हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पर पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया।

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा। उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पहले मूर्तिकार की चोटों से पत्थर काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

मित्रो, यही बात हर इंसान के दैनिक जीवन पर भी लागू होती है, बहुत सारे लोग जो ये शिकायत रखते हैं कि वो कठिन प्रयासों के बावजूद सफल नहीं हो पाते लेकिन सच यही है कि वो आखिरी प्रयास से पहले ही थक जाते हैं। लगातार कोशिशें करते रहिये क्या पता आपका अगला प्रयास ही वो आखिरी प्रयास हो जो आपका जीवन बदल दे।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 94– समयसुचकता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 94 – समयसुचकता ☆

जाणलीस तू स्त्री जातीची अगतिकता.।

धन्य तुझी समयसुचकता।।धृ।।

 

दीन दलित बुडाले अधःकारी।

पिळवणूक करती अत्याचारी।

स्त्रीही दासी बनली घरोघरी ।

बदलण्या समाजाची मानसिकता।।१।।

 

हाती शिक्षणाची मशाल।

अंगी साहसही विशाल।

संगे ज्योतिबांची ढाल।

आणि निश्चयाची दृढता।।२।।

दीन दुःखी करून गोळा।

लागला बालिकांना लळा।

फुलविला आक्षर मळा।

आणली वैचारिक भव्यता।।३।।

 

तुझ्या कष्टाची प्रचिती।

आली बहरून प्रगती ।

थांबली प्रथा ही सती।

स्त्री दास्याची ही मुक्ताता।।४।।

ज्ञानज्योत प्रकाशली।

घरकले उजळली।

घेऊन विचारांचा वसा माऊली।

तुझ्या लेकी करती

अज्ञान सांगता।।५।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अतिलघुकथा – चांगुलपणा ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

?जीवनरंग ?

☆ अतिलघुकथा – चांगुलपणा ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

लघुतम कथा – -1.

वडील गेल्यावर भावांनी संपत्तीची वाटणी केल्यावर म्हाता-या आईला आपल्या घरी नेताना बहीण म्हणाली, मी खुप भाग्यवान, माझ्या वाट्याला तर आयुष्य आलंय.

 

लघुतम कथा – -2.

काल माझा लेक मला म्हणाला, “बाबा,मी तुला सोडून कधीच कुठे जाणार नाही. कारण तू पण आजी आजोबांना सोडून कधी राहिला नाहीस.” एकदम वडिलोपार्जित प्रॉपर्टी नावावर झाल्यासारखे फीलिंग आले मला .

 

लघुतम कथा – -3.

खूप दिवसांनी माहेरपणाला आलेली नणंद टी व्ही सिरीयल पहाता पहाता वहिनीला म्हणाली, “वहिनी किती मायेने करता तुम्ही माझे!” तर वहिनी म्हणाल्या, “अहो, तुम्ही पण माहेरी समाधानाचे वैभव उपभोगायलाच येता की. सिरीयल मधल्या नणंदेसारखी आईचे कान भरून भांडणे कुठे लावता? मग मी तरी काय वेगळे करते?”

रिमोट ने टीव्ही केव्हाच बंद केला होता.

 

लघुतम कथा – -4.

तिच्या नवऱ्याचा मित्र भेटायला आला आज हॉस्पिटल मध्ये, तो खूपच आजारी होता म्हणून. जाताना बळेबळेच ₹5000 चे पाकीट तिच्या हातात कोंबून गेला. म्हणाला,

“लग्नात आहेर द्यायचाच राहिला होता, माझा दोस्त बरा झाला की छानसी साडी घ्या.”

त्या पाकिटा पुढे आज सारी प्रेझेंट्स फोल वाटली तिला.

 

लघुतम कथा – -5.

आज भेळ खायची खूप इच्छा झाली तिला, ऑफिस सुटल्यावर. पण घरी जायला उशीर होईल आणि सासूबाईंना देवळात जायचे असते म्हणून मनातली इच्छा मारून धावतपळत घर गाठले तिने. स्वैपाकखोलीत शिरली तर सासूबाई म्हणाल्या, ” हातपाय धू पटकन, भेळ केलीय आज कैरी घालून. खूप दिवस झाले मला खावीशी वाटत होती.”

संग्राहिका : सुश्री मंजिरी गोरे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 124 ☆ रिश्तों की तपिश ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्तों की तपिश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 124 ☆

☆ रिश्तों की तपिश

‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने’– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट रही कहां है?

विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं; उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ मानव अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे  हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।

प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें?  सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राजमहल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। सो! संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं और सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के रिश्ते, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं तथा उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता …वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।

परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है तथा टूटने के कग़ार पर है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप का प्रचलन तो सामान्य हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या इन विषम परिस्थितियों में परिवार-व्यवस्था सुरक्षित रह पाएगी?

मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं।  हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने का आपको अधिकार है। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं।  कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।

इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है– सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता विश्वसनीय नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, उनकी हत्या कर वे  सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय  का भाव उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।

इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर कैसे अपनी ज़िंदगी गुज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता, नशे का सहारा लेता है और अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे प्रदत्त अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।

यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।

जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं; पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ‘मानव खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 123 ☆ भावना के दोहे  – होली ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  होली पर्व पर विशेष  “भावना के दोहे  – होली। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 123– साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  – होली  ☆

बरजोरी तुम ना करो, अपनी ले लो राह।

नहीं मिलेगी कान्हा, घर में हमें पनाह।।

 

रंग पिया का लग गया, चढ़ा प्यार का रंग।

रंग बिरंगी हो रही, लगे फड़कने अंग ।।

 

अंतर्मन से जो कहा, सुन ली मन की बात।

होली में मन मिल गए, मिलती है सौगात ।।

 

ढूंढ रहे है सब मुझे, लिए हाथ में रंग।

छिपती छिपती फिर रही, अपने मोहन संग।।

 

अबीर गुलाल संग है, मिला फागुनी प्यार।

मिल बैठे खाएं सभी, मीठी गुझिया चार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 113 ☆ मत कर चोरी अब नंदलाला… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मत कर चोरी अब नंदलाला…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 113 ☆

☆ मत कर चोरी अब नंदलाला…

मात जसोदा कहें श्याम से, नटखट बृज की बाला

दधि माखन के लाने काहे, तूने डाका डाला

नंदबाबा को नाम बहुत है, देते सबै हवाला

घर में कमी ने कछु बात की, पियो दूध को प्याला

ब्रजवासी सब हँसी उड़ावें, गारी देबे ग्वाला

ललचानो “संतोष” कहत है, श्याम का रँग निराला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविता # 116 – होळी विशेष – तमोगुण ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 116 – विजय साहित्य ?

होळी विशेष – तमोगुण  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

तत्वनिष्ठ संस्कारांनी

कटिबद्ध आहे होळी

अंतरीचे तमोगुण

बांधुयात त्यांची मोळी .. !! १ !!

 

तरू काष्ठ सुकलेले

त्याची समिधा तात्त्विक

रिती रिवाजांचा चर

तेज होळीचे सात्त्विक…!! २ !!

 

भक्त प्रल्हादाची कथा

भक्तीरुप अविष्कार

पानं पानं अहंकारी

होळीमध्ये स्वाहाकार..!! ३ !!

 

होळी पौर्णिमेच्या दिनी

करू दुर्गुण निःसंग

प्रासंगिक अभिव्यक्ती

सद्गुणांचा रागरंग…!! ४ !!

 

काम,क्रोध,लोभ,मोह

मद मत्सर भस्मात

फाल्गुनात वर्षाखेरी

चैतन्याची रूजवात… !! ५ !!

 

मार बोंब,घाल शिव्या

सर्व धर्म समभाव

नाना रंग स्वभावाचे

दाखविती रंक राव… !! ६ !!

 

ऋतूचक्र सांगतसे

आली आली बघ होळी

खरपूस समाचार

खाऊ पुरणाची पोळी…. !! ७ !!

 

नको हिरण्य रिपूचे

संसारीक आप्तपाश

अंतरंगी नारायण

करी तमोगुण नाश… !! ८ !!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! फेरा एकवीसचा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

💃 फेरा एकवीसचा ! 😅

“पंत हे तुम्ही काय चालवलंय ? “

“मोऱ्या अरे आज तुला झालंय तरी काय, नेहमी सारखा नमस्कार वगैरे करशील का नाही ?”

“नाही आणि करणार पण नाही,  कारण मी रागावलोय तुमच्यावर, म्हणून आज नमस्कार वगैरे विसरा !”

“ही तुला काही बोलली का मोऱ्या ?”

“काकू कशाला बोलतील मला?  मी तुमच्यावर रागावलो आहे म्हटलं ना !”

“अरे हो, पण मी पडलो साधा पेन्शनर, कुणाच्या अध्यात ना मध्यात, मग माझ्यावर रागावण्या सारखं मी केलय तरी काय, ते तरी सांग!”

“काय म्हणजे, परवा आपल्या वरच्या मजल्यावरच्या नितीनच्या मुलाचं बारस होत, तर…. “

“हो मस्त दणक्यात केलंन हो, आम्ही दोघे गेलो…. “

“ते बोलला मला नितीन, पण बाळासाठी अहेराच पाकीट… “

“न्यायला अजिबात विसरलो नव्हतो मोऱ्या, खरं सांगतो !”

“हो ते खरंय, पण पाकिटात पैसे… “

“सुद्धा आठवणीने एकवीस रुपये टाकले होते, पाहिजे तर विचार नितीनला !”

“बोलला मला नितीन त्याबद्दल.. “

“मग झालं तर !”

“तसच आठ दिवसापूर्वी केळकरांच्या मुलाची मुंज होती, तेव्हा पण….. “

“आम्ही दोघे जोडीने आवर्जून गेलो होतो बटूला आशीर्वाद द्यायला !त्याच्या लग्नाला आम्ही असू, नसू ! त्याला पण चांगला एकवीस रुपयांचा अहेर… “

“केळकर काका म्हणाले मला.”

“मग झालं तर, उगाच इतर काही लोकांसारखी रिकामी पाकीट द्यायची सवय नाही मला, कळलं ना मोऱ्या ?”

“ते ठाऊक आहे मला पंत, काही झालं तरी तुम्ही रिकामं पाकीट देणार नही ते. पण आता मला सांगा, गेल्या महिन्यात कर्णिकांच्या मंदाच लग्न होत, तर तिला सुद्धा….. “

“एकवीस रुपयाचाच आहेर केला होता आठवण ठेवून ! अरे लहान असतांना आमच्या राणी बरोबर खेळायला यायची आमच्या घरी. “

“पंत, मंदा लहानपणी तुमच्याकडे खेळायला यायची वगैरे वगैरे, ते सगळे ठीक आहे, पण तुम्ही बारस, मुंज आणि लग्न यात काही फरक करणार आहात की नाही ?”

“अरे मोऱ्या हे तिन्ही वेगवेगळे विधी आणि समारंभ आहेत, पूर्वी पासून चालत आलेले, त्यात मी फरक करण्या एव्हढा, कोणी थोर समाज सेवक थोडाच आहे ? हां, आता लहानपणी कुणाची मुंज राहिली असेल तर ती लग्नात लावता येते, पण बारस बाळ जन्मल्यावर बाराव्या दिवशी केल तर त्याला मुहूर्त बघायला लागत नाही असं म्हणतात, म्हणून लोक…. “

“पंत, मी त्याबद्दल बोलतच नाहीये !”

“मग कशा बद्दल बोलतोयस बाबा तू ?”

“अहो मी तुमच्या आहेराच्या रकमे बद्दल बोलतोय !”

“त्या बद्दल काय मोऱ्या ?”

“सांगतो ना पंत, तुमच्या दृष्टीने बारस, मुंज आणि लग्न यात  काही फरक आहे का नाही ? मग प्रत्येक वेळेस एकवीस रुपयाचाच आहेर, याच काय लॉजिक आहे तुमच, ते मला समजेल का ?”

“ते होय, त्यात कसलं आलंय लॉजिक ? त्याच काय आहे ना, अरे हल्ली, आपले आशीर्वाद हाच खरा आहेर, कृपया पुष्प गुच्छ आणू नयेत, अशा छापाच्या तळटीप प्रत्येक निमंत्रण पत्रिकेत असतात, तरी सुद्धा मी आठवणीने….. “

“सगळ्यांना एकवीस रुपयाच्याच आहेराची पाकीट का देता, हेच मला जणून घ्यायच आहे पंत आज !”

“मोऱ्या असं बघ, एकवीस या आकड्याच महत्व माझ्या दृष्टीनं फार म्हणजे फारच वाढलेलं आहे सध्या ! म्हणून मी सगळ्यांना एकवीस रुपयाचाच आहेर करतो हल्ली !”

“ते कसं काय बुवा पंत ?”

“सांगतो ना तुला. आपण या समारंभातून मिळणाऱ्या भोजनावर यथेच्छ ताव मारतो की नाही?”

“तसच काही नाही पंत, पण अशा समारंभात मी नेहमी पेक्षा थोडं जास्त जेवतो इतकंच !”

” बरोबर, तर त्याची अल्पशी परत फेड म्हणून…. “

“काय बोलताय काय पंत तुम्ही ? एकवीस रुपयाच्या पाकिटात कसली आल्ये परतफेड ? हल्ली अशा समारंभात माणशी जेवणाचे दर तुम्हाला…..”

“चांगलेच माहिती आहेत मोऱ्या ! हल्ली सातशे आठशेच्या खाली ताट नसतं ठाऊक आहे मला, पण म्हणून मी अल्पशी…. “

“पंत अहो तुमच्या अल्पला थोडा तरी अल्पार्थ आहे का सांगा बघू ?”

“आहे, नक्कीच आहे मोऱ्या !”

“हो का, मग म्या पामराला जरा तो समजावता का पंत ? “

“सांगतो ना मोऱ्या. आता असं बघ, सध्या शिवथाळी कितीला मिळते सांग बर मला ?”

“दहा रुपयाला !”

“बरोबर, म्हणजे सकाळी एक शिवथाळी आणि संध्याकाळी एक शिवथाळी या एकवीस रुपयात येवू शकते की नाही ?”

“हो पंत, म्हणजे एका माणसाचा एका दिवसाचा दोन वेळचा जेवणाचा प्रश्न सुटेल वीस रुपयात ! पण तुमच्या एकवीसच्या पाकिटातला एक रुपया शिल्लक राहतोच ना पंत ? त्याचे हल्लीच्या महागाईत खायचे पान सोडा, आपट्याचे एक पान पण येणार नाही पंत !”

“अरे पण माझ्या एकवीस रुपयाच्या आहेरातला तो उरलेला रुपया, पानासाठी वापरायचा नाहीच मुळी!”

“मग, त्या राहिलेल्या एक रुपयाचं करायच काय पंत ? पिगी बँकेत टाकायचा का ?”

“अरे नाही रे बाबा, पण जर का   शिवथाळी खाऊन तब्येत बिघडली, तर राहिलेल्या एका रुपयात सरकारच्या नवीन योजने प्रमाणे ‘आपल्या दारात आरोग्यचाचणी एक रुपयांत’ नाही का करता येणार ? म्हणजे लागला ना एकवीस रुपयाचा हिशोब !”

“धन्य आहे तुमची पंत !”

“आहे ना धन्य माझी मोऱ्या, मग कधी करतोयस लग्न बोल? म्हणजे

तुझ्यासाठी पण एक, एकवीसाचे अहेराचे पाकीट तयार करायला मी मोकळा !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१७-०३-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 89 ☆ पौध संवेदनहीनता की ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘पौध संवेदनहीनता की’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 89 ☆

☆ लघुकथा – पौध संवेदनहीनता की ☆

 सरकारी आदेश पर वृक्षारोपण हो रहा था। बड़ी तादाद में गड्ढ़े खोदकर पौधे लगाए जा रहे थे । बड़े अधिकारियों ने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई। इसके बाद उन पौधों का क्या होगा? उसे इन सरकारी बातों का पता  ना था। उसने तो  पिता को फल खाकर उनके बीज सुखाकर इक्ठ्ठा करते देखा था। बस से कहीं जाते समय सड़क के किनारे की खाली जमीन में वे बीज फेंकते जाते। उनका विश्वास था कि ये बीज जमीन पाकर फूलें – फलेंगे। बचपन में पिता के कहने पर बस में सफर करते समय उसने भी कई बार खिड़की से बीज उछालकर फेंके थे। आज वह भी यही करता है, उसके बच्चे  देखते रहते हैं।

सफर पूराकर वह पहुँचता है महानगर के एक फलैट में जहाँ उसकी माँ अकेले रह रही है।  सर्टिफाईड कंपनी की कामवाली महिला और नर्स माँ की देखभाल के लिए रख दी है। बिस्तर पर पड़े – पड़े माँ के शरीर में घाव हो गए हैं। बीमारी और अकेलेपन के कारण वह चिड़चिड़ी होती जा रही है। बूढ़ी माँ की आंखें आस-पास कोई पहचाना चेहरा ढूंढती हैं। मोबाईल युग में सब कुछ मुठ्ठी में है। दूर से ही सब मैनेज हो जाता है। कामवाली महिला वीडियो कॉल से माँ को बेटे – बहू के दर्शन करा देती है। सब कैमरे से ही हाथ हिला देते थे, माँ तरसती रह जाती। वह समझ ही नहीं पाती यह मायाजाल। अचानक कैसे बेटा दिखने लगा और फिर कहाँ गायब हो गया? बात खत्म होने के बाद भी वह बड़ी देर फोन हाथ में लिए उलट- पुलटकर देखती रहती है। माँ चाहती है दो बेटे – बहुओं में से कोई तो रहे उसके पास, कोई तो आए ।

माँ से मिलकर वह निकल लिया काम निपटाने के लिए। एक काम तो निपट ही गया था। पिता  पेड़ – पौधों के लिए बीज डालना तो सिखा गए थे पर लगे हुए  पेड़ों को खाद पानी देना नहीं सिखा पाए। अनजाने में वह भी अपने  बच्चों को  संवेदनहीनता की पौध थमा रहा था?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 148 ☆ कविता – रंगोली ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता रंगोली

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 148 ☆

? कविता – रंगोली ?

त्यौहार पर सत्कार का

इजहार रंगोली

उत्सवी माहौल में,

अभिसार रंगोली

 

खुशियाँ हुलास और,

हाथो का हुनर हैं

मन का हैं प्रतिबिम्ब,

श्रंगार रंगोली

 

धरती पे उतारी है,

आसमां से रोशनी

है आसुरी वृत्ति का,

प्रतिकार रंगोली

 

बहुओ ने बेटियों ने,

हिल मिल है सजाई

रौनक है मुस्कान है,

मंगल है रंगोली

 

पूजा परंपरा प्रार्थना

जयकार लक्ष्मी की

शुभ लाभ की है कामना,

त्यौहार रंगोली

 

संस्कृति का है दर्पण,

सद्भाव की प्रतीक

कण कण उजास है,

संस्कार रंगोली

 

बिन्दु बिन्दु मिल बने,

रेखाओ से चित्र

पुष्पों से कभी रंगों से

अभिव्यक्त रंगोली

 

धरती की ओली में

रंग भरे हैं

चित्रो की भाषा का

संगीत रंगोली

 

अक्षर और शब्दों से,

हमने भी बनाई

गीतो से सजाई,

कविता की  रंगोली

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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