(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता “# दीपोत्सव मनाएं #”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘एक संकटग्रस्त प्रजाति ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 111 ☆
☆ व्यंग्य – एक संकटग्रस्त प्रजाति ☆
हाल ही में एक सर्वे से यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि हमारे देश में ईमानदार लोगों की संख्या, जो आज़ादी के समय करोड़ों में थी, अब जनसंख्या तिगुनी होने के बावजूद घट कर कुछ लाखों में रह गयी है। यह तथ्य सामने आते ही सरकारी स्तर पर बड़ी भागदौड़ शुरू हो गयी। यह चिन्ता व्यक्त की गयी कि अगर यह तथ्य भ्रष्टाचारी देशों की लिस्ट बनाने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की जानकारी में आ गया तो हमारी फजीहत हो जाएगी।’डिज़ास्टर मैनेजमेंट’ की बातें होने लगीं। ‘समथिंग हैज़ टु बी डन इमीडिएटली। इट इज़ अ सीरियस क्राइसिस ऑफ कैरेक्टर’।
मीटिंग पर मीटिंग होने लगी। तुरन्त कुछ करना होगा, नहीं तो दुनिया के सामने क्या मुँह दिखाएंगे? हमारा देश धर्मप्रधान देश है, फिर सारे ईमानदार कहाँ ग़ायब हो गये? आला अधिकारी माथा पकड़े बैठे थे। अभी तक बाघों की घटती संख्या को लेकर परेशान थे, अब यह एक और सरदर्द पैदा हो गया।
मीटिंग में तरह तरह के सुझाव आने लगे। एक अधिकारी बोले, ‘सर, मेरी समझ में नहीं आता कि ईमानदारों की तादाद कम होने पर चिन्ता की क्या बात है। अब अर्थव्यवस्था बाज़ार की शक्तियों के हिसाब से चल रही है। आदमी वहीं जाएगा जहाँ चार पैसे मिलेंगे। हमने इतनी तरक्की कर ली है तो इन पुराने खयालों को कब तक छाती से चिपकाये रहेंगे? ईमानदारी इज़ नाउ आउटडेटेड। लेट अस एक्सेप्ट इट।’
बड़े अधिकारी सर खुजाने लगे,बोले, ‘आपका कहना ठीक है, लेकिन दुनिया अभी भी ‘आनेस्टी’ को ‘इंपार्टेंट’ मानती है। हमारे देश में ईमानदार लोगों का एक ‘रिस्पैक्टेबल नंबर’ तो होना ही चाहिए, अन्यथा हो सकता है कि हमको वर्ल्ड बैंक और दूसरी संस्थाओं की मदद मिलना बन्द हो जाए।’
एक बड़े साहब बोले, ‘सबसे पहले तो ईमानदार आदमी को संरक्षित प्राणी घोषित किया जाए और इसकी ‘पोचिंग’ के खिलाफ कानून बनाया जाए।’
इस पर एक अधिकारी ने शंका प्रकट की, ‘पोचिंग तो जानवरों को मारने के लिए इस्तेमाल होता है। आदमी के संबंध में ‘पोचिंग’ का क्या मतलब? ‘
बड़े साहब बोले, ‘पोचिंग ईमानदार की भले न हो, लेकिन ईमानदारी की तो होती है। लोग ईमानदार को बेईमान बना देते हैं। यह भी तो पोचिंग ही है। इसमें दोस्तों, दफ्तर के
साथियों, अफसरों, पत्नी और परिवार का हाथ हो सकता है। ये सब ईमानदारी की पोचिंग के दोषी हो सकते हैं।’
सुनने वाले हँसने लगे,बोले, ‘इनका पता कैसे लगेगा सर? यह तो भूसे के ढेर में सुई तलाशने जैसा हुआ।’
साहब सर खुजाते हुए बोले, ‘काम तो मुश्किल है, लेकिन कानून बन जाएगा तो ईमानदार लोगों को बेईमानी की तरफ धकेलने वालों के मन में कुछ खौफ पैदा हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक फैसले में कहा है कि पत्नी अगर पति को रिश्वत लेने के लिए उकसाये तो उसे भी बराबर का दोषी माना जाएगा।’
एक अफसर ने सुझाव दिया, ‘ईमानदारी के लिए कुछ ‘इंसेन्टिव’ होना चाहिए। ईमानदारों को ईमानदारी-भत्ता दिया जाना चाहिए। इससे फर्क पड़ेगा।’
दूसरे साहब भुनभुनाये, ‘ईमानदारी- भत्ता रिश्वत और कमीशन की बराबरी कैसे कर पाएगा? कहाँ लाखों करोड़ों और कहाँ कुछ सैकड़ा या हजार!ऊँट के मुँह में जीरा।’
एक और साहब बोले, ‘मेरे खयाल से ईमानदार लोगों का हर शहर में हर साल नागरिक अभिनन्दन होना चाहिए। इससे वातावरण तैयार होगा।’
दूसरे साहब सुँघनी सूँघते हुए उठे, बोले, ‘इसमें दिक्कत यह है कि ईमानदार लोगों की पहचान कैसे होगी? कहीं ईमानदारों के बीच कुछ बेईमान घुस कर सम्मान करा ले गये तो भारी बदनामी होगी। अभी भी अस्सी प्रतिशत बेईमान अपने को सौ टंच ईमानदार मानते हैं। इसलिए अभिनन्दन समारोह में फर्जी लोगों के घुसने की संभावना बनी रहेगी।’
एक अफसर बोले, ‘मेरा सुझाव है कि बेईमानों को फिर से ईमानदार बनाने का एक अभियान चलाया जाना चाहिए। जैसे एक धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में जाने वालों को पाँव पूजकर वापस लाया जाता है उसी तरह बेईमानों को भी वापस ईमानदारी के बाड़े में लाया जाना चाहिए।’
बड़े अफसर बोले, ‘भाई साहब, अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में जाने वाले ज़्यादातर भोले-भाले आदिवासी होते हैं, इसलिए वे समझाने पर वापस आ जाते हैं। लेकिन बेईमान तो खुर्राट होते हैं, उनकी दाढ़ में खून लगा होता है। समझाने बुझाने से उन पर रत्ती भर असर नहीं होगा।’
एक साहब बोले, ‘मेरे खयाल से ईमानदारों के लिए सरकारी नौकरी में कोटा रख दिया जाना चाहिए। इससे ईमानदारी को बढ़ावा मिलेगा।’
बड़े साहब ने जवाब दिया, ‘फिर वही समस्या होगी। बेईमान लोग झूठे प्रमाण-पत्र ला लाकर सब नौकरियाँ हड़प लेंगे और असली ईमानदार टापते रह जाएंगे।’
फिर सन्नाटा छा गया। बड़े साहब बोले, ‘मेरे दिमाग में एक और बात आयी है। हर डिपार्टमेंट को एक टार्गेट दे दिया जाना चाहिए कि वे हर साल कम से कम उतने लोगों को बेईमान से ‘कन्वर्ट’ करके ईमानदारी के बाड़े में लायें, यानी उनका हृदय-परिवर्तन करायें। इसके लिए डिपार्टमेंट के हेड को पुरस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए।’
तुरन्त एक छोटे साहब हाथ जोड़कर खड़े हो गये, बोले, ‘सर, ऐसा टार्गेट रखकर हम लोगों की फजीहत मत कराइए। आप जानते हैं कि ईमानदार का बेईमान हो जाना आसान है,लेकिन अनुभवप्राप्त बेईमान को पुनः ईमानदार बनाना वैसे ही कठिन है जैसे टूटे हुए दाँत को फिर से बैठा देना। इस असंभव काम में हाथ मत डालिए, सर। सारे विभागों की बदनामी हो जाएगी।’
फिर मौन छा गया।
एक अफसर जो बड़ी देर से माथे पर बल दिये,आँखें मूँदे बैठे थे, धीरे धीरे उठ खड़े हुए। फिर प्रयत्नपूर्वक अपनी आँखें खोलकर बोले, ‘सर, मैं बड़ी देर से यहाँ चल रही बातें सुन रहा हूँ। सर, मेरा दृढ़ मत है कि इस विषय पर चर्चा करना समय की बर्बादी है। हमारा देश सदियों से महान और सारे संसार का गुरू रहा है। यहाँ से सभ्यता और संस्कृति निकलकर पूरी दुनिया में गयी है। यह बड़े बड़े महापुरुषों और ज्ञानियों का देश है। यहाँ बेईमानी के पनपने की गुंजाइश ही नहीं है। मेरा पक्का विश्वास है कि हमारे देश में एक प्रतिशत भी बेईमानी नहीं है। ये जो आँकड़े छपते हैं, सब हमें बदनाम करने की साज़िश है। यह उन विदेशी ताकतों का षड़यंत्र है जो हमारी प्रगति से परेशान हैं। ‘अतः मेरा तो यह सुझाव है कि जिन लोगों ने हमारे देश में बेईमानी बढ़ने की रिपोर्ट तैयार की है उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाए ताकि आगे किसी की हमारे देश को बदनाम करने की हिम्मत न हो।’
बड़े साहब के मुँह पर राहत का भाव आ गया। प्रसन्न होकर बोले, ‘यह सुझाव सही है। मैं तुरन्त रिपोर्ट बनाने वालों पर कार्यवाही की सिफारिश करता हूँ। अब चिन्ता की कोई बात नहीं है।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 111 ☆ मन एव मनुष्याणां ☆
‘मेरे शुरुआती दिनों में उसने मेरे साथ बुरा किया था। अब मेरा समय है। ऐसी हालत की है कि ज़िंदगी भर याद रखेगा।’…’मेरी सास ने मुझे बहुत हैरान-परेशान किया था। बहुत दुखी रही मैं। अब घर मेरे मुताबिक चलता है। एकदम सीधा कर दिया है मैंने।’…’उसने दो बात कही तो मैंने भी चार सुना दीं।’…आदि-आदि। सामान्य जीवन में असंख्य बार प्रयुक्त होते हैं ऐसे वाक्य।
यद्यपि पात्र और परिस्थिति के अनुरूप हर बार प्रतिक्रिया भिन्न हो सकती है पर मनुष्य के मूल में मनन न हो तो मनुष्यता को लेकर चिंता का कारण बनता है।
मनुष्यता का सम्बंध मन में उठनेवाले भावों से है। मन के भाव ही बंधन या मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। कहा गया है,
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है।
वस्तुत: भीतर ही बसा है मोक्ष का एक संस्करण, उसे पाने के लिए, उसमें समाने के लिए मन को मनुष्यता में रमाये रखो। मनुष्यता, मनुष्य का प्रकृतिगत लक्षण है। प्रकृतिगत की रक्षा करना मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।
एक साधु नदी किनारे स्नान कर रहे थे। डुबकी लगाकर ज्यों ही सिर बाहर निकाला, देखते हैं कि एक बिच्छू बहे जा रहा है। साधु ने समय लगाये बिना अपनी हथेली पर बिच्छू को लेकर जल से निकालकर भूमि की ओर फेंकने का प्रयास किया। फेंकना तो दूर जैसे ही उन्होंने बिच्छू को स्पर्श किया, बिच्छू ने डंक मारा। साधु वेदना से बिलबिला गये, हथेली थर्रा गई, बिच्छू फिर पानी में बहने लगा। अपनी वेदना पर उन्होंने बिच्छू के जीवन को प्रधानता दी। पुनश्च बिच्छू को हथेली पर उठाया और क्षणांश में ही फिर डंक भोगा। बिच्छू फिर पानी में।…तीसरी बार प्रयास किया, परिणाम वही ढाक के तीन पात। किनारे पर स्नान कर रहा एक व्यक्ति बड़ी देर से घटना का अवलोकन कर रहा था। वह साधु से बोला, ” महाराज! क्यों इस पातकी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। आप बचाते हैं और यह काटता है। इस दुष्ट का तो स्वभाव ही डंक मारना है।” साधु उन्मुक्त हँसे, फिर बोले, ” यह बिच्छू होकर अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूँ?”…
लाओत्से का कथन है, “मैं अच्छे के लिए अच्छा हूँ, मैं बुरे के लिए भी अच्छा हूँ।” यही मनुष्यता का स्वभाव है। मनन कीजिएगा क्योंकि ‘मन एव मनुष्याणां…।’
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 64 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 64) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता ‘शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ’। )
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकारश्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 8 – व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
आज व्यंग्य के परिदृश्य में व्यंग्य की प्रमुखता देखी जा सकती है. इसे व्यंग्य का सकारात्मक पक्ष उभर कर आता है. इसके व्यंग्य पीछे की लोकप्रियता है. वैसे तो व्यंग्य सदा से व्याप्त रहा है. यह अपने आक्रोश और सहमति जताने का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली हथियार है आक्रोश को व्यक्त करने के लिए साहित्य में अपने तौर-तरीके और अनेक विधा के माध्यम हैं. व्यंग्य कहानी में भी रहता है निबंध के माध्यम से भी बाहर आता है और कविता से भी. आक्रोश अपनी प्रकृति प्रवृत्ति के साथ व्यंग्य के रुप से बाहर आता रहा है. आज हम कह सकते हैं. आक्रोश ने अपने को व्यक्त करने के लिए भाषा और भंगिमा ईजाद की है. व्यंग्य के तेवर भाषा के मुकम्मल होने पर ही प्रभावी होते हैं. इतिहास के पन्नों को पलटें तो व्यंग्य सीमित शब्दों के साथ कटाक्ष, तंज के रुप में बाहर दिखता है.इसके शब्दों की संख्या बहुत कम की रही, एक वाक्य से लेकर एक शब्द तक की. पर शब्दों अपने समय की चूलें हिला दी. इतिहास को ही बदलकर नया इतिहास को रच डाला. इस संदर्भ में महाभारत का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. जब द्रोपदी ने दुर्योधन पर कटाक्ष कर दिया कि’ अंधे के बेटे अंधे ही होते हैं’ इस एक छोटे वाक्य ने अपने समय के परिदृश्य को बदलकर महाविनाश का महाभारत रच डाला. एक शब्द या छोटे वाक्य को हम आज के समय का व्यंग्य तो नहीं कह सकते हैं. साहित्य मैं व्यंग्य की एक अलग अवधारणा है जो अपने समय के दबे कुचले,शोषित वर्ग की विसंगतियों को केंद्र में रखकर समाज में व्याप्त पाखंड प्रपंच विद्रूपताओं ठकुरसुहाती, नैतिक मूल्यों के चित्रों को एक बड़े कैनवास पर उकेरती है. मोटे तौर इसकी शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चंद्र के साहित्य से मान सकते हैं. भारतेंदु ने अपने अराजक काल की राजनीतिक व्यवस्था को व्यंग्य के माध्यम से तीखे और रोचक ढंग से उजागर किया है. उस समय साहित्य की मूल भाषा पद्य थी. पर गद्य का आरंभ हो चुका था। भारतेंदु अपनी रचना’अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा. में व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते हुए कहते हैं
‘चूरन साहेब लोग जो खाता
सारा हिंद हजम कर जाता.
भारतेंदु काल के बाद गद्य में बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त आदि व्यंग्यकारों ने अपने समय की अंग्रेजी व्यवस्था पर तीखे के प्रहार किए. ये रचनाएँ साहित्य जगत में बहुत लोकप्रिय हुई. स्वतंत्रता की बाद हरिशंकर परसाई व्यंग्य में एक नया फॉर्मेट लेकर आए. जिसमें समाज की विपद्रूपताएं मानवीय प्रपंच,पाखंड, प्रवृत्तियों को अपने आलेख का विषय बनाया. लोगों ने इसे बहुत शिद्दत के साथ हाथों हाथ लिया और पूरे दिल से प्रशंसा की. लोगों ने इसे पढ़कर कहा’बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा’. यह व्यंग्य ड्राइंग रूम में बैठकर पढ़ने वालों का ही नहीं वरन चाय की टपरे, ठेले,गुमटीओ आदि के भी लोग थे.लोगों को लगा लेखक हमारे बीच हमारे दुख दर्द हमारी कमियों की बात हमारे पक्ष में कह रहा है.और विस्तार से कह रहा है. अपने शब्दों में कंजूसी नहीं वरत रहा है. परसाई की व्यंग्य की व्यापकता ने साहित्य का सिरमौर बना दिया और यह सबसे महत्वपूर्ण विधा बन गई. जिसे भी पाठक, पत्र-पत्रिकाओं से भरपूर प्रेम मिला.और अखबारों और पत्रिकाओं में इसे पूरे सम्मान के साथ स्पेस दिया जाने लगा.अखबारों ने इसकी जरूरत को समझ लिया था. इसकी लोकप्रियता में इसका अन्य विधाओं से अलग फॉर्मेट ,शैली,भाषा की विस्तारता आदि का महत्वपूर्ण रोल था. उस समय छोटा तो छोटा सा छोटा व्यंग्य 1500 से लेकर 3000 तब तक रहता था.इस विशालता से लेख की विषय वस्तु पूरी तरह से न्याय दिखता था इससे पाठक को पठन की निरंतरता के साथ संतोष /संतुष्टि मिलती थी. परसाई जी की रचनाओं में ‘कंधे श्रवण कुमार के कंधे’, #विकलांग श्रद्धा का दौर,’ ‘वैष्णव की फिसलन’ ‘अकाल उत्सव:, :इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर:, ‘एक लड़की चार दीवाने’आदि ऐसी रचनाओं की लंबी फेहरिस्त है.जिससे व्यंग्य की अवधारणा,महत्व, बनावट, और कलेवर को पूरी तरह से समझा जा सकता है. इसी क्रम में शरद जोशी ने पुलिया पर बैठा आदमी ,जीप पर सवार इल्लियांँ, मुद्रिका रहस्य, अतृप्त आत्माओं की रेल यात्रा,सारी बहस से गुजर कर ,आदि की फुल लेंथ की रचनाएँं ने व्यंग्य को अपनी पूर्णता के साथ समृद्ध किया है. इसी प्रकार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी ने अपने समकालीनों के साथ कदमताल करते हुए अपने सृजन में व्यंग्य के फार्मेट को पूरा किया है. ‘धूप के धान’, ‘लैला मजनू से लेकर कबीर तक’,’ गरीब होने के फायदे’ आदि रचनाओं ने अपने व्यापक स्वरूप की सार्थकता प्रदान की. रचनाओं के स्वरूप के साथ पाठक को पढ़ने में संतुष्टि तो मिलती ही है और वह वैचारिक रूप से रूबरू भी होता है .
विश्व में वैश्वीकरण के प्रभाव ने साहित्य को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने बाजारवाद को पैर पसारने का पूरा अवसर प्रदान किया. बाजार कब हमारे घर, द्वार, मन, मस्तिक में प्रवेश कर गया कि हमें पता ही नहीं चला. बाजार धीरे-धीरे साहित्य की जगह पर अपना कब्जा जमाने लगा अखबार, पत्र पत्रिकाओं में कहानी कविता की जगह सिकुड़ गई कहीं गई .कहीं कहीं तो विलोपित हो गई. पर व्यंग्य की लोकप्रियता, उसके सामाजिक और मानवीय सरोकार, जनपक्षधरता,ने उसको अखबार पत्र-पत्रिकाओं में बनाए रखा. फिर बाजार के प्रभाव के चलने अधिकांश पत्र पत्रिकाओ ने इन व्यंग्य स्तंभों को अपनी-अपनी शब्द सीमाओं को समेट दिया है.जिससे सिकुड़ कर रह गया. इसकी शक्ल सूरत बीमार आदमी के समान दिखने लगी है .व्यंग्य के स्वस्थ स्वरूप की अवधारणा जो हमारी अवचेतन मन में बनी हुई है वह खंडित होने लगी. उसका जो अलिखित सर्वमान्य फार्मेट है .जो अपने कथा, मित्थ फेंटेसी ,निबंध, संवाद शैली आदि के माध्यम से आता था और अपने विषय वस्तु को खुलेपन और विस्तार के साथ पाठक के समक्ष रखता था वह विलोपित सा हो गया है.अब व्यंग्य अपने आकार और गुण धर्म के साथ बौना सा दिखने लगा है. वे अपने आकार का आभास देते हैं, पर होते नहीं हैं,शिल्प का सौन्दर्य सिमटकर रह गया है. व्यंग्य जिसे हम उसकी प्रहारक, प्रभावित, और पठनीय क्षमता से जानते हैं, उसमें धुधंलापन और क्षीणता आ गई है. अब रचना पढ़ना शुरू करते खतम हो जाती है. एक झटका सा लगता है. कुछ छूटा छूटा महसूस होता है.सीमित शब्दों की अधिकांश दिलोदिमाग को तरंगित करने में असमर्थ सी लगती हैं. ऐसा लगता है कि कुछ पढ़ा ही नहीं.. प्रश्न उठता है लेखक कुछ और कहना चाहता है पर कह नहीं पाया. ऐसी रचनाएँ अमूमन आप रोज देखते होगे. उदाहरण स्वरूप, कुछ नाम जैसे ही,’बैठक चयन समिति की’,’साहब काम से गए हैं.’ ‘ये कुर्सी का कसूर है’, ‘नहीं नहीं कभी नहीं#, ‘गर्त प्रधान सड़क करि कथा’,’नेता और अभिनेता ‘आदि सैकड़ों रचनाएँ में विस्तार होने से विशालता का सागर छलकता,पर वह सिमट कर एक आंचलिक नदी का रुप लेकर रह गया. जो नदी तो कहलाती है. पर नदी की विशालता के सौन्दर्य रुप से वंचित हो गई है. इस कारण पाठक के समक्ष बोनी रचना बन कर रह जाती है.व्यंग्य की साहित्य सर्वमान्य भूमिका है पर ऐसी रचनाएँ अपने दायित्व का निर्वाह करने में शिथिल महसूस हो रही हैं.
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश। आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “सहारे ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 1 – “सहारे” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆