मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

माय मराठी मराठी, जसे बकुळीचे फूल

दूर दूर पोचवी गं ,  अंतरीचा परीमल . . . !

 

कधी  ओवी ज्ञानेशाची ,  कधी गाथा तुकोबांची

शब्द झाले पूर्णब्रम्ह,  गाऊ महती संतांची. . . . !

 

संतकवी,  पंतकवी, संस्कारांचा पारीजात .

रूजविली पाळेमुळे,  अभिजात साहित्यात. . .  !

 

कधी भक्ती, कधी शक्ती,  कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला,क्रीडा,  धावे मराठी ऐटीत. .  !

 

माय मराठीची वाचा,  लोकभाषा अंतरीची .

भाषा कोणतीही बोला,  नाळ जोडू ह्रदयाशी . .  !

 

कधी मैदानी खेळात, कधी मर्दानी जोषात.

माय मराठी खेळते, पिढ्या पिढ्या या दारात. ..!

 

कोसा कोसावरी बघ,  बदलते रंग रूप.

कधी वर्‍हाडी वैदर्भी, कधी कोकणी प्रारूप. . . !

 

माय मराठीचे मळे , रसिकांच्या काळजात.

कधी गाणे, कधी मोती, सृजनाच्या आरशात. . !

 

महाराष्ट्र भाषिकांची, माय मराठी माऊली

जिजा,विठा,सावित्रीची,तिच्या शब्दात साऊली . !

 

अन्य भाषिक ग्रंथांचे, केले आहे भाषांतर

विज्ञानास केले सोपे, करूनीया स्थलांतर. . . !

 

शिकूनीया लेक गेला, परदेशी आंग्ल देशा

माय मराठीची गोडी, नाही विसरला भाषा. . . !

 

नवरस,अलंकार, वृत्त छंद,साज तिचा .

अय्या,ईश्य,उच्चाराला, प्रती शब्द नाही दुजा.. !

 

माय मराठीने दिला, कला संस्कृती वारसा

शाहीरांच्या पोवाड्यात,तिचा ठसला आरसा.  !

 

माय मराठीने दिली, नररत्ने अनमोल.

किती किती नावे घेऊ, घुमे अंतरात बोल. . .!

 

माय मराठी मराठी, कार्य तिचे अनमोल .

शब्दा शब्दात पेरला , तीने अमृताचा बोल. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ११) – राग~मधूवंती ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ११) – राग~मधूवंती ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सूरसंगतराग~मधूवंती

“रंजयती इति राग” असे संगीतांतील रागांविषयी म्हटले जाते. कोणताही राग घ्या, रसिकांचे मनोरंजन करणे हेच त्याचे काम!राग म्हणजे तरी नेमके काय? तर कमीत कमी पांच व अधिकाधिक सात शुद्ध/कोमल स्वरांची गुंफण!

मधूवंती हा त्यामानाने आधुनिक असा सुमधूर राग.

कुमार गंधर्व आणि वसंतराव देशपांडे यांचे फार जवळचे स्नेहसंबंध होते.वसंतराव कुमारांना गुरू मानत असत.काही कारणांमुळे दोघांत वाद होऊन थोडा दुरावा निर्माण झाला होता,त्यावेळी मनाच्या विमनस्क अवस्थेत वसंतरावांनी

“मैं आऊ तोरे मंदरवा

पैय्या परत देहो मनबसिया”

अशा अस्थाईच्या दोन ओळी लिहून पाठविल्या.त्यावर कुमारांनी ताबडतोब “अरे मेरो मढ्ढैया तोरा आहे रे।काहे धरो चरन मोरे मनबसिया।।” असा अंतरा लिहून पाठविला व बंदीश पूर्ण केली. तीच पुढे मधूवंतीतील बंदीश म्हणून प्रसिद्ध झाली.

“मी तुमचाच आहे, माझे घरही तुमचेच आहे, असे असतांना माझे चरण धरण्याची काय गरज? असा या ओळींचा अर्थ आहे. दोघांच्या मैत्रीतील सामंजस्य जसे यांत दिसून येते तसाच मधूवंती हा शूद्ध मैत्रीचा राग आहे. याच्या नावांतच मधू आहे, तेव्हा या रागांतील माधूर्याविषयी वेगळे सांगावयास नको.

तांत्रिक द्दृष्ट्या हा राग तोडी थाटांतून निर्माण झाला आहे, परंतु तोडीप्रमाणे रिषभ/धैवत कोमल नसून शुद्ध आहेत. ह्याचे चलन तोडीप्रमाणे असल्यामुळे या रागाचा जनक तोडी थाट असावा असे वाटते.

जाति~ओडव/संपूर्ण

वादीपंचम, संवादीषडज्, राग सादर करण्याची वेळ दिवसाचा तिसरा प्रहर. सहाजिकच मध्यम तीव्र आणि गंधार कोमल. वैचित्र्यासाठी कधीकधी अवरोही रचनेत कोमल निषाद वापरण्याची पद्धत आहे.

नि सा (ग)(म)प नि सां

सां नि ध प,(म)प (नि)ध प,(म)(ग)रे सा असे याचे आरोह नि अवरोह.(ग) (म) प नि सां नि ध प,(म) प (ग) (म)प (नी) ध प,(म)प (ग) (म)(ग) रे सा या स्वरसमूहावरून मधूवंतीची ओळख पटते.

सांझ भई,अजहूॅं नही आये प्रीतम प्यारे ही विलंबीत तीनतालमधील अश्विनी भिडे~देशपांडे यांची बंदीश प्रचलित आहे.बैरन बरखा रितू आई ही कुमारांची मध्यलय तीनतालमधील बंदीश वर्षाऋतूचे चित्र डोळ्यासमोर उभे करते.

असे म्हणतात की कोल्हापूरच्या पाध्येबुवांनी अंबिका असा राग तयार केला,पुढे विलायतखाॅंसाहेबांनी त्याचे मधूवंती असे गोजिरे नामकरण केले.

सुमन कल्याणपूर यांचे मधूवंतीच्या सुरासुरांतून आळविते मी नाम। एकदां दर्शन दे घनश्याम।।हे गीत रसिकजनांचे आवडते आहे. गीत रामायणांतील श्रीराम जेव्हा वनवासाला निघण्यापूर्वी सीतेचा निरोप घेण्यासाठी तिच्या महाली गेले तेव्हा काकूळतीने सीतेने हट्ट केला व ती म्हणाली, “निरोप कसला माझा घेता।जेथे राघव तेथे सीता।।” बाबूजींनी ही रचना मधूवंती या रागांतच निबद्ध केली आहे.

वरील गीतांतील शब्दांवरून मधूवंतीच्या स्वरांत विनवणी, नम्रता या भावना साकार होत असल्याचे आपणांस दिसून येते. बहरला पारिजात दारी, फुले कां पडती शेजारी हे माणिक वर्मांचे गाजलेले गीत मधूवंतीच्या सुरांवरच आधारलेले आहे. मनमंदीरमे आयो शाम, रस्मे उल्फतको निभाये, पायलिया बावरी ही काही सिनेगीते मधूवंतीचीच झलक दाखवितात.

क्रमशः ….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 62 ☆ ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल। ये ऐतिहासिक लघुकथाएं अविस्मरणीय विरासत हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 62 ☆

☆ ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल ☆

निहायत खूबसूरत और नाजुक सी दिखनेवाली एक लडकी को उसके  घरवाले अपनी गरीबी से परेशान हो नवाब वाजिद अली शाह के महल में छोड गए। गरीबी झेलकर आई यह लडकी महल के ठाठ–बाट आँखें फाडे देख रही थी। उसे दासी का काम दिया गया था, नवाब की बेगमों की सेवा करना। वह अपना काम कर तो रही थी लेकिन वह इसके लिए बनी ही नहीं थी। तभी  तो अपनी बला की खूबसूरती और  बुद्धिमानी से बहुत जल्दी  नवाब वाजिद अली शाह  की नजरों में खास बन गई। यही लडकी आगे चलकर  अवध की बेगम हजरत महल कहलाई।  बेगम जितनी सुंदर थीं उतनी ही बहादुर, खुद नवाब इनकी वीरता के कायल थे।  देशभक्ति का  जज़्बा तो मानों इनमें कूट- कूटकर भरा था। नवाब के सामने भी शासन के अधिकतर निर्णय बेगम  ही किया करती थीं, नवाब भी उनका सम्मान करते थे। अपनी समझदारी से वे अंग्रेज़ों की कूटनीति से नवाब को बचाना चाहती थीं परंतु सन् 1856 में अंग्रेज़ों ने धोखे से नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज ही दिया। बेग़म  इस घटना से जरा भी विचलित नहीं हुई, वह जानती थी कि इस समय उसके कमजोर पडने से शासन बिखर जाएगा। उसने दृढता से  लखनऊ पर अपनी सत्त्ता कायम रखी।

सन् 1857 में बेग़म ने अपने ग्यारह साल के बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का शासक घोषित कर दिया और स्वयं उसके नाम पर अवध में दस महीने राज किया। 10 मई सन् 1857 की बात है जब  मेरठ और दिल्ली के सैनिकों  ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया  था। इस विद्रोह ने पूरे भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक व्यापक स्वाधीनता आंदोलन का रूप ले लिया। इस विद्रोह की आँच लखनऊ भी पहुँच गई। अवध में बेगम ने सन् 1857 की क्रांति का नेतृत्व संभाला। सन् 1857 में अंग्रेज़ों से लड़नेवाली सबसे बड़ी सेना बेग़म की ही थी और इन्होंने ही अंग्रेज़ों का सबसे लंबे समय तक मुक़ाबला किया। इनमें देश के प्रति समर्पण की भावना ऐसी थी कि जिसे देखकर अवध की जनता ने भी पूरे जोश के साथ इनका साथ दिया। लखनऊ में आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपनी सेना का उत्साह बढाने के लिए बेगम हाथी पर सवार होकर आ गईं और सैनिकों के साथ युद्ध करती रहीं। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का सबसे अधिक दिन चलने वाला युद्ध लखनऊ में हुआ। अपने ही भरोसेमंद सैनिकों के अंग्रेज़ों से मिल जाने से वे लखनऊ के युद्ध में  हार गईं। बेगम ने तब भी हार नहीं मानी और अवध के बाहरी हिस्सों में जाकर जनता में स्वाधीनता की चेतना जगाती रहीं।

अंग्रेज़ बेगम के साथ समझौता करना चाहते थे लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं। उन्हें तो अपने अवध पर एकछत्र राज्य चाहिए था।  अंग्रेज़ों ने इन्हें पेंशन भी देनी चाही, लेकिन बेगम को अपनी स्वतंत्रता ही चाहिए थी और कुछ भी नहीं। वे नेपाल चली गईं, सन् 1879 में वहीं उनकी मृत्यु हो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 97 ☆ व्यंग्य – अपनी अपनी सुरंगो में कैद ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक  बेहद सार्थक रचना   ‘अपनी अपनी सुरंगो में कैद ’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय  रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 97☆

? अपनी अपनी सुरंगो में कैद ?

उत्तराखंड त्रासदी में बिजलीघर की सुरंगों में ग्लेशियर टूटने से हुए अनायास जलप्लावन से अनेक मजदूर फंस गए ।

थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे बच्चे और उनका कोच सकुशल निकाल लिये गये थे. सारी दुनिया ने राहत की सांस ली.हम एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व कर सकते हैं क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया है वरन कहा है कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बधाई , भारत की ही देन है.अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.  इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.

वैसे किशोर बच्चो की थाईलैंड की फुटबाल टीम बहुत भाग्यशाली थी, जिसे बचाने के लिये सारी दुनिया के समग्र प्रयास सफल रहे.वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है.सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है.छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं.  कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा , और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है , जिसके लिये मजदूरो , किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो ,आश्वासनो, वोट की राजनीति के तंबू में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है. बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.

मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई गोताखोर हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 57 ☆ जनता जनार्दन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “जनता जनार्दन…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 57 – जनता जनार्दन…

एक हाथ से लेना दूसरे हाथ से देना , ये तो अनादिकाल से चला आ रहा। आप यदि किसी को कुछ नहीं देते हैं तो भी वो अपनी योग्यता अनुरूप हासिल कर ही लेगा, तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धोने के साथ -साथ स्नान भी कर लिया जाए। वो कहते हैं न मन चंगा तो कठौती में गंगा। ये गंगा भी श्रीहरि के चरणों से निकलकर, ब्रह्मा जी के कमण्डल तक जा पहुँचीं , फिर वहाँ से निकलकर भोले नाथ की जटा  में समा गयीं। अब भगीरथ को तो अपना कुल तारने के लिए गंगा जल की ही आवश्यकता थी। सो शिव की जटाओं से निकलकर भगीरथ के पीछे- पीछे वे गंगोत्री तक जा पहुँची और अलकनंदा से बहते हुए हरिद्वार, प्रयागराज , काशी से पटना (बिहार), झारखंड,,पश्चिम बंगाल होती हुई हिंद महासागर में समाहित हो गयीं।

ये सब कुछ केवल नदियों के साथ होता है , ऐसा नहीं है , हम सभी इसी तरह अपने को गतिमान बनाए हुए ,ये बात अलग है कि हमारा कर्म क्षेत्र सीमित है , हम स्वयं को तारने में ही सारा जीवन लगा देते हैं। कहते यही हैं कि तेरा तुझको अर्पण पर राम कहानी कुछ और ही होती है। आजकल तो जिस दल की हवा चल पड़ी समझो सारे लोग उसी में जाकर समाहित होने का ढोंग करने लगते हैं। ये हवा प्रायोजित होती है ,इसके मार्ग का चयन आयोजक करते हैं और प्रायोजकों को ढेर सारे धन के साथ पद लाभ भी देने का वादा करते हैं। फिल्मी तर्ज पर इसमें प्रोड्यूसर व कहानी लेखक का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। मजे की बात तो ये की दोनों में जनता ही जनार्दन होती है। चाहे बॉक्स ऑफिस में सौ करोड़ की कमाई का आँकलन हो या  पोलिंग बूथ पर मतदाताओं की भीड़। सभी किसी न किसी के भाग्य लिखने का माद्दा रखते हैं।

मिशन 2021 से लेकर 2024 तक चारों ओर अपना ही डंका बजता रहना चाहिए तभी तो आगे की राह सरल होगी। वैसे बाधा आने पर सुंदर से प्रपात भी बनाए जा सकते हैं। कृत्रिम झीलों का निर्माण तो बाँध बनाने के दौरान हो ही जाता है। कितनी साम्यता है प्रकृति के कण – कण में सजीव, निर्जीव , जीव -जंतु, पशुपक्षी व मानव सभी इसी राह के अनुयायी बन ,अनवरत कर्मरत हैं।

छाया सक्सेना प्रभु

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 64 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है तृतीय अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 64 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 3

कर्मयोग क्या है ?  भगवान कृष्ण का  अर्जुन से कुछ इस तरह संवाद हुआ

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कर्मयोग के बारे में कहा –

केशव!कहते आप जो, बुद्धि सदा है ज्येष्ठ।

कर्म सकामी क्यों करूँ, युद्ध नहीं कुलश्रेष्ठ।।1

 

व्यामिश्रित उपदेश से, बुद्धि भ्रमित व्यामोह।।

मन का संशय दूर हो, दूर करें अवरोह।।2

 

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा

अर्जुन तुम निष्पाप हो, दो जीवन उपहार।

एक ज्ञान का योग है, दूज भक्ति मनुहार।।3

 

कर्म जरूरी है सखा, मिटे न फल का योग।

सिद्धि नहीं संन्यास से, कर्म नहीं संयोग।।4

 

आत्म सदा सक्रिय रहे, कर्म करे हर याम।

शुभ-शुभ करते कर्म जो, मिलें सुखद परिणाम।।5

 

करे दिखावा भक्ति का,औ’ विषयों का ध्यान।

अधम भक्ति ऐसी समझ, करती मिथ्यापान।। 6

 

 

कर्मयोग कर्मेंद्रि से, अनासक्त हो भाव।

कर्म करें कर्मेंद्रियां , पावन श्रेष्ठ स्वभाव।।7

 

कर्म करे शास्त्रज्ञ विधि, कर ले शुभ-शुभ कर्म।

कर्म मनुज जो ना करें , उसको कहें अकर्म।।8

 

कर्मों का मत त्याग कर, मनासक्ति को छोड़।

प्रभु को श्रेयस मानकर,भक्ति-भाव उर मोड़।।9

 

ब्रह्मा कहते कल्प में, करना सब जन यज्ञ।

इच्छित फल तुमको मिले, जीवन हो धर्मज्ञ।।10

 

यज्ञ मनुज जो भी करें, रहते देव प्रसन्न।

इच्छित फल दें देवता, रहें सदा संपन्न।।11

 

बिन माँगे, दें देवता, वस्तु, अन्न सब भोग।

हवन सदा करते रहो, नहीं सताएं रोग।।12

 

जो खाते यज्ञ कर, अन्न मनुज वे श्रेष्ठ।

पाप-शाप सब छूटते, है जीवन गति कुलश्रेष्ठ ।।13

 

जनोत्पत्ति है यज्ञ से,यज्ञ वृष्टि का हेत

कर्मों से ही यज्ञ हों,मिलता सुख अभिप्रेत ।।14

 

जन्म-कर्म ही वेद है, ईश्वर वेद विधान।

सर्वव्याप परमात्मा,रहते यज्ञ प्रधान।।15

 

सृष्टि चक्र इस लोक में, कर्म वेद अनुसार।

कर्म करें सुख भोग को, है वह पापाचार।।16

 

करें आत्मा प्रेम जो, रहें आत्म संतुष्ट।

यही उचित कर्तव्य है, कभी न हों वे रुष्ट ।।17

 

आत्म ज्ञान में लीन जो, रहे सदा निष्पाप।

ऐसे मानव लोक में, कभी न पाएँ ताप।। 18

 

अनासक्त हो, कर्म कर, रख लें शील स्वभाव।

ईश्वर को अति प्रिय लगे , अंतर्मन- सद्भाव।।19

 

जनकादिक ज्ञानी पुरुष, अनासक्ति कृत कर्म।

परम् सिद्धि पाए सभी, किए लोक हित धर्म।।20

 

श्रेष्ठ मनुज जैसा करें, करते वैसा लोग।

देते सभी प्रमाण हैं, लोक और परलोक।।21

 

अर्जुन सुन लो बात तुम, मैं ही सबका ईश।

फिर भी करता कर्म मैं, होकर के जगदीश।।22

 

मैं जैसा हूँ कर रहा, देख करें बर्ताव।

जन्मा हूँ कल्याण हित, बाँटूँ सुंदर भाव।। 23

 

नहीं करूँ यदि कर्म मैं, लोग भ्रष्ट हो जाँय।

कर्म करूँ कल्याण के, भक्त सदा सुख पाँय।। 24

 

हे अर्जुन तू कर्म कर, अनासक्त ले भाव।

ज्ञानी जन ज्यों लोक में, बाँट रहे सद्भाव।।25

 

ज्ञानी जन करते रहे, सदा लोक कल्याण।

वैसे ही तू कर्म कर, कर्म बिना  निष्प्राण।। 26

 

सभी काम हैं प्रकृति के, अहम करे प्रतिकार।

कर्ता मानव बन रहा, मन में ले कुविचार।। 27

 

त्रिगुणी माया ज्ञान की, ज्ञानी को दे सीख।

ऐसा ज्ञानी जगत में, बाहर-भीतर दीख।। 28

 

त्रयी प्रकृति के गुणों से, होते जो आसक्त।

मर्म न प्रभु का जानते, जानें ज्ञानी भक्त।। 29

 

अर्जुन तू सुन ध्यान से, मुझमें चित लवलीन।

कर्म समर्पण भाव से,करो ईश्वराधीन।।30

 

दोष बुद्धि से जो रहित, वे ही मेरे भक्त।

मुझको पाते हैं वही, जो श्रद्धा संपृक्त।।31

 

दोष दृष्टि जो जन रखें, उसे मूर्ख तू जान।

ऐसे मनुजों का कभी, नहीं हुआ कल्यान।। 32

 

हर प्राणी ही प्रकृति के, रहता सदा अधीन।

करता कर्म स्वभाव वश, हठ हो जाता क्षीण।। 33

 

रखो इंद्रियों को प्रिये, अपने सदा अधीन।

ये ही अपनी शत्रु हैं, पथ से करें विहीन।। 34

 

करो आचरण धर्मयुत, चिंतन धर्माचार।

धर्म स्वयं का श्रेष्ठ है, खुले मुक्ति का द्वार।। 35

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन कहते कृष्ण से, मनुज करे क्यों पाप।

बिन चाहे फिर भी विवश , झेल रहा संताप।। 36

 

श्री भगवान उवाच

हे अर्जुन प्रिय वचन सुन, रजोगुणी है काम।

भोग, क्रोध ही दे रहे, इसको बैरी नाम।। 37

 

धुआँ अग्नि को ढाँकता, रज दर्पण ढँक जाय।

गर्भ ढँका ज्यों जेर से, काम, ज्ञान भरमाय।। 38

 

काम, अग्नि सादृश्य है, जिसमें सब जल जाँय।

विषय वासना शत्रु है, ज्ञान ध्यान बिलगाँय।।39

 

मनोबुद्धि सब इन्द्रियाँ, यही काम स्थान।

ज्ञान ढकें ये स्वयं का , देते दुख औ’ त्राण।। 40

 

रखो इन्द्रियों को सदा , हे प्रिय निज आधीन।

ज्ञान, बुद्धि, बल फिर बढ़े, जीवन हो स्वाधीन।। 41

 

तन से इन्द्री श्रेष्ठ हैं, इन्द्री से मन श्रेष्ठ।

मन से बुधिबल श्रेष्ठ है, आत्म बुद्धि से श्रेष्ठ।। 42

 

सदा आत्म की बात सुन, विषय वासना मार।

मन को रख वश में सदा, है जीवन का सार।। 43

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के तृतीय अध्याय ” कर्मयोग” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 68 – ग़ज़ल…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #68 ☆ 

☆ ग़ज़ल…! ☆ 

(मात्रावृत्त .)

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 85 – खोटा सिक्का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना खोटा सिक्का….। )

☆  तन्मय साहित्य  #85 ☆

 ☆ खोटा सिक्का…. ☆

उसने खोटा सिक्का

धर्म वेदी पर चढ़ा दिया

दानी धर्मी बन ऐसे

अपना कद बढ़ा लिया

 

सुबह नहाए, मिटी खुमारी,

फिर किताब बाँची

और रोज की तरह

लगे करने झूठी साँची

फूटपरस्ती के पांसे चल

सब को लड़ा दिया

अपना कद बढ़ा लिया ……..

 

शाम हुई सत्संग भवन में

सबसे आगे थे

घर आकर मधु पान

ज्ञान के उलझे धागे थे

एक आवरण फेंक

दूसरा चोला चढ़ा लिया

अपना कद बढ़ा लिया ……

 

कपटी नींव भ्रष्ट तानों-बानों

की दीवालें

गिरगिटियों से रंगे भवन में

सबके मन काले

भावहीन बौनों ने

भूल भुलैया खड़ा किया

अपना कद बढ़ा लिया …….

 

आदर्शों का पिटे ढिंढोरा

मक्कारी मन में

चेहरे हैं रंगीन, दाग धब्बे

बाकी तन में

पाठ फरेबी का

संतानों को भी पढ़ा दिया

दानी धर्मी बन ऐसे

अपना कद बढ़ा लिया।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर– अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा बागेश्वर हाईवे पर “कसार” नामक गांव में स्थित कश्यप पहाड़ी की चोटी पर एक गुफानुमा जगह पर दूसरी शताब्दी के समय निर्मित कसार देवी का मंदिर है । इस मंदिर में माँ दुर्गा के आठ रूपों में से एक रूप “देवी कात्यायनी” की पूजा की जाती है  । लोक मान्यताओं के अनुसार इसी  स्थान पर  “माँ दुर्गा” ने शुम्भ-निशुम्भ नाम के दो राक्षसों का वध करने के लिए “देवी कात्यायनी” का रूप धारण किया था

कहते है कि स्वामी विवेकानंद 1890 में ध्यान के लिए कुछ महीनो के लिए इस स्थान में आये थे । और अल्मोड़ा से कुछ दूरी पर स्थित  काकडीघाट में उन्हें विशेष ज्ञान की अनुभूति हुई थी और उसके बाद ही उन्होंने पीड़ित  मानवता की सेवा का वृत संन्यास के साथ लिया ।   इसी तरह बौद्ध गुरु “लामा अन्ग्रिका गोविंदा” ने गुफा में रहकर विशेष साधना करी थी |

यह क्रैंक रिज के लिये भी प्रसिद्ध है , जहाँ 1960-1970 के दशक में “हिप्पी आन्दोलन” बहुत प्रसिद्ध हुआ था । इस  मंदिर में  1970 से 1980 के बीच अनेक तक डच संन्यासियों ने भी साधना की । हवाबाघ की सुरम्य घाटी में स्थित इस  मंदिर के पीछे एक विशाल चट्टान है जो देखने में शेर की मुखाकृति जैसी दिखती है ।

उत्तराखंड देवभूमि का यह  स्थान भारत का एकमात्र और दुनिया का तीसरा ऐसा स्थान है , जहाँ ख़ास चुम्बकीय शक्तियाँ  उपस्थित है ।दुनिया के तीन पर्यटन स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शनों के साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। जिनमें अल्मोड़ा स्थित “कसार देवी मंदिर” और दक्षिण अमरीका के पेरू स्थित “माचू-पिच्चू” व इंग्लैंड के “स्टोन हेंग” में अद्भुत समानताएं हैं । ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति के केंद्र भी हैं। यह क्षेत्र ‘चीड’ और ‘देवदार’ के जंगलों का घर है । यह पर्वत शिखर  अल्मोड़ा शहर के  साथ साथ हिमालय के मनोरम दृश्य भी प्रदान करता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 36 ☆ ढूंढ रहा हूँ रफूगर ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ढूंढ रहा हूँ रफूगर । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 36 ☆

ढूंढ रहा हूँ रफूगर

 

उधड़ गयी है जिंदगी चारों तरफ से,

पैबन्द जगह-जगह मैंने खुद लगाए,

अब हर तरफ पैबन्द लगी नजर आती है जिंदगी,

 

ढूंढ रहा शायद कोई रफूगर मिल जाए,

जो जिंदगी रफू कर दे,

जगह-जगह से उधड़ी हुई नजर आती है जिंदगी,

 

जितना सम्भल कर कदम रखता हूँ,

उतनी ही उलझ कर,

और ज्यादा उधड़ी हुई नजर आती है जिंदगी,

 

काश कोई रफूगर मिल जाता,

जो एक एक धागें को मिला,

रफू कर देता तो पहले सी नजर आ जाती जिंदगी,

 

फूलों की बगिया में कांटों से उलझ गया,

काश कांटों की जगह जिंदगी,

फूलों में उलझ जाती तो फूलों सी महक जाती जिंदगी ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares