(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “शंकित हिरनी जैसे … ”। )
श्री शांतिलाल जैन (आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक व्यंग्य “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं”। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 18 ☆
☆ व्यंग्य – बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆
वो हमारे घर आया करती थी, सिर पर टोकरा रखे, किसम किसम के बर्तनों से सजा टोकरा लिये. माँ उससे बर्तन ले लेती और बदले में पुराने कपड़े दे देती. फिर वो एक दूसरे अवतार में बदल गई, उसकी भूमिका भी बदल गई, उसका बेस भी बदल गया, उसके काम की व्याप्ति प्रदेश और देश के स्तर पर हो चली. मगर उसका मूल काम वही का वही रहा, अब उसके टोकरे में मिक्सर, कलर टीवी, स्कूटी, लैपटॉप, मंगलसूत्र, स्मार्ट फोन, फ्री वाईफ़ाई और साईकिल जैसी चीज़ें होती हैं, बदले में आपको उसके कहने पर महज़ एक वोट देना होता है. तस्दीक करना चाहते हैं आप? ध्यान से देखिये माई के टोकरे को, टोकरा इक्कीस-बाईस के बजट का. पूरे सवा दो लाख करोड़ रुपये का ऐलान चस्पा कर दिया गया है तमिलनाडु, केरल, बंगाल, असम के लिये. गिव, गेव, गिवन. उन्होने दे दिया है फिलवक्त रिस्पॉन्ड इन चारों राज्यों के वोटरों को करना है. ज्यादा कुछ नहीं, बैलट मशीन में उनकी छाप का बटन दबाकर आना है, बस हो गया, थैंक-यू. दर्जनों परियोजनाओं का शुभारंभ, भूमिपूजन या लोकार्पण उस राज्य में जहां चुनाव का तम्बू गड़ चुका. घबराईये नहीं आपके राज्य को भी मिलेगा, दो हजार चौबीस आने तो दीजिये. पुरानी पेंट सा कीमती वोट संभालकर रखियेगा अभी हम जरा दूसरे राज्यों में फेरी लगाकर आते हैं.
बर्तनों के उनके टोकरों ने अब तो स्टॉल का आकार ले लिया है, जनतंत्र के मेले में ‘फ्री-बीज़’ के स्टॉल्स, छांटो-बीनों हर माल एक वोट में. क्या करियेगा पुरानी पेंटों का – कम से कम एक पतीली ही ले लीजिये कि धरा रह जाएगा आपका वोट अठ्ठाईस तारीख की शाम पाँच बजे के बाद – हमें ही दे दीजिये, हम आपको साथ में एक बोतल भी दे रहे हैं. बाद में पेंट-कमीज़-वोट का क्या आचार डालियेगा. जब तक जनतंत्र है वोट की मंडी लगी पड़ी है. रंगीन टीवी, लैपटॉप और स्मार्ट-फोन – एक वोट में तीन आईटम फ्री बाबूजी. प्रोमो-कोड ‘VOTE’ डालिये और पाईये अपनी जात-बिरादारी के आदमी को मंत्री बनवाने का सुनहरा मौका. हमारी पार्टी को रेफर करिये और पाईये कैश-बैक सीधे खाते में. अभी मौका है, फिर पाँच साल तक न टोकरा रहेगा, न बर्तन, न पुरानी पेंटों पर एक्सचेंज की सुविधा.
जनतंत्र के मेले में दरियादिली की चकाचौंध इस कदर मची है कि दाताओं के मन का अंधियारा भांप नहीं पाते आप. इसका मतलब यह भी नहीं कि अंधेरा पसरा नहीं है. कृत्रिम उजास है, चुनाव की बेला में ‘गुडी-गुडी’ का एहसास कराता हुआ. अधिसूचना के जारी होते ही पाँच साल का स्याह समां गुलाबी हो उठता है, वोटिंग की शाम से पाँच साल के लिये काला हो जाने की नियति लिये. सारी चकाचौंध बस मशीन का खटका दबाने की घड़ी तक ही है, फिर तो अंधियारा ही अंधियारा है. अंधियारा बेरोजगारी का, महंगाई का, मुफ़लिसी का, बेबसी का. स्मार्ट फोन एक नहीं दो ले लीजिये – रोजगार नहीं दे पायेंगे.
सुपर-रिच घरों के कपड़ों में निकलते हैं बिग-टिकट इलेक्टोरल बॉन्ड, टोकरों में धरे महंगे सरोकार उन्ही के लिये हैं. टुच्चे प्रतिफल हैं आपके लिये – सस्ते घिसे पुराने कपड़ों के बद्दल. पुराने कपड़ों के ढ़ेर से बने चढ़ाव बौने नायकों को उंचे ओहदों तक पहुँचा सकते हैं. पहुँचा क्या सकते हैं कहिये कि पहुँचा दिये हैं, आसन जमा लिया है उन्होने वहाँ. वे वहाँ बने रहें इसी में उस एक प्रतिशत का फायदा है जो काबिज हैं मुल्क की सत्तर प्रतिशत संपदा पर. बौने जब पुरानी कमीज़-पेंट ले जाते हैं तब वे चुपके से जनतंत्र पर से आपका भरोसा भी ले जाते हैं और आपको पता भी नहीं चल पाता. बौने कृतज्ञ हैं – बर्तनवाली माई ने राह जो दिखाई है. ध्यान से देखिये – फिलवक्त, बौने इसी लेन-देन में व्यस्त हैं.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं साहित्यकार श्री रमेश सैनी जी का साक्षात्कार। )
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है बसंत ऋतू के आगमन पर एक भावप्रवण कविता “बसंत आ रहा है”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मजेदार व्यंग्य ‘भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 88 ☆
☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा ☆
यह दिन की तरह साफ है कि भारत में पतियों की ग्रहदशा गड़बड़ चल रही है। टीवी पर हर दूसरे दिन किसी न किसी पति की फजीहत पत्नी के हाथों हो रही है—वही पत्नी जिसके लिए पति ‘प्रान पियारे’ और ‘प्रान अधार’ हुआ करता था। अब प्रान अधार प्रान बचाते फिर रहे हैं और प्रानपियारी उन्हें पछया रही है। और इन टीवी वालों को भी कोई काम नहीं, कैमरा लटकाये पत्नियों की बगल में दौड़ रहे हैं। घोर कलियुग! महापातक! निश्चय ही ऐसी पत्नियों के साथ ये टीवी वाले भी नर्क के भागी बनेंगे। सबसे खराब बात यह है कि पतियों की पिटाई टीवी पर बार बार दिखायी जाती है, जैसे कि टीवी की सुई वहीं अटक गयी हो। सबेरे सबेरे टीवी खोलते ही कोई न कोई पति पिटता मिल जाता है। निश्चय ही यह स्थिति भारतीय पतियों के मनोबल के लिए घातक है।
एक पति की उनकी पत्नी ने कैमरे के सामने जी भर कर पिटाई की। एक और पति चौराहे पर पत्नी और उसके रिश्तेदारों द्वारा लात जूतों से सम्मानित हुए। एक पत्नी उस वक्त शादी के स्टेज पर पहुँच गयीं जब पतिदेव सज-सँवर कर दूसरी पत्नी के साथ वरमाला की तैयारी में थे। इस घटना में पति के साथ भावी सौत का भी पर्याप्त सम्मान हुआ। एक मोहतरमा अपने पति द्वारा छद्म नाम से की गयी शादी के बाद आयोजित दावत में पहुँच गयीं। वहाँ पतिदेव पर तो कुर्सियाँ फेंकी ही गयीं, वहाँ पधारे मेहमानों की भी अच्छी आवभगत हुई। इसी सिलसिले में एक ऐसे पतिदेव की भी हड्डियाँ टूटीं जो चार बच्चों के बाप होने के बावजूद चुपचाप दूसरी शादी रचा रहे थे।
दरअसल जब से टीवी आया है तब से भारतीय संस्कृति की चूलें हिलने लगी हैं। पहले पति सौत वौत ले आता था तो पत्नी बिलखती हुई गंगा जी का रुख़ करती थी, अब वह सबसे पहले टीवी वालों को ढूँढ़ती है। बेचारा पति बीवी से तो निपट लेता था, लेकिन इन टीवी वालों से कैसे निपटे? ये तो साधु-सन्तों को भी काले धन को सफेद करते दिखा रहे हैं। कोई वर दहेज माँगने पर जेल के सींखचों के पीछे पहुँच जाए तो वहाँ भी टीवी वाले फोटू उतारने पहुँच जाते हैं ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आवे, जबकि सर्वविदित है कि दहेज हमारी सदियों की पाली- पोसी परंपरा है। टीवी ऐसे ही चीरहरण करता रहा तो हमारी संस्कृति की महानता खतरे में पड़ सकती है।
हमारे देश में हमेशा से पति का दर्जा परमेश्वर का रहा है। पत्नियाँ तीजा और करवाचौथ के व्रत रखती रहीं ताकि पतिदेव स्वस्थ प्रसन्न रहें और पत्नी का सुहाग अजर अमर रहे। मैंने एक पत्रिका में पढ़ा था कि एक समय पत्नियाँ पति के पैर के अँगूठे को धोकर जो जल प्राप्त होता था उसी को पीती थीं,और यदि पतिदेव कुछ समय के लिए घर से बाहर जाते थे तो अँगूठा धो धो कर घड़े भर लेती थीं ताकि पतिदेव की अनुपस्थिति में अन्य जल न पीना पड़े। लेख में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अँगूठा धुलवाने से पहले पतिदेव पाँव धोते थे या नहीं। फिल्मों में पत्नियाँ गाती थीं—‘कौन जाए मथुरा, कौन जाए काशी, इन तीर्थों से मुझे क्या काम है; मेरे घर में ही हैं भगवान मेरे, उनके चरणों में मेरे चारों धाम हैं।’
लेकिन अब पत्नियों ने पता नहीं कौन सा चश्मा पहन लिया है कि उन्हें पति में परमेश्वर के बजाय मामूली आदमी नज़र आने लगा है। अर्श से फर्श पर उतरने के बाद बेचारा पति परेशान है क्योंकि वह इस नयी हैसियत से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है।
मेरी मति में पतियों की इस दुर्दशा का कारण स्त्री-शिक्षा का बढ़ना और स्त्री का स्वावलम्बी होना है। पहले स्त्री अल्पशिक्षित होती थी और इस कारण पूरी तरह से पति पर निर्भर होती थी। वह उतनी ही किताबें पढ़ती थी जो पति को परमेश्वर सिद्ध करती थीं और जो उसे सिर्फ चिट्ठी- पत्री के काबिल बनाती थीं। अब स्त्रियाँ दुनिया भर की ऊटपटाँग किताबें पढ़ने लगी हैं और बड़ी बड़ी कुर्सियों पर बैठने लगी हैं। उन्हें पता चल गया है कि संविधान और कानून ने उन्हें बहुत से अधिकार दिये हैं। इस मामले में स्त्रियों को बरगलाने में टीवी ने खूब विध्वंसकारी भूमिका निभायी है। अब कम पढ़ी-लिखी पत्नी भी जानती है कि पतिदेव की टाँग कैसे पकड़ी जा सकती है। नतीजा यह कि पति की हैसियत दो कौड़ी की हो गयी है।
फिर भी पत्नियों को पति के बहकने पर गुस्सा करने से पहले हमारे इतिहास पर विचार करना चाहिए। पुरुषों में दांपत्य के राजमार्ग से बहकने भटकने की प्रवृत्ति हमेशा रही है और स्त्री सदियों से इसे अपनी नियति मानकर सन्तोष करती रही है। एकनिष्ठ होने की अपेक्षा पत्नियों से ही रही है, पतियों से नहीं। धर्मग्रंथों में पतिव्रताओं की महिमा खूब गायी गयी, लेकिन जो पति एकनिष्ठ रहे उनका नाम कोई नहीं लेता। राजाओं नवाबों के रनिवास और हरम पत्नियों से इतने भरे रहे कि पतिदेव अपनी पत्नियों और सन्तानों को पहचान नहीं पाते थे, लेकिन पत्नी बहकी तो गयी काम से। ‘साहब बीवी गुलाम’ के बाबू लोग रोज़ गजरा लपेटकर कोठों की सैर करते थे, लेकिन छोटी बहू ने भूतनाथ से कुछ मन की बात कर ली तो तत्काल उसकी ज़िन्दगी का फैसला हो गया।
इसलिए भारत सरकार से मेरी दरख्वास्त है कि पतियों की पिटाई टीवी पर दिखाने पर तत्काल रोक लगायी जाए और इस संबंध में ज़रूरी कानून बनाया जाए ताकि पतियों की हैसियत और उनके मनोबल मेंं और गिरावट न हो। इसके साथ ही पतियों के खराब ग्रहों की शान्ति के लिए कुछ अनुष्ठान वगैरः भी कराया जाए।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 87 ☆ कालाय तस्मै नम: !☆
संध्या समय प्राय: बालकनी में मालाजप या ध्यान के लिये बैठता हूँ। देखता हूँ कि एक बड़ी-सी छिपकली दीवार से चिपकी है। संभवत: उसे मनुष्य में काल दिखता है। मुझे देखते ही भाग खड़ी होती है। वह भागकर बालकनी के कोने में दीवार से टिकाकर रखी इस्त्री करने की पुरानी फोल्डिंग टेबल के पीछे छिप जाती है।
बालकनी यूँ तो घर में प्रकाश और हवा के लिए आरक्षित क्षेत्र है पर अधिकांश परिवारों की बालकनी का एक कोना पुराने सामान के लिये शनै:-शनै: आरक्षित हो जाता है। इसी कोने में रखी टेबल के पीछे छिपकर छिपकली को लगता होगा कि वह काल को मात दे आई है। काल अब उसे देख नहीं सकता।
यही भूल मनुष्य भी करता है। धन, मद, पद के पर्दे की ओट में स्वयं को सुरक्षित समझने की भूल। अपने कथित सुरक्षा क्षेत्र में काल को चकमा देकर जीने की भूल। काल की निगाहों में वह उतनी ही धूल झोंक सकता है जितना टेबल के पीछे छुपी छिपकली।
एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अनन्य मूर्तियाँ बनाता था। ऐसी सजीव कि जिस किसीकी मूर्ति बनाये, वह भी मूर्ति के साथ खड़ा हो जाय तो मूल और मूर्ति में अंतर करना कठिन हो। समय के साथ मूर्तिकार वृद्ध हो चला। ढलती साँसों ने काल को चकमा देने की युक्ति की। मूर्तिकार ने स्वयं की दर्जनों मूर्तियाँ गढ़ डाली। काल की आहट हुई कि स्वयं भी मूर्तियों के बीच खड़ा हो गया। मूल और मूर्ति के मिलाप से काल सचमुच चकरा गया। असली मूर्तिकार कौनसा है, यह जानना कठिन हो चला। अब युक्ति की बारी काल की थी। ऊँचे स्वर में कहा, ‘अद्भुत कलाकार है। ऐसी कलाकारी तो तीन लोक में देखने को नहीं मिलती। ऐसे प्रतिभाशाली कलाकार ने इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी?” मूर्तिकार ने तुरंत बाहर निकल कर पूछा,” कौनसी भूल?” काल हँसकर बोला,” स्वयं को कालजयी समझने की भूल।”
दाना चुगने से पहले चिड़िया अनेक बार चारों ओर देखती है कि किसी शिकारी की देह में काल तो नहीं आ धमका? …चिड़िया को भी काल का भान है, केवल मनुष्य बेभान है। सच तो यह है कि काल का कठफोड़वा तने में चोंच मारकर भीतर छिपे कीटक का शिकार भी कर लेता है। अनेक प्राणी माटी खोदकर अंदर बसे कीड़े-मकोड़ों का भक्ष्ण कर लेते हैं। काल, हर काल में था, काल हर काल में है। काल हर हाल में रहा, काल हर हाल रहेगा। काल से ही कालचक्र है, काल ही कालातीत है। उससे बचा या भागा नहीं जा सकता।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 43 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 43) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘भारत का भाषा गीत’। )