हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆”शेरू” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “शेरू.)

☆ आलेख ☆ “शेरू☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज हमारे एक समूह में शेर पर लंबी चर्चा हुई, तो हमारा शेरू (पालतू कुत्ता) भी कहने लगा कि हम पर भी कभी चर्चा कर लिया करो, हम कोई धोबी के कुत्ते तो है नहीं, जो कि “ना घर के ना घाट के” कहलाये। हमे उसकी बात में दम लगा। शेरू फिर कहने लगा वैसे तो हर कुत्ता अपनी गली का शेर होता है, लेकिन चूंकि वो सोसाइटी के फ्लैट में रहता है इसलिए उसे अपने फ्लोर का शेर कह सकते हैं।

शेरू आजकल बहुत प्रसन्नचित्त रहता है, जबसे चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा की वो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है।

सूरज के ढलते ही वो टीवी के सामने अपना आसन लगा कर बैठ जाता हैं। जब तक टीवी चालू कर “राजनीतिक बहस” का चैनल नहीं लगता उसको चैन नहीं आती। जैसे जैसे बहस में तेज़ी आती है, वो भी अपनी वाणी से गुर्रा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है। कल हम टीवी चला कर वाट्स एप पर बिखरे हुए ज्ञान को समेटने लगे तो शेरू ने अपने पंजे से हमारा मोबाईल बिस्तर पर गिरा दिया। उसकी सोच भी सही है, जब इतनी बढ़िया बेवकूफी की बहस से मनोरंजन हो रहा है, तो उससे वंचित क्यों रहना चाहिए।

श्रीमती जी भी खुश हैं, टीवी देखते हुए शेरू को खाने में घर का बना हुआ कुछ भी परोस दो, वो बिना नखरे के खा लेता है। वरना शेरू को भी जब तक ऑनलाइन डॉग फूड ना मंगवा कर दो, वो भूखा रह लेता पर घर का बना भोजन नहीं खाता हैं। चलो टीवी की बहस सुनते हुए उसकी आदतों में सुधार आ रहा हैं। वैसे हम भी जब टीवी में मग्न होते हैं तो नापसंद वस्तुएं भी हज़म कर जाते हैं। शायद शेरू भी जाने अनजाने में हमसे ये सब सीख गया हो।                           कोविड की तीसरी लहर से पूर्व शेरू शाम को हमारे साथ बगीचे में सैर पर जाता था। वहाँ उसके समाज के लोग भी बड़ी संख्या में आते थे। वहाँ उनसे वो भी लंबी वार्तालाप कर लेता था।    

अब माहौल को देखते हुए जब सांयकालीन भ्रमण बंद है, तो शेरू को टीवी में बहस करते हुए लोग अपने समाज के ही लगते है। बिना किसी सार्थक विषय के एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू चंद लोग सड़क पर बिना किसी कारण के भौंकते हुए कुत्तों जैसा व्यवहार ही तो करते हैं।   

अब लेखनी को विराम देता हूँ, शेरू टीवी के सामने आसन लगा कर बैठ गया है। समय का बड़ा पाबंद है, हमारा शेरू।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 117 – लघुकथा – बेरंग होली…  ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “*बेरंग होली… *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 117 ☆

☆ लघुकथा – बेरंग होली … 

होली की मस्ती और रंगों की बौछार लिए होली का त्योहार जब भी आता श्रेया के मन पर बहुत ही कडुआ ख्याल आने लगता।

अभी अभी तो वह यौवन की दहलीज चढी थी।आस पडोस सभी श्रेया की खूबसूरती पर बातें किया करते थे।

उसे याद है एक होली जब उसने अपने दोस्तों और सहेलियों के साथ खेली। एक दोस्त जो कभी उससे बात भी नहीं कर सकता था आज वह भी उसके साथ होली खेल रहा था। मस्ती और होली की ठंडाई, होली के रंगों के बीच किसे कब ध्यान रहा कि श्रेया को ठंडाई के साथ नशे की पुड़िया पिला दिया गया।

झूमते श्रेया को लेकर दोस्त जो उसे पागलों की तरह चाहता था। पहले रंगों, गुलाल से सराबोर कर दिया और मौका देखते ही सूनेपन का फायद उठाया और श्रेया को  जिंदगी का वह मोड़ दे दिया जहां से उबर पाना उसके लिए बहुत ही मुश्किल था।

होश आने पर अपने आपको डॉक्टर की चेम्बर में पाकर बेकाबू हो कर रोने लगी।

मम्मी पापा को उसकी हालत देख समझते देर न लगी कि रंगो की सुंदरता पर होली में किसी ने अचानक होली को बेरंग कर दिया है।

एक अच्छे परिवार के लड़के से शादी के बाद श्रेया के जीवन में होली तो हर साल आती। मगर अपने जीवन की बेरंग होली को भूल न  पाई थी।

तभी उसका बेटा जो हाथों में पिचकारी लिए दौड़कर अपनी मम्मी श्रेया के पास आकर बोला… “पापा कह रहे हैं वह माँ आपको बिना रंगों की होली पसंद है। यह भी कोई रंग होता है। मैं आज आपको पूरे रंगों से रंग देता हूं। आप भूल जाओगी अपने बिना रंगों की होली।”

श्रेया को जो अब तक होली रंगों से अपने आप को बंद कर लेती थी। आज गुलाल से लिपीपुति अपने पतिदेव से बोली..” बहुत वर्ष हो गए गए मैंने आपको बेरंग रखा।”

“आइए हम रंगीन होली खेलते हैं।” श्रेया को पहली बार होली पर खुश देखकर पतिदेव मुस्कुराए और गुलाल से श्रेया का पूरा मुखड़ा रंग दिया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 129 ☆ खोटे नाणे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 129 ?

☆ खोटे नाणे ☆

मी मोत्यांचे तुला चारले होते दाणे

तरी असे का तुझे वागणे उदासवाणे

 

काढायाला भांडण उकरुन तुलाच जमते

शोधत असते नवीन संधी नवे बहाणे

 

तूच बोलते टोचुन तरिही हसतो केवळ

किती दिवस मी असे हसावे केविलवाणे

 

अंगालाही लागत नाही बदाम काजू

मिळता संधी काढत असते माझे खाणे

 

नजर पारखी होती माझी नोटांवरती

तरी कसे हे नशिबी आले खोटे नाणे

 

हा तंबोरा मला लावता आला नाही

तरी अपेक्षा सुरात व्हावे माझे गाणे

 

राग लोभ तो हवा कशाला जवळी कायम

नव रागाचे गाऊ आता नवे तराणे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ संगीताचा विकास – भाग-३ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? सूर संगत ?

☆ संगीताचा विकास – भाग – ३ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

४) आधुनिक कालखंड ~ इ.स. १८०० पासून

ख्याल गायनाचा भरपूर प्रसार व त्याचबरोबर वाद्यसंगीताची विलक्षण क्रान्ती या कालखंडांत दिसून येते.

संगीताचे स्वरलेखन, संगीत संस्थांच्या निरनिराळ्या परीक्षा, संगीतावरची पुस्तके आणि व्याख्याने यामुळे संगीत शास्त्राचा प्रचंड प्रसार झाला. पंडित विष्णू दिगंबर पलुस्कर, भातखंडेबुवा, विनायकराव पटवर्धन वगैरे संगीतज्ञांनी तर भारतीय संगीत प्रसाराचे व्रतच घेतले होते.

संगीताचा सतत अभ्यास व रियाज करून कलावंत वैयक्तिक विचाराने स्वतःची विशिष्ट गायनशैली तयार करतो.प्राचीन काळापासून ते अगदी आधुनिक काळांत एकोणीसाव्या शतकापर्यंत गुरूगृही राहून, गुरूची मनोभावे सेवा करीत संगीत साधना करण्याची प्रथा होती. गुरू त्यांची वैशिष्ठ्यपूर्ण गायनशैली शिष्याच्या गळ्यांत जशीच्या तशी उतरविण्याचा प्रयत्न करीत असे. यालाच त्या गायन शैलीचे घराणे म्हटले जाऊ लागले. अशा रीतीने काही प्रतिभावंत कलाकारांनी त्यांची स्वतंत्र गायनशैली शिष्यांकरवी

जतन करण्याचा प्रयत्न केला. ह्यातूनच आज प्रचलित असलेली किराणा, जयपूर, मेवाती, ग्वाल्हेर, आग्रा वगैरे एकूण १६ घराणी तयार झाली.

अब्दूलकरीमखाॅं साहेब हे किराणा घराण्याचे पट्टीचे गायक.

आपल्या सर्वांचे लाडके कै.भीमसेन जोशी (अण्णा, सवाई गंधर्व यांचे शिष्य), आघाडीच्या गायिका प्रभा अत्रे हे किराणा घराण्याचे गायक. अल्लादिया खाॅं यांचे जयपूर घराणे स्व.किशोरीताई अमोणकर यांनी त्यांच्या गायन कौश्यल्याने लोकप्रिय केले व आज अश्विनी भिडे देशपांडे या ते पुढे नेत आहेत. स्व.विनायकबुवा पटवर्धन, शरद्चंद्र आरोलकर, गोविंदराव राजूरकर हे ग्वाल्हेर घराण्याचे आघाडीचे गायक.

आधुनिक काळांत काही कलावंतांची मात्र कोणा एका घराण्याला चिकटून न राहता अनेक घराण्यांची वैशिष्ठ्ये लक्षात घेऊन स्वतःची शैली तयार करण्याची धडपड चालू असते.याचे एक उत्तम उदाहरण म्हणून कै.पंडित जितेंद्र अभिषेकीबुवांचा उल्लेख करणे  योग्य होईल. त्यांनी ग्वाल्हेर,आग्रा,अत्रौली अशा विविध घराण्यांची गायकी आत्मसात केली. आणि बुद्धीचातूर्याने स्वतःच्या गाण्याचा वेगळा ठसा उमटविला.जसे जयपूर घराण्यांतील एकारातील स्वरलगाव,आग्रा घराण्याची आकारयुक्त आलापी,किराणा घराण्याची मेरखंड पद्धतीने केलेली आलापी.उस्ताद बडे गुलाम अलीखाॅं यांच्या गायनांतील चपलता,मृदुता,भावुकता इत्यादी गुणविशेष त्यांनी उचलले तर ठुमरी पेश करताना पतियाळा घराण्याची पद्धत जवळ केली.

पं.उल्हास कशाळकरांचाही स्वतंत्र शैलीचे गायक म्हणून उल्लेख करावा लागेल.त्यांनी गजाननबुवा जोशी यांजकडून ग्वाल्हेर घराण्याची तालीम घेतली,त्याचबरोबर जयपूर गायकीचे निवृत्तीबुवा सरनाईक, डी.व्ही.पलुस्कर, मास्टर कृष्णराव, कुमार गंधर्व  इत्यादी नामवंतांच्या गायकीचा प्रभाव त्यांच्या गायकीवर आहे.

मध्ययुगीन काळांत राजाश्रय असलेले संगीत नाटके, चित्रपट, आकाशवाणी, मागील पन्नास वर्षांत लोकप्रिय झालेले दूरदर्शन या प्रसारमाध्यमांमुळे  घरोघरी पोहोचले. रसिकांची नाट्यसंगीत, भक्तीगीते, अभंग गायन, भावगीते तसेच गझल, ठुमरी दादरा अशा उपशास्त्रीय संगीतात अधिकाधिक रुची उत्पन्न झाली. त्यामुळे ख्यालगायकीची मैफल असली तरी एखाद दोन राग पेश झाल्यानंतर प्रेक्षकांची भजन, नाट्यपद किंवा ठुमरी कलावंताने सादर करावी अशी फरमाईश असतेच.

भीमसेन जोशींनी “चलो सखी सौतनके घर जईये” ही गुजरी तोडीतील दृत बंदीश किंवा “रंग रलिया करत सौतनके संग” ही मालकंसमधील दृतबंदीश संपविल्यानंतर अण्णांचे तीर्थ विठ्ठल क्षेत्र विठ्ठल, इंद्रायणी काठी हे अभंग ऐकल्याशिवाय मैफल पूर्ण झाल्याचे समाधान होतच नव्हते.

आधुनिक तंत्रज्ञानामुळे आता जग जवळ आले आहे. संगीतांत अनेकविध नवेनवे प्रयोग होऊ लागले. फ्यूजन,रिमिक्स वगैरे. चित्रपट संगीताने तर संगीतविश्व पारच बदलून टाकले. भारतीय आणि पाश्चात्य वाद्यांचा मेळ पहावयास मिळतो. काही ठिकाणी तो चांगलाही वाटतो पण कधी कधी संगीतातील माधूर्य हरपून त्याची जागा गजराने घेतली आहे असे वाटते.

गुरूकूल पद्धतीने संगीत साधना करणे आज लुप्त झाले आहे.केवळ संगीतावरच लक्ष्य केंद्रीत करणे आजच्या काळांत अवघडच आहे.ज्ञानार्जन किती झाले यापेक्षा प्रसिद्धि केव्हा मिळेल याकडे अधिक लक्ष आहे.त्याचबरोबर मात्र शास्त्रीय संगीताचा अभ्यास व साधना करणारी युवा मंडळीही भरपूर आहेत.त्यामुळे वेदकाळी रोपण केलेला शास्त्रीय संगीताचा हा डेरेदार वृक्ष नवोदीत कलाकारांच्या खत~पाण्याने सतत बहरतच राहील यांत संशय नाही.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 79 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 79 –  दोहे ✍

लज्जा, ममता, शीलता, साड़ी तीर्थ स्वरूप।

दुल्हन का घूंघट करे, आंचल मां का रूप।।

 

शील और सौंदर्य का, अद्वितीय प्रतिमान ।

धोती या साड़ी कहे, भारतीय परिधान ।।

 

वस्त्र व्यक्ति को सजाते, देते हैं पहचान ।

निर्भर करता व्यक्ति पर, रखे  वस्त्र का मान।।

 

एक नूर है आदमी, कपड़ा नूर हजार।।

व्यक्ति वस्त्र से कीमती, होता है व्यवहार।।

 

रुचि सुविधा के मुताबिक, लोग चुनें परिधान ।

आवेष्ठित सौंदर्य का, जगत करे सम्मान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 81 – “पूरी पीढी देख रही…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “पूरी पीढी देख रही …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 81 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “पूरी पीढी देख रही ”|| ☆

आँखों से आँतों तक की

सम्भावित दूरी में।

सारे पैसे चुके मिले जो

मुझे मजूरी में ।।

 

तन ढकने का प्रश्नअभी

तक रस्ते में अटका ।

पूरी पीढी देख रही मैं

कहाँ -कहाँ भटका ।

 

ऐसे चिथड़े जिन्हें आप

अश्लील भले कह लें ।

मगर उन्हीं से ढके

स्वयं को हूँ मजबूरी में।।

 

घर का सधा विचार कभी

आया करता तो है।

पर समझाईश मिली-

“ईश छाया करता तो है ।

 

इतने पेड़,पहाड,गुफा,

कोटर जैसे आश्रय ।

फिर क्यों खोया रहता हूँ

इस साध अधूरी में।।”

 

अगर मिली भर-पेट

कहीं जो चोकर की रोटी ।

जिसके आगे अमरावति

की पंगत है खोटी ।

 

सब, तब दिव्य दिखाई देती

दुनिया की हलचल ।

लगता जैसे टहल रहा हूँ

माल, मसूरी में ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-03-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 128 ☆ “एक्जिट पोल का खेला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  “एक्जिट पोल का खेला”।)  

☆ व्यंग्य # 128 ☆ “एक्जिट पोल का खेला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बेचारी गंगू बाई बकरियां और भेड़ चराकर जंगल से लौट रही थी और गनपत  चुनावी सर्वे (एक्जिट पोल) का बहाना करके नाहक में गंगू बाई को परेशान कर रहा है, जब गंगू बाई ने वोट ही नहीं डाला तो इतने सारे सवाल करके उसे क्यों डराया जा रहा है। गंगू बाई की ऊंगली पकड़ पकड़ कर गनपत बार बार देख रहा है कि स्याही क्यों नहीं लगी। परेशान होकर गंगू बाई कह देती है लिख लो जिसको तुम चाहो। गंगू बाई को नहीं मालुम कि कौन खड़ा हुआ और कौन बैठ गया। गंगू बाई से मिलकर सर्वे वाला गनपत भी खुश हुआ कि पहली बोहनी बढ़िया हुई है। 

सर्वे वाला गनपत आगे बढ़ा।  कुछ पार्टी वाले मिल गये, गनपत भैया ने उनसे भी पूछ लिया। काए भाई किसको जिता रहे हो? सबने एक स्वर में कहा – वोई आ रहा है क्योंकि कोई आने लायक नहीं है। गनपत को लगा कि एक्जिट पोल का अच्छा मसाला मिल रहा है। 

सामने से एक चाट फुल्की वाला आता दिखा, बोला -कौन जीत रहा है हम क्यों बताएं, हमने जिताने का ठेका लिया है क्या ?  पिछली बार तुम जीएसटी का मतलब पूछे थे तब भी हमने यही कहा था कि आपको क्या मतलब   …..! गोलगप्पे खाना हो तो बताओ… नहीं तो हम ये चले। 

अब गनपत को प्यास लगी तो एक घर में पानी मांगने पहुँचे…तो मालकिन बोली –  फ्रिज वाला पानी, कि ओपन मटके वाला …….

खैर, उनसे पूछा तो ऊंगली दिखा के बोलीं – वोट डालने गए हते तो एक हट्टे-कट्टे आदमी ने ऊंगली पकड़ लई, हमें शर्म लगी तो ऊंगली छुड़ान लगे तो पूरी ऊंगली में स्याही रगड़ दई। ऐसी स्याही कि छूटबे को नाम नहीं ले रही है। सर्वे वाले गनपत ने झट पूछो – ये तो बताओ कि कौन जीत रहो है। हमने कही जो स्याही मिटा दे, वोईई जीत जैहै। 

पानी पीकर आगे बढ़े तो पुलिस वाला खड़ा मिल गया, पूछा – क्यूँ भाई, कौन जीत रहा है ……? वो भाई बोला – किसको जिता दें आप ही बोल दो। गनपत समझदार है कुछ नोट सिपाही की जेब में डाल कर जैसा चाहिए था बुलवा लिया। पुलिस वाले से बात करके गनपत दिक्कत में पड़ गया। पुलिस वाले ने डंडा पटक दिया बोला – हेलमेट भी नहीं लगाए हो, गाड़ी के कागजात दिखाओ और चालान कटवाओ, नहीं तो थोड़ा बहुत और जेब में डालो।

कुछ लोग और मिल गए हाथ में ताजे फूल लिए थे, गनपत ने उनसे पूछा ये ताजे फूल कहां से मिल गए…… उनमें से एक रंगदारी से बोला – चुरा के लाए है बोलो क्या कर लोगे, …….. 

सुनिए तो थोड़ा चुनाव के बारे में बता दीजिये ……?

बोले – तू कौन होता बे…. पूछने वाला।  नेता जी नाराज नहीं होईये हम लोग आम आदमी से चुनाव की बात कर एक्जिट पोल बना रहे हैं। 

सुन बे ‘आम आदमी’ का नाम नहीं लेना, और ये भी नहीं पूछना कि पंजाब में क्या आम आदमी की सरकार बन रही है।

थक गए तो घर पहुंचे, पत्नी पानी लेकर आयी, तो पूछा – काए  किसको जिता रही हो …..? पत्नी बड़बड़ाती हुई बोली – तुम तो पगलाई गए हो  …! पैसा वैसा कुछ कमाते नहीं और राजनीति की बात करते रहते हो। कोई जीते कोई हारे  तुम्हें का मतलब….. 

फोन आ गया,

हां हलो, हलो ……कौन बोल रहे हैं ?

अरे भाई बताओ न कौन बोल रहे हैं ? 

आवाज आयी – साले तुमको चुनाव का सर्वे करने भेजा था  और तुम घर में पत्नी के साथ ऐश कर रहे हो ………..

नहीं साब, प्यास लगी थी पानी पीने आया था, बहुत लोगों से बात हो गई है, 

निकलो जल्दी … बहस लड़ा रहे हो, बहाना कर रहे हो ……….

काम वाली बाई रास्ते में मिल गयी, तो उससे पूछने लगे कि किसको जिता रही हो?  तो उसने पत्नी से शिकायत कर दी कि साहब छेड़छाड़ कर रहे हैं …….

रास्ते में पान की दुकान में गनपत पत्रकार रुके, पान में बाबा चटनी चमन बहार और चवन्नी के साथ तेज रगड़ा डलवाया और कसम खायी कि अगली बार से एक्जिट पोल का काम नहीं करेंगे, क्योंकि ये झटके मारने का खेला है।     

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 72 ☆ # स्त्री # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# स्त्री #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 72 ☆

☆ # स्त्री # ☆ 

सुबह सुबह मैने पत्नी से कहा –

महारानी जी उठिए

बेहतरीन चाय की चुसकियाँ लीजिये

गरमागरम पकोड़े साथ में खाते हैं

मुझे पत्ता है

तुम्हें हरी मिर्च की चटनी के साथ

खूब भाते हैं

पत्नी ने अलसाये से उठते हुये

घड़ी देख समय का जायजा लिया

मुझपे मुस्कुराते हुये कटाक्ष किया

आज यह सूर्य पूरब की जगह पश्चिम से

कैसे निकला है

एक पत्थर दिल पुरुष का

मन कैसे पिघला है

मैने मुस्कुराते हुये कहा –

तुमने मेरे साथ जीवन बिताया है

हर पल मेरा साथ निभाया है

आज आई है मुझे चेतना

समझ पाया तुम्हारी वेदना

तुम्हारे साथ करता रहा-

जीवन भर पक्षपात

भावनाओं पर आघात

अपने पुरुषत्व पर दर्प

मेरे भीतर छुपा हुआ विषैला सर्प

तुम्हें काटता रहा

दर्द बांटता रहा

फिर भी तुम अजर हो गई

शिवानी की तरह अमर हो गई

महिला दिवस पर

तुम्हारे त्याग, अदम्य साहस

द्रुढ़ इच्छाशक्ति, झूजारु प्रवृति को

श्रद्धा से नमन करता हूँ

अपना अहं छोड़

तुम्हारे समक्ष समर्पण करता हूँ

मैं तुम्हारा सहचर हूँ

तुम्हारा पक्षधर हूँ

तुम्हारी अभिव्यक्ति का

स्त्री शक्ति का

शिक्षा का

अधिकारों की रक्षा का

स्वतंत्रता का

समानता का

क्योंकि,

तुम्हारे ममत्व, स्नेह, संवेदनाऔं से जुड़े

ये रिश्ते, ये घरबार है

तुम्हारे दम पर टिका यह संसार है

प्रिये, तुम ईश्वर का वरदान हो

वाकई “स्त्री” तुम महान हो.

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 73 ☆ हाक तुला अंतरीची… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 73 ? 

☆ हाक तुला अंतरीची… ☆

(अष्ट-अक्षरी…)

हाक तुला अंतरीची

ऐक कृष्णा या दीनाची

नसे तुझ्याविना कोणी

आस तुझ्या दर्शनाची…!!

 

दाव तुझे रूप देवा

भावा आहे माझा भोळा

पावा वाजवी कृपाळा

नको अव्हेरू या वेळा…!!

 

दोषी आहे मीच खरा

तुला ओळखलेच नाही

आता करितो विनंती

स्नेह भावे मज पाही…!!

 

राज नम्र शुद्ध भावे

दास म्हणवितो तुझा

प्रेम तुझे अपेक्षित

स्वार्थ पुरवावा माझा…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 8 – आई ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 8 – आई ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

आपल्या जीवनात आईचं अत्यंत महत्वच स्थान आहे. अनन्यसाधारण महत्व आहे.सोन्याच्या लंकेपेक्षा आणि स्वर्गापेक्षाही  माझी जन्मभूमी अयोध्याच श्रेष्ठ आहे असे श्रीरामचंद्र सांगतात. जन्मभूमीची तुलना ते आपल्या आईशी करतात.

आपल्या मुलाचं/मुलीचं भवितव्य घडविणारे आई आणि वडील दोघेही असतात. पण प्रत्येक व्यक्तिचं चारित्र्य घडविणारी आई असते.तिची भूमिका जास्त महत्वाची असते. जन्मल्यापासून त्याला भाषा शिकविणारी, पहिला घास भरवताना चिऊ काऊ सारख्या पक्ष्यांची ओळख करून देणारी, पहिलं पाऊल टाकताना नीट चालायला  शिकविणारी, शाळेत डबा खाताना सर्वांबरोबर वाटणी करून खाण्याचा, सामूहिक समानता मूल्यांचा संस्कार करणारी, भावंडांमध्ये एकमेकांना समजून घेण्याचे बीज पेरणारी, कुटुंबातली नाती सांभाळण्याचे आणि ती टिकविण्याचे ही संस्कार कळत्या वयात देणारी इथ पासून पुढील आयुष्यात येणार्‍या संकटांना धैर्याने तोंड द्यायला शिकविणारी आणि मुलाला घडवताना त्याच्यात साहित्य, कला, तत्वज्ञान, इतिहास यासाठी योग्य ते कष्ट घेणारी अशी आई असते.

आपला मुलगा ‘यथार्थ’ मनुष्य निपजावा असं प्रत्येक आईलाच वाटत असतं. पण असा माणूस घडवण्याची कला सर्वच मातांजवळ नसते, म्हणूनच स्वामी विवेकानंद यांच्यासारखे चारित्र्यवान व्यक्तिमत्व एखादेच घडत असते. कारण सुसंस्कृत आणि अभिजात माता भुवनेश्वरी देवी पण एखादिच असते.

नरेंद्रनाथांच्या  चारित्र्यात जे जे महान, जे जे सुंदर होतं ते ते सर्व त्यांच्या सुसंस्कृत मातेच्या सुशिक्षणाचं  फळ होतं  असंच म्हणावं लागेल. त्यांनी नरेंद्र ची योग्य ती जोपासना केली. आपल्या मुलांच्या चारित्र्यात कोणत्याही प्रकारचा हिणकसपणा येऊ नये म्हणून त्यांनी डोळ्यात तेल घालून जपले होते. मातृभक्त नरेन्द्रनेही आपल्या आईची आज्ञा कधीही मोडली नव्हती. स्त्री सुलभ गुणांपेक्षाही धैर्य, खंबीरता, असत्य आणि अविचाराचा प्रतिकार करण्याचा बेडरपणा भुवनेश्वरी देवींकडे होता. आपल्या मुलांना उच्च ध्येयं आणि व्रतं अंगिकारण्यासाठी त्या स्फूर्ति आणि उत्तेजन देत असत.

स्वामी विवेकानंदांच्या देहत्यागा नंतर सुद्धा ही माता पुढील नऊ वर्ष हयात होती. तिनं आपल्या लाडक्या नरेंद्रनाथाचे जगप्रसिद्ध ‘स्वामी विवेकानंद’ होताना पाहिले होते. भागीरथीच्या पवित्र तीरावर पुत्राच्या धडधडत्या  चितेजवळ अंतिम प्रार्थनेत सहभागी झालेल्या या दु:खी मातेच्या मनात आले की जर, ‘विवेकानंद आणखी काही दिवस इहलोकी राहिले असते तर, अखिल मानवजातीचे केव्हढे तरी कल्याण झाले असते’.  पुत्रवियोगपेक्षा मानवजातीचे कल्याण हीच भावना तिच्या मनात यावेळी होती.

ती विवेकानंन्दाची आई होती या गौरवाचा सात्विक गर्व तिच्या संयमित,गंभीर आणि शांत चेहर्‍यावर दिसत होता.

खाण तशी माती अशी म्हण आहे. आजकाल मुलांच्या आया म्हणजे माता घरगुती कलागतीत नको ते संस्कार करत असतात. अजाणतेपणी का असेना नको ते मुलांना शिकवीत असतात. (आज मालिका/माध्यमे  सुद्धा असे आदर्श घालून देण्यात अग्रेसर आहेत.)मूल घडविण्याच्या काळात, त्या मुलांमध्ये द्वेष, मत्सर, लोभ पेरत असतात. कौटुंबिक नाती तोडतात. त्यामुळे मोठे होऊन ती मुले दुसर्‍याच्या प्रगतीमुळे जळफळणारी, हलक्या मनाची व कानाची अवलक्षणीच निघातील याची त्यांना कल्पना नसते. त्याचा वाईट परिणाम त्या मुलांच्या भविष्यावर होणार असतो. म्हणून मुलांच्या आई /मातांनी सुशिक्षित आणि सुसंस्कृत असणे फार आवश्यक आहे. चारित्र्यवान मुलं घडवणं सोप्पं नाहीच मुळी !

क्रमशः ….

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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