हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #223 – 110 – “तुमने  निगाहों से गिरा नश्तर चुभा दिया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल तुमने  निगाहों से गिरा नश्तर चुभा दिया…” ।)

? ग़ज़ल # 109 – “तुमने  निगाहों से गिरा नश्तर चुभा दिया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हमको  दुआएँ दो तुम्हें माशूक़ बना दिया, 

तुमने  निगाहों से गिरा नश्तर चुभा दिया। 

*

हमको तुम्हारे इश्क़  ने चाकर बना दिया,

हुक्म तुम्हारा मानकर पोंछा  लगा  दिया।

*

तुमने कुछ बना कर खिलाने को कहा हमें,

बनता कुछ न था तो पराठा ही जला दिया। 

*

बैठक  अस्त व्यस्त  पड़ी थी  बेतरतीब सी,

हमने सब  जगह झाड़ पोंछ उसे सजा दिया। 

*

आशिक़ सजाए हसीं  सपने घर बसाते वक्त,

आतिश ख़्वाब फ़र्श  धुलाई  में  बहा  दिया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 101 ☆ गीत ☆ ।।बस चार दिन रैन बसेरा यही जिंदगानी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 101 ☆

☆ गीत ☆ ।।बस चार दिन रैन बसेरा यही जिंदगानी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

इस दुनिया के रैन बसेरे में चार दिन रहना है।

जीत लो बस दिल सब  का ही यही कहना है।।

तेरे कर्म   मीठे बोल  बस यही साथ जायेंगे।

मिले सबका संग साथ ये जीवन का गहना है।।

[2]

बहुत कम समय मिलता बस साथ बिताने  लिए।

मत गवां देना   इसे बस  तुम रूठने मनाने  लिए।।

शिकवा शिकायत में ये वक्त ही   न निकल जाये।

बस तैयार रहना हमेशा हर   रिश्ता निभाने लिए ।।

[3]

नज़र के फेर में तुम   नज़ारों को मत गवां देना।

खो कर  यकीन तुम सहारों को मत गवां देना।।

उठो ऊपर कितना भी पर जुड़ना जमीं के साथ।

भगा तेज नाव तुम किनारों को ही मत गवां देना।।

[4]

जीवन प्रतिध्वनि लौट कर भी आती आवाज वही है।

अच्छा बुरा झूठ सच मानअपमान का आगाज यही है।।

जैसा दोगे वैसा पाओगे यही   नियम है सृष्टि का।

अच्छे सुखी सफल जीवन का एक  ही जवाब यही है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 164 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बच्चे…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “बच्चे..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बच्चे” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

हर देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं बच्चे

कल के स्वरूप की छुपी अभिव्यक्ति हैं बच्चे ॥

“कल देश कैसा ही सपने उभारिये

अनुरूप उसके ही कदम अपने संवारिये।

जैसा इन्हें बनायेंगे, वैसा ये बनेंगे

वातावरण जो पायेंगे वैसे ही ढलेंगे ॥

पौधों की भाँति होते हैं कोमल, सरल, सच्चे।

हर देश की सबसे बड़ी संपत्ति हैं बच्चे ॥1॥

इनको सहेजिये इन्हें बढ़ना सिखाइये

पुस्तक ही नहीं जिन्दगी पढ़ना सिखाइये।

शिक्षा सही न मिली तो ये जायेंगे बिगड़

अपराध की दुनिया में पड़ेंगे ये लड़-झगड़ ॥

इनमें अभी समझ नहीं, अनुभव के हैं कच्चे

 हर देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं बच्चे ॥ 2 ॥

 *

इनके विकास की है बड़ी जिम्मेदारियाँ

शासन-समाज को सही करती तैयारियाँ।

शालाएँ हो, सुविधाएँ हो, अवसर विकास के

सद्भाव हों, सद्बुद्धि हो, साधन प्रकाश के ॥

परिवेश मिले सुखद जहाँ ढल सकें अच्छे

हर देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं बच्चे ॥3॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #219 ☆ अनुभव और निर्णय… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 219 ☆

अनुभव और निर्णय... ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है।

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #220 ☆ – भावना के दोहे… – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 220 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तेरे आनन पर लिखा, प्रिय का प्यारा नाम।

अधरों की मुस्कान ने, पिया प्यार का जाम।।

*

बिखरी  अलकें देखकर, खोए हमने होश।

छटा सुहानी लग रही, भरता इनमें जोश।।

*

मौसम तो अभिसार का, हुई सुहानी शाम।

दर्शन दे दो प्रभु मुझे, आए तेरे धाम।।

*

अरुणिम आभा की छटा, बिखर रही है खूब।

गोरी की मुस्कान में, जैसे खिलती दूब।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #201 ☆ अवध  में  आए  राम  लला… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है अवध  में  आए  राम  ललाआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 201 ☆

☆ अवध  में  आए  राम  लला.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

करेंगे  सब  का  काम  भला

अवध  में  आए  राम  लला

*

लगी  दरश  की आस  हमारी

झूम   उठी   सारी    फुलवारी

हुईं  सब  निष्फल  विघ्न-बला

अवध  में  आए   राम  लला

*

राम  हृदय  में  जिनके  बसते

वही  अवध  का मर्म समझते

देखता  अग-जग   राम-कला

अवध  में  आए  राम  लला

*

रघुनंदन   जगती   के   स्वामी

घट-घट   वासी  अन्तर्यामी

राम  से जग जीवन उजला

अवध  में  आए   राम   लला

*

राम   शरण   संतोष   पड़ा   है

द्वार  राम  के  जगत   खड़ा  है

कई जन्मों का पुण्य फला

अवध  में  आए   राम   लला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 209 ☆ रूप गणेशाचे… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 209 – विजय साहित्य ?

रूप गणेशाचे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

सगुण निर्गुण

भक्ती आणि शक्ती

लागते आसक्ती

दर्शनाची…! १

*

चौसष्ट कलांचा

पहा अधिपती

ऋद्धी सिद्धी पती

गुणाधीश…! २

*

रूप गणेशाचे

अष्ट सात्विकात

मूर्ती अंतरात

आशीर्वादी…! ३

*

वक्रतुंड कधी

कधी एकदंत

दाखवी अनंत

निजरूप…! ४

*

कृष्ण पिंगाक्षात

गजवक्त्र वसे

लंबोदर ठसे

नामजपी…! ५

*

विघ्न राजेंद्राचा

अलौकीक थाट

संकटांची‌ लाट

थोपवितो…! ६

*

विकट रूपात

गणेशाची माया

सुखशांती छाया

भक्तांमाजी…! ७

*

धूम्रवर्ण छबी

भालचंद्र कांती

देई मनःशांती

शुभंकर…! ८

*

देतसे दर्शन

गणपती‌ इथे

गजानन तिथे

पदोपदी..!९

*

अष्ट विनायकी

गुणकारी मात्रा

फलदायी यात्रा

सालंकृत…!१०

*

विघ्ननाश करी

व्यक्त प्रेम भाव

पैलतीरा लाव

नाव माझी..!११

*

रूप गणेशाचे

वर्णी कविराज

जन्मोत्सव आज

निजधामी….!१२

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “पैश्याचं झाडं…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

“पैश्याचं झाडं…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

 राम्या! रग्गड झाली बाबा तुझी शाळासुळा… आरं शाळंत जातुयास कि रोज रोज नवा नव्या खर्चानं बापाच्या सदऱ्याचा खिसाचं फाडतूयासं… आज का म्हनं नवीन वही पायजेल, उदयाला नविन कसलसं पुस्ताकं.. कंपास पेटी, पेन्सल, पट्टी , रबरं, ह्याचं रोजचं विकात घेणं असतयाचं.. काव आला बाबा तुझ्या शाळा शिकण्याचा… आरं लेका शाळतं काय  दुसरं शिकवित्यात कि न्हाई.. का नुसतं उगी आज ते आना आनि हे आना एव्हढ्यावरचं शाळा चालली व्हयं… ते बी शाळा सुरू व्हायच्या टायमाला योकदाच काय ते भाराभर घेऊन दिल्यालं असतानं पुन्हा पुन्हा कसली हि पिरपिर चालूच असती.. कवा संपायची रं हि रटरट.. इथं दिवसरात घाम गाळवा तवा कुठं घराचा खुटाना चालतूया… पैश्याचं झाडं अगदी दारात लावलेलं असल्यागत..मागन्याचं भूत कायमचं मानेवरचं बसल्यालं..खाली उतराया मागना व्हयं…काय गरज लागली कि तोड चारपाच पैश्याची पानं भागीव तुझी नडं असं सांगायला येतयं व्हयं… कष्टाबिगर पैका उगवत न्हाई.. आमच्या सारखं ढोर मेहनतीचं काम तुला पुढं करायला लागु नये म्हनुशान दोन चार बुकं शिकलास तर कुठं बी चाकरी करून चार घास सुखानं खाशिला.. म्हनुन ह्यो शाळंचा आटापिटा करायला गेलो तर गळ्यात हि नसस्ती पीडाच पडलीया बघं.. जरा म्हनुन दम खावा इळभर तर  तुझ्या शाळंचा एकेक नव्या खर्चाचा वारू चौखूर उधळलेल्या.. आम्ही बी शाळंत गेलो व्हतो.. एक दगडी काळी पाटी नि पेन्सल यावरच शिकलो शाळा सुटं पर्यंत.. कधी वही लागाया न्हाई तर कधी पुस्तकाचं नावं न्हाई.. सगळं घोकंपट्टीचा आभ्यास हुता… आजबी समधं हाताच्या बोटावर नि तोंडावर सगळं आपसूकच येतयं… नि तुमचं टकुऱ्यात तर शिरतं न्हाई पन डझनावारी वह्याचीं रद्दी वाढत जाती… आन तु एकला असतास तरी बी काय बी न कसंबी चालवून घेतलं असतं पर एकाला सोडून तुम्ही चार पाच असताना माझा कसा टिकावं लागावा रं.. एक मिळविनार आनि पाचसहा तोंड खानार..समध्यास्नी लिवता वाचता आलं म्हंजे माप रग्गड झालं… तू थोरला हाईस तवा  झाली एव्हढी शाळा लै झाली.. आता कामाधंद्याचं बघुया.. अरं बाबा बाकी सगळी सोंग करता येत्यात पन पैश्याचं सोंग न्हाई आनता येत… आनि त्याचं झाडं बी कुठं लागलेलं नसतयं.. हे तुला आता कळायचं न्हाई.. तू बाप झाला म्हंजी तवा समधं कळंल…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पाचवा : कर्मसंन्यासयोग : श्लोक १ ते १० – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पाचवा : कर्मसंन्यासयोग : श्लोक १ ते १० – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

अर्जुन उवाच :

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।१।।

कथित अर्जुन 

कर्मसंन्यास उपदेश दिधला श्रीकृष्णा मजला

तरी सांगता आचरण्याला  आता कर्मयोगाला 

कुंठित झाली माझी प्रज्ञा जावे कोण्या मार्गाला

कल्याणदायी असेल निश्चित कथन करावे तेचि मला ॥१॥

श्रीभगवानुवाच :

संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।२।।

कथित श्रीभगवान 

कर्मयोग अन् कर्मसंन्यास उभय कारीकल्याण

कर्मयोग  तयात श्रेष्ठ सुलभ तयाचे आचरण ॥२॥

*

ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते ।।३।।

*

मनी न द्वेष नच आकांक्षा तोच खरा संन्यासी

भावद्वंद्व रहिता महावीरा मुक्ती भावबंधनासी ॥३॥

*

सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: ।

एकमप्यास्थित:सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

*

फलप्राप्ती संन्यासाची तथा कर्मयोगाची

मूढ मानती सांख्ययोगी भिन्न असते तयांची

परमेशाची प्राप्ती ही तर फलप्राप्ती दोन्हीची

पंडित जाणत फला तयांच्या ही किमया ज्ञानाची ॥४॥

*

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति ।।५।।

*

सांख्य असो वा कर्ममार्गी वा परमधाम तया प्राप्ती 

दोन्हीचे फल एक जाणतो यथार्थ ज्ञानी त्याची दृष्टी ॥५॥

*

संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत: ।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।६।।

*

कर्मयोगाविना वीरा नच प्राप्ती संन्यासाची

रत ब्रह्म्याशी कर्मयोग्या प्राप्ती परमात्म्याची ॥६॥ 

*

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।७।।

*

जितेंद्रिय विशुद्धात्मा अद्वैत समस्त जीवांशी

समर्पित कर्म आचरितो राहतो अलिप्त कर्माशी ॥७॥

*

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ।।८।।

*

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।।९।।

*

श्रुती दृष्टी श्वसन गंध भोजन वाचा व्यवहार नेत्रपल्लवी

सकल क्रिया इंद्रियस्वभाव तयांसी मी ना कधी चालवी

दृढनिष्ठा ही मनात ठेवुन अलिप्त वावरी तोचि खरा योगी

कर्म ना करितो मी भाव जागवी ठायी तत्ववेत्ता सांख्ययोगी ॥८,९॥

*

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य: ।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।१०।।

*

समर्पित कर्मे परमात्म्या विनासक्तीने आचरण

अलिप्त तो पापांपासून जैसे जले कमलपर्ण ॥१०॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 182 ☆ सुरभित सुंदर सुखद सुमन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सुरभित सुंदर सुखद सुमन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 182 ☆ सुरभित सुंदर सुखद सुमन… ☆

कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं, जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है। आजकल जिस तेजी से लोग दलबदल कर रहें हैं,ऐसा लगता है मानो वैचारिक मूल्यों का कोई मूल्य ही नहीं रह गया है।

कीचड़ में धसा हुआ व्यक्ति बहुत जोर लगाने पर भी ऊपर नहीं आ पाता है। दलदल में डुबकी लगाना कोई मज़ाक की बात नहीं है लेकिन बिना मेहनत सब पाने की चाहत रखने वाला बिना दिमाग़ लगाए कुछ भी करेगा। सब मिल जायेगा पर नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।

रोज – रोज का कलह आपको भटकने के लिए कई रास्ते देगा। जब जहाँ मन पड़े चल दीजिए, आपके समर्थक आपका पीछा करेंगे, यदि कोई अच्छी जगह दिखी तो कुछ वहीं रुक कर अपना आशियाना बना लेंगे। मिलने – बिछड़ने का यह सफर दिनोदिन अनोखे रंग में रंगने लगा है। शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप दृढ़संकल्प करें और जीत न सकें। तो बस, जो सही है वही करें; उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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