(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरण “चिंता और चिंतन… ”।)
☆ संस्मरण # 132 ☆ चिंता और चिंतन… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
गांव का खपरैल स्कूल है, सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं। फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं, फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।
मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं। हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं। पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं। अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना, सो हमने कह दिया पाँच साल…
बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं, पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं। दुर्गा पंडित जी ने बोला पाँच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे। फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा। कान पकड़ में नहीं आया, तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं, सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया। पहले दिन स्कूल देर से पहुँचेतो घुटने टिका दिया गया, सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी , गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी। मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की और हमारी ओर देखा।
बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा। अपने आप चली आयी नियमितता,अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा, कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा, फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए …
आज अखबार में पढ़ते हैं, मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया… स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया… स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला … स्कूल के मास्टर ने ट्यूसन के दौरान बेटी की इज्जत लूटी … और न जाने क्या … क्या … !
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# क्षमा #”)
☆ विचार–पुष्प – भाग १२- संगीत -१ ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
महाविद्यालयात शिकत असताना गंभीर विषयावरील ग्रंथ वाचनाच्या खालोखाल नरेंद्रच्या आयुष्यात स्थान होतं ते संगीताला. तो स्वत: संगीताचा आनंद घेत असे आणि इतरांनाही तो तेव्हढ्याच मुक्तपणे देत असे. अनेक वेळा मित्र जेंव्हा आग्रह करत असत तेंव्हा, नरेंद्र लगेच प्रतिसाद देत असे. त्याचा सूर लागला की सगळीकडे निस्तब्ध शांतता पसरून त्या स्वरमाधुर्यात सगळेजण डुंबून जात.
विश्वनाथबाबूंनी नरेंद्रचा शास्त्रीय संगीताचा अभ्यास रायपूरच्या वास्तव्यातच सुरू केला होता. त्याला अनेक भाषेतली गीतं शिकवली होती. त्यांनी नरेंद्रला, ध्रुपद, धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, बंगाली कीर्तन शामसंगीत व बाउल संगीत हे लोकसंगीताचे प्रकार पण शिकविले. नरेंद्रची ही तयारी करून घेतल्यावर त्यांनी कलकत्त्याला परतल्यावर, पुढे योग्य गुरूंकडे रियाझ आणि धडे घेण्यासाठी व्यवस्था केली होती. आई भुवनेश्वरीदेवीं चा आवाज पण चांगला होता. आई वडिलांच्या सान्निध्यात तसे संगीताचे संस्कार नरेंन्द्रवर लहानपणापासूनच होत होते. लहानपणी आपली आज्जी रायमणीच्या घरात त्याचा कधी कधी रियाझ चालत असे. दत्त घराण्याला संगीताचं वरदान लाभल होतं. सन्यासी झालेले नरेंद्रचे आजोबा दुर्गाप्रसाद उत्तम गायक होते. त्यांचा वारसा विश्वनाथबाबू चालवत होतेच. ते दर आठवड्याला गुणीजनांना बोलवून त्यांच्या बैठका भरवायचे, सर्वदूर प्रवासात संगीतातले नवनवीन प्रकार ऐकून व पाहून आल्यावर तसे संगीत, गायकांना ऐकवायचे. असे म्हणतात की, ‘ठुमरी’ प्रकार बंगाल मध्ये विश्वनाथ बाबूंनीच परिचित करून दिला.
तीव्र बुद्धिमत्तेबरोबर रसिकता आणि अभिजात अभिरुची हे गुण असल्यानेच युवावस्थेत येता येताच नरेंद्रने गायन वादन कौशल्य आत्मसात केले होते आणि कुटुंबातही याची ख्याती पसरु लागली. त्याच्या धीरगंभीर आणि सुरेल आवाजाने लोक आकर्षित होत. “स्वरांच्या माध्यमातून त्यातील सौंदर्याच्या आविष्कारा बरोबरच रसिक श्रोत्यांच्या मनात विशिष्ट भाव निर्माण झाला पाहिजे. श्रोत्यांची आणि स्वत: गायकाची अशी भावसमाधी लागणे, गायनाचे सूर थांबल्यावरही तिचा परिणाम श्रोत्यांच्या मनात रेंगाळत राहणे आणि त्यांचे मन एका उदात्त वातावरणात पोहोचणे हे संगीताचे खरे उद्दीष्ट आहे” असे नरेंद्रचे मत होते. त्यांचा हा व्यासंग केवळ मैफिली पुरताच मर्यादित नव्हता.
श्री रामकृष्ण परमहंस आणि नरेंद्र ची पहिली भेट झाली त्याचं कारण, नरेंद्रचं गाणं हेच होतं. नरेंद्रचं संगीत हेच या दोघांच्या मधल्या अतूट संबंधांचा सेतू होता.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘नेताजी का विकास-मंत्र’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 135 ☆
☆ व्यंग्य – नेताजी का विकास-मंत्र ☆
नेताजी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलायी है। नेताजी नाराज़ हैं क्योंकि लोग खुलेआम कहते हैं कि सूबे का विकास नहीं हुआ। न बिजली है न पानी, न आवागमन के लिए सड़कें। न लड़कों को रोज़गार। कहते हैं सूबा उन्नीसवीं सदी में अटका है। विकास के नाम पर नेताजी के कुनबे का विकास हुआ है।
नेताजी का मानना है कि जनता एहसान- फरामोश है। इतना विकास करने के बाद भी आलोचना करती है। इसीलिए आलोचकों का मुँह बन्द करने के लिए नेता जी ने प्रेस को बुलाया है।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताजी के दोनों तरफ तीन तीन मंत्री बैठे हैं। संयोग से इन छः में से दो उनके भाई और तीन उनके बेटे हैं। छठवाँ मंत्री नेताजी का साला है।
कॉन्फ्रेंस में नेता जी फरमाते हैं, ‘मेरे कुछ विरोधियों ने ये बातें फैलायी हैं कि सूबे का विकास नहीं हुआ है। मैं आज इन्हीं बातों का जवाब देना चाहता हूँ। आप लोग मेरी बात को समझें और मेरी बातों को जनता तक पहुँचायें ताकि वे किसी के बहकावे में न आयें।’
‘अभी जो सूबे में पैंतीस मंत्री हैं उनमें से अट्ठाइस या तो मेरे खानदान के हैं या मेरे रिश्तेदार हैं। लोग इसे वंशवाद कहते हैं लेकिन मेरा कहना यह है कि मैंने अपने परिवार वालों को इसलिए मंत्री बनाया है ताकि प्रशासन पर मेरी पकड़ मजबूत रहे और साधनों का अपव्यय या भ्रष्टाचार न हो। जब विकास का सारा काम मेरे खानदान के पास होगा तो भ्रष्टाचार कौन करेगा? मेरी दो बहुएँ सांसद हैं। उन्हें भी इसीलिए संसद में भेजा है ताकि वे सूबे के हित में अपनी आवाज उठाती रहें और सूबे के विकास में केन्द्र सरकार की मदद मिलती रहे। तीसरे बेटे की शादी अगले साल होगी, तब संसद में हमारे सूबे का प्रतिनिधित्व और बढ़ेगा। आज अगर प्रशासन के हर महकमे में मेरे कुनबे के लोग बैठे हैं तो उसका फायदा यह है कि हम उनके कान पकड़कर सूबे का विकास करा सकते हैं। जनता के दुख दर्द को हमारे खानदान से बेहतर कौन समझ सकता है?’
‘जो लोग हम पर विकास न करने का आरोप लगाते हैं वे सब झूठे हैं। हमारे खानदान ने सूबे का जैसा विकास किया है वैसा देश में कहाँ मिलेगा? आज से पच्चीस साल पहले हमारे खानदान के पास क्या था? खाने के लाले थे। आज हमारे पास कई मॉल हैं, फाइव-स्टार होटलों की चेन है, चार मल्टीप्लेक्स हैं, छः फार्महाउस हैं, दो अखबार और दो टीवी चैनल हैं, सौ से ज्यादा बसें और इतने ही ट्रक हैं, जो दिन रात सूबे के विकास के लिए दौड़ रहे हैं।’
‘जो लोग सूबे में बिजली-पानी का रोना रोते हैं वे हमारे मॉलों और होटलों में आयें। सब चौबीस घंटे जगमगाते हैं। आधे घंटे को भी बिजली नहीं जाती। हर मॉल और होटल में शुद्ध मिनरल वाटर मिलता है। हमारे आलोचक पता नहीं कहाँ सूँघते फिरते हैं।’
‘हमने अपने होटलों, मॉलों, फार्महाउसों, बसों, ट्रकों में हजारों नौजवानों को रोजगार दिया है। पचीसों आदमी तो सिर्फ हमारे खानदान के सयानों के पैर दबाने और हुक्का भरने के लिए रखे गये हैं। इसके अलावा हमारे खानदान ने तीन इंटरनेशनल स्तर के स्कूल और इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट कॉलेज और होटल मैनेजमेंट कॉलेज खोले हैं, दो सुपर स्पेशेलिटी अस्पताल खोले हैं जहाँ बड़े-बड़े डॉक्टर जनता की सेवा के लिए एक पाँव पर खड़े रहते हैं। स्कूलों का हर क्लासरूम ए.सी. है। यह सब किस लिए किया? इसलिए कि हमारे नौजवान शिक्षित और स्वस्थ हों। शिक्षा और स्वास्थ्य ही न हो तो विकास कहाँ से होगा? हम लगातार नये विषयों के कॉलेज खोल रहे हैं। आप विषय बताइए, हमारे बेटे कल बोर्ड टाँग कर एडमीशन शुरू कर देंगे। विकास के काम में देरी हमें बर्दाश्त नहीं। हमारे बेटे-भतीजे दूसरे देशों के चक्कर लगाते रहते हैं ताकि सूबे के विकास के नये तरीके लाये जा सकें। हमारे लिए आराम हराम है। हम अपने भाइयों, बेटों, भतीजों, बहुओं के लिए आपका और जनता का आशीर्वाद चाहते हैं ताकि वे ऐसे ही सक्रिय और सूबे के विकास के प्रति समर्पित बने रहें।’
‘हमने अपने बेटों-भतीजों को समझा दिया है कि ज्यादा से ज्यादा विकास-पुरुष पैदा करें जो होश सँभालते ही विकास के यज्ञ में लग जाएँ। अभी सूबे में विकास की बहुत गुंजाइश है। हमें अपने सूबे को विकास के शिखर पर खड़ा करके आलोचकों को मुँहतोड़ जवाब देना है। जय हिन्द। भारत माता की जय।’
Anonymous Litterateur of Social Media # 87 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 87)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 133 ☆ राम, राम-सा..! ☆
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,
सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।
राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।
विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।
राम का शाब्दिक अर्थ हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।
राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर, अथवा उन पर भी लागू थे। फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए।
वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे। सिंहासन के लिए अपने भाइयों और पिता की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।
भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’ लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर, मुझे तो केवल घाव हुआ, वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’
यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।
शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? ”
इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’
समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी, सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…! कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।
राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।
प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न धन से खाली होता है विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है, यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर रविदास लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्रासद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है। ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते हैं उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है। कहा भी गया है कि-
विभुक्षितम् किं न करोति पापम्।
अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से पीड़ित मानव कौन जघन्यतम नहीं करने के लिए विवश होता।
लेकिन वहीं परिवार जब श्रद्धा आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण उतर आता है तो भगवान को भी मजबूर कर देता है झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है कम से कम सुदामा और कृष्ण का प्रसंग त़ो यही कहता है।
देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोए |
पानी परात को हाथ छुयो नहि नैनन के जल सो पग धोए।।
जो भगवान भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं।
भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है। यहां तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रबलता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रा दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है जब कि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम लगन कर्मनिष्ठा समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जब की धन की भूख इंसान में लोभ जगाती हैं।इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता व्यक्ति के आत्मसंम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान के भाव को जगाती भी है। इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।
और तो और संत कबीर दस जी धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि
कबीरा सब जग निर्धना, धनवंता न कोय ।
धनवंता सो जानिए, जिस पर रामनाम धन होय।।
इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।
अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु दीनदयाल दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “इंतज़ार…”।)