हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #108 ☆ व्यंग्य – ‘एक पाती प्रभु के नाम’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक पाती प्रभु के नाम ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 108 ☆

☆ व्यंग्य – एक पाती प्रभु के नाम 

परम आदरणीय भगवान जी,

बैकुंठधाम।   

सेवा में निवेदन है कि मैं मर्त्यलोक में अपने घर में ठीक-ठाक हूँ।  आप तो कुशल से होंगे क्योंकि आप तो दुनिया की कुशलता के इंचार्ज हैं।  

आगे समाचार यह है कि सेवक की उम्र अब पचहत्तर पार हो गयी जो भारत की औसत आयु से 5-6 साल ज़्यादा है।  इसलिए माना जा सकता है कि यमराज के दूत कभी भी रस्सी का फन्दा घुमाते मेरी आत्मा को गिरफ्तार करने आ सकते हैं।  

इस संबंध में शिकायत यही है कि आप के यहाँ आत्मा को शरीर से निकालने के पहले कोई नोटिस की व्यवस्था नहीं है।  हमारे यहाँ बिल्डिंग गिराते हैं तो पहले नोटिस देते हैं।  बिना नोटिस दिये कोई कार्रवाई हो जाए तो कोर्ट कान पकड़ती है।  आपके यहाँ आदमी को उठाने से पहले कोई नोटिस नहीं दिया जाता।  यहाँ से कानून के बड़े बड़े खुर्राट ट्रांसफर होकर वहाँ पहुँचे हैं।  उनकी सलाह लेकर नोटिस की व्यवस्था करें ताकि आदमी अचानक ही दुनिया से रुख़्सत न हो।  

दूसरी बात यह है कि वहाँ जाने से पहले यह जानने की इच्छा है कि वहाँ बिजली, पानी और आवास व्यवस्था का क्या हाल है।  अब  यहाँ एसी और कूलर की आदत पड़ गयी है, घर में मिनरल वाटर का उपयोग होने लगा है।  घरों में टाइल्स वाइल्स लगाकर बढ़िया बना लेते हैं।  कृपया सूचित करें कि वहाँ इन सब की क्या स्थिति है।  ध्यान दें कि अब दीपक और पर्णकुटी से काम नहीं चलेगा।  जैसा यहाँ जीते रहे वैसा ही वहाँ मिले तो ठीक रहेगा।  

वहाँ वाहन-व्यवस्था की जानकारी दें।  यहाँ अब हवाई-यात्रा और रेल में एसी की आदत पड़ गयी।  अब रथयात्रा बर्दाश्त नहीं होगी।  स्लिप- डिस्क का मरीज़ हूँ,रथयात्रा बहुत भारी पड़ेगी।  उम्मीद करता हूँ कि वहाँ पुष्पक विमान सब को मुहैया होंगे।  

एक और धड़का चाय को लेकर लगा है।  पता नहीं वहाँ चाय मिलेगी या नहीं।  यहाँ तो सबेरे बिना चाय के ठीक से आँख नहीं खुलती।  वहाँ चाय न मिली तो भारी दिक्कत हो जाएगी।  

प्रभुजी, यहाँ भाई-भतीजावाद और ‘दस्तूरी’ का खुला खेल चलता है।  बिना दस्तूरी दिये कोई काम नहीं होता।  जितना बड़ा अफसर, उतनी बड़ी दस्तूरी।  सब प्रेम से बाँटकर खाते हैं।  आशा है वहाँ यह सब नहीं होगा।  कहीं ऐसा न हो कि पापियों को स्वर्ग और पुण्यवानों को नर्क भेज दिया जाए।  पापी लोग इसमें जुगाड़ लगाने की कोशिश ज़रूर करेंगे।  

यहाँ इमारतों, सड़कों और पुलों की हालत खराब है।  उद्घाटन से पहले ही टूट जाते हैं और अपने साथ आदमियों को भी ले जाते हैं।  आशा है वहाँ सड़कें और इमारतें मज़बूत होंगीं।  ऐसा तो नहीं कि यहाँ से गये ठेकेदारों ने वहाँ भी ठेके हथया लिये हों।  

प्रभुजी, यहाँ के नेता सब लबार हो गये हैं।  आँख के सामने काले को सफेद और सफेद को काला बताते हैं।  आशा है वहाँ ऐसा झूठ और प्रपंच नहीं होगा।   दूसरी बात यह कि यहाँ ताकतवर लोग जेल में अपनी एवज में दूसरे लोगों को भेज देते हैं।  अतः कृपया वहाँ भी जाँच करा लें कि नर्क में कुछ सीधे-सादे ‘एवजी वाले’ तो नहीं बैठे हैं।  

यहाँ जाति और धर्म का बड़ा झगड़ा है।  रोज जाति और धर्म के नाम पर लोग एक दूसरे की कपाल-क्रिया करते हैं।  अतः यह जानने की इच्छा होती है कि क्या अलग अलग धर्मों के ईश्वर भी आपस में झगड़ते हैं?वहाँ जातिप्रथा से छुटकारा मिलेगा या वहाँ भी ऊँचनीच चलेगा?

एक बात जो समझ में नहीं आती वह यह कि अलग अलग धर्म वालों को अपने अपने स्वर्ग में अपने अपने ईश्वर ही क्यों दिखायी पड़ते हैं?क्या अलग अलग धर्मों के अलग अलग स्वर्ग और नरक हैं?ये बातें सोचते सोचते मूड़ पिराने लगता है, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक समाधान नहीं मिलता।  

इन शंकाओं का समाधान हो जाए तो थोड़ा इत्मीनान से आपके लोक आ सकूँगा।  अब कलियुग में आप प्रकट तो होते नहीं, इसलिए मेरे सपने में आकर मेरे प्रश्नों का उत्तर दीजिएगा।  मेरे सपने में आना ओ प्रभु जी,मेरे सपने में आना जी।  (तर्ज- मेरे सपने में आना रे सजना, फिल्म राजहठ)।  आप आना ठीक न समझें तो किसी समझदार प्रतिनिधि को भेज दीजिएगा।  

चलते चलते एक प्रार्थना और।  हम यहाँ दिन भर टीवी से चिपके रहते हैं।  कभी कभी सिनेमा थिएटर भी चले जाते हैं।  टाइम कट जाता है।  वहाँ समय काटने के हिसाब से मनोरंजन के कौन से साधन हैं यह जानकारी देना न भूलिएगा।  यह बता दूँ कि यहाँ अब क्लासिकल मुसीकी और क्लासिकल डांस कोई पसन्द नहीं करता।  इसलिए नये ज़माने के हिसाब से मनोरंजन के साधन हों तभी वहाँ मन लगेगा।  बाकी आपका भजन-पूजन तो जितना बनेगा उतना करेंगे ही।  

आपका भक्त

अनोखेलाल

साकिन जम्बूद्वीप

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 108 ☆ भाषाई अस्मिता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 107 ☆ भाषाई अस्मिता ☆

प्रश्नमंजूषा का एक कार्यक्रम चैनल पर चल रहा है। प्रश्न पूछा जाता है कि चौरानवे में से चौवन घटाने पर कितना शेष बचेगा? सुनने पर यह प्रश्न बहुत सरल लगता है पर प्रश्न के मूल में 94 – 54 = 40 है ही नहीं। प्रश्न के मूल में है कि उत्तरकर्ता को चौरानवे और चौवन का अर्थ पता है या नहीं।

हमारी धरती पर हमारी ही भाषा के अंक और शब्द जिस तरह से निरंतर हमसे दूर हो रहे हैं, उनके चलते संभव है कि भविष्य में किसी प्रश्नमंजूषा में पूछा जाए कि माँ और बेटा साथ जा रहे हैं, बताओ कि उम्र में दोनों में कौन बड़ा है? प्रश्न बचकाना लग सकता है पर केवल उनको जिन्हें माँ और बेटा का अर्थ पता होगा। बाकियों को तो उत्तर से पहले इन शब्दों के परदेसी अर्थ क्रमश: ‘मदर’ और ‘सन’ तक पहुँचना होगा। कुछ मित्रों की दृष्टि में यह अतिश्योक्ति हो सकती है पर अतिश्योक्ति होते तो हम रोज़ देख रहे हैं।

आज, हमारी भाषाओं के अंकों का उच्चारण न केवल कठिन मान लिया गया है, बल्कि मज़ाक का विषय भी बनने लगा है। भविष्य में शब्द समाप्त होने लगेंगे.., लेकिन ठहरिए, समय अधिक नहीं है। भविष्य दहलीज़ पर खड़ा है। कुछ शब्द तो उसने वहाँ खड़े-खड़े ही गड़प लिए हैं। बकौल डेविड क्रिस्टल, ‘एक शब्द की मृत्यु, एक व्यक्ति की मृत्यु के समान है।’

प्रश्न है कि हमारी भाषाई संपदा की अकाल मृत्यु के लिए उत्तरदायी कौन है? क्या केवल व्यवस्था पर इसका दोष मढ़ देना उचित है? निश्चित ही व्यवस्था, विशेषकर शिक्षा के माध्यम का इसमें बड़ा हाथ है। तथापि लोकतांत्रिक व्यवस्था की इकाई नागरिक होता है। इकाई की भूमिका क्या है? अब यह बहाना न तलाशा जाय कि दिन भर रोज़ी-रोटी के लिए खटने के बाद समय और शक्ति कहाँ बचती है कि कुछ और किया जाय? समाचार, क्रिकेट, फिल्में, सोशल मीडिया, शेयर मार्केट, सीरियल, ओ.टी.टी. सबके लिए समय है पर अपनी भाषा की साँसें बचाये रखने के नाम पर विवशता का रोना है।

कहा गया है, ‘धारयेत इति धर्म:।’ अनेक घरों में अकादमिक शिक्षा के अलावा निजी स्तर पर अनिवार्य धार्मिक शिक्षा का प्रावधान है। क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी भाषा और मातृभाषा में बच्चों को पारंगत करना हमारा धर्म नहीं होना चाहिए? इकाई यदि सुप्त होगी तो समुदाय भी सुप्त होगा और जो सुप्त है, उसका ह्रास और कालांतर में विनाश निश्चित है।

अपने पुत्रों की मृत्यु से आहत गांधारी ने महाभारत युद्ध की समाप्ति पर श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि यदुवंश का नाश हो जाएगा। माधव सारी स्थितियों से भली-भाँति परिचित थे। बोले, ‘जैसे आशीष, वैसे आपका श्राप भी सिर-माथे पर।..हाँ एक बात है, आप श्राप देती या न देती, यदुवंशी जिस प्रकार अपने कर्मों से दूर होकर सुप्त हुए जा रहे हैं, उसे देखते हुए उनका नाश तो यूँ भी निश्चित है।’

मुद्दा यही है। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का श्राप तो है ही, प्रश्न हमारी अपनी सुप्त अवस्था का भी है। शब्दों का भाषा से दूर होते जाना एक तरह से भाषा का चीरहरण है। शनै: शनै: चीर और छोटा होता जाएगा। क्या हम भाषाई अस्मिता को इसी कुचक्र में फँसते देखना चाहते हैं?

अभी भी समय है। सामूहिक प्रयत्नों से हम सब मिलकर योगेश्वर की भूमिका में आ सकते हैं, ताकि चीर अपरिमित हो जाए और उतारने वालों के हाथ थक कर चूर हो जाएँ।

आइए साथ में जुटें। आपकी भाषा को आपकी प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 61 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 61 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 61) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 61 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

गिले -शिकवे  तो  सिर्फ़

साँस लेने तक ही चलते हैं

बाद में तो पछतावे  तक की

गुंजाइश  नहीं   रह  जाती..!

 

Complaints and grouses last only till one is alive

Later only memories and painful repentance remain

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वक़्त  सा

था  वो…

कभी  मिला

ही  नहीं…

 

He was

like time

Could never

find  him…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अपनी आदतों में

तुम्हें शुमार करके

हमने  खुद  को

बहुत बिगाड़ा है…

 

By including you

in my habits

I have spoiled

myself a lot..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दिलकश मुस्कुराहट पर तो

हजारों फिदा होते ही हैं….

बात तो तब बने जब कोई

आंसुओं का भी हिस्सेदार हो

 

Thousands are smitten

by a bewitching smile….

Creditable is when someone

shares the tears too….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 61 ☆ मुक्तिका …. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता ‘मुक्तिका ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 61 ☆ 

☆ मुक्तिका …. ☆ 

*

तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात

शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात

*

तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट

पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात

*

निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब

तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात

*

हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़

दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात

*

कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प

बूँद पसीने के बने, यादों की बारात

*

चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट

फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात

*

ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?

पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात

*

लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार

आडम्बर से मिल सके, सबको ‘सलिल’ निजात

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #91 ☆ बाल कविता # संबंधों का मोल # ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण बाल कविता  “#संबंधों का मोल#। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #91 ☆ बाल कविता # संबंधों का मोल # ☆

किसी समय में एक गांव में,

                       रहते थे दो भाई।

प्रेम न था उनमें आपस में ,

           बढ़ी दूरियां दिल की खाई।

अलगाव हुआ था उन दोनो में,

                      आपस में बंटवारा।

झगडे़ की जड़ थी एक अंगूठी,

            उनमें हुआ विवाद करारा।

 अपना झगड़ा लेकर वे,

               पहुंचे एक संत के पास।

संत ने उनकी सुनी समस्या,

          रखी अंगूठी खुद के पास।

बोले संत आज घर जाओ,

            तुम सब कल फिर आना।

आकर सुबह सबेरे तुम सब,

       अपनी अंगूठी लेकर जाना।।

 

जाते ही घर अपने उनके,

       संत ने सुनार बुलवाया।

वैसी दूसरी अंगूठी,

      उनने सुनार से बनवाया।

  क्यों? मोल चुकाया पास से अपने,

       ये भेद कीसी की समझ न आया।

 

जब सुबह को आये दोनों भाई,

      उनको अलग अलग बुलवाया।

 पा कर  एक एक  अंगूठी ,

                      दोनों संतुष्ट हुए थे।

थे प्रसन्न दोनों भाई,

    अब आपस में मिलजुल रहते थे।

 इक दिन बातों बातों में ,

       इस रहस्य की बात खुल गई।

जब एक अंगूठी झगडे़ की जड़ थी,

        फिर कैसे दो हमें मिल गई।

 जब इस सच का चला पता,

      फिर दोनों पहुंचे संत के पास।

क्यों दो  अंगूठी दिया हमें,

      सच सच बतलाएं समझ के दास।

 उनकी बातें सुन कर के,

             बाबा जी ने बतलाया।

 #संबंधों के मोल# की बातें,

               बाबा जी ने समझाया।

सोना तो है तुच्छ चीज,

        संबंधों के मोल बहुत है।

सोने से भी बढ़ करके,

          भाई में प्रेम अधिक है।

यही बताने की खातिर,

     दो अंगूठी तुम्हें दिया था।

 जीवन में संबंधों का मतलब,

          तुम सबको बता दिया था।

सुनकर बाबा की बातें,

                दोनों संतुष्ट हुए थे।

सदा सुखी रहने का मंतर,

                  दोनों समझ गये थे।

संबंधों के मोल बहुत हैं,

      नानाजी से सुनों कहानी।

सोने-चांदी का मोल न कोई,

         ये बतलाती बुढ़िया नानी।

 क्यों लड़ते तुम गहनों खातिर,

       सब बातें संत ने समझाया।

संबंधों की कीमत उनने ,

      अपनी युक्ति से बतलाया।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18-8-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कलास्वाद ☆ भेंडाच्या कलाकृती ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

? कलास्वाद ?

☆ भेंडाच्या कलाकृती ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

आपण घरी बरेच मसाल्याचे पदार्थ वापरत असतो.प्रत्येक पदार्थांचा आकार,रंग ,वास,चव वेगळी असते.ते नेहमी मला खुणावत असतात त्यांच्या आकारात नेहमी मला वेगळे आकार दिसतात.

मसाल्याच्या  पदार्थांचा वापर करून मी चित्रे, रांगोळ्या काढल्या आहेत.

एकदा घरात मंगल कार्य होत खुप वेलदोडे सोलले होते खुप साली निघालेल्या,त्या फेकून देणे मला पटेना.या सालीचा वापर करून  काही तरी केले पाहिजे असे वाटू लागले  म्हणून त्या साली मी वेगळ्या ठेवून दिल्या.मला प्रत्येक सालीत एक पाकळी दिसत होती.साली गोलाकार चिटकवून काही फुले तयार केली.त्यांने भेटकार्ट सजवली.दोन सालीना कात्रीने आकार दिला तर यातून छान पिसे तयार झाली. खुप पिसे तयार केली.पेपरवर वेलदोड्याच्या सालीतून एका चिमणी ने आकार घेतला.याच पध्दतीने एक मोर तयार झाला.सालींना आकार देणे जरा जिकिरीचे होते पण तयार झालेली कलाकृती पाहून श्रम विसरून गेले.कलेची दृष्टी विकसित झाली की कश्यात ही आकार दिसतो हेच खरे.

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सांगली

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #5 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #5 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य एक मानवीय प्रक्रिया है. जो संवेदना के आधार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है. यह शुरूआत से ही मानवीय जीवन का अंग रही है. जब भी, जहाँ भी प्रकृति के विपरीत, नियम के विरुद्ध दिखता है. व्यंग्य समाज और मानवीय जीवन में प्रतिरोध कर दे देता है व्यंग्य  से आप सामने वाले को सजग ,सतर्क और सक्रिय कर सकते है.प्राचीन भारत में धर्म ही चेतना का मूल तत्व था.धर्म के आसपास ही राजतंत्र और अन्य व्यवस्था घूमती थी जबकि उस तंत्र में भी अनेक विकृतियां रहती हैं पर अथाह शक्ति के कारण विरोध के स्वर दब जाते थे, आज भी उसका प्रभाव कम नहीं हुआ है.उस समय भी विरोध के स्वर में जन सामान्य को सचेत करने की भावना उद्दीप्त रही हैं, पर आज इसके मध्यवर्गीय रुप में परिवर्तन जरूर आया है. पूर्व  में धर्मांधता राजशाही सामांतवादी प्रवृत्तियां विकृतियां ही व्यंग्य के केंद्र में थी. भारतीय महाद्वीप में साहित्य का माध्यम पद्य था. सभी रचनाएं पद्य में रची जाती थी. व्यंग्य की बुनावट का ताना बाना का माध्यम भी कविता था. सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं  विकृतियों, कुरीतियों की चर्चा सदा कविता, छंद में की जाती रहीं हैं. इस लिए हमारी भारतीय संस्कृति में जितने भी ग्रंथ मिलते हैं, वे सभी पद्य में मिलते हैं. हमारे आदि ग्रंथ वेद, पुराण, उपवेद, रामायण, रामचरित मानस सभी पद्य में हैं. तब गद्य के स्वरुप का विकास नहीं हुआ था, पद्य ही संचार का माध्यम था .तब भी कवियों के द्वारा सामाजिक विसंगतियों और विकृतियों को सफलता पूर्वक पद्य में उदघाटित किया जााता रहा हैं. इस सब में कबीर का सबसे बढ़िया उदाहरण है, कबीर ने अपने उस समय में समाज में व्याप्त कुरीतियों, विसंगतियों, धर्मांधता कठमुल्लापन को अपनी कविताओं में विषय बनाया, शायद कबीर के पहले, व्यंग्य का सार्थक उपयोग किसी अन्य कवि ने नहीं किया है, यदि किया भी है, इतनी प्रचुर मात्रा में तीखे तेवर के साथ और प्र्भावी ढंग से नहीं किया है. वे जन जन के मनोमस्तिष्क में अंदर तक धसे है. वे सबको आव्हान करते हुए कहते हैं

कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ।

जो घर फूंके आपना, चले  हमारे  साथ।।

अस्पृश्यता और धर्मांडम्बर पर कबीर तल्ख ढंग से कहते हैं

एक बूंद एकै मल-मूतर, एक वाम एक गूदा ।

एक जोतिथै सब उत्पन्ना, को बामन को सूदा ।।

कविता में व्यंग्य का तैवर आज भी नहीं बदला है आधुनिक कवियों ने भी कबीर की तई कविता में व्यंग्य को अपना हथियार बनाया. नारायण सुर्वे की कविता ‘दस्तावेज’का अंश है-

लेकिन क्या कोई बताएगा

             इस सदी में चांद महंगा हुआ था ?

कलकत्ते की सड़कों पर घोड़ा बन कर

              मेरी आत्मा बग्घी खींच रही थी ?

लेकिन इतना काफी है; हमें भी बदल लेने होंगे अब धुंधलाएं चश्मे

हम भी इस सदी में पैदा हुए; हमारा भी पूरा करना होगा हिसाब-किताब

इसी तरह मुक्तिबोध की एक चर्चित कविता है

          मकानों की पीठ पर ।

          अहातों की भीत पर ।

          बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर ।

          अंधेरे के कन्धों पर  ।

          चिपकाता कौन है ? चिपकाता कौन है ?

            हड़ताली पोस्टर……..।’

इसी तरह धर्मांधों पर कवि कुमार विकल की तीखी कविता

             मजहब एक भद्र गोली है

             जो हर धर्मग्रंथ में पाकीजगी के नकाबों में

             छिपी रहती है

             और कभी आरती

             कभी कलमा

             कभी अरदास बनकर

             आम आदमी की प्रतिज्ञाओं में

             घुसपैठ कर जाती है

             ताकि वह इस दुनिया को और गालियां

             बुदबुदाते हुए

             एक नर्कनुमा जिंदगी में रीत जाए ।

व्यंग्य में कविता का स्वतंत्र अस्तित्व रहा है चाहे प्राचीन हिंदी साहित्य हो या आधुनिक हिंदी साहित्य. स्वतंत्रता के बाद प्रमुखतः काका हाथरसी माणिक वर्मा, निर्भय हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी का स्मरण किया जाता है. ये सब मूलतः मंचीय कवि थे. इन्होंने सदा मंच के साथ ही साहित्य का भी सम्मान रखा. काका हाथरसी, और हुल्लड़ मुरादाबादी की रचनाओं में हास्य का पुट अधिकता से था. पर माणिक वर्मा की कविता का स्वर व्यंग्य का रहा है. अतः यह कहना ठीक नहीं है या जल्दबाजी होगी कि व्यंग्य, कविता का गद्य स्वरुप है. व्यंग्य का गद्य रुप काफी समय के बाद आया है आधुनिक काल के आरंभ में रुढ़िवादिता के साथ साथ आधुनिकता का मोहपाश भी अपने पैर पसार चुका था. समाज में व्याप्त विद्रूपता की वजह से व्यंंग्य के पोषक तत्वों के कारण व्यंग्यकारों को फलने फूलने का पूरा पूरा अवसर मिला. स्वतंत्रता के पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुद गुप्त और उनके समकालीनों ने थोक में व्यंग्य लिखना शुरू किया, वह भी गद्य में. जिन्हें अखबारों में जगह मिली, पाठकों ने खुले मन से स्वीकार किया. उन रचनाओं का केंद्र बिंदु अंग्रेजी शासन की नीतियां और समाज में व्याप्त कुरीतियां, बुराइयां थीं. उस लेखन की नयी शैली थी. अन्यथा यह सब काम कवि और कविता ही करते थे. स्वतंत्रता आंदोलन के उत्तरार्ध हरिशंकर परसाई ने लिखना शुरू किया. पहले उन्होंने कहानियां लिखीं. पर उससे उन्हें संतोष नहीं मिला .फिर उन्होंने लेख लिखे. पाठकों की प्रतिक्रिया प्रोत्साहन करने वाली थीं, पाठक और पत्रिकाओं को उनके लेखों में राजनैतिक और सामाजिक चेतना की चिंगारी की रश्मि दिखी. एक नया तैवर, एक नयी शैली, शब्दों के नये अर्थ दिखे. बस यहीं से व्यंंग्य में गद्य की स्थापना का समय आरंभ हो गया. परसाई जी ने अकाल उत्सव, मातादीन चांद पर, हम बिहार से चुनाव लड़ रहे है. वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर आदि सैकड़ों रचनाओं से साहित्य समाज में हलचल मचा दी थी. हिंदी व्यंग्य के बारे में हरिशंकर परसाई का मानना था, ‘सही व्यंग्य व्यापक परिवेश को समझने से आता है ।व्यापक सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय, आदि की तह में जाना,कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य मे देखना, इससे सही व्यंंग्य बनता है, जरूरी नहीं, कि व्यंग्य मे हंसी आए. यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है।विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है आत्म साझात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है. व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है. और परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है., तो वह सफल व्यंग्य है. जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा.उपरोक्त विचार के साथ ही व्यंग्य के गद्य स्वरूप को मजबूत धरातल मिला, गद्य में व्यंग्य के फैलाव का प्रमुख कारण यह है कि जीवन की आपाधापी की कठिन परिस्थितियों के समय, समाज में फैली विद्रूपता, विसंगति,विडम्बना, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, विकृत सामाजिक रुढ़ियां, बुराईयां, विकृत प्रवृतियां,  ठकुरसुहाती, संवेदनहीनता, स्वार्थलोलुपता, आदि को लेखक निर्भीक खुलकर पाठक के सामने लाता है. पाठक यह सब अपने आसपास देखता है. और उसे अपनी ही लगती है. जिससे वह रोज जूझता है. उसे लगता है. किसी को उसकी समस्या से चिंता है. रचना में उसे अपनी मौजूदगी दिखती है. इससे व्यंंग्य  को पसंद करता है. और पसंद  करता है व्यंग्य के गद्य फार्म को. क्योंकि उसे इस फार्म में पढ़ने और समझने में आसानी होती है.समय को व्यंंग्य ने पहचानाा,और पाठक ने व्यंग्य को हाथों हाथ लियाा. उस समय परसाई के साथ साथ व्यंग्य को केंद्र में रख कर सामाजिक राजनीतिक, विकृतियों को उघाड़ने का काम शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेन्द्र कोहली, श्रीलाल शुक्ल, के पी सक्सेना, सूर्यबाला, शंकर पुण्ताम्बेकर, लतीफ घोंघी, अजातशत्रु लक्ष्मीकांत वैष्णव, श्रीबाल पाण्डेय आदि ने बखूबी किया. और व्यंग्य को गद्य के स्वरुप में स्थापित किया और व्यंग्य  कविता के साथ साथ गद्य के अस्तित्व के में आ चुका था.इसके बाद व्यंग्य के इस रुप ने पाठक और लेखकों को आकर्षित किया . आज गद्य मे व्यंग्य का स्वरुप अधिक मुखर है, और पद्य में अलग उपस्थिति दर्ज करा है. ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. कि व्यंग्य कविता का गद्य रूप है. पहले साहित्य और विचार का माध्यम ही कविता था, परअब स्थिति बदल चुकी है. आज व्यंग्य गद्य और पद्य दोनों में स्वतंत्र रूप से प्रभावी है वे एक दूसरे पर अवलम्बित नहीं है.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆

अपनों से जा दूर बसने में कई मजबूरियां हैं

समय के संग मन को कई बदलाव देती दूरियां है

कब क्या  बदलाव होगा बता पाना तो कठिन है

पर नए परिवेश में बदलाव की कमजोरियां हैं

 

शुरू में बदलाव तो लगता सभी को है सुहाना

जानता कोई नहीं कल आयेगा कैसा जमाना

खुद के भी बदलाव को कोई समझ पाता कहां है

समय की धारा में मिल बहना जगत ने धर्म माना

 

दूरदर्शी सोच कि संसार में कीमत बड़ी है

क्योंकि नियमित समय से बदलाव की आती घड़ी है

आज जो दिखता जहां है कल कभी मिलता कहां वह

इसलिये नए निर्णयों में उचित नहीं कोई हड़बड़ी है

 

परिस्थितियों साथ नित बनता बिगड़ता विश्व सारा

जरूरी इससे बहुत सद्बुद्धि का शाश्वत सहारा

सदा रहते हरे ऊंचे वृक्ष जिनकी जड़ें गहरी

बहा ले जाती समय की नदी अपना ही किनारा

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…4”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” की यात्रा का पथिक राग-द्वेष का पहला पड़ाव पार करने के बाद दूसरे पड़ाव की यात्रा शुरू करता है। वह स्मृतियों के बियाबान में प्रवेश करता है और पाता है कि जब “मैं” कौशोर्य अवस्था पर था तब उसे बताया गया कि वह रंग, देह, जाति, नस्ल, बुद्धि, सामर्थ और धन में दूसरों से श्रेष्ठ है। वहीं से “मैं” के ऊपर सच्ची झूठी प्रशंसा का लेप चढ़ाया जाने लगा। उसके चारों तरफ़ श्रेष्ठता रूपी ईंटों की दीवार खड़ी कर पलस्तर चढ़ा कर रंग रोगन से पक्का कर दिया। उसका मौलिक स्वरुप उसे ही दिखना बंद हो गया।

“मैं” जब भी दुनिया से मिलता-जुलता, लड़ता-झगड़ता “मैं” के ऊपर का अहंकार भाव का कड़क आवरण न सिर्फ़ उसकी रक्षा करता अपितु जीतने में उसकी भरपूर मदद भी करता। उसे विश्वास होने लगता कि उसका अहंकार ही मौलिक “मैं” है, वह पूरी तरह बदल चुका है। सफलता दर सफलता उसका मन पूरी तरह अहंकार के खोल में पैबंद हो गया है। पथिक की राह में यह दूसरी बड़ी बाधा है।

जब  “मैं” को बचपन में बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, और इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है, तो यहीं से अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव तथा अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड है, और क्रोध उसका उच्छ्वास है।” 

अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर अहंकार भाव तिरोहित होना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ की बेचैनी पीछा नहीं छोड़ती है।

“मैं” निर्माण से निर्वाण की यात्रा में कई सोपान तय करता है। “मैं” को दुनियादारी से निभाव के लिए समुचित मात्रा में अहंकार की ज़रूरत होती है। एक बार निर्माण पूरा हो गया फिर अहंकार की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है। अहंकार की प्रवृत्ति जूझने की है। वह धन, यश, मोह में जकड़ा अपनो के लिए दूसरों से लड़ता है। जब लड़ने को कोई पराया नहीं मिलता तो अपनो से लड़ता है। दुनियावी उपलब्धियों का संघर्ष समाप्त होते ही अहंकार “मैं” को ही प्रताड़ित करने लगता है।   

एक ओर हम राम के विवेकसम्मत परिमित अहंकार को देखते हैं जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,

बोले राम  सकोप तब,  भय बिनु होय न प्रीत।”

दूसरी तरफ़ हम रावण के अविवेकी अपरिमित अहंकार को पाते हैं, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। दूसरों से लड़ता उसका अहंकार  स्वयं के नज़दीकी रिश्तेदारों से लड़ने लगता है। फिर उसकी लड़ाई ख़ुद की ज़िद से शुरू होती है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में यश, धन, यौवन, जीवन; सबकुछ हर लेते हैं।’

अहंकार “मैं” के पैरों में पड़ी लोहे की ज़ंजीर है जो उसे टस से मस नहीं होने देती। कर्ता का अहंकार छोड़े बग़ैर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे नहीं बढ़ सकता।

“आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया, फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढेर लगाना विवेक़ सम्मत है? यदि “मैं” को अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया या आत्म चिंतन द्वारा मन से बाहर निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।”

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #61 – अपना दीपक स्वयं बनें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #61 – अपना दीपक स्वयं बनें  ☆ श्री आशीष कुमार

एक गांव मे अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहाँ एक सुन्दर बेटा पैदा हुआ जो अंधा नही था।

एक बार पत्नी रोटी बना रही थी उस समय बिल्ली रसोई मे घुस कर बनाई रोटियां खा गई।

बिल्ली की रसोई मे आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पङा।

एक दिन किसी प्रकार से मालूम पङा कि रोटियां बिल्ली खा जाती है।

अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकता।

इससे बिल्ली का आना बंद हो गया।

जब लङका बङा हुआ ओर शादी हुई।  बहू जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बांस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट फट करने लगा।

कई  दिन बीत जाने के बाद पत्नी ने उससे पूछा  कि तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बांस का फटका क्यों पीटते हो?

पति ने जवाब दिया कि – ये हमारे घर की परम्परा है इसलिए मैं रोज ऐसा कर रहा हूँ ।

माँ बाप अंधे थे बिल्ली को देख नही पाते उनकी मजबूरी थी इसलिये फटका लगाते थे। बेटा तो आँख का अंधा नही था पर अकल का अंधा था। इसलिये वह भी ऐसा करता जैसा माँ बाप करते थे।

ऐसी ही दशा आज के समाज की है। पहले शिक्षा का अभाव था इसलिए पाखंडवादी लोग जिनका स्वयं का भला हो रहा था उनके पाखंडवादी मूल्यों को माना औऱ अपनाया। जिनके पीछे किसी प्रकार का कोई  लौजिक या तर्क नही है। लेकिन आज के पढे लिखे हम वही पाखंडता भरी परम्पराओं व रूढी वादिता के वशीभूत हो कर जीवन जी रहे हैं।

इसलिये सबसे पहले समझो ,जानो ओर तब मानो तो समाज मे परिवर्तन होगा ।

“अपना दीपक स्वयं बनें”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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