन्न होती हैं।
अलग-अलग धर्मों के मतानुसार एक ही बात, एक ही वस्तु या एक ही कार्य पवित्र-अपवित्र अथवा उचित-अनुचित भी हो सकते हैं। आशय यह है कि हमारे लिए जो बातें सही हैं वे अन्य धर्म के लिए असंगत भी हो सकती हैं। यही बात उनके लिए भी लागू होती है परन्तु ऐसा नहीं है कि सर्वत्र मानवता, हिंसा, बुराई, अच्छाई, अथवा घृणा के भी अलग अलग मायने हैं।
विश्व के किसी भी देश का एक सच्चा इंसान ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास रखता है। अधिकांश महापुरुषों, धर्मगुरुओं एवं विशिष्ट लोगों के विचार भी किसी अन्य धर्म की आलोचना को अनुमति नहीं देते। हर देश में 5 से 10% लोग धर्मों के बँटवारे व धर्म की राजनीति करने वाले पाए ही जाते हैं। ये वही विघ्नसंतोषी लोग हैं, जो अपने स्वार्थ अथवा थोड़ी प्रसिद्धि हेतु अपने प्रभाव व समर्थकों के साथ अन्य धर्मों के विरुद्ध विष वमन करते हैं। कुछ दिग्भ्रम व अवसरवादी लोग भी इनसे जुड़कर सद्भाव के वातावरण को दूषित करते हैं। अनेक धर्मावलंबियों से लम्बी वार्ताएँ, अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि 5 से 10 प्रतिशत लोगों को छोड़कर शेष सभी धर्मावलंबी आपसी सद्भाव और शांति के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।
समाज में सभी प्रेम-भाईचारे के साथ खुश रहते हैं। इन विघ्न संतोषियों के उन्माद के कारण फिजा में जरूर अल्प समय के लिए जहर घुल जाता है, लेकिन अब तक भुगत चुका आदमी इनके बहकावे में नहीं आता। वैसे भी अपवाद तो हर जगह, हर काल में रहे हैं। कभी कभी जरा सी चूक या नासमझी से ही ऐसी कुछ असहज परिस्थितियाँ कुछ दिनों के लिए निर्मित होती हैं लेकिन पुनः सामान्य स्थिति बहाल हो जाती है। कुल मिलाकर विश्व में चार-छह दशक पूर्व वाली धर्म विरोधी परिस्थितियाँ उत्पन्न होना अब नामुमकिन है।
धर्मों के प्रति घृणा और कम-ज्यादा महत्त्व की बातें अब ज्यादा दिखाई व सुनाई नहीं देती, लेकिन पिछले कुछ दशकों से एक ऐसे वर्ग में निरंतर वृद्धि हो रही है जो हिंदू धर्म का माखौल उड़ाने से पीछे नहीं हटता। लोक-परलोक, पाप-पुण्य और आस्थाभाव से परे ये लोग लगातार अपने कुकृत्यों और कुतर्कों से हिंदू धर्म की मर्यादा को कलंकित करने पर तुले हुए हैं।
माना कि हर आदमी गलत नहीं होता परन्तु हर वर्ग में कुछ ऐसे अप्रिय लोग जरूर पाए जाते हैं। चित्रकारों एवं कार्टूनिस्टों में ऐसे बहुत से लोग पाए जाते हैं जो अपनी तूलिका से हिन्दु देवी-देवताओं के अमर्यादित व अभद्र चित्रों को उकेरकर हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करते रहते हैं। कुछ कलाकारों द्वारा विभिन्न पर्वों पर दुर्गा, गणेश, होलिका की मूर्तियों सहित विभिन्न झाँकियों में भी धार्मिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर धर्मविरुद्ध मूर्तियाँ एवं आकृतियाँ दर्शन हेतु तैयार करते हैं, जबकि धर्म के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ अथवा असंगत दखल कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। समाज के प्रबुद्ध जनों को ऐसे अनुचित कृत्यों पर हस्तक्षेप हेतु आगे आना चाहिए। माना ऐसे चित्रों से सामान्य लोगों में कौतूहल उत्पन्न तो होता है लेकिन ऐसी कुछ परिपाटियाँ भी जन्म लेती हैं जो धर्मपरायण नहीं हैं।
वर्ष भर हिन्दुओं के धार्मिक पर्वों के चलते प्रमुख रूप से दशहरा एवं गणेश उत्सव के संदर्भ में देखा गया है कि ये दोनों पर्व दस-ग्यारह दिन लगातार चलते हैं। अखबारों में इन्हीं देवी-देवताओं के सुसज्जित चित्रों का प्रकाशन होता है। खास तौर पर अनंत चतुर्दशी, दुर्गाष्टमी नवमी एवं विजयादशमी पर प्रतिदिन खाद्य पदार्थों को पैक करने में, बिछाकर बैठने के अतिरिक्त सामान्य जनता अन्य तरह से उपयोग कर इन्हीं अखबारों के पन्नों को रास्ते में ही फेंक देते हैं और लोग अधिकतर इन्हें पैरों तले कुचलते रहते हैं। इस पर भी सामग्री विक्रेताओं व उपयोगकर्ताओं को ध्यान देना होगा। लोग अखबारों के इन सचित्र परिशिष्टों को अलग कर अपने पास रख सकते हैं अथवा पवित्र जगहों पर विसर्जित भी कर सकते हैं।
इसके बाद देखा गया है कि कुछ कट्टरपंथी अपने प्रवचनों और धार्मिक आयोजनों में अन्य धर्मों की आलोचना कर श्रोताओं को दिग्भ्रमित करते हैं। साहित्य क्षेत्र के कुछ लोग भी विकृत मानसिकता को अपनी लेखनी के माध्यम उजागर करते हैं। उनके गद्य-पद्यों में किसी न किसी रूप से हिन्दु धर्म पर बुरी नीयत से कटाक्ष और व्यंग्य कसे जाते हैं। इसी वर्ग का दूसरा हिस्सा मंचीय कवियों तथा हास्य कलाकारों का होता है। आजकल अधिकांश कवि सम्मेलन स्वस्थ मनोरंजन और प्रेरक काव्य के स्थान पर ओछे व्यंग्यों, चुटकुलों एवं हास्य की बातों के मंच बन गए हैं। इन मंचों से कविता की चार पंक्तियाँ सुनने के लिए कान तरस जाते हैं। चार पंक्तियों के लिए आपको कम से कम बीस-तीस मिनट तक इनके फूहड़ चुटकुले अथवा बकवास झेलना पड़ती है। इन सब में सबसे गंभीर और विकृत परिस्थितियाँ यही तथाकथित हास्य कवि तथा हास्य कलाकार निर्मित करते हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य यही रहता है कि फूहड़ और ओछी बातों से जनता का मनोरंजन किया जा सके। ये हमारे ही धर्म के असभ्य लोग हैं जो अपने ही देवी-देवताओं को लेकर ऐसी बातें करते हैं, जिससे हर सच्चे हिन्दु की आत्मा आहत हो जाती है। भला ये कैसे हिन्दु हैं जो चार पैसों और अपनी अल्प प्रसिद्धि के लिए अपने ही धर्म की मान-मर्यादा को भी दाँव पर लगाते हैं। देश के विभिन्न मंचों, टी.वी. सीरियलों एवं अपने यूट्यूब चैनलों, अपनी वेबसाइट्स, अपने एल्बमों द्वारा हिन्दुधर्म और इसमें समाहित आस्था की धज्जियाँ उड़ाते हैं। हिन्दु कलाकारों को जब अपने ही धर्म की खिल्ली उड़ाने में डर नहीं लगता तब देश के दूसरे धर्मावलम्बी कलाकारों को डर क्यों लगने लगा। हिन्दु धर्मावलंबियों के अतिरिक्त ऐसी सहिष्णुता अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती। वैसे भी अन्य धर्मों में सख्ती के चलते ये सब सम्भव ही नहीं है। मंच, ऑडियो, वीडियो और उनकी पुस्तकों में लिखित साक्ष्यों एवं हिन्दुधर्म को अपमानित करने पर बहुत कम लोगों ही दण्डित हुए होंगे। हिन्दुधर्म पर अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बनना आवश्यक होता जा रहा है। जनहित याचिकाएँ एवं यदा-कदा न्यायालय के संज्ञान में आने पर भी स्वमेव कार्यवाही होते देखी गई हैं। क्या ऐसे ही किसी तरह से इन गतिविधियों पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। इन कृत्यों पर देश के तथाकथित कर्णधारों, धार्मिक संगठनों और जन सामान्य द्वारा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। आखिर ऐसी जागरूकता एवं समझदारी लोगों में कब आएगी। गहन चिंतन करने पर यह पता चलता है कि अन्य धर्मों की अपेक्षा हिन्दुधर्म के देवी-देवताओं और ग्रंथों में लिखे गए विषयों और प्रसंगों पर कुछ ज्यादा ही कुतर्क किए जाते हैं लेकिन यह बात भी दृढ़ता से कही जा सकता है कि हिन्दुधर्म व हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के सतही अध्ययन व अपूर्ण उद्देश्यप्रधान जानकारी के अभाव में ही ये सब अल्पज्ञ लोग घटिया तर्कों का सहारा लेकर हमारे धर्म पर कीचड़ उछलते हैं।
हम सभी जानते हैं कि हर चीज व हर बातें समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। तुलसीदास जी, बाल्मीकि जी, वेदव्यास जी सहित ऐसे अनेक प्रकांड हिन्दु विद्वानों द्वारा ग्रंथों में लिखी गईं एक एक बात तात्कालिक दृष्टि से शत प्रतिशत सही है। आज भी कुछ ऐसे लोग व जातियाँ हैं, जिनके पूर्वज स्वयं उन्हीं नामों से स्वयं का परिचय देते थे परंतु आज उन्हीं शब्दों के संबोधन असंगत या बुरे लगते हैं। तब उन बातों को हम उसी समय के लिए ही छोड़ देना श्रेयस्कर क्यों नहीं मानते। क्या विरोध करने से ग्रंथों के भी शब्द बदल जाएँगे। क्या मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के नाम पुरानी पुस्तकों या अभिलेखों से हटा सकते हैं। नहीं न। फिर कुछ ऐसी ही सरल-सहज पढ़ी-लिखी गईं विगत धार्मिक और सामाजिक बातों की आड़ में विषवमन क्यों किया जाता है। इन पर अमर्यादित धार्मिक अभिव्यक्ति कतई न्याय संगत नहीं है। देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो हिन्दु होते हुए भी अपने ही धार्मिक ग्रंथों और देवी-देवताओं पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर कीचड़ उछालते रहते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि एक सीमा के बाद गलत अभिव्यक्ति भी आपराधिक कृत्य माना जा सकता है।
देवी देवताओं के नामों पर असंगत दुकानों, उपयोगी वस्तुओं, सेवाओं के साथ इनका नाम नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जूते, चप्पल, मांस-मदिरा के उत्पादों पर धार्मिक चित्रों के उपयोग पर प्रतिबंध होना चाहिए। धर्म, देवी-देवताओं, ग्रंथों आदि पर कटाक्ष तथा माखौल उड़ाने पर ऐसे लोगों की निंदा एवं बहिष्कार जैसे कदम उठाए जाना चाहिए।
हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति का यह एक बेहद संवेदनशील विषय है। इस पर हिंदुओं सहित हर धर्म के लोगों को भी सोचना होगा कि हम ऐसे कोई कार्य न करें, जिससे किसी भी धर्म की भावनाओं को ठेस पहुँचे। धर्म लोगों के जीवन का अभिन्न अंग होता है। धर्म पथ पर चलने के आचार एवं व्यवहार हमें विरासत में मिलते हैं। आस्था हमारे हृदय में बसी होती है। धर्म व धर्मावलंबी होने के अस्तित्व परस्पर पूरक होते हैं। इसलिए इनकी मान-मर्यादा एवं सम्मान को बनाए रखना हम सबका दायित्व है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
अपने मनोबल से कोरोना को पराजित कर लौटे श्री संतोष नेमा युगल का ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक अभिनंदन।