हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #135 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-21 – “मौत आती है मगर नहीं आती…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मौत आती है मगर नहीं आती…”)

? ग़ज़ल # 21 – “मौत आती है मगर नहीं आती…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मौत आती है मगर नहीं आती,

ठीक से क्यूँ एक बार नहीं आती।

 

खैर मनाती  ज़िंदगी तब तक,

आहट तेरी जब तक नहीं आती।

 

दिल से दिल लगाती है बेवफ़ा,

सिर पर चढ़ क्यों नहीं आती।

 

झलक दिखा कर छुप जाती है,

रास्ता देखे महबूब नहीं आती।

 

दिन किसी तरह कट जाता है,

नीद मगर रात भर नहीं आती।

 

हो रहे सभी परेशान घर बाहर,

मुसीबत एक बारगी नहीं आती।

 

एक दिन तेरा तो पक्का ठहरा है,

काश तड़पा-तड़पा के नहीं आती।

 

आ जाए अगर एक बार ठीक से,

आतिश को फिर याद नहीं आती।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#74 ☆ गजल – ’’कुछ याद रहे दिन वे…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कुछ याद रहे दिन वे…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 74 ☆ गजल – ’कुछ याद रहे दिन वे… ’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दिन से भी कहीं ज्यादा रातें हमें प्यारी हैं

क्योंकि ये सदा लातीं  प्रिय याद तुम्हारी हैं।

मशगूल बहुत दिन हैं, मजबूर बहुत दिन है

रातों ने ही तो दिल की दुनियाँ  ये सॅंवारी हैं।

सूरज के उजाले में परदा किया यादों ने

दिन तो रहे दुनियाँ के, रातें पै हमारी है।

कुछ याद रहे दिन वे भड़भड़ में गुजारे जो

है याद मगर रातें तनहाँ जो गुजारी हैं।

कोई ’विदग्ध’ बोले, दिन में कहाँ मिलती है ?

रातों के अँधेरों में जो मीठी खुमारी है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला “स्वामी जी! मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ।”

स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा-सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा ‘‘तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।’’

आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी-खासी सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहूँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हांफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा कि  “यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ-सुथरे और बिना थके दिख रहे हो|”

तो व्यक्ति ने कहा “मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था लेकिन यह कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।”

स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा  “यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है वह ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।”

यही बात लगभग हम सब पर लागू होती है। प्रायः अधिकांश लोग हमेशा दूसरों की गलतीयों की निंदा-चर्चा करने, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या-द्वेष करने, और अपने अल्प ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करने के बजाय अहंकारग्रस्त हो कर दूसरों पर रौब झाड़ने में ही रह जाते हैं।

अंततः इसी सोच की वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं, और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है।

दूसरों से होड़ मत कीजिये, और अपनी मंजिल खुद बनाइये।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 95 – संवेदना ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 95 – संवेदना ☆

स्पंदनाने जागवली

संवेदना ही मनाची।

रास जणू जमलेली

जीवघेण्या वेदनांची।।धृ।।

 

व्यथा बालमनाची ही

कथा सांगे मजुरीची ।

मृत्यू दारी कुपोषित।

झुंज देई जीवनाची।

 

शिक्षणाच्या बाजारात

पैशाची हो चाले बोली।

पारडे हे गुणांचे हो

नेहमीच कसे खाली।

 

गर्भातच खुडलेल्या

नसे गणती कळ्यांना।

व्यापारात विवाहाच्या

सूरी लागेते गळ्यांना।

 

बेकारीच्या चरख्यात

आज हरे तरूणाई ।

ऐन उमेदीत कुणी

फासावर का जाई।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 125 ☆ कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 125 ☆

☆ कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य

कोरोना काल का नाम ज़हन में आते ही मानव दहशत में आ जाता है; उसकी धड़कने तेज़ी से बढ़ने लगती हैं और वह उस वायरस से इस क़दर भयभीत हो जाता है कि उसके रोंगटे तक खड़े हो जाते हैं। इस छोटे से वायरस ने संपूर्ण विश्व में तहलक़ा मचा कर मानव को उसकी औक़ात से अवगत करा दिया था। इतना ही नहीं, उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया था। ‘दो गज़ की दूरी; मास्क है ज़रूरी’ का नारा विश्व में गूंजने लगा था। सैनेटाइज़र व साबुन से हाथ धोने की प्राचीन परंपरा का अनुसरण भी इस काल में हुआ और बाहर से लौटने पर स्नान करने की प्रथा का भी पुन: प्रचलन हो गया। मानव अपने घर से बाहर कदम रखने से भी सकुचाने लगा और सब रिश्ते-नाते सहमे हुए से नज़र आने लगे। संबंध-सरोकार मानो समाप्त हो गए। यदि ग़लती से किसी ने घर में दस्तक दे दी, तो पूरे घर के लोग सकते में आ जाते थे और मन ही मन उसे कोसने लगते थे। ‘अजीब आदमी है, न तो इसे अपनी चिंता है, न ही दूसरों की परवाह… पता नहीं क्यों चला आया है हमसे दुश्मनी निभाने।’ इन असामान्य परिस्थितियों में उसके निकट संबंधी भी उससे दुआ सलाम करने से कन्नी काटने लगते थे। वास्तव में इसमें दोष उस व्यक्ति-विशेष का नहीं; कोरोना वायरस का था। वह अदृश्य शत्रु की भांति पूरे लश्कर के साथ उस परिवार पर ही टूट पड़ता था, जिससे उसका उस काल विशेष में संबंध हुआ था। इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत चल निकलता था और पता लगने तक असंख्य लोग इसकी गिरफ़्त में आ चुके होते थे।

कोरोना के रोगी को तुरंत अस्पताल में दाखिल करा दिया जाता था, जहां उसके सगे-संबंधी व प्रियजनों को मिलने की स्वतंत्रता नहीं होती थी और उन विषम परिस्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हो जाता था। उसके भीतर ऑक्सीजन की कमी हो जाती थी और वह एक-एक सांस का मोहताज हो जाता था। डॉक्टर व सहायक कर्मचारी आदि भी आवश्यक दूरी बनाकर उसे देखकर चले जाते थे तथा डर के मारे रोगी के निकट नहीं आते थे। अक्सर लोगों को तो अपने घर के अंतिम दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता था; न ही उसके परिवारजन भयभीत होकर उसके शव को देखने आते थे। दूसरे शब्दों में वह सरकारी संपत्ति बन जाता था और परिवार के पांच सदस्य दूर से उसके दर्शन कर सकते थे। सो! आत्मजों के मन में यह मलाल रह जाता था कि अंतिम समय में कोई भी रोगी के निकट नहीं था; जो उसके गले में गंगा जल डाल सकता। इतना ही नहीं, असंख्य लावारिस लाशों को श्मशान तक पहुंचाने व उनका अंतिम संस्कार करने का कार्य भी विभिन्न सामाजिक संस्थानों द्वारा किया जाता था।

इन असामान्य परिस्थितियों में कुछ लोगों ने खूब धन कमाया तथा अपनी तिजोरियों को भरा। आक्सीजन का सिलेंडर लाखों रुपये में उपलब्ध नहीं था। रेमेसिवर के इंजेक्शन व दवाएं भी बाज़ार से इस क़दर नदारद हो गये थे– जैसे चील के घोंसले से मांस। टैक्सी व ऑटो वालों का धंधा भी अपने चरम पर था। चंद किलोमीटर की दूरी के लिए वे लाखों की मांग कर रहे थे। लोगों को आवश्यकता की सामग्री ऊंचे दामों पर भी उपलब्ध नहीं थी। अस्पताल में रोगियों को बेड नहीं मिल रहे थे। चारों ओर आक्सीजन के अभाव के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई थी। परंतु इन विषम परिस्थितियों में हमारे सिक्ख भाइयों ने जहां गुरुद्वारों में अस्पताल की व्यवस्था की; वहीं आक्सीजन के लंगर चलाए गये। लोग लम्बी क़तारों में प्रतीक्षारत रहते थे, ताकि उन्हें ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राणों से हाथ न धोने पड़ें। बहुत से लोग अपने प्रियजनों के शवों को छोड़ मुंह छिपा कर निकल जाते थे कि कहीं वे भी कोरोना का शिकार न हो जाएं।

चलिए छोड़िए! ‘यह दुनिया एक मेला है/ हर शख़्स यहां अकेला है/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ यह है जीवन का शाश्वत् सत्य– इंसान दुनिया में अकेला आया है और अकेले ही उसे जाना है। कोरोना काल में गीता के ज्ञान की सार्थकता सिद्ध हो गयी और मानव की आस्था प्रभु में बढ़ गयी। उसे आभास हो गया कि ‘यह किराये का मकां है/ कौन कब तक ठहर पायेगा।’ मानव जन्म से पूर्व निश्चित् सांसें लिखवा कर लाता है और सारी सम्पत्ति लुटा कर भी वह एक भी अतिरिक्त सांस तक नहीं खरीद पाता है।

सो! कोरोना काल की दूसरी व तीसरी लहर ने विश्व में खूब सितम ढाया तथा करोड़ों लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। लॉकडाउन भी लगभग दो वर्ष तक चला और ज़िंदगी का सिलसिला थम-सा गया। सब अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गये। वर्क फ्रॉम होम का सिलसिला चल निकला, जो लोगों पर नागवार गुज़रा। जो लोग पहले छुट्टी के लिए तरसते थे; ट्रैफिक व रोज़ की आवाजाही से तंग थे और यही कामना करते थे… काश! उन्हें भी घर व परिवारजनों के साथ समय गुज़ारने का अवसर प्राप्त होता। अंततः भगवान ने उनकी पुकार सुन ली और लॉकडाउन के रूप में नवीन सौग़ात प्रदान की, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् वे सब सकते में आ गए। घर-परिवार में समय गुज़ारना उन्हें रास नहीं आया। पत्नी भी दिनभर पति व बच्चों की फरमाइशें पूरी करते-करते तंग आ जाती थी और वह पति से घर के कामों में सहयोग की अपेक्षा करने लगी। सबकी स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई और उस पर प्रश्नचिन्ह लग गए थे। सभी लोग तनाव की स्थिति में रहने और दुआ करने लगे…हे प्रभु! इस लॉकडाउन से मुक्ति प्रदान करो। अब उन्हें घर रूपी मंदिर की व्यवस्था पर संदेह होने लगा और उनके अंतर्मन में भयंकर तूफ़ान उठने लगे। फलत: वे मुक्ति पाने के लिए कुलबुलाने लगे।

1जनवरी 2020 से नवंबर 2021 तक कोरोना ने लोगों पर खूब क़हर बरपाया। इसके पश्चात् लोगों को थोड़ी राहत महसूस हुई। तभी ओमीक्रॉन के रूप में तीसरी लहर ने दस्तक दी। लोग मन मसोस कर रह गए। परंतु गत वर्ष अक्सर लोगों को वैक्सीनेशंस की दोनों डोज़ लग चुकी थी। सो! इसकी मारक शक्ति क्षीण हो गई। शायद! उसका प्रभाव भी लम्बे समय तक नहीं रह पायेगा। आशा है, वह शीघ्र ही अपनी राह पर लौट जाएगा और सामान्य दिनचर्या प्रारंभ हो जायेगी।

आइए! कोरोना के उद्गम के मूल कारणों पर चिन्तन करें…आखिर इसके कारण विश्व में असामान्य व विषम परिस्थितियों ने दस्तक क्यों दी? वास्तव में मानव स्वयं इसके लिए उत्तरदायी है। उसने हरे-भरे जंगल काट कर कंकरीट के महल बना लिए हैं। वृक्षों का अनावश्यक कटाव, तालाब व बावड़ियों की ज़मीन पर कब्ज़ा कर बड़ी-बड़ी कालोनियां के निर्माण के कारण भयंकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस प्रकार मानव ने अनावश्यक-अप्राकृतिक दोहन कर प्रकृति से खिलवाड़ किया और वह भी अपना प्रतिशोध लेने पर आमादा हो गई…कहीं सुनामी दस्तक देने लगा, तो कहीं ज्वालामुखी फूटने लगे; कहीं पर्वत दरक़ने लगे, तो कहीं बादल फटने से भीषण बाढ़ के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया। इतना ही नहीं, आजकल कहीं सूखा पड़ रहा है, तो कहीं ग्लेशियर पिघलने से तापमान में परिवर्तन ही नहीं; कहीं भूकम्प आ रहे हैं, तो कहीं सैलाब की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बेमौसमी बरसात से किसानों पर भी क़हर बरप रहा है और लोगों की ज़िंदगी अज़ाब बनकर रह गयी है; जहां मानव दो पल भी सुक़ून से नहीं जी पाता।

धरती हमारी मां है; जो हमें आश्रय व सुरक्षा प्रदान करती है। पावन नदियां जीवनदायिनी ही नहीं; हमारे पापों का प्रक्षालन भी करती हैं। पर्वतों को काटा जा रहा है, जिसके कारण वे दरक़ने लगे हैं और मानव को अप्रत्याशित आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। पराली जलाने व वाहनों के इज़ाफा होने का कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जिसके कारण मानव को सांस लेने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। प्लास्टिक के प्रयोग का भी असाध्य रोगों की वद्धि में भरपूर व असाधारण योगदान है। इतना ही नहीं–बच्चों का बचपन कोरोना ने लील लिया है। युवा व वृद्ध मानसिक प्रदूषण से जूझ रहे हैं। वे तनाव व अवसाद के शिकंजे में हैं और लॉकडाउन ने इसमें भरपूर इज़ाफा किया है।

काश! हमने अपनी संस्कृति को संजोकर रखा होता… प्रकृति को मां स्वीकार उसकी पूजा, उपासना, आराधना व वंदना की होती; संयुक्त परिवार व्यवस्था को अपनाते हुए घर में बुज़ुर्गों को मान-सम्मान दिया होता; बेटे-बेटी को समान समझा होता; बेटों को बचपन से मर्यादा का पाठ पढ़ाया होता, तो वे भी सहनशील होते। उन्हें घर में घुटन महसूस नहीं होती। वे घर को मंदिर समझ कर गुनगुगाते…’ईस्ट और वेस्ट, होम इज़ दी बेस्ट’ अर्थात् मानव विश्व में कहीं भी घूम ले; उसे अपने घर लौट कर ही सुक़ून प्राप्त होता है। वैसे तो लड़कियों को बचपन से कायदे-कानून सिखाए जाते हैं; मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाता है; घर की चारदीवारी न लांघने का संदेश दिया जाता है और पति के घर को अपना घर स्वीकारने की सीख दी जाती है। परंतु लड़कों के लिए कोई बंधन नहीं होता। वे बचपन से स्वतंत्र होते हैं और उनकी हर इच्छा का सम्मान किया जाता है। यहीं से चल निकलता है मनोमालिन्य व असमानता बोध का सिलसिला…जिसका विकराल रूप हमें कोरोना काल में देखने को मिला और गरीबों, श्रमिकों व सामान्यजनों पर इसकी सबसे अधिक गाज़ गिरी। उन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हुई। यातायात के पहिए थम गए और वे अपने परिवारजनों के साथ अपने घर की ओर निकल पड़े उन रास्तों पर, ताकि वे अपने घर पहुंच सकें। मीलों तक बच्चों को कंधे पर बैठा कर सामान का बोझा लादे, माता-पिता का हाथ थामे उन्होंने पैदल यात्रा की। तपती दोपहरी में तारकोल की सड़कों पर नंगे पांव यात्रा करने का विचार भी मानव को सकते में डाल देता है, परंतु उनके दृढ़ निश्चय के सामने कुछ भी टिक नहीं पाया। पुलिस वालों ने उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया, तो कहीं बल प्रयोग कर लाठियां मांजी, क्योंकि वहां जाकर उन्हें क्वारंटाइन करना पड़ेगा। जी हां! कोरोना व क्वारंटाइन दोनों की राशि समान है। सो! चंद दिनों की यात्रा उन लोगों के लिए पहाड़ जैसी बन गई। कई दिन की लम्बी यात्रा के पश्चात् वे अपने गांव पहुंचे, परंतु वहां भी उन्हें सुक़ून प्राप्त नहीं हुआ। चंद दिनों के पश्चात् उन्हें लौटना पड़ा, क्योंकि उनके लिए वहां भी कोई रोज़गार नहीं उपलब्ध नहीं था। कोराना ने जहां मानव को निपट स्वार्थी बना दिया, वहीं उसने मानव में स्नेह, सौहार्द व अपनत्व भाव को भी विकसित किया। असंख्य लोगों ने नि:स्वार्थ भाव से पीड़ित परिवारों की तन-मन-धन से सहायता की ।

आइए! करोना के दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें। करोना ने मानव को एकांत में आत्मावलोकन व चिंतन-मनन करने का शुभ अवसर प्रदान किया। वैसे भी इंसान विपत्ति में ही प्रभु को स्मरण करता है। कबीरदास जी की पंक्तियां ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोय/ जो सुख में सिमरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ के माध्यम से मानव को ब्रह्म की सत्ता को स्वीकारने व हर परिस्थिति में उसका स्मरण करने का संदेश प्रेषित किया गया है, क्योंकि वह मानव का सबसे बड़ा हितैषी है और सदैव उसका साथ निभाता है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है। सो! ‘जो आया है; अवश्य जाएगा। ऐ मन! भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह समां भी बदल जाएगा।’ आकाश में छाए घने बादलों का बरसना व शीतलता प्रदान करना अवश्यंभावी है। कोरोना ने ‘अतिथि देवो भव’ तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीन:’ की भावना को सुदृढ़ किया है। परिणामत: मानव मन में सत्कर्म करने की भावना प्रबल हो उठी, क्योंकि मानव को विश्वास हो गया कि उसे कृत-कर्मों के अनुरूप ही फल प्राप्त होता है। कोरोना काल में जहां मानव अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गया, वहीं उसने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के नवीन साधन भी खोज निकाले। इंटरनेट पर वेबीनारज़ व काव्य-गोष्ठियों का सिलसिला अनवरत चल निकला। विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया। लोगों को प्रतिभा-प्रदर्शन के विभिन्न अवसर प्राप्त हुए, जो इससे पूर्व उनके लिए दूर के ढोल सुहावने जैसे थे।

सो! मानव प्रकृति की दिव्य व विनाशकारी शक्तियों को स्वीकार उसकी ओर लौटने लगा और नियति के सम्मुख नत-मस्तक हो गया, क्योंकि एक छोटे से वायरस ने सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया था। अहं सभी दोषों का जनक है; मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहं को प्रभु चरणों में समर्पित कर देना– शांति पाने का सर्वोत्तम उपाय स्वीकारा गया है। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ ही जीवन का सत्य है और माया के प्रभाव के कारण ही वह नश्वर संसार सत्य भासता है। इसलिए मानव को सांसारिक बंधनों में लिप्त नहीं रहना चाहिए।

कोरोना काल में हर इंसान को शारीरिक व मानसिक आपदाओं से जूझना पड़ा–यह अकाट्य सत्य है। मुझे भी बीस माह तक अनेक शारीरिक आपदाओं का सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम कंधे, तत्पश्चात् टांग की हड्डी टूटने पर उनकी सर्जरी ने हिला कर रख दिया और एक वर्ष तक मुझे इस यातना को झेलना पड़ा। इसी बीच कोरोना की दूसरी लहर ने अपना प्रकोप दिखाया और लंबे समय तक ज़िंदगी व मौत से कई दिन तक जूझना पड़ा। उस स्थिति में प्रभु सत्ता का पूर्ण आभास हुआ और उसकी असीम कृपा से वह दौर भी गुज़र गया। परंतु अभी और भी परीक्षाएं शेष थीं। कैंसर जैसी बीमारी ने सहसा जीवन में दस्तक दी। उससे रूबरू होने के पश्चात् पुन: नवजीवन प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं प्रभु के प्रति हृदय से शुक्रगुज़ार हूं। मात्र दो माह पश्चात् साइनस की सर्जरी हुई। यह सिलसिला यहां थमा नहीं। उसके पश्चात् दांत की सर्जरी ने मेरे मनोबल को तोड़ने का भरसक प्रयास किया। परंतु इस अंतराल में प्रभु में आस्था व निष्ठा बढ़ती गयी। ‘उसकी रहमतों का कहां तक ज़िक्र करूं/ उसने बख़्शी है मुझे ज़िंदगी की दौलत/ ताकि मैं संपन्न कर सकूं अधूरे कार्य/ और कर सकूं जीवन को नई दिशा प्रदान।’ जी हां! कोराना काल में जो भी लिखा, उसके माध्यम से प्रभु महिमा का गुणगान व अनेक भक्ति गीतों का सृजन हुआ, जिसके फलस्वरूप आत्मावलोकन, आत्मचिंतन व आत्म-मंथन का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। मानव प्रभु के हाथों की कठपुतली है। वह उसे जैसा चाहता है; नाच नचाता है। सो! मानव को हर पल उस सृष्टि-नियंता का ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वही भवसागर में डूबती-उतराती नैया को पार लगाता है; मन में विरह के भाव जगाता है और एक अंतराल के पश्चात् मिलन की उत्कंठा इतनी प्रबल हो जाती है कि प्रभु के दरस के लिए मन चातक आतुर हो उठता है। मुझे स्मरण हो रही हैं अपने ही गीत की पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ अंतर प्यास गुहार रहा’ और ‘कब रे मिलोगे राम/ बावरा मन पुकारे सुबहोशाम’ आदि भाव मानव को प्रभु की महिमा को अंत:करण से स्वीकारने का अवसर प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, प्रभु ही मानव की इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संसार के प्रति वैराग्य भाव जाग्रत करते हैं। ‘चल मन गंगा के तीर/ क्यों वृथा बहाए नीर’ आदि भक्ति गीतों में व्यक्त भावनाएं कोरोना काल में आत्म-मंथन का साक्षात् प्रमाण हैं। इस अंतराल में सकारात्मक सोच पर लिखित मेरी चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं तथा आध्यात्म पर अब भी लेखन जारी है।

‘कोरोना काल में आत्म-मंथन’ पुस्तक के प्रथम भाग में कोरोना से संबंधित पांच आलेख व कविताएं संग्रहित हैं तथा द्वितीय भाग में कोरोना के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप श्रमिक व गरीब लोगों के पलायन से संबंधित कविताएं द्रष्टव्य हैं। तृतीय भाग में अध्यात्म व दर्शन से संबंधित भक्ति गीत व चिन्तन प्रधान कविताएं हैं, जो संसार की नश्वरता व प्रभु महिमा को दर्शाती हैं। उस स्थिति में मानव मन अतीत की स्मृतियों में विचरण कर निराश नहीं होता, बल्कि उसमें आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है। ‘समय बलवान् है/ सभी रत्नों की खान है/ आत्मविश्वास संजीवनी है/ साहस व धैर्य का दामन थामे रखें/ मंज़िल तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत है।’ मैं तो उसकी रज़ा के सम्मुख नत-मस्तक हूं तथा उसकी रज़ा को अपनी रज़ा समझती हूं। वह करुणानिधि, सृष्टि-नियंता प्रभु हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानता है। इसलिए उस पर भरोसा कर, हमें अपनी जीवन नौका को नि:शंक भाव से उसके हाथों में सौंप देना चाहिए। जब मैं इन दो वर्ष के अतीत में झांकती हूं, तो सबके प्रति कृतज्ञता भाव ज्ञापित करती हूं, जिन्होंने केवल मेरी सेवा ही नहीं की; मेरा मनोबल भी बढ़ाया। अक्सर मैं सोचती हूं कि ‘यदि प्रभु मुझे इतने कष्ट न देता, तो शायद यह सृजन भी संभव नहीं होता–न ही मन में प्रभु भक्ति में लीन होता और न ही उसअलौकिक सत्ता के प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव जाग्रत होता। सो! जीवन में इस धारणा को मन में संजो लीजिए कि उसके हर काम में भलाई अवश्य होती है। इसलिए संदेह, संशय व शंका को जीवन में कभी दस्तक न देने दीजिए, क्योंकि ‘डुबाता भी वही है/ पार भी वही लगाता है/ इसलिए ऐ बंदे! तू क्यों व्यर्थ इतराता/ और चिन्ता करता है।’ भविष्य अनिश्चित है; नियति अर्थात् होनी बहुत प्रबल है तथा उसे कोई नहीं टाल सकता। मैं तो वर्तमान में जीती हूं और कल के बारे में सोचती ही नहीं, क्योंकि होगा वही, जो मंज़ूरे-ख़ुदा होगा। वही सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा और हमारे हित में होगा। सो! अपनी सोच सकारात्मक रखें व निराशा को अपने आसपास भी फटकने न दें। समय परिवर्तनशील है, निरंतर द्रुत गति से चलता रहेगा। सुख-दु:ख भी क्रमानुसार आते-जाते रहेंगे। इसलिए निरंतर कर्मशील रहें। राह के कांटे बीच राह अवरोध उत्पन्न कर तुम्हें पथ-विचलित नहीं कर पाएंगे। इन शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूं। आशा है, यह पुस्तक आपको आत्मावलोकन ही नहीं, आत्म-चिन्तन करने पर भी विवश कर देगी और आप मानव जीवन की क्षण-भंगुरता को स्वीकार स्व-पर व राग-द्वेष की मानसिक संकीर्णता से ऊपर उठ सुक़ून भरी ज़िंदगी जी पाएंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 124 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  होली पर्व पर विशेष  “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 124 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

फसल प्यार की लग रही, आई खुशियां पास।

आँचल में उम्मीद के, हरदम जगती आस।।

 

कंचन काया देखकर, मन होता बेचैन।

मिलने को आकुल लगन, कब आएगा चैन।।

 

फसल खेत में पक गई,  सुंदर है खलिहान।

पाकर श्रम का पुण्यफल, खुश हो रहे किसान।।

 

धानी फसलें देखकर, मुस्काते खलिहान।

बढ़ता है भंडार गृह, करता काम किसान।।

 

माटी से सुंदर बने, काया सुभग अनूप ।

गढ़ता रूप कुम्हार जब, अपने ही अनुरूप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #114 ☆ साधौ हरि से हो गई प्रीत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साधौ हरि से हो गई प्रीत…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 114 ☆

☆ साधौ हरि से हो गई प्रीत…

जा दिन से लगि प्रीत साँवरे, मिल ग्यो मन को मीत

दिल में मोरे श्याम बसत हैं, बजे मधुर संगीत

लगो रहत चित चाक सदा ही, छोड़ी जग की रीत

बदल गए दिन मन मोहन से, गए बुरे दिन बीत

मन मयूरा झूम के नाचे, गाये हरि के गीत

श्याम शरण “संतोष”चाहता, करके काम पुनीत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविता # 117 – तो सागरी किनारा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 117 – विजय साहित्य ?

☆ तो सागरी किनारा  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

तो सागरी किनारा…

लग्नाआधी, लग्नानंतर, दोघांनाही

तितकाच जवळचा वाटायचा

जितका सागराला किनारा

अन किनाऱ्याला सागर,

परस्परांना आपलं समजायचा…!

सागरात काय दडलय,

याची प्रचंड उत्सुकता किनाऱ्याला.

सागराला देखील अनावर ओढ

आपल साम्राज्य, किनाऱ्याला बहाल करण्याची.

कधी धीर गंभीर… कधी रौद्र, वादळी,

तर कधी कधी खळाळत, उत्स्फूर्तपणे

सागर धाव घ्यायचा किनाऱ्याकडे.

उसळत्या लाटांचा, मर्दानी जोषात, सागराच येणं

त्याची गाज, बहाल केलेला,

शंखशिंपल्यांचा नजराणा पाहून, किनारा सुखावतो.

असा सालंकृत किनारा, सागराच्या भरतीन

सदा रहायचा आलंकृत, अन् प्रेमांकित देखील.

भरती ओहोटीच्या आपलेपणातून

किनाऱ्याच सुखवस्तूपण बहरायच.

त्याच्या तिच्या नात्याच प्रतिबिंबच लहरायचं

त्या सागर लाटांमधून…!

पतीपत्नीच्या नात्याला  कधी कधी

वैचारिक मतभेदान,  भरती ओहोटीला

सामोरे जाव लागायच, तेव्हाही…

तो सागर किनाराच द्यायचा आसरा

दोन भरकटलेल्या नावांना…

सांगायचा अनुभवी बोल

”भरती ओहोटी मधला काळ

तोच खरा कसोटीचा

या काळात, एकाने व्हायचं पसा

तर  दुसऱ्यानं व्हायचं दाता”. .!

उसळत्या सागराचा, 

अन सौदर्यशील किनाऱ्याचा

तो विहंगम भावसंवाद,

परस्परांना ओढ लावायचा

ना ते ना ते म्हणतानाही

भवसागरात जगायला शिकवायचा

नातं जोडून ठेवायचा

तो सागरी किनारा. . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! लग्नातला सुट ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

💃 लग्नातला सुट !😅

“पंत गुडमॉर्निंग !”

“गुडमॉर्निंग, गुडमॉर्निंग मोऱ्या, कसा आहेस ?”

“मी बरा आहे, पण तुमचा मूड एकदम खास दिसतोय आज मला !”

“खास म्हणजे काय बुवा, नेहमी सारखा तर आहे.”

“नाही पण नेहमी पेक्षा आज तुम्ही जास्त आनंदी दिसताय, काकू माहेरी वगैरे गेल्या की काय?”

“मोऱ्या उगाच अकलेचे दिवे पाजळु नकोस, अरे बायको माहेरी जाणार याचा आनंद तुझ्या सारख्या लग्नाला दोन वर्ष झालेल्या नवऱ्यांना होतो ! आमच्या लग्नाला तब्बल  चाळीस वर्ष झाली आहेत !”

“ते ठीक आहे पंत, मला फक्त तुम्ही एव्हढे खूष का ते सांगा, म्हणजे मी घरी जायला मोकळा.”

“मोऱ्या परवा लग्नाला गेलो होतो केळकरच्या मुलीच्या, तर….!”

“त्यात एवढा आनंद साजरा करण्या सारखं काय ?”

“तुला सांगतो असं लग्न मी माझ्या अख्या आयुष्यात अटेंड केलेले नाही मोऱ्या आणि या पुढे तशी शक्यताही नाही !”

“ते तर सांगाच, पण ते कोपऱ्यात स्पेस सूट सारखं काय पडलंय पंत ? तुमचा मुलगा नासा मध्ये काम करतो म्हणून काय US वरून स्पेस सूट मागवाल की काय ?”

“तेव्हढी अक्कल देवाने दिल्ये मला आणि तो स्पेस सूट नाही पण जवळ जवळ…. “

“तसंच काहीतरी आहे, पण ते काय आहे ते तुम्हीच…. “

“तेच तर सांगतोय तुला, पण मला बोलू तर देशील का नाही मोऱ्या ?”

“सॉरी, सॉरी पंत बोला !”

“अरे मी तुला मगाशीच म्हटलं ना, की परवा केळकरच्या मुलीच्या लग्नाला गेलो होतो तिथे….. “

“हे सूट वाटत होते की काय पंत ?”

“मोऱ्या आता एक काम कर, आमचा  पेपर आणला असशील तर तो दे आणि चालायला लाग !”

“पंत खरंच सॉरी, आता नाही तुम्हाला अडवत, बोला तुम्ही.”

“अरे असं बघ सध्या कोरोनाची साथ चालू आहे, त्यात लग्नाचा मुहूर्त, सगळी तयारी वर्ष सहा मिहिन्यापासून चालू होती केळकराची आणि त्यात हा नेमका कोरोना तडफडला.”

“हो ना !”

“पण केळकर डगमगला नाही. त्यानं मुलाकडच्या लोकांना ठणकावून सांगितल, लग्न ठरल्या प्रमाणे होणार म्हणजे होणारच.”

“आणि लग्न ठरल्या प्रमाणे झालं, हे कळलं, पण त्या स्पेस सूटच कोडं काय ते तरी सांगाल का आता ?”

“तू म्हणतोयस तसा हा स्पेस सूट वगैरे काही नाही, पण कोरोना पासून रक्षण करायला हा हॉस्पिटलमधे डॉक्टर लोक वापरतात तसलाच आहे हा PPE सूट आहे !”

“अस्स, मग तो तुमच्यकडे कसा आला, तुम्ही तर साधे भोंदू वैदूही नाही !”

“मी रागवत नाही म्हणून उगाच फालतू विनोद नकोयत, अरे हा मला परवाच्या केळकराच्या लग्नात मिळाला.”

“तुमचे एकवीसचे पाकीट कितीतरी पटीने वसूल झाले म्हणायचे पंत !”

“ते सोड, पण मला एकट्यालाच नाही तर लग्नाला आलेल्या सगळ्याच वऱ्हाडी मंडळीना हा PPE सुट मिळाला !”

“काय सांगता काय पंत ? पण हा सूट प्रत्येकाला देण्यामागच कारण काय ?”

“अरे आजकाल कोरोनाचा सगळ्यांनी धसका घेतला आहे ना, त्यापासून बचाव नको का व्हायला मोऱ्या.”

“अहो पंत पण त्यासाठी साधं हॅन्ड सॅनिटायझर पण चाललं असतं की !”

“अरे त्याच्या पण प्रत्येकाला एक एक डझन बाटल्या दिल्या केळकराने, आहेस कुठे ?”

“केळकरांची खरच कमाल आहे म्हणायची. पण पंत सगळेच वऱ्हाडी सूट घालून आले असतील तर त्यांनी एकमेकांना कसं काय बुवा ओळखल?”

” मोऱ्या तो सूट नीट बघितलास तर तुला कळेल, की माझ्या नावाची नेम प्लेट आहे त्या वर.”

“हां, आत्ता दिसली मला ती. पण मग एकमेकांशी बोलतांना काही… “

“काहीच प्रॉब्लेम आला नाही, त्या सूटच्या आत तोंडा जवळ एक छोटा माईक बसवला आहे आणि काना जवळ इयर फोन!”

“अरे व्वा, पण सध्या जमाव बंदी आहे आणि लग्न म्हटलं की 500-600 लोक आले असणारच लग्नाला !”

“तेच तर सांगतोय ना मोऱ्या, केळकर म्हणजे बड खटलं !  पठयाने एका हॉटेल मधल्या शंभर रूम बुक केल्या होत्या.”

“म्हणजे अख्ख हॉटेलच म्हणा की.”

“तसंच काहीस आणि एका एका रूम मधे सूट घालून फक्त पाच पाच लोक, म्हणजे जमावबंदी… “

“मोडायचा प्रश्नच नाही. पण मग लग्न कसं काय अटेंड केल लोकांनी, वेगवेगळ्या शंभर रूम मधे बसून ?”

“अरे प्रत्येक रूम मधे टीव्ही असतो हे विसरलास की काय ?”

“ओके, ओके, म्हणजे सगळ्या वऱ्हाड्यांनी वेगवेगळ्या रूम मधे बसून आपापल्या रूम मधल्या टीव्हीवर लग्न… “

“सोहळा याची देही याची डोळा पहिला, कळलं !”

“अच्छा, पण मग नवरा नवरीवर अक्षता टाकायचा प्रश्नच आला नसेल ना ?”

“वेडा आहेस का तू ? अरे प्रत्येक रूम मधे दोन पेट्या ठेवल्या होत्या, इयर फोनवर भटजींच सावधान ऐकू आले की, एका पेटीतल्या अक्षता दुसऱ्या पेटीत टाकायच्या मग ती पेटी……”

“कळलं, नंतर सगळ्या पेट्या एकत्र करून नवरा नवरीच्या रूमवर पोचवणार, ते ठीक, पण मग तुम्ही तुमच एकवीसच अहेराच पाकीट कसं काय दिलंत ?”

“अरे त्यासाठी देवळात जशी दानपेटी असते, तशी स्लिटवाली पेटी होती, त्यात प्रत्येकाने आपापली अहेराची पाकीट…. “

“टाकायची मग पुढचे सारे सोपस्कार अक्षतांच्या पेट्यां प्रमाणे, बरोबर ना ?”

“आता तुला कळायला लागलं आहे थोडं थोडं.”

“पण पंत तुम्ही सर्व लग्न समारंभ, एकवीसचे पाकीट देवून ज्यासाठी अटेंड करता त्या उदरभरणाची काय सोय होती ते नाही सांगितलत !”

“केळकराने ती सोय काय झकास केली होती मोऱ्या, खरच हुशार आहे पठया.”

“तेच तर विचारतो आहे की… “

“अरे त्या PPE सुटला पोटाच्या जागी दोन खण आहेत.  एका खणा मध्ये लंच प्याक केला होता, दोन दोन स्वीट्स सकट आणि दुसऱ्यामधे मिनरल वॉटरची बाटली, आता बोल !”

“हो पण जेवण कुठे आणि कसं करायच तो सगळा सूट घालून ?”

“वेडा आहेस का तू ? अरे लग्न लागलं आणि सगळे वऱ्हाडी आपल्याला घरी जाऊनच जेवले !”

“हो, तेही बरोबरच म्हणा, उगाच एकमेकांच्या संपर्कात यायला नकोत कोणी ! बरं मी निघतो आता पंत, ऑफिसला जायला उशीर होतोय.”

“थांब मोऱ्या, त्या सूटचा आता मी रिटायर असल्यामुळे काहीच उपयोग नाही, म्हणून तो सूट उचल आणि घरी घेऊन जा आणि ऑफिसला जाताना नक्की घाल, कारण मुंबईची लाईफ लाईन अजून तरी चालू आहे !”

“थँक्स पंत, पण मी एवढा अप्पलपोटा नाही.”

“यात कसला आला आहे अप्पलपोटेपणा ?”

“कसला म्हणजे, मी सूट घालून ट्रेन मधून प्रवास करायचा आणि बायकोने मात्र… “

“अरे तिच्यासाठी पण एक सूट आहे माझ्याकडे.”

“तो कसा काय ?”

“अरे मगाशी मी तुला काय म्हटलं मोऱ्या, सगळ्या वऱ्हाडी मंडळींना एक एक सूट दिला म्हणून.”

“हो मग त्याच काय ?”

“अरे मोऱ्या ही पण त्या लग्नाला आली होती ना, तेव्हा तिला पण एक सूट मिळाला आहे, तो तुझ्या बायकोला दे ऑफिसला जातांना, मग तर झालं !”

“धन्य आहे तुमची पंत !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

२५-०३-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 92 ☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना बदलते समीकरण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 92 ☆

☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

आवेश में दिया गया आदेश खाली रह जाता है। ऐसा मैंने नहीं कहा ये तो भुक्त भोगी कहते हुए देखे व सुनें जा सकते हैं। कहते हैं, कार्यों का परिणाम जब आशानुरूप होता है तो मन सत्संगति की ओर चला ही जाता है।

दिव्य शक्ति के प्रति विश्वास आपको एक नयी ऊर्जा से भर देता है, जो कुछ हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो और अच्छा होगा ऐसी सोच  जीने की चाहत को बढ़ाती है।  मन में उमंग हो तो वातावरण सुखद लगता है। किन्तु इन सबमें हारे हुए सिपाही कुछ अलग ही गाथा कहते हुए दिखाई देते हैं।

कुछ लोग इतने निराशावादी होते हैं कि पूरे जीवन भर न तो खुद  करते हैं न किसी को करने देते हैं। जब एक- एक बूंद जुड़कर महासागर  बन सकता है तो थोड़ा- थोड़ा  अनवरत किया गया परिश्रम क्या  जिंदगी को नहीं  बदल सकता ?

इसी उधेड़बुन में दिमाग़  उलझा हुआ था तभी सजगनाथ जी आ पहुँचे।

सजगनाथ जी अपने नाम के अनुरूप हमेशा सजग रहते, आखिर रहे भी क्यों न ? इधर का उधर करना उनकी आदत में शुमार था। पहले तो पुस्तकों को पढ़कर फिर दूसरे का लेख अपने नाम से करने में कुछ मेहनत तो लगती है थी किन्तु जब से तकनीकी ज्ञान से जुड़े तब तो मानो  सारा साहित्य ही उनकी  मुट्ठी में आ गया या ये भी कहा जा सकता है कि बस एक क्लिक करने कि देर  और कोई भी रचना उनके नाम से तैयार ।

अब तो सजग साहब हमेशा ही काव्यपाठ,  उद्घाटन व अन्य समारोह में व्यस्त रहते। एक दिन  अखिलभारतीय स्तर के काव्य पाठ में उनको बुलाया गया वहाँ बड़े- बड़े नेता जी भी आमंत्रित थे   अब तो सजग साहब बड़े घमंड से संचालन करने बैठे उन्होंने  जैसे ही पहली पंक्ति पढ़ी तो लोग वाह- वाह करने लगे तभी  मंच से एक कवि बोल पड़ा अरे सजग  दादा यही कविता तो मुझे पढ़नी है इसे आप बोल दोगे तो मैं क्या करूँगा उन्होंने  बात सम्भालते हुए कहा बेटा तुम्हारे लिए ही तो भूमिका बना रहा था पर क्या करें ये नई पीढ़ी का जोश भी जल्दी होश खो देता है। ये बात तो जैसे- तैसे निपटी पर जैसे ही उन्होंने दूसरी कविता की पंक्ति पढ़ी तो दर्शक दीर्घा से एक महिला उठ खड़ी हुई  अरे ये क्या यह कविता  तो   प्रसिद्ध  छायावादी रचनाकार की है, आप इसे अपनी बता कर श्रोताओं को  उल्लू बना रहे हैं।

तभी पीछे से आवाज़ आयी सज़ग  नाथ जी अब श्रोता भी सजग हो गए हैं, केवल आप ही फेसबुक में रचनाएँ नहीं पढ़ते हम  लोग भी पढ़ते हैं साहब।

खैर ये सब तो उनके लिए कोई नई बात तो थी नहीं ऐसी मुसीबतों से निपटना वो अच्छी तरह जानते थे।

कार्यक्रम बड़े जोर शोर से चल रहा था।  उनकी सजगता  श्रोताओं को बाँधे हुए थी अब सजगनाथ जी के काव्यपाठ की बारी आयी  उनको बड़े आदर सत्कार से एक वरिष्ठ कवि ने आमन्त्रित किया,   आते ही उन्होंने  बड़ी- बड़ी भूमिका बाँधी फिर दो लाइन कविता की बोली, फिर वही हास्य से परिपूर्ण चर्चा शुरू की फिर दो पंक्ति पढ़ी  उसमें भी ये दो पंक्ति उनकी नहीं मशहूर शायरों की थी पूरे एक घण्टे उन्होंने मंच पर काव्यपाठ किया  (संचालन का समय अतिरिक्त) पर स्वरचित पंक्ति के नाम पर कुछ भी नहीं केवल मुस्कुराहट बस उनकी थी बाकी सब कुछ  साहित्यतेय स्तेय था। ऐसा ही सभी क्षेत्रों में होता हुआ दिखाई देता है – क्या नेता क्या अभिनेता।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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