हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 96 ☆ तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  गीत  “तुझको स्वयं बदलना होगा”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 96 ☆

☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ 

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।

जीवन की हर बाधाओं से

हँसते – हँसते लड़ना होगा।।

 

कर्तव्यों से हीन मनुज जो

अधिकारों की लड़े लड़ाई।

प्रकृति के अनुकूल न चलता

आत्ममुग्ध हो करे बड़ाई।

झूठे सुख के लिए सदा ही

देख रहा ना पर्वत – खाई।

धन  – संग्रह की होड़ लगी है

मन कपटी है चिपटी काई।

 

हे मानव ! तू सँभल ले अब भी

तुझको स्वयं भुगतना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

जो सन्तोषी इस धरती पर

वह ही सुख का मूल्य समझता।

वैभवशाली, धनशाली का

सबका ही सिंहासन हिलता।

उद्यम कर, पर चैन न खोना

अपना लक्ष्य बनाकर चलना।

परहित – सा कोई धर्म नहीं है

देवदूत बन सबसे मिलना।

 

समय कीमती व्यर्थ न खोना

तुझको स्वयं समझना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

सामानों की भीड़ लगाकर

अपने घर को नरक बनाए।

सारा बोझा छूटे एक दिन

उल्टे – पुल्टे तरक चलाए।

उगते सूरज योग करें जो

उनकी किस्मत स्वयं बदलती।

कर्म और पुरुषार्थ , भलाई

यहाँ – वहाँ ये साथ हैं चलतीं।

 

परिस्थितियां जो भी हों साथी

तुझको स्वयं ही ढलना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 98 – आई माझी मी आईचा…. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #98  ?

☆ आई माझी मी आईचा…. 

(वृत्त- समुदितमदना वृत्त  = ८ ८ ८ ३)

कधी वाटते लिहीन कविता आईवरती खरी

शब्द धावुनी येतील सारे काळजातल्या घरी

सुख दुःखाचे तुझे कवडसे शोधत राहू किती

कसे वर्णू मी आई तुजला आठवणींच्या सरी

 

आई माझी सुरेल गाणे ऐकत जातो कधी

राग लोभ ते जीवन सरगम सुखदुःखाच्या मधी

कोरा कागद लेक तुझा हा टिपून ‌घेतो तुला

आई माझी मी आईचा हा सौख्याचा निधी

 

आई माझी वसंत उत्सव चैत्र पालवी मनीं

झेलत राही झळा उन्हाच्या हासत जाते क्षणी

क्षण मायेचा बोल तिचा मी शब्द फुलांचा तुरा

घडवत जाते आई मजला यशमार्गाचा धनी

 

आई आहे अखंड कविता माया ममता जशी

शब्द सरीता वाहत जाते ओढ नदीला तशी

ओली होते पुन्हा पापणी वाहत येतो झरा

सुंदर कविता आईसाठी लिहू कळेना कशी

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#118 ☆ अभी थे वे, अब नहीं है…..☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “अभी थे वे, अब नहीं है…..”)

☆  तन्मय साहित्य  #118 ☆

☆ अभी थे वे, अब नहीं है….. ☆

अभी थे वे, अब नहीं है

जिंदगी का, सच यही है।

 

आज तो उनने, सुबह की चाय पी थी

और सब को, रोज जैसी राय दी थी

सुई-धागा हाथ में ले, सिल रहे थे,

बाँह कुर्ते की फटी, निरुपाय सी थी।

उलझते से, क्षुब्ध टाँके

कुछ कहीं, तो कुछ कहीं है

जिंदगी का सच यही है….

 

कह रहे थे, काम हैं कितने अधूरे

कामना थी, शीघ्र वे हो जाएँ पूरे

हैं सभी अंजान हम अगली घड़ी से,

एक पल में ध्वस्त सब मन के कँगूरे।

एषणाओं से भरा मन

अनगिनत खाते-बही है

जिंदगी का सच यही है….

 

कल नहा कर जब,अगरबत्ती जलाई

प्रार्थना के संग, फूटी थी रुलाई

बुदबुदाते से स्वयं, कुछ कह रहे थे,

किस अजाने से, उन्होंने लौ लगाई।

दिप्त मुखमुद्रा विलक्षण

जो दिखी वह अनकही है

जिंदगी का सच यही है….

 

बुलबुले हँसते-विहँसते जो खिले ये

कौन से पल बून्द बन जल में मिले ये

क्रम यही बनने-बिगड़ने का निरंतर,

जिंदगी के सर्वकालिक सिलसिले ये।

श्वांस सेतु, बटोही का

देहावरण शाश्वत नहीं है

जिंदगी का सच यही है

अभी थे वे, अब नहीं है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#11 ☆ गीत – जाने किस गांव में ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर गीत  “जाने किस गांव में”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 11 ✒️

?  गीत – जाने किस गांव में  —  डॉ. सलमा जमाल ?

होकर दीवानी मैं ढूंढती ही रही,

कभी इस गांव में, कभी उस गांव में ।

वो मिले ही , नहीं छुप गए हैं कहां,

जाने किस शहर में ,पेड़ों की छांव में ।।

 

इस ज़माने में उनको पाने के लिए,

मैंने सब कुछ किया, पर वफ़ा ना मिली ,

हर तरफ़ से मुझको ही शिकस्त मिली,

एक के बाद एक , हर प्यार के दांव में ।

होकर दीवानी ————- ।।

 

मुझको मंज़िल अभी तक मिली ही नहीं ,

चलते चलते अभी तक थकी ही नहीं ,

मेरे पैरों में कांटे चुभे अनगिनत ,

आज इस गांव में, तो कल उस पांव में ।

होकर दीवानी ————- ।।

 

एक ज़माना था दोनों ही दीवाने थे,

प्यार के दरिया से दोनों अनजाने थे ,

बदनसीबी नहीं है तो फिर और क्या ,

मैं हूं मझधार में ,वो जाने किस नाव में ।

होके दीवाने ————— ।।

 

मेरी राहें अलग ,उनकी मंज़िल जुदा ,

“सलमा”आज कहती है , हाफ़िज़ ख़ुदा ,

बेरहम दुनिया ने डाली हैं बेड़ियां ,

मेरे भी पांव में, उनके भी पांव में ।

होकर दीवाने ————– ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 17 – परम संतोषी भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 17 – परम संतोषी भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

जब संतोषी साहब उर्फ सैम अंकल ब्रांच में घुलमिल गये तो उनको पता चला कि यहाँ ३ और ६ दोनों तरह के महापुरुष पाये जाते हैं. 3 याने मिलनसार, मस्तमौला और मनोरंजक व्यक्तित्व के स्वामी और दूसरे विमुख और विरक्त रहने वाले आत्मकेंद्रित पुरुष जिन्हें ६ भी कहा जाता है. ३ अंक वाले तो जहाँ होते हैं, महफिलें गुलजार हो जाती हैं, विनोदप्रियता इनका सहज स्वभाव होता है जो मनोरंजन के साथ साथ सहजता भी संप्रेषित करता रहता है. लोग इनका सानिध्य और उन्मुक्त स्वभाव पसंद करते हैं. संतोषी जी स्वयं भी इसकी जीती जागती मिसाल थे और स्वाभाविक रूप से ऐसी कंपनी पसंद भी करते थे पर वे, इसे आप गुण या दुर्गुण कुछ भी कहें पर ६ अंक वालों को “मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो” गाना गाने का मौका कभी नहीं देते थे.

ऐसे ६ अंक वाले सज्जन “सेल्फ कंप्लेंट सेक्शन” का प्रमुख पद पाने की योग्यता के धनी होते हैं. इनकी शिकायतें शायद जन्म से ही शुरु हो जाती हैं पर माता इसे स्वाभाविक शिशु रुदन मानकर इन्हें दुग्धपान कराते रहती हैं और पिताजी इनकी हर उचित/अनुचित मांग पूरी करते रहते हैं कि बच्चा अब तो खुश होगा. पर बच्चा कभी खुश नहीं होता क्योंकि उसका फोकस पाने से ज्यादा नहीं पा सकने पर रहता है. शिकायत करना पहले मनचाहा फल पाने का प्रयास होता है जो बाद में स्वभाव कब बन जाता है, पता नहीं चलता.ऐसे लोगों का जन्म से यह विश्वास बन जाता है कि अगर रोयेंगे नहीं तो मां दूध नहीं पिलायेगी. असंतोष अपने साथ ईर्ष्या भी लेकर आता है जब सामने वाले की उपलब्धियां इन्हें कुंठित कर देती हैं और ये कभी मानने को तैयार ही नहीं होते कि सफलता हमेशा निष्ठा, योग्यता और श्रम का ही वरण करती है. जो सफल होते हैं, उच्च पदों को सुशोभित करते हैं वे वास्तव में चयनकर्ताओं और चयन प्रक्रिया में उपलब्ध व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ ही होते हैं. ये बात अलग है कि ६अंक वालों का नेगेटिव एटीट्यूड इसे मानने को तैयार नहीं होता और उन्हें अयोग्य मानकर उनका उपहास करता रहता है. पर जीतने वाला ही सिकंदर कहलाता है भले ही ६ अंक वालों की नज़र में वो मुकद्दर का सिकंदर हो. ऐसे लोगों को हमेशा सैम अंकल यही कहते कि रेस में दौड़ने से ही जीत मिलती है, धावकों की आलोचना करने से नहीं. अगर यह क्षेत्र तुम्हारे लायक नहीं है तो रेस का मैदान बदलने का हक और मौका हमेशा सबके पास होता है. या तो फिर जहाँ रहो जो मिला उस पर मेरी तरह खुश रहो या अपने अंदर मैदान बदलने का साहस पैदा करो.सुरक्षा कायरों का कवच होती है, अभिमन्यु साहस का प्रतीक थे जो महाभारत में अपनी चक्रव्यूह भेदने की अधूरी शिक्षा के बाद भी रणभूमि में कूद गये और अपने कर्तव्य का पालन किया. युद्ध हमेशा सैनिकों के साहस, आशा, उम्मीद और कर्त्तव्य परायणता की भावना से लड़े जाते हैं. इसलिए ही शहीद, अमरत्व और सम्मान दोनों पाते हैं.

वैसे तो ये कथा बैंक के प्रांगण की कहानी है पर इसके माध्यम से जीवन और मानव स्वभाव पर भी कलम चल रही है.

कथा रंग ला रही है तो रंग में भंग होगा नहीं. विश्वास रखिए जारी रहेगी, दवा के डोज़ के रूप में ….

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 94 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ –5 – दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #94 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 5- दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

॥ दोई दीन से गए पाँडे , हलुवा मिला ना माँडे ॥

इस कहावत का अर्थ है  दोनों इच्छाओं में से किसी  एक भी का पूर्ण न होना और इसके पीछे जो कहानी है वह इस प्रकार है: 

गाँव में एक  पाण्डेजी  रहते थे । ज्यादा पड़े लिखे न थे अत: पूजा पाठ में तो न बुलाए जाते पर जब कभी आसपास के गावों में ब्राह्मण भोजन होता तो उन्हे भी बुलावा भेजा जाता। ऐसा ही एक निमंत्रण  पांडेजी को अपने गाँव से कुछ दूर स्थित दूसरे गाँव से मिला।  रास्ते भर वे सुस्वादु भोजन की कल्पना करते जा रहे थे कि आज हलुवा और पूरी को भोग लगेगा। पांडेजी को रास्ते में चलते चलते अचानक चावल बनने की खुशबू आई और चावल का माँड, जो उन्हे अत्यंत प्रिय था, पीने की लालच में  उस घर की ओर मुड़ गए। गृह मालकिन ने किवाड़ की ओट से पांडेजी को पायं लागी करी और आने का मंतव्य पूंछा। पांडेजी ने  घर तक पहुँचने की बात बताते हुये माँड पीने की इच्छा बताई। गृह मालकिन कुछ कह पाती तभी पांडेजी ने गाँव में आयोजित भोज की चर्चा करते हुये कुछ लोगों को सुना और वे उन्ही के पीछे पीछे भोज स्थल की ओर चल पड़े।  भोज स्थल पर लोगों ने पांडेजी को देखा और कह उठे अरे ये तो फलाने के दरवाजे पर खड़े थे और उसके यहाँ  माँड पीने की बात कर रहे थे। इतना सुनना था की भोज के लिए आमंत्रित अन्य ब्राह्मणों ने पांडेजी को खान पान की मर्यादाओं का पालन न करने का दोषी मानते हुये उनके साथ  भोजन करने का  बहिष्कार कर दिया और पांडेजी भोजन करने से वंचित हो गए।  इस प्रकार उन्हे न तो माँड पीने मिला और ना ही हलुवा खाने। तभी से यह कहावत चलन में है कि

॥ दोई दीन से गए पाँडे, हलुवा मिला ना माँडे ॥

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 119 ☆ उर्मिला ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 119 ?

☆ उर्मिला ☆

राजकन्या ती ही होती

जनकराजाचीच दुहिता

जाणली कोणी कधी ना

तिच्या जगण्याची संहिता

 

तारुण्यात एकाकी ती

शय्येवर तळमळ साही

पतीविना जीवन अधुरे

कोमेजे नवयौवन ही

 

सौमित्राची अर्धांगी

पूर्णत्वा ना गेली कधी

जाणिले तिच्या मना कुणी ?

ना मिळाली सौख्यसंधी

 

सौभाग्याचे दान मिळे

पण ब्रह्मचारिणीच असे

 राजवैभव भोवताली

मनी तिच्या वनवास वसे

 

उपेक्षित ती सदैव ठरे

 वैदेही , मैथिली नसे

तिज न उपाधी जनकाची

इथे तिथे उपरीच असे

 

युगेयुगे इथे जन्मल्या

मरून गेल्या कितीजणी

अशा उर्मिला मौन व्रती

त्यांच्या दुःखा ना गणती

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १७ – भाग ४ – मोरोक्को__ रसरशीत फळांचा देश ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १७ – भाग ४ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ मोरोक्को –  रसरशीत फळांचा देश ✈️

मोरोक्कोला पश्चिमेला अटलांटिक महासागराचा किनारा लाभला आहे. उत्तरेकडील ४०० किलोमीटर भूभागाला भूमध्य समुद्र व त्यापलीकडे स्पेन हा देश आहे. पूर्व दिशेला आणि दक्षिणेला सहा हजार किलोमीटरपर्यंत सहारा वाळवंट आहे. मोरोक्कोहून मोठ्या प्रमाणात संत्री, सफरचंद, ऑलिव्ह, द्राक्षे निर्यात होतात. कॉर्क वृक्षाच्या लाकडाचा हा देश प्रमुख निर्यातदार आहे. खतासाठी लागणारे फॉस्फेट येथे विपुल प्रमाणात मिळते. अमेरिका व रशिया यांच्यानंतर मोरॉक्कोचा फॉस्फेट उत्पादनात नंबर आहे. त्या शिवाय इथे  आयर्नओर, मँगनीज, झिंक मिळते. इथे फळांचे कॅनिंग, मासेमारी, कापड उद्योग मोठ्या प्रमाणात आहेत.

कासाब्लांका इथून अटलांटिकच्या समुद्रकिनाऱ्याने शंभर किलोमीटरचा प्रवास करून आम्ही राजधानी रबात इथे पोहोचलो.  रबात म्हणजे तटबंदी असलेलं गाव.अल्मोहाद राजवटीतील खलिफा मन्सूर यांनी रबात हे राजधानीचे ठिकाण केले .शहराच्या मध्यभागी रॉयल पॅलेस आहे व शेजारी रॉयल मॉस्क आहे. मोरोक्कोचा शाही परिवार इथे नमाज पडतो. पांढऱ्या भिंती व हिरवे छत असलेल्या या मशिदीचे बांधकाम आधुनिक आहे. मशिदीच्या समोरच असलेल्या हसन टॉवरचे बांधकाम अपूर्ण अवस्थेत आहे. लाल सॅंडस्टोनमधील या टॉवर समोर मोहम्मद मुसोलियमची ऐतिहासिक वास्तू आहे. आतमध्ये राजा हसन आणि राजपुत्र अब्दुल्ला यांच्या कबरी आहेत. हा शहराचा निवांत भाग आहे. स्वच्छ सुंदर रस्ते, झाडे, जास्वंदीची लालचुटुक फुले यांनी टुमदार बंगल्यांची आवारे सुशोभित दिसत होती. इथे उच्चपदस्थांची निवासस्थाने व परदेशी वकिलाती आहेत. अटलांटिकच्या किनाऱ्यावरील या शहरावर फ्रेंच वास्तुकलेचा प्रभाव आहे.

दुसऱ्या दिवशी पहाटे चार वाजता रबातहून निघालो कारण टॅ॑जेर बंदरात दहा वाजताची बोट पकडायची होती. सारे शहर धुक्यात गुरफटलेले होते. दूरवर टेकड्यांच्या रांगा दिसत होत्या. त्यावरील दिव्यांच्या चांदण्या आम्हाला हसून निरोप देत होत्या. ड्रायव्हरने बसमध्ये लावलेल्या सूफी संगीताच्या तालावर मोरोक्कोचा वेगळा प्रवास आठवत होता. धुक्याचे आवरण बाजूला सारून सोनेरी सूर्याची किरणे आसमंत उजळत होती.

भाग चार व मोरोक्को समाप्त

 

 © सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 18 – सजल – कौन है अमृत पीकर आया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “कौन है अमृत पीकर आया…..। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 18 – सजल – कौन है अमृत पीकर आया…

समांत- अले

पदांत- गए हैं

मात्राभार- 16

 

मानव हर युग दले गए हैं।

हर संकट में तले गए हैं।।

 

सतयुग हो या द्वापर का युग,

राम कृष्ण भी छले गए हैं ।

 

कौन है अमृत पीकर आया,

छोड़ सभी कुछ चले गए हैं।

 

सूरज ने सबको तड़पाया,

तपती धूप से ढले गए हैं।

 

आश्रय मात पिता से मिलता,

गुण-अवगुण में पले गए हैं।

 

परोपकार हैं वृक्ष हमारे,

सबको देने फले गए हैं।

 

ईश्वर की अनुकम्पा सब पर,

फिर भी हम सब खले गए हैं।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

५ जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ??

राष्ट्र का संगठन :

राष्ट्र का गठन राज्य या प्रदेश से होता है। प्रदेश, जनपद से मिलकर बनते हैं। जनपद की इकाई तहसील होती है। तहसील नगर और गाँवों से बनती है। नगर या गाँव वॉर्ड अथवा प्रभाग से, प्रभाग मोहल्लोेंं से, मोहल्लेे परिवारों से और परिवार, व्यक्ति से बनता है। इस प्रकार व्यक्ति या नागरिक, राष्ट्र की कोशिका है। व्यक्तियों के संग से संघ के रूप में उभरता है राष्ट्र।

व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि  एवं एकात्मता :

संगी-साथी हो चाहे जीवनसंगी, किसीका साथ न हो तो मनुष्य पगला जाता है। मनुष्य को साथ चाहिए, मनुष्य को समाज चाहिए। दूसरे शब्दों में ’मैन इज़ अ सोशल एनिमल।’

सामाजिक होने का अर्थ है कि मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। अकेला नहीं रह सकता, अत: स्त्री-पुरुष साथ आए। यूँ भी सृष्टि युग्मराग है। प्रकृति और पुरुष साथ न हों तो सृष्टि चलेगी कैसे?

पाषाणयुग में स्त्री, पुरुष दोनों शिकार करने में सक्षम थे, आत्मनिर्भर थे। आरंभ में लैंगिक आकर्षण के कारण वे साथ आए। यौन सम्बंध हुए, स्त्री ने गर्भ धारण किया। गर्भ में जीव क्या आया मानो मनुष्य की मनुष्यता अवतरित हुई।

वस्तुत: मनुष्य में विराटता अंतर्भूत है। विराट एकाकी नहीं होता और सज्जन में, शठ में सब में होती है। इसी विराटता ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर पैर पसारना आरंभ किया। मनुष्य में समूह जागा।

गर्भवती के लिये शिकार करना कठिन था। सुरक्षित प्रसव का भी प्रश्न रहा होगा। भूख, सुरक्षा, शिशु का जन्म आदि अनेक भाव एवं विचार होंगे जिन्होंने सहअस्तित्व तथा दायित्वबोध को जन्म दिया।

मनुष्य का परिवार पनपा। परिवार के लिये बेहतर संसाधन जुटाने की इच्छा ने मनुष्य को विकास के लिये प्रेरित किया। अब पास-पड़ोस भी आया। मनुष्य सुख दुख बाँटना चाहता था। वह समूह में रहने लगा। इसे विकास की मानसिक प्रक्रिया या प्रोसेस ऑफ साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन कह सकते हैं।

वैसे इन तमाम सिद्धांतों से पहले अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद,  ईश्वर का ज्ञानोपदेश सीधे लेकर आ चुका था। स्पष्ट उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

 ( ऋग्वेद 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें। ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares