(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर एक हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 61 ☆
☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆
मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।
बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?
मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का समसामयिक विषय पर आधारित एक भावप्रवण कविता ‘बसन्त की बात’।इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 96☆
बसन्त की बात
लो हम फिर आ गये
बसन्त की बात करने ,रचना गोष्ठी में
जैसे किसी महिला पत्रिका का
विवाह विशेषांक हों , बुक स्टाल पर
ये और बात है कि
बसन्त सा बसन्त ही नही आता अब
अब तक
बसन्त बौराया तो है , पर वैसे ही
जैसे ख़ुशहाली आती है गांवो में
जब तब कभी जभी
हर बार
जब जब
निकलते हैं हम
लांग ड्राइव पर शहर से बाहर
मेरा बेटा खुशियां मनाता है
मेरा अंतस भी भीग जाता है
और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का
मौसम के बदलते मिजाज का अहसास
हमारी बसन्त से जुड़ी खुशियां बहुगुणित कर देता है
किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें
बसन्त की सौगात
क्योकि बसंत वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही होता है
( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 56 – कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा… ☆
साधना किसी की भी हो परन्तु आराधना तो मेरी ही होनी चाहिए। इसी को आदर्श वाक्य बनाकर लेखचन्द्र जी सदैव की तरह अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। जो कुछ करेगा, उसे बहुत कुछ मिलेगा, ये राग अलापते हुए वे निरंतर एक से बड़े एक फैसले धड़ाधड़ लेते जा रहे हैं। और उनके अनुयायी, रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय के रास्ते पर चलते हुए हर आदेशों को प्रेम भाव से स्वीकारते जा रहें हैं। भई विश्वास हो तो ऐसा कि आँख, कान, मुँह बंद कर भी किया जा सके। हो भी क्यों न उनके आज तक के सभी निर्णय सफल हुए हैं,ये बात अलग है कि इस सफलता के पीछे मूलभूत आधार स्तम्भों की भक्ति सह शक्ति कार्य कर रही है।
यहाँ फिर से कार्य आ धमका, आराम हराम होता है, अतः कुछ तो करना ही है सो क्यों न सार्थक किया जाए, जिससे सभी के मुँह में घी -शक्कर हो। इतिहास गवाह है, जब- जब सबके हित में कार्य किया गया है तो अवश्य ही उम्मीद से ज्यादा लाभ कार्य शुरू करने वाले को हुआ है।
पल में तोला, पल में माशा, अपनी खुशी का रिमोट किसी के भी हाथों में देकर हम लोग नेतृत्व करने का विचार रखते हैं। अरे भई जब हमारा स्वयं पर ही नियंत्रण नहीं है तो दूसरों पर कैसे होगा। हमारा व्यवहार तो इस बात पर निर्भर करता है कि सामने वाले ने हमारे साथ कैसा आचरण किया है। इसी कड़ी में एक चर्चा और निकल पड़ी कि ऐसे लोग जो हर दल में शामिल होकर केवल मलाई खाकर ही अपना गुजर बसर चैन पूर्वक करते चले आ रहें हैं, जब वे कुछ करते हैं तो कैसे -कैसे बखेड़े खड़े हो जाते हैं। एक आयोजन में सभी दल के लोग आमंत्रित थे। एक ही आमंत्रण पत्र सारे दलों के व्हाट्सएप पर सबके पास पहुँच गया। पार्टी में भाँति- भाँति के लोगों से खूब रौनक जमीं। सारे लोग दलगत राजनीति भूलकर एक दूसरे से गले मिलते हुए एक ही मेज पर बैठकर रसगुल्ले,चमचम उड़ा रहे थे।
इस मेल मिलाप से प्रेरित हो सारे मीडिया कर्मी भी एकजुट होकर, एक जैसी रिपोर्ट बनाकर ही प्रसारित करेंगे ये फैसला मन ही मन ले बैठे। अब तो वे एक साथ सारी बातों को समेटने लगे। अगले दिन जब खबर छपी तो इधर के नाम उधर, उधर के नाम इधर छप चुके थे। अब तो हड़कंप मच गया। सारे दलों के मुखिया भयभीत हो अकस्मात अपने – अपने पार्टी कार्यालयों में मीटिंग करते दिखे, उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं होने वाला है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कभी गलत हो ही नहीं सकता,आखिर आँखों देखी ही तो कहते हैं, लिखते व दिखाते हैं। मन ही मन बैचैन होकर वे लोग अंततः किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कहीं से कोई ऑडियो वायरल होने की खबर, तो कहीं से लार टपकाते लोग दिखाई देने लगे। ये कहीं शब्द तो एकजुटता पर भारी होता हुआ प्रतीत होने लगा, तभी मुस्कुराते हुए अनुभवीलाल जी कहने लगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, जितना तोड़ा उतना जोड़ा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है “हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78☆
☆ हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆
मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं। उड़ नहीं पाता हूं इस कारण उड़ान रहित पक्षी कहलाता हूं। मेरे वर्ग में एमु, कीवी पक्षी पाए जाते हैं। चुंकि मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं इसलिए सबसे ज्यादा वजनी भी हूं। मेरा वजन 120 किलोग्राम तक होता है। अंडे भी सबसे बड़े होते हैं।
मैं शाकाहारी पक्षी हूं । झुंड में रहता हूं। एक साथ 5 से 50 तक पक्षी एक झुंडमें देखे जा सकते हैं। मैं संकट के समय, संकट से बचने के लिए जमीन पर लेट कर अपने को बचाता हूं । यदि छुपने की जगह ना हो तो 70 किलोमीटर की गति से भाग जाता हूं।
मेरी ऊंचाई ऊंट के बराबर होती है। मैं जिस गति से भाग सकता हूं उतनी ही गति से दुलत्ती भी मार सकता हूं। मेरी दुलत्ती से दुश्मन चारों खाने चित हो जाता है।
मैं अपने खाने के साथ-साथ कंकर भी निकल जाता हूं। यह कंकरपत्थर मेरे खाने को पीसने के काम आते हैं। इसी की वजह से पेट में खाना टुकड़ोंटुकड़ों में बढ़ जाता है।
क्या आप मुझे पहचान पाए हैं ? यदि हां तो मेरा नाम बताइए ? नहीं तो मैं बता देता हूं। मुझे शुतुरमुर्ग कहते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।
(लघु बोध कथांचा हा उपक्रम आज संपतोय. आज शेवटची कथा आपण वाचणार आहोत. संस्कृत दुर्मिळ कथांचे मराठीत भाषांतर या निमित्ताने पूर्ण झाले. अरुंधती ताईंचे अत्यंत आभारी आहोत. ? रसिकहो या बद्दल आपल्याही प्रतिक्रिया जाणून घ्यायला आवडेल. ? – सम्पादक ई-अभिव्यक्ति (मराठी) )
कथा २१. आव्हान
महिलापुर नगरात एक वाणी होता. त्याच्या पत्नीचे नाव चंद्रमुखी व मुलाचे नाव सुमती होते. सुमती पाच वर्षांचा असतानाच वाण्याचे निधन झाले. आता त्या दोघांचे रक्षण करणारे कोणी नव्हते म्हणून चंद्रमुखी सुमतीला घेऊन पतीच्या मित्राकडे – दुसऱ्या वाण्याकडे आली. त्याने त्या दोघांना आदराने स्वतःच्या घरी ठेऊन घेतले व अन्न-वस्त्र देऊन रक्षण केले.
काही काळाने सुमतीचा विद्याभ्यास पूर्ण झाल्यावर चंद्रमुखी त्याला म्हणाली, “आता तू काहीतरी करून जीवन व्यतीत करावेस. आता इथे रहाणे योग्य नाही. आपला वाण्याचा पूर्वापार उद्योग आहे. तेव्हा तूसुद्धा तो केलास तर बरे होईल. त्यासाठी तुला काय करायचे आहे ते ऐक. या नगरच्या जवळच कुंडिनपुर नावाचे नगर आहे. तेथे धर्मपाल नावाचा वाणी आहे. तो त्याच्याकडे आलेल्यांना व्यापारासाठी अपेक्षित धन देतो. तू त्याच्याकडे गेलास तर सुखी होशील.”
सुमती आपल्या मातेचा निरोप घेऊन त्या धर्मपालाकडे आला. तेव्हा तो पूर्वी त्याच्याकडून अनेकवेळा धन घेऊन गेलेल्या व पुन्हा काही धन मागण्यासाठी आलेल्या माणसाला संबोधून म्हणाला, “अरे, आजपर्यंत तू मागत असलेले धन मी तुला दिले. तू काहीसुद्धा धनार्जन न करता ते धन संपवून परत धन मागण्यासाठी आलास! बुद्धिमान लोक मेलेल्या उंदरालासुद्धा भांडवल करून त्याच्या प्रयोगाने धनप्राप्ती करू शकतात. तू धन कमावण्यास पात्र नाहीस. मी तुला थोडेसुद्धा धन देणार नाही.”
सुमतीने वाण्याचे ते बोलणे ऐकून तो मृत उंदीर मला द्यावा अशी त्याच्याकडे विनंती केली. हा मुलगा माझी टिंगल करण्यासाठी आला आहे असे समजून रागावलेल्या वाण्याने त्याला एक मेलेला उंदीर देऊन निघून जाण्यास सांगितले.
सुमती तो मृत उंदीर बाजारात विकण्यासाठी घेऊन आला. तो गिऱ्हाईकाची प्रतिक्षा करत असताना एका मनुष्याने आपल्या मांजरीच्या पिल्लाला खाण्यासाठी म्हणून तो उंदीर भाजलेले चणे त्याला देऊन विकत घेतला. नंतर सुमती गावाजवळच्या एका मोठ्या झाडाच्या सावलीत बसून त्या मार्गाने जाणाऱ्या थकलेल्या लाकूड वाहणाऱ्या लोकांना थोडे चणे व पाणी देत असे. चणे खाऊन व पाणी पिऊन ताजेतवाने झालेले ते लोक आपल्या लाकडाच्या भाऱ्यातील एक एक लाकूड काढून त्याला मोबदला म्हणून देत असत.
अशा प्रकारे थोड्या दिवसांनंतर त्याच्याजवळ जमा झालेले लाकूड सुमतीने विकले. त्याद्वारे जमा झालेल्या पैशांतून तेथे आणलेल्या सगळ्या लाकडाच्या भाऱ्यांची खरेदी करून सुमतीने ते लाकूड स्वतःच्या घरी आणले. दुसऱ्या दिवसापासून आठ दिवस सतत मुसळधार पाउस पडत होता. त्यामुळे लोकांना इंधन मिळणे कठीण झाले. त्यावेळी सुमतीने साठवलेल्या लाकडाच्या भाऱ्यांची अधिक किंमत घेऊन विक्री केली. त्यामुळे त्याला भरपूर धनप्राप्ती होऊन तो सुखाने राहू लागला.
तात्पर्य – बुद्धिमान लोक टाकाऊ गोष्टीचा सुद्धा युक्तीने उपयोग करून त्यांची उपयुक्तता सिद्ध करून दाखवतात व सुख मिळवतात.
☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०-३) – राग~मारवा, पूरिया ~सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆
सोहोनी
सोहोनी म्हणजे पूरियाचीच प्रतिकृति,फरक इतकाच की पूरिया पूर्वांगात तर सोहोनी उत्तरांगात रमणारा राग. तार षड् ज हे सोहोनीचे विश्रांतीस्थान. मध्यसप्तकांतील सुरांकडे येऊन तो पुन्हा तार षड् जाकडे धांव घेतो. उत्तरांगातील धैवत आणि पूर्वांगांतील गंधार हे याचे अनुक्रमे वादी/संवादी स्वर म्हणजे मुख्य स्वर.
मारवापूरियासोहोनी, सगळ्यांचे स्वर तेच म्हणजे रिषभ कोमल आणि मध्यम तीव्र.
सा ग (म)ध नी सां/सां (रें)सां,नी ध ग,(म)ध,(म)ग (रे)सा असे याचे आरोह अवरोह.कंठाच्या सोयीसाठी आरोही रचनेत रिषभ वर्ज्य केला जातो. सांनी ध, ग (म)ध नी सां ही रागाची मुख्य सुरावट त्याचे स्वरूप स्पष्ट करते. पंचम वर्ज्य असल्याचे वरील स्वर समूहावरून वाचकांच्या लक्षात येईलच. वेगळे सांगण्याची आवश्यकता नाही.
मारवा कुटुंबांतील हे कनिष्ठ भावंड अतिशय उच्छृंखल, चंचल प्रवृत्तीचे असल्याचे लक्षांत येते.
मारव्यांत कोमल रिषभाला प्राधान्य तर सोहोनीत रिषभाचा वापर अत्यंत अल्प स्वरूपात त्यामुळे मारव्याची कातरता, व्याकूळता यांत नाही.
सोहोनीचा जीव तसा लहानच. त्यामुळे जास्त आलापी यांत दिसून येत नाही. अवखळ स्वरूपाचा हा राग मुरक्या, खटका, लयकारी यांत अधिक रमतो. नृत्यातल्या पद रचना, एकल तबल्याचा लेहेरा अशा ठिकाणी सोहोनी चपखल बसतो. पट्टीचा कलावंत मात्र हा अल्पजीवी राग मैफिलीत असा काही रंग भरतो, की तो त्याला एका विशिष्ठ ऊंचीवर नेऊन ठेवतो, आणि त्यानंतर दुसरा राग सादर करणे अवघड होऊन बसते.
सुप्रसिद्ध अभिनेत्या भारती आचरेकर यांनी एकदां त्यांच्या मातोश्री कै. माणिकबाई वर्मा यांची आठवण सांगतांना एक किस्सा सांगितला होता. माणिक वर्मांनी एका मैफिलीत “काहे अब तुम आये हो” ही सोहोनीतील बंदीश पेश केली होती. रात्र सरत आल्यावर घरी परत आलेला तो, त्याच्याविषयीचा राग, मनाची तडफड पण त्याच क्षणी त्याच्याविषयी वाटणारी ओढ हा सगळा भावनाविष्कार त्या बंदीशीतून अगदी सहज साकार झाला होता. श्रोत्यांमध्ये पू.ल. देशपांडे बसले होते. ते सहज उद्गारले, “मी यापुढे कित्येक दिवस दुसरा सोहोनी ऐकूच शकणार नाही.”
राधा~कृष्णाच्या रासक्रीडेवर आधारित सोहोनीच्या अनेक बंदीशी आहेत. “रंग ना डारो श्यामजी गोरीपे” ही कुमारांची बंदीश प्रसिद्धच आहे.”अरज सुनो मेरी कान्हा जाने अब। पनिया भरन जात बीच रोकत बाट।” ह्या बंदीशीतही गोपींची छेड काढणारा नंदलाल आपल्याला दिसतो.
भक्तीरसाचा परिपोष सोहोनीच्या सुरावटीतून किती सहज दिसून येतो याचे उत्तम उदाहरण म्हणजे पं.जितेंद्र अभिषेकीबुवांनी गायिलेला “हरीभजनावीण काळ घालवू नको रे” हा अभंग!
सिनेसंगीतात ह्या रागावर आधारित बरीच गाणी आढळतात. स्वर्ण सुंदरी मधील अजरामर गीत “कुहू कुहू बोले कोयलीया” यांत दुसरे अनेक राग असले तरी मुखडा सोहोनीचाच आहे. “जीवन ज्योत जले” हे आशा भोसले यांनी गायीलेले गाणे जुने असले तरी परिचित आहे. मुगले आझम
मधील “प्रेम जोगन बन” हे गीत सोहोनीलच! बडे गुलामअली खाॅं यांची “प्रेमकी मार कट्यार” ही ठुमरी काळजाचा ठाव घेणारी~ संगीतकार भास्कर चंदावरकरांनी सामना या सिनेमांत “सख्या रे घायाळ मी हरिणी” हे सोहोनीच्या स्वरांतच निबद्ध केलेले आहे.
सोहोनीबहार,सोहोनीपंचम, कुमार गंधर्वांचा सोहोनी~भटियार असे काही सोहोनीबरोबर केलेले जोड रागही रसिक वर्गांत मान्यता पावलेले आहेत.
चिरस्मरणीय असा हा सोहोनी भावदर्शी आणि चित्रदर्शी आहे.
(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना भीतर का बसन्त सुरभित हो….। )
☆ तन्मय साहित्य #84 ☆ भीतर का बसन्त सुरभित हो …. ☆