(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता “शस्य श्यामला माटी”.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “कोई बात नहीं…”।)
☆ तन्मय साहित्य #127 ☆
☆ लघुकथा – सम्मान – सुरक्षा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
“हम जरा बाहर जा रहे हैं, पिताजी!”
बहु के साथ दरवाजे से निकलते हुए बेटे ने कहा।
“ठीक है बेटे।”
“कुछ लाना तो नहीं है आपके लिए?”
“नहीं।”
“लौटने में हमें कुछ देर हो सकती है”
“कोई बात नहीं”
भले ही बच्चे पूछते नहीं है अब मुझसे, पर बता के तो बाहर जाते हैं, सोचते हुए बुजुर्ग सुखलाल इसी में संतुष्ट थे।
यह अलग बात है कि, घर से निकलते समय उनके लिए यह बताना भी कितना जरूरी रहता है कि,
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता “खुशियों की बरसात”।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी # 104 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 15 – राजा मारै गाँव कौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
अथ श्री पाण्डे कथा (15)
राजा मारै गाँव कौ, कहन कौन सौं जाय।
बाड लगाई खेत खौं , बाड खेत खौं खाय ॥
शाब्दिक अर्थ :- यदि गाँव का प्रमुख ग्राम के निवासियों के साथ अत्याचार करने लगे तो ग्रामीण किससे शिकायत करने जाएँगे। बाड़ खेत की रक्षा करने के लिए होती है अब यदि बाड़ ही खेत को खा जाय तो क्या किया जा सकता है।
रामायण को हिरदेपुर आए 15 वर्ष हो गए और उन्होने सजीवन का विवाह भी महोबे जाकर कर दिया। विवाह के दो तीन वर्ष बाद भोला का जन्म हुआ और रामायण पाण्डे पितामह बन गए। दुर्भाग्य से भोला के जन्म के दो वर्ष के अंदर ही रामायण पाण्डे और उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और मंदिर की सारी व्यवस्था अपने पिता की ही भाँति सजीवन देखने लगे। यह सब साल 1925 के आसपास की घटनाएँ थी। महात्मा गांधी के किस्से सारे देश में सुने और सुनाए जाने लगे थे और दमोह भी उससे अछूता न था। अंग्रेजों और उनके द्वारा नियुक्त कर्मचारियों व जमींदारों से त्रस्त जनता गांधीजी की बातें कर स्वयं को दिलासा देती और ऐसी चर्चाओं में सजीवन पाण्डे भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते।
साल 1933 की दीवाली के बाद चर्चा फैली कि महात्मा गांधी दमोह आने वाले हैं। फिर क्या था सारे शहर में माहौल बनते देर न लगी। सजीवन का स्टेशन की शंकर जी की मड़ैया पर नित्य आना जाना था। वहाँ से वे नया नए समाचार लाते। संझा बेला हिरदेपुर के मंदिर में चौपाल लग उठती और सजीवन पाण्डे दो-चार भजन सुनाने के बाद गांधी आगमन की चर्चा करना न भूलते।
‘काय पंडितजी दमोह में का खबर है सुन रय गांधी बब्बा आवे वारे हें।‘ एक ग्रामीण ने पूंछा
‘हओ दो दिसंबर की तारीख मुकरर भाई हेगी अहीर भइया।‘ सजीवन ने जबाब दिया।
‘जे गांधी बब्बा को आयें और दमोह का करबे आ रए।’ रज्जु काछी ने पूंछा
अरे वे बड़े महात्मा हें, अंग्रेजन से लड़ रय। देश में सुराज आबे वारो हेगों। ‘ चौपाल में से कोई बोला।
‘सुनी है उनने चंपारण में और गुजरात में किसानन के लाने भारी अंदोलन करो।‘ एक और आवाज आई
‘हाँ भाइयो महात्मा गाँधी गढ़ाकोटा से होते हुये दमोह आएँगे और रास्ते में हमारा गाँव भी पड़ेगा हमे उनके स्वागत की तैयारी करनी है।‘ ऐसा कह सजीवन ने चौपाल समाप्ति की घोषणा कर दी।
गाँव में शूद्र भी अच्छी खासी संख्या में रहते थे और बड़ी दरिद्री का जीवन यापन करते थे, चौपाल व पंचायत में तो आते पर कहीं दूर बैठ बाते सुनते। बोलने का अधिकार उन्हे न था। जब गांधीजी के स्वागत की बात चौपाल में तय हुयी तो सजीवन पाण्डे ने ठाकुर साहब से विनती करी
‘राजा अपने गाँव के शूद्रन खों भी गांधी बब्बा के स्वागत के लाने इक्क्ठे होबे को हुकुम जारी कर देव।“
‘अरे वे का करहें उते आके, उन्हे इन सब बातों की का समझ।‘ ठाकुर साहब ने अनमने ढंग से कहा।
‘राजा दमोह में खबर हेगी की गांधी बब्बा इनयी औरन के लाने जा यात्रा कर रय हें।‘ सजीवन बोले।
‘पंडतजू जे ओरें ढ़ोर हें इन्हे खेतन में काम कर्ण देओ, मारे पै मर्दन चढाबे की कोशिश ने करो (निर्बल को सबल बनाने की कोशिश मत करो) ।‘ ठाकुर साहब ने थोड़ी झुझंलाहट के साथ कहा।
‘राजा जे ओरें भी तुमाई परजा हें, पंडितजी महराज साँची के रय हेंगे, उनकी बात मान लेओ।‘ बटेशर यादव, परम लाल काछी ने भी सजीवन की बात का समर्थन कर दिया।
सभी की राय को स्वीकार करने के अलावा ठाकुर साहब के पास कोई चारा न रहा और उन्होने परमा कोरी तथा धनुआ चमार को गांधीजी के स्वागत कार्यक्रम में सब लोगों को लेकर आने का हुकुम दे दिया।
फिर क्या था गाँधीजी के आगमन के दिन हिरदेपुर को खूब सजाया गया, रास्ते के दोनों ओर केले के बड़े बड़े तने गाड़े गए आम के पत्तों के बंदनवार सजाये गए और रास्ते में तरह तरह के फूल बिछाए गए। सारा गाँव क्या स्त्री क्या पुरुष, क्या बूढ़े क्या जवान सब सड़क के दोनों ओर लाइन बनाकर खड़े हो गए। सजीवन पाण्डे और उनकी भजन मण्डली गाने लगी ‘ गाँधी बब्बा आएँगे हमारे कष्ट हरेंगे।‘
गांधीजी का काफिला जब हिरदेपुर गाँव से गुजरा तो सजीवन पाण्डे भी उसके पीछे पीछे दमोह की ओर चल दिये। गांधीजी तो हरिजन सेवक संघ के द्वारा तय कार्यक्रम के अनुसार हरिजन बस्ती में एक गुरुद्वारे की नीव रखने चले गए। सजीवन पाण्डे गल्ला मंडी के सभास्थल पर पहुँच गए। जनता में भारी उत्साह था सब तरफ लोग ही लोग नज़र आ रहे थे और गांधी जी के जयकारे की गूँज के अल्वा कुछ सुनाई न देता था। शाम होते होते गांधीजी सभा स्थल पर पहुँच गए और फिर उनका भाषण चालू हुआ। वे खूब बोले पर सबसे ज्यादा ज़ोर हरिजनों को लेकर रहा। गुरुद्वारे की नीव रखने की चर्चा की और जनता से कहा की भगवान के मंदिर हरिजन भाइयों के लिए खोल दे। सभा से लौटते हुये सजीवन ने मन ही मन तय कर लिया कि हिरदेपुर के गरीबा बसोर व उसकी बस्ती के निवासियों को अब वे शूद्र नहीं हरिजन मानेंगे और मंदिर में अपने इन भाइयों के प्रवेश के लिए गाँव के सभी लोगों को तैयार करेंगे। अपनी कुटिया में वे पहुँचे ही थे कि पंडिताइन ने उलाहना दिया कि ‘किधर निकाल गए थे अच्छा हुआ कि तुम्हारे दमोह निकल जाने की बात कटोरीबाई खबासन ने हमे बता दी।‘ सजीवन ने भी पंडिताइन को पूरा हाल सुनाया और अपने संकल्प की बात भी कह दी।
‘भोला की अम्मा अब अपने मोड़ा को नाव आज से मोहन दास रख दओ हमने।‘ सजीवन बोले
‘नई भोला के दद्दा हम महात्माजी को नाव न लेबी हम तो मोड़ा को भोला के नाव से पुकारब, तुम चाहो तो स्कूल में उखो नाव महातमाजी के नाव पर लिखा दईओ। ‘ पंडिताइन ने जबाब दिया।
दूसरे दिन सजीवन ने परमा खबास और उसकी घरवाली कटोरीबाई खबासन के हाथों पूरे गाँव को मंदिर बुलवा डाला। सुबह सुबह कलेवा कर सारा गाँव मंदिर में आ जुटा, बसोरन टोला और चमार पुरवा से भी सभी लोग आए और मंदिर की परछाई से दूर डरे सहमे से बैठ गए। किसी को अनुमान न था क्या होने वाला है। सब एक दूसरे से बुलौआ का कारण पूंछ रहे थे की सजीवन की मधुर आवाज सुनाई दी।
भाइयो कल दमोह की गल्ला मंडी में महात्मा जी की भारी सभा हुई। सभा के पहले महात्मा गांधी दमोह में बसोरन मोहल्ला गए वहाँ उन्होने हमारे बसोर भाइयों के लिए गुरुद्वारे की नीव रखी और दो सौ रुपया दान दिया। गांधीजी पूरे भारत में हमारे इन्ही भाइयों के लिए घूम घूम कर चन्दा एकत्रित कर रहे हैं। दमोह में तो अंग्रेजों ने भी गांधीजी को चन्दा दिया। गांधीजी कहते हैं की हमारे यह भाई भी भगवान की संतान हैं और इसलिए वे अछूत नहीं है हरिजन हैं। गांधीजी की इच्छा का मान रखने के लिए मैं चाहता हूँ की अपने गाँव हिरदेपुर का शिव मंदिर भी हमारे इन्ही हरिजन भाइयों के लिए खोल दिया जाय। हमारे यह भाई भी भगवान का दर्शन करें, भोग प्रसाद पायें और छुआछूत का भेद इस गाँव से मिट जाय।‘ ऐसा कह सजीवन ने सारे ग्रामीणों की ओर आशा भरी निगाहों से देखा।
सजीवन की बात सुन बटेसर यादव थोड़ा भिनके और अपनी असहमति दिखा दी। मनीराम बनिया भी सजीवन की बात से सहमत न था बोला
‘पंडितजी वेद पुराण इन ओरन को अछूत मानत हैं आप उलटी गंगा न बहाओ।‘
परम लाल काछी और अन्य काछी व पटेल वैसे तो बसोरो और चमारों के हितैषी थे क्योंकि इन जातियों के लोग उनके खेतों में दिन रात मेहनत करते थे पर वे भी छुआछूत के सामाजिक बंधन को त्यागना नहीं चाहते थे। हरिजन तो बिचारे चुपचाप बैठे रहे उनकी हिम्मत ही न हुई की कुछ कह सकें। सवर्णों की उपस्थिति में उनकी बिसात ही क्या थी कि मुख खोल सकें।
जब कोई सहमति न बन सकी तो बात ठाकुर साहब पर छोड़ दी गई। ठाकुर साहब,जो अकले तख़्त पर गाव तकिया के सहारे बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे, बोले
‘भाइयो महात्मा गांधी बड़े आदमी हैं वे चाहे जो कहे, चाहे जिसके हाथ का छुआ पानी पीयें पर हम अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे। वेद पुराण इन्हे अछूत कहते हैं। इनका जनम हम लोगों की सेवा चाकरी के लिए हुआ है। हमारे पुरखों ने धरम की रक्षा के लिए लड़ाइयाँ लड़ी हम अपने गाँव में यह नई प्रथा नहीं चलने देंगे। इन अछूतो के लिए हम अपने पुरखों का मंदिर नहीं खोल सकते।‘
‘राजा यह सब आपकी प्रजा हैं, आपके जैसे ही ईश्वर ने इन्हे भी बनाया हैं।‘ सजीवन ने बीच में टोका।
ठाकुर साहब ने तीक्ष्ण निगाहों से सजीवन की ओर देखा और कहा ‘पंडित जी यह मंदिर हमारे कक्काजू ने आपको धर्म की रक्षा के लिए दिया था अधर्म फैलाने के लिए नहीं।‘
‘राजन हम भी आपसे अनुनय कर रहें हैं अब जमाना बदल रहा है, इन भाइयों को मंदिर में दर्शन की अनुमति दे कर पुण्य कमाओ।‘ सजीवन बोले
आज तक ठाकुर साहब के सामने इतनी बहस करने की हिम्मत किसी की न हुई थी। सजीवन की दलीलों का ठाकुर साहब के पास कोई जबाब भी न था और सजीवन के तर्कों ने उन्हे क्रोधित कर दिया। वे गुस्से में बोले ‘ सजीवन पंडित हम कुछ नहीं जानते, हमारा मंदिर इन अछूतो के लिए नहीं कुल सकता, तुम इस मंदिर को और कुटिया को कल तक खाली कर दो।‘ इतना कह सभा बर्खास्त कर ठाकुर साहब चल दिये। उनको जाता देख सारे गाँव वाले भी उठ कर चल दिये। भीड़ में से किसी ने पंडित रामायण पांडे की ओर इशारा कर कहा ‘ पांडे चले हते अपनों वजन बढ़ावे पर मूँढ मुडात ओरा पड गये’। ( पाण्डेजी चाह रहे थे कि उनका मान सम्मान बढ़े, वे गाँव के नेता बन जाएँ पर यह क्या काम शुरू होने के पहले ही विघ्न पड़ गया।)
मंदिर के आसपास केवल कुत्तों के भोकने की आवाजें शेष रह गई थी।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)
☆ कथा कहानी # 27 – स्वर्ण पदक – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
रजतकांत छोटा भाई था, पढ़ाई से ज्यादा, खेल उसे आकर्षित किया करते थे और स्कूल के बाकी शिक्षकों की डांट फटकार उसे स्पोर्ट्स टीचर की ओर आकर्षित करती थी, जो उसकी खेल प्रतिभा के कारण उससे स्नेह करते थे. जब देश में क्रिकेट का जुनून सर चढ़कर बच्चों के मन को आकर्षित कर रहा था, दीवाना बना रहा था, उस वक्त रजतकांत हाकी में जन्मजात निपुणता लेकर अवतरित हुआ था. मेजर ध्यानचंद की उसने सिर्फ कहानियां सुनी थीं पर वे अक्सर उसके सपनों में आकर ड्रिबलिंग करते हुये गोलपोस्ट की तरफ धनुष से छूटे हुये तीर के समान भागते दिखाई देते थे. जब रजत को मुस्कुराते हुये देखकर गोल मारते थे तो गोलपोस्ट पर खटाक से टकराती हुई बॉल और गोल ….के शोरगुल की ध्वनि से रजतकांत की आंख खुल जाती थी.
सपनों की शुरुआत रात में ही होती है नींद में,पर जागते हुये सपने देखने और उन्हें पूरा करने का ज़ुनून कब लग जाता है, पता ही नहीं चलता. स्वर्णकांत और रजतकांत की आयु में सिर्फ तीन साल का अंतर था पर पहले स्कूल और फिर कॉलेज में उम्र के अंतर के अनुपात से क्लास का अंतर बढ़ता गया. जब स्वर्णकांत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, रजतकांत कला संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे. डिग्रियां उनका लक्ष्य कभी थी ही नहीं पर हां कॉलेज की हाकी टीम के वो कप्तान थे, सपनों में ध्यानचंद से सीखी गई ड्रिबलिंग, चुस्ती, तेज दौड़ने का स्टेमिना, विरोधी खिलाड़ी को छकाते हुये बाल छीन कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ने की कला जो हॉकी के मैदान में दिखाई देती थी, वो दर्शकों को दीवाना बना देती थी और पूरा स्टेडियम रजत रजत के शोर से गूंजने लगता था जब उनके पास या इर्दगिर्द बॉल आती थी.पर दर्शकों को ,सत्तर मिनट के इस खेल में जो दिखाई नहीं देती थी, वह थी “उनका टीम को एक सूत्र में बांधकर लक्ष्य को हासिल करने की कला”. इस कारण ही उनकी टीम हर साल विश्वविद्यालय की हॉकी चैम्पियन कहलाती थी और स्वर्ण पदक पर सिर्फ रजत के कॉलेज का दावा, स्वीकार कर लिया गया था.
इस कारण ही जब उनके परीक्षा पास नहीं करने के कारण उनके पिताजी नलिनीकांत नाराज़ होकर रौद्र रूप धारण करते थे, उनके कॉलेज के प्रिसिंपल और स्पोर्ट्स टीचर खुश हुआ करते थे और उन्हें कॉलेज में बने रहने का अभयदान दिया करते थे.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा
नायगाराहून ६०० किलोमीटरचे अंतर पार करून कॅनडाची राजधानी ओटावा इथे पोचायचे होते. सरळसोट, गुळगुळीत आठ पदरी रस्त्यावरून गाडी पळत होती. कुठेही सिग्नल्स नाहीत की टोल नाके नाहीत. दोन्ही बाजूंना बसविलेले टीव्ही कॅमेरे वाहतुकीचे सुयोग्य नियंत्रण करतात. रस्त्याच्या दुतर्फा गहू, मका, द्राक्षं, स्ट्रॉबेरी, चेरी यांची प्रचंड मोठी शेती होती. शेतात धान्य साठवण्याच्या उंच, उभ्या कणग्या होत्या. अनेक ठिकाणी वायनरीज होत्या.शेतिच्या पलीकडे आकाश रेषेपर्यंत भिडलेली सूचिपर्णी वृक्षांची घनदाट जंगले दिसत होती.
या साऱ्या प्रवासाला खळाळती साथ होती ती रिडो कॅनॉलची! अनेक अडचणींवर मात करून हा महत्त्वाकांक्षी प्रकल्प १८३२ मध्ये पूर्ण करण्यात आला.किंग्जस्टन इथल्या लेक ओंटारिओपासून सुरू झालेला २०२ किलोमीटरचा (१२५ मैल ) हा नितांत सुंदर जलमार्ग राजधानी ओटावापर्यंत जातो. या प्रकल्पात दोन नद्या आणि मोठमोठी सरोवरे यांची जोडणी समपातळीत करण्यासाठी ४७ लॉकसची योजना केली आहे. आजही हा ऐतिहासिक जलमार्ग गजबजलेला असतो. युनेस्कोने या जलमार्गाला वर्ल्ड हेरिटेज डेस्टिनेशनचा दर्जा बहाल केला आहे.कनोइ,कयाक, मोटारबोटी यातून ही जलवाहतूक सुरू असते.कॅनाल शेजारून सायकलींसाठी स्वतंत्र मार्ग आहे. जॉगिंग व स्केटिंगही चालू होते. अनेक सुंदर बागांमधून लोक समर पिकनिकचा आनंद घेत होते.
दुसऱ्या दिवशी ओटावाहून चार तासांचा प्रवास करून किंग्स्टनला पोहोचलो.’थाउजंड आयलंड’चा हा परिसर नितांत सुंदर आहे. स्वच्छ, सुंदर, टुमदार, निवांत अशी लाल, तपकिरी, दगडी रंगांच्या उतरत्या कौलांची ऐश्वर्यशाली घरे निसर्गाच्या कॅनव्हासवरील सजीव चित्रांसारखी भासत होती.
‘ग्रेट लेक्स’ मधून उगम पावलेली सेंट लॉरेन्स नदी समुद्रासारखी विशाल आहे. ग्रेटेस्ट कॅनेडियन रिव्हर म्हणून ती ओळखली जाते. नदीतील ८० किलोमीटरच्या परिघात१८६४ बेटे आहेत. ही बेटे म्हणजे प्राचीन कालातील पर्वतांचे माथे आहेत. अगदी छोट्या आकाराच्या बेटापासून १०० चौरस किलोमीटर्स (४० चौरस मैल ) ची व्याप्ती असलेली ही खडकांवरील हिरवीगार बेटे आहेत.क्रुझमधून आम्ही या बेटांच्या दर्शनासाठी निघालो.
या अथांग पाण्यात अमेरिका आणि कॅनडा यांची तिथली सरहद्द दाखवणारे दोन्ही राष्ट्रांचे ध्वज एका बेटावर फडकत होते. निळसर हिरव्या आरस्पानी पाण्यात लहान मोठ्या बेटांची प्रतिबिंबे पडली होती. यातील काही बेटांवर मनुष्यवस्ती नाही आणि काही बेटे अमेरिकेच्या मालकीची आहेत. विसाव्या शतकाच्या सुरुवातीला न्यूयॉर्क येथील धनाढ्य हॉटेल मालक जॉर्ज बोल्ट यांनी इथले हार्ट आयलँड विकत घेतले. त्यावर सहा मजली घर उभारले. किल्ल्यासारख्या या बिल्डिंगमध्ये १२० दालने व त्यांना जोडणारी अंतर्गत टनेल्स आहेत. पॉवर हाउस, इटालियन गार्डन, ब्रिज सारे त्यांनी आपली प्रिय पत्नी लुईसा हिच्यासाठी उभारले. पण लुईसाच्या अकस्मात मृत्यूनंतर हे घर दुर्लक्षित झाले. १९७७ साली अमेरिका व कॅनडा सरकारने या सार्या बेटांचे पुनरुज्जीवन केले. क्रूझमधून आम्हाला या हिरव्यागार, फळा- फुलांनी बहरलेल्या बागेतील प्रवासी फिरताना दिसंत होते.
‘डार्क आयलंड’वर सिंगर कॅसल आहे. सेंट लॉरेन्सचा खूप उंच, उभा पुतळा एका खडकावर उभारलेला आहे. अमेरिकेचे बेट आणि कॅनडाचे बेट जोडणारा एक इंटरनॅशनल ब्रिजही तिथे आहे. दगडी बेटांच्या हिरव्या कुशीत लपलेली, लाल, पिवळ्या, हिरव्या, राखाडी कौलांची तांबूस पांढरी घरं बघताना आपण परीराज्यातून फेरफटका मारीत आहोत असेच वाटते. घरांच्या अंगणात सुंदर हिरवळ, फुलबागा, फळबागा होत्या.समर सुरू झालेला असल्याने काही घरांच्या अंगणात मुले खेळत होती. काही अगदी जवळची दोन बेटं जोडण्यासाठी सुबक, कमानदार ब्रिज उभारले आहेत. एका बेटावर चर्च आहे. वीस बेटांच्या एका समूहावर थाउजंड आयलँड नॅशनल पार्क उभारले आहे. मासेमारी आणि पाण्यातले खेळ यात काही जण रमले होते. मध्येच वेगाने दौडणाऱ्या पांढऱ्या स्वच्छ स्पीड बोटस् पळत होत्या. स्वच्छ पांढरे अंग , राखाडी पंख ,काळी शेपटी आणि पिवळसर चोच असलेले सीगल्स पंख पसरून भक्षाचा वेध घेत होते. ही सगळी बेटे म्हणजे विधात्याने स्वतःसाठी फुलविलेली एक आगळीवेगळी बाग आहे. फार फार वर्षांपूर्वी या बेटांवर मूळ कॅनेडियन लोकांची (Aborigines ) वस्ती होती. आज कोट्यावधी डॉलर्स किमतीची ही घरे धनाढ्यांची मिरासदारी आहे. क्रूजमधून या अद्भुत दुनियेचा फेरफटका करून आम्ही परतलो. किनाऱ्यावरील माना उंचावलेल्या सिडार, व्हाईट पाइन वृक्षांनी आम्हाला ‘जमिनीवर’ आणले.
आम्ही जूनच्या मध्यावर तिथे पोहोचलो होतो. पुण्यासारखी थंडी होती पण त्यांचा समर चालू झाला होता. चार महिन्यांच्या कडक थंडीनंतर आता सूर्यदेव पहाटे पाचपासून रात्री दहापर्यंत प्रकाश देत होते. विविध रंगांची फुलं मोठमोठ्या कुंड्यांमधून ओसंडत होती.उत्साही पावलातून वसंतोत्सव सळसळत होता.खेळांना उधाण आलं होतं .डॉग फेस्टिवलपासून चिल्ड्रेन फेस्टिवलपर्यंत तसंच नृत्य-नाट्य-संगीत, बेंजो, फिडल सारे महोत्सव होते. सारे ओटावा शहरच जणू एक फिरता रंगमंच झालं होतं.
रिडो हॉल म्हणजे गॉथिक शैलीतील दगडी कौलारू घर आहे. १८६७ पासून कॅनडाच्या गव्हर्नर जनरलचे ते घर आता पंतप्रधानांचे निवासस्थान आहे. या घराभोवती सुंदर गार्डन व आर्ट कलेक्शन सेंटर आहे.
म्युझियम ऑफ हिस्ट्रीचे बांधकाम वैशिष्ट्यपूर्ण आहे. २००० वर्षांपूर्वी कॅनडातील मूळ जमाती कनोई म्हणजे लाकडाच्या लांबट होडीतून इथे आल्या.म्युझियमच्या हॉलमधील सिलिंग हे कनोईच्या तळासारखे बनविले आहे.हॅलचे खांब वल्हयांसारखे आहेत आणि पार्श्वभूमीवर घनदाट हिरव्या, उंच मजबूत वृक्षांचे भले मोठे चित्र आहे.टोटेम पोल्स म्हणजे आदिवासींनी लाकडी खांबांवर कोरलेले मुखवटे , चिन्हे यांचा खूप मोठा संग्रह तिथे आहे. हे खांब म्हणजे आदिवासींची श्रद्धास्थाने होती तसेच गुप्त संदेश देण्याचे साधनही होते. म्युझियममध्ये मुलांसाठी विशेष विभाग आहे. गाणी, कोडी, खेळ यातून मुलांचे इतिहासाविषयी कुतूहल जागृत होईल असे कार्यक्रम केले जातात. तिथल्या स्टॅम्प संग्रहात १८५१ मध्ये वापरलेल्या पहिल्या पोस्टल स्टॅ॑पपासून आजपर्यंतच्या स्टॅ॑प्सचे कलेक्शन आहे.
ओटावामध्ये रिडो, ओंटारिओ व ओटावा या तीन नद्यांचा संगम होतो. संगमावर डुबकी मारून तिथले पाणी गढूळ करण्यासाठी ,पुण्य मिळविण्यासाठी कुणीही येत नाही. इथून मोठमोठी मालवाहू जहाजे अटलांटिक महासागरापर्यंत जाऊ शकतात. संगमाजवळील हिरव्या वनराईत लपलेले सर्व देशांचे दूतावास गाडीतून बघितले. त्यातल्या एका घरावर भारताचा तिरंगा फडकत होता.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “पीढ़ियों को दे रहा जो फल निरंतर… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 29 – सजल – पीढ़ियों को दे रहा जो फल निरंतर… ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री शंकर शरण जी की पुस्तक “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆
☆ “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन” – श्री शंकर शरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक.. भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन
लेखक.. शंकर शरण
प्रकाशक.. कृति कृति प्रकाशन कोलकाता
मूल्य 560 रु
पृष्ठ..224
भारतीय संस्कृति में आत्म प्रदर्शन को बहुत अच्छा नहीं माना जाता था यही कारण है कि कालिदास जैसे महान लेखकों की जीवनी तक सुलभ नहीं है. इसलिये तटस्थ वास्तविक भारतीय इतिहास अलिखित रहा.अतीत पर गर्व करना मनुष्य की आदत रही है जिसका शासन रहा उसके महत्व को अधिक प्रदर्शित करते हुए तोड़फोड़ कर इतिहास लिखे गए.
एनसीईआरटी नई दिल्ली के प्रोफेसर शंकर शरण ने बहुत तार्किक और संदर्भ सहित भारतीय इतिहास दृष्टि, कार्ल की भारत दृष्टि, इतिहास लेखन में राजनीति, धर्म और सांप्रदायिकता, दोहरे मानदंडों का घालमेल, कवि निराला और रामविलास शर्मा,भूमिका,तथा
उपसंहार इन खंडो में यह बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। आजादी के बाद से देश के एकेडमिक संस्थाओं में मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थकों का प्रभाव रहा जिसके चलते भारतीय इतिहास का जो लेखन किया गया उसमें मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव रहा. इतिहास वास्तविकता से भिन्न रूप में वर्णित हुआ. देश की मिली जुली संस्कृति का श्रेय इन इतिहासकारों ने इस्लाम को दिया जबकि वास्तविकता यह है कि इस्लामी शासकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी की हिंदू संस्कृति का विनाश कर केवल इस्लाम को ही एक धर्म के रूप में स्थापित किया जाए.दरअसल यह हिंदू संस्कृति एवं धर्म की विशेषता ही है की इन नितांत दुष्कर तथा कठिन परिस्थितियों में भी हिंदू संस्कृति जीवित बनी रही. इसी तरह युद्धों के वर्णन, अंग्रेज तथा मुगल शासको की राज व्यवस्था के इतिहास लेखन में भी हिंदूवाद की उपेक्षा की गई है, जिसकी ओर तार्किक तथ्यों के आधार पर इस पुस्तक में सविस्तार वर्णन है. पुस्तक पठनीय है व सन्दर्भों के लिये महत्वपूर्ण है.
लोगो को इतिहासकारों द्वारा यह बताया ही नही गया की निराला ने रामायण पर 20 खंडों में टीका लिखी है महाराणा प्रताप भी इस भक्त प्रहलाद भक्त ध्रुव पर पूरे पूरे उपन्यास लिखें इनके अलावा निराला के विस्तृत निबंध ओं लेखों के शीर्षक ही देख ले तो तुलसीकृत रामायण में अद्वैत तत्व विज्ञान और गोस्वामी तुलसीदास श्री देव राम कृष्ण परमहंस युग अवतार भगवान श्री राम कृष्ण भारत में श्री राम कृष्ण अवतार आदि लेख उन्हीं के हैं किंतु उन्हें इतिहासकारों ने मार्क्सवादी विचारधारा का कवि ही निरूपित किया है इस तरह के शुद्ध पूर्ण तथ्य इस पुस्तक में उजागर किए गए हैं.