(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “हर्षित हो गाने लगीं….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“मोऱ्या रोज गपचूप पेपर ठेवून गुल होतोस, आज वेळ आहे वाटत बोलायला ?”
“थोडा वेळ आहे खरा पंत आणि तुमचा सल्ला सुद्धा हवा होता, म्हणून हाक मारली !”
“म्हणजे कामा पुरता पंत आणि चहा पुरती काकू ! काय बरोबर नां ?”
“पंत कसं आहे नां सध्या कामाच्या गडबडीत, बरेच दिवसात काकूंच्या हातचा आल्याचा चहा पोटात गेला नाही त्यामुळे पोट जरा कुरकुर करतच होतं, म्हणून म्हटलं एकात एक दोन कामं उरकून टाकू !”
“बरं, बरं, कसा काय चालला आहे तुझा नवीन लघुउद्योग ?”
“एकदम मस्त ! तुम्हीच तर गेल्या वेळेस बोलणाऱ्या कुकरची आयडिया दिलीत आणि त्याला भरपूर रिस्पॉन्स मिळतोय समस्त भगिनीवर्गाचा !”
“चांगलं आहे ! आज काय कामं काढलं आहेस मोऱ्या, कुठल्या बाबतीत सल्ला हवा आहे तुला ?”
“पंत, आता बोलणाऱ्या कुकरची प्रॉडकशन लाईन सेट झाली आहे माझी ! आता लोकांना आवडणार, उपयोगी पडणार तसंच दुसरं कुठलं तरी नवीन प्रॉडक्ट काढायचा विचार मनांत येतोय, पण काय प्रॉडक्ट काढावं तेच कळत नाही ! म्हणून म्हटलं तुमच्या डोक्यात काही नवीन आयडिया वगैरे आहे का हे विचारावं, म्हणून आलोय !”
“आहे नां, नसायला काय झालंय ? उगाच का डोक्यावरचे गेले ?”
“काय सांगता काय पंत, नवीन प्रॉडक्टची आयडिया….”
“अरे आज सकाळीच माझ्या या सुपीक डोक्यात आली आणि आज तू जर का भेटला नसतास ना, तर मीच तुला बोलावून घेवून सांगणार होतो ती नवीन आयडिया !”
“पंत आता मला धीर धरवत नाहीये, लवकर, लवकर सांगा तुमच्या डोक्यातली नवीन आयडिया !”
“अरे मोऱ्या, आमच्या सगळ्या सिनियर सिटीझनचा हल्ली एक हक्काचा आजार झालाय, त्यावर एखाद औषधं…..”
“काय पंत ? आजारावर औषधं द्यायला मी डॉक्टर थोडाच आहे ?”
“अरे गाढवा, आधी माझं बोलणं तरी नीट ऐकून घे, मग बोल !”
“सॉरी पंत, बोला !”
“अरे, आजकाल स्मरणशक्ती दगा देते आम्हां सिनियर सिटीझन लोकांना आणि साधा डोळ्यावरचा चष्मा कुठे काढून ठेवलाय तेच वेळेवर आठवत नाही बघ !”
“बरं मग ?”
“मला एक सांग मोऱ्या, तुम्हां हल्लीच्या तरुण पोरांना सुद्धा, तुमचा मोबाईल तुम्हीच तुमच्या हातांनी, कुठे ठेवला आहे ते पण कधी कधी आठवत नाही, काय खरं की नाही ?”
“हॊ पंत, मग आम्ही लगेच…..”
“दुसऱ्या मोबाईल वरून कॉल करतो आणि रिंग वाजली की मोबाईल कुठे आहे ते तुम्हाला बरोब्बर कळतं, होय नां ?”
“बरोबर पंत ! पण त्याचा इथे काय संबंध ?”
“सांगतो नां ! आता तू काय कर, चष्म्याला GPS tracker लावून द्यायचा नवीन उद्योग सुरु कर ! म्हणजे काय होईल अरे माझ्या सारखी सिनियर सिटीझन मंडळी कुठे चष्मा विसरली, तर मग तो शोधायला प्रॉब्लेम यायला नको, काय कशी आहे नवीन उद्योगाची आयडिया ?”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है माँ की ममता पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘चिट्ठी लिखना बेटी !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 88 ☆
☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆
माँ का फोन आया – बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी नहीं आई बेटी! हाँ, जानती हूँ समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी, सब समझती हूँ। फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर क्या करें मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो इत्मीनान से जितनी बार पढ़ लो। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।
तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी भेजे बहुत दिन हो गए? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए? तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए बच्चों को देखे हुए। हमारे पास कब आओगी? स्वर मानों उदास होता चला गया।
ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। जगह कम पड़ जाती लेकिन माँ की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। माँ फोन पर पूछती – कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, (माँ की याद्दाश्त खराब होने लगी थी) चलो कोई बात नहीं आजकल लड़की – लड़के में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लड़के कौन सा सुख दे देते हैं? अच्छा, तुम चिट्ठी लिखना हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना। तुम्हारे बच्चों को देखा ही नहीं हमने (बार – बार वही बातें दोहराती है)।
कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी ही सुध नहीं है। क्या पता उसके मन में क्या चल रहा है? उसके चेहरे पर तो सिर्फ कुछ खोजती हुई – सी आँखें हैं और सूनापन। माँ ने फिर कहा – बेटी! चिट्ठी लिखना जरूर और फोन कट गया।
सबके बीच रहकर भी सबसे अन्जान और खोई हुई – सी माँ को पत्र लिखूँ भी तो कैसे?
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित कविता शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “मुद्दे की बात…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 91 ☆ मुद्दे की बात…☆
अक्सर उबाऊ बातचीत से बचने के लिए लोग कह देते हैं, सीधे- सीधे मुद्दे पर आइए। बात चाहें कुछ भी हो, जल्दी पूरी हो, ये सभी की इच्छा रहती है। आजकल यही प्रयोग पत्रकारों द्वारा चुनावी चर्चा में किया जा रहा है। विकासवाद, राष्ट्रवाद, बदलाव, महंगाई, बेरोजगारी इन शब्दों का प्रयोग खूब हो रहा है। घोषणा पत्र सुनने , पढ़ने व समझने का समय किसी के पास नहीं है क्योंकि सबको पता है ये चुनावी वादे हैं जो बिना बरसे ही हवा के साथ हवाई हो जाएंगे।
जैसे ही मतदाता दिखा, सबसे पहले यही प्रश्न पूछा जाता है कि आप किस मुद्दे को ध्यान में रखकर दल का चुनाव करेंगे ?
तत्काल ही उत्तर मिल जाता है। हाँ इतना जरूर है कि कुछ लोग इसका अर्थ नहीं समझते हैं और कहने लगते हैं कि हमें क्या हम तो इस निशान पर बटन दबाएंगे। वहीं कुछ लोग अपने पसंदीदा दल की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लगते हैं तो कुछ लोग नासमझ बनते हुए, घुमाते फिराते हुए, अंत में कह देते हैं वोट किसको देना है, अभी तक सोचा ही नहीं।
इस सोचने समझने के मध्य पत्रकार भी तो किसी न किसी दल की विचारधारा का समर्थक होता है, अनचाहे उत्तरों से उसका चेहरा बुझा हुआ साफ देखा जा सकता है। कुछ भी कहिए हाथ में माला लेकर भागते हुए लोग जो आगे जाकर माला देते हैं कि हमारे नेता जी आने वाले हैं उन्हें आप पहना दीजियेगा। इधर नेता जी भी आठ- दस माला तो पहने रहते हैं बाकी उतार- उतार के उसी व्यक्ति को दे देते हैं। ठीक भी है, ऐसा करने से फूलों व रुपए दोनों की बचत होती है। साथ में चलती हुई गाड़ियों में बढ़िया धुनों वाले गाने बजते रहतें हैं जिसकी धुन व बोल सभी के मनोमस्तिष्क पर छा जाते हैं। इस बार के चुनावों में मतदाता भी खूब मनोरंजन कर रहे हैं। एक बात तो साफ हो गयी है कि भविष्य में उन्हें भी पाँच वर्ष में एक बार आने वाले इन पर्वों का बेसब्री से इंतजार रहेगा।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कविता – “चूसेगा पप्पू”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 109 ☆
वेद व पुराण काळातील महत्वाच्या स्त्रिया : ब्रह्मवादिनी सुलभा
वदिक काळात स्त्रियांना खूप मान होता. मुलांच्या बरोबरीने आवश्यक असे शिक्षण पण त्यांना मिळत असे. त्यांचे उपनयन सुद्धा होत असे. ब्रह्मवादिनी स्त्रिया आजन्म ब्रह्मचर्य पाळत. विद्येचा आणि ब्रह्मविद्येचा अभ्यास करत. सुलभा कुमारी संन्यासिनी होती. ती अत्यंत चतुर विद्वान आणि बुद्धिमान होती. प्रधान नावाच्या राजाची ती कन्या. तिने आजन्म ब्रह्मचारी राहून वेद विद्येचा आणि ब्रह्मविद्येचा अभ्यास व स्वतंत्र लेखनही केलं. ब्रम्हा यज्ञाच्या वेळी केल्या जाणाऱ्या तर्प णात गार्गी ,मैत्रेयी, वाचक्नवी यांच्याबरोबरच सुलभा चे नाव घेतले जाते. ती आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी, तपअर्जिता, ओजस्वी आणि तेजस्वी स्त्री होती. तिने स्त्रियांच्या शिक्षणासाठी अनेक स्वतंत्र आश्रम उभे केले. परकायाप्रवेश याचे ज्ञान तिने मिळवले होते. त्याआधारे ती राजा जनकाच्या शरीरात प्रवेश करून विद्वानांच्या बरोबर शास्त्रशुद्ध चर्चा करत असे. ती सतत प्रवास करून धर्माचा उपदेश आणि प्रसार करत असे. तिला तिच्या योग्यतेचा वर मिळाला नाही म्हणून तिने लग्न केले नाही.
महाभारताच्या शांतिपर्वामध्ये जनक राजा आणि सुलभा यांचा संवाद विस्तारपूर्वक वाचायला मिळतो. तिने आपल्या वाणीचे आठ गुण आणि आठ दोष यावर विशेष अभ्यास केलेला आहे.
तिला एकदा कळले की राजा जनक अहंकारी झाला आहे. तिने त्याला भेट देण्याचे ठरवले. त्याला भेटण्यासाठी तिने आपल्या योगाच्या बळावर मूळ शरीर टाकून देऊन सुंदर रूप धारण केले. आणि मिथिला नगरीत आली. भिक्षा मागण्याचा बहाणा करून राजा जनकाच्या समोर आली. राजा जनक तिच्या सौंदर्याने आश्चर्यचकित झाला त्याने तिचे स्वागत केले. पाय धुवून यथोचित पूजा करून उत्तम जेवण दिले. जनक राजाने विचारले.,”तू ब्राम्हणी संन्यासिनी आहेस का?”सुलभ उत्तरली” मी क्षत्रिय कन्या .योग्य पती न मिळाल्यामुळे मी लग्न केले नाही. व्रतस्थ राहते”. राजाने विचारले
“खरे शहाणे कोण?” सुलभा उत्तरली “ज्ञानी माणूस कधीही स्वतःची स्तुती करत नाही तो कमी बोलतो आणि मौनात राहतो.मग तो राजा असो ,ग्रहस्थ असो अथवा संन्यासी असो.” जनक राजाला आपली चूक समजली. तो म्हणाला ,,”सुलभा ,तू माझे डोळे उघडलेस. तू खरी ज्ञानी आहेस. मी तुझे बोलणे लक्षात ठेवून यापुढे वाणीवर संयम ठेवीन.”
अशाप्रकारे महाज्ञानी जनकराजाला वठणीवर आणणारी ब्रह्मवादिनी सुलभा. तिला कोटी कोटी प्रणाम.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर कुछ “दोहे ”।)
☆ तन्मय साहित्य #123 ☆
☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – “दोहे ” ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆