हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 79 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टादशोऽध्यायः ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है अष्टादशोऽध्यायः

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 79 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – अष्टादशोऽध्यायः ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए अठारहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र

☆ अठारहवाँ अध्याय – उपसंहार

?मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए अठारहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। डॉ राकेश चक्र???

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त अर्जुन को अंतिम अध्याय में सन्यास सिद्धि के बारे में ज्ञान दिया

 

अर्जुन ने भगवान से पूछा–

हे माधव! बतलाइए, क्या है त्याग उद्देश्य।

क्या है जीवन त्यागमय, कह दें आप विशेष्य।। 1

 

श्रीकृष्ण भगवान ने विस्तार से इसका वर्णन कर कहा—-

 

सन्यास क्या है

भौतिक इच्छा से परे, कर कर्मों परित्याग।

फल कर्मों का त्याग दे, यही योग सन्यास।। 2

 

कर्म श्रेष्ठ क्या हैं

विद्व सकामी कर्म को, कहें दोष से पूर्ण।

यज्ञ, दान, तप नित करें, यही सत्य सम्पूर्ण।। 3

 

भरतश्रेष्ठ! निर्णय सुनो, क्या है विषय त्याग।

शास्त्र कहें इस तथ्य को, तीन तरह परित्याग।। 4

 

आवश्यक कर्म क्या हैं

यज्ञ, दान, तप नित करें, नहीं करें परित्याग।

सबको करते शुद्ध ये, तन-मन मिटती आग।। 5

 

अंतिम मत मेरा यही, करो यज्ञ, तप, दान।

अनासक्ति फल बिन करो, हैं कर्तव्य महान।। 6

 

नियत जरूरी कर्म को, कभी न त्यागें मित्र।

त्याग करें जो मोहवश, वही तामसी चित्र।। 7

 

नियत कर्म जो त्यागता, मन में भय, तन क्लेश।

रजोगुणी यह त्याग है, मिले न सुफल  सुवेश।। 8

 

नियत कर्म क्या हैं

नियत कर्म कर्तव्य हैं, त्याग सात्विक जान।

त्याग सुफल आसक्ति दे, कर मेरा गुणगान।। 9

 

सतोगुणी है बुद्धिमय, लिप्त न शुभ गुण होय।

नहीं अशुभ से भी घृणा, करें न संशय कोय।। 10

 

करें त्याग जो कर्मफल,वही त्याग की मूर्ति।

कर्मों का कब त्याग हो,चले युगों से रीति।। 11

 

त्याग का न करने के दुष्परिणाम

मृत्यु बाद फल भोगते,नहीं करें जो त्याग।

इच्छ-अनिच्छित कर्मफल,या मिश्रित अनुभाग।।12

सन्यासी हैं जो मनुज,नहीं कर्मफल ढोंय।

सुख-दुख भी कब भोगते,नहीं दुखों से रोंय।।12

 

सब कार्यों की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं

सकल कर्म की पूर्ति हो,सुनो वेद अनुसार।

कारण प्रियवर पाँच हैं,सुनो कर्म का सार।।13

 

कर्म क्षेत्र यह देह है,कर्ता यही शरीर।

इन्द्रिय,चेष्टाएँ अनत,प्रभू पंच हैं मीर।।14

 

मन,वाणी या देह से,करते जैसा कर्म।

पाँच यही कारण रहे,सकल कर्म-दुष्कर्म।।15

 

कारण पाँच न मानते,माने कर्ता स्वयं।

बुद्धिमान वे जन नहीं,परख न पाएँ अहम।।16

 

अहंकार करता नहीं,खोल बुद्धि के द्वार।

उससे यदि कोई मरे,बँधे न पापा भार।।17

 

ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता सभी,कर्म प्रेरणा होंय।

इन्द्रिय,कर्ता कर्म सब,कर्म संघटक होंय।18

 

बँधी प्रकृति त्रय गुणों में,त्रय-त्रय भेदा होय।

ज्ञान,कर्म कर्ता सभी,वर्णन करता तोय।।19

 

सात्विक प्रकृति क्या है

वही प्रकृति है सात्विक,ज्ञान वही है श्रेष्ठ।

जो देखे सबमें प्रभू,वही भक्तजन ज्येष्ठ।।20

 

राजसी प्रकृति क्या है

प्रकृति राजसी है वही, देखे भिन्न प्रकार।

सबमें करे विभेद वह,निराधार निस्सार।। 21

 

तामसी प्रकृति क्या है

वही तामसी प्रकृति है, करे कार्य जो भ्रष्ट।

सत को माने जो असत, होता ज्ञान निकृष्ट।। 22

 

 सात्विक कर्म क्या हैं

कर्म सात्विक है वही, जिसमें द्वेष न होय।

कर्मफला आसक्ति से, रहे दूर नर जोय।। 23

 

रजोगुणी कर्म क्या हैं

रजोगुणी वह कार्य है, इच्छा पूरी होय।

अहंकार मिथ्या पले,भोग फलों को रोय।। 24

 

तामसी कर्म क्या हैं

कर्म वही जो तामसी, करते शास्त्र विरुद्ध।

दुख पहुँचा , हिंसा करें, तन-मन करें अशुद्ध।। 25

 

सात्विक कर्ता कौन है–

सात्विक कर्ता है वही, करे नीति के कर्म।

उत्साहित संकल्प मन, नहीं डिगे सत् धर्म।। 26

 

राजसी कर्ता कौन है

वह कर्ता है राजसी, जिसके ईर्ष्या, लोभ।

मोह, भोग आसक्ति से,मिला अंततः क्षोभ।। 27

 

तामसी कर्ता कौन है

चलता राहें तामसी, कर्ता शास्त्र विरुद्ध।

पटु कपटी, भोगी , हठी, आलस- मोहाबद्ध।। 28

 

भगवान ने प्रकृति के गुणों के बारे में वर्णन किया

तीन गुणों से युक्त है,त्रयी प्रकृति का रूप।

सुनो बुद्धि, धृति,दृष्टि से, देखो चित्र अनूप।। 29

 

सतोगुणी बुद्धि क्या है

सतोगुणी है बुद्धि वह, जो मन रखे विवेक।

क्या अच्छा है, क्या बुरा, कार्य कराए नेक।। 30

 

राजसी बुद्धि क्या है

बुद्धि राजसी सर्वथा, क्या जाने शुभ कर्म।

संशय में है डोलती, भेद न धर्म-अधर्म।। 31

 

तामसिक बुद्धि क्या है

बुद्धि तामसिक कर सके, भेद न धर्म-अधर्म।

वशीभूत तम,मोह के, करती सदा अकर्म।। 32

 

सात्विक धृति क्या है

धृति सात्विकी बस वही, करें योग अभ्यास।

इन्द्रिय,मन वश प्राण कर, करें बुद्धि के पास।। 33

 

राजसिक धृति क्या है

सत्य राजसिक धृति वही, रहे कर्मफल लिप्त।

काम, धर्म, धन बीच में, रहे सदा संलिप्त।। 34

 

तामसिक धृति क्या है

तमोगुणी है धृति वही , जो लिपटी भय, शोक।

परे नहीं दुख, मोह से, करे न मन पर रोक।। 35

 

तीन प्रकार के सुख (धृति) क्या हैं

भरतश्रेष्ठ !मुझसे सुनो, त्रय सुख का गुणगान।

योग-भोग कर जीव सब, करें स्वयं कल्यान।। 36

 

सात्विक सुख क्या है

सुख भी सात्विकी है वही , पूर्व लगे विष बेल।

करे आत्म साक्षात जो, यह अमृत सम खेल।। 37

 

रजोगुणी सुख क्या है

रजोगुणी धृति है वही, पूर्व अमृत की बेल।

इन्द्रिय विषय मिलाप से, अंत लगे विष खेल।। 38

 

तामसिक सुख क्या है

तमोगुणी धृति है वही, रहे आत्म विपरीत।

सुप्त मोह आलस्य में, सुप्त हो, पूर्व,अंत अति तीत।। 39

 

मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों अर्थात सत, रज,तम में बद्ध है

बद्ध जीव सब प्रकृति के, मनुज, देव सँग स्वर्ग।

तीन गुणों में लिप्त हैं, फल भोगे सब कर्म।। 40

 

ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य सब, या हों कर्मा शूद्र।

बँन्धे प्रकृति के गुणों में, भाव कर्म के सूत्र।। 41

 

ब्राह्मण कर्म क्या हैं

आत्मसंयमी, शांति प्रिय, तप, सत रहे पवित्र।

ज्ञान, धर्म, विज्ञानमय, कर्म ब्राह्मण मित्र।। 42

 

क्षत्रिय कर्म क्या हैं

शक्ति, वीरता, दक्षता, युद्ध में रखें धैर्य।

हो उदार नेतृत्वमय, हो क्षत्री बल-धैर्य।।43

 

वैश्य का कर्म क्या है

गौ रक्षा, व्यापार कर, करता कृषि के कार्य।

मूल कर्म यह वैश्य का, करे न आलस आर्य।। 44

 

शूद्र कर्म क्या है

जो सबकी सेवा करे, यही शूद्र का कर्म।

श्रम करता जो लगन से, यही मानवी धर्म।। 44

 

कर्म करना ही सबसे श्रेष्ठ है

अपने कर्म स्वभाव का,करते पालन लोग।

कर्म न छोटा या बड़ा, सिद्धि कर्म का योग।। 45

 

कर्म-भक्ति नियमित करें, उदगम सबका एक।

सबका ईश्वर एक है, करें कर्म सब नेक।। 46

 

नियत कर्म सब ही करें, जो हो वृत्ति स्वभाव।

करें लगन संकल्प से, यही श्रेष्ठतम भाव।। 47

 

जो जिसका कर्तव्य है, करें सभी वह काम।

धैर्य रखें उद्योग से, मिलें सुखद परिणाम।। 48

 

अनासक्त मन,संयमी, करे न भौतिक भोग।

कर्मफलों से मुक्त हो, यही सिद्धि फल-योग।। 49

 

परम् सिद्ध जो ब्रह्म है, सर्वोत्तम वह ज्ञान।

कहता हूँ संक्षेप से, कुंतीपुत्र महान।। 50

 

संसार में अध्यात्म सर्वोच्च गुह्य ज्ञान क्या है और मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? भगवान ने अर्जुन को  निम्नलिखित बीस दोहों में बताया है। साथ ही बताया कि भक्त का कैसे कल्याण होता है। गीता का स्वाध्याय और प्रचार करने क्या लाभ हैं

 

विषयेन्द्रिय को त्यागकर, करें बुद्धि जो शुद्ध।

मन वश करते धैर्य से, हो जाते वे बुद्ध।। 51

राग-द्वेष से मुक्त हों, करें वास एकांत।

मन-वाणी संयम करें, योगी जन हो शांत।।51

 

अल्पाहारी, पूर्णतः,विरत, करें न मिथ अहंकार।

काम, क्रोधि, लोभी न हों, रहें सदा निर्विकार।। 52

 

करें आत्म दर्शन नहीं,पालें स्वामी भाव।

मिथ्या शक्ति,प्रमाद से, भक्ति-सत्य बिखराव। 53

 

दिव्य भक्ति में जो मनुज, हो जाता है लीन।

परब्रह्म को प्राप्त कर,पाता दृष्टि नवीन।। 54

 

श्रेष्ठ भक्ति के मार्ग से, मिल जाते भगवान।

पाता नर बैकुंठ गति,और परम कल्यान।। 55

 

शुद्ध भक्ति जो भी करें, संग करें सब कार्य।

पाएँ वे मेरी कृपा, विमल आचरण धार्य।।56

 

सकल कार्य अर्पण करो,रखो सदा हित प्यार।

शरणागत का मैं सदा, करता हूँ उद्धार।। 57

 

श्रद्धा भावी भक्ति से, होता बेड़ा पार।

मिथ्यावादी जो अहम्,पाले मिलती हार।। 58

 

युद्ध करो अर्जुन सखा, करो स्वभावी कर्म।

भाव अवज्ञा का सदा,नष्ट करे सब धर्म।। 59

 

मोह जाल प्रिय छोड़कर, करो धर्म का युद्ध।

पहचानो निज कर्म को, कहते शास्त्र, प्रबुद्ध।। 60

 

जीव-जीव में ईश है,कण-कण अंशाधार।

माया में संलिप्त है, यह पूरा संसार।। 61

 

भारत!गह मेरी शरण, मिले शांति का धाम।

परमधाम पाओ प्रिये, तुम मेरा अभिराम।। 62

 

गुह्य ज्ञान मैंने कहा, मनन करो कुलश्रेष्ठ।

जो भी इच्छा फिर करो, जीवन होगा श्रेष्ठ।। 63

 

सुनो मित्र भारत महत, गूढ़ मर्म का ज्ञान।

यही परम् आदेश है,यही परम कल्यान।। 64

 

मम चिंतन, पूजन करो,वंदन बारंबार।

पाओगे मुझको अटल, मेरा कथन विचार।। 65

 

सकल धर्म परित्याग कर,करो!शरण स्वीकार।

सब पापों से मुक्त कर,करता मैं उद्धार।।-66

 

गुह्य ज्ञान वे कब सुनें,कब संयम अपनायँ।

एकनिष्ठ बिन भक्ति के,द्वेष करें मर जायँ।।-67

 

इस रहस्य को भक्ति के,जो सबको बतलाय।

शुद्ध भक्ति को प्राप्त हो,लौट शरण मम आय।।-68

 

वही भक्त अति प्रिय मुझे,मम करता गुणगान।

जो प्रचार मेरा करे,मुझको देव समान।।-69

 

मैं प्रियवर घोषित करूँ,सुन लें मम संवाद।

करें भक्ति वे बुद्धि से,जीवन बने प्रसाद।।-70

 

श्रद्धा से गीता सुने,होता वह निष्पाप।

पा जाता शुभ लोक को,पाए पुण्य प्रताप।।-71

 

प्रथा पुत्र मेरी सुनो,जो पढ़ता यह शास्त्र।

मोह मिटे अज्ञान भी,बनता मम प्रिय पात्र।।-72

 

भगवान श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण ज्ञान पाकर अर्जुन का माया-मोह का आवरण उसके मन-मस्तिष्क से पूरी तरह हट गया था, तब वह युद्ध करने के लिए तैयार हुआ और भगवान से कहा——

 

अर्जुन कहता कृष्ण से,दूर हुआ मम मोह।

ज्ञानार्जन से बुद्धि पा,मिटा विभ्रम-अवरोह।।-73

 

संजय हस्तनापुर के सम्राट धृतराष्ट्र के सारथी थे, अर्थात रथ चालक थे,साथ ही भगवान के भक्त भी थे। कुरुक्षेत्र का युद्ध होने से पूर्व महर्षि व्यास जी की कृपा से उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई थी, अर्थात वे एक स्थान पर बैठे ही सब कुछ देख व सुन सकते थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा संवाद सुना था, जिसका आँखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुनाते जा रहे थे। जब दोनों के मध्य संवाद समाप्त हुआ, तब अंत में उन्होंने धृतराष्ट्र से संवाद का रोमांचकारी अनुभव व्यक्त किया। जो गीता जी अंत के पाँच दोहों में इस प्रकार है——-

 

कृष्णार्जुन संवाद से,हुआ हृदय-रोमांच।

सच में अद्भुत वार्ता,मन हो गया शुभांत।।-74

 

व्यास कृपा मुझ पर हुई,सुना परम गुह ज्ञान।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने,जीवन किया महान।।-75

 

हे राजन!संवाद सुन,मन आह्लादित होय।

अति पावन यह वार्ता,दूर करे सब कोय।।-76

 

श्रीकृष्ण भगवान के,अद्भुत देखे रूप।

हर्ष भरे आश्चर्य से,जीवन हुआ अनूप।।-77

 

योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं,जहाँ पार्थ से वीर।

वहीं विजय ऐश्वर्य है,शक्ति,नीति सँग धीर।।-78

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” संन्यास सिद्धि योग ” अठारहवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 81 – पाऊस ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #81 ☆ 

☆ पाऊस ☆ 

 

तुझ्या माझ्यातला पाऊस

आता पहिल्यासारखा

राहिला नाही..

तुझ्या सोबत जसा

पावसात भिजायचो ना

तसं पावसात भिजण होत नाही

आता फक्त मी पाऊस

नजरेत साठवतो…

आणि तो ही

तुझी आठवण आली की

आपसुकच गालावर ओघळतो..

तुझं ही काहीसं

असंच होत असेल

खात्री आहे मला

तुझ्याही गालावर नकळत

का होईना

पाऊस ओघळत असेल…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #102 – दरवाजे …☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं प्रसंगवश आपकी  हिंदी पर एक  रचना  “दरवाजे……”। )

☆  तन्मय साहित्य  #102 ☆

☆ दरवाजे……

आते जाते नजर मिलाते ये दरवाजे

प्रहरी बन निश्चिंत कराते ये दरवाजे।

 

घर से बाहर जब जाएँ तो गुमसुम गुमसुम

वापस   लौटें   तो   मुस्काते   ये   दरवाजे।

 

कुन्दे  में  ताले  से  इसे  बंद  जब करते

नथनी नाक में ज्यों लटकाते ये दरवाजे।

 

पर्व, तीज, त्योहारों पर जब तोरण टाँगें

गर्वित  हो  मन  ही मन हर्षाते  दरवाजे।

 

प्रथम  देहरी  पूजें पावन  कामों में जब

बड़े  भाग्य  पाकर  इतराते  ये   दरवाजे।

 

बच्चे  खेलें, आगे – पीछे  इसे  झुलायें

चां..चिं. चूं. करते, किलकाते ये दरवाजे।

 

बारिश में जब फैल -फूल अपनी पर आए

सब  को  नानी  याद  कराते   ये  दरवाजे।

 

मंदिर पर ज्यों कलश, मुकुट राजा का सोहे

वैसे    घर   की   शान   बढ़ाते  ये   दरवाजे।

 

विविध कलाकृतियाँ, नक्काशी, रूप चितेरे

हमें   चैन  की   नींद   सुलाते   ये  दरवाजे।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 104 ☆ पाऊस आणि मी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 104 ?

☆ पाऊस आणि मी ☆

एका रिमझिमत्या सांजेला,

आठवणींचे मेघ भरून आले आणि पाऊस बरसत राहीला

मनभर….

हिरवागार भोवताल न्याहाळत,

कट्ट्यावरच्या गप्पा

रंगत असताना….

आठवत राहिले, दुस-याच कुणा

सखीबरोबरचे ते पावसाळी दिवस धुवाँधार….

शाळेच्या मैदानावर खेळलेल्या खो खो ची आठवण यावी,

असेच काहीसे….

अनेक अनेक मैत्रिणींचे,

आयुष्यात येणे जाणे,

मावळत्या सूर्याच्या दिशेने जाताना,

ताज्या टवटवीत होत गेल्या,

पूर्वायुष्यातल्या सख्यांच्या

त्या रसिल्या मैफिली….

ऋणानुबंधाच्या कुठल्या धाग्याने बांधलेले असतात हे सेतू?

आपल्याला एकमेकींकडे

घेऊन येणारे?

वळणावळणाने वाहणारी,

ही आयुष्याची नदी,

क्षणभर थबकते

एखाद्या काॅज वे जवळ

आणि उठतात तिच्या पात्रावर आठवणींचे तरंग !

त्या रिमझिमत्या सांजेला

सखे, निमित्त फक्त,

आपल्या गाठीभेटीचे,

 पण आपल्या मनातला

पाऊस मात्र,

किती वेगळा …..

तुझा तुझ्यापुरता,

माझा माझ्यापुरता !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 91 ☆ समंदर और वो ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “समंदर और वो  । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 91 ☆

☆ समंदर और वो  ☆

जाने क्यों उसे वो समंदर

बहुत अपने सा लगने लगा था!

वो जाकर उसके किनारे पर बैठ जाती

और देखती उसकी आती और जाती मौजों को-

कभी उसके पानी को अपनी अंजुली में उठाकर

अपने चेहरे पर डालती

और ख़ुशी से अभिभूत हो जाती,

कभी उसमें पाँव डालकर

उसका सुहावना स्पर्श महसूस करती 

और कभी पानी में खड़ी होकर दूर तक दौड़ती!

समंदर ही उसकी ज़िंदगी था!

समंदर ही उसकी मंजिल थी!

 

एक दिन यूँ ही जब लहरों को निहारती हुई

वो बैठी थी किनारे पर,

तो उसे नींद की झपकी आ गयी-

जब उठी तो देखा लहरें पीछे को सरक रही हैं!

वो लहरों के पीछे भागी…

लहरें और पीछे हुईं…

वो भागती रही,

और समंदर भी अपना आँचल समेटता रहा!

 

जब कुछ भी हाथ नहीं आया

तो वो बैठ गयी थक-हारकर,

यूँ जैसे उसकी ज़िंदगी ख़त्म हो गयी हो

और रात ढलने पर सो गयी वहीँ 

उस रेत पर जिसके जिगर में उसी की तरह नमी थी!

 

यह तो सुबह होने के बाद उसने जाना

कि यह एहसास खूबसूरत ही है

जहां सब कुछ खाली-खाली हो!

उसने अपने जिगर में उग रही किरणों के साथ

एक नयी ज़िंदगी शुरू कर दी!

 

जब समंदर अपनी लहरों के एहसास के साथ

फिर से आया उससे मिलने,

वो वहाँ से चली गयी थी दूर, बहुत दूर,

ताकि समंदर उसका पता भी न जान पाए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 2 – सजल – उजियारे की राह तकें जो… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य“ में आज प्रस्तुत है सजल “उजियारे की राह तकें जो…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 2 – सजल – उजियारे की राह तकें जो… ☆ 

सजल

सीमांत – ओते

पदांत- हैं

मात्राभार- 16

मात्रा-पतन- निरंक

 

पथ में काँटे जो बोते हैं।

जीवन भर खुद ही रोते हैं।।

 

राज कुँवर बनकर जो रहते,

चौबिस घंटों तक सोते हैं ।

 

अकर्मण्य ही बैठे रहते,

सारे अवसर वे खोते हैं।

 

धन का लालच जब भरमाए,

गहरी खाई के गोते हैं।

 

उजियारे की राह तकें जो,

अपनी किस्मत को खोते हैं ।

 

कर्मठता से दूर हटें जब,

जीवन खच्चर बन ढोते हैं।

 

आशा की डोरी जब टूटे, 

नदी किनारे ही होते हैं।

 

श्रम के पथ पर हैं जो चलते,

भविष्य सुनहरा संजोते हैं।

 

विजय श्री का वरण जो करते,

मन चाहे फूल पिरोते हैं।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

18 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  स्व रामनुजलाल श्रीवास्तव जी के कथा संग्रह “हम इश्क के बन्दे हैं” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा


पुस्तक : हम इश्क के बंदे हैं (कहानी संग्रह)

लेखक : स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव

प्रकाशक : त्रिवेणी परिषद, यादव कालोनी जबलपुर

मूल्य : २०० रु ,

पृष्ठ : १५०

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆ 

स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ जी ने हिन्दी गीत , कवितायें , उर्दू  गजलें , कहानियां , लेख ,पत्रकारिता , प्रकाशन आदि बहुविध साहित्यिक जीवन जिया . उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से  साहित्यिक में महत्वपूर्ण योगदान दिया .  तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में  ‘प्रेमा’ की बडी प्रतिष्ठा रही है . उन की धरोहर कहानी कृति “हम इश्क के बंदे हैं ” जिसका प्रथम प्रकाशन १९६० में हुआ था , उसे त्रिवेणी परिषद के माध्यम से साधना उपाध्याय जी ने संस्कृति संचालनालय म प्र के सहयोग से पुनर्प्रकाशित किया है . इस कहानी संग्रह में शीर्षक कहानी हम इश्क के बंदे हैं , बिजली , कहानी चक्र , मूंगे की माला , क्यू ई डी , मयूरी , जय पराजय , वही रफ्तार , भूल भुलैया , बहेलिनी और बहेलिया , आठ रुपये साढ़े सात आने , तथा माला नारियल कुल १२ कहानियां संग्रहित हैं .

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की पंक्तियां हैं

सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई , सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी .

ये सारी कहानियां सुख दुख , हार जीत , जीवन की अनुभूतियों , व्यवहार , इसी भावना की राजधानी के गिर्द बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं . ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से हिन्दी कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों जैसा दृश्य उपस्थित करती हैं .  कहानी “वही रफ्तार” को ही लें …

कहानी १९५७ के समय काल की है अर्थात १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के सौ बरस बाद का समय . तब के जबलपुर का इतिहास , भूगोल , अर्थशास्त्र , समाज शास्त्र , राजनीति सब कुछ मिलता है कहानी में . सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है .

कहानी से ही उधृत करता हूं ” अरे अब तो अंग्रेजी राज्य नहीं है . अब तो अपना राज्य है . अपना कानून है . अब तो होश में आओ रे मूर्खो . “

हम आप भी तो यही लिख रहे हैं , मतलब साहित्यकार पीढ़ी दर पीढ़ी लिख रहा है , वह लिख ही तो सकता है . पर लगता है मूर्ख होश में आने से रहे .

एक दूसरा अंश है , जिसमें रिक्शा वाला सवारी से संवाद करते हुये कहता है ” दिन भर में रुपया डेढ़ रुपया मार कूट कर बचा भी तो मंहगाई ऐसी लगी है कि पेट को ही पूरा नहीं पड़ता ” . कहानी का यह अंश बतलाता है १९५७ में रिक्शा वाला दिन भर में रुपये डेढ़ रुपये कमा लेता था. जो उसे कम पड़ता था . कमोबेश यही संवाद आज भी कायम हैं . यह जरूर है कि अब रिक्शे की जगह आटो ने ले ली है , रुपये डेढ़ रुपये की बचत तीन चार सौ में बदल गई है .

इस कहानी में तत्कालीन जबलपुर का वर्णन  भी बड़ा रोचक है ” देवताल के नुक्कड़ पर , गढ़ा की संकरी सड़क में कुछ घुस कर एक मोटर दीख पड़ी ” या “ग्वारी घाट सड़क पर रिक्शेवाला दाहिने मुड़ने लगा तभी सवारी ने कहा सीधे चलो चौथे पुल से इधर दो दो रेल्वे फाटक पड़ेंगे ” छोटी लाइन की समाप्ति और शास्त्री ब्रिज के निर्माण ने यह भूगोल अवश्य बदल दिया है .

अब आपके सम्मुख इस कहानी का कथानक बता देने का समय आ गया है . जो आपको निश्चित ही चमत्कृत कर देगा , यही कहानीकार की विशिष्ट कला है .  

आज भी रोज कमाने खाने वाले मजदूर में यह प्रवृत्ति देखने में आती है कि यदि  किसी तरह उनके पास अतिरिक्त कमाई हो जावे तो बजाय उसे संग्रह करने के वह अगले दिन काम पर ही नही जाते .  वही रफ्तार कहानी में एक रिक्शे वाले जग्गू को उसके चातुर्य से , एक प्रेमी जोड़े से अतिरिक्त आय हो जाती है . वह स्वयं साहब बनकर मजे करना चाहता है और एक सरल हृदय बारेलाल के रिक्शे पर सवारी करता है . साहबी स्वांग करते हुये जग्गू बारेलाल के रिक्शे से अपने मित्र तीसरे रिक्शेवाले मनसुख के घर पहुंचता है . जब बारेलाल पर यह भेद खुलता है कि उस पर अकड़ दिखाता रौब झाड़ता जो उसके रिक्शे की सवारी कर रहा था वह स्वयं भी एक  रिक्शेवाला ही है , तो वह भौंचक रह जाता है . किन्तु फिर भी वह उससे किराया लेने से मना कर देता है तब तीसरा रिक्शे वाला मनसुख जिसके घर जग्गू पहुंचता है वह कहता है ” भाई बारेलाल , यह सच है कि नाई नाई से हजामत की बनवाई नही लेता . पर मैने जो रूखी सूखी बनाई है , आओ हम तीनो बांटकर खा लें और इस सालेसे पूछें कि आज क्या स्वांग किया है .
बारेलाल कहता है , हाँ यह हो सकता है .
 
बारे लाल जग्गू से कहता है ” साले बेईमान एक दिन की बादशाहत में जिंदगी कट जायेगी ? गधे , घोड़े बैल का काम करो , आधा पेट खाओ . फैक्टरी की छंटनी के मारे ऐसी भीड़ कि रिक्शा मिलना भी हराम है . ….

मनसुख बोला धीरज धरो भैया सब ठीक हो जायेगा .

कैसे ?

ऐसे कि जैसे जग्गू बाबू बना था . समय आने पर नकली बाबू का भेद खुल गया न . इसी तरह नकली स्वराज्य और असली स्वराज्य का भेद खुल जायेगा . और समय आते क्या देर लगती है ?

आ ही तो गया सत्तावन गदर का साल .

सत्तावन अत्ठावन सब बीत गये परन्तु गरीबों के लिये तो वही रफ्तार बेढ़ंगी जो पहले थी सो अब भी है .

इस वाक्य से कहानी पूरी होती है . स्व रामानुज लाल श्रीवास्तव की अभिव्यक्ति भारत के अधिकांश गरीब तबके की मन की स्थिति का निरूपण है  . कहानियां सत्य घटनाओ पर आधारित अनुभूत समझ आती हैं .  

प्रश्न है कि क्या राजनीती की लकड़ी ही हांड़ी आज भी वैसे ही चुनाव दर चुनाव नही चढ़ाई जा रही . जग्गू , मनसुख और बारेलाल की पीढ़ीयां बदल चुकी हैं , पर समाज की विसंगतियों की वही रफ्तार कायम है .

सभी कहानियां भी ऐसी ही प्रभावकारी हैं . किताब जरूर पढ़िये . सत्साहित्य के पुनर्प्रकाशन की जो ज्योति त्रिवेणी परिषद ने प्रारंभ की है , वह प्रशंसनीय है . ऐसा पुराना साहित्य जितना अधिक प्रचारित प्रसारित हो बढ़िया है . यह नई पीढ़ी को दिशा देता है . स्वागतेय है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – मेहमानवाजी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है पर्यटन स्थल के अनुभवों पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “मेहमानवाजी। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 98 ☆

? लघुकथा – मेहमानवाजी ?

सृष्टि की सुंदर मनमोहक और प्राकृतिक अनुपम सुंदरता लिए कश्मीर और श्रीनगर। श्रीनगर की शोभा बढ़ाती डल झील, पहलगाम, सोनमर्ग और गुलमर्ग । सभी एक से बढ़कर एक आंखों को सुकून देने वाले दृश्य और बर्फ से ढकी चोटियां। जहां तक नजर जाए मन आनंदित हो जा रहा था।

मनोरम वातावरण में घूमते घूमते मोनी और श्याम ने वहां पर एक कार घूमने के लिए लिया गया था। उस पर चले जा रहे थे। रास्ता बहुत ही खुशनुमा। कश्मीर का कार  ड्राइवर बीच-बीच में सब बताते चला जा रहा था’ सजाद’ नाम था उसका।

हालात के कारण सभी के मुंह पर मास्क लगे हुए थे अचानक गाड़ी रोक दी गई, देखा फिर से चेकिंग शुरू। हर पर्यटक को थोड़ी- थोड़ी दूर पर चेक करते थे। गाड़ियां एक के बाद एक लगी थी। करीब एक घंटे खड़े रहे। अचानक आगे से गाड़ियां सरकती दिखी। सजाद ने भी गाड़ी बढा ली।

परंतु यह क्या पूरा रास्ता जाम हो गया, अचानक बीस पच्चीस पुलिस वाले दौड़ लगाते भागने लगे। एक पुलिस वाला गाड़ी के पास आया।

डंडे से कांच को मारकर कांच नीची करवाया और जोर से बोला… “तैने दिखाई नहीं देता के? ऐसी तैसी करनी है क्या? एंबुलेंस कहां से निकलेगी?” और वह कुछ कहता इसके पहले ही सिर पर एक कस के डंडा और सजाद के गोरे- गोरे गाल पर एक तड़ाक का चांटा!!!!!

पांच ऊंगलियों के निशान लग गए, लाल होता देख मोनी और उसके पति देव ने पुलिस वालों को सॉरी कहना चाह रहे थे कि रास्ता खाली हुआ और गाड़ियां चल पड़ी।

कार में तीनों चुपचाप थे अचानक सजाद ने कहा… “आप क्यों सॉरी बोल रहे थे? आपकी कोई गलती थोड़ी ना है। आप कोई गिल्टी फील ना करें मैडम जी। हम लोग इस के आदी हो गए हैं। “

मोनी ने कहा.. “यदि कुछ हो जाता तो ..?” बीच में बात काटकर सजाद बोला… “मैडम जी हम अपने  मेहमानों को भगवान समझते हैं और भगवान को कुछ ना होने देंगे।“

खिलखिलाते हंस पड़ा मासूम सा चौबीस साल का युवा सजाद कहने लगा… “कभी-कभी एक, दो सप्ताह तक कुछ भी नहीं मिलता। कश्मीर बड़ा खुशनुमा है पर रोटी के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है।“ वह रूआँसा हो चुका था। “आप चिंता ना करें। यह सजाद आप लोगों को कुछ होने नहीं देगा। खुदा कसम हम मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। खुदा की रहमत हैं सभी का भला होगा।“

गाड़ी अपनी रफ्तार से चली जा रही थी और सजाद की मुस्कुराहट बढ़ने लगी थीं। यह कैसी मेहमानवाजी मन में विचार करने लगे मोनी और उसके पति देव।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 106 ☆ उधारी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 106 ☆

☆ उधारी ☆

पसरून पंख दोन्ही घेतोय तो भरारी

आव्हान देत आहे सूर्यास भर दुपारी

 

ऋण वाटतो जगाला मी सावकार आहे

आई तुझ्या ऋणाची फेडू कशी उधारी

 

डोळ्यांत धाक आहे हृदयात प्रेम माया

तो बाप फक्त दिसतो वरवर जरा करारी

 

काळीज पोखरोनी घेतोय उंच डोंगर

अंधार पांघरोनी रस्ता उभा भुयारी

 

पाहून मत्स्यकन्या  मी भाळलो तिच्यावर

प्रेमात सागराच्या येऊ कसा किनारी ?

 

अन्याय वाढलेला डोळ्यासमोर दिसतो

दुष्टास गाडण्याची नाही तरी तयारी

 

शस्त्रास दुःख होते पाहून रक्त धारा

माणूस होत आहे आता इथे दुधारी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#58 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #58 –  दोहे 

आंसू बहते रात दिन, चिथड़ा हुआ नसीब ।

कोई धनी धोरी नहीं, कितना सही गरीब।।

 

आंसू बहते हैं मगर के, पहचानेगा कौन।

नेता आंसू बाज हैं, तुरत बदलते ‘टोन’।।

 

आंसू को मोती कहें, और आंख को सीप।

उसकी उतनी अहमियत, जितना रहे समीप।।

 

गर्व गरूरी को लगे, तृण भी तीर समान ।

इसीलिए तो कर रहे, आंसू का अपमान।।

 

कोहिनूर है आंख का, आंसू है अनमोल ।

तीन लोक की संपदा, सके न इसको तोल।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares