(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “औरत”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक चर्चा /समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है डा सुधा कुमारी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “ओ मातृभूमि !” – की चर्चा।
☆ ओ मातृभूमि ! – कवि – डा सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक –ओ मातृभूमि !
(पांच खण्डो में काव्य रचनाओ का पठनीय संकलन)
कवि – डा सुधा कुमारी
पृष्ठ संख्या – १६०
मूल्य – ४५० रु, हार्ड बाउंड
ISBN- 9788194860594
प्रकाशक – किताब वाले, दरिया गंज, नई दिल्ली २
रचना को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे अपने परिवेश के अनुकूल लिखित रचनाकार का साहित्य पाठक उसी पृष्ठभूमि पर उतरकर हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके, जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. आवरण के इस प्रवेश द्वार से भीतर आते ही भूमिका, व प्राक्कथन पाठक का स्वागत करते मिलते हैं, जिससे किताब के कलेवर से किंचित परिचित होकर पाठक रचनाओ के अवगाहन का मन बनाता है, और पुस्तक खरीदता है. पुस्तक समीक्षायें इस प्रक्रिया को संक्षिप्त व सरल बना देती हैं और समीक्षक की टिप्पणी को आधार बनाकर पाठक किताब पढ़ने का निर्णय ले लेता है. किंतु इस सबसे परे ऐसी रचनायें भी होती हैं जिन पर किताब अलटते पलटते ही यदि निगाह पड़ जाये तो पुस्तक खरीदने से पाठक स्वयं को रोक नहीं पाता. ओ मातृभूमि ! की रचनायें ऐसी ही हैं. छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण. दरअसल ये रचनायें लंबे कालखण्ड में समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रही हैं. लगता है अवसर मिलते ही डा सुधा कुमारी ने इन्हें पुस्तकाकार छपवाकर मानो साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाई है जिसकी छटपटाहट उनमें लेखन काल से रही होगी.
डा सुधा कुमारी में कला के संस्कार हैं. वे उच्चपद पर सेवारत हैं, उनकी बौद्धिक परिपक्वता हर रचना में प्रतिबिंबित होती है. वे मात्र शब्दों से ही नहीं, तूलिका और रंगों से केनवास पर भी चित्रांकन में निपुण हैं. ओ मातृभूमि में लघु काव्य खण्ड, देश खण्ड, भाव खण्ड, प्रकृति खण्ड, तथा ईश खण्ड में शीर्षक के अनुरूप समान धर्मी रचनायें संग्रहित हैं.
मैं लेखिका को कलम की उसी यात्रा में सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं, स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं.
लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे लिखती हैं ” समानांतर रेखायें भी अनंत पर मिलती हैं, तुम्हारे साथ चलने की वजह यही उम्मीद रखती है “. या “बुद्धिरूपी राम को दूर किया, अनसुनी कर दी तर्क रूपी लक्ष्मण की, फिर से दुहराई गई कथा , हृदय सीता हरण की. ” अब इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.
देश खण्ड की एक रचना का अंश है.. ” नित्य जब सताई जाती हैं ललनाएँ, या समिधाओ सी धुंआती हैं दुल्हने तो चुप क्यों रह जाते हो ? तुमने पाषाण कर दिया अहिल्या को ” नारी विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये डा सुधा की नारी उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.
ओ मातृभूमि, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं ” तेरा रूप देख कूंची फिसली, मेरे गीत में सरिता बह निकली, ऊंचे सपने जैसे पर्वत, बुन पाऊँ, ओ देश मेरे ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो डा सुधा की लेखनी सफल हो जावे.
उनका आध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. ईश खण्ड से एक रचना उधृत है ” बंधन में सुख, सुख में बंधन, अर्जुन सा आराध मुझे ! प्रेम विराट कृष्ण सा कहता, आ दुर्योधन! बांध मुझे. बनती मिटती देह जरा से, कर इससे आजाद मुझे. तू लय मुझमें मैं लय तुझमें, दे बंधन निर्बाध मुझे. जीवन स्त्रोत प्रलय ज्वाला हूं, तृष्णा से मत बाँध मुझे. पूर्ण काम हूं, निर्विकार हूं, अंतरतम में साध मुझे.
भाव खण्ड में अपनी “अकविता” में वे लिखती हैं ” क्या कहूं, क्या नाम दूं तुझे ? गीत यदि कहूं तो सुर ताल की पायल तुझे बाँधी नहीं, कविता जो कहूँ तो, किसी अलंकार से सजाया नही. अनाभरण, अनलंकृत, फिर भी तू सुंदर है, संगीत भर उठता है, मन आँगन में जब जब तू घुटनों के बल चलती है, अकविता मेरी बच्ची ! ”
काव्यसंग्रह चित्रयुक्त है एवं देशखण्ड में महामानव सागर तीरे में संदेश है कि अंतरिक्ष की खोज से पहले संपूर्ण धरा का जीवन सुखमय बनाना आवश्यक है, यह उल्लेखनीय है.
यद्यपि छंद शास्त्र की कसौटियों पर संग्रह की रचनाओ का आकलन पिंगल शास्त्रियो की समालोचना का विषय हो सकता है किंतु हर रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते मैं इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ने में जरा भी नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.
समीक्षक .. श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है होली पर्व पर एक विशेष लघुकथा “मैरीज होली विशेज”। इस धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्म सद्भाव पर आधारित भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 84 ☆
लघुकथा- मैरीज होली विशेज
नंदिनी अपनी शादी के बाद पहली होली खेलने अपने पतिदेव के साथ मायके आई हुई थी। अभी- अभी पड़ोस में एंग्लो- इंडियन क्रिस्चियन परिवार रहने आया था। ज्यादा जान पहचान नहीं हुई थी हाव भाव हैलो हाय हो रहा था।
चूंकि हमारी भारतीय परंपरा रही है कि होली पर सभी के माथे पर तिलक लगा, मिलकर होली की शुभकामना कह कर बड़ों से आशीर्वाद और छोटों को प्यार दिया जाता है। नंदिनी भी सुबह से चाहक रही थी क्योंकि अपने पतिदेव के साथ मायके की पहली होली बहुत ही यादगार और प्रभाव पूर्ण बनाना चाहती थी।
गुलाल के कई रंगों की पुड़िया लिए निकल पड़ी अपने अपार्टमेंट में होली खेलने। रंगों से लिपि पुती बस उन्हीं के यहाँ नहीं गई क्योंकि उसको लगा शायद यह थोड़े बुजुर्ग आंटी अंकल है। और क्रिस्चियन है, तो पता नहीं अभी आए हैं और होली का तिलक लगाएंगे भी या नहीं।
यह सोच कर वह घर आ गई। नहा-धोकर तैयार हो गई। उसी समय उनके घर का काम करने वाला नंदिनी से आकर बोला – “मैडम और सर ने आपको बुलाया है।” नंदिनी ने आवाक होकर देखती रही। पतिदेव के साथ थोड़ी ही देर में उसके घर पहुंच गई।
आपस में बातचीत हुई। बहुत ही सुंदर वातावरण। आंटी ने एक थाली में थोड़ा सा चाँवल,गुलाल, लिफाफा और एक सुंदर सी साड़ी लेकर बाहर निकली। अंग्रेजी में बात करने लगी, बोली -” हम जानते हैं कि तुम्हारी यह पहली होली है। हमको तुम्हारे यहां का रिवाज पूरी तरह मालूम नहीं है। अभी सर्वेंट से पूछा तो उसने बताया। यह हमारी तरफ से आप का पहला होली का गिफ्ट है और “Wish you a very Happy Holi” कह कर गुलाल लगाई और चाँवल को आँचल में डाल, गिफ्ट दे गले लगा ली।
नंदिनी ने आंटी को कसकर गले लगा लिया। ‘मैरी आंटी’ आंटी का नाम मैरी था। “आपका गिफ्ट मुझे हमेशा याद रहेगा। आपने मेरी और मेरे पतिदेव की होली की खुशी को यादगार बना कई गुना अधिक कर दिया है।” (I will always remember your gift. You have made my and my husband’s happiness of Holi memorable many times more.)
खुशी के मारे मैरी आंटी-अंकल गदगद हो गये और वे बोली – “अब जब भी घर आओगी, घर आना हमारे पास। हम तुम्हारा इंतजार करेंगे। “गुलाल से सरोबार करते पतिदेव ने भी मैरी आंटी – अंकल को खूब हँसाया। मैरी विश पाकर नंदिनी खिल उठी।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य “एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर…..”। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 22 ☆
☆ व्यंग्य – एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆
स्वेजनहर में फंसे एवरगिवन जहाज़ के चालक दल के सभी पच्चीस सदस्य भारतीय अवश्य थे मगर वे इंदौरी नहीं थे. होते तो जाम लगने की वजह भी खुद बनते और खुद ही निकाल भी ले जाते. अपन के शहर में ये ट्रेनिंग अलग से नहीं देना पड़ती, आदमी दो-चार बार खजूरी बाज़ार से गुजर भर जाये, बस. एक इंदौरियन विकट जाम में कैसा भी वाहन निकाल सकता है. डिवाईडरों की दो फीट दीवारों पर से एक्टिवा तो वो यूं निकाल जाता है जैसे मौत के कुएँ में करतब दिखा रहा हो. वो ओटलों, दुकानों में से होता हुआ तिरि-भिन्नाट जा सकता है. जब एक्सिलरेटर दबाता है तब जाम में उसके आगे फंसे वाहनों की दीवार ताश के पत्तों सी भरभरा कर ढह जाती हैं. इस वाले काउंट पे जेंडर इक्वलिटी है, मैडम भी स्कूटी ऐसे ई निकाल लेती है.
आईये आपको घुमाकर लाते हैं. ये देखिये, ये अपन की एवरगिवन है, मारुति सियाज़ और ये है अपन की स्वेज़ नहर, खजूरी बाजार इंदौर. इत्ती पतली नहर और इत्ता चौड़ा एवरगिवन!! निकल जाएगी भिया – सीधी आन दो, डिरेवर तरफ काट के, भोत जगा है, सीधी आन दो. अपन की स्वेज़ नहर में अपन की एवरगिवन डेढ़ इंच भी टेढ़ा होना अफोर्ड नहीं कर पाती. हो जाये तो जो जाम लग जाता है उसमें अपन की वाली को टगबोट लगाकर सीधा नहीं करना पड़ता. वो आसपास से गुजरनेवाली आंटियों की गुस्से भरी नज़र से ही सीधी हो जाती है. गुस्सा क्यों न करें श्रीमान ? एक तो चिलचिलाती धूप में एक हाथ मोबाइल कान पर रखने में इंगेज़ है, दूसरे में मटकेवाली कुल्फी का एक टुकड़ा पिघलकर गिरा गिरा जा रहा है, उपर से जेम्स बॉन्ड का नाती हॉर्न पर हॉर्न बजाये जा रहा है. एक टुकड़ा कुल्फी ही तो सुख है – उड़ती धूल, जहरीला धुआँ, कानफोडू हॉर्न, डीजल और पेट्रोल की बदबू के बीच. ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है’ – शहरयार साहब अब इस दुनिया में रहे नहीं वरना अपने इस सवाल का जवाब उन्हें यहीं मिल जाता.
कहते हैं ताईवान के एवरगिवन के नीचे से रेत निकाली गयी तब जाकर वह हिला. अपन के इधर नीचे गड्ढ़े में रेत भरनी पड़ती है तब जाकर एवरगिवन बाहर आ पाती है. मिस्र देश की नहर में दिक्कत ये है कि पानी गहरा होने के कारण दुकान का काउंटर साढ़े छह फीट आगे तक नहीं निकाला नहीं जा सकता. इधर की स्वेज़ में ये सुविधा है. सुविधाएं और भी हैं – सड़क पे ई होता वेल्डिंग, पंक्चर पकाने की सुविधा, भजिये के ठेले और सांड की टहलकदमी, जुगाड़ के वाहन, बच्चों से लदा-फदा स्कूल-ऑटो, एम्बुलेंस, सूट-टाई में गर्दन पर पैंतीस हारों का बोझ लादे शाकिरमियां की घोड़ी पर पसीने से तरबतर बन्ना और राजकमल बैंड के ‘दिल ले गई कुडी पंजाब दी’ पर झूमते बाराती. बताईये पानी वाली नहर में कहाँ ये सुख है.
चलिये अच्छा उधर देखिये, मैजिक पूरा भरे जाने के लिये बीचोंबीच खड़ा है, इस बीच सामने से आता हुआ दूसरा मैजिक रुक गया है, सवारी को अपने घर के सामने ही उतरना है, वो उतर भी गयी है मगर नाराज़ है. उसका मकान पांच मकान पीछे था, मैजिकवाले ने बिरेक देर से मारा. अब पीछे की ओर ज्यादा चलना पड़ेगा अगले को, पूरे तेरह कदम.
आपके यहाँ गाड़ियों के लिये अलग अलग लेन नहीं होती ? नहीं जनाब, ट्रैफिक के मामले में हम शुरू से ही बे-लेन रेते हेंगे. हम लोग जाम से शिकायत नहीं रखते उसे एंजॉय करते हैं. किवाम-चटनी के मीठेपत्ते का मजा ही कनछेदी की दुकान के सामने बाईक आड़ी टिका के चबाने-थूकने में है, अब जाम लगे तो लगे. मेरिन पुलिस टाइप भी कुछ है नहीं यहाँ. जाम से असंपृक्त वो जो दो पुलिसवाले खड़े हैं रात आठ बजे बाद के जाम का इंतज़ाम मुकम्मल कर रहे हैं. एक के हाथ में रसीद कट्टा है और दूसरे के डंडा. जुगलबंदी कारगर.
ऐसे घनघोर माहौल में कोई इंदौरियन ही वाहन सनन निकाल सकता है, फिर वो स्वेज़ में फंसा एवरगिवन ही क्यों न हो, विकट भिया.
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “पेड़ सभी बन गए बिजूके … ”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं 9साहित्य में सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है विशेष आलेख परसाई की कलम से ….। )
स्व. हरीशंकर परसाई
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 90 ☆
☆ परसाई की कलम से …. – प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
एक सज्जन अपने मित्र से मेरा परिचय करा रहे थे ‘यह परसाईजी हैं। बहुत अच्छे लेखक हैं। ही राइट्स फ़नी थिंग्ज़।’
एक मेरे पाठक (अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह की हँसी की तिड़तिड़ाहट करते मेरी तरफ़ बढ़ते हैं, जैसे दीवाली पर बच्चे ‘तिड़तिड़ी’ को पत्थर पर रगड़कर फेंक देते हैं और वह थोड़ी देर तिड़तिड़ करती उछलती रहती है। पास आकर अपने हाथों में मेरा हाथ ले लेते हैं और ही-ही करते हुए कहते हैं—‘वाह यार, खूब मिले। मज़ा आ गया।’ उन्होंने कभी कोई चीज़ मेरी पढ़ी होगी। अभी सालों में कोई चीज़ नहीं पढ़ी; यह मैं जानता हूँ।
एक सज्जन जब भी सड़क पर मिल जाते हैं, दूर से ही चिल्लाते हैं ‘परसाईजी, नमस्कार ! मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना !’ बात यह है कि किसी दूसरे आदमी ने कई साल पहले स्थानीय साप्ताहिक में’ एक मज़ाक़िया लेख लिखा था, ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना।’ पर उन्होंने ऐसी सारी चीज़ों के लिए मुझे ज़िम्मेदार मान लिया है। मैंने भी नहीं बताया कि वह लेख मैंने नहीं लिखा था। बस, वे जहाँ मिलते ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना’ चिल्लाकर मेरा अभिवादन करते हैं।
कुछ पाठक यह समझते हैं कि मैं हमेशा उचक्केपन और हलकेपन के मूड में रहता हूँ। वे चिट्ठी में मखौल करने की कोशिश करते हैं ! एक पत्र मेरे सामने है। लिखा है—‘कहिए जनाब, बरसात का मज़ा ले रहे हैं न ! मेंढकों की जलतरंग सुन रहे होंगे। इस पर भी लिख डालिए न कुछ।’
बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘तुमने मेरे मामा का, जो फ़ारेस्ट अफ़सर हैं, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मैं तुम्हारे खानदान का नाश कर दूँगा। मुझे शनि सिद्ध है।’
कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलाँचें मारता, उछलता मिलूँगा और उनके मिलते ही जो मज़ाक़ शुरू करुँगा तो हम सारा दिन दाँत निकालते गुज़ार देंगे। मुझे वे गम्भीर और कम बोलनेवाला पाते हैं। किसी गम्भीर विषय पर मैं बात छेड़ देता हूँ। वे निराश होते हैं। काफ़ी लोगों का यह मत है कि मैं निहायत मनहूस आदमी हूँ।
एक पाठिका ने एक दिन कहा—‘आप मनुष्यता की भावना की कहानियाँ क्यों नहीं लिखते ?’
और एक मित्र मुझे उस दिन सलाह दे रहे थे—‘तुम्हें अब गम्भीर हो जाना चाहिए। इट इज़ हाई टाइम !’
व्यंग्य लिखने वाले की ट्रेजडी कोई एक नहीं। ‘फ़नी’ से लेकर उसे मनुष्यता की भावना से हीन तक समझा जाता है। मज़ा आ गया’ से लेकर ‘गम्भीर हो जाओ’ तक की प्रतिक्रियाएँ उसे सुननी पड़ती हैं। फिर लोग अपने या अपने मामा, काका के चेहरे देख लेते हैं और दुश्मन बढ़ते जाते हैं। एक बहुत बड़े वयोवृद्ध गाँधी-भक्त साहित्यकार मुझे अनैतिक लेखक समझते हैं। नैतिकता का अर्थ उनके लिए साद गबद्दूपन होता है।
लेकिन इसके बावजूद ऐसे पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो व्यंग्य में निहित सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-संकेत को समझते हैं। वे जब मिलते या लिखते हैं, तो मज़ाक़ के मूड में नहीं। वे उन स्थितियों की बात करते हैं
जिन पर मैंने व्यंग्य किया है, वे उस रचना के तीखे वाक्य बनाते हैं। वे हालातों के प्रति चिन्तित होते हैं।
आलोचकों की स्थिति कठिनाई की है। गम्भीर कहानियों के बारे में तो वे कह सकते हैं कि संवेदना कैसे पिछलती आ रही है, समस्या कैसे प्रस्तुत की गयी—वग़ैरह। व्यंग्य के बारे में वह क्या कहें ? अकसर वह यह कहता है—हिन्दी में शिष्ट हास्य का अभाव है। (हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिन्दी में हास्य-व्यंग्य का अभाव है) हाँ, वे यह और कहते हैं—विद्रूप का उद्घाटन कर दिया, पर्दाफ़ाश कर दिया है, करारी चोट की है, गहरी मार की है, झकझोर दिया है। आलोचक बेचारा और क्या करे ?
जीवन-बोध, व्यंग्यकार की दृष्टि, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवेश के प्रति उसकी प्रतिक्रिया, विसंगतियों की व्यापकता और उनकी अहमियत, व्यंग्य-संकेतों के प्रकार, उनकी प्रभावशीलता, व्यंग्यकार की आस्था, विश्वास—आदि बातें समझ और मेहनत की माँग करती हैं। किसे पड़ी है ?
अच्छा, तो तुम लोग व्यंग्यकार क्या अपने को ‘प्राफ़ेट’ समझते हो ? ‘फ़नी’ कहने पर बुरा मानते हो। खुद हँसते हो और लोग हँसकर कहते हैं—मज़ा आ गया, तो बुरा मानते हो और कहते हो—सिर्फ़ मज़ा आ गया ? तुम नहीं जानते कि इस तरह की रचनाएं हलकी मानी जाती हैं और दो घड़ी की हँसी के लिए पढ़ी जाती हैं।
(यह बात मैं अपने आपसे कहता हूँ, अपने आपसे ही सवाल करता हूँ।) जवाब : हँसना अच्छी बात है। पकौड़े-जैसी नाक को देखकर भी हँसा जाता है, आदमी कुत्ते-जैसे भौंके तो भी लोग हँसते हैं। साइकिल पर डबल सवार गिरें, तो भी लोग हँसते हैं। संगति के कुछ मान बने हुए होते हैं—जैसे इतने बड़े शरीर में इतनी बड़ी नाक होनी चाहिए। उससे बड़ी होती है, तो हँसी होती है। आदमी आदमी की ही बोली बोले, ऐसी संगति मानी हुई है। वह कुत्ते-जैसा भौंके तो यह विसंगति हुई और हँसी का कारण। असामंजस्य, अनुपातहीनता, विसंगति हमारी चेतना को छेड़ देते हैं। तब हँसी भी आ सकती है और हँसी नहीं भी आ सकती—चेतना पर आघात पड़ सकता है। मगर विसंगतियों के भी स्तर और प्रकार होते हैं। आदमी कुत्ते की बोली बोले—एक यह विसंगति है। और वन-महोत्सव का आयोजन करने के लिए पेड़ काटकर साफ़ किये जायें, जहाँ मन्त्री महोदय गुलाब के ‘वृक्ष’ की कलम रोपें—यह भी एक विसंगति है। दोनों में भेद, गो दोनों से हँसी आती है। मेरा मतलब है—विसंगति की क्या अहमियत है, वह जीवन में किस हद तक महत्त्वपूर्ण है, वह कितनी व्यापक है, उसका कितना प्रभाव है—ये सब बातें विचारणीय हैं। दाँत निकाल देना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।
—लेकिन यार, इस बात से क्यों कतराते हो कि इस तरह का साहित्य हलका ही माना जाता है।
—माना जाता है तो मैं क्या करूँ ? भारतेन्दु युग में प्रताप नारायण मित्र और बालमुकुन्द गुप्त जो व्यंग्य लिखते थे, वह कितनी पीड़ा से लिखा जाता था। देश की दुर्दशा पर वे किसी भी क़ौम के रहनुमा से ज़्यादा रोते थे। हाँ, यह सही है कि इसके बाद रुचि कुछ ऐसी हुई कि हास्य का लेखक विदूषक बनने को मजबूर हुआ। ‘मदारी’ और ‘डमरू’, ‘टुनटुन’—जैसे पत्र निकले और हास्यरस के कवियों ने ‘चोंच’ और ‘काग’—जैसे उपनाम रखे। याने हास्य के लिए रचनाकार को हास्यास्पद होना पड़ा। अभी भी यह मजबूरी बची है। तभी कुंजबिहारी पाण्डे को ‘कुत्ता’ शब्द आने पर मंच पर भौंककर बताना पड़ता है कि काका हाथरसी को अपनी पुस्तक के कवर पर अपना ही कार्टून छापना पड़ता है। बात यह है कि उर्दू-हिन्दी की मिश्रित हास्य-व्यंग्य परम्परा कुछ साल चली, जिसने हास्यरस को भड़ौआ बनाया। इसमें बहुत कुछ हल्का है। यह सीधी सामन्ती वर्ग के मनोरंजन की ज़रूरत में से पैदा हुई थी। शौकत थानवी की एक पुस्तक का नाम ही ‘कुतिया’ है। अज़ीमबेग चुगताई नौकरानी की लड़की से ‘फ्लर्ट’ करने की तरकीबें बताते हैं ! कोई अचरज नहीं कि हास्य-व्यंग्य के लेखकों को लोगों ने हलके, ग़ैर-ज़िम्मेदार और हास्यास्पद मान लिया हो।
—और ‘पत्नीवाद’ वाला हास्यरस ! वह तो स्वस्थ है ? उसमें पारिवारिक सम्बन्धों की निर्मल आत्मीयता होती है ?
—स्त्री से मज़ाक़ एक बात है और स्त्री का उपहास दूसरी बात। हमारे समाज में कुचले हुए का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम रही, उसका कोई अस्तित्व नहीं बनने दिया गया, वह अशिक्षित रही, ऐसी रही—तब उसकी हीनता का मजा़क़ करना ‘सेफ़’ हो गया। पत्नी के पक्ष के सब लोग हीन और उपहास के पात्र हो गये—ख़ास कर साला; गो हर आदमी किसी-न-किसी का साला होता है। इस तरह घर का नौकर सामन्ती परिवारों में मनोरंजन का माध्यम होता है। उत्तर भारत के सामन्ती परिवारों की परदानशीन दमित रईसज़ादियों का मनोरंजन घर के नौकर का उपहास करके होता है। जो जितना मूर्ख, सनकी और पौरुषहीन हो, वह नौकर उतना ही दिलचस्प होता है। इसलिए सिकन्दर मियाँ चाहे बुद्धिमान हों, मगर जानबूझकर बेवकूफ़ बन जाते हैं। क्योंकि उनका ऐसा होना नौकरी को सुरक्षित रखता है। सलमा सिद्दीकी ने सिकन्दरनामा में ऐसे ही पारिवारिक नौकर की कहानी लिखी है। मैं सोचता हूँ सिकन्दर मियाँ अपनी नज़र से उस परिवार की कहानी कहें, तो और अच्छा हो।
—तो क्या पत्नी, साला, नौकर, नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है ?
—‘वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें देखकर बीवी की मूर्खता बयान करना बड़ी संकीर्णता है।
और ‘शिष्ट’ और ‘अशिष्ट’ क्या है ? अकसर ‘शिष्ट’ हास्य की माँग वे करते हैं, जो शिकार होते हैं। भ्रष्टाचारी तो यही चाहेगा कि आप मुंशी की या साले की मज़ाक़ का ‘शिष्ट’ हास्य करते रहें और उसपर चोट न करें वह ‘अशिष्ट’ है। हमारे यहाँ तो हत्यारे ‘भ्रष्टाचारी’ पीड़क से भी शिष्टता बरतने की माँग की जाती है—‘अगर जनाब बुरा न मानें तो अर्ज है कि भ्रष्टाचार न किया करें। बड़ी कृपा होगी सेवक पर’। व्यंग्य में चोट होती ही है। जिन पर होती है वे कहते हैं—‘इसमें कटुता आ गयी। शिष्ट हास्य लिखा करिए।’
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘देश के काले सपूतों की कथा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 93 ☆
☆ व्यंग्य – देश के काले सपूतों की कथा ☆
जब देश के समझदार लोगों के हिसाब से देश की अर्थव्यवस्था नाजुक हालात में पहुँच गयी, भुगतान संतुलन एकदम बरखिलाफ हो गया और हमारे विदेशी महाजन कर्ज़ देने के नाम पर मुँह बनाने लगे, तब हमारी गौरमेंट ने देश के उन सपूतों को याद किया जिनकी कमाई अभी तक काली कमाई कहलाती थी और जिसे बाहर निकलवाने के लिए सरकार कई ‘स्वैच्छिक घोषणा’ योजनाएं लागू कर चुकी थी। इन काले सपूतों से सरकार ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि वे मातृभूमि की सेवा को आगे आएँ और अपने तथाकथित काले धन का सफेद निवेश कर देश की तरक्की में अपना अमूल्य योगदान दें। बड़े बड़े उद्योग स्थापित कर देश की गरीबी को दूर करें और बेरोज़गारों को रोज़गार मुहैया कराएं। उनके काले धन को पूरी तरह सफेद समझा जाएगा और उनसे कोई नहीं पूछेगा कि उन्होंने उसे कब, कैसे और कहाँ से कमाया। अगर गौरमेंट ने उनकी शान के खिलाफ कभी कुछ कह दिया हो तो उसे दिल में न रखें।
यह घोषणा होते ही देश के सभी शहरों से तथाकथित काले धन के स्वामियों की टोलियों की टोलियाँ निकल कर सड़कों पर आने लगीं। इनमें मामूली क्लर्कों से लेकर भारी भरकम अधिकारी तक कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे। पुराने खुर्राट भी थे और नये नये रंगरूट भी। सभी का चेहरा मातृभूमि की सेवा के भाव से दपदपा रहा था। देर आयद दुरुस्त आयद। देर से ही सही, गौरमेंट ने उनकी अहमियत को समझा तो। आखिरकार सरकार की समझ में आ गया कि उनके बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता।
सभी खास शहरों में ऐसे सपूतों की सभाएं हुईं। जलसे का आलम था। लाउडस्पीकर पर गीत बज रहा था—‘चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है।’
शुरू में सभाओं में कुछ दिक्कत हुई। आला अफसरों ने कहा कि अलग अलग वर्गों की सभाएं अलग अलग होनी चाहिए। भला आला अफसर और मामूली क्लर्क एक ही मंच पर कैसे बैठ सकते हैं?इस पर कुछ क्लर्कों ने छाती ठोक कर कहा कि हैसियत नाप कर देख लो,माल कमाने के मामले में हम अफसरों से कम नहीं हैं। अन्ततः यह झगड़ा अगली सभा के लिए टाल दिया गया और सब जाति-धर्म वाले सारे भेद भुलाकर एक ही मंच पर विराजमान हुए।
मेरे शहर की सभा में सबसे पहले तीरथ प्रसाद जी का अभिनन्दन हुआ जिनके सारे केश काली कमाई बटोरते बटोरते सफेद हो गये थे। तीरथ प्रसाद जी रेत से तेल निकालने के विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्होंने कई नौसिखियों को ट्रेनिंग देकर अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनाया था। वे अपने भाषण में बोले, ‘मुझे खुशी है कि सरकार ने हमारी योग्यता और क्षमता को समझा। जब जागे तभी सबेरा। समाज को भी समझना चाहिए कि पैसा उसी के पास आता है जिसमें सामर्थ्य होती है। जब तुलसीदास ने कहा है ‘समरथ को नहिं दोस गुसाईं’ तो हम पर दोष कैसे लगाया जा सकता है?अब वक्त आ गया है कि समाज हमारी कदर करे और हमें वह इज़्ज़त दे जिसके हम हकदार हैं।’
एक वक्ता बोले, ‘समाज आलोचना तो करता है,लेकिन यह नहीं समझता कि काली कमाई क्या चीज़ है। काली कमाई सब धर्मों और जातियों से ऊपर है और सब धर्मों जातियों को एक दूसरे से बाँधती है। हम काली कमाई वाले सब मतभेदों को भुलाकर एक दूसरे को सहयोग देते हैं और मैत्रीभाव रखते हैं। आपने कभी नहीं सुना होगा कि एक काली कमाई वाले ने दूसरे की पोल खोल दी। धर्म और जाति से परे ऐसी एकता का नमूना आपको कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए हमें समाज की नासमझी पर तरस आता है।’
एक और वक्ता बोले, ‘सरकार बैंक खोलकर लोगों की कमाई इकट्ठी करती है ताकि वह देश और समाज के काम आ सके। हम भी अपने स्तर पर वही काम करते हैं। हमारे पास बहुत से लोगों की कमाई इकट्ठी है। सरकार दो नंबर का लेबिल हमारे ऊपर से हटाये तो उसे देश के उत्थान के लिए सामने लायें ‘
एक वक्ता बड़े गुस्से में थे। फुफकार कर बोले, ‘इस काली कमाई के ठप्पे की वजह से हमें कितना पाखंड करना पड़ा। हम हवाई जहाज पर चलने की ताकत रखते हैं लेकिन मजबूरन ट्रेन के सेकंड क्लास स्लीपर में चलना पड़ता है। मर्सिडीज कार खरीदने की क्षमता रखते हुए भी स्कूटर से काम चलाना पड़ता है। महलों में रहने की सामर्थ्य होते हुए भी छोटे से घर में गुज़र करनी पड़ती है। काली कमाई का हौवा दिखाकर हमें चोरों की तरह रहने के लिए मजबूर किया गया। हमें अपना जीवन जिस तरह झूठे अभावों और ओढ़े हुए दुखों में गुज़ारना पड़ा है उसके लिए क्या सरकार भारापाई करेगी? क्या सरकार हमारे उस वक्त को लौटा सकती है?’
कई श्रोता रूमाल से अपनी आँखें पोंछने लगे।
एक वक्ता मंच पर खड़े होते ही माइक पकड़कर रोने लगे। कुछ संयत हुए तो सुबकते हुए बोले, ‘इस सरकारी नीति ने हमारा लाखों का नुकसान किया है। मैंने पकड़े जाने के डर से अपनी तीन बसें अपने एक साले के नाम कर दी थीं। वह साला उन तीनों को हजम कर गया। आजकल बात भी नहीं करता। अब मेरी समझ में आया कि लोग ‘साला’ को गाली की तरह क्यों इस्तेमाल करते हैं। एक और साले ने सात लाख रुपये उधार लिये थे। अब वह भी नट रहा है। कहता है समझो हराम की कमाई हराम में चली गयी। एक साढ़ू के नाम से होटल खोला है, लेकिन हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं वह भी बेईमान न हो जाए। मैं इतना परेशान रहता हूँ कि मेरा ब्लडप्रेशर बढ़ गया है। ईमानदारी तो कहीं रही नहीं। हम अपनी गाढ़ी कमाई कहाँ रखें? अब सरकार हमारी कमाई को मान्यता दे रही है। अब एक एक को समझ लूँगा।’
वातावरण बिगड़ते देख तीरथ प्रसाद जी ने लपक कर फिर से माइक थाम लिया। बोले, ‘भाइयो, आज का दिन गिलों शिकवों का नहीं है। आज का दिन तो खुशी और आभार प्रदर्शन का है। आज से हम समाज में गर्व से सिर उठाकर चल सकते हैं। आज हम यहाँ शपथ लें कि हम तन, मन और धन से देश के उत्थान में समर्पित हो जाएंगे। आज इस मंच से हम देश और प्रदेश की सरकारों से अनुरोध करते हैं कि विकास और वित्त के सभी महत्वपूर्ण मामलों में हमारी राय ली जाए। हमारे पास इन विषयों के विशेषज्ञ मौजूद हैं। बस मौका मिलने की देर है।’
इसके बाद सभी ने छाती पर हाथ रखकर शपथ ली कि वे पूरी ईमानदारी से देश की बहबूदी और समृद्धि में लग जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक हमारा देश विकास के शिखर पर स्थापित न हो जाए।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆
माँ, सुबह के कामकाज करते हुए अपने मीठे सुर में एक भजन गाती थीं, “उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।”
बरसों से माँ का यह स्वर कानों में बसा है। माँ अब भी गाती हैं। अब कुछ शरीर साथ नहीं देता, कुछ भूल गईं तो समय के साथ कुछ भजन भी बदल गये।
यह बदलाव केवल भजन में नहीं हम सबकी जीवनशैली में भी हुआ है। अब 24×7 का ज़माना है। तीन शिफ्टों में काम करती अधिकतम दोहन की व्यवस्था है। रैन और नींद का समीकरण चरमरा गया है। ‘किचन’ में ज़बरिया तब्दील किया जा चुका चौका है, चौके के नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ी पड़ी हैं। आधी रात को माइक्रोवेव के ऑन-ऑफ होने और फ्रिज के खुलते-बंद होते दरवाज़े की आवाज़े हैं। टीवी की स्क्रिन में धँसी आँखें प्लेट में रखा फास्ट फूड अनुमान से तलाश कर मुँह में ठूँस रही हैं।
हमने सब ध्वस्त कर दिया है। प्रकृति के साथ, प्राकृतिक शैली के साथ भारी उलट-पुलट कर दिया है। भोजन की पौष्टिकता और उसके पाचन में सूर्यप्रकाश व उष्मा की भूमिका हम बिसर चुके। मुँह अँधेरे दिशा-मैदान की आवश्यकता अनुभव करना अब किवदंती हो चुका। अब ऑफिस निकलने से पहले समकालीन महारोग कब्ज़ियत से किंचित छुटकारा पाने की तिकड़में हैं।
देर तक सोना अब रिवाज़ है। बुजुर्ग माँ-बाप जल्दी उठकर दैनिक काम निपटा रहे हैं। बेटे-बहू के कमरे का दरवाज़ा खुलने में पहला पहर लगभग निपट ही जाता है। ‘हाई प्रोफाइल’ के मारों के लिए तो शनिवार और रविवार ‘रिज़र्व्ड टू स्लिप’ ही है। बिना लांघा रोज होता सूर्योदय देखने से वंचित शहरी वयस्क नागरिकों की संख्या नए कीर्तिमान बना रही है।
कबीरदास जी ने लिखा है-
कबीर सुता क्या करे, जागिन जपे मुरारि
इक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारि।
लम्बे पाँव पसार कर सोने की बेला से पहले हम उठ जाएँ तो बहुत है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆