(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय व ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 132 ☆
☆ समय व ज़िंदगी ☆
समय व ज़िंदगी का चोली दामन का साथ है तथा वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं। ज़िंदगी समय की महत्ता, सदुपयोग व सर्वश्रेष्ठता का भाव प्रेषित करती है, तो समय हमें ज़िंदगी की कद्र करना सिखाता है। समय नदी की भांति निरंतर बहता रहता है; परिवर्तनशील है; कभी रुकता नहीं और ज़िंदगी चलने का दूसरा नाम है। ‘ज़िंदगी चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम।’ ज़िंदगी हमें यह सीख देती है कि ‘गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता और हम अपनी सारी संपत्ति देकर उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते।’ सो! समय को अनमोल जान कर उसका सदुपयोग करें। दूसरी ओर समय ज़िंदगी की महत्ता बताते हुए इस तथ्य को उजागर करता है कि ज़िंदगी की कद्र करें, क्योंकि मानव जीवन उसे चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए कहा गया है कि ‘यह जीवन बड़ा अनमोल/ ऐ मनवा! राम राम तू बोल।’ एक पल भी बिना सिमरन के व्यर्थ नष्ट नहीं जाना चाहिए, क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है।
ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन हैं– मनन, अनुसरण व अनुभव। मनन सर्वश्रेष्ठ मार्ग है और सत्य है। अनुसरण सरल व सहज मार्ग है और अनुभव सबसे कड़वा होता है। महात्मा बुद्ध के उपरोक्त कथन में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन है। सो! मानव को हर वस्तु व व्यक्ति के विषय के बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए, ताकि उसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य व लाभ-हानि के बारे में सोच कर निर्णय लिया जा सके। यह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है। अनुसरण बनी-बनाई लीक पर चलना। मानव को सीधे- सपाट व देवताओं-महापुरूषों द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। ज्ञान-प्राप्ति का अंतिम मार्ग है अनुभव; जो कटु होता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं करता। वह ग़लत-ठीक के भेद से अवगत नहीं हो पाता। जैसे एक बच्चा बड़ों की बात न मान कर आग को छूता है और जल जाता है और रोता व पछताता है। वास्तव में यह एक कटु अनुभव है, जिसका परिणाम कभी भी श्रेयस्कर नहीं होता। सो! महापुरुषों की सीख पर विश्वास करके उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करना अत्यंत कारग़र है।
मैक्सिम गोर्की के मतानुसार ‘कोई सराहना करे या निंदा दोनों ही अच्छे हैं, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है और निंदा हमें असामान्य स्थितियों में सावधान होने का अवसर प्रदान करती है।’ यह तो आम के आम, गुठलियों के दाम वाली स्थिति है। जब काम स्वेच्छा से हो, तो जीवन में आनंद-प्रदाता है और जब पाबंदी में हो, तो जीवन गुलामी है। यदि मानव की सोच सकारात्मक है, तो प्रशंसा व निंदा दोनों स्थितियाँ हितकारक व प्रेरक हैं, क्योंकि जहां प्रशंसा मानव को प्रोत्साहित व ऊर्जस्वित करती है; वहीं निंदा हमें अनहोनी से बचाती है। प्रशंसा में लोग फूले नहीं समाते तथा निंदा में हताश हो जाते हैं। वास्तव में ये दोनों स्थितियां भयावह हैं। इसलिए मानव को स्वतंत्रतापूर्वक जीने का संदेश दिया गया है, क्योंकि पाबंदी अर्थात् परतंत्रता में रहकर कार्य करना व जीवन-यापन करना गुलामी है। अमुक विषम परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। वैसे मानव हर स्थिति में यह चाहता है कि प्रत्येक कार्य उसकी इच्छानुसार हो, परंतु ऐसा संभव नहीं होता। हम सब उस सृष्टि-नियंता के हाथ की कठपुतलियाँ हैं और वह हमसे बेहतर जानता है कि हमारा हित किस में है। वैसे भी स्वतंत्रता में आनंद है और निर्धारित नियम व कायदे-कानून व दूसरों के आदेशों की अनुपालना के हित कार्य करना परतंत्रता है; गुलामी है। इस स्थिति में मानव की दशा पिंजरे में बंद पक्षी जैसी हो जाती है। वह स्वतंत्र विचरण हेतु हाथ-पांव चलाता तो है,परंतु सब निष्फल। अंत में वह निराश होकर जीवन ढोने को विवश हो जाता है।
दो मिनट में ज़िंदगी नहीं बदलती, परंतु सोच-समझ कर लिए गये निर्णय से ज़िंदगी बदल जाती है। इसलिए मानव से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निर्णय लेने से पूर्व उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर चिन्तन-मनन करे, ताकि उसे श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त हो सकें। मुझे स्मरण हो रही हैं श्री जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां ‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडंबना है जीवन की’ के माध्यम से उन्होंने इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के सामंजस्य की सीख दी है। इसके विपरीत आचरण करना मानव जीवन की विडंबना है।
मुझे स्मरण हो रही हैं आनंद फिल्म के गीत की वे पंक्तियां–’जिंदगी एक सफ़र है सुहाना/ यहां कल क्या हो किसने जाना’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। सो! इस गीत के माध्यम से वर्तमान में जीने का सुंदर संदेश प्रेषित है। ज़िंदगी के सुहाने सफ़र में कल की चिंता मत करें और आज को जी लें, क्योंकि कल कभी आता नहीं। भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। गीता में भी यही संदेश प्रेषित है कि ‘जो हो रहा है अच्छा है; जो होगा वह भी अच्छा ही होगा और जो हो चुका है; वह भी अच्छा ही था। इसलिए ऐ मानव! तू हर स्थिति में खुश रहना सीख ले। जो इंसान अपनी इच्छाओं, आशाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं पर अंकुश लगाना सीख जाता है; उसे संसार रूपी भंवर में नहीं फंसना पड़ता और वह अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाता है। अक्सर अधिक समझदार व्यक्ति की हज़ारों ख़्वाहिशें दिल में ही रह जाती हैं, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है।
‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोई’ अर्थात् लोग मुस्कुराहट की वजह जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं पूछता।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाकात करने की सब ख दी गयी है। जब मानव स्वयं को समझ लेता है; वह आत्मावलोकन करने लगता है, तो उसे दूसरे लोगों के साहचर्य व सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। समस्याएं हमारे मस्तिष्क में कैद होती हैं और अधिकतर बीमारियों की वजह चिंता होती है। इसका कारण यह है कि मनुष्य चुनौतियों को समस्याएं समझने लगता है और बड़े होने तक वे अवचेतन मन में इस क़दर रच-बस जाती हैं कि लाख चाहने पर भी उनसे निज़ात नहीं पा सकता। उस स्थिति में हम सोच- विचार ही नहीं करते कि यदि समस्याएं ही नहीं होंगी, तो हमारी प्रगति कैसे संभव होगी और हमारी आय के साधन भी नहीं बढ़ेंगे। वैसे समस्याओं के साथ ही समाधान जन्म ले चुके होते हैं। यदि सतही तौर पर समस्त समस्याओं से उलझा जाए, तो उन्हें सुलझाने में न केवल आनंद प्राप्त होता है, बल्कि गहन अनुभव भी प्राप्त होता है। नेपोलियन के मतानुसार ‘समस्याएं तो भय व डर के कारण उत्पन्न होती हैं। यदि डर का स्थान विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना करते थे। इसलिए वे समस्याओं को सदैव अवसर में बदल डालते थे।
समय अनमोल है। यह हमें जीने की कला व कद्र करना सिखाता है और ज़िंदगी समय उपयोगिता का पता ठ पढ़ाती है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू होते हैं और समस्याएं भी आती-जाती रहती हैं। सो! मानव को धैर्यपूर्वक समस्याओं का सामना करना चाहिए तथा आत्मविश्वास रूपी धरोहर को सहेज कर रखना चाहिए, ताकि हम आपदाओं को अवसर में बदल सकें। समय और ज़िंदगी सबसे बड़े शिक्षक हैं; सीख देकर ही जाते हैं। वैसे इंसान की सोच ही उसे शक्तिशाली या दुर्बल बनाती है। बनूवेनर्ग के मतानुसार ‘वह किसी महान् कार्य के लिए पैदा नहीं हुआ; जो वक्त की कीमत नहीं जानता।’ भगवान श्रीकृष्ण भी ‘पूर्णता के साथ किसी और के जीवन की नकल कर, जीने की तुलना में अपने को पहचान कर अपूर्ण रुप से जीना बेहतर स्वीकारते है।’ मानव को टैगोर की भांति ‘एकला चलो रे’ की राह पर चलते हुए अपनी राह का निर्माण स्वयं करना चाहिए, क्योंकि वह मार्ग आगामी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय बन जाता है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना “माहिया”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं भावप्रवण रचना “गोकुल बाजत खूब बधैया”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘अनहोनी’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 92 ☆
☆ लघुकथा – अनहोनी ☆
कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी जब रोमा ने दरवाजा नहीं खोला तो उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से बेचैन होने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। इतनी देर तो कभी नहीं होती उसे दरवाजा खोलने में। आज क्या हो गया ? आज सुबह जाते समय वह बाथरूम से उससे कुछ कह रही थी लेकिन काम पर जाने की जल्दी में उसने जानबूझकर उसकी आवाज अनसुनी कर दी। कहीं बेहोश तो नहीं हो गई ? दिल घबराने लगा, आस – पड़ोसवाले भी इकठ्ठे होने शुरू हो गए थे।
वह रोज सुबह अपने काम से निकल जाता और रोमा घर में सारा दिन अकेली रहा करती थी। बेटी की शादी हो गई और बेटा विदेश में था। उसने कई बार पति को समझाने की कोशिश भी की कि अब उसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है, उम्र के इस दौर में आराम से रहेंगे दोनों पति-पत्नी लेकिन पुरुषों को घर में बैठना कब रास आता है। किसी तरह से घर का दरवाजा खोला गया। रोमा बाथरूम में बेहोश पड़ी थी उसे शायद हार्ट अटैक आया था। पड़ोसियों की मदद से वह रोमा को अस्पताल ले गया। रोमा को अभी तक होश नहीं आया था। वह उसका हाथ पकड़े बैठा था और सोच रहा था कि अगर आज भी रोज की तरह देर रात घर आता तो ?
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “मोती, धागा और माला …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 99 ☆
☆ मोती, धागा और माला… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
कितना सहज होता है, किसी के परिश्रम पर अपना हक जमाना। जमाना बदल रहा है किंतु मानवीय सोच आज भी लूट- खसोट के साए से बाहर आना नहीं चाहती है या आने की जद्दोजहद करती हुई दिखाई देती है। धागे ने माला पर हक जताते हुए कहा, मेरे कारण ही तुम हो। तभी बीच में बात काटते हुए मोती ने कहा तारीफ तो मेरी हो रही है कि कितने सुंदर मोती हैं। सच्चे मोती लग रहे हैं।
माला ने कहा सही बात है तुम्हारी सुंदरता से मेरी कीमत और बढ़ जाती है।
धागा मन ही मन सोचने लगा कि ये दोनों मिलकर अपने गुणगान में लगे हैं कोई बात नहीं अबकी बार ठीक समय पर टूट कर दिखाऊंगा जिससे माला और मोती दोनों अपनी सही जगह पर दिखाई देंगे।
ऐसा किसी एक क्षेत्र में नहीं, जीवन के सभी क्षेत्रों पर इसका असर साफ दिखाई देता है। नींव की उपेक्षा करके विशाल इमारतें खड़े करने के दौर में जीते हुए लोग अक्सर ये भूल जाते हैं कि समय- समय पर उनके प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त करनी चाहिए। स्वयं आगे बढ़ना और सबको साथ लेकर चलना जिसे आ गया उसकी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता है। योजना बनाना और उसे अमलीजामा पहनाने के मध्य लोगों का विश्वास हासिल करना सबसे बड़ी चुनौती होती है जिसे सच्ची सोच से ही पाया जा सकता है। श्रेय लेने से श्रेस्कर है कि कर्म करते चलें, वक्त सारे हिसाब- किताब रखता है। समय आने पर उनका लाभ ब्याज सहित मिलेगा।
थोथा चना बाजे घना, आखिर कब तक चलेगा, मूल्यांकन तो सबकी निगाहें करती रहती हैं। धागे को सोचना होगा कि वो भी अपने सौंदर्य को बढ़ाए, सोने के तार में पिरोए गए मोती को देखने से पहले लोग तार को देखते हैं उसके वजन का अंदाजा लगाते हुए अनायास ही कह उठते हैं; मजबूत है। यही हाल रेशम के धागे का होता है। करीने से चमकीले धागों के साथ जब उसकी गुथ बनाई जाती है तो मोतियों की चमक से पहले रेशमी, चमकीले धागों की प्रशंसा होती है। सार यही है कि आप भले ही धागे हों किन्तु स्वयं की गुणवत्ता को मत भूलिए उसे निखारने, तराशने, कीमती बनाने की ओर जुटे रहिए। अमेरिकी उद्यमी जिम रॉन ने ठीक ही कहा है – “आप अपने काम पर जितनी ज्यादा मेहनत करते हैं, उससे कहीं ज्यादा मेहनत खुद पर करें।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता पड़ोसन…! इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 109 ☆
☆ बाल कविता – सुंदर प्यारा समय न खोओ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बच्चों के लिए एक ज्ञानवर्धक आलेख – “हैलो की आत्मकथा ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 115 ☆
☆ बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆
आप ने मेरा नाम सुना है. अकसर बोलते भी हो. जब आप के पास टैलीफोन आता है. तब आप यही शब्द सब से पहले बोलते हो. मगर, आप ने सोचा है कि आप यह शब्द क्यों बोलते हो? नहीं ना?
चलो ! मैं आप को बताती हूं. इस के शुरुवात की एक रोचक यात्रा. मैं यह कहानी आप को बताती हूँ. आप इसे ध्यान से सुनना. यह मेरी आत्मकथा भी है.
हैलो ! इस नाम को हरेक की जबान पर चढ़ाने का श्रेय अलेक्जेंडर ग्राहम बैल को जाता है. हां, आप ने ठीक सुना और समझा. ये वही महान आविष्कारक ग्राहम बैल हैं, जिन्हों ने टैलीफोन का आविष्कार किया था.
हैलो ! चौंकिए मत. मेरा नाम हैलो ही है. मैं एक जीती जागती लड़की थी. मेरा पूरा नाम था मारग्रेट हैलो. ग्राहम बैल मुझ से बहुत प्यार करते थे. मैं उन की सब से प्यारी दोस्त थी. वे प्यार से मुझे हैलो कह कर पुकारते थे.
वे भी मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. इस वजह से हम अपनी बातें आपस में साझा किया करते थे. वे अपनी सब बातें मुझे बातते थे. मैं भी अपनी सब बातें उन्हें बताती थी. जैसा अकसर दोस्तों के बीच होता है, वैसा हमारे बीच बातों का आदानप्रदान होता रहता था.
यह उन दिनों बात की है जब वे टैलीफोन का आविष्कार कर रहे थे. तब वे उस फोन का परिक्षण मुझे फोन कर के करते थे. इस के लिए उन्हों ने एक फोन का एक चोंगा मुझे दे रखा था. दूसरा चोंगा उन के पास रखा हुआ था.
उस में उन्हों ने कई सुधार किए. इस के बाद वे मुझे फोन करते. सुनते-देखते सुधार के बाद कुछ अच्छा हुआ है. इस के लिए वे अक्सर फोन लगाते थे. तब वे सब से पहला शब्द में मेरे नाम बोलते थे- हैलो !
ऐसा उन्हों ने अनेकों बार किया. इस बात को उन के मित्र भी जानते थे. परिक्षण के दौरान भी उन्हों ने सब से पहला शब्द हैलो ही बोला था. तब से यह शब्द टैलीफोन करने- वालों के लिए एक संबोधन बन गया. जब भी कोई किसी को टैलीफोन करता या किसी का टैलीफोन उठाता सब से पहला यही शब्द बोलता था.
इस से यह शब्द टैलीफोन के लिए चल निकला.
यह शब्द ग्राहम बैल की देन है. इन्हों ने टैलीफोन सहित अनेक आविष्कार किए है. इन के अविष्कार ने ग्राहम बैल को अमर बना दिया हैं. मगर आप यह जान कर हैरान हो जाएगे कि आज तक उन का नाम इतनी बार नहीं बोला गया होगा जितनी बार मेरा नाम- हैलो बोला गया है. हमेशा बोला जाता रहेगा.
वे टैलीफोन के आविष्कारक और मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. उन्हों ने मेरा नाम अमर कर दिया. मुझे उन की दोस्ती पर नाज है. ऐसा दोस्त सभी को मिले. यह आशा करती हूँ. चुंकि ग्राहम बैल ने सब से पहले मुझे ही टैलीफोन किया था. इस हिसाब से टैलीफोन की सब से पहली स्रोता मैं ही बनी थी. इस तरह दो प्रसिद्धि मेरे साथ जुड़ गई है. जिस ने मुझे सदा के लिए अमर बना दिया.